15-01-2025 (Important News Clippings)

Afeias
15 Jan 2025
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Date: 15-01-25

How Not To Run Unis

UGC’s draft guidelines on selecting VCs, if implemented, will do no good & much harm

TOI Editorial

National Education Policy 2020 has a clear vision of moving higher educational institutions (HEIs) towards full autonomy–academic and administrative. Autonomy is not some kind of sacred object in and of itself. Rather, evidence across democratic societies is unequivocal that autonomy is prerequisite for helping HEIs deliver all their missions, be it classical ones like learning and teaching, or ones that have come into greater prominence in a more globally connected world, namely research and innovation and business outreach. New draft regulations by UGC rejig how vice-chancellors are to be appointed. But diluting the influence of state govts while increasing that of the Centre, is hardly the way forward.

Tamil Nadu and Kerala govts are already up in arms at what the change means for state universities, which after all states fund. Per draft regulations, the university chancellor, aka the state governor, shall constitute the VC search-selection committee, which in turn shall comprise one member nominated by the chancellor, one by UGC’s chairman, and one by the university’s apex body. This change is patently not about eliminating political interference. It’s about – let’s be clear – imposing the Centre’s will on opposition-governed states. How’s that an improvement? And that’s aside from the question of increasing tensions in a federal system. Opposition CMs vs BJP-appointed governors are already a stress point, including in university affairs. What’s to be gained by adding to the stress? Of course, state universities fare poorly in NIRF rankings and student application preferences. But UGC’s solution will create another problem, not solve the existing one. VCs and faculties should be unbiased, meritocratic appointments.

That brings us to the other point – opening up VC posts to non-academic candidates. Let’s assume every PSU top executive or senior bureaucrat or an industry veteran chosen for the job is brilliant. But will they be fit to run universities? Why are all eight US Ivy League presidents top scholars? India’s higher education regulator needs to return to the diagnostic table. More centralisation and bureaucratisation is a terrible idea. As is disempowering academic achievements.


Date: 15-01-25

Be Healthy to Spend On Healthcare

TOI Editorial

With budget around the corner, and Viksit India on the hive mind, health spend should be top priority for the state. It isn’t. In 2024, GoI, in collaboration with states, assessed India’s 2 lakh public healthcare facilities under the National Health Mission (NHM). Nearly 80% were found to fail to meet minimum essential standards for infra, manpower and equipment. In such a situation, one would expect the Indian state to pump more money into the health sector — and its citizens to demand it. However, despite repeated recommendations from National Health Policy 2017, Economic Surveys (2021, 2022-23), and the 15th Finance Commission to raise government health expenditure to at least 2.5% of GDP, the 2024-25 health budget remains stagnant at 1.9%. South Africa allocates 4.3%, Brazil 4%, and China over 3%.
According to Indian Public Health Standards, each primary healthcare centre should cater to 20k-30k people. Instead, the figure often exceeds 36,000 as of 2020-21. Community health centres, meant to provide specialised services, are in even worse condition. The system’s bias towards curative healthcare — with preventive healthcare receiving just 14% of government funds — results in long-term inefficiencies and soaring healthcare costs.

Budget ’25 must prioritise preventive healthcare, including awareness campaigns on issues like anaemia, diabetes and cardiovascular conditions, along with health screenings and wellness programmes. With medical inflation at 14% — the highest in Asia — there are justified calls to raise Section 80D deduction of I-T Act and exempt health insurance premiums from 18% GST. Becoming a viksit nation is inextricably linked to the health of its citizens and their access to healthcare. Anything less is daydreaming.


