15-11-2019 (Important News Clippings)
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Unaffordable Shortage Of Women Geeks
ET Editorials
The share of women in science, technology and mathematics is low globally, and more so in India. A 2018 study found that in India, women accounted for only 14% of the 2.8 lakh scientists in research and development institutions. India has the largest cohort in the world of those aged less than 30 years, about half of them women. If women keep off science, technology, engineering and mathematics (STEM), India would lose about half its potential firepower in the knowledge economy. This is over and above forgoing the positive social changes that enhanced women’s participation in what is traditionally viewed as a male domain would bring about.
In India, there is no dearth of women teaching science and maths in schools and colleges, the decline in their participation is at the doctoral and professional stages. Social and cultural factors, relating to her ascribed role as chief caretaker of the family and chief caregiver for the aged and the infirm, drive this drop, aided by stereotypes of differential domain capability of the sexes.
A study found that 81% of women in STEM reported experiencing gender bias in performance evaluation. Challenging societal and cultural norms takes time and effort. Encouraging girls to take up science and maths, ensuring their participation in innovative ventures, be it the Atal Tinkering Labs in schools or science fairs, can help girls overcome the perception battle. Work spaces need to be redesigned to suit women’s requirements.
Institutions can help mentoring programmes at schools and colleges. Greater focus on women role models can help address the perception challenges. The new education policy must focus not only on getting more girls to opt for STEM but also to retain them through the educational life cycle all the way into research and development.
जेलों में बंद गरीब- निर्दोषों पर भी हो जन – विमर्श
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में सरकार द्वारा निजता के अधिकार के उल्लंघन को लेकर कभी ‘आधार’ की वैधानिकता तो कभी फोन-टेपिंग का मामला अक्सर उठता है। संविधान निर्माताओं ने इसे मौलिक अधिकार में नहीं रखा, लेकिन अदालत ने अनुच्छेद-21 के ‘जीवन के अधिकार’ का विस्तार करते हुए पहले कहा कि इस अधिकार में ‘गरिमा से जीवन’ का अधिकार शामिल है। फिर सन 2017 में नौ-सदस्यीय बेंच ने निजता को भी गरिमा का अभिन्न अंग मानकर मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया। ताजा खुलासे के बाद वॉट्सएप के जरिये फोन टेपिंग का मामला व्यक्तिगत आजादी और निजता का बड़ा उल्लंघन माना जा रहा है और संसद में भी इस पर विपक्ष हंगामा करने की योजना बना रहा है। परंतु आपको मालूम है कि पिछले कई दशकों से भारत की जेलों में जो लोग बंद हैं, उनमें हर तीन में से दो विचाराधीन कैदी होते हैं। इनमें से अधिकांश विचाराधीन कैदी ‘अपने हर अधिकार से वंचित’ होकर सलाखों के पीछे सिर्फ इसलिए हैं, क्योंकि इनके पास वकील को देने के लिए पैसे नहीं होते। क्या आपको यह भी ज्ञात है कि इन विचाराधीन कैदियों में दो-तिहाई अदालत से निर्दोष करार दिए जाते हैं। उन्हें मुल्क का सिस्टम बिना किसी कसूर के सारे अधिकार से वंचित करता हुआ सलाखों के पीछे ठूंस देता है। कहने की जरूरत नहीं कि देश के अधिकांश राज्यों में स्थिति इतनी खराब है कि अगर सात व्यक्ति जेल में हैं तो केवल एक ही सजायाफ्ता है, बाकी छह विचाराधीन कैदी। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार इस देश में सजा की न्यूनतम दर मात्र नौ प्रतिशत है, यानी जो लोग पकड़े जाते हैं और महीनों जेल में विचाराधीन कैदी बनकर सड़ते हैं, उनमें भी हर दस में से केवल एक ही अदालत द्वारा दोषी पाया जाता है। इसके उलट, अगर केरल पुलिस ने दस लोगों को अभियुक्त या बंदी बनाया है तो उनमें से नौ को सज़ा मिलनी तय है, क्योंकि ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार वहां सजा की दर 89% है। वैसे तो भारत के संविधान के पहले चार शब्द हैं ‘हम भारत के लोग’। लेकिन, आंकड़े बताते हैं कि दो भारत हैं। एक : ‘गरीब हम’ जो वकील को फीस देकर अपनी जमानत नहीं करा सकता, लिहाज़ा जेल में रहता है, दूसरा ‘अमीर हम’ जो अपने फोन के संदेश दूसरे को ज्ञात होने को प्रजातंत्र का चीरहरण बताता है और संसद व सुप्रीम कोर्ट चिंतित हो जाते हैं।
फैसला राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा का प्रतीक
प्रदीप सिंह, (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
जिस देश की आजादी के आंदोलन का लक्ष्य रामराज्य की स्थापना हो उसी देश में राम के जन्म स्थान के लिए करीब पांच सौ साल संघर्ष करना पड़े तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या फैसला पूरे हिंदू समाज को निराशा और अंधेरे से निकालने वाला है। हिंदुओं के लिए यह मुद्दा जमीन के एक टुकड़े का नहीं है। यह उनकी सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा हुआ है। राम किसी एक धर्म के नहीं, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के आधार हैं। राम के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना कठिन है।
विवादित भूमि के मालिकाना हक पर अदालती फैसले से क्या हिंदुओं को जमीन का एक टुकड़ा मिला है। जी नहीं। इससे इस देश को अपनी राजनीतिक-सांस्कृतिक पहचान मिली है। वह पहचान जिसे आजादी के बाद समाजवाद की स्थापना की खातिर विस्मृत कर दिया गया था, जिसे यूरोपीय और भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने एक विकृति की तरह निरुपित किया। भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म की बात करना प्रतिगामी, रूढ़िवादी और धर्मनिरपेक्षता के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा के रूप में पेश किया गया। हिंदू विरोध ही धर्मनिरपेक्षता की सबसे बड़ी कसौटी बन गई। इससे बहुसंख्यक आबादी के मन में यह बात घर कर गई कि वे अपने ही वतन में दोयम दर्जे के नागरिक बन गए हैं।
अयोध्या में जिसने भी नौ नवंबर से पहले रामलला विराजमान के दर्शन किए होंगे, वह कलेजे पर पत्थर रखकर ही लौटा होगा। कुछ इतिहासकारों की नजर में शिकागो की विश्व धर्म संसद में कही स्वामी विवेकानंद की बातों की भी कोई अहमियत नहीं। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘हिंदू धर्म ने एक धर्म के रूप में दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकार्यता सिखाई है। इसीलिए यहां इतने धर्म आए और सब भारतीय समाज में समाहित हो गए। इस देश ने किसी धर्म का विरोध नहीं किया।’
राम जन्मभूमि हिंदुओं के लिए एक पावन स्थान है। उसे हिंदुओं को लौटाकर किसी से कुछ छीना नहीं गया, बल्कि इतिहास की उस एक गलती को सुधारा गया है जो बहुत पहले ही सुधार ली जानी चाहिए थी। आजादी से पहले तो अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों को लड़ाया। उसके बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं। 1934 में अयोध्या में हुए दंगे में विवादित ढांचे के गुंबद को नुकसान पहुंचा तो प्रशासन ने उसकी मरम्मत का पैसा हिंदुओं से यह कहकर वसूला कि यह तोड़फोड़ के अपराध की सजा है। 1934 से निकलिए और 1994 में आइए।
