15-06-2023 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:15-06-23
Thought For Food
MSP will be an especially critical policy tool this year. But govts need to be aware of distortions it produces
TOI Editorials
Farmers in Haryana who blockaded NH-44 following a dispute with the state government over MSP on sunflower crop called it off on Tuesday night after both sides reached an agreement. The backstory is that farmers wanted the state to procure the crop at the MSP announced by GOI last year. The Haryana government suggested an alternative that would have led to a price below the MSP. The issue highlights the role of MSP in India’s agricultural market and the impact it has on crop selection.
Procurement at MSP cannot be separated from GOI’s food security programme that covers about 800 million people who receive monthly stocks. An outcome is that MSP leads to large procurement in only two cereal crops, paddy and wheat. Last week, GOI accepted the MSP recommendations of the commission for agricultural costs and prices (CACP) for the 2023 kharif season. The most important recommendation was the increase in MSP of paddy (common variety) by 7% to Rs 2,183/-quintal. Paddy, which is converted to rice, is a good example to explain the criticality of MSP in protecting food security and keeping inflation under check.
Consider three aspects of the global trade in rice. A mere 10% of the global production is traded. China, the largest producer, also imports rice. India, the second largest producer, has been the world’s top exporter for over a decade. It had a market share of 37% in 2021-22. Therefore, when export restrictions on rice were imposed by GOI in late 2022, there was an immediate upward impact on prices in the global market. Now, circling back to MSP, given the tightness in global rice trade, India’s size may make it tough to secure supplies in case of a domestic shortfall. It’s one important reason why MSP has such a critical role to play in economic management.
There’s a downside, however, to this level of market intervention. Price fixing and the other favourite tool to secure supplies, imposing stock limits of commodities on traders, create distortions. It influences crop selection by farmers, pushing regions into choosing crops unsuitable to their conditions. Rapid depletion of groundwater is one of its consequences. Also, capping farm earnings through export restrictions makes it hard for governments to resist unreasonable demands for price support. There’s no easy pivot away from MSP’s centrality, but governments need to keep trying.
People’s Data is Valuable, Keep It Safe
ET Editorials
GoI has denied the reported breach of the CoWIN database containing personal information of vaccinated persons. This is not the first such scare. Perception that information people routinely provide — bank account, credit card, Aadhaar, passport, insurance numbers, etc — is not safe is damaging. Sustaining the pace of digitisation requires giving people the confidence that their data is safe. Misplaced or not, this perceptionof safety must be addressed with a robust regulatory data protection framework. GoI must bring the proposed Digital Personal Data Protection (DPDP) Bill 2022 to Parliament in the monsoon session, and ensure its speedy passage and implementation.
Though the need for a strong data protection framework to secure privacy was raised 11 years ago by the AP Shah Committee, serious efforts were initiated six years ago after the Puttaswamy judgment and the Justice Srikrishna Committee report. The DPDP Bill, a second attempt at a legal framework for data protection, sets out rights and duties of citizens and obligations of organisations for using data. Released for public consultation in November 2022, it builds on stakeholders’ views and recommendations of the joint parliamentary committee on the earlier iteration.
India is digitalising at a rapid pace, outstripping other major economies. The growth in digital payments, 48. 6 billion realtime digital payments in 2021, reflects this. Restoring confidence in the safety of people’s data will help accelerate the growth of the digital economy. A framework that provides assurance to digital users is critical, and assistance on this front can be sought with technological partners like the US. Getting spooked by real or perceived threats is not an option for Digital India.
हमें प्रजातंत्र की सेहत की फिक्र भी करनी होगी
संपादकीय
अगर आपको घर से निकलने से पहले यह तय करना पड़े कि रास्ते में कोई धरना, चक्काजाम या प्रदर्शन तो नहीं है, तो कुछ लोग इसे ‘वाइब्रेंट डेमोक्रेसी’ मान सकते हैं, लेकिन बड़ा वर्ग इसे रुग्ण होता प्रजातंत्र कहेगा। अगर देश में ही नहीं विदेशी जमीन से भी देश को प्रभावित करने वाले मुद्दे उठें तो उसे केवल यह कहकर नहीं टाला जा सकता कि ये सब भारत-विरोधी ताकतें हैं, जिन्हें भीतर बैठे राष्ट्रद्रोहियों का साथ है। किसान आन्दोलन हो या महिला पहलवानों का धरना, मीडिया के एक वर्ग में आलोचनात्मक स्वर हों या विपक्ष की किसी मुद्दे पर जेपीसी बैठाने की मांग या ट्विटर के पूर्व सीईओ का हालिया खुलासा हो, सब कुछ सरकार के खिलाफ साजिश कैसे हो सकती है? इन पूर्व-सीईओ का ताजा खुलासा है कि संस्था पर सरकार अपने खिलाफ बोलने वालों के अकाउंट बंद करने का दबाव डालती रही और धमकी भी दी है। संभव है कि यह आरोप पूर्ण सत्य न हों, लेकिन अगर वर्ष 2021 के छह माह में पूरी दुनिया की सरकारों ने इस संस्था से औपचारिक रूप से 326 कंटेंट हटाने का कानूनी आदेश दिया हो और इसमें केवल भारत की सरकार के 114 आदेश हों तो क्या सरकार को आत्ममंथन करने की जरूरत नहीं है? सरकार की मंशा पर भरोसा इस रफ्तार से गिरना प्रजातंत्र के स्वास्थ्य के हित में नहीं है।
Date:15-06-23
सऊदी अरब और इजरायल के बीच बदल रहे हैं समीकरण
थॉमस एल. फ्रीडमैन, ( तीन बार पुलित्ज़र अवॉर्ड विजेता एवं ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में स्तंभकार )
रियाद, सऊदी अरब- ‘क्या आपकी आखिरी मंजिल तेल अवीव है?’
