16-08-2019 (Important News Clippings)
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Date:15-08-19
CBI Autonomy: Not by Delinking Executive
Bring simultaneous accountability to parliament
ET Editorials
Chief Justice Ranjan Gogoi got the analysis of what ails the Central Bureau of Investigation (CBI) right, but probably erred on the remedy. He clearly identified political interference as the reason why the agency, which does a good job when dealing with cases with no political overtones, fumbles when political factors attend on a case. He suggested insulating the CBI from the political executive by making it a statutory body on par with the Comptroller and Auditor General. This, however, would be dysfunctional. The right approach, to prevent political interference in its working, would be to retain the CBI’s accountability to the executive but to make the body simultaneously accountable to a committee of Parliament and the National Human Rights Commission. Such multiple lines of accountability should provide the agency with the autonomy it needs, while preventing it from going rogue.
A statutory body accountable to no one but its own innate professionalism is a dangerous thing. It should not exist. All parts of the State should be accountable to the people, the ultimate sovereign in a democracy, in some fashion or the other. For any police agency to be not under the control of the executive would be dysfunctional. The goal is to prevent it from being under partisan control. The way to achieve this goal is to make it accountable to a body that can hold the executive also to account. Such a body would be a committee of Parliament, say, the Standing Committee of the home ministry. All police agencies should ideally also have a line of accountability to the human rights watchdog.All watchdogs, in turn, must be accountable to the appropriate committees of Parliament.
In addition to control and accountability, other parts of the CBI’s functioning deserve attention. Training and professionalism, for example, and its own cadre of officers, so that state-level police officers who develop political allegiances do not bring these along with them to the CBI when they arrive on deputation. Recent advances in police technology must be studied and relevant bits acquired. There is no magic bullet for CBI reform.
Date:15-08-19
जलवायु परिवर्तन से जंग
संपादकीय
जलवायु परिवर्तन और भूमि विषय पर संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) द्वारा जारी विशेष रिपोर्ट ने वैश्विक तापवृद्घि से लड़ाई में एक नया आयाम जोड़ा है। इसने जलवायु संकट को दूर रखने के लिए भूमि के उचित इस्तेमाल को एक प्रमुख पूर्व शर्त बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अकेले जीवाश्म ईंधन से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने मात्र से वैश्विक ताप वृद्घि को औद्योगिक युग के पूर्व के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस पर नहीं रोका जा सकता है। पेरिस जलवायु समझौते के मुताबिक तापमान में बढ़ोतरी को इसी स्तर पर रोकना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मौसम में आ रहे बदलाव की प्रवृत्ति को सीमित करने के लिए जमीन के इस्तेमाल में व्यवस्थित बदलाव करने होंगे। रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में सूखा, गहन बारिश, बाढ़ के कारण जमीन का क्षरण होता है। जमीन की प्रकृति में गिरावट जलवायु परिवर्तन को इसलिए बढ़ावा देती है क्योंकि इससे उसकी कार्बन डाइ ऑक्साइड ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित होती है।
