15-02-2020 (Important News Clippings)

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15 Feb 2020
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Date:15-02-20

‘मेक इन इंडिया’ के मूल्यांकन का समय

डॉ. विकास सिंह

‘मेक इन इंडिया’ अभियान की शुरुआत बहुत उत्साह और वाहवाही के साथ की गई थी। इसकी अवधारणा और लक्ष्यों की काफी तारीफ की गई थी। इसके अपेक्षित प्रभाव की बात करें तो इसने न केवल आम आदमी की कल्पना को नई उड़ान दी, बल्कि उद्योग जगत की उम्मीदों को भी पुनर्जीवित किया। उद्योग जगत ने इससे व्यापक स्तर पर प्रक्रियाओं में बदलाव की परिकल्पना की थी और उससे भी महत्वपूर्ण यह कि ‘न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन की सोच के कार्यान्वित होने की उम्मीद थी। विनिर्माण क्षेत्र से देश को नई उम्मीद हैं। ऐसे समय में जब चीन ने खुद को इस संबंध में दुनिया की कार्यशाला के रूप में स्थापित किया है, वैश्विक विनिर्माण में हमारा हिस्सा महज दो प्रतिशत है। एक अध्ययन के अनुसार विनिर्माण वैश्विक बाजार में प्रत्येक एक प्रतिशत की वृद्धिशील हिस्सेदारी 50 लाख नई नौकरियां पैदा करेगा। कई लोग यह मानते हैं कि भारत दुनिया के विनिर्माण केंद्र के रूप में उभर रहा है। इन सबके बीच हमारे नीति निर्माता और राजनेता एक जैसे हैं। एक पक्ष को समग्र समझ और प्रोत्साहन की कमी है तो दूसरे पक्ष में वास्तविकता की कमी है।इस तरह की योजना की घोषणाओं में काफी कोलाहल सुनने को मिलता है जिन्हें सुनकर कोई भी यकीन कर लेगा कि दुनिया की ‘कार्यशाला में भारत के आगमन से चीन के इस संदर्भ में कायम एकाधिकार को खत्म किया जा सकता है। हालांकि यह हकीकत से कोसों दूर है। टेक्सटाइल, चमड़े और जूते के व्यापार का बांग्लादेश और वियतनाम में स्थानांतरित होना इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण है। सरकार इस संबंध में कोई भी अवसर नहीं छोड़ रही है। रक्षा, रेलवे, अंतरिक्ष आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों को खोल दिया गया है। विनियामक ढांचे को उदार बनाया गया है। विनिर्माण में मदद करने वाली योजनाओं को एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी कारोबारी सुगमता पर ध्यान देने से उद्देश्य के प्रति विश्वसनीयता बढ़ गई है। सरकार की इस बात के लिए सराहना करने की जरूरत है कि प्रतिस्पर्धा तथा उन्नयन के लिए नई तकनीक से युक्त अनुसंधान विकास के साथ ही गुणवत्ता के बारे में आधुनिक विनिर्माण जरूरतों, विशेषज्ञता व आधुनिक तकनीक,स्पष्टता, परिपक्वता आदि का ध्यान रखा जा रहा है।

इसकी मूल्य विशेषता अकुशल श्रम और कम पूंजी की तुलना में व्यापक पूंजी और कुशल श्रम पर अधिक निर्भरता है। यहां तकनीकी विशेषज्ञों की कमी है। इस बीच, सरकार कमजोर योजनाओं, गलत कार्यान्वयन वाली कौशल विकास कार्यक्रमों में हजारों करोड़ का निवेश कर रही है। आज उद्योग जगत की कर्ज से दबी दशा ‘मेक इन इंडिया’ की धीमी प्रगति के कारण है, जो एनपीए क्रेडिट की दुर्दशा और अंतत:डूबते उद्योग के दुष्चक्र को बढ़ाने का काम करते हैं।फंडिंग, विशेषज्ञता और नौकरशाही बाधाओं की पैठ जैसी अंतर्निहित चुनौतियों से निराश, हमारी अधिकांश बुनियादी परियोजनाएं या तो पूरी नहीं होती हैं और यदि होती हैं तो उनमें काफी समय लगता है और वे लोगों की जरूरतों के लिहाज से अपर्याप्त होती हैं।