पीवी नरसिंह राव की सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत राष्ट्रपति को मिले अधिकार का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह बताए कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के निर्माण के पहले क्या वहां कोई हिंदू मंदिर या कोई हिंदू धार्मिक ढांचा था? सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले में इस सवाल का जवाब देने से इन्कार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक इसका जवाब देना एक पक्ष (हिंदू) की हिमायत करना होगा जो धर्मनिरपेक्षता के लिए ठीक नहीं है।
बात यहीं तक सीमित नहीं रही। बहुमत का फैसला मुख्य न्यायाधीश वेंकटचेलैया और जीएन रे के लिए जस्टिस जेएस वर्मा ने लिखा। उन्होंने लिखा, ‘हिंदुओं को कामचलाऊ मंदिर में पूजा के अधिकार से वंचित किया जाना उचित है, जो उन्हें छह दिसंबर से पहले हासिल था।’ उन्होंने यह भी लिखा, ‘हिंदुओं को यह सलीब अपने सीने पर लगाकर चलना होगा, क्योंकि जिन शरारती तत्वों ने ढांचे को गिराया, वे हिंदू धर्म के अनुयायी माने जाते हैं।’ दुनिया के किसी देश में क्या ऐसा संभव है कि बहुसंख्यक समाज अपने सबसे बड़े आराध्य की पूजा से सजा के तौर पर वंचित कर दिया जाए? इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी फैसले में माना कि विवादित ढांचे के ध्वंस के लिए पूरे हिंदू समाज को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इस फैसले से ही मुस्लिम पक्ष को यह हक मिला कि वह यह देख सके कि राम जन्म स्थान पर यथास्थिति में कोई बदलाव तो नहीं आया? इसका मुस्लिम पक्ष ने कैसा लाभ उठाया, इसका एक उदाहरण रामलला विराजमान के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास जी ने दिया। उनके मुताबिक टेंट के पास तुलसी के दो छोटे पौधे उग आए थे। मुस्लिम पक्षकारों ने उन्हें यह कहकर उखड़वा दिया कि इससे यथास्थिति बदल जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने देश के बहुसंख्यक समाज को यह यकीन दिलाया कि धर्मनिरपेक्षता की सूली पर हमेशा उसे ही नहीं चढ़ाया जाएगा। फैसले से पहले और फैसले के बाद टेंट में रामलला विराजमान को देखने की लोगों की दृष्टि बदल गई है। रामलला को टेंट में देखकर जो खून के आंसू रोते थे, वे आज उसी टेंट में उन्हें देखने के बावजूद खुश हैं। अब उन्हें लगता है कि रामलला का यह टेंटवास रूपी वनवास जल्द खत्म होगा। फैसले के तीन दिन पहले से मैं अयोध्या में था और दो दिन बाद तक रहा। इस दौरान देश के तमाम प्रांतों से हजारों भक्त अयोध्या में थे। फैसले के बाद किसी के चेहरे पर हार्दिक खुशी की चमक थी तो किसी के भाव गूंगे के गुड़ की तरह।
वामपंथी इतिहासकारों को समय-समय पर भारत और भारत के बाहर से भी भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के बारे में उनके पूर्वाग्रह का जवाब मिलता रहा है। प्रसिद्ध नाट्य समालोचक विलियम आर्चर ने भारतीय संस्कृति पर आक्रमण करते हुए भारतीय दर्शन, धर्म, काव्य, चित्रकला, मूर्तिकला, उपनिषद, रामायण और महाभारत को अवर्णनीय बर्बरता का घृणास्पद स्तूप कह दिया था। उसका जवाब देने के लिए विख्यात विद्वान एवं तंत्र-दर्शन के व्याख्याता सर जॉन वूड्रॉफ ने ‘क्या भारत सभ्य है?’ शीर्षक से एक किताब लिखी। उसमें उन्होंने कहा कि भारतीय सभ्यता संकट के दौर से गुजर रही है। इसका विनाश पूरी दुनिया के लिए विपत्तिकारक होगा। पुस्तक का सार यह था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करना भारत के लिए ही नहीं पूरी मानव जाति के लिए परम आवश्यक है।