रिपोर्ट के अनुसार मानवजनित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 23 फीसदी हिस्सा जंगल काटने, खेती, पशु चराने तथा जमीन से संबंधित अन्य गतिविधियों के कारण हो रहा है। अगर खाद्य उत्पादन के पहले और बाद की गतिविधियों मसलन कच्चे माल और उत्पादन के परिवहन, ऊर्जा खपत और खाद्य प्रसंस्करण को भी ध्यान में रखा जाए तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की हिस्सेदारी बढ़कर 37 फीसदी हो जाती है। इन हालात को बदलने के लिए वनों की कटाई रोककर नए वन लगाने होंगे और हरित क्षेत्र में इजाफा करना होगा। साथ ही जमीन को भविष्य में होने वाले नुकसान पर अंकुश लगाना होगा। सामान्य तौर पर माना जाता है कि सामान्य कार्बन चक्र से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों में भूमि और समुद्र 50 फीसदी के जिम्मेदार है। इस स्तर को स्थिर रखने की जरूरत है, इसके लिए नए वन लगाने की गति, वनों की कटाई से तेज करनी होगी।
जलवायु परिवर्तन पर देश की कार्य योजना में कई मोर्चों पर समांतर कार्य योजना के साथ काम करने की बात सोची गई है। इसमें एक अहम घटक है वनों के माध्यम से वातावरण की ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन रोकना। इसका लक्ष्य है वनों का विस्तार करके सन 2032 तक 2.5 से 3 अरब टन अतिरिक्त कार्बन का अवशोषण करना। बहरहाल मौजूदा गति से देखें तो यह बहुत दूर की कौड़ी है। अतीत में भूमि और जल संरक्षण के लिए गए उपाय भी समय के साथ बेकार साबित हुए। एक स्थानीय एजेंसी के अनुमानों के मुताबिक देश के भौगोलिक रकबे में से करीब 30 फीसदी जमीन का स्तर बिगड़ा है। गैर कृषि भूमि, चारागाह और गांवों की जमीन बेरुखी से खराब हो रहे हैं। कृषि योग्य भूमि अतिशय सिंचाई, उर्वरकों के प्रयोग आदि से बिगड़ रही है। इन पर अंकुश लगाना होगा। जमीन का इस्तेमाल उसकी क्षमता के मुताबिक किया जाना चाहिए।
आईपीसीसी की यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है जब संयुक्त राष्ट्र की दो अहम मंत्रिस्तरीय बैठकें होने वाली हैं। पहली है कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज टु द यूएन कन्वेंशन ऑन कॉम्बैटिंग डिसर्टिफिकेशन (सीओपी14) जो अगले महीने दिल्ली में होगी। दूसरी बैठक कॉन्फ्रेंस ऑफ द फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (सीओपी 25) दिसंबर में चिली के सेंटियागो में होनी है। यह रिपोर्ट दोनों बैठकों को अहम जानकारी मुहैया कराएगी। रिपोर्ट के परेशान करने वाले नतीजे बताते हैं कि मिट्टी का क्षरण प्राकृतिक गति की तुलना में 100 गुना तेज गति से हो रहा है। उम्मीद है कि दुनिया के देश इसे ध्यान में रखकर अपनी जलवायु परिवर्तन की योजना पर काम करेंगे। नया लक्ष्य जमीन का क्षरण रोकने और ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन रोकने के कदम साथ उठाने का होना चाहिए। इसमें ढिलाई महंगी पड़ेगी।
Date:14-08-19
स्वायत्तता की खातिर
संपादकीय