मैं 1979 से ही मध्य-पूर्व में पत्रकारिता कर रहा हूं, लेकिन मैंने इससे पहले इस तरह के शब्द नहीं सुने थे। मैं दोहा से दुबई होते हुए तेल अवीव जा रहा था। पहले इस तरह के फ्लाइट कनेक्शन की कल्पना नहीं की जा सकती थी, लेकिन अब फ्लाईदुबई की वह महिला-एजेंट दोहा के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर इसे इतने सहज तरीके से कह रही थी, मानो मैं रियाद से काहिरा जा रहा होऊं। मेरी इंस्टिंक्ट ने मुझसे कहा कि मैं उससे अनुरोध करूं, ‘कृपया धीरे बोलिए, कोई सुन लेगा!’ कारण? 1970 के दशक के अंत में जब हम बैरूत में रिपोर्टिंग कर रहे थे तो हम इजरायल शब्द का उपयोग भी नहीं कर सकते थे। हम उसे ‘डिक्सी’ कहते थे, जो कि दक्षिण प्रांत में बसे इलाकों के लिए अमेरिकी कूट-शब्द था। और इजरायल लेबनान के दक्षिण में स्थित था। जबकि अब मेरे लगेज पर खुलेआम लिख दिया गया था कि मैं इजरायल जा रहा हूं। चंद ही दिनों बाद, मैंने सुबह का नाश्ता तेल अवीव में किया, दोपहर का भोजन जोर्डन के अम्मान में और रात का भोजन सऊदी अरब की राजधानी रियाद में। तब जाकर मैं इस बात को समझ पाया कि एक समय कट्टर दुश्मन रहे सऊदी अरब और इजरायल आज आपस में इतने जुड़ गए हैं और एक-दूसरे पर इतने निर्भर हो गए हैं, जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वे आपस में नई साझेदारियां निर्मित कर रहे हैं। लेकिन दुनिया सशंकित बनी हुई है और उनके आस-पड़ोस के मुल्क प्रतीक्षा कर रहे हैं कि ये दोनों आखिर कब तक मॉडर्न, सेकुलर और लोकतांत्रिक साबित हो पाते हैं?
ये दोनों देश मध्यपूर्व में अमेरिका के सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक सहयोगी हैं। आज दोनों ही अपनी पहचान को लेकर अंदरूनी संघर्षों से जूझ रहे हैं। दोनों ही देशों में धर्म की संस्थाएं राज्यसत्ता से वर्चस्व की लड़ाई लड़ रही हैं। इसमें उनके कानूनी, सामाजिक और आर्थिक नियम-कायदे कसौटी पर हैं। सऊदी अरब में सामाजिक बदलावों की कमान क्राउन-प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने सम्भाल रखी है, जो एम.बी.एस. कहलाते हैं। उन्होंने सऊदी अरब को इतना बदल दिया है कि अगर आप पांच साल पहले वहां गए थे तो आज उसे पहचान भी नहीं सकेंगे। आखिरी बार मैं 2017 में सऊदी अरब गया था, तब औरतों को गाड़ी चलाने की इजाजत नहीं थी। जबकि आज न केवल औरतें गाड़ियां चला रही हैं, बल्कि एक सऊदी स्त्री रायन्ना बर्नावसी तो एस्ट्रोनॉट बन गई हैं और हाल ही में उन्होंने स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट से इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के लिए उड़ान भरी है!