अप्रचलित और अवरोधक रूपरेखाओं को खत्म करना होगा और एक पारदर्शी प्रणाली के साथ इसे बदलना होगा। नवाचार को बढ़ावा देने, कौशल को बढ़ाने और निवेश को आकर्षित करने आदि सुनि योजित तरीके से होना चाहिए। इसे एकलखिड़की, ऑनलाइन पोर्टल, ईबिज के अतिरिक्त विभिन्न सेवाओं से एकीकृत किया गया है, लेकिन अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना शेष है।

दिवालिया अधिनियम पारित होना तथा जीएसटी का कार्यान्वयन एक अनुकूल कदम है, लेकिन यह सिर्फ छोटे कदम हैं। हमारे नेताओं की सोच के साथ साथ अंतर्दृष्टि, डिजाइन और वितरित करने की हमारी क्षमता, नौकर शाही का लचीलापन तथा योग्यता ‘मेक इन इंडिया’ के मूल्य पहलू हैं और हमारे कारोबार को जीवंत करने के लिए यह महत्वपूर्ण है। कम मुद्रास्फीति, कम याज दर और उच्च विकास से युक्त परिवेश प्रतिस्पर्धा के लिए आवश्यक हैं। प्रचलित श्रम कानून और नौकरशाही की परेशानी ही इसे कम करते हैं। इसके अलावा, उद्योग को एक पुनरुद्धार योजना की आवश्यकता है जो बाधाओं को हटा सकती है और अनेक मौजूदा तथा घाटे वाली परियोजनाओं को पुनर्जीवित और पुनर्गठित कर सकती है। हमें भूमि अधिग्रहण, कर संरचना और श्रम सुधारों के लिए नीतियों को तैयार करने की आवश्यकता है। साथ ही निवेश को बढ़ाने, नवाचार को बढ़ावा देने और कौशल विकसित करने की नीतियों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने की जरूरत है।

दिवालिया अधिनियम, जीएसटी अनुकूल पहल है,लेकिन वित्य क्षेत्रों में सुधारों को मजबूत और समग्र बनाने की जरूरत है। जब तक मांग को पुनर्जी वित नहीं किया जाता है, तब तक केवल कॉरपोरेट करों में कटौती करने से निवेश को नहीं बढ़ाया जा सकता है।हमें एक स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र बनाने की जरूरत है जो विनियामक मंजूरी को सक्षम बनाता हो, कठोर प्रक्रियाओं को आसान बनाता हो और नीतियों के कार्यान्वयन को गति देता हो और नवाचार तथा परिणामों को पुरस्कृत करता हो। हमारा लक्ष्य विदेशी निवेश के लिए एक साधन के रूप में इसे जोडऩे के साथ भारत को विनिर्माण, डिजाइन व नवाचार के वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित करना होना चाहिए।यह व्यापक लक्ष्य विनिर्माण क्षेत्र को सुदृढ़ बनाने,अर्थव्यवस्था को तेजी प्रदान करने, रोजगार पैदा करने, आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने और विकसित देशों के संगठन में भारत को शामिल करने के इर्दगिर्द होना चाहिए। ‘मेक इन इंडिया’ को शुरू हुए पांचवर्ष हो चुके हैं और इसके मूल्यांकन का समय आ गया है। निश्चित रूप से विनिर्माण क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन देखने को मिल रहा है जो मूल्य रूप से स्वत:प्रेरित है और एक अच्छी स्थिति में है। भारत में ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को जिस मकसद के साथ शुरूकिया गया था, उसे आज वास्तव में हासिल कर लिया गया है या फिर हम उसे हासिल करने की दिशा में कितनी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, हमें इन चीजों के बारे में भी व्यापक रूप से समझना चाहिए।


Date:15-02-20

कम क्यों हुए करदाता?

टी. एन. नाइनन

प्रधानमंत्री ने इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि देश में केवल 1.5 करोड़ लोग ही कर चुकाते हैं। उनकी शिकायत वाजिब है क्योंकि इससे ज्यादा लोग तो एक वर्ष में दोपहिया वाहन खरीद लेते हैं। देश में कुल मिलाकर 18 करोड़ दोपहिया वाहन हैं। सबसे सस्ता स्कूटर भी 50,000 रुपये का मिलता है और ज्यादा लोकप्रिय ब्रांड तो 65,000 रुपये से भी अधिक में मिलते हैं। ऐसे में यह उम्मीद करना गलत नहीं है कि अगर कोई स्कूटर या मोटर साइकिल रखने लायक पैसे कमाता है तो उसे आय कर चुकाना चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि 10 फीसदी से भी कम लोग आय कर देते हैं।

यानी नरेंद्र मोदी की शिकायत सही है लेकिन यह शिकायत उन्हें नहीं करनी चाहिए। मोदी जहां करदाताओं की कम तादाद के लिए नागरिकों को दोष देते हैं और उन्हें ईमानदारी से कर चुकाने को कहते हैं, वहीं उन्हें खुद को और 2019 के वित्त मंत्री को भी दोष देना चाहिए जिन्होंने लोक सभा चुनाव वाले वर्ष में 5 लाख रुपये तक की आय अर्जित करने वाले सभी व्यक्तियों को आय कर चुकाने से मुक्त कर दिया था। जानकारी के मुताबिक उनकी घोषणा के चलते तीन चौथाई करदाता कर दायरे से बाहर हो गए। चुनाव के पहले ऐसे कदम उठाए जाना स्वाभाविक है लेकिन मोदी को यह समझना चाहिए कि करदाताओं की संख्या 6 करोड़ से घटाकर 1.5 करोड़ करने का काम उनका ही था।

इस विषय में अंतरराष्ट्रीय तुलनाएं काफी जानकारीपरक हैं। अमेरिका में लोग 12,000 डॉलर की आय के स्तर पर आयकर चुकाना शुरू कर देते हैं। यह गरीबी रेखा के स्तर से लगभग समांतर होता है। यदि कोई युगल एक साथ रिटर्न दाखिल करता है तो उसे कर चुकाने के पहले उक्त आय का दोगुना कमाना होता है। अहम बात यह है कि चार सदस्यों वाले परिवार के लिए आयकर चुकाने की सीमा 25,000 डॉलर है। व्यापक तौर पर देखा जाए तो यह भी ऐसे परिवार की गरीबी रेखा के स्तर के आसपास है। इन आंकड़ों के पीछे दलील है। एक सिद्घांत यह नजर आता है कि एक बार गरीबी रेखा के ऊपर जाने के बाद आपको कर चुकाना चाहिए। ब्रिटेन में भी ऐसा ही है। वहां गरीबी की कई परिभाषाएं हैं लेकिन कर चुकता करने का सिलसिला कमोबेश गरीबी रेखा के स्तर की आय से शुरू होता है जो करीब 12,000 पाउंड है।

इसकी तुलना भारत से करें तो हमारे यहां कर चुकाने की सीमा किसी परिवार के गरीबी रेखा के स्तर पर आय के गुणक से तय होती है। औसतन चार लोगों के परिवार में यह उनकी औसत आय से दोगुना यानी करीब 2.5 लाख रुपये है। एक वर्ष पहले तक कर सीमा का स्तर यही था लेकिन उसके बाद इसे बढ़ाकर 5 लाख रुपये कर दिया गया। ऐसे में प्राथमिक समस्या करदाताओं में नहीं बल्कि कर नियमों में है जिन्होंने कर चुकाने की सीमा को बहुत ऊंचा कर दिया। यदि कर सीमा को पुराने स्तर पर कर दिया जाए तो कर चुकाने वालों की तादाद स्वत: चार गुना हो जाएगी।

कर दरों में भी समस्या है। भारत में कर की शुरुआत 5 फीसदी के स्तर से होती है। जबकि ब्रिटेन में सबसे निचली कर दर 20 फीसदी है। अमेरिका में यह संघीय स्तर पर 10 फीसदी तथा विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है। यहां ताजा नियमों के मुताबिक 20 फीसदी की दर से कर चुकाने के पहले 10 लाख रुपये के आय स्तर पर पहुंचना होता है यानी चार लोगों के औसत परिवार की औसत सालाना आय का चार गुना। सच यह है कि देश में आयकर का स्तर काफी ऊंचे आय स्तर पर और अस्वाभाविक रूप से कम दर पर शुरू होता है।

सरकार की अन्य नाकामी की बात करें तो वह संबंधित व्यक्ति के कर रिटर्न को उसके व्यय और बचत की आदत, विदेश यात्राओं, वाहन स्वामित्व और बिजली की खपत के स्तर से दोबारा मिलान या जांच में चूक करती है। चूंकि उच्च मूल्य के ज्यादातर लेनदेन में स्थायी खाता संख्या देना जरूरी है इसलिए प्रभावी ढंग से जांच होने पर अधिकांश कर वंचक पकड़े जाने चाहिए थे। यह सच है कि नोटबंदी और अन्य उपायों के बाद कर रिटर्न दाखिल करने वालों की तादाद बढ़ी है लेकिन कुल मिलाकर आज हालात निराशाजनक हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं वह सही है लेकिन यह समस्या उनकी सरकार की खड़ी की हुई है। हालात को बदलना भी सरकार के हाथ में है। बशर्ते कि उसमें मुखर मध्य वर्ग के विरोध की अनदेखी करने का माद्दा हो।


Date:15-02-20

बजट की विशेषताओं पर कुछ विचार

केंद्रीय बजट में चार उल्लेखनीय बातें शामिल रहीं। पहला संदर्भ, दूसरा पारदर्शिता, तीसरा विस्तारवाद और चौथा संरक्षणवाद। इन सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए अपनी राय रख रहे हैं

शंकर आचार्य ,  (लेखक इक्रियर में मानद प्रोफेसर और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

बजट प्रस्तुत हुए 15 दिन हो चुके हैं। इसके बारे में मीडिया में लगभग सबकुछ कहा जा चुका है। यही कारण है कि यहां मैं केवल चार विषयों पर अपने विचार प्रस्तुत करूंगा।

बजट भाषण और उसका संदर्भ

तमाम बजट भाषण एक खास आर्थिक संदर्भ में तैयार किए जाते हैं। उनका प्रभाव और उनकी सफलता केवल बजट घोषणाओं की विषयवस्तु पर निर्भर नहीं करती है। बल्कि इस पर भी निर्भर करती है कि वित्त मंत्री उसे कितने विश्वसनीय तरीके से प्रस्तुत करते हैं और सरकार की उन आर्थिक और वित्तीय नीतियों को किस प्रकार रेखांकित करते हैं जो आने वाले वर्षों में आर्थिक विकास को कितने बढिय़ा तरीके से आगे बढ़ाते हैं। मौजूदा बजट के आर्थिक संदर्भों में बीते दो वर्ष की तीव्र आर्थिक मंदी, 50 वर्ष में सबसे खराब बेरोजगारी, निर्यात में सात वर्ष से ठहराव, निवेश दर में गिरावट, वित्तीय तंत्र में तनाव और विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त संकट आदि शामिल थे। दूसरे शब्दों में कहें तो आर्थिक हालात संकटपूर्ण हैं। बजट भाषण में निराश करने वाली बात यह थी कि शुरुआती पन्नों में इनमें से किसी का उल्लेख देखने को नहीं मिला। शायद मंत्री चाहती थीं कि नकारात्मकता न फैले। परंतु परिणाम क्या हुआ? ऐसा लगा जैसे सरकार इसे नकार रही है। इससे भाषण का प्रभाव कम हुआ। बेहतर तरीका कुछ यूं होता: सबसे पहले, आर्थिक चुनौतियों की गंभीरता को चिह्नित किया जाता, उसके बाद सितंबर और अक्टूबर में बजट के पहले इस दिशा में उठाए गए कदमों का जिक्र होता जिसमें कॉर्पोरेट कर दरों में कमी जैसे कदम शामिल हैं, इसके बाद बताया जाता कि कैसे वित्त मंत्री के बजट प्रस्ताव पूरे रुझान में सुधार करेंगे, इसके बाद उन उपायों और प्रस्तावों का जिक्र किया जाता जो निवेश, वृद्धि, रोजगार और निर्यात में सुधार सुनिश्चित करेंगे।

