15-01-2020 (Important News Clippings)

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15 Jan 2020
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Date:15-01-20

Raise, Not Abandon, Green Cess on Coal

ET Editorials

Far from abandoning the green cess on coal, an idea that is floating around with the implausible rationale that it is the only way power plants can afford to instal pollution control kit, the government should actually raise the cess by Rs 50 or Rs 100 a tonne. Proceeds of the additional levy should be utilised for funding assorted climate-friendly actions, even as the bulk of the cess goes to fund goods and services tax (GST) compensation to the states in the current phase of low collections. Doing away with this levy will adversely impact India’s reputation for taking proactive action to tackle climate change.

The coal cess — introduced in 2010 and levied on domestic and imported coal — acknowledges the harm the mining and burning of coal does to air and water, and to people’s health. Since 2017, the cess has been utilised to make good the shortfall in states’ GST collections. This is a transient, emergency provision, and need not eat up all cess proceeds. A part of the coal cess could be made available to thermal power units, to finance installation of pollution control kit that would cut emission of particulate matter, SOx, NOx and mercury to normative levels, as well as to reduce water consumption. Such kit would cost something between `73,000 crore and `86,000 crore. The proceeds of the coal cess should be utilised not only to strengthen the finances of thermal power plants but also to create a pollution mitigation industry.

Additionally, the Electricity Act allows for tariff revisions in case of change in law or norms, and this would mean passing on the increased cost to the consumer. Studies show that the increase in tariff would be in the range of Rs 0.25-0.72 per kWh. A new pollution mitigation industry, creating jobs and incomes, would more than justify marginally higher tariffs.


Date:15-01-20

मुद्रास्फीति की चिंता

संपादकीय

मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़ों ने देश में आर्थिक नीति निर्माण की जटिलता को बढ़ा दिया है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति दिसंबर में बढ़कर 7.35 फीसदी हो गई। इस तरह उसने भारतीय रिजर्व बैंक के 2 से 6 फीसदी के दायरे को भी लांघ लिया। खाद्य मुद्रास्फीति 14.12 फीसदी रही जबकि इससे पिछले माह यह 10.01 फीसदी थी। इसके लिए सब्जियों और दालों की बढ़ी हुई कीमत उत्तरदायी थी। खुदरा महंगाई ने ऐसे वक्त तय लक्ष्य का उल्लंघन किया है जब वृद्घि में तेजी से धीमापन आया था। चालू वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था के 7.5 फीसदी की नॉमिनल दर से बढऩे की उम्मीद है।

नीतिगत दरों में 135 आधार अंकों की कमी करने के बाद आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति ने दिसंबर में ब्याज दरों में बदलाव नहीं करने का एकदम उचित निर्णय लिया है। ऐसा मोटे तौर पर मौद्रिक नीति संबंधी जोखिम के कारण किया गया। मौद्रिक नीति के अलावा खुदरा मुद्रास्फीति में इजाफा 2020-21 के बजट को भी प्रभावित करेगा। कम मुद्रास्फीति राजग सरकार की उपलब्धियों में से एक रही है। ऐसे में आगामी बजट में धीमी आर्थिक वृद्घि और बढ़ती मुद्रास्फीति दोनों को साधना आसान नहीं होगा।

बजट प्रस्तुत होने के कुछ दिन बाद एमपीसी मौद्रिक नीति की दिशा स्पष्ट करेगी। हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि खाद्य वस्तुओं में उच्च मुद्रास्फीति अस्थायी है और आने वाले महीनों में इसमें कमी आएगी। एमपीसी को और सतर्कता बरतनी होगी। मूल मुद्रास्फीति जहां सहज स्तर पर है, वहीं ताजा शीर्ष मुद्रास्फीति के आंकड़े फरवरी की बैठक में दरों में किसी भी तरह की बढ़ोतरी की संभावना खारिज करते हैं।

बहरहाल बड़ा सवाल यह है कि आखिर एमपीसी कब तक दरों को लंबित रखेगी। दो बातें ध्यान देने लायक हैं। पहली, आरबीआई के मई 2019 के एक शोध पत्र में कहा गया कि मुद्रास्फीति के व्यापक अनुमानों में चूक होती है क्योंकि खाद्य कीमतों से लगने वाले झटकों का अंदाजा नहीं होता। खासतौर पर सब्जियों जैसी खराब होने वाली चीजों की कीमतों का।

पूरे देश से मिलने वाले प्रमाण यही सुझाव देते हैं कि अनुमान में कमियों का संबंध खुदरा मूल्य सूचकांक में खाद्य पदार्थों के भार से है। चूंकि बीते सालों में खाद्य कीमतों में गिरावट के अनुमान नहीं लगाए जा सके इसलिए कहा जा सकता है कि आने वाले समय में इसमें इजाफे के अनुमान लगाने में भी कठिनाई होगी। दूसरी बात, यदि आरबीआई लगातार तीन तिमाहियों तक मुद्रास्फीति के लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहा तो उसे केंद्र सरकार को रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी। इसमें उसे नाकामी के कारण बताने होंगे और प्रस्तावित कदमों का जिक्र करना होगा। यह भी बताना होगा कि वह कितने समय में लक्ष्य को हासिल करेगा। जाहिर है केंद्रीय बैंक ऐसी स्थिति से बचना चाहेगा।

मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने वाले ढांचे के कारण आने वाले महीनों में आरबीआई बड़ी परीक्षा भी होने वाली है। इस संदर्भ में यह देखना अहम होगा कि आखिर आरबीआई किस हद तक अपने मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान बदलता है और निकट भविष्य में खाद्य कीमतें कैसा व्यवहार करती हैं। भारतीय स्टेट बैंक का एक शोध बताता है कि सब्जियों की मुद्रास्फीति में इजाफा होने के दो महीने बाद प्रोटीन की महंगाई में इजाफा होता है। इसके अतिरिक्त वैश्विक खाद्य कीमतों में भी अहम इजाफा हुआ है। ऐसे में मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी के जोखिम के साथ मौद्रिक नीति आगामी तिमाहियों में वृद्घि को सहारा देने की स्थिति में नहीं होगी। ऐसे में आर्थिक स्थिति में सुधार की जिम्मेदारी पूरी तरह सरकार पर होगी। इसका खाका बजट में सामने आना चाहिए।


Date:15-01-20

क्या वाकई देश आतंक से पूर्णतः महफूज है ?

संपादकीय

जम्मू–कश्मीर पुलिस का डीएसपी देवेंद्र सिंह तब पकड़ा गया, जब वह कुछ खूंखार आतंकियों को अपनी कार से दिल्ली ले जा रहा था। उसकी गाड़ी में हथियार भी मिले और घर पर छापा मारने पर खतरनाक हथियारों के जखीरे के साथ डेढ़ लाख रुपए भी।

इस अधिकारी को पिछले वर्ष राज्य सरकार के वीरता पुरस्कार से नवाजा गया था और इसकी वीरता और आतंकियों को मार गिराने के किस्से भी जम्मू-कश्मीर पुलिस में मशहूर थे। अभी वह श्रीनगर एयरपोर्ट पर तैनात हाईजैकिंग निरोधक दस्ते का इंचार्ज था। यानी जब चाहता, इस हवाई-अड्डे से किसी भी आतंकी को (दिसंबर, 1999 की फ्लाइट आईसी-814 की तरह ही) हथियार सहित बैठाकर जहाज किसी भी दुश्मन देश में उतरवा सकता था और किसी भी नए ‘मसूद अजहर’ को रिहा कराने के इतिहास को दोहराने की आतंकियों इजाजत दे सकता था।

अब ज़रा सिक्योरिटी एजेंसियों का निकम्मापन देखें। 2004 में तिहाड़ जेल में बंद अफजल गुरु ने अपने वकील को एक चिट्ठी लिखकर बताया था कि इसी देवेंद्र (तब इंस्पेक्टर, स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप) के कहने पर उसने संसद भवन पर हमले के लिए पाकिस्तानी आतंकी मुहम्मद को साथ लिया और उसी के कहने पर मुहम्मद के रहने के लिए मकान और चलने के लिए कार की व्यवस्था की।

यह तथ्य आज भी अफजल केस का हिस्सा है। क्या किसी सरकार और उसके बहुस्तरीय इंटेलिजेंस सिस्टम को दस साल तक एक इंस्पेक्टर, इतने बड़े तथ्य के बावजूद मुगालते में रख सकता है? यही नहीं उसी सिस्टम से अपने लिए पुरस्कार की अनुशंसा करवा सकता है? अगर ऐसा है तो सिविल सेवा परीक्षा से आए आईएएस और आईपीएस की क्या जरूरत है?

क्यों हमने इतनी बड़ी ताकत देकर राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनआईए) बनाई? क्या इसके पास सर्विलांस की आधारभूत काबिलियत भी नहीं है? हाल में देखा गया है कि अभियोजन और जांच की निर्बाध शक्ति का इस्तेमाल भी ठीक से नहीं हाे पा रहा है। बल्कि, यह एजेंसी तेलंगाना एसआईटी के आतंकियों को लेकर किए गए बड़े खुलासे को अपने खाते में डालकर प्रशंसा अर्जित कर रही है। इनके पास सर्विलांस के लिए न तो अच्छे किस्म के इक्विपमेंट हैं और न ही तेलंगाना एसआईटी सरीखी योग्यता और प्रोफेशनल प्रतिबद्धता। आतंक का ख़तरा आज के भारत में जैसा है, पहले कभी नहीं रहा।


Date:15-01-20

मनमोहन-2 जैसे हश्र की ओर मोदी-2 के कदम

सिर्फ पूर्वोत्तर और मुस्लिमों तक सीमित नहीं रह गया है नागरिकता संशोधन कानून का विरोध

योगेन्द्र यादव , सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

क्या मोदी सरकार की दूसरी पारी में उसकी वही गति होगी, जो मनमोहन सिंह सरकार की दूसरी पारी में हुई थी? हालