15-06-2017 (Important News Clippings)

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15 Jun 2017
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Date:15-06-17

Ray of hope

Quick resolution of top 12 stressed accounts can break bad loan gridlock indeed

The gridlock around India’s bad loan problem has begun to dissipate. On Tuesday, Reserve Bank of India announced that it will direct banks to begin insolvency proceedings on 12 borrowers accounting for 25% of the total bad loans. This measure, an outcome of an ordinance promulgated last month by NDA, offsets two main problems causing the gridlock. One, the coordination problems between banks which have an exposure to a company in default is removed. Two, it mitigates bankers’ anxiety that commercial decisions will be subject to vigilance enquiries.

An internal committee of RBI chose a set of non-discretionary measures to identify bad loans for resolution under the new bankruptcy law. From a universe of top 500 bank exposures, the committee identified 12 non performing accounts for quick resolution. An important outcome of this move is that it sets a timeline for resolution as the bankruptcy law requires the resolution process to be completed in nine months. The sooner the resolution process is completed, the lower will be the incidence of loss for banks. A delay not only hurts banks, it chokes the flow of credit to the entire economy.

Much work remains ahead. The bankruptcy law is of recent origin and hasn’t really been tested. Even if the bankruptcy law is superior to the piecemeal legislations that existed earlier, its efficacy will rest on how different participants in the process such as tribunals deal with the work that lies ahead. Also, for the banking system to begin lending in a big way, government will have to infuse additional capital to offset the impairment which will accompany this resolution process. But on balance, there is reason to now be hopeful on the bad loan front.


Date:15-06-17

रोजगार को ध्यान में रखकर आर्थिक रणनीति बनानी होगी

प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी आगामी रविवार को देश में रोजगार की स्थिति की समीक्षा करने वाले हैं। चूंकि बड़े पैमाने पर जॉब पैदा करने के वादे पर ही भाजपा को 2014 में जीत मिली थी, यह सरकार की मुख्य प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन, सरकार इसे लेकर कितनी गंभीर है यह इससे पता चलता है कि देश में रोजगार की दर, बेरोजगारी और जॉब के पूरे परिदृश्य पर विशाल डेटा संग्रहित करने का कोई पुख्ता तंत्र ही नहीं हैै। हर तिमाही में लेबर ब्यूरो कुछ आंकड़े जारी करता है उसी से कुछ संकेत मिलता है। हमें हर माह दस लाख नौकरियों की जरूरत है, जबकि सिर्फ दस हजार जॉब निर्मित हो रहे हैं। प्रधानमंत्री 2020 तक भारत की औसत आयु 29 होने का हवाला देकर युवा आबादी के फायदे की बात करते रहते हैं लेकिन, सवाल यह है कि उसे भुनाने के लिए कौन-से सार्थक कदम उठाए गए हैं। रोजगार न बढ़ने की एक वजह तो यह है कि कड़े रोजगार कानूनों के कारण कंपनियां श्रम की बजाय पूंजी आधारित उत्पादन की ओर जा रही हैं। बड़ी कंपनियों की तुलना में अति लघु, छोटे और मध्यम उद्योग चार गुना ज्यादा रोजगार देते हैं लेकिन, उनके लिए कर्ज जुटाना तो मुश्किल है ही ऐसी ढेर सारी समस्याएं हैं, जिन्होंने इन्हें पंगु बना रखा है। दिक्कत यह है कि करों में राहत, सब्सिडी, डेप्रिसिएशन अलाउंस सबकुछ निवेश की राशि से जुड़ा है, जबकि इन्हें संबंधित उद्योग से मिलने वाले जॉब की संख्या से जोड़ा जाना चाहिए। कंपनियां स्वचालित व डिजिटल प्रक्रियाओं को अपना रही है। एक स्वचालित मशीन आती है तो सात श्रमिकों का रोजगार चला जाता है। जरूरत इस बात है कि आर्थिक वृद्धि के नतीजों पर नज़र रखने की बजाय विकास की सारी रणनीति जॉब पर केंद्रित होनी चाहिए। हमें स्वीकार करना होगा कि मैन्यूफैक्चरिंग में अब बड़े पैमाने पर रोजगार देने की क्षमता नहीं है। श्रम कानून तो लचीले बनाने ही होंगे बल्कि निजी स्तर पर उद्यम को प्रोत्साहन देना होगा चाहे वह छोटा-मोटा काम-धंधा हो या कोई स्टार्टअप। शिक्षा प्रणाली को तत्काल बदल कर नए युग के अनुरूप ‘स्किल सेट’ उसमें जोड़ने होंगे। फूड प्रोसेसिंग जैसे जॉब देने वाले उद्योगों को बढ़ावा देना होगा। यह सब जितनी जल्दी हो जाए अच्छा है वरना हिंसक आंदोलनों का सिलसिला और बढ़ेगा।


Date:15-06-17

ट्रम्प, भारत और पेरिस जलवायु समझौता

भारत पर पेरिस जलवायु समझौते में शामिल होने के लिए ‘अरबों-अरब डॉलर’ की मांग करने का आरोप लगाकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दुनिया के दो विशाल लोकतंत्रों के बीच निकट संबंधों की संभावना को धक्का पहुंचाया है। ट्रम्प द्वारा पेरिस समझौते पर केवल भारत को निशाना बनाने के बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कड़ा जवाब देते हुए कहा, ‘इस बात में बिल्कुल भी सच्चाई नहीं है।’ उन्होंने कहा कि भारत ‘लालच अथवा भय’ के कारण नहीं बल्कि पर्यावरण रक्षा के लिए प्रतिबद्धता के कारण इसमें शामिल हुआ।

ट्रम्प जोर देते हैं कि भारत को 2020 तक कोयले का उत्पादन दोगुना करने दिया जाएगा, जबकि अमेरिका से अपेक्षा है कि वह इससे मुक्ति ही पा ले। भारत अपनी जरूरत की दो-तिहाई बिजली कोयले से चलने वाले बिजलीघरों से प्राप्त करता है। उसे उस सस्ती प्राकृतिक गैस का फायदा नहीं है, जिसके कारण हाल के वर्षों में अमेरिका कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन घटा पाया है। पेरिस समझौते के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ध्यान दिलाया था कि भारत को 125 करोड़ लोगों की अपेक्षाएं पूरी करने के लिए तेजी से तरक्की करनी होगी, जिनमें से 30 करोड़ की पहुंच ऊर्जा साधनों तक नहीं है। चीन और अमेरिका के बाद भारत प्रदूषणकारी गैसों के उत्सर्जन में तीसरे स्थान पर है पर वह प्रभावशाली आर्थिक तरक्की के कारण है। भारत लंबे समय से ‘साझी लेकिन भिन्न जिम्मेदारी’ पर जोर देता रहा है। यानी जो औद्योगिक देश वायुमंडल का तापमान बढ़ाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं उन्हें अधिक जिम्मेदारी उठानी चाहिए।
भारत ने गैसों का उत्सर्जन कम करने की तैयारी दिखाई है बशर्ते विकसित देश अपने हिस्से का काम करके मिसाल पेश करे। ट्रम्प के बयान के बाद भी भारत सरकार ने समझौते के तहत अपनी वचनबद्धता पूरी करने की पुष्टि की है। हाल ही में फ्रेंच राष्ट्रपति एमेन्युअल मैक्रॉन के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस में मोदी ने ‘पेरिस समझौते के परे’ जाकर भी गैसों का उत्सर्जन घटाने पर ‘काम जारी’ रखने का संकल्प जताया। भारत ने ज्यादा प्रदूषण पैदा करने वाले परम्परागत ऊर्जा स्रोतों से अलग होने की महत्वाकांक्षी योजना भी घोषित की है। उम्मीद है कि 2030 तक 40 फीसदी बिजली अक्षय ऊर्जा स्रोतों से पैदा होगी। अपेक्षा है कि 2022 तक तो 100 गीगावॉट बिजली सौर ऊर्जा स्रोतों से मिलने लगेगी। सच तो यह है कि इस साल भारत सौर ऊर्जा उत्पादन में जापान को पीछे छोड़कर चीन व अमेरिका के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश हो जाएगा। भारत ने ध्यान दिलाया है कि चीन में दुनिया की 17.5 फीसदी और भारत में 17 फीसदी आबादी रहती है लेकिन, प्रदूषणकारी गैसों के उत्सर्जन में चीन का योगदान 23 फीसदी तो भारत का सिर्फ 10 फीसदी योगदान है। प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन के मामले में तो भारत का स्थान एगुइला और मल्दोवा के बीच128वें स्थान पर है।
मोदी और स्वराज जैसे भारतीय नेता हमेशा पर्यावरण के प्रति भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक लगाव का जिक्र करते हैं। ट्रम्प को दिए जवाब में भी सुषणा स्वराज ने कहा था कि पर्यावरण के प्रति हमारी प्रतिबद्धता 5 हजार वर्ष पुरानी है। पेरिस समझौते को ‘काला वित्तीय व आर्थिक बोझ’ बताने का ट्रम्प का दावा अजीब है, क्योंकि समझौता स्वैच्छिक है और बंधनकारी नहीं है। सारे देश उत्सर्जन घटाने और उसका अपना लक्ष्य तय कर सकते हैं और उसके लिए नीतियां बना सकते हैं। फिर यदि कोई देश ‘राष्ट्रीय स्तर पर तय’ लक्ष्य हासिल करने में विफल होता है तो कोई पेनल्टी भी नहीं लगाई जानी है। सार्वजनिक रूप से समझौते के प्रति वचनबद्धता दिखाकर हर देश अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए आत्म-सम्मान के साथ बंधा है।