Date: 15-01-25

देश में नॉलेज पूल बनाने की हमारी क्या योजना है

संपादकीय

विश्व आर्थिक मंच की ताजा रिपोर्ट के अनुसार अगले पांच साल में नई टेक्नोलॉजी के कारण दुनिया में 17 करोड़ नई नौकरियां पैदा होंगी, लेकिन 9.2 करोड़ खत्म भी होंगी। यानी कुल 7.8 करोड़ नए रोजगार का सृजन होगा। लेकिन भारत के संदर्भ में रिपोर्ट के कुछ तथ्य चौंकाते हैं। पहला, 35% कंपनियां सेमीकंडक्टर और एडवांस कंप्यूटिंग अपनाएंगी, जबकि 21% अत्याधुनिक क्वांटम कंप्यूटिंग और इन्क्रिप्शन तकनीकी को अंगीकार करेंगी। दरअसल इस दौड़ में भी भारत को टेक – सप्लायर न दिखाकर बड़ा कंज्यूमर बताया गया है। क्या यह संतोषजनक स्थिति मानी जाएगी ? दूसरा, रिपोर्ट के अनुसार भारत में ‘स्किल गैप’ के कारण नौकरी में बने रहने के लिए 40% लोगों को अपना टेक-ज्ञान बढ़ाना पड़ेगा। यह नई स्किल कौन देगा- सरकार या कॉर्पोरेट ? रिपोर्ट की एक और चौंकाने वाली बात यह है। कि एक-तिहाई भारतीय कंपनियां डिग्री की जरूरत खत्म करके देश में उपलब्ध ‘नॉलेज पूल’ से इंजीनियर्स को ‘हायर’ करने की योजना बना रही हैं। वैश्विक स्तर पर 47 फीसदी कंपनियां यह काम पहले से कर रही हैं। इसका कारण यह है कि कॉलेज में डिग्री के लिए मिला ज्ञान नई औद्योगिक जरूरतों के अनुरूप नहीं है। लेकिन सवाल यह ‘है कि ‘नॉलेज पूल’ बनेगा कैसे ?


Date: 15-01-25

पलायनः भविष्य का सपना या डरावना ख्वाब

अशोक कुमार लाहिड़ी, ( लेखक अर्थशास्त्री और पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य हैं )

भारत में आंतरिक पलायन कोई नई बात नहीं है। देश में यह सिलसिला सदियों से चलता आया है। उदाहरण के लिए 19वीं शताब्दी में राजस्थान से मारवाड़ी कारोबार करने के लिए देश के सुदूर पूर्वी हिस्से तक पहुंच गए और वीरता दिखाने में माहिर मराठा समुदाय ने पश्चिमोत्तर और दक्षिण तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इसी तरह बंगाली, तमिल और तेलुगू समुदाय के लोग भी जॉन कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी) और बाद में ब्रिटिश सरकार के कर्मचारियों के रूप में पूरे देश में फैल गए।

आर्थिक विकास, देश भर में शिक्षा का प्रसार और आबादी में युवाओं का अनुपात बढ़ने से पिछले कुछ वर्षों में आंतरिक पलायन बढ़ा है। कोविड महामारी के दौरान आंतरिक पलायन और भी ज्यादा उजागर हो गया। इस महामारी के दौरान प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्यों में भेजने के लिए विशेष रेलगाड़ियों और बसों का प्रबंध करना पड़ा। लॉकडाउन की घोषणा के बाद शुरुआती दिनों में हजारों मजदूर अपने घर पैदल ही जाने के लिए सड़कों पर निकल पड़े। बाहों में बच्चे और सिर पर सामान की गठरी लादे लोगों को देखना असहज था और दिल को झकझोर देने वाले दुःस्वप्न जैसी स्थिति थी।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे दिलो-दिमाग में कहीं न कहीं ‘ग्रामीण समुदायवाद’ की छाप है, जो मुक्त बाजार व्यवस्था और पूंजीवादी औद्योगीकरण के खिलाफ है। हममें कई लोगों के मन में ठहरे और न बदलने वाले ग्रामीण जीवन की वही पुरानी तस्वीर बसी हुई है, जो हिंद स्वराज में नजर आती है, जिसे महात्मा गांधी ने युवावस्था में लिखा। ठीक उसी तरह जैसा महात्मा गांधी के हिंद स्वराज में बताया गया है। उस सोच में पलायन तो हो ही नहीं सकता।

हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि पलायन का लोगों पर गहरा भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। खास कर जब गांव से लोग अनियोजित एवं अव्यवस्थित शहरों की तरफ रुख करते हैं तो यह असर और गंभीर हो सकता है। शहरों में पहुंचते ही पांव टिकाने, जल आपूर्ति, साफ- सफाई, शिक्षा और स्वास्थ्य सहित बुनियादी सुविधाएं हासिल करने की समस्याओं से जूझना पड़ता है। कभी-कभी ये समस्याएं काफी विकट हो जाती हैं। हमें इन शहरों में प्रवासियों के लिए व्यवस्थित जीवन-यापन का इंतजाम करने के साथ सुनियोजित शहरीकरण को बढ़ावा देना होगा। साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि पलायन लगातार इतिहास का हिस्सा रहा है और आर्थिक विकास में तेजी के साथ इसमें भी खास तौर पर तेजी आई है। हमें इसका स्वागत करना चाहिए।

