16-03-2018 (Important News Clippings)
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Get ready for gender lens investing
ET Editorials
Globally, more women are becoming wealthy and also turning out to be savvy and socially-conscious investors, says a report in The Economist. A growing number of women are reported to be investing their wealth in companies that serve their core values. This is welcome. It will reduce the gender gap in wealth, and help companies that incorporate values — such as gender diversity, social and environmental goals — to attract more funds to grow. There is every reason for investors wanting to know what good or harm their money is doing to women, just as environmentally-minded investors would want to invest in green energy projects.
Boards of Indian companies must proactively recognise the trend of investors using the so-called ‘gender lens’ to make investment decisions. An internal audit to measure how they measure up would help firms shape up and reach out to the right investor. The report says if diversity in an executive team is a proxy for good management across the company, a gender lens could be a useful way to reduce risk. So, boards must put out gender-related information — the number of women employees, salary structures, attrition rates, sexual harassment policies and so on — to make themselves eligible for investment. Many women are in top positions in sectors such as banking in India. Many others are active on sustainability and ‘giving back to society’.They need to leverage this properly, draw in funds. Studies show that women are more risk-aware and less deluded about their financial competence than men. Women also tend to get financial advice to meet specific financial goals such as buying a house, unlike men who often list outperforming the market as their investment goal. But women are willing to put their money where their values are.
कृत्रिम बुद्धिमत्ता को व्यापक पैमाने पर अपनाने का वक्त
अमिताभ कांत
समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) को अपनाए जाने के तीन कारक रहे हैं। व्यापक स्तर पर समानांतर अभिकलन संसाधनों की उपलब्धता, एआई की गतिविधि से सामंजस्य बिठाने वाली बेहतर कंप्यूटर प्रणाली का विकास और इंटरनेट से संबंधित प्रचुर आंकड़ों की उपलब्धता का एआई के तीव्र विकास में खास योगदान रहा है। इनके सम्मिलित असर से इमेज लेबलिंग में त्रुटि की दर 2010 के 28.5 फीसदी से घटकर महज 2.5 फीसदी पर आ चुकी है।
पीडब्ल्यूसी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2030 तक विश्व अर्थव्यवस्था में एआई का योगदान 15.7 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच जाएगा जो चीन एवं भारत के मौजूदा साझा आउटपुट से भी अधिक होगा। वहीं एक्सेंचर की रिपोर्ट ‘रीवायर फॉर ग्रोथ’ में कहा गया है कि एआई के चलते भारत की वार्षिक वृद्धि दर में वर्ष 2035 तक 1.3 फीसदी की उछाल आ सकती है। इसका मतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में 957 अरब डॉलर की अतिरिक्त रकम आ जाएगी जो भारत के मौजूदा सकल मूल्य संवद्र्धन का 15 फीसदी होगा।
विकासशील देशों में भारत एआई का अधिकतम लाभ उठा पाने की स्थिति में है। तकनीक के मोर्चे पर हमारी मजबूत स्थिति, अनुकूल जनांकिकीय परिदृश्य और समुन्नत आंकड़ों की उपलब्धता में संरचनात्मक लाभ होने से भारत एआई के लिए कहीं बेहतर तैयार है। दरअसल वैश्विक एआई उपयोगकर्ताओं के लिए भारत के संदर्भ में आंकड़ों की विविधता एक बड़ी बाधा रही है क्योंकि एआई की मौजूदा गणना-पद्धतियों को ईंधन देने का काम आंकड़े ही करते हैं। एआई-आधारित इस्तेमाल सरकारी स्तर पर खास उपयोगी हैं क्योंकि वहां आंकड़ों की बहुलता होने के साथ गुणवत्ता भी सुनिश्चित करनी होती है।भारत एआई-आधारित स्टार्टअप की संख्या के मामले में वर्ष 2016 में जी-20 देशों के बीच तीसरे स्थान पर था। इस तरह के स्टार्टअप भी वैश्विक स्तर से अधिक वर्ष 2011 के बाद 86 फीसदी बढ़ गए थे। हालांकि यह क्षेत्र प्राथमिक रूप से एक्सेंचर, माइक्रोसॉफ्ट और एडोबी जैसी अमेरिकी कंपनियों के दबदबे में रहा है। इन कंपनियों के नवोन्मेष केंद्र भारत में भी मौजूद हैं।