ट्रम्प जब कहते हैं कि अमेरिका को कोयले से बिजली बनाने की अनुमति नहीं दी गई, जबकि भारत ऐसा कर सकता है, तो वे एक बात भूल जाते हैं कि समझौते पर दस्तखत करने वाले सभी 195 देशों ने राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान की पेशकश की है। यदि ट्रम्प को ओबामा प्रशासन द्वारा दिखाई वचनबद्धता अस्वीकार है तो वे किसी भी समय उसकी समीक्षा कर नए लक्ष्य रख सकते थे। हालांकि, तब भी उन्हें वैश्विक तिरस्कार सहन करना पड़ता, खासतौर पर उन देशों की ओर से, जो सिर्फ इसलिए समझौते में शामिल हुए थे, क्योंकि अमेरिका इसमें योगदान दे रहा था। अब जोखिम यह है कि भारत को खलनायक बताने का ट्रम्प का प्रयास 2000 से चल रही द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की प्रक्रिया बेपटरी कर देगा। अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन प्रशासन ने समान रूप से भारत के साथ रणनीतिक भागीदारी पर जोर दिया, जो दोनों को जोड़ने वाले मौजूदा व्यापार, निवेश और बड़े वाणिज्यिक व पारिवारिक नेटवर्क पर आधारित हो। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की टिप्पणी ने इन प्रयासों को गौण बना दिया है।
भारत में अटकलें लगाई जा रही हैं कि संभव है मोदी इस माह के अंत में होने वाली अमेरिकी यात्रा टाल देंगे। ऐसा करना बुद्धिमानी नहीं होगी। भारत के सामने राजनयिक चुनौती यह है कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा गाहेबगाहे पैदा किए गए विवाद से कैसे निपटे, क्योंकि ट्रम्प तो अपने घरेलू समर्थकों को देखकर बोलते हैं। अन्यथा भारत अमेरिका से अपने रिश्ते के कारण मिले अंतरराष्ट्रीय और भू-राजनीतिक फायदे गंवा देगा। भारत-अमेरिका यदि पेरिस समझौते पर भिन्न मत रखते भी हैं तो भी दोनों देश अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्र में तालमेल जारी रख सकते हैं। उदाहरण के लिए सऊदी अरब की हाल की अपनी यात्रा में ट्रम्प ने भारत को भी आतंकवाद का शिकार देश बताया। इस बीच दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर सालाना से ऊपर पहुंच गया है और वाशिंगटन में भारतवंशियों का प्रभाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। अमेरिकी संसद के निचले सदन प्रतिनिधिसभा में भारतीय मूल के पांच सदस्य हैं,जबकि सीनेट में भी एक सदस्य है। ये वे आधार हैं, जिन पर मजबूत भारत-अमेरिका संबंधों का निर्माण किया जा सकता है। हमें केवल गाहेबगाहे व्हाइट हाउस से होने वाले बयानों की अनदेखी करनी है।
शशि थरूर विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री (ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Date:15-06-17

नीतिगत बदलाव का असर

लंबे समय से पिछड़ा हुआ खाद्य प्रसंस्करण उद्योग आखिरकार बेहतरी की दिशा में बढ़ता नजर आ रहा है। बीते चार महीनों में इस क्षेत्र में करीब 70 करोड़ डॉलर का नया निवेश हुआ है। इस निवेश ने करीब 20 कंपनियों के बंद होने से मची अफरातफरी को थामा है। फिलहाल निकट भविष्य में कृषि-प्रसंस्करण उद्योग के लिए हालात बेहतर नजर आ रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो यह संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र के लिए भी शुभ संकेत लेकर आएगा। क्योंकि उस स्थिति में फसल कटाई के बाद होने वाला नुकसान कम होगा। एक अनुमान के मुताबिक यह नुकसान सालाना करीब 92,000 करोड़ रुपये का है और इससे कृषि आय में बढ़ोतरी होगी। इसके अलावा चूंकि यह श्रमसाध्य गतिविधि है इसलिए यह पूरक रोजगार भी मुहैया करा सकती है। इसकी मदद से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाखों छोटे और सीमांत किसानों को रोजगार मिल सकता है जो अपनी छोटी जोत के चलते ठीक तरह से गुजारा नहीं कर पाते।