वर्ष 2005 में कुल वैश्विक आबादी का 12 प्रतिशत हिस्सा (76.3 करोड़ लोग) अपने मूल जन्म स्थान से बाहर जीवन-यापन कर रहा था। लोग अक्सर इधर से उधर जाते रहते हैं और देश से बाहर जाने के बजाय देश के अंदर यह सिलसिला अधिक दिखता है। देश का आर्थिक विकास तेज होने के साथ ही ग्रामीण से शहरी इलाकों की तरफ पलायन बढ़ जाता है। दुनिया में आज उच्च आय वाले जो भी देश हैं, उन सभी में 19वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक तेज आर्थिक विकास के साथ ग्रामीण से शहरी इलाकों की तरफ पलायन भी खूब हुआ।

दुनिया के सभी क्षेत्रों में विकास का पहिया घूमता रहता है। क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति और दूसरों के मुकाबले उन्हें मिलने वाले अधिक फायदों के अनुरूप विकास की प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी। अनुसार यह सिलसिला चलता ही रहेगा। हमने अपने पुराने अनुभव के कारण हम जानते हैं कि माल ढुलाई एक समान करने की नीतियों आदि के जरिये तमाम राज्यों की औद्योगिक वृद्धि और सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) को एक बराबर करने के प्रयासों का किस तरह प्रतिकूल असर हो सकता है। अलग-अलग राज्य में जीएसडीपी अलग-अलग रफ्तार से बढ़ेगा। लोग तेजी से आर्थिक विकास करते क्षेत्रों की ओर जाएंगे और इस पलायन से पूरे क्षेत्र में प्रति व्यक्ति आय का स्तर बढ़ाने और इसमें समानता लाने में मदद मिलेगी।

वर्ष 2016 में चीन में 7.7 करोड़ प्रवासी मजदूर रोजगार की तलाश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में गए। चीन की तुलना में भारत में वर्ष 2011 से 2016 के दौरान लगभग 90 लाख लोग ही एक राज्य से दूसरे राज्य गए। भारत में राज्यों के बीच पलायन चीन ही नहीं अमेरिका की तुलना में भी काफी कम है। अमेरिका के जनगणना ब्यूरो के अनुसार अमेरिका में 2021 में राज्यों के बीच 79 लाख लोगों का पलायन हुआ। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि अमेरिका की आबादी 34 करोड़ है, जो भारत की कुल आबादी के एक चौथाई से भी कम है।

बुजुर्गों की तुलना में युवा अधिक पलायन करते हैं और शिक्षित युवा तो और भी ज्यादा पलायन करते हैं। लिहाजा भारत की आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी, साक्षरता में बढ़ोतरी और ठीकठाक ऊंची वृद्धि दर को देखते हुए आंतरिक पलायन की दर घटने के बजाय बढ़नी चाहिए। हमें देश में आंतरिक पलायन की दर के रुझान पर सावधानी से और नियमित रूप से नजर रखनी चाहिए। देश में आंतरिक पलायन के रुझान का ‘400 मिलियन ड्रीम्स’ में उल्लेख किया गया है। ‘400 मिलियन ड्रीम्स’ प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का शोध पत्र है, जो दिसंबर 2024 में जारी हुआ है। विवेक देवराय और देवी प्रसाद मिश्रा द्वारा संयुक्त रूप से लिखे इस पत्र में पलायन पर व्यापक आंकड़े उपलब्ध कराए गए हैं। हमें पलायन पर पहले से मौजूद आंकड़ों के अलावा इस पत्र की मदद से नई और दिलचस्प जानकारियां भी मिलती हैं।