पछले करीब दो महीने से हांगकांग में विरोध प्रदर्शनों की जो लहर चल रही है, अब उसे थामना वहां के प्रशासन और चीन के लिए मुश्किल होता जा रहा है। सोमवार को हांगकांग हवाई अड्डे पर जिस तरह लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों की भारी तादाद उमड़ आई और इस वजह से विमानों का परिचालन रद्द करना पड़ा, उससे यही लगता है कि ताजा विवाद का कोई हल निकलने के बजाय यह मसला और ज्यादा उलझता जा रहा है। हालत यह है कि प्रदर्शनकारियों ने हांगकांग के हवाई अड्डे पर उतरने वाले यात्रियों का स्वागत किया और इस बीच ‘आजादी के लिए- लड़ाई’ के नारे लगाए। जाहिर है, हाल में प्रत्यर्पण संधि के सवाल पर उठे विवाद की आंच अब इस रूप में सामने आ रही है कि हजारों लोग आजादी के नारे के साथ सड़क पर हैं। खबरों के मुताबिक, ताजा प्रदर्शन के दौरान लोगों के हाथों में मौजूद तख्तियों पर लिखा था- ‘हांगकांग हमारी हत्या कर रहा है, हांगकांग अब सुरक्षित नहीं रह गया है।’ लेकिन इसके बरक्स चीन ने इस प्रदर्शन के दौरान वहां के पुलिस अधिकारियों पर पेट्रोल बम फेंकने जैसी हिंसा को आतंकवाद से जोड़ा है तो हालात की जटिलता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
गौरतलब है कि हांगकांग अभी चीन का हिस्सा है, मगर वहां ‘एक देश, दो व्यवस्था’ के तहत शासन का संचालन होता है। इसका मतलब यह है कि हांगकांग के पास स्वायत्तता है और चीन के बाकी नागरिकों के मुकाबले इसके नागरिकों के पास कुछ विशेष अधिकार हैं। लेकिन वहां के प्रत्यर्पण बिल में किए गए नए बदलावों की घोषणा के बाद चीन को हांगकांग में किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ करने और उसे वापस भेजने को लेकर कई अधिकार प्राप्त हो जाएंगे। बाकी मामलों पर चीन का जो रुख रहा है, उसे देखते हुए ताजा कवायद ने स्वाभाविक ही वहां के लोगों की चिंता को बढ़ा दिया है
उनका मानना है कि इसके लागू होने के बाद न सिर्फ यहां के लोगों पर चीन का कानून लागू हो जाएगा, बल्कि यह सीधे तौर पर हांगकांग की स्वायत्तता को भी प्रभावित करेगा। हालांकि चीन का ऐसे मामलों में जो रिकार्ड रहा है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस कानून के अस्तित्व में आने के बाद शक के घेरे में आए लोगों को मनमाने आरोपों के तहत गिरफ्तार और प्रताड़ित किया जाए।
यों वहां सरकार ने यह आश्वासन देने की कोशिश की है कि प्रत्यर्पण से संबंधित इस कानून के तहत सिर्फ गंभीर और आपराधिक मामलों के अभियुक्तों को चीन भेजा जाएगा और इसके लिए भी हांगकांग के एक जज की मंजूरी अनिवार्य होगी, लेकिन स्थानीय लोग इसे राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के औजार के तौर पर देख रहे हैं। इसी क्रम में बारह जून को हुए विशाल प्रदर्शन के बाद एक जुलाई को आंदोलनकारियों ने कई घंटों तक संसद की इमारत को अपने कब्जे में रखा था। जाहिर है, खासतौर पर संसद भवन को नुकसान पहुंचाने को चीन ने अपने लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा और इसे ‘एक देश, दो व्यवस्था’ के सिद्धांत का उल्लंघन करार दिया। हांगकांग में लोकतंत्र के पक्ष में 2014 में उनयासी दिनों तक ‘अंब्रेला मूवमेंट’ चला था और उसके बाद चीन की सरकार ने उसमें भाग लेने वाले कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई की थी। उसके बाद लोकतंत्र के हक में उठी ताजा आवाज पर भी चीन का जो रुख है, उससे साफ है कि प्रत्यर्पण बिल के सवाल से शुरू हुए इस आंदोलन को भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
Date:14-08-19
उल्टी पड़ती चाल
संपादकीय
भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर राज्य का विशेष दर्जा खत्म करने से विश्व राजनय के कई समीकरण बदल गए हैं। इन्हीं में एक बड़ा बदलाव भारत-पाकिस्तान संबंध और कश्मीर की समस्या को देखने के दुनिया के नजरिये में आया है। पिछले दिनों यह मसला उस समय विवाद में आ गया था, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने उनसे कश्मीर मामले में मध्यस्थता का आग्रह किया था। भारत की तरफ से इसका जोरदार खंडन उसी समय हो गया था। भारत की यह पुरानी नीति रही है कि कश्मीर समस्या को भारत-पाकिस्तान की आपसी बातचीत से ही सुलझाया जाएगा और इसमें किसी तीसरे पक्ष की भूमिका नहीं होगी। इसे लेकर दोनों देशों के बीच शिमला समझौता भी हो चुका है और बाद में लाहौर घोषणा में भी इसे दोहराया गया। इसलिए इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि भारत के प्रधानमंत्री या कोई भी अन्य प्रतिनिधि ऐसी बात कहेगा। हालांकि बाद में पता लगा कि यह बात मुख्य रूप से पाकिस्तान को खुश करने के लिए कही गई थी। अमेरिका जल्द ही अपनी फौज को अफगानिस्तान से वापस बुलाना चाहता है और इसके लिए वह इन दिनों तालिबानी गुटों से बात भी कर रहा है, अमेरिका को पता है कि यह काम वह पाकिस्तान की मदद के बिना नहीं कर पाएगा। पर जब जोरदार खंडन हो गया, तो खुद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह कहा कि मध्यस्थता का मामला फिलहाल उनकी मेज पर नहीं है, और जब तक दोनों देश नहीं चाहेंगे, मध्यस्थता का कोई सवाल नहीं है। अब इसी बात को एक बार फिर भारत के राजदूत हर्षवर्द्धन श्रिंगला ने दोहराया है, तो इसके साथ ही यह बात भी जोड़ दी है कि खुद अमेरिका की दशकों पुरानी नीति यही रही है कि कश्मीर मसले पर मध्यस्थता नहीं होगी।
अमेरिका के एक समाचार चैनल से बातचीत में भारतीय राजदूत का यह बयान उस समय और महत्वपूर्ण हो गया, जब कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने की बात करने वाला पाकिस्तान खुद इसकी सीमाओं को समझने लगा। संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के भारत के फैसले के बाद शुरू में पाकिस्तान यही कहता रहा कि वह इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले जाएगा और भारत को अलग-थलग करने की कोशिश करेगा, लेकिन अब उसके सुर भी बदलने लगे हैं। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का वह बयान काफी महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया है कि संयुक्त राष्ट्र से उन्हें बहुत ज्यादा मदद नहीं मिलने वाली है। उन्होंने यह भी कहा कि इस्लामी देश भी इस मामले में भारत का विरोध करेंगे, इसकी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है। चीन खुद अभी हांगकांग को लेकर परेशानी में है। ऐसे में, पाकिस्तान इस सदाबहार दोस्त से भी उम्मीदें खोता जा रहा है।
भारत ने अपना कदम तब उठाया है, जब पाकिस्तान आतंकवाद के मामले में काफी गहरे तक फंसा हुआ है। एक तरफ, उसकी आर्थिक हालत काफी खस्ता है, तो दूसरी तरफ, आतंकवाद की फाइनेंसिंग के मामले में वह ग्रे सूची से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है। इस धारणा को पूरी दुनिया अपनाती जा रही है कि कश्मीर का आतंकवाद उसी की देन है। इसीलिए भारत ने जब जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया है, तो पाकिस्तान खुद को ही अलग-थलग पा रहा है।
Date:14-08-19
चीन-पाकिस्तान गठजोड़ का तोड़
विवेक काटजू