 इस क्षेत्र में तेजी के लिए हाल के दिनों में की गई कुछ बेहतर नीतिगत पहल जिम्मेदार हैं। इनमें से सबसे अहम पहल रही है ई-कॉमर्स समेत खाद्य उत्पादों के लिए बहुब्रांड खुदरा में पूर्ण प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मंजूरी। हालांकि इसमें यह शर्त जुड़ी हुई है कि इनका उत्पादन और प्रसंस्करण दोनों ही भारत में होना चाहिए। इस श्रेणी के अन्य सुधारों में खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों और शीत गृहों को प्राथमिकता आधारित ऋण के दायरे में लाना और इन्हें रियायती ऋण उपलब्ध कराने के लिए नाबार्ड के अधीन 2,000 करोड़ रुपये का विशेष फंड तैयार करना शामिल है। प्रस्तावित नई खाद्य नीति का मसौदा पहले ही सार्वजनिक किया जा चुका है। उसमें भी कुछ अहम उपायों की बात कही गई है जो कारोबारी सुगमता सुनिश्चित करने से जुड़े हैं। उदाहरण के लिए खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों के लिए लीज पर दी गई जमीन की सीलिंग को खत्म किए जाने की योजना है ताकि जमीन तक अबाध पहुंच सुनिश्चित की जा सके। इसके अतिरिक्त कृषि प्रसंस्करण को कृषि गतिविधि घोषित किए जाने की योजना है ताकि जमीन के इस्तेमाल का स्वरूप बदला जा सके और श्रम कानूनों की अड़चन से बचा जा सके। इतना ही नहीं सरकार ने कुछ अन्य वादे किए थे, मसलन एकल खिड़की मंजूरी, स्वनियमन और पूरे राज्य को कृषि उत्पादों के लिए एक क्षेत्र घोषित करना। इनका भी निवेशकों पर सकारात्मक असर हुआ है। वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर कर दर को पूर्व निर्धारित 18 फीसदी से घटाकर 12 फीसदी करने का प्रस्ताव भी ऐसा ही एक कारक है। कुछ मामलों में इसमें और कमी की जानी चाहिए थी जिससे कृषि जिंसों के लिए बहुत जरूरी मूल्यवर्धन को बढ़ावा मिलता।
कहना नहीं होगा कि अभी काफी कुछ किया जाना है। खाद्य उत्पादकों और प्रसंस्करण करने वालों के बीच संवाद बढ़ाना आवश्यक है। मौजूदा नीति बड़े खाद्य पार्कों और बड़े खाद्य आधारित औद्योगिक क्लस्टर्स की ओर झुकी हुई है। इस नीति में सुधार आवश्यक है। चूंकि इस क्षेत्र में छोटी जोत के खेतों का दबदबा है और उत्पादों खासतौर पर सब्जियों और फलों की प्रकृति भी मौसमी है इसलिए इनको लंबे समय तक टिकाऊ बनाए रखने में सूक्ष्म, लघु और मझोली प्रसंस्करण इकाइयों की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती है। खेत के स्तर पर प्राथमिक प्रसंस्करण को उचित प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए और गांवों या गांवों के समूह में कुटीर प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना बेहतर लाभ दे सकती है। ऐसी इकाइयां किसानों और फैक्टरियों के बीच अहम कड़ी हो सकती हैं। यह आवश्यक है क्योंकि ज्यादा राज्यों ने खराब होने वाली उपज को नियमित मंडी से बाहर बेचने की छूट नहीं दे रखी है। इसके अलावा शीत गृहों की शृंखला में होने वाला विस्तार अहम है। ऐसी कुछ योजनाएं शुरू हैं लेकिन उनकी प्रगति तेज करने की आवश्यकता है।

Date:15-06-17

हमें कहां लेकर जाएगा यह जुड़ाव?