इस पत्र में भारतीय रेल की अनारक्षित टिकट प्रणाली (यूटीएस), भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) के टेलीफोन उपभोक्ता रोमिंग और जिला-स्तरीय बैंकिंग से जुड़े आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। ये सभी महत्त्वपूर्ण जानकारियां हैं क्योंकि बड़े पैमाने पर विस्तृत पलायन के आंकड़े केवल जनगणना के समय मिल पाते हैं। आखिरी बार जनगणना वर्ष 2011 में हुई थी। गैर-उपनगरीय यूटीएस 2 श्रेणी यात्रियों की संख्या पर मिले नए आंकड़ों से ‘400 मिलियन ड्रीम्स’ में निष्कर्ष निकाला गया है कि 2023 में प्रवासियों की संख्या 40.2 करोड़ (देश की आबादी की 28.9 प्रतिशत) थी। यह आंकड़ा 2011 की जनगणना में उपलब्ध कराए गए 45.6 करोड़ (कुल आबादी की 37.6 प्रतिशत) की तुलना में कम था। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन विवेक मौलिक चिंतक थे। दुर्भाग्य से वह पिछले वर्ष 1 नवंबर को हम सबको अलविदा कह गए। मुझे पूरा विश्वास है कि इस पत्र पर व्यापक चर्चा होगी, इसमें शामिल तथ्यों का हवाला भी दिया जाएगा और हो सकता है कि इसकी आलोचना भी की जाए। मगर हमें विवेक और उनके साथ रिपोर्ट लिखने वाले विद्वान का इस बात के लिए आभारी रहना चाहिए कि उन्होंने हमें पलायन के साक्ष्यों पर व्यापक रूप से विचार करने और इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर गहराई से सोचने के लिए प्रेरित किया है।

वर्ष 2011 से 2023 के बीच आंतरिक पलायन में वास्तव में कितनी कमी आई इस पर माथापच्ची किए बिना हमें स्वीकार करना चाहिए कि देश में आंतरिक पलायन उतनी तेजी से नहीं हो रहा है, जितनी तेजी से होना चाहिए। राज्यों के बीच पलायन को बढ़ावा देने से न केवल श्रम बाजार की क्षमता बढ़ेगी बल्कि राष्ट्रीय अखंडता को भी बल मिलेगा। बेहतर रहन-सहन की खोज में सुनियोजित शहरों की तरफ ज्यादा पलायन को हमारे भविष्य के सपने के अभिन्न हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।


Date: 15-01-25

डिजिटल ठगी

संपादकीय

आम जीवन में आधुनिक तकनीकी के प्रसार से कई स्तर पर लोगों को सुविधा होने के दावे तो किए जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इसके साथ-साथ जोखिम का दायरा भी तेजी से फैल रहा है। खासकर खरीद-फरोख्त और पैसों के लेनदेन में जिस तरह के फर्जीवाड़े सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए यह चिंता अब बढ़ रही है कि इंसान की जिंदगी को आसान बनाने वाली ये तकनीकें क्या ठगी का हथियार और लोगों के लिए जोखिम की वजह भी बन रही हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान किसी सामान की खरीदारी या अन्य किसी सेवा के बदले पैसा चुकाने के लिए आनलाइन माध्यम का उपयोग तेजी से बढ़ा है। इसमें एक मुख्य प्रचलित तरीका ‘क्यूआर कोड’ को ‘स्कैन’ करना है, जिसके जरिए लोग अपने खाते से पैसा दूसरे के खाते में भेज देते हैं। देखा जाए, तो यह पैसे के लेनदेन का एक आसान तरीका लगता है। मगर अब इसमें जिस तरह के फर्जीवाड़े सामने आने लगे हैं, उससे यह साफ है कि यह माध्यम भी अब पूरी तरह सुरक्षित नहीं रह गया है। दरअसल, मध्यप्रदेश के खजुराहो में कुछ जालसाजों ने कई दुकानों के बाहर लगे ‘क्यूआर कोड’ को चुपके से अपने ‘क्यूआर कोड’ से बदल दिया और ग्राहकों द्वारा दुकानदारों को भेजे गए पैसे अपने खाते में ले लिया। गनीमत है कि मामला सामने आने के बाद पुलिस ने खोजबीन शुरू की और आरोपी पकड़ में आ गया। देखने में यह ठगी की कोई छोटी घटना लगती है, मगर इससे पता चलता है कि खरीदारी या पैसों के लेनदेन के मामले में जिस डिजिटल माध्यम को सबसे सुरक्षित और पारदर्शी बताया जा रहा है, उसमें किस स्तर के खतरे हैं। इसके अलावा, ‘डिजिटल अरेस्ट’ या ओटीपी मंगवा कर बैंक खाता खाली कर देने के मामले आए दिन सामने आ रहे हैं। जैसे-जैसे बाजार में खरीदारी या किसी अन्य मद में भुगतान करने के लिए ‘क्यूआर कोड’ या डिजिटल माध्यम का विस्तार हो रहा है, वैसे-वैसे नकद लेनदेन करने वालों के सामने मुश्किलें पेश आ रही हैं। डिजिटल ठगी के बढ़ते मामले तत्काल इससे सुरक्षा का तंत्र विकसित करने की जरूरत रेखांकित करते हैं।