अयोध्या पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारतीय सभ्यता की रक्षा की दिशा में उठा बहुत महत्वपूर्ण कदम है। इसे कानूनी दांव-पेच, जमीन, हिंदू-मुसलमान या हार-जीत के चश्मे से देखना इसकी महत्ता को घटाना होगा। यह फैसला भारतवासियों को एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर लौटने का का अवसर देता है। सुप्रीम कोर्ट की अपनी सीमा है। वह इतना ही कर सकता था। अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इस अवसर का लाभ उठाएं और आगे बढ़ें। क्या और क्यों हुआ, यह सब भूलकर इस पर ध्यान दें कि आगे क्या करना है? यह पीढ़ी भाग्यशाली है कि उसे यह दिन देखने का अवसर मिला। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जीवन में उन सब बातों के प्रतीक हैं जो शुभ, सुंदर और नैतिक हैं।
Date:15-11-19
सीजेआई भी आरटीआई के अधीन
संपादकीय
देश की सबसे बड़ी अदालत का यह फैसला पारदर्शी प्रशासन के पक्ष में एक बड़ी जीत है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना अधिकार कानून के अधीन होगा। उच्चतम न्यायलय की संविधान पीठ के इस फैसले से स्पष्ट हो गया कि 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह सही निर्णय दिया था कि शीर्ष अदालत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत आना चाहिए। यह निर्णय देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ किया था कि पारदर्शिता से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होती, लेकिन उच्चतम न्यायालय के महासचिव इससे सहमत नहीं हुए और उन्होंने इस फैसले को चुनौती दी। इसकी बड़ी वजह यही रही कि उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय के आदेश से असहमत थे। इस असहमति के चलते एक तरह से खुद उच्चतम न्यायालय मुकदमेबाजी में उलझा। इससे बचा जाता तो बेहतर होता, क्योंकि सूचना के अधिकार को निजता के अधिकार में बाधक नहीं कहा जा सकता।
यह अच्छा नहीं हुआ कि दिल्ली उच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले पर उच्चतम न्यायालय को मुहर लगाने में नौ साल लग गए। देर से ही सही, इस मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ इस निर्णय पर पहुंचना स्वागतयोग्य है कि पारदर्शिता और उत्तरदायित्व का निर्वहन साथ-साथ किया जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि इस पीठ में वर्तमान मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ वे तीन न्यायाधीश भी शामिल थे जो भविष्य में उनके उत्तराधिकारी बन सकते हैं।
चूंकि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तो के साथ ही सूचना अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह देखना होगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं? यह आशा की जानी चाहिए कि इस फैसले का असर कोलेजियम के कामकाज को भी पारदर्शी बनाएगा। आखिर जब खुद उच्चतम न्यायालय यह मान चुका हो कि कोलेजियम व्यवस्था को दुरुस्त करने की जरूरत है तब फिर उसके कामकाज को पारदर्शी बनाने की दिशा में आगे बढ़ा ही जाना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना अधिकार कानून के तहत लाने वाला फैसला यह एक जरूरी संदेश दे रहा है कि लोकतंत्र में कोई भी और यहां तक कि शीर्ष अदालत के न्यायाधीश भी कानून से परे नहीं हो सकते। बेहतर हो कि इस संदेश को वे राजनीतिक दल भी ग्रहण करें जो इस पर जोर दे रहे हैं कि उन्हें सूचना अधिकार कानून के दायरे में लाना ठीक नहीं। यह व्यर्थ की दलील है। इसका कोई औचित्य नहीं कि राजनीतिक दल सूचना अधिकार कानून से बाहर रहें। राजनीतिक दलों का यह रवैया लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों के विरुद्ध है।
खाद्य तेल की कमी
संपादकीय
उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय ने कृषि मंत्रालय से आग्रह किया है कि वह खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए एक योजना तैयार करे। यह अनुरोध आर्थिक दृष्टि से तार्किक प्रतीत होता है और इस पर तत्काल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। खाद्य तेल की जरूरत पूरी करने के लिए आयात पर हमारी निर्भरता बढ़कर 65 से 70 फीसदी तक हो गई है। कच्चे तेल और सोने के बाद खाद्य तेल देश का सर्वाधिक आयात किया जाने वाला उत्पाद है। मूल्य निर्धारण नीतियों और टैरिफ ने तिलहन उत्पादन को आर्थिक रूप से अव्यवहार्य बना दिया। इसने घरेलू तिलहन प्रसंस्करण उद्योग को भी नुकसान पहुंचाया। स्थानीय स्तर पर तिलहन पेराई क्षमता का बड़ा हिस्सा या तो बेकार है या फिर उसका क्षमता से कम इस्तेमाल हो रहा है। खली निर्यात पर भी नकारात्मक असर हुआ है।