भारतीय विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर की चीन की आधिकारिक यात्रा तय तो पहले से थी, लेकिन यह संपन्न उस वक्त हुई है, जब भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में उठाए गए नए सांविधानिक कदम पर दुनिया भर की नजर है। जयशंकर से पहले पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी आनन-फानन में चीन का दौरा कर चुके थे। वह इसी मकसद से बीजिंग गए थे कि चीन के नेतृत्व से भारत की शिकायत कर सकें और उससे मुफीद सहयोग ले सकें, क्योंकि एक-दो इस्लामी देशों को छोड़कर पाकिस्तान की राजनयिक पहल पर किसी राष्ट्र ने संजीदगी नहीं दिखाई है।
जयशंकर और कुरैशी की यात्राओं के अलग-अलग मकसद, मुद्दे और परिणाम भारत, पाकिस्तान और चीन की वैश्विक स्थिति बताते हैं। चीन खुद को अब एक वैश्विक महाशक्ति के रूप में देखता है और यह मानता है कि उसकी तुलना केवल अमेरिका से ही हो सकती है। वह भारत को बेशक खुद से कमतर समझता है, लेकिन वैश्विक मंचों पर भारत की बढ़ती हैसियत को नजरंदाज भी नहीं कर पाता। वह जानता है कि दक्षिण एशिया में ही नहीं, हिंद-प्रशांत क्षेत्र, पश्चिम एशिया और दुनिया के अन्य तमाम हिस्सों में भारत ने एक बड़ा मुकाम हासिल कर लिया है।जयशंकर की इस यात्रा का मूल उद्देश्य था, भारत और चीन के द्विपक्षीय संबंधों और विश्व की बदलती सामरिक व राजनीतिक स्थिति पर चर्चा करना और अक्तूबर में होने वाली चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा की तैयारी को रूप देना। इस यात्रा के दौरान एस जयशंकर ने चीन के नेतृत्व को बताया कि भारत और चीन के संबंधों में उल्लेखनीय प्रगति तो हुई है, मगर सीमा पर शांति बनाए रखना बहुत ही जरूरी है। वास्तव में, डोकाला विवाद के बाद चीन बखूबी जानता है कि आज का भारत सन् 1962 के भारत के बहुत भिन्न है। ऐसे में, वह भले सीमा पर दबाव बनाने की कोशिश करे, लेकिन उसे भी मालूम है कि भारतीय सेना उसके इरादों को नाकाम करने की पूरी क्षमता रखती है।
जयशंकर ने अपनी इस यात्रा में यह साफ किया कि चीन के साथ भारत आर्थिक व व्यापारिक संबंध बढ़ाना तो चाहता है, लेकिन उसे अपने हितों की रक्षा भी करनी होगी। इसके उलट, चीन ने अब तक ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है, जिससे भारत को वास्तविक संतोष हो सके। भारत ने हमेशा चीन से यही कहा है कि दोनों देशों के रिश्ते तभी मजबूत हो सकेंगे, जब दोनों देश एक-दूसरे के हितों को समझेंगे और ऐसा कोई कदम उठाने से बचेंगे, जिससे द्विपक्षीय हितों को कोई नुकसान पहुंचे। मगर चीन ने न सिर्फ इस मशवरे की अनदेखी की, बल्कि भारत को यह सलाह भी दी कि वह अपने पड़ोस में ऐसा कोई कदम न उठाए, जिससे अन्य देशों के हितों को नुकसान पहुंचे या उनकी भावनाएं चोटिल हों। बीते सोमवार को ही चीन के एक प्रमुख समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स ने, जिसे चीन सरकार का मुखपत्र भी कहा जाता है, अपने संपादकीय में लिखा कि एक राष्ट्रवादी भारत का कोई भविष्य नहीं है। एशिया का आम भू-राजनीतिक स्वरूप ऐसे भारत को कतई स्वीकार नहीं करेगा। वह मैत्रीपूर्ण प्रमुख शक्ति बने, तभी भारत का भविष्य उज्ज्वल होगा।
साफ है, यह भारत के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी है। भारत का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्वरूप कैसा होगा, यह तय करने का अधिकार भारत की जनता को है। भारत की जनता ने हमेशा राष्ट्रवादी सरकार को चुना है, लेकिन राष्ट्रवाद की तुलना आक्रामकता से करना गलत है। अगर भारत अपने हितों की रक्षा करता है और उनको प्रोत्साहित करता है, तो इससे किसी दूसरे देश को भला कैसे नुकसान होगा?