Date: 15-01-25

सही दिशा में कश्मीर

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोमवार को कश्मीर के गांदरबल जिले में 6.5 किमी. लंबी जेड मोड़ सुरंग का उद्घाटन करते हुए कहा कि ‘कश्मीर देश का मुकुट है, इसलिए मैं चाहता हूं कि यह ताज और सुंदर तथा समृद्ध हो।’ उन्होंने आगे यह भी कहा, ‘मैं बस इतना चाहता हूं कि दूरियां अब मिट गई हैं, हमें मिल कर सपने देखना चाहिए, संकल्प लेना चाहिए और सफलता हासिल करनी चाहिए।’ लेकिन इस अवसर पर जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का दिया गया भाषण ज्यादा महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है, जिसके अनेक निहितार्थ निकाले जा सकते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘पंद्रह दिन के अंदर पहले जम्मू को रेलवे डिवीजन और अब टनल, इन परियोजनाओं से न सिर्फ दिल की दूरी, वल्कि दिल्ली से दूरी भी कम हो जाती है।’ प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का उल्लेख करते हुए मुख्यमंत्री उमर ने कहा, ‘मेरा दिल कहता है कि प्रधानमंत्री बहुत जल्द जम्मू- कश्मीर के लोगों को किया गया अपना तीसरा वादा भी पूरा करेंगे, जो राज्य का दर्जा वाल करना है।’ मुख्यमंत्री के भाषण से प्रतीत होता है कि उनका कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मोहभंग हुआ है और उन्होंने अच्छी तरह से समझ लिया है कि अगर जम्मू-कश्मीर का विकास करना है और यहां व्यवस्थित सरकार चलानी है तो प्रधानमंत्री मोदी के सहयोग से ही चला सकते हैं, टकराव से नहीं। अगर मोदी का सहयोग मिलता रहेगा तो केंद्र का अनावश्यक हस्तक्षेप भी नहीं होगा। जाहिर है कि इस पर्वतीय प्रदेश में राज्य सरकार और केंद्र के बीच सहयोग से ही लोकतंत्र मजबूत होगा, शांति और स्थिरता आएगी। आतंकवाद और अलगाववाद परास्त होगा। किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए ये आवश्यक शर्तें है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान राज्य में आतंकी घटनाओं में उल्लेखनीय कमी आई है। संतोषजनक विकास भी हुआ है जिसके कारण पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिला है। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने भाषण के जरिए समझदारी का परिचय दिया है और अच्छी बात यह है कि यहां के मुसलमान भी अच्छी तरह समझने लगे हैं कि कश्मीर का भविष्य अस्थिर, अराजकताग्रस्त और आर्थिक रूप से संकटग्रस्त पाकिस्तान जैसे देश के साथ नहीं है, बल्कि भारत जैसे लोकतांत्रिक, स्थिर और आर्थिक रूप से मजबूत देश के साथ है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला कश्मीरी अवाम की इसी सोच का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।


Date: 15-01-25

काम के घंटे बढ़ाकर फायदा नहीं, नुकसान ज्यादा

गौरव वल्लभ, ( अर्थशास्त्री एवं भाजपा नेताकंपनियों )