यह पहला अवसर नहीं है जब व्यापक इस्तेमाल की ऐसी अनिवार्य वस्तु के लिए हमारी आयात निर्भरता पर ध्यान आकृष्ट किया गया हो। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी इस वर्ष के आरंभ में अपने बजट भाषण में तिलहन के क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त करने की बात कही थी। उन्होंने दलहन का उदाहरण दिया था जहां हम यह उपलब्धि हासिल कर चुके हैं। बहरहाल, एक बात अक्सर भुला दी जाती है कि तिलहन और दलहन दो अलग-अलग चीजें हैं। इनकी चुनौतियां अलग हैं और इनका उत्पादन बढ़ाने के लिए अलग रुख अपनाने की आवश्यकता है। यह सही है कि दोनों नीतिगत खामियों और गलत बाजार हस्तक्षेप के शिकार हैं। इन्हें लेकर प्रतिक्रियाएं भी अलग-अलग रही हैं। ऐसा मोटे तौर पर इसलिए हुआ क्योंकि बाहरी कारक जिम्मेदार रहे। खासतौर पर उपलब्धता और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मूल्य रुझान। दालों की घरेलू कीमतें आयात शुल्क में नियमित बदलाव के बावजूद अप्रभावित रहीं क्योंकि वैश्विक बाजार में उनकी आपूर्ति सीमित थी। यह बात तिलहन पर लागू नहीं होती क्योंकि उसकी उपलब्धता प्रचुर है। यही कारण है कि किसान तिलहन उत्पादन बढ़ाने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखते।
अच्छी बात है कि तिलहन उत्पादन बढ़ाने वाली तकनीक मौजूद है। शोध क्षेत्र और आम किसान के खेत में होने वाले उत्पादन में भारी अंतर इसका स्पष्ट प्रमाण है। बहरहाल, तिलहन उत्पादक इस तकनीक में निवेश करना नहीं चाहते क्योंकि मौजूदा उपभोक्तान्मुखी और उत्पादक विरोधी नीति में उन्हें पर्याप्त प्रतिफल को लेकर अनिश्चितता नजर आती है। खाद्य तेल में आत्म निर्भरता हासिल करने के लिए उपज का आकर्षक मूल्य आवश्यक है। सन 1980 के आखिर और सन 1990 के शुरुआती वर्षों में उच्च कीमतों की बदौलत भारत दुनिया के सबसे बड़े खाद्य तेल आयातक से शुद्घ निर्यातक तक का सफर तय करने में कामयाब रहा था।
सन 1986 में इसे पीली क्रांति का नाम देते हुए तिलहन के आयात, निर्यात और घरेलू मूल्य निर्धारण से संबंधित नीतियां बनाई गई थीं। इस मिशन के तहत तिलहन और खाद्य तेल कीमतों को एक तय दायरे में ऊपर-नीचे होने दिया गया। इस दौरान उपभोक्ताओं और उत्पादकों दोनों के हितों का ख्याल रखा गया। बाजार हस्तक्षेप केवल तभी किया गया जब कीमत तय दायरे से बाहर गईं। खेद की बात है कि इस मिशन की स्वायत्तता धीरे-धीरे समाप्त कर दी गई और सन 1990 के दशक के मध्य के बाद देश एक बार फिर खाद्य तेल के मामले में आयात पर निर्भर होने लगा। मूल तकनीक मिशन और उसी तरह की शक्तियों के प्रयोग तथा मूल्य निर्धारण नीति की सहायता से पीली क्रांति को एक बार फिर अंजाम दिया जा सकता है। ऐसा करके हम एक बार फिर खाद्य तेल के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकते हैं।
पारदर्शिता का तकाजा
संपादकीय
कानून से ऊपर कोई नहीं है। यह टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले पर फैसला देते हुए की जिसमें उसके प्रमुख न्यायाधीश के कार्यालय को भी आरटीआइ यानी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने की मांग की गई थी। हालांकि यह एक आम व्यवस्था है कि संविधान और कानून की कसौटी पर देश के सभी नागरिक और समूची व्यवस्था को संचालित करने वाला हरेक व्यक्ति बराबर है, भले ही वह कितने भी ऊंचे पद पर या विशिष्ट क्यों न हो, मगर यह भी सच है कि कुछ मामलों में महज धारणा और स्थापित परंपराओं की वजह से किसी व्यक्ति या पद को लेकर रियायत का रुख अपनाया जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को आरटीआइ कानून के दायरे में लाया जाए या नहीं, इसी धारणा की वजह से पिछले कई सालों से ऊहापोह या विचार का विषय बना हुआ था। लेकिन बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह साफ कर दिया कि शीर्ष अदालत के प्रमुख न्यायाधीश का कार्यालय अब सूचनाधिकार कानून के दायरे में आएगा। इससे न सिर्फ जवाबदेही और पारदर्शिता में इजाफा होगा, बल्कि न्यायिक स्वायत्तता भी मजबूत होगी।