बीते दिनों कजाखस्तान की राजधानी अस्ताना में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सम्मेलन में भारत और पाकिस्तान को भी इस समूह की सदस्यता प्रदान की गई। वर्तमान वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में जब महाशक्तियां क्षेत्रीय संगठनों का प्रयोग नए संतुलनों के निर्माण के लिए कर रही हों, तो भारत जैसे देश के लिए भी यह जरूरी हो जाता है कि वह ऐसे संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाए, जिससे उसे क्षेत्रीय ताकत के रूप में प्रतिष्ठित होने का अवसर मिल सकता है। एससीओ का पूर्ण सदस्य बनना भारत के लिए एक अवसर साबित हो सकता है, लेकिन क्या यहां से गुजरने वाला रास्ता बेहद सरल होगा? क्या इस समूह से जुड़े चीन और पाकिस्तान भारत के हितों को पूरा करने देंगे? ये दोनों ही देश विशेषकर सीमा संघर्ष एवं आतंकवाद को लेकर भारत के लिए चुनौती बने हुए हैं। ऐसे में इन दोनों के साथ भारत इस मंच पर किस तरह की मित्रता की अपेक्षा रखेगा? पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ चलाए जा रहे छद्म युद्ध के चलते भारत दक्षेस के पिछले शिखर सम्मेलन का बहिष्कार कर चुका है, लेकिन उसी पाकिस्तान के साथ वह अब एससीओ में शामिल है। क्या एससीओ ने इस तरह पाकिस्तान को भारत के समकक्ष लाकर भारत के कद को कम करके आंकने का काम नहीं किया है? यदि ऐसा है तो क्या भारत एससीओ में सहज महसूस कर पाएगा?

ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले समय में एससीओ में किस तरह संतुलन बनता है, यानी सभी सदस्य संयुक्त रूप से पारस्परिक सहयोगी बनकर कार्यक्रमों का संयोजन एवं लक्ष्यों को हासिल करने का प्रयास करेंगे या फिर इसमें दो ध्रुव बनेंगे और आगे की कूटनीति इनके बीच संतुलन व प्रतिस्पर्द्धा की होगी? एससीओ आतंकवाद, नशीले पदार्थों की तस्करी, साइबर सुरक्षा के खतरों आदि पर महत्वपूर्ण खुफिया जानकारी का साझा करता है, काउंटर-टेररिज्म और सैन्य अभ्यास में संयुक्त भूमिका निभाता है, इसलिए भारत को इसके जरिए आतंकवाद से लड़ने में सहयोग मिलना चाहिए। भारत एससीओ के अंदर पाकिस्तान की आतंकी नीतियों को लेकर दबाव बना सकता है तथा एशिया की चुनौतियों और समस्याओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अवसर प्राप्त कर सकता है। संभव है कि भारत इसमें अपनी क्षमता का प्रदर्शन करते हुए स्वयं को एक क्षेत्रीय ताकत के तौर पर प्रोजेक्ट करने में भी सफल हो जाए। यह भी संभावना है कि उज्बेकिस्तान और कजाखस्तान के साथ कनेक्टिविटी स्थापित कर चाबहार प्रोजेक्ट के माध्यम से भारत इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट को यूरेशिया तक पहुंचा सकता है। लेकिन क्या चीन ऐसा होने देगा?

इस संगठन से भारत क्या अपेक्षाएं रखता है अथवा कौन सी महत्वाकांक्षाओं को लेकर भारत इस संगठन का पूर्ण सदस्य बना है, यह अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन पाकिस्तान काफी पहले से अपने पंख फैलाने को बेताब था ताकि वह बहुपक्षीय अवसरों को प्राप्त करने के लिए यूरेशिया से जुड़ सके और भारतीय लक्ष्यों को आच्छादित करने में कामयाब हो सके। वैसे सार्क तथा आर्थिक सहयोग संगठन में पाकिस्तान की भूमिका नकारात्मक रही है। उसके इस ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए एससीओ में उससे बेहतर की उम्मीद नहीं की जा सकती। तो आखिर पाकिस्तान को एससीओ की पूर्ण सदस्यता क्यों दी गई? दरअसल यह चीनी षड्यंत्र है, जिस पर रूस ने भी अपनी मुहर लगाई है। चीन भलीभांति जानता है कि दुनिया के सामने अपने संभ्रांत चेहरे का प्रदर्शन करने के लिए वह भारत का विरोध उस स्तर पर नहीं कर पाएगा, जिस स्तर पर पाकिस्तान करेगा, इस लिहाज से भारत के साथ पाकिस्तान का प्रवेश जरूरी था।