वहीं इजरायल में एक यहूदी-राष्ट्र होने के साथ ही लोकतांत्रिक देश बने रहने की इच्छाशक्ति इतनी तीव्र है कि आज बीते 22 सप्ताह से वहां के लोग अपनी अतिवादी सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतरकर आंदोलन कर रहे हैं। सऊदी अरब की तरह आप आज के इजरायल को भी पहचान नहीं सकेंगे। आज जब ये दोनों देश एक-दूसरे के साथ अमन-चैन का रिश्ता बनाना चाह रहे हैं तो यह अमेरिका के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण है। क्योंकि वे दोनों मुल्क यह मालूम करने की भी कोशिश कर रहे हैं कि चीन के करीब कैसे आया जाए और मध्य-पूर्व में चीन की बढ़ती दिलचस्पी किसी से छुपी नहीं है।
जब मैं 1984 से 1988 के बीच यरूशलम में न्यूयॉर्क टाइम्स का ब्यूरो चीफ था तो इजरायल और चीन के कूटनीतिक सम्बंध शून्य थे। जब वहां पहला चीनी रेस्तरां खुला तो हम बहुत रोमांचित हुए थे। लेकिन आज जहां इजरायल प्रतिरक्षा सम्बंधी साइबर-टेक्नोलॉजी का गढ़ बन चुका है, वहीं चीन भी इजरायली कम्पनियों और यूनिवर्सिटियों से नजदीकी ताल्लुक बनाने पर आमादा हो गया है। उसने हाल ही में ईरान और सऊदी अरब के बीच कूटनीतिक सम्बंध कायम कराने की भी पहल की है। और हां, चीन अब सऊदी अरब का सबसे बड़ा तेल-आयातक देश बन चुका है।
यही कारण है कि अमेरिका को अब संकोच त्यागकर मध्यपूर्व में हरकत में आ जाना चाहिए। उसे इजरायल और सऊदी अरब के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने का मौका नहीं गंवाना चाहिए। वहीं प्रेसिडेंट बाइडन को इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू को ओवल ऑफिस बुलाना चाहिए, जैसे अतीत के सभी इजरायली राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया गया था। बशर्ते वे इस सवाल का जवाब दे सकें कि क्या वे फलस्तीन पर इजरायल के वर्तमान नियंत्रण को एक स्थायी समाधान समझते हैं या इसमें किसी अन्य समाधान के लिए फलस्तीनियों से बातचीत करने को तैयार हैं? आखिर इजरायल अमेरिका का इस इलाके में सबसे महत्वपूर्ण सैन्य-सहयोगी है और उसके हितों से अमेरिकी हित जुड़े हैं।
मुफ्तखोरी के जाल में फंसते मतदाता
उमेश चतुर्वेदी, ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं )
मुफ्त बिजली और सरकारी बसों में महिलाओं की मुफ्त यात्रा के वादे ने कांग्रेस को कर्नाटक की सत्ता तक पहुंचा दिया, लेकिन मुफ्तखोरी के साइड इफेक्ट से कर्नाटक अभी से दो-चार होने लगा है। कुछ दिन पहले तक बिजली बिल वसूलने पहुंचे बिजली विभाग के कर्मचारियों को बिल की राशि अदा करने और सरकारी बसों में महिलाओं द्वारा टिकट लेने से इन्कार की घटनाएं कर्नाटक में रोजाना की बात हो गई थीं। मुफ्त मिलने की आस में वोटों से कांग्रेस को मालामाल करने वाली जनता को चूंकि वैधानिक तौर पर अभी कुछ हासिल नहीं हो पा रहा है, ऐसे में रोष बढ़ना स्वाभाविक है। शुक्र है कि अभी बेरोजगारों ने ऐसी हिम्मत नहीं दिखाई है, जिन्हें तीन और डेढ़ हजार मासिक देने का वादा किया गया है। अव्वल तो कर्नाटक से सीख लेने की जरूरत थी, लेकिन राजनीतिक दल किसी घटना से भला कहां सीख लेते हैं? वे घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या करते हैं। चित भी मेरी, पट भी मेरी…कहावत चरितार्थ करने में राजनीतिक दल माहिर होते हैं। इस साल के अंत में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव होने हैं। इन राज्यों में भी कांग्रेस ने कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर मुफ्त देने के वादों से मतदाताओं की झोली भर दी है। राजस्थान में पांच साल तक मुफ्त बिजली देने की चाहत मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को नहीं हुई। गर्मी में राज्य की बिजली आपूर्ति लचर हो गई है, लेकिन इसे सुधारने के बजाय उपभोक्ताओं को सौ यूनिट मुफ्त बिजली देने का वादा करने लगे हैं। मध्य प्रदेश में भी एक बार फिर सत्ता संभालने का सपना पाले कमल नाथ पुरानी पेंशन योजना बहाल करने, पांच सौ रुपये में गैस सिलेंडर देने, नारी सम्मान योजना के तहत हर महिला को डेढ़ हजार रुपये मासिक और हर घर को सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने का वादा कर चुके हैं।