चीन की मंशा भारत को एक ‘पैसिव’ राष्ट्र, यानी अपेक्षाकृत कम सक्रिय देश बनाने की है, जबकि वह खुद न सिर्फ तेज कदमों से आगे बढ़ रहा है, बल्कि अपने पड़ोसी या उप-महाद्वीप के अन्य देशों के हितों को भी नजरंदाज कर रहा है। चीन तो अंतरराष्ट्रीय कानूनों को भी मानने से इनकार करता है, जिसका ज्वलंत उदाहरण दक्षिण चीन सागर का सत्य है।
जयशंकर की यात्रा के दौरान चीन ने भारत द्वारा किए गए सांविधानिक बदलाव का जिक्र किया, जो हमें हैरत में नहीं डालता। ऐसा इसलिए, क्योंकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर विवाद का एक साझीदार चीन भी है। मार्च, 1963 में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की कुछ जमीन चीन को सौंप दी थी, हालांकि असलियत में वह भारत का ही हिस्सा है। संसद के अपने वक्तव्य में गृह मंत्री अमित शाह ने साफ किया कि पाक अधिकृत कश्मीर के साथ-साथ अक्साई चिन (चीन के अधीन हिस्सा) को भी भारत अपनी भूमि मानता है। इसी तरह, लद्दाख की हैसियत में बदलाव का जब चीन ने विरोध किया, तो विदेश मंत्री ने साफ-साफ कहा कि यह भारत का अंदरूनी मामला है और इससे सीमा विवाद पर कोई असर नहीं पड़ता। जयशंकर ने यह भी साफ किया कि भारत सीमा विवाद को शांतिपूर्वक सुलझाना चाहता है।
बहरहाल, महज इस एक यात्रा से यह उम्मीद करना कि पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों में चीन बदलाव लाएगा, हमारी नादानी होगी। चीन के लिए पाकिस्तान का सामरिक महत्व है। इसीलिए आने वाले वर्षों में चीन-पाकिस्तान गठजोड़ के खिलाफ हमें मजबूती से तैयार रहना होगा। कूटनीतिक तौर पर भले ही पाकिस्तान की ज्यादा मदद चीन नहीं कर पाए, लेकिन वह पाकिस्तान की सैन्य और आर्थिक शक्ति बढ़ाने में सहायता जरूर करेगा। अब हमें इसी लिहाज से अपनी विदेश नीति गढ़नी चाहिए और अपने हितों की रक्षा के लिए हर मुमकिन कदम उठाने चाहिए।
Date:14-08-19
Face The Deluge
Floods in different states raise questions about understanding of monsoon, preparedness to deal with rivers in spate.
Editorial
The southwest monsoon has left a trail of destruction this year. Nearly 500 people have reportedly lost their lives in Kerala, Karnataka, Maharashtra, Gujarat, Assam and Bihar. In Kerala, which experienced its worst deluge in a century last year, more than 80 people have lost their lives in five days since August 8. In neighbouring Karnataka, the toll stands at 48. Northern Karnataka, which was facing drought like conditions in May, is now under water. According to Chief Minister BS Yediyurappa, the state is witnessing its worst floods in 45 years. In Maharashtra, more than 40 people have lost their lives in Sangli and Kolhapur districts, while the Marathwada and Vidharbha regions are reeling under a drought.
The floods this year have drawn attention to the changing dynamics of the southwest monsoon. Take the case of Kerala. According to India Meteorological Department (IMD) data, the state recorded a more than 25 per cent deficit in rainfall between June 1 and August 7. But Kerala has nearly made up the deficit in the past five days. Palakkad district has received 80 per cent excess rainfall after August 8, Wayanad and Thrissur have also experienced sharp departures from normal rainfall, with an excess of nearly 40 per cent. Similarly, on August 8, Karnataka received nearly five times the rainfall the state receives in a day. Kodagu, the state’s worst flood-hit district, received 460 per cent above normal rainfall between August 5 and 11. In fact, monsoon rains in the past five years have followed a pattern: A few days of intense rainfall sandwiched between dry spells.