गौरतलब है कि जब आरटीआइ कानून लागू हुआ था, तभी उसमें यह स्पष्ट व्यवस्था थी कि ‘कुछ अपवादों को छोड़ कर’ यह सब पर लागू होता है। यानी कुछ खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित संवेदनशील जानकारियों के अलावा अमूमन सभी मामलों में इस कानून के तहत सूचना देनी ही पड़ेगी। लेकिन न्यायपालिका के मामले में कोई स्पष्ट स्थिति सामने नहीं आ पा रही थी।
हालांकि सन 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में साफतौर पर कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है और न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है। अब अपने ताजा फैसले में अदालत ने यही कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय एक ‘पब्लिक अथॉरिटी’ यानी सार्वजनिक उपक्रम है। इसके सभी न्यायाधीश भी आरटीआइ के दायरे में आएंगे।
इसके बावजूद इसमें पहले से जारी गोपनीयता बरकरार रहेगी। दरअसल, आरटीआइ की अहमियत जगजाहिर रही है और बीते कई सालों से लगातार इसके जरिए शासन तंत्र में पारदर्शिता कायम करने से लेकर गोपनीयता के नाम पर छिपाई गई कई जानकारियां सामने आती रही हैं। लेकिन ऐसे भी कुछ मामले सामने आए जब सूचना और निजता के सिद्धांत के बीच टकराव की स्थिति बनती दिखी।
पिछले कुछ सालों के दौरान ऐसे सवाल भी उठे कि कुछ मामलों में आरटीआइ को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। शायद इसी के मद्देनजर अदालत ने आगाह किया कि न्यायपालिका के मामले में अगर आरटीआइ के जरिए जानकारी मांगी जाती है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसका इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता और पारदर्शिता के मसले पर विचार करते समय न्यायिक स्वतंत्रता को ध्यान में रखना होगा। न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और स्थानांतरण के मामले में प्रक्रिया संबंधी सूचना देने के सवाल को बहस का विषय माना गया था।
लेकिन निजता के दायरे को अगर छोड़ दिया जाए तो न्यायाधीशों के तबादले और पदोन्नति की प्रक्रिया में पारदर्शिता की अपेक्षा की गई थी। शायद यही वजह है कि अदालत ने पारदर्शिता के समांतर निजता के अधिकार को भी एक अहम चीज माना और प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से सूचना देते वक्त उसके संतुलित होने की अपेक्षा पर जोर दिया। अब यह माना जा रहा है कि इस बेहद अहम मसले पर छाई धुंध साफ हो सकेगी।
The speed of justice
The performance of fast-track courts was mixed. The new special courts should take that record into account.
Bibek Debroy, [Chairman, Economic Advisory Council to the PM]
The Eleventh Finance Commission’s report was submitted in 2000 and its recommendations were for the period between 2000 and 2005. The report said, “We have observed that there is a pendency of about two crore cases in the district and subordinate courts of the states. We are providing a grant of Rs 502.90 crore for creation of additional courts specifically for the purpose of disposing of the long-pending cases… This will enable the states to create 1,734 new additional courts.” This provision was based on an estimated cost of Rs 29 lakh for each additional court.