वोट के बदले मुफ्त के वादे की शुरुआत करने का श्रेय आम आदमी पार्टी को जाता है। उसने पहले दिल्ली और बाद में पंजाब के विधानसभा चुनावों में ऐसा किया और जीत दर्ज की। दिल्ली नगर राज्य है। यहां की स्थिति को देखते हुए तो इस योजना को लागू करने में आम आदमी पार्टी को खास दिक्कत नहीं आई, लेकिन पंजाब में उसकी सरकार की सांसें फूलने लगी हैं। अब उसने पेट्रोल-डीजल को महंगा कर दिया है। पंजाब राज्य परिवहन निगम को महिलाओं को मुफ्त यात्रा कराने के बदले सरकार से बतौर मदद रकम मिलनी बंद हो गई है। निगम का सरकार पर करीब 170 करोड़ रुपये बकाया हो गया है। इसकी वजह से परिवहन निगम हांफने लगा है। वहीं पुरानी पेंशन योजना लागू करने की घोषणा राजस्थान भी कर चुका है, जबकि हिमाचल इसी वादे पर कांग्रेस के साथ आया, लेकिन आर्थिक कमियों की वजह से दोनों ही राज्यों में यह योजना अब तक लागू नहीं हो सकी है।
ऐसा नहीं कि भाजपा इस दौड़ में पीछे है। चूंकि उसे भी वोट चाहिए, इसलिए वह भी हरसंभव तरह से मुफ्तखोरी के वादे कर रही है। बीते दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री लाडली बहना योजना की शुरुआत की। इसके तहत राज्य में 23 से 60 साल तक की उन महिलाओं को हर महीने एक हजार रुपये मिलेंगे, जिनके परिवार की जोतभूमि पांच एकड़ से कम और सालाना आमदनी ढाई लाख रुपये से कम है। पिछले आम चुनाव के पहले केंद्र की ओर से लागू किसान सम्मान निधि योजना को भी विपक्षी दलों ने मुफ्तवाद का ही विस्तार माना था। अस्सी करोड़ लोगों को दिए जा रहे मुफ्त राशन को भी इसी श्रेणी में रखा जा रहा है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 और 39 विशेष रूप से राज्य को लोककल्याणकारी भूमिका निभाने की व्यवस्था देते हैं। इन अनुच्छेदों के दायरे में देखें तो मुफ्त में सहूलियतें देने की राज्यवार योजनाएं या राजनीतिक वादे भी लोककल्याणकारी राज्य के ही दायरे में आएंगे, लेकिन सवाल यह है कि क्या मुफ्त में दी जा रही इन सुविधाओं को लंबे वक्त तक लागू रखा जा सकता है? क्या इससे राज्यों पर आर्थिक दबाव नहीं बढ़ेगा? भारत का शायद ही कोई राज्य है, जो कर्ज के पहाड़ के नीचे न खड़ा हो, लेकिन सत्ता हासिल करने की दौड़ में राजनीतिक दल इस पहाड़ के दबाव को कम से कम वोटरों की अदालत में झुठला रहे हैं। मुफ्त के वादों के चक्कर में वोटर आ रहा है, यह जानते हुए भी कि अंतत: ऐसे वादे उसके राज्य की आर्थिक सेहत को खराब ही करेंगे, जिसका असर उसकी आर्थिक स्थिति पर भी पड़ेगा। चूंकि यह असर परोक्ष होता है, जबकि मुफ्तखोरी से प्रत्यक्ष फायदा होता है, इसलिए मुफ्त के वादे के खुशनुमा जाल में लोग फंस जाते हैं।
‘तुम मुझे खून दो, मैं तुझे आजादी दूंगा’ के नारे में बलिदान था, खुद को होम कर देने का भाव था। जबकि मुफ्त के वादे में हासिल करने का भाव है। इसमें दोनों हासिल करते हैं, राजनीतिक दल भी और वोटर भी, लेकिन समग्रता में अंतत: दोनों का ही नुकसान होता है। इस तथ्य को सभी दल जानते हैं, लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं है। चूंकि आज राजनीति का मकसद सत्ता प्राप्त करना ही हो गया है, इसलिए हर राजनीतिक दल इसी चाहत में राज्य के साथ ही भविष्य की बलि देता जा रहा है। चूंकि कांग्रेस लगातार ऐसे वादे कर रही है। ऐसे में उसके मुकाबले वाले दूसरे दल क्यों पीछे रहेंगे? देश की आर्थिक सेहत के लिए इस मुफ्त के वादे की सीमा को निर्धारित करना ही होगा। अन्यथा दीर्घकाल में इसके परिणाम बहुत घातक होंगे। इस मामले में अब निगाहें चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट पर हैं। इसे लेकर संवैधानिक संस्थाओं को कदम उठाने होंगे। सत्ता के खेल में जुटे राजनीतिक दल तो इस पर गंभीरता से विचार करने से रहे।
Date:15-06-23
सहजीवन की दुश्वारियां
संपादकीय
आधुनिकता के नाम पर युवाओं ने जीवन को अपने ढंग से जीने की आजादी लगभग हासिल कर ली है। लगता है, शिक्षित समाज का एक बड़ा हिस्सा इसे उनका अधिकार मान कर स्वीकार भी कर चुका है। रूढ़ियों को ढोते रहना प्रगतिशील समाज की निशानी भी नहीं होती। मगर दिक्कत तब होती है, जब समाज की मूल बनावट और उसके मिजाज को रूढ़ि करार देकर ध्वस्त करने का प्रयास किया जाता है। जीवन जीने की आजादी का अर्थ बहुत सारे युवाओं ने स्वच्छंद जीना समझ लिया है। इसी का नतीजा है कि अपनी पसंद के किसी साथी के साथ बिना विवाह के रहना एक आम प्रवृत्ति बनती जा रही है। शुरू में इस प्रवृत्ति का पुरजोर विरोध हुआ, मगर कुछ लोगों ने इसके पक्ष में आवाजें उठानी शुरू कर दीं, सहजीवन को निजता के अधिकार से जोड़ कर देखा जाने लगा, तब यह प्रवृत्ति अपनी जड़ें जमाती गई। अब इसके अनेक नकारात्मक प्रभाव नजर आने लगे हैं। सहजीवन में रह रहे जोड़ों के हिंसक व्यवहार की अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं। मगर इस प्रवृत्ति में कोई बदलाव नजर नहीं आ रहा। केरल उच्च न्यायालय ने ऐसे ही एक मामले में कहा कि सहजीवन को किसी भी वैवाहिक कानून के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है। दरअसल, केरल में बिना विवाह के साथ रह रहे एक जोड़े ने अदालत में तलाक की अर्जी लगाई थी।