The focus this year, as in the past, has been on providing relief to the flood-affected. But questions must also be asked about the ways states prepare for, and deal with, floods. The vagaries of weather, for example, demand cooperation between states that share a river basin. This year, Maharashtra and Karnataka bickered over opening the gates of the Almatti dam on the river Krishna. By the time the two states agreed over the amount of water to be discharged from the dam’s reservoirs, the damage was already done. The floods also drive home the urgency of focusing on nature’s mechanisms of resilience against extreme weather events. Policymakers and planners have shown little inclination to place wetlands, natural sponges that soak up the rainwaters, at the centre of flood control projects. Flood governance in the country has placed inordinate emphasis on embankments. But the floods in Bihar and Assam showed — for the umpteenth time — that these structures are no security against swollen rivers. Of course, what is true for the Western Ghats states may not hold for Assam and Bihar. But the message from the floods this year is clear: There is a need to revisit the understanding of the monsoon and find ways to deal with its fury.
Date:14-08-19
Biodiversity in the time of deluge
As it weathers repeated floods, Kerala needs to take steps to protect its fragile ecology
Prakash Nelliyat , [The writer is a Chennai-based researcher working in the areas of environment and sustainable development]
In mid-August 2018, Kerala experienced severe floods and is still struggling to deal with their devastating impact. It is a matter of deep concern that, a year later, the State is facing a similar situation. This only shows that there is a considerable human-induced natural imbalance in the State, making it vulnerable to the vagaries of climate change.
Such floods impact the poorest strata of the society the most, causing a loss of lives, livelihood options and assets. They also place an enormous burden on the government in terms of reconstruction budgets. In this context, a broader assessment of floods from a ‘sustainable development’ perspective, by limiting economic growth options to within the carrying capacity of the ecosystem, is the need of the hour.
True, the root cause of such floods, not only in Kerala but elsewhere, is the high precipitation levels. However, one cannot discount the role of anthropogenic factors like unscientific development and over-exploitation of nature in aggravating the damages.
Impact of climate changeIn recent decades, the global climate has been changing in an unpredictable manner. As per an IPCC report, the Global Green House Gases emissions grew by 70% between 1970 and 2004. Global warming has had critical effects on the hydrological cycle and water is the primary medium through which the climate change impacts trickle down to the people.
The changing precipitation alters the hydrological systems, resulting in floods and droughts in different regions. With the certainty that climate change is already impacting most countries, there is no option but to take adequate precautions through dam management and timely public alerts.
In the case of Kerala, a structural transformation and changing patterns of land use are affecting its environment. Agriculture is becoming insignificant (11.3% of State GDP) and services (63.1%) and industry (25.6%) sectors dominate the State’s economy. Further, a high population density — as per the 2011 census, it was 860 persons per sq. km, much higher than the Indian average of 382 — the shift from a joint family system to a single-family one and a greater inflow of money, particularly from Gulf countries, has resulted in an increased construction of luxurious houses and resorts.
The government, on its part, has also been developing extensive infrastructure to support the booming services and industry sectors.
Speaking of construction, it is important to take the appropriate decision on the type and size of the structure, its location, materials it proposes to use, and permissible damages it will cause to the nature. One cannot just replicate the Gulf model of construction in Kerala’s fragile and ecologically sensitive landscapes. Land transactions suggest that people in the State have bought land from farmers over the decades not for cultivation, but for construction. If this trend continues, vast tracts of paddy fields and other low-lying places will get converted to plots or buildings. A loss in wetland area will naturally impact the State’s ability to handle floods.
People fail to account for the damage done to natural ecosystems while estimating losses suffered due to natural disasters. Floods also wash away top soil and substantial biodiversity of the area, resulting in a reduced river-water flow, death of earthworms and spread of viral and bacterial diseases among crops. There is, at present, a lack of clarity on how best these natural assets could be restored. However, the urgency to devise suitable corrective measures has never been greater.