दरअसल एआई के मामले में नवोन्मेष और उद्यमशीलता को बढ़ावा देना काफी अहम है। ऐसा नहीं होने पर घरेलू समाधान एवं स्थानीय उद्यमी लगातार बढ़ते अवरोधों का सामना नहीं कर पाएंगे। बड़े नेटवर्कों के सार्वभौम प्रतिरूप होने से कोई भी एआई ऐप्लिकेशन उतना ही अच्छा साबित होता है जितना बेहतर उसका डाटा होता है। लेकिन मौजूदा दौर में डाटा की उपलब्धता कुछ ही कंपनियों के हाथों में केंद्रित होती जा रही है। फेसबुक के सक्रिय मासिक उपभोक्ताओं की संख्या करीब दो अरब है। इसी तरह गूगल इंटरनेट पर होने वाले करीब 90 फीसदी तलाश का माध्यम बना हुआ है।हालांकि यूपीआई और आधार जैसे नवाचार और मोबाइल फस्र्ट उपयोग के चलते अब हमारे पास बहुत सारे विशिष्ट आंकड़े भी मौजूद हैं। हमारी जरूरतें भी खास तरह की हैं। हमें निजता के संदर्भ में नया नजरिया अपनाना चाहिए ताकि कूटबद्ध बहुपक्षीय गणना जैसी मशीनी सीख को संरक्षित रखा जा सके।
नमओपनमाइंड डॉट ऑर्ग एक ऐसा ही प्रोजेक्ट है जो प्रशिक्षण उद्देश्यों के लिए कूटबद्ध एवं अनाम आंकड़ों के इस्तेमाल का जरूरी टूल बनाने में लगा है। इस तरह निजी आंकड़े पूरी तरह निजी बने रहेंगे लेकिन मशीनी गणना पद्धति उनसे सबक हासिल कर सकेगी। एआई को अक्सर सरकारें ‘सुदूर भविष्य’ वाली तकनीक की तरह देखती हैं। सरकारों के अनुसंधान प्रभागों पर ही एआई का जिम्मा छोड़ दिया जाता है। सरकारें कई बार कोई बड़ी पहल करती हैं लेकिन उन योजनाओं को स्थानीय लोगों की जरूरतों के हिसाब से बनाया ही नहीं गया होता है। इस प्रवृत्ति को बदलने की जरूरत है।तर्कसंगत मुद्दा यह है कि गुणवत्तापरक प्रशिक्षण डाटा शामिल करने से किसी भी एआई ऐप्लिकेशन की सफलता की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में एआई के इस पहलू को समाहित करने लायक बदलाव बौद्धिक संपदा कानूनों में भी करने होंगे। विकासशील देशों को एआई का उपयोग जरूर बढ़ाना चाहिए। स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और अन्य क्षेत्रों में तो एआई का अधिक उपयोग जरूर करना चाहिए।
नीति आयोग इस तरह के कई प्रोजेक्ट चला रहा है। पहला, आयोग इसरो और आईबीएम के साथ मिलकर फसलों की उपज बढ़ाने और मृदा स्वास्थ्य को बेहतर करने में एआई समाधान तलाशने की कोशिश कर रहा है। उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों और सरकार के पास उपलब्ध अन्य आंकड़ों की मदद से यह किया जा रहा है। इसके असर और सटीकता को जांचने के लिए शुरुआत में इसे देश के 25 जिलों में लागू किया जाएगा। एआई-आधारित जानकारी को किसानों के साथ साझा किया जाएगा ताकि वे जरूरी कदम उठा सकें। आंकड़ों को ई-नाम मंडियों से भी जोड़ा जाएगा जिससे किसानों को फसल का बेहतर मूल्य मिल सकेगा।
दूसरा, नीति आयोग उद्यमियों और डेवलपरों के लिए क्षेत्रीय भाषा की एआई-निरपेक्ष भाषा प्रसंस्करण लाइब्रेरी बनाने में भी लगा है। प्रधानमंत्री ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ का आह्वïान कर चुके हैं। लोगों के बीच संवाद को बढ़ावा देने के साथ ही भाषाई विविधता को संरक्षित रखना भी इसका उद्देश्य है। आयोग एक राष्ट्रीय भाषा प्रसंस्करण प्लेटफॉर्म बनाने की संभावनाएं भी तलाश रहा है।यह प्लेटफॉर्म एआई ऐप्लिकेशन को देसी भाषाओं पर आधारित पहचान और अस्तित्व निष्कर्ष जैसे काम के लायक बनाने में मददगार होगा। इससे एआई डेवलपर स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने वाली समूची आबादी तक पहुंच बना सकेंगे और उन्हें अलग भाषाओं के लिए अलग मॉडल भी नहीं तैयार करने होंगे।
तीसरा, आयोग तस्वीरों का एक ‘बायोबैंक’ बनाने के लिए विभिन्न चिकित्सा संस्थानों के साथ मिलकर काम कर रहा है। यह बायोबैंक सीटी स्कैन, एमआरआई, अल्ट्रासाउंड और एक्सरे परीक्षणों के दौरान मिली तस्वीरों का संकलन होगा और इसके इस्तेमाल से डॉक्टर बीमारियों का जल्द पता लगा सकेंगे।ऐसी विशेषज्ञता सुपर-स्पेशिएलिटी अस्पतालों में ही मिल पाती हैं। किसी तस्वीर का स्वत: विश्लेषण करने से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) स्तर पर ही गंभीर बीमारियों की पहचान की जा सकेगी। पीएचसी अस्पतालों में बीमारियों के परीक्षण की सुविधाएं काफी कम हैं। बायोबैंक बनने से भारत में रोगों की पहचान और विश्लेषण की क्षमता रखने वाले केंद्र विकसित होंगे जिससे सरकार को भी क्षेत्रीय स्तर पर स्वास्थ्य एवं पोषण संबंधी योजनाएं चलाने में सहूलियत होगी।
चौथा, नीति आयोग सुरक्षित ब्लॉकचेन के इस्तेमाल से इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड (ईएमआर) तैयार करने का खाका पहले ही बना चुका है। इससे मरीज की निजता बनी रहेगी और लोग अपने मोबाइल फोन पर ही इसे देख सकेंगे। ब्लॉकचेन पर साझा किया जा सकने वाला ईएमआर स्वास्थ्य क्षेत्र में नवाचार को कई गुना बढ़ा सकता है। इससे स्वास्थ्य एवं जीवन बीमा का दायरा बढ़ाने, बीमा संबंधी धोखाधड़ी को न्यूनतम करने और सरकारी सब्सिडी में गड़बड़ी को खत्म किया जा सकेगा। कूटबद्ध ईएमआर डाटा को एआई समाधान से जोड़कर महामारी की आशंका और किसी इलाके में ऐंटी-माइक्रोबायल प्रतिरोध की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकेगा। इस तरह भारत के अलग राज्यों और इलाकों की जरूरतों के आधार पर खास कार्यक्रम चलाए जा सकेंगे।