बिना विवाह किए साथ रहने में यह तो आजादी है कि दोनों में अगर किसी तरह का मतभेद होता है और वे अलग होना चाहते हैं, तो हो सकते हैं। इसी आजादी के चलते बहुत सारे युवा सहजीवन में रहने का फैसला करते हैं। मगर दिक्कत तब शुरू होती है, जब वैवाहिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए बने कानूनों के उपयोग की बारी आती है। सहजीवन में रह रही लड़कियां घरेलू हिंसा के मामले में किसी तरह की कानूनी सहायता नहीं प्राप्त कर पातीं। ऐसे जोड़ों का प्राय: अपने परिवार से संबंध विच्छेद हो चुका होता है, इसलिए वहां से भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाती। विवाह के बाद एक लड़की को जो कानूनी सुरक्षा और अधिकार मिल जाते हैं, वह सहजीवन में रहते हुए नहीं मिल सकते। इस तरह वह न तो किसी भी रूप में अपने भरण-पोषण का दावा कर सकती है और न अपने साथी की संपत्ति में हिस्सा मांग सकती है। अगर सहजीवन में रहते हुए उन्हें किसी संतान की उत्पत्ति होती है, तो उसका अधिकार भी बाधित रहता है।
हर समाज की अपनी अलग संरचना होती है। भारतीय समाज में किसी भी स्त्री-पुरुष को बिना विवाह के साथ रहने की इजाजत नहीं है। यहां स्त्री-पुरुष का साथ केवल जिस्मानी नहीं, कई स्तरों पर जुड़ा होता है। फिर भी पश्चिमी प्रभावों में कुछ युवा अपनी आजादी का तर्क देते हुए बिना विवाह के साथ रहना शुरू कर देते हैं। उन्हें लगता है कि विवाह एक प्रकार की सामाजिक झंझट है, इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म हो जाती है। मगर वे शायद भूल जाते हैं कि उनकी मानसिक बुनियाद इसी समाज में तैयार हुई है और इसी सामाजिक वातावरण में उन्हें रहना पड़ता है, इसलिए शादी न करने के बावजूद उनके सामने भी वही दुश्वारियां, वही संघर्ष पेश आते हैं, जो सामान्य वैवाहिक जीवन में आती हैं। इस तरह बेशक वे समाज में अलग-थलग पड़ जाते हैं। जब तक इस संबंध में कोई कानून नहीं बन जाता, जो कि खासे विवाद का विषय है, सहजीवन की दुश्वारियां समाप्त नहीं होंगी।
Date:15-06-23
पर्यटन क्षेत्र की चुनौतियां
जयंतीलाल भंडारी
भारत का पर्यटन उद्योग कोविड के निराशाजनक दौर से निकल कर लगातार आगे बढ़ रहा है, लेकिन ‘भारत पर्यटन सांख्यिकी रपट 2022’ सहित विभिन्न रपटों में बार-बार कहा जा रहा है कि अब भी भारत का पर्यटन उद्योग दुनिया के छोटे-छोटे देशों से बहुत पीछे है। वैश्विक पर्यटन सूचकांक में भारत का स्थान चौवनवां है। दुनिया भर के कुल पर्यटकों में से करीब 1.64 फीसद विदेशी पर्यटक ही भारत आते हैं।
सवाल है कि जिस भारत को दुनिया का प्रमुखतम पर्यटन देश होना चाहिए था, वह इस डगर पर पीछे क्यों है? इसके कई कारण दिखाई देते हैं। भारत की आकर्षक प्राकृतिक सुंदरता के बावजूद देश के कई हिस्सों के साथ संपर्क और आवश्यक पर्यटन सुविधाओं की कमी के कारण भारत घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की संतोषप्रद संख्या से बहुत दूर है। खासकर बुनियादी ढांचे की कमी के कारण कई बार पर्यटकों को वांछित पर्यटन स्थानों पर पहुंचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। देश में ऐसे कई अच्छे पर्यटन स्थल मौजूद हैं, जो सर्वेक्षणों, अवसंरचना और संपर्क की कमी के कारण अब भी लोगों की पर्यटन जानकारी से दूर हैं।