बजट आंकड़े: पारदर्शिता और हकीकत

किसी भी बजट का बुनियादी उद्देश्य है बीते वर्ष का ईमानदार लेखाजोखा और आने वाले वर्ष के बारे में हकीकत के करीब अनुमान पेश करना। खेद की बात है कि देश में बजट प्रस्तुतीकरण में आंकड़ों की बाजीगरी आम हो चली है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को यह श्रेय देना होगा कि इस बजट में उन्होंने पारदर्शिता बढ़ाने के लिए अहम उपाय किए और बजट से इतर व्यय/उधारी का वक्तव्य प्रस्तुत किया। इससे पता चलता है कि सन 2019-20 में जीडीपी का करीब 0.85 फीसदी हिस्सा ऐसे व्यय और उधारी पर खर्च हुआ या अगले वर्ष होगा। इसमें सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण पर व्यय होने वाली राशि शामिल नहीं है। इसमें बड़ा हिस्सा एफसीआई के जरिये दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी का है। यदि इसे दर्शाए गए राजकोषीय घाटे में शामिल किया जाए तो इन वर्षों का राजकोषीय घाटा क्रमश: 4.6 और 4.4 प्रतिशत हो जाएगा।

पारदर्शिता में इस सुधार का स्वागत है। परंतु प्रश्न यह है कि एनएचएआई और नाबार्ड के ऐसे ही लेनदेन को इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया? यदि सरकारी कर्ज में जुडऩे वाली चीजों के लिए सही मानक का प्रयोग किया जाए तो एफडी प्रवाह को भी शामिल किया जाना चाहिए। सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की राशि इससे बाहर क्यों है? इन्हें शामिल करने पर वर्ष 2015 के बाद के सभी वर्षों में एफडी अनुपात 5 फीसदी से ऊपर निकल जाएगा। अधिक बुनियादी बात करें तो चूंकि ये बढ़े हुए आंकड़े वास्तविक राजकोषीय घाटे के करीब हैं तो फिर 3.8 और 3.3 फीसदी के घटे हुए आंकड़े की जगह वास्तविक आंकड़े क्यों नहीं पेश किए गए? यह सुखद है कि 15वें वित्त आयोग की ताजा रिपोर्ट बजट से इतर उधारी और व्यय की सहायता लेने की स्पष्ट आलोचना और इन्हें समयबद्ध तरीके से बाहर करने की बात करती है। यह ऐसे विधिक ढांचे की भी बात करती है कि जहां हर सरकारी स्तर पर बजटिंग, अकाउंटिंग, आंतरिक नियंत्रण और अंकेक्षण मानकों का पालन किया जाए। यह भी जरूरी कदम है।