पांचवां, हम अदालतों में लंबित मामलों की बड़ी संख्या कम करने के लिए भी एआई के इस्तेमाल की संभावनाएं तलाश रहे हैं। नीति आयोग अदालतों के फैसलों के विश्लेषण का एक एआई मॉडल तैयार कर रहे हैं जिससे न्यायाधीशों को मौजूदा मामलों के बारे में अंतज्र्ञान मिल सकेगा। अदालतों में तीन करोड़ से भी अधिक मामले लंबित हैं और कारोबारी सुगमता की रैंकिंग भी इससे प्रभावित हो रही है। एआई एक बुनियादी नवाचार है। यह आगे चलकर इंटरनेट या बिजली के उपयोग से कहीं अधिक बड़ा होगा। यह हरेक उद्योग और क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव लेकर आएगा। भारत को अपनी पूरी क्षमता से इसे अपनाना चाहिए।
अयोध्या के गुनहगार इतिहासकार
– केके मुहम्मद (लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उत्तरी क्षेत्र के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक हैं)
अयोध्या के स्वामित्व के संबंध में 1990 में राष्ट्रीय स्तर पर बहस ने जोर पकड़ा। इसके पहले 1976-77 में पुरातात्विक अध्ययन के दौरान अयोध्या उत्खनन में भाग लेने का मुझे अवसर मिला। प्रो. बीबी लाल के नेतृत्व में अयोध्या उत्खनन की टीम में ‘दिल्ली स्कूल ऑफ आर्कियोलॉजी से मैं एक सदस्य था। उत्खनन में मंदिर के स्तंभों के नीचे के भाग में ईंटों से बनाया आधार देखने को मिला। किसी ने इसे समग्रता के साथ नहीं देखा। एक पुरातत्वविद् की ऐतिहासिक सोच के साथ हम लोगों ने उसे निस्संग होकर देखा। उत्खनन के लिए जब मैं वहां पहुंचा तब बाबरी मस्जिद की दीवारों में मंदिर के स्तंभ थे। उन स्तंभों का निर्माण ‘ब्लैक बसाल्ट पत्थरों से किया गया था। स्तंभ के निचले भाग में 11वीं-12वीं सदी के मंदिरों में दिखने वाले पूर्ण कलश बनाए गए थे। मंदिर कला में पूर्ण कलश आठ ऐश्वर्य चिन्हों में एक है। 1992 में बाबरी ढांचा ढहाए जाने के पूर्व इस तरह के एक या दो नहीं, 14 स्तंभों को हमने देखा। पुलिस सुरक्षा में रही मस्जिद में प्रवेश मना था, लेकिन उत्खनन व अनुसंधान से जुड़े होने के कारण हमारे लिए कोई प्रतिबंध नहीं था।
प्रो. बीबी लाल के नेतृत्व में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों के अलावा दिल्ली स्कूल ऑफ आर्कियोलॉजी के हम 12 विद्यार्थी थे। करीब दो माह उत्खनन के लिए हम अयोध्या में रहे। बाबर के सेनानायक मीर बाकी द्वारा तोड़े गए या पहले से तोड़े गए मंदिरों के अंशों का उपयोग करके मस्जिद का निर्माण किया गया था। उत्खनन से मिले सुबूतों के आधार पर मैंने 15 दिसंबर, 1990 को बयान दिया कि बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर के अंशों को मैंने स्वयं देखा है। उस समय माहौल गरम था। हिंदू-मुसलमान दो गुटों में बंटे थे। कई नरमपंथियों ने समझौते की कोशिश की, परंतु राम जन्मस्थली पर विश्व हिंदू परिषद ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी।
बाबरी मस्जिद हिंदुओं को देकर समस्या के समाधान के लिए नरमपंथी मुसलमान तैयार थे, परंतु इसे खुलकर कहने की किसी में हिम्मत नहीं थी। बाबरी मस्जिद पर अपना दावा छोड़ने से विहिप के पास फिर आगे बढ़ाने के लिए कोई मुद्दा नहीं होगा, कुछ मुसलमानों ने ऐसा भी सोचा। इस तरह के विचारों से समस्या के समाधान की संभावना होती। खेद के साथ कहना पड़ेगा कि उग्रपंथी मुस्लिम गुट की मदद करने के लिए कुछ वामपंथी इतिहासकार सामने आए और उन्होंने मस्जिद नहीं छोड़ने का उपदेश दिया। उन्हें यह मालूम नहीं था कि वे कितना बड़ा पाप कर रहे हैं। जेएनयू के केएस गोपाल, रोमिला थापर, बिपन चंद्र जैसे इतिहासकारों ने रामायण के ऐतिहासिक तथ्यों पर सवाल खड़े कर दिए और कहा कि 19वीं सदी के पहले मंदिर तोड़ने का सबूत नहीं है। उन्होंने अयोध्या को ‘बौद्ध-जैन केंद्र कहा। उनका साथ देने के लिए प्रो. आरएस शर्मा, अनवर अली, डीएन झा, सूरजभान, प्रो. इरफान हबीब आदि भी आगे आए। इनमें केवल सूरजभान पुरातत्वविद् थे। प्रो. आरएस शर्मा के साथ रहे कई इतिहासकारों ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के विशेषज्ञों के रूप में कई बैठकों में भाग लिया।