दूसरी बात यह है कि पाकिस्तान में चीन के सामरिक और आर्थिक हित निहित हैं, जिसे चीन के पाकिस्तान में निवेश, चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर (सीपेक), ग्वादर बंदरगाह के साथ एक अन्य सैन्य बंदरगाह की योजना के रूप में देख सकते हैं। यही नहीं, चीन पाकिस्तान के सहयोग से ही स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स, सीपेक एवं न्यू मैरीटाइम सिल्क रूट के जरिए भारत को घेरने की रणनीति पर काम कर रहा है। यही वजह है कि चाहे चाहे एनएसजी की सदस्यता का मसला हो, सिविल न्यूक्लियर प्रोग्राम्स का या फिर आतंकवादियों पर शिकंजा कसने के भारतीय प्रयासों का, चीन बेझिझक भारत के विरोध और अपने सदाबहार दोस्त पाक के पक्ष में खड़ा नजर आता है। यानी एससीओ में पाकिस्तान की भूमिका पूर्वनिर्धारित है। एससीओ चार्टर के अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि प्रत्येक सदस्य को ‘अच्छे पड़ोसीकी भावना का सख्ती से पालन करना होगा। एससीओ चार्टर द्विपक्षीय मुद्दे उठाने का प्रतिषेध करता है। यानी भारत यहां पर पाक के छद्म युद्ध को प्रमुख मुद्दा नहीं बना पाएगा, बल्कि पाक के साथ मिलकर आतंकवाद-विरोधी संयुक्त सैन्य अभ्यास करेगा।

एक बात और, चीन की ‘बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) अवधारणा के पीछे मुख्य प्रेरक एससीओ ही था। बीआरआई के जरिए बीजिंग ने यूरेशिया में अरबों डॉलर देने का जो वचन दिया है, उससे चीन अपने नव-औपनिवेशिक उद्देश्यों को पूरा करने की कोशिश करेगा। सीपेक, जो बीआरआई का ही एक घटक है, में एससीओ पूरी तरह से चीनी नजरिए के पक्ष में खड़ा है। चीन लगातार भारतीय सीमाओं पर गैर-अधिकृत गतिविधियां चलाता है और उसकी रेड आर्मी के सैनिक प्राय: भारत के संप्रभु क्षेत्रों में प्रवेश कर जाते हैं। इसे एससीओ किस रूप से देख रहा है, क्या भारत ने इस विषय पर गंभीरता से विचार किया है? चीन के अतिरिक्त अन्य मध्य एशियाई देश भी इस तरह की गतिविधियां चला रहे हैं। जैसे 1995 में किर्गिस्तान और कजाखस्तान ने पाकिस्तान के साथ ‘द क्वाड्रिलेट्रल ट्रैफिक इन ट्रांजिट एग्रीमेंट (क्यूटीटीए) पर हस्ताक्षर किए थे। ध्यान रहे कि यह ट्रांजिट कॉरिडोर काराकोरम हाइवे से गिलगित-बाल्टिस्तान होकर गुजरना था। अब तजाकिस्तान पुन: क्यूटीटीए के और कजाखस्तान सीपेक के प्रति दिलचस्पी दिखा रहा है।

कुल मिलाकर क्षेत्रीय संगठनों से जुड़ने को एक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए, लेकिन एससीओ के संदर्भ में कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। एक यह कि इस संगठन का रवैया कुछ हद तक नाटो के समानांतर खड़े होने का है, यानी भारत एक सैन्य संगठन का हिस्सा बन रहा है जो उसकी गुटनिरपेक्षता की नीति के खिलाफ है। द्वितीय यह कि जो देश लगातार भारत की सीमा व आतंरिक सुरक्षा को खतरे में डाल रहे हैं, अमर्यादित आचरण कर रहे हैं, अब इस मंच पर उनके प्रति मर्यादा, मित्रता एवं नैतिकता का प्रदर्शन करना है। जिनके साथ द्विपक्षीय वार्ता से परहेज करते हैं, उनके साथ बहुपक्षीय वार्ताएं करनी होंगी। जो सेना भारत को दुश्मन नंबर एक मानती है, उसके साथ दुश्मन के खिलाफ लड़ने हेतु युद्धाभ्यास करना है। इन विरोधाभासों को भी हमें समझना होगा।

डॉ रहीस सिंह(लेखक विदेशी मामलों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)