बजट: विस्तारवादी या संकुचनवादी

बजट में राजकोषीय प्रोत्साहन की अपर्याप्तता को लेकर काफी कुछ कहा जा चुका है। कुछ लोग इसे संकुचनवादी बता रहे हैं। यह बात मेरी समझ से परे है। केंद्र सरकार का बजट जिसमें जीडीपी के 5 फीसदी या उससे अधिक के एफडी की बात कही जा रही है वह संकुचनवादी कैसे हो सकता है? राज्यों में इसके तीन फीसदी हिस्से को शमिल करें तो कुल एफडी जीडीपी के 8 फीसदी के बराबर होगा। जबकि सार्वजनिक क्षेत्र की ऋण आवश्यकता जीडीपी के 9-10 फीसदी तक होगी। यदि विनिवेश प्राप्तियों को कमतर वर्गीकृत किया जाए तो बदलाव की दिशा विस्तारवादी अवश्य हो जाएगी क्योंकि आंकड़ा बढ़कर तीन गुना हो जाएगा। यानी वित्त मंत्री की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने प्रोत्साहन चाहने वालों को प्रसन्न करने के लिए उच्च एफडी योजना पेश नहीं की। ऐसा करना राजकोषीय घाटे, सरकारी ऋण और जीडीपी के 70 फीसदी के अनुपात और जीडीपी की कमजोर वृद्धि के मौजूदा दौर में सही नहीं होता।

संरक्षणवादी सीमा शुल्क और प्रक्रियाएं

इस बजट की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह लगातार संरक्षणवाद की ओर झुकता नजर आया। अरुण जेटली के फरवरी 2018 के बजट और पीयूष गोयल फरवरी 2019 के अंतरिम बजट सहित यह लगातार चौथा बजट है जहां तमाम वस्तुओं पर सीमा शुल्क बढ़ाया गया है। इस वर्ष विभिन्न घरेलू वस्तुओं और उपकरणों, इलेक्ट्रिकल उपकरणों, जूते-चप्पल, फर्नीचर, खिलौने, मशीनरी, चिकित्सा उपकरणों, मोबाइल फोन घटकों, ई-वाहनों और बादाम आदि पर शुल्क बढ़ाया गया। ऐंटी डंपिंग शुल्क और सेफ-गार्ड शुल्क दरों को भी बढ़ाया जा रहा है। कुल मिलाकर आयात की राह और मुश्किल हो रही है।

सन 1991 के बाद से 25 वर्ष की अवधि में विभिन्न भारतीय सरकारों ने व्यापार नीतियों में सुधार किया और विश्व व्यापार के साथ संबद्धता बढ़ाई और खुलापन लाया। सीमा शुल्क में कमी की गई और इसकी बाधाओं को कम किया गया। परिणामस्वरूप, हमारा विदेशी व्यापार बढ़ा। इससे हमारी आर्थिक वृद्धि और रोजगार दोनों बेहतर हुए। वर्ष 2017 के बाद से हमने नीति को पलटना शुरू कर दिया और विश्व व्यापार से अपने संबंध कम किए। हमारे मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी यह मानने को तैयार नहीं दिखते कि उच्च शुल्क और आयात प्रतिबंध हमारी निर्यात क्षमता को प्रभावित कर रहे हैं। किसी बड़े गैर तेल निर्यातक देश ने आयात को बाधित करके निर्यात वृद्धि हासिल नहीं की है। न ही ऐसा कोई देश बिना उच्च निर्यात वृद्धि के सकल आर्थिक वृद्धि हासिल कर पाया है। सन 1992 से 1997 और 2003 से 2012 के बीच जब हमारा निर्यात मजबूत था तब हमारी अर्थव्यवस्था भी तेजी से विकसित हुई। यदि हम अपने ही आर्थिक इतिहास से सबक नहीं लेंगे तो देश की धीमी आर्थिक प्रगति के लिए किसी और को दोष नहीं दे सकते।