चूंकि पर्यटन उद्योग की ऊंचाई नए पर्यटन पाठ्यक्रमों से सुसज्जित युवाओं के कौशल पर निर्भर है और इसमें व्यावहारिक प्रशिक्षण एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन अब तक देश के कोने-कोने में प्रशिक्षित पर्यटक मार्गदर्शकों की उपलब्धता की कमी है। पर्यटन और आतिथ्य क्षेत्र के लिए पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित व्यक्तियों की कम संख्या भारत के पर्यटन उद्योग के लिए एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में देशभर में स्थित पर्यटन सूचना केंद्रों को सही ढंग से प्रबंधित न किए जाने के कारण घरेलू और विदेशी पर्यटकों के लिए आवश्यक जानकारी प्राप्त करना काफी मुश्किल हो जाता है। देश में ई-वीजा सुविधा जरूर शुरू की गई है, पर इसके बावजूद अब भी भारत में आने वाले अधिकांश पर्यटक और आगंतुक वीजा के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया को काफी जटिल मानते हैं। भारत में आने वाले विदेशी पर्यटकों को भी जिस तरह कई बार लूट और चोरी आदि का सामना करना पड़ता है और उसका प्रचार-प्रसार दुनिया भर में हो जाता है, जिसके कारण पर्यटकों के मन में देश की कानून-व्यवस्था को लेकर एक नकारात्मक छवि उत्पन्न होती है। गौरतलब है कि विश्व आर्थिक मंच सूचकांक में सुरक्षा के मामले में भारत को 114वें स्थान पर रखा गया है। भारतीय पर्यटन क्षेत्र के लिए एक बड़ी चुनौती यह भी है कि पर्यटन क्षेत्र में बहु-व्यंजन रेस्तरां, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं, सार्वजनिक परिवहन और स्वच्छता संबंधी कई कमियां भी हैं। हालांकि बीते कुछ वर्षों में भारत ने अपने पर्यटन क्षेत्र के प्रचार में काफी वृद्धि की है, पर अब भी दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत के पर्यटन स्थलों को लेकर प्रचार और जागरूकता की कमी स्पष्ट दिखाई दे रही है।
पर्यटन क्षेत्र के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए 2023-24 के केंद्रीय बजट में 1742 करोड़ रुपए का आबंटन किया गया है। हमारे गांव पर्यटन के केंद्र बन रहे हैं और बुनियादी ढांचे में सुधार के कारण सुदूर के गांव अब पर्यटन मानचित्र पर आ रहे हैं। केंद्र सरकार ने सीमा के पास स्थित गांवों के लिए ‘वाइब्रेंट विलेज योजना’ शुरू की है और गांवों के अनुकूल छोटे होटल और रेस्तरां जैसे व्यवसायों को सहायता प्रदान करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
दरअसल, पर्यटन संबंधी सुविधाओं में बढ़ोतरी होने से इस क्षेत्र में आकर्षण बढ़ा है। देशी-विदेशी पर्यटकों की संख्या बढ़ने से राजस्व तथा रोजगार बढ़ा है। वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से पहले यहां एक साल में लगभग अस्सी लाख लोग आते थे, लेकिन इसके नवीनीकरण के बाद पिछले साल पर्यटकों की संख्या सात करोड़ से अधिक दर्ज हुई। केदारघाटी में पुनर्निर्माण से पहले यहां आने वाले 4-5 लाख तीर्थयात्रियों की तुलना में पिछले साल 15 लाख श्रद्धालु आए। ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ का निर्माण पूरा होने के एक साल के भीतर 27 लाख पर्यटकों ने यहां की यात्रा की।
जैसे-जैसे भारत के पर्यटन स्थलों का विकास हो रहा और इसकी जानकारी दुनिया को हो रही है, वैसे-वैसे भारत में विदेशी पर्यटकों की संख्या भी बढ़ रही है। पिछले साल जनवरी में आए दो लाख पर्यटकों की तुलना में इस साल जनवरी में आठ लाख विदेशी पर्यटक भारत आए। भारत आने वाले विदेशी पर्यटक औसतन सत्रह सौ डालर खर्च करते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय यात्री अमेरिका में औसतन ढाई हजार डालर और आस्ट्रेलिया में लगभग पांच हजार डालर खर्च करते हैं। भारत के पास अधिक खर्च करने वाले पर्यटकों को देने के लिए बहुत कुछ है। ऐसे में प्रत्येक राज्य को इस विचार के अनुरूप अपनी पर्यटन नीति में परिवर्तन करने की जरूरत है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के कई ऐसे चमकीले बिंदु हैं, जो देश में पर्यटन के विभिन्न आयामों को आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। विविधताओं से भरे भारत में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। यहां की संस्कृति, संगीत, हस्तकला, खानपान से लेकर नैसर्गिक सुंदरता हमेशा से देसी-विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करती रही हैं। देश में विभिन्न पर्यटन तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इनमें समुद्र तट पर्यटन, हिमालय पर्यटन, साहसिक पर्यटन, वन्यजीव पर्यटन, पर्यावरण पर्यटन, विरासत पर्यटन, आध्यात्मिक पर्यटन, विवाह स्थल पर्यटन, खेल पर्यटन, रामायण सर्किट, बुद्ध सर्किट, कृष्णा सर्किट, गांधी सर्किट पर्यटन, सांस्कृतिक विरासत पर्यटन, जिओ-हेरिटेज पर्यटन, योग, आयुर्वेद और चिकित्सा पर्यटन आदि प्रमुख हैं।