Date:14-06-17

Error of Commission

By calling for powers of contempt, the EC does a great disservice to its mandate

The Law Ministry is in receipt of a petition from the Election Commission, seeking amendments to the Contempt of Courts Act of 1971 which would empower it to take action against those who would impugn its majesty, whether by disobedience or discourtesy. The ministry has been considering the matter for a month, though it should be summarily dismissed. The EC has offered analogies, including that of its counterpart in Pakistan, which moved against Imran Khan this year. Perhaps the Pakistani electoral system needs muscular intervention, but after T.N. Seshan cleansed India’s Augean stables in the Nineties, the Indian EC should not require such powers. The EC has built itself an admirable trackrecord of honesty and fairness, which are key to the electoral system.

The Election Commission is the custodian of the secret ballot, but if it is called into question, its weapon of choice should be transparency. Punitive powers are most unseemly for a body which guarantees a level playing field at the bedrock of democracy. It had responded correctly to the politics surrounding electronic voting machines, which the Aam Aadmi Party had turned into a national issue.

In response to charges that EVMs could be rigged, it had invited interested parties and the public to a hackathon. Significantly, the AAP had declined to play, though it had been the loudest critic of the system. In fact, if the EC had immediately invited its critics to a hacking contest, EVM politics may not have found the room to grow into a serious issue. Besides, there were Delhi Chief Minister Arvind Kejriwal’s accusations of bias against specific officials of the body. One of them recused himself from all matters relating to the AAP, which was precisely the right thing to do. Having done that, to seek punitive powers is to lower the tone somewhat.

After decades in which it was seen to be perfect, the EC faces criticism and it must address it. However, it does not really have to satisfy every politician. It is sufficient for it to satisfy the people whom politicians represent. It is they who had originally articulated the need to act against electoral malpractice, and democracy is ultimately created by them and for them.It should not take much for the EC to reach out to the people and explain its processes transparently to them, or to reveal its polling data structures and technologies to specialists who can set public speculation at rest. This would be far more effective in clarifying its image than any contempt proceedings. The EC’s mandate is to montior elections, which are by definition areas of contestation. To ask for powers to pull up those criticising it, the EC is effectively seeking to chill the discourse and undermine itself.


Date:14-06-17

कर्जमाफी बनाम वित्त

महाराष्ट्र सरकार ने अपने राज्य के किसानों के कर्ज माफ करने का एलान क्या किया, दूसरे ही दिन केंद्रीय वित्तमंत्री अरुण जेटली का चेतावनी जैसा बयान आ गया। उन्होंने कहा कि अगर कृषिऋण माफ करना है, तो राज्य अपने संसाधनों के बूते करें; केंद्र इस मामले में उनकी कोई मदद नहीं करेगा। महाराष्ट्र से पहले उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों के कर्ज माफ करने का फैसला किया था। तब भी केंद्रीय वित्त मंत्रालय का रुख यही था, कि केंद्र से कोई मदद नहीं मिलेगी। यानी वित्त मंत्रालय पर पक्षपात या भेदभाव का आरोप नहीं लगाया जा सकता। लेकिन सवाल है कि इस मामले में भारतीय जनता पार्टी की नीति क्या है? महाराष्ट्र सरकार को किसानों के आंदोलन के आगे झुकना पड़ा। लेकिन उत्तर प्रदेश में तो कोई आंदोलन नहीं था। वहां कर्जमाफी की मांग को खुद भाजपा ने हवा दी और उसे अपना एक प्रमुख चुनावी मुद््दा बना दिया। खुद प्रधानमंत्री ने भरोसा दिलाया था कि अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही कृषिऋण माफ करने का फैसला हो जाएगा। हुआ भी, अलबत्ता व्यवहार में अभी लागू नहीं हुआ है। तब केंद्रीय वित्तमंत्री क्यों खामोश रहे?