Date:14-02-20

दागियों पर शिकंजा

संपादकीय

राजनीति में आपराधिक छवि वाले लोगों का प्रवेश रोकने और विधायिका को अपराधियों से मुक्त बनाने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत ने जिस तरह का सख्त रुख अख्तियार किया है, उससे यह उम्मीद बंधती है कि राजनीतिक दल अब तो कुछ सबक लेंगे और दागदार लोगों को चुनाव लड़ाने से बचेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को अब यह निर्देश दिया है कि वे चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों का ब्योरा अपनी वेबसाइट पर डालें और साथ ही यह भी बताएं कि ऐसे लोगों को टिकट देने के पीछे आखिर उनकी मजबूरी क्या है। इतना ही नहीं, राजनीतिक दलों को यही ब्योरा फेसबुक और ट्विटर पर भी सार्वजनिक करना होगा, एक स्थानीय भाषा व एक राष्ट्रीय अखबार में भी इसे छपवाना होगा और यह सारी जानकारी बहत्तर घंटे के भीतर चुनाव आयोग को देनी होगी। अगर इतना सब हो जाता है तो यह तय है कि राजनीतिक दलों को दागदार उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने से पहले एक नहीं, सौ बार सोचना पड़ेगा। ऐसा पहली बार हुआ है जब देश की सर्वोच्च अदालत ने आपराधिक रिकार्ड वाले लोगों को चुनाव मैदान में उतारने के खिलाफ राजनीति दलों पर शिकंजा कसा है।

राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं और जनप्रतिनिधियों का दबदबा जिस तेजी से बढ़ता जा रहा है, वह स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक नहीं है। जब जनप्रतिनिधि ही अपराधों में लिप्त होंगे, तो वे जनता की सेवा क्या करेंगे, देश को क्या दिशा देंगे! यह सवाल लंबे समय से गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। लेकिन राजनीतिक दल इस बारे में जरा चिंतित नहीं हैं। इससे यह साफ है कि पार्टियां खुद ही नहीं चाहतीं कि ऐसा कोई सख्त कानून बने जो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों के लिए राजनीति के दरवाजे बंद करे। शायद ही कोई राजनीतिक दल ऐसा हो जिसमें दागदार नेता न हों, जिन पर कोई आपराधिक मामला न चल रहा हो। आमतौर पर राजनीतिक दल दागदार नेताओं को टिकट देने से इसलिए परहेज नहीं करते, क्योंकि वे किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की ताकत रखते हैं। राजनीतिक दलों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण भी यही होता है कि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल हो, भले उम्मीदवार का आपराधिक रिकार्ड ही क्यों न रहा हो। धनबल और बाहुबल से युक्त ऐसे उम्मीदवार पार्टी के हितों को भी पूरा करने की क्षमता रखते हैं। राजनीतिक दलों को इस बात का भय है कि अगर आपराधिक छवि वाले नेताओं के चुनाव पर पाबंदी लग जाएगी, तो पार्टियों के सामने जिताऊ उम्मीदवारों के लाले भी पड़ सकते हैं। देखने की बात यह है कि राजनीतिक पार्टियां अदालत के इस आदेश की पालना में कितनी खरी उतरती हैं।

राजनीति का अपराधीकरण दरअसल हमारी राजनीतिक व्यवस्था की एक लाइलाज बीमारी बन चुकी है। पर ऐसा भी नहीं है कि इस समस्या से निपटना असंभव है। इसके लिए सबसे जरूरी है राजनीतिक दलों की इच्छाशक्ति। अगर राजनीतिक दल खुद पहल नहीं करेंगे तो इस समस्या से पार नहीं पाया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की अपनी सीमाएं हैं। सुप्रीम कोर्ट तो पहले ही कह चुका है कि राजनीति में दागियों का प्रवेश बंद करने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए। लेकिन संसद में अभी तक इस दिशा में कोई प्रयास होता नहीं दिखा है। जाहिर है, पार्टियां ऐसा कोई भी कदम उठाने को लेकर इच्छुक और गंभीर नहीं हैं जिनसे उनके हित प्रभावित होते हों।


Date:14-02-20

सुधार के निर्देश

संपादकीय

भारतीय राजनीति को दागियों से मुक्त करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट की एक और अहम कोशिश का न केवल स्वागत, बल्कि अनुकरण होना चाहिए। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए राजनीतिक दलों को जो निर्देश दिए हैं, उसकी बड़ी जरूरत महसूस की जा रही थी। कायदा तो यही है, राजनीतिक दल स्वयं ही दागियों से पल्ला झाड़ लेते और उन्हीं योग्य प्रत्याशियों को मैदान में उतारते, जिनका सार्वजनिक ही नहीं, बल्कि व्यक्तिगत जीवन भी उज्ज्वल है। इसमें कोई संदेह नहीं, नेताओं के चरित्र से ही राजनीति का चरित्र तय होता है। नेताओं के चरित्र सुधार की महती जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर है। सुप्रीम कोर्ट ने तमाम दलों से कहा है, जब कोई दल किसी दागी प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारे, तो 48 घंटे के अंदर सार्वजनिक रूप से लोगों को यह बताए कि ऐसा क्यों किया?

खास बात यह है कि राजनीतिक दल प्रत्याशियों के जिताऊ होने की दलील देकर दागियों को टिकट देते हैं। अब जब राजनीतिक पार्टियां किसी दागी को खड़ा करेंगी, तो नामांकन के 24 घंटे के अंदर अपनी रिपोर्ट भी दाखिल करेंगी। रिपोर्ट न दाखिल करने को अवमानना माना जाएगा और सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कार्रवाई के लिए चुनाव आयोग को अधिकृत कर दिया है। लगे हाथ, सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति नरिमन और न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट्ट ने साफ कर दिया है कि अब जिताऊ होने का तर्क नहीं माना जाएगा। जाहिर है, इससे राजनीतिक दलों पर दबाव कुछ बढ़ेगा। वे किसी दागी को मैदान में खड़ा करने का वाजिब तर्क खोजेंगे और संभव है, खोजने में कामयाब भी हो जाएं। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट के नए निर्देश हमें सुधार की दिशा में आगे ले जाएंगे, इसकी उम्मीद रखनी चाहिए।

यहां हमें यह समझना होगा कि राजनीतिक सुधार कोई एक दिन में पूरा होने वाला काम नहीं है। भारत में सुधार की प्रक्रिया धीमी जरूर है, लेकिन हमें भारतीय व्यवस्था की पारंपरिक उदारता को भी ध्यान में रखना चाहिए। ऐसी जनहित याचिकाओं की बड़ी जरूरत है, जो हमारी व्यवस्था में हर स्तर पर ईमानदारी को प्रेरित करें। देश में नेतृत्व के स्तर पर सुधार सबसे जरूरी है, इसलिए ताजा याचिका ज्यादा प्रशंसनीय है। भारत में राजनीतिक सुधारों की बहुत जरूरत है। ध्यान रहे, भारतीय राजनीति के अपराधीकरण या राजनीति में अपराधियों की दखल पर एनएन वोहरा समिति ने 1993 में रिपोर्ट दी थी, जो संसद में पेश हुई थी। तब से अब तक 26 साल बीत गए, भारतीय राजनीति में दागियों की भूमिका घटने की बजाय बढ़ती जा रही है।

उदाहरण के लिए, 2004 के आम चुनाव में 24 प्रतिशत दागी चुने गए थे, 2009 के चुनाव में 30 प्रतिशत, 2014 के चुनाव में 34 प्रतिशत और 2019 के चुनाव में विजेता दागियों का प्रतिशत बढ़कर 43 हो गया। राजनीतिक दलों ही नहीं, हम मतदाताओं को भी अपने गिरेबां में झांकना होगा और पूछना होगा कि राजनीति में अपराधियों की संख्या आखिर क्यों बढ़ती जा रही है? हम दागियों को क्यों वोट देते हैं? न्यायाधीशों को जो करना है, वे कर रहे हैं। अपनी ओर से चुनाव आयोग ने भी अपराधियों को चुनाव लड़ने से वंचित करने के उपाय किए हैं, पर अंतत: जिम्मेदारी हम नागरिकों पर ही है। सुप्रीम कोर्ट के ताजा दिशा-निर्देश भी हमें हमारे कर्तव्यों की फिर याद दिला रहे हैं।