Though the Eleventh Finance Commission didn’t use the expression, these 1,734 courts were fast track courts (FTCs). The state governments were supposed to establish FTCs after consulting the high courts. The term for the schemes recommended by the Finance Commission for FTCs ended on March 31, 2005. By that date, state governments had notified 1,711 FTCs, of which 1,562 were functional. The performance of these courts varied widely across states. The all-India average of cases disposed per month by a FTC was 15. Originally, the cases disposed per month was meant to be a per judge norm — and not a per FTC norm.
In Brij Mohan Lal versus Union of India, the Supreme Court instructed that one shouldn’t disband FTCs overnight. Hence, the Union government approved Rs 509 crore for the 1,562 functional FTCs to continue till March 31, 2010; this deadline was extended by the year. In 2012, in the Brij Mohan Lal case again, the Supreme Court observed, “The Union of India has stated that it would not, in any case, finance expenditure of the FTC Scheme beyond 30th March, 2011 but some of the states have resolved to continue the FTC Scheme up to 2012, 2013 and even 2016. A few states are even considering the continuation of the FTC Scheme as a permanent feature… This, to a large extent, has created an anomaly in the administration of justice in the states and the entire country. Some of the states would continue with the FTC scheme while others have been forced to discontinue or close it because of non-availability of funds. Being a policy decision which has already taken effect, we decline to strike down the policy decision of the Union of India vide letter dated 14th September, 2010 not to finance the FTC Scheme beyond 31st March, 2011. The states which are in the process of taking a policy decision on whether or not to continue the FTC Scheme as a permanent feature of administration of justice in the respective States are free to take such a decision.”
On balance, were the FTCs a good idea? That is tough to say. Their performance varied across states. Up to a maximum of Rs 80 crore per year, till 31st March 2015, the Centre provided a matching grant to states for the FTCs. Then along came the Fourteenth Finance Commission, for 2015-2020. There was a Rs 4,144 crore proposal for grants-in-aid from the Department of Justice to FTCs, in addition to grants for additional courts and family courts. On December 31, 2018, there were 699 FTCs (some of the courts that were established earlier had closed down). These were for cases against women, children, senior citizens, differently-abled, those with terminal ailments and civil property disputes that were more than five years old. The crime data for 2017 has been published recently. “Crime in India” has information on the IPC crimes tried by the FTCs. The SLL (special and local law) crimes are unlikely to be transferred to FTCs. But yes, those data does not include civil cases handled by FTCs. When will one think that a court is fast track? Probably, when a court disposes the case transferred to it within a year.
In 2017, FTCs in Jharkhand, Karnataka, Madhya Pradesh, Rajasthan and Tamil Nadu disposed off at least half their cases within one year. Chhattisgarh and Punjab missed the cut marginally. If the cut-off is changed from one year to three years, a few other states — Gujarat, Haryana, Telangana, West Bengal and Delhi — will not have poor records. However, the picture in some states is dismal. For example, FTCs in Bihar settled 6,704 cases in 2017. Two thousand five hundred and seven of these cases lasted more than 10 years and 1,655 cases took between five and 10 years. There is nothing “fast” about these courts. Between 2016 and 2017, some definitions and headings in “Crime in India” have changed. Therefore, a comparable table doesn’t exist in last year’s version. But trends aren’t likely to be different.
There is now (2019) a scheme for fast track special courts (FTSCs) to adjudicate on rape and POCSO (Protection of Children against Sexual Offences) cases. “The 1,023 FTSCs will dispose of 166,882 cases of Rape and POCSO Act, that are pending trial in various courts.There are 389 districts in the country where the number of pending cases under POCSO Act exceeds 100. Therefore, as per the order of Hon’ble Apex Court, in each of these districts one exclusive POCSO court will be set up which will try no other cases. Depending upon the pendency of POCSO Cases the State/UT Governments in consultation with the High Court could however decide if more number of exclusive POCSO Courts need to be established within overall number of FTSCs provided under this scheme.” The Centre will meet part of the expense of FTSCs with a matching grant by the State/UT — this scheme is till 2020-21. However, the incentive structure of judges presiding over FTCs has a lesson also for FTSCs.