कंपनियों के सीईओ, चैयरपर्सन और आला अधिकारियों द्वारा यह तय करने का चलन बढ़ चला है कि कर्मचारियों को कितने घंटे काम करना चाहिए। इसकी शुरुआत नारायणमूर्ति के 70 घंटे के कार्य-सप्ताह के सुझाव से हुई, जो अब एलऐंडटी के चेयरमैन के इस सवाल तक पहुंच गई है कि ‘आप अपनी पत्नी को कितनी देर तक निहार सकते हैं?’ उन्होंने यह भी जोर दिया कि कर्मचारियों को रविवार सहित सप्ताह में 90 घंटे काम करना चाहिए। हालांकि, इन लोगों के वेतन-भत्ते आदि को लेकर तमाम तरह के तर्क भी दिए जाते हैं, जो रोजाना के 15-20 लाख रुपये तक हो सकता है, पर जिन कर्मचारियों को वे अपनी तरह काम करने को कह रहे हैं, वे आमतौर पर औसतन 2,000 से 2,500 रुपये हर दिन कमाते हैं। वैसे, हमें यहां पर यह भी पता लगाना चाहिए कि लंबी कार्यावधि से उन कंपनियों को कितना लाभ हो रहा है, जिनका ये नेतृत्व कर रहे हैं?यह सही है कि आज की तेज-रफ्तार दुनिया में कई उद्योगों में लंबे समय तक काम करने का दबाव एक आम अपेक्षा बन गई है, पर लंबे समय तक काम करने से उत्पादकता और रचनात्मकता बढ़ने संबंधी धारणा महज एक भ्रांति है। असलियत में, इससे उत्पादकता व रचनात्मकता, दोनों कमजोर हो सकती हैं और कर्मचारियों की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। दरअसल, उत्पादकता को अक्सर एक तय समय-सीमा के भीतर किए गए काम की मात्रा के रूप में परिभाषित किया जाता है और इसका काम के घंटों से सीधा आनुपातिक रिश्ता नहीं होता। जबकि, कुछ लोग मानते हैं कि अतिरिक्त घंटे काम करने से अधिक काम होता है। मगर अधिक काम करने से दक्षता पर असर पड़ सकता है, क्योंकि एक बार जब कर्मचारी थकान के एक निश्चित बिंदु पर पहुंच जाता है, तो ध्यान केंद्रित करने व एकाग्रता की उसकी क्षमता कम हो जाती है।आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के एक शोध से पता चलता है कि दक्षिण कोरिया जैसे लंबे कार्य-घंटे वाले देशों की उत्पादकता अधिक हो, यह जरूरी नहीं हैै। इसके उलट, नीदरलैंड जैसे देशों की, जो काम के घंटों को लेकर कहीं अधिक संतुलित नजरिया रखते हैं, उत्पादकता दर कहीं अधिक है। ऐसा जाहिर तौर पर कर्मचारियों में थकान आने के बाद सर्वोच्च देने की क्षमता में आने वाली कमी के कारण होता है। इतना ही नहीं, लगातार अधिक काम करने से शारीरिक और मानसिक थकावट हो सकती है, जिससे कर्मचारी बीमार हो सकते हैं और उन्हें छुट्टी लेनी पड़ सकती है।रही बात रचनात्मकता की, तो किसी भी कार्यस्थल का यह सबसे मूल्यवान कौशल है। यह नए विचारों को विकसित करने, दक्षता बढ़ाने और जटिल समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने के लिए आवश्यक है। शोध बताते हैं कि जब कर्मचारी नियमित रूप से काम से ब्रेक लेता है और कामकाज व जीवन में संतुलन बनाता है, तो उसकी रचनात्मकता बढ़ती है। इसके उलट, अधिक देर तक काम करने से मानसिक थकान होती है और उसकी रचनात्मकता कुंद पड़ने लगती है। काम की लंबी कार्यावधि कर्मियों में तनाव, चिंता और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं बढ़ा सकती है, जिससे कंपनी की कमाई पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। ऐसी कंपनियों से प्रतिभाशाली पेशेवर छिटक सकते हैं।साफ है, कर्मियों में संतुष्टि और कंपनी से उनका जुड़ाव बनाए रखने के लिए निजी समय की उनकी जरूरतों को समझना अहम है। जो कंपनियां अपने कर्मियों के पेशेवर और निजी जीवन को लेकर संतुलित नजरिया रखती हैं, वहां कर्मचारियों की उत्पादकता, रचनात्मकता और स्वास्थ्य, तीनों में निरंतरता बनी रहती है। इसका बड़ा उदाहरण जापान में माइक्रोसॉफ्ट कंपनी है, जिसने अपने कर्मियों के लिए चार दिन के कार्य-सप्ताह का नियम बनाया और गुणवत्ता से किसी तरह से समझौता किए बिना उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की। स्कैंडिनेवियाई देशों में भी कार्य और जीवन के संतुलन पर ध्यान दिया जाता है और वे उत्पादकता व कर्मचारियों की संतुष्टि, दोनों में लगातार शीर्ष स्थानों पर बने हुए हैं। जाहिर है, कर्मचारियों की उत्पादकता, रचनात्मकता और बेहतरी को निखारने के लिए इन वरिष्ठ अधिकारियों को ‘कभी कुछ नहीं करके भी देखना’ होगा।