निस्संदेह इस समय भारत में पर्यटन को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए निर्धारित तरीके से हट कर सोचने और आगे की योजना बनाने की आवश्यकता है। नागरिक सुविधाओं, अच्छी डिजिटल संपर्क, अच्छे होटल और अस्पतालों, साफ-सफाई और उत्कृष्ट बुनियादी ढांचे के साथ भारत का पर्यटन क्षेत्र कई गुना बढ़ सकता है। ताजा बजट के अनुसार पचास ऐसे पर्यटन स्थलों को विकसित करना होगा, जहां दुनिया का हर पर्यटक भारत आने को आकर्षित हो। संयुक्त राष्ट्र में सूचीबद्ध सभी भाषाओं में भारतीय पर्यटन स्थलों के लिए ऐप भी विकसित करना होगा। सचमुच ऐसी रणनीतियों से पर्यटन क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार बनाया जा सकेगा। इस समय जब भारत जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है और जनवरी 2023 से जी-20 देशों के प्रतिनिधियों के साथ दुनिया के विभिन्न देशों के अतिथि भी भारत में जी-20 की कार्य समूह की बैठकों में सहभागिता के साथ जिस तरह विभिन्न प्रदेशों के पर्यटन स्थलों में रुचि दिखा रहे हैं, उससे दुनिया में भारत के पर्यटन स्थलों का व्यापक प्रचार-प्रसार होगा।
हम उम्मीद कर सकते हैं कि देश में पर्यटन संबंधी प्रमुख समस्याओं के निराकरण से भारत का पर्यटन क्षेत्र वर्ष 2030 तक ढाई सौ अरब डालर तक की आमदनी प्राप्त करता दिखाई देगा। साथ ही दुनिया के अधिक देशों से अधिक विदेशी पर्यटकों को भारत में पर्यटन के लिए आकर्षित किया जा सकेगा। उम्मीद है कि भारत सरकार ने समावेशी विकास के माध्यम से 2030 तक पर्यटन उद्योग के जरिए 56 अरब डालर विदेशी मुद्रा अर्जित करने और लगभग 14 करोड़ नौकरियां सृजित करने का जो लक्ष्य निर्धारित किया है, वह साकार होता दिखाई देगा। पर्यटन क्षेत्र की चुनौतियों के कारगर समाधान से भारतीय अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार बन सकेगा। सरकार ने स्वतंत्रता के सौवें साल तक भारत को एक लाख करोड़ डालर की पर्यटन अर्थव्यवस्था वाला देश बनाने का जो लक्ष्य रखा है, वह मुट्ठियों में आता दिखाई देगा।
Date:15-06-23
दिल जीतना होगा
संपादकीय
भारत का पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर करीब चालीस दिनों से जातीय हिंसा की आग में जल रहा है। हालांकि राज्य में सेना और अर्धसैनिक बलों की तैनाती के बाद हिंसक घटनाअें में थोड़ी कमी जरूर आई है‚ लेकिन स्थायी शांति की राह में रुकावटें बनी हुईहैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पहले हिंसा की न्यायिक जांच की घोषणा करते हुए कहा कि दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा। इसके बाद केंद्र सरकार की ओर से शांति समिति का गठन किया गया लेकिन कुकी–जोमी समुदाय ने इस समिति को लेकर अपना असंतोष जाहिर कर दिया है। आज दोपहर दो बजे राजभवन में इस समिति की पहली बैठक होनी है‚ लेकिन कुकी और अन्य समुदायों के रुख से ऐसा लगता है कि वे समिति की बैठक में शामिल नहीं होंगे। इससे शांति बहाली की प्रक्रिया को धक्का लग सकता है। शांति बहाली के प्रयासों के तहत केंद्र सरकार द्वारा गठित इस शांति समिति में मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह को शामिल किए जाने से कुकी समुदाय नाराज है। राज्य में कुकी और नागा समुदाय के लोगों का विश्वास अर्जित करने में मुख्यमंत्री विफल रहे हैं। उनका मानना है कि मुख्यमंत्री का रुख निरपेक्ष नहीं है। समिति में उनको शामिल करने से पहले उनसे सहमति नहीं ली गई। कुकी समुदाय को यह समझने की जरूरत है कि मुख्यमंत्री राज्य का प्रशासनिक प्रमुख होता है। उसका अनुपस्थिति में किसी भी तरह का नीतिगत फैसला लिया ही नहीं जा सकता। इसलिए राज्य के लोगों के व्यापक हितों को देखते हुए इसे मुद्दा बनाना दूरदर्शी कदम नहीं होगा। राज्यपाल की अध्यक्षता में गठित शांति समिति में समाज के सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया है। लेकिन कुकी समुदाय का मानना है कि राज्य में हिंसा रोकने में राज्य सरकार पूरी तरह विफल रही है‚ लिहाजा इस समिति में केंद्र सरकार का भी प्रतिनिधि होना चाहिए। उनकी इस बात का समर्थन किया जा सकता है। दरअसल‚ राज्य के बहुसंख्यक मैतई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने से कुकी और नागा समुदाय भड़के हैं। उनका लग रहा है कि हमारा हक छीना जा रहा है। उन्हें राज्य सरकार से न्याय की उम्मीद नहीं है। इसलिए केंद्र सरकार की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि इन समुदायों को समझा–बुझाकर इनका विश्वास अर्जित किया जाए। केवल सुरक्षा बलों की तैनाती से राज्य में शांति बहाल नहीं हो सकती।