इस कमेटी की कई बैठकें भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष प्रो. इरफान हबीब की अध्यक्षता में हुईं। कमेटी की बैठक भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के कार्यालय में आयोजित करने का परिषद के तत्कालीन सदस्य सचिव एवं इतिहासकार प्रो. एमजीएस नारायण ने विरोध भी किया, किंतु प्रो. इरफान हबीब ने उसे नहीं माना। पत्र-पत्रिकाओं से निरंतर संबंध रखने वाले वामपंथी इतिहासकारों ने अयोध्या की हकीकत पर सवाल उठाते हुए लगातार लेख लिखे और आम जनता में भ्रम व असमंजस पैदा कर दिया। वामपंथी इतिहासकार और उनका समर्थन करने वाले मीडिया ने समझौते के पक्ष में रहे मुस्लिम बुद्धिजीवियों को अपने उदार विचार छोड़ने की पे्ररणा दी। इसी कारण मस्जिद को हिंदुओं के लिए छोड़कर समस्या के समाधान के लिए सोच रहे साधारण मुसलमानों ने अपनी सोच में परिवर्तन कर लिया और मस्जिद नहीं देने के पक्ष में विचार करना शुरू कर दिया। साम्यवादी इतिहासकारों के हस्तक्षेप से उनकी सोच में परिवर्तन हुआ। इस तरह समझौते का दरवाजा हमेशा के लिए बंद कर दिया गया। अगर समझौता होता तो हिंदू-मुस्लिम संबंध ऐतिहासिक दृष्टि से नए मोड़ पर आ जाते और देश के सामने मौजूद कई समस्याओं का सामाजिक हल भी हो सकता था। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मुस्लिम-हिंदू उग्रपंथी ही नहीं, साम्यवादी उग्रपंथी भी राष्ट्र के लिए खतरनाक हैं।
पंथनिरपेक्ष होकर समस्या को देखने के बजाय वामपंथियों की आंख से अयोध्या मामले का विश्लेषण करके एक बड़ा अपराध किया गया। इसके लिए राष्ट्र को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। इतिहास अनुसंधान परिषद में समस्या का समाधान चाहने वाले थे, परंतु प्रो. इरफान हबीब के सामने वे कुछ नहीं कर सके। संघ परिवार की असहिष्णुता को पाकिस्तान की असहिष्णुता और आईएस के निष्ठुर कार्यों से तुलना करने में इतिहास अनुसंधान परिषद के कई सदस्य सहमत नहीं होंगे, लेकिन विरोध में बोलने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। अयोध्या मामले के पक्ष और विपक्ष में इतिहासकार और पुरातत्वविद् दो गुटों में बंटे हुए थे।
बाबरी मस्जिद ताेडने से प्राप्त हुआ महत्वपूर्ण पुरातत्व अवशेष है- ‘विष्णु हरिशिला पटल। इसमें 11वीं-12वीं सदी की नागरी लिपि में संस्कृत भाषा में लिखा गया है कि यह मंदिर बाली और दस सिरों वाले (रावण) को मारने वाले विष्णु (श्रीराम विष्णु के अवतार माने जाते हैं) को समर्पित किया जाता है। डॉ. वाईडी शर्मा और डॉ. केएन श्रीवास्तव द्वारा 1992 में किए गए निरीक्षण में वैष्णव अवतारों और शिव-पार्वती के कुशाण काल (100-300 एडी) की मिट्टी की मूर्तियां प्राप्त हुईं। 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच के निर्देशानुसार किए गए उत्खनन में करीब 50 मंदिर-स्तंभों के नीचे के भाग में ईंट से बनाया चबूतरा दिखाई पड़ा। इसके अलावा मंदिर के ऊपर का आमलका और मंदिर के अभिषेक का जल बाहर निकालने वाली मकर प्रणाली भी उत्खनन से प्राप्त हुई। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के उप्र के निदेशक की रिपोर्ट में बताया गया कि बाबरी मस्जिद के आगे के भाग को समतल करते समय मंदिर से जुड़े हुए 263 पुरातत्व अवशेष प्राप्त हुए। उत्खनन से प्राप्त सुबूतों और पौराणिक अवशेषों के विश्लेषण से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग इस निर्णय पर पहुंचा कि बाबरी मस्जिद के नीचे एक मंदिर था।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच भी इसी निर्णय पर पहुंची। उत्खनन को निष्पक्ष रखने के लिए कुल 137 श्रमिकों में 52 मुसलमान थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर पुरातत्व इतिहासकार सूरजभान मंडल, सुप्रिया वर्मा, जय मेनन आदि के अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक मजिस्ट्रेट भी शामिल थे। उत्खनन को इससे ज्यादा निष्पक्ष कैसे बनाया जा सकता था? उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी वामपंथी इतिहासकार गलती मानने को तैयार नहीं हुए। इसका मुख्य कारण यह था कि उन्होंने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के रूप में उत्खनन में भाग लिया था। इनमें तीन-चार को तकनीकी दृष्टि से पुरातत्व मालूम था, परंतु फील्ड पुरातत्व में ज्ञान या उससे परिचय नहीं था।
विज्ञान जगत की विलक्षण प्रतिभा थे स्टीफन हॉकिंग
शशांक द्विवेदी (लेखक टेक्निकल टुडे के संपादक एवं मेवाड़ यूनिवर्सिटी में डिप्टी डायरेक्टर हैं)
वैज्ञानिक समझ और अपनी असाधारण जिजीविषा के लिए विख्यात महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का निधन पूरी दुनिया के लिए अपूरणीय क्षति है। भले ही उनके जीवन पर विराम अब लगा हो, लेकिन उनकी पूरी जिंदगी ही मौत को चुनौती देते हुए ही बीती। महज 22 साल की उम्र में उन्हें मोटार न्यूरॉन नामक लाइलाज बीमारी हो गई थी जिसकी वजह से उनके शरीर ने धीरे-धीरे काम करना बंद कर दिया। तब डॉक्टरों ने कहा था कि हॉकिंग दो साल से ज्यादा जीवित नहीं रह पाएंगे, लेकिन उन्होंने न केवल डॉक्टरों की उस आशंका को धता बता दिया, बल्कि विज्ञान के जटिल और गूढ़ रहस्यों को दुनिया के सामने रखा। हॉकिंग ने ब्लैक होल और बिग बैंग सिद्धांत को समझाने में अहम योगदान दिया। कई बड़े पुरस्कारों के साथ ही उन्हें अमेरिका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भी दिया गया। उनकी मशहूर पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ कालजयी किताबों में शामिल की जाती है। वह कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान के निदेशक थे। उनकी गिनती आइंस्टीन के बाद सबसे विद्वान भौतिकशास्त्री के तौर पर होती है।