Date:14-11-19
Food For The Future
Poonam Mahajan, [National president, Bharatiya Janata Yuva Morcha and an M.P]
While growing up in a vegetarian family, I saw my mother face the big question for most non-meat eating families: How do we get adequate protein? Pulses, yes, but how do we get more? I know of several mothers who moved their children to meat-based diets only because they believed these were more protein-rich. Back then, there was little awareness on how plants can also be an adequate source of protein.
Do you know that one plate of butter chicken-rice costs us almost 3,000 litres of water? Rearing livestock and poultry for food and over-cultivation of water guzzling cash crops is impacting the environment. What India needs is a holistic approach to the issue — affordable nutrition and commercially profitable agriculture that are environmentally clean and leave minimum impact on natural resources.
The Collins Dictionary named “Climate Strike” the word of the year in 2019. Never before have we had so many strong voices across the world on climate change. The pressure on governments and policy makers is high. Policy discussions regularly feature the term “climate change” or “environmental impact”. Even as governments are introducing policies that curtail pollution, companies are taking steps to reduce their carbon footprints. But industry isn’t the biggest contributor to environmental pollution. The truth is that livestock — cows, sheep, chicken — and animal farming activity for food produce more pollution than all the planes and cars in the world combined. “Farming activity”, which includes raising livestock, was dubbed the single largest contributor to pollution in Europe.
While nearly 70 per cent of the world is covered by water, only 2.5 per cent is fresh water. The rest is saline and ocean-based. Even then, just 1 per cent of our freshwater is easily accessible, with much of it trapped in glaciers and snowfields. In essence, only 0.007 per cent of the planet’s water is available to fuel and feed its 6.8 billion people.
Water is a limited precious resource. Who knows this better than our famers who struggle with low ground water and inclement weather. This year, more than 54 lakh hectares of agricultural produce has been wiped out in Maharashtra because of unseasonal rains. This is aggravated by the fact that ground water has been depleting with most of India still using older forms of irrigation methods. At the onset of winter, Delhi gets engulfed in dense smoke with the burning of paddy stubs, another conventional farming practice that is impacting the environment.
Farmers need to be encouraged to choose crops wisely — India produces more than 120 million tons of rice a year with the government ensuring purchase with good MSP and incentives to grow the crop. On the flip side, paddy consumes between 3,000 to 5,000 litres of water to produce just 1 kg of rice. Other water-guzzling but cash-rich crops like rice, cotton, soybean, wheat and sugarcane need between 500 litres to 5,000 litres for 1 kg. On the other hand, crops like millets, lentils and pulses take half or less than half the amount of water for the same output. These are also rich sources of protein which makes them a sustainable alternative to water-intensive farming.
I recently spoke at a conference organised by the Good Food Institute called the ‘future of protein’. The conference had two panels dedicated to plant-based proteins which can be produced through climate and farmer friendly crops such as ragi, amaranth and millets. These panels highlighted the importance of creating value chains and market linkages for these products. While the Green Revolution focused on rice and wheat, the need of the hour now is a new revolution — one that focuses on the environment, development and farmer welfare. With a focus on producing environmentally friendly crops, the next revolution can ensure that farmers are motivated to move to crops that consume less water, while ensuring their protection and a steady source of income.
There is an added bonus to the greater availability of crops that are kinder to the environment — cleaner eating habits. Being vegetarian is the best thing you can do to you body. Development, climate change and farmer welfare have to go hand in hand — they cannot and must not be looked at in silos. The Government of India, under the leadership of Narendra Modi, is putting emphasis on the National Nutrition Mission or the Poshan Abhiyan, which seeks to bring these three crucial issues together. It is imperative that we create policy solutions that balance these.
The best way forward is to work backwards from what’s on your plate. As we stand at the brink of a new green revolution, cultivating plant-based protein sources like millets and legumes is our toolkit for an environmentally clean and sustainable agricultural movement.