जलवायु परिवर्तन ने घटाया फलों का आकार और स्वाद
एस के सिंह, ( कृषि एवं फल वैज्ञानिक )
जून महीने में अप्रत्याशित रूप से बढ़े तापमान ने लीची और आम का स्वाद फीका कर दिया है। फल कम रसीले हैं। उनके आकार छोटे हो गए हैं। उपज भी प्रभावित हुई है। बिहार ही नहीं, पूरे देश में असर है। आम और लीची के शौकीनों को इस बार अच्छे स्वाद के फल ढूंढ़ने पड़ रहे हैं। यह सब जलवायु परिवर्तन के चलते हुआ है।
आने वाले दिनों में इसका और व्यापक असर देखने को मिलेगा। जलवायु में हो रहे परिवर्तन लीची और आम की खेती के लिए गंभीर खतरे के रूप में उभर रहे हैं। पिछले कई वर्षों से अप्रैल से मई माह के बीच का पारा 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रह रहा है। जून में तो तापमान 44 डिग्री से भी ज्यादा चल रहा है।
लीची की बात करें, तो फल की तुड़ाई के समय तक अधिकतम तापमान 38 डिग्री से कम होना चाहिए। इस बार अत्यधिक गरमी की वजह से लीची के फल के छिलके झुलस गए हैं। छिलके की कोशिकाएं मर गईं, तो छिलके फट गए। बागों में ही 60 प्रतिशत से अधिक फल फट गए। खेत में नमी नहीं रहने से फल गिरने की प्रक्रिया तेज हो गई। फल जल्दी पकने लगे, इससे बागान मालिकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। भारत में 97.91 हजार हेक्टेयर में लीची की खेती हो रही है, जिससे कुल 720.12 हजार मैट्रिक टन उत्पादन प्राप्त होता है। बिहार में लीची की खेती 36.67 हजार हेक्टेयर में होती है, इससे 308.06 हजार मैट्रिक टन फल प्राप्त होता है। भारत में पैदा होने वाली लीची का लगभग 40 फीसदी बिहार में ही होता है। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे प्रदेशों में भी लीची की खेती होती है। अकेले बिहार के मुजफ्फरपुर में 11 हजार हेक्टेयर में लीची के बाग हैं। ज्यादातर किसान लीची की शाही और चाइना किस्म की खेती करते हैं। भारत में लीची 18वीं शताब्दी में चीन से बर्मा होते हुए भारत आई थी। विश्व में लीची उत्पादन का 91 प्रतिशत हिस्सा भारत और चीन का है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के चलते फलों के जल्द खराब होने से स्थानीय स्तर पर ही ज्यादा खपत होती है।
लीची के विकास की हरेक प्रक्रिया में उचित तापमान का होना जरूरी है। तापमान और आर्द्रता से फूल की कली का विभेदन, फूल आना, फल लगना, फलों की गुणवत्ता और स्वाद का विकास काफी प्रभावित होता है। लीची की खेती दिसंबर से फरवरी तक न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस और अप्रैल से जून तक 38 डिग्री सेल्सियस वाले क्षेत्रों में अत्यधिक सफल होती है। फूल और फल लगने के दौरान तापमान 21 डिग्री सेल्सियस से 37.0 डिग्री सेल्सियस के बीच अच्छा माना जाता है। आजकल तापमान इससे ऊपर रह रहा है।
स्वाद बढ़ाने के लिए लीची के बागान में मधुमक्खी पालन भी बड़े पैमाने पर होता है। लीची के बागों में मधुमक्खी पालन से गुणवत्ता वाले फलों की पैदावार 15-20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। अत्यधिक गरमी हो, तो मधुमक्खियां कम सक्रिय होती हैं। इससे भी गुणवत्ता प्रभावित हुई है और स्वाद भी फीका हुआ है।
इसी तरह आम के फलों के विकास के लिए भी अनुकूल तापमान की स्थिति जरूरी है। ज्यादा गरमी पड़ने पर आम का विकास कम होता है। फलों के आकार छोटे हो जाते हैं। प्रति पेड़ फलों की संख्या कम हो जाती है। सनबर्न या असमान पकने की समस्या भी आती है। इस वर्ष भी यही पाया गया है। यही कारण है, आम के आकार पहले की तुलना में छोटे और फीके रंग में दिख रहे हैं। स्वाद भी पहले जैसा नहीं है। इस बार कई राज्यों में ज्यादा तापमान के चलते आम के मंजर झड़ गए, उत्पादन घट गया। जलवायु परिवर्तन के असर व उच्च तापमान ने फलों को जल्दी पका दिया है। लू की वजह से पके फलों की उम्र कम हो गई है।
उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि लीची और आम के बाग का वैज्ञानिक ढंग से प्रबंधन किया जाए, तभी हम जलवायु परिवर्तन के प्रकोप का सामना कर सकते हैं। सरकार को भी चाहिए कि बागान मालिकों और आम-लीची के उत्पादक किसानों को प्रशिक्षण दे। किसानों को चाहिए कि मंजर लगने के समय से ही बाग का प्रबंधन शुरू कर दें। इससे हम लीची और आम की उन्नत किस्मों का स्वाद ज्यादा दिनों तक पा सकते हैं।