हैरानी की बात यह थी कि उनके दिमाग को छोड़कर शरीर का कोई भी भाग पूरी क्षमता से काम नहीं करता था। इसकी वजह से वह हमेशा व्हीलचेयर पर कंप्यूटर और विभिन्न तरह के गैजेट्स के जरिये ही अपने विचार व्यक्त करते थे। उनकी सबसे प्रमुख उपलब्धियों में ब्लैक होल का उनका सिद्धांत है। ब्लैक होल के संबंध में हमारी वर्तमान समझ हॉकिंग के सिद्धांत पर ही आधारित है। वर्ष 1974 में ‘ब्लैक होल इतने काले नहीं’ शीर्षक से प्रकाशित हॉकिंग के शोध पत्र ने सामान्य सापेक्षता सिद्धांत और क्वांटम भौतिकी के सिद्धांतों के आधार पर यह दर्शाया कि ब्लैक होल अल्प मात्रा में विकिरण उत्सर्जित करते हैं। हॉकिंग ने यह भी प्रदर्शित किया कि ब्लैक होल से उत्सर्जित होने वाला विकिरण क्वांटम प्रभाव के कारण धीरे-धीरे बाहर निकलता है। यह हॉकिंग विकिरण प्रभाव कहलाता है। इस विकिरण प्रभाव के कारण ब्लैक होल अपना द्रव्यमान धीरे-धीरे खोने लगते हैं और उनमें ऊर्जा का भी क्षय होता है। यह प्रक्रिया लंबे अंतराल तक चलने के बाद आखिरकार ब्लैक होल वाष्पन को प्राप्त होते हैं।
विशालकाय ब्लैक होल से कम मात्रा में विकिरण का उत्सर्जन होता है, जबकि लघु ब्लैक होल बहुत तेजी से विकिरण का उत्सर्जन करके वाष्प बन जाते हैं। ब्रह्मांड की उत्पत्ति शुरू से ही वैज्ञानिक समुदाय के लिए जिज्ञासा का विषय रही है। सभी को यह तो पता है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति लगभग 13.8 अरब साल पहले बिग बैंग से हुई, लेकिन किसी को यह नहीं पता था कि ब्रह्मांड से पहले क्या था? हॉकिंग ने दावा किया कि बिग बैंग से पहले सिर्फ एक अनंत ऊर्जा और तापमान वाला एक बिंदु था। हॉकिंग के अनुसार हम आज समय को जिस तरह महसूस करते हैं, ब्रह्मांड के जन्म से पहले का समय ऐसा नहीं था। इसमें चार आयाम थे। उन्होंने बताया था कि भूत, भविष्य और वर्तमान को तीन समानांतर रेखाएं समझें तो उस वक्त एक और रेखा भी मौजूद थी जो ऊध्र्वाधर थी। उसे आप काल्पनिक समझ सकते हैं, लेकिन हॉकिंग ने काल्पनिक समय को हकीकत बताया। उनका कहना था कि काल्पनिक समय कोई कल्पना नहीं है, बल्कि यह हकीकत है। हां आप इसे देख नहीं सकते, लेकिन महसूस जरूर कर सकते हैं।
ब्रह्मांड के रहस्यों को समझने के लिए ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ के अलावा भी उन्होंने ,द ग्रैंड डिजाइन, यूनिवर्स इन नटशेल, माई ब्रीफ हिस्ट्री, द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग जैसी कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगता है कि जब पिछले साल कैंब्रिज विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर उनकी पीएचडी का शोध पत्र अपलोड किया गया तो कुछ ही समय में साइट ठप हो गई, क्योंकि एक ही वक्त में तमाम लोग उस शोध को डाउनलोड करने में जुटे थे। इसे एक दिन में पांच लाख से ज्यादा बार डाउनलोड किया गया और कुछ ही दिनों में इसे 20 लाख बार देखा गया। लोगों में किसी वैज्ञानिक के प्रति ऐसी दीवानगी शायद ही कभी देखी गई हो। हॉकिंग ने 134 पन्नों का यह दस्तावेज तब लिखा था जब उनकी उम्र 24 वर्ष थी और वह कैंब्रिज में स्नातकोत्तर के छात्र थे। साइट पर आने से पहले 65 पाउंड खर्च करने के बाद ही हॉकिंग के शोध तक पहुंचा जा सकता था।
धरती को बचाने की उनकी चिंता भी सुर्खियों में रही। जलवायु परिवर्तन को वह गंभीर खतरा मानते थे। उन्होंने चेताया था कि अगर मानव ने अपनी आदतें नहीं सुधारीं तो बढ़ती आबादी का बोझ पृथ्वी को लील जाएगा। उन्होंने यह भी चेतावनी दी थी कि तकनीकी विकास के साथ मिलकर मानव की आक्रामकता ज्यादा खतरनाक हो गई है। यही प्रवृत्ति परमाणु या जैविक युद्ध के जरिये हम सबका विनाश कर सकती है। उनका कहना था कि कोई वैश्विक सरकार ही हमें इससे बचा सकती है, वरना एक दिन मानव जाति ही विलुप्त हो जाएगी। हॉकिंग ने कुछ समय पहले जिंदगी में तकनीक के बढ़ते दखल पर चिंता जताते हुए कहा था कि हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को लेकर बहुत उत्साहित हैं, लेकिन आने वाली पीढ़ी इसे इंसानी सभ्यता के इतिहास की सबसे खराब घटना के तौर पर याद करेगी। उनके अनुसार तकनीक के इस्तेमाल के साथ-साथ हमें उसके संभावित खतरों को भी भांपना चाहिए। उनका कहना था कि मनुष्य को पृथ्वी को छोड़कर किसी नए ग्रह पर बसने की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने ईश्वर की सत्ता को नकारा था। माना जाता है कि उनकी प्रेरणा से दुनिया भर में लाखों छात्र विज्ञान पढ़ने के लिए प्रेरित हुए।