जब प्रधानमंत्री खुद कर्जमाफी का आश्वासन दे रहे हों, यानी उनकी नजर में वह एक उचित कदम हो, तो केंद्र पूरी तरह पल्ला कैसे झाड़ सकता है? जब चुनाव जीतने की गरज हो तो कर्जमाफी सही हो जाएगी, और बाद में उसे गलत बताया जाएगा, यह दोहरा रवैया कैसे चल सकता है! कृषिऋण की माफी पर रिजर्व बैंक के गवर्नर भी चेता चुके हैं। बैंकिंग व्यवस्था के अन्य दिग्गज और कई अर्थशास्त्री भी आगाह करते रहते हैं। उनके मुख्य रूप से दो तर्क हैं, और वे खारिज नहीं किए जा सकते। एक यह कि इससे राज्यों की अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ेगा, जबकि पहले से ही उनकी वित्तीय सेहत ठीक नहीं है। दूसरे, ऋण प्रणाली कमजोर होगी। भविष्य में भी कर्जमाफी की मांग उठती रहेगी। लेकिन यह सब चिंता तब क्यों नहीं सताती जब उद्योगों को ‘बेलआउट’ पैकेज दिए जाते हैं और कॉरपोरेट कर्ज का ‘पुनर्गठन’ कर उसका काफी हिस्सा माफ कर दिया जाता है? यह बात सही है कि कर्जमाफी किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है। यह अधिक से अधिक फौरी राहत हो सकती है। यह राहत पहले भी दी जा चुकी है। यूपीए सरकार ने सारे देश के किसानों के कर्ज माफ कर दिए थे। लेकिन उससे किसान हमेशा के लिए कर्जमुक्त नहीं हो सके, कुछ समय बाद फिर कर्ज के बोझ से लद गए, और इस वजह से खुदकुशी का सिलसिला भी जारी रहा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि खेती घाटे का धंधा बनी हुई है।

किसानों की मूल मांग फसलों के वाजिब दाम की है। वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री ने तीन साल में इस दिशा में क्या किया है? जबकि भाजपा ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में किसानों से वायदा किया था कि अगर वह केंद्र की सत्ता में आई तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करेगी और किसानों को उनकी उपज का लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाएगी। यह कब होगा? अगर नहीं होगा, तो किसान कर्ज के जाल में फंसते रहेंगे और कर्जमाफी की मांग भी उठती रहेगी। उत्तर प्रदेश और फिर महाराष्ट्र सरकार के फैसले के बाद अन्य राज्यों में कर्जमाफी की मांग उठ रही है। पंजाब और कर्नाटक में तो यह मांग उठाने में भाजपा भी शामिल है! भाजपा खुद कर्जमाफी की राजनीति करेगी, तो जेटली की चेतावनी को गंभीरता से कौन लेगा!


Date:14-06-17

Detecting possibilities

The LIGO-India project will lead to the emergence of new research areas

U.S.-based Laser Interferometer Gravitational Wave Observatory (LIGO)’s detectors have picked up signals of yet another merger of two black holes that are three billion light years away and have masses equal to 31 and 19 times the mass of the sun.With this discovery emerges not only a pattern among black holes but also possibilities of gravitational wave astronomy, detection of new heavenly bodies and gaining a better understanding of that most elusive of theories — Einstein’s general theory of relativity, and the fundamental force of gravitation.

 Contribution of Indians

Indians have made a significant contribution to this, with nearly 67 Indians from 13 institutions across the country taking part in the theory and experiment: CMI, Chennai; ICTS-TIFR, Bengaluru; IUCAA, Pune; and IISER Kolkata, to name just a few.

The jubilation over their participation is, however, tempered by the fact that the two existing detectors are not sufficient to locate exactly where in the sky the signals are coming from. With the Italy-based VIRGO detector set to join operations soon, this issue will be addressed. However, there will still remain some blind spots which can be overcome if the LIGO-India project enters the fray, as planned, in 2024.Amidst such anticipation, it is necessary to take stock of the challenges ahead in building up this fourth player in the gravitational wave-detection game. There will be many firsts for India. Its experimental requirements will spearhead the evolution of many new research areas. Work on some of them has already begun in many centres: like the study of squeezed light in IIT-Delhi and IIT-Madras; mirror surface physics, in Saha Institute of Nuclear Physics, Kolkata, and TIFR, Hyderabad; and fibre-based laser technology in IIT-Madras.

 Multiple constituents

On the theoretical side, too, there are major developments in store. The challenge will be to nurture these and take them towards implementation. Second, unlike experiments that are built up from a small core team, LIGO-India will start off as a complex organism, the many constituents of which will evolve simultaneously in different parts of the country. Assembling the parts to form a mature scientific enterprise, a first for India, will be an enormous challenge. Lastly, the Department of Atomic Energy, which is the main funding body for all big scientific investments in India, will also, in an unprecedented manner, take up the responsibility of building up the experiment.

The detected black hole mergers may seem simple compared with the dynamics of this massive coming together of so many theoreticians and experimentalists. However, what holds promise is that the level of the challenge is well-matched by the experience, the number and the ability of the scientists involved.