हॉकिंग जीने की इच्छा और चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए भी हमेशा एक मिसाल के रूप में याद किए जाएंगे। वह अपने अनूठे हास्यबोध के लिए भी जाने जाएंगे और इसके लिए भी कि उन्होंने साहस के साथ यह साबित किया कि मृत्यु निश्चित है, लेकिन यह हम पर निर्भर करता है कि जीवन और मरण के बीच अपनी जिंदगी को क्या दिशा दें। हम खुद को मुश्किलों से घिरा पाकर निराशावादी नजरिये के साथ मौत का इंतजार करें या जीने की इच्छा और चुनौतियों को स्वीकार करते हुए अपने सपनों के प्रति समर्पण के साथ एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जिएं? उन्होंने शारीरिक अक्षमता को दरकिनार करते हुए प्रमाणित किया कि अगर व्यक्ति में इच्छाशक्ति हो तो वह बहुत कुछ हासिल कर सकता है। उनका जीवन हमेशा लोगों को प्रेरणा देता रहेगा।
Hawking, 1942-2018
OPINION
This great man took physics to the people,and changed the way we think about disability
Few scientists manage to break down the walls of the so-called ivory tower of academia and touch and inspire people who may not otherwise be interested in science. Stephen Hawking was one of these few. Judging by the odds he faced as a young graduate student of physics at Cambridge University, nothing could have been a more remote possibility.
When he was about 20 years old, he got the shattering news that he could not work with the great Fred Hoyle for his PhD, as he had aspired to. Around this time he was diagnosed with Amyotrophic Lateral Sclerosis, an incurable motor neurone disease, and given two years to live. Not many would have survived this, let alone excelled in the manner he did. Luckily, the type of ALS he had progressed slowly, and over time he made many discoveries that marked him among the great physicists of his time. His first breakthrough was in the work he did for his PhD thesis. The expanding universe and the unstoppable collapse of a black hole under its own gravity present two extreme spectacles for the physicist to grapple with. Inspired by Roger Penrose’s ideas on the latter, Hawking came up with a singularity theorem for the universe.
This work and its extensions, known as the Hawking-Penrose singularity theorems, brought him international acclaim. Later, along with others he formulated the laws of black hole mechanics, which resemble the laws of thermodynamics. Thinking along these lines led him to a contradiction — that this theory predicted that black holes would exude radiation, whereas in a purely classical picture nothing could escape the black hole, not even light. He resolved this contradiction by invoking quantum mechanics. The radiation of the black hole was named Hawking radiation.
There is no doubt that with Hawking’s death the world has lost an outstanding scientist. But he was not only a pathbreaker in the world of science. He came to be known to millions with the publication of A Brief History of Time , his best-selling book describing in non-technical terms the structure, development and fate of the universe. He ranks with Isaac Newton and Albert Einstein as that rare physicist who fired the popular imagination. However, while Newton and Einstein worked on broad canvases, Hawking was focussed on cosmology and gravitation. His was a life that carried to the public not only the secrets of the cosmos but also the promise of hope and human endeavour; he showed that disability need not hold a person back in the pursuit of his dreams. He leaves behind a wealth of knowledge, and also the conviction that the will to survive can overcome all odds.
जीवट की मिसाल
संपादकीय
किसी इंसान के भीतर हौसला और जीवट हो तो वह कैसे मौत को मात दे सकता है और दुनिया को नई राह दिखा सकता है, स्टीफन हॉकिंग अब हमेशा के लिए इसकी एक नायाब मिसाल रहेंगे। आठ जनवरी, 1942 को इंग्लैंड के आॅक्सफोर्ड में जन्मे हॉकिंग ने यों तो छिहत्तर साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया, लेकिन इस दौरान उन्होंने जो दिया, उसकी अहमियत के साथ वे विज्ञान के इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो गए। महज इक्कीस साल की उम्र में जब उन्हें मोटर न्यूरॉन नामक बीमारी हो गई और दिमाग को छोड़ कर शरीर ने सभी अंगों ने काम करना बंद कर दिया तो यह एक तरह से उनके सक्रिय जीवन का अंत था। उनका इलाज करने वाले डॉक्टरों ने तो यहां तक कह दिया कि अब उनके पास जीने के लिए सिर्फ दो साल हैं। लेकिन स्टीफन हॉकिंग की बुनावट ऐसे आघात के सामने लाचार हो जाने वाली नहीं थी। हौसले और इच्छाशक्ति से लबरेज हॉकिंग को दिमाग की बात को सुन कर आवाज देने वाले कंप्यूटराइज्ड वॉइस सिंथेसाइजर जैसे उन्नत उपकरणों का साथ मिला और फिर उन्होंने अपनी बीमारी से पैदा सारी चुनौतियों को पीछे छोड़ दिया।
इसी हालत में जीते हुए उन्होंने आगे मुश्किल पढ़ाई की बारह डिग्रियां हासिल कीं।
उनकी ‘अ ब्रीफ हिस्ट्री आॅफ टाइम’ सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब के रूप में जानी गई। ब्रह्मांड की गुत्थियों को समझने में दुनिया की मदद करने वाले हॉकिंग ने ‘बिग बैंग’ सिद्धांत के अध्ययन के दौरान ही 1974 में ब्लैक होल सिद्धांत की सबसे अहम खोज की। इसके अलावा, उन्होंने पहली बार विज्ञान के क्वांटम सिद्धांत और सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत को एक साथ ला दिया था। अपनी ‘थ्योरी आॅफ एवरीथिंग’ में उन्होंने बताया कि ब्रह्मांड का निर्माण साफतौर पर परिभाषित सिद्धांतों के आधार पर हुआ है। तमाम चुनौतियों का सामना करके हासिल की गई कामयाबियों के जरिए दुनिया के करोड़ों युवाओं को उन्होंने विज्ञान का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। एक बार जब उन्होंने अपने प्रशंसकों को जिज्ञासु बनने की नसीहत दी थी, तो दरअसल वे अपने ही बारे में बता रहे थे कि अपने भीतर इसी भाव की वजह से वे दुनिया की कई जटिल गुत्थियों को खोल सके। उनकी यह बात जीव के शरीर की व्याख्या को आसान बनाती है कि हमारा दिमाग एक कम्प्यूटर की तरह है और खराब हो चुके कम्प्यूटरों के लिए स्वर्ग और उसके बाद का कोई जीवन नहीं है।
एक समय वे शारीरिक रूप से जिस हालत में पहुंच गए थे, उसमें बहुत सारे लोग हार मान कर सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ देते हैं। लेकिन स्टीफन हॉकिंग ने न सिर्फ भगवान की धारणा को खारिज किया, बल्कि यह साबित किया कि इंसान के भीतर जीवट हो तो उसकी जिंदगी की कामयाबी के सूत्र इसी दुनिया में बसे हैं; स्वर्ग केवल अंधेरे से डरने वालों के लिए बनाई गई कहानी है। हालांकि अपनी किताब ‘द ग्रांड डिजाइन’ में जब उन्होंने भगवान के अस्तित्व पर सवाल उठाया था, तब धार्मिक समुदायों की ओर से उन्हें आलोचना का भी सामना करना पड़ा। यों हमेशा ही विज्ञान की दुनिया में जीने वाले स्टीफन हॉकिंग जिंदगी को खूबसूरत बनाने वाली बातों के साथ भी जीते थे। उनका कहना था कि अगर आपको आपका प्यार मिल गया तो कभी इसे अपनी जिंदगी से बाहर मत निकालना; जिंदगी दुख से भर जाएगी, अगर हम मनोरंजक नहीं होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि विज्ञान के प्रयोग हमेशा आगे बढ़ेंगे, इसके बावजूद भौतिकी के इस महान वैज्ञानिक की कमी की भरपाई शायद कभी न हो!
एक तारा न जाने कहां छुप गया
हरजिंदर, हेड-थॉट, हिन्दुस्तान
किसी बड़े वैज्ञानिक, बड़े खिलाड़ी, साहित्यकार या किसी भी क्षेत्र की आला हस्ती का हम बड़ी आसानी से मूल्यांकन कर सकते हैं। सेलिब्रिटी का दर्जा हासिल कर चुकी किसी भी शख्सीयत को आंकने और नापने के भी हमारे पास बहुत सारे पैमाने हैं। सफलता की कहानियों का भाव तय करने के भी हमारे पास बहुत से तराजू हैं। लेकिन इन सारी कसौटियों को एक साथ इस्तेमाल कर लें, तो हम स्टीफन हॉकिंग के महत्व को न तो पूरी तरह आंक सकते हैं, न माप सकते हैं और न ही उनकी उस भूमिका को पूरी तरह तौल सकते हैं, जो उन्होंने तमाम भ्रमों से ग्रस्त इस समय में निभाई है। स्टीफन हॉकिंग और उनकी भूमिका को हम तीन तरह से देख सकते हैं। एक साथ तीन तरह से। एक तरफ तो एक वैज्ञानिक है, आला दर्जे का कॉस्मोलॉजिस्ट। वह वैसा नहीं है, जैसा हम अपने आस-पास वरिष्ठ वैज्ञानिक, मुख्य वैज्ञानिक या प्रोफेसर आदि के रूप में देखते हैं। विज्ञान उसका पेशा नहीं था, बल्कि वह विज्ञान को हर पल बाकायदा जी रहा था। स्टीफन हॉकिंग जब धरती के जन्म और उसके पहले की अवधारणाओं को देते थे, तो वह सिर्फ इतना ही नहीं करते थे। वह हमारे अंधविश्वासों और हमारी भ्रांतियों का खंडन भी करते थे। स्टीफन हॉकिंग ने वैज्ञानिक सोच को जनमानस का हिस्सा बनाने का वह काम किया, जो इधर कुछ समय से वैज्ञानिकों ने पूरी तरह छोड़ दिया है। स्टीफन हॉकिंग के इसी पहलू ने उन्हें हमारे दौर की सबसे सशक्त और विश्वसनीय आवाज बना दिया था, वह भी तब, जब वह आवाज हमें सीधे उनके मुंह से नहीं, बल्कि उनकी व्हील चेयर पर लगे कंप्यूटर के स्पीकर से सुनाई देती थी।
ऐसा भी नहीं है कि एक वैज्ञानिक के रूप में उनके खाते में सिर्फ सफलताएं ही हैं। किसी भी वैज्ञानिक की तरह उन्होंने भी गलतियां कीं, और एक अच्छे इंसान की तरह जरूरत पड़ने पर उन्हें स्वीकारा भी। उन्होंने कहा था कि ब्लैक होल सूचनाओं को नष्ट कर देता है, वह गलत साबित हुए। उन्होंने कहा कि छह हजार प्रकाश वर्ष दूरी के हमेशा एक्स-रे छोड़ने वाला साइनस एक्स-1 कोई ब्लैक होल नहीं है। बाद के अध्ययन में पता लगा कि यह ब्लैक होल ही है। और सबसे बड़ी गलती हिग्स बोसोन को लेकर हुई। 1964 में उनके और इस कण की अवधारणा पेश करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक पीटर हिग्स के बीच इस बात पर काफी बहस हुई। स्टीफन हॉकिंग का कहना था कि इस कण को हम कभी नहीं पा सकेंगे। यह बहस तब और तल्ख हो गई, जब पीटर हिग्स ने कहा कि स्टीफन हॉकिंग को सेलिब्रिटी का दर्जा हासिल है और इस बहस में वह इसी का दुरुपयोग कर रहे हैं। लेकिन स्वीडन में बने लॉर्ज हेड्रॉन कोलाइडर ने 2012 में इस कण को खोज निकाला। यह खबर जब स्टीफन हॉकिंग को दी गई, तो उन्होंने गलती स्वीकारी और कहा कि पीटर हिग्स को इसके लिए नोबेल सम्मान मिलना चाहिए। और सचमुच एक साल बाद ही पीटर हिग्स नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए। उनके सेलिब्रिटी स्टेटस पर टिप्पणी करके पीटर हिग्स ने भले ही अपनी कुंठा जगजाहिर कर दी हो, लेकिन माफी मांगकर स्टीफन हॉकिंग ने अपनी महानता स्थापित कर दी। अंधविश्वासों को तोड़ने वाले को खुद के जीवन में कट्टरता से किस तरह दूर रहना चाहिए, स्टीफन हॉकिंग इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं।
स्टीफन हॉकिंग को मिला सेलिब्रिटी का दर्जा उनके जीवन का एक दूसरा पहलू है। उन्हें देखने का एक दूसरा तरीका। इतिहास में लोकप्रिय नेता, अभिनेता और साहित्यकार तो बहुत हुए हैं, लेकिन लोकप्रिय होने वाले वैज्ञानिकों की संख्या बहुत कम है। स्टीफन हॉकिंग के अलावा कुछ ही नाम याद आते हैं। जैसे- आईजक न्यूटन, आर्किमिडीज, थॉमस एडीसन, अल्बर्ट आइंस्टीन वगैरह। हो सकता है कि कुछ लोग इसमें कुछ और नाम जोड़ना चाहें, लेकिन फिर भी यह संख्या उंगलियों पर गिनी जाने लायक ही होगी। दूसरी तरफ अगर आप पिछली एक-दो सदी के दस-बीस बड़े वैज्ञानिकों की सूची बनाएं, तो उसमें शायद ही स्टीफन हॉकिंग का नाम आ पाए। आखिर वह क्या चीज है, जो स्टीफन हॉकिंग को जितना बड़ा वैज्ञानिक नहीं बनाती, उससे कहीं ज्यादा लोकप्रियता उन्हें देती है, उन्हें उससे कहीं ज्यादा विज्ञान की विश्वसनीय आवाज बनाती है? आज के दौर के सभी वैज्ञानिकों में सबसे अलग चीज जो स्टीफन हॉकिंग में थी, वह था उनका कम्युनिकेटर होना। उन्होंने अपने विज्ञान को सिर्फ शोध-पत्रों और अकादमिक सेमिनारों तक ही सीमित नहीं रखा, उसे वह जनता के बीच लेकर गए, यहां तक कि बच्चों के बीच भी। विज्ञान के बारे में आम लोगों से लगातार संवाद करते रहना उनकी आदत थी, वह भी तब, जब कुदरत ने संवाद का सबसे महत्वपूर्ण तंत्र उनसे छीन लिया था। उनकी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ टाइम इतिहास में विज्ञान की पहली ऐसी किताब बनी, जिसकी करोड़ों प्रतियां बिकीं। शायद सबसे ज्यादा पायरेसी भी इसी किताब की हुई। यह आज भी इंटरनेट पर सबसे ज्यादा डाउनलोड की जाने वाली किताब है। हालांकि ईष्र्यावश कुछ लेखक यह भी कहते हैं कि यह सबसे ज्यादा बिकने और सबसे कम पढ़ी जाने वाली किताब है।
स्टीफन हॉकिंग के जीवन का तीसरा पहलू है, उनकी कामयाबी की कहानी। विपरीत हालात में सफल होने वाले लोगों की कहानियों से तो पूरा इतिहास भरा पड़ा है। लेकिन स्थितियां जब लगातार हाथ से निकल रही हों, उसके बावजूद लगातार पहले से बड़ी कामयाबी की ओर बढ़ने का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण शायद हमारे पास नहीं है। वह जब 21 बरस के थे, तो पता पड़ा कि उन्हें मोटार न्यूरॉन डिजीज है। इस रोग में शरीर के एक-एक अंग धीरे-धीरे काम करना बंद कर देते हैं। शुरू में डॉक्टरों ने यह तक कह दिया था कि वह दो साल से ज्यादा जीवित नहीं रहेंगे। लेकिन यह स्टीफन हॉकिंग का जज्बा ही था कि उसके बाद के 55 साल उनके जीवन के सबसे सक्रिय और सबसे उत्पादक साल रहे। आज हम स्टीफन हॉकिंग को उनके शुरुआती 21 साल की वजह से नहीं, बल्कि बाद के 55 साल की वजह से जानते हैं। और इसी के साथ उनकी विनम्रता देखिए, हर बार जब इस रोग का जिक्र आया, तो स्टीफन हॉकिंग ने यही कहा कि इस रोग ने उनकी कामयाबी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, इसी के बाद से उन्होंने विज्ञान को ज्यादा गंभीरता से लेना शुरू किया। हमें बहुत ठीक से पता नहीं है कि इस रोग की यह भूमिका कितनी बड़ी थी, लेकिन कहा जाता है कि जो अपनी कमी को अपनी खूबी मान लेता है, उसे कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता। स्टीफन हॉकिंग के जीवन से सीखने के लिए बहुत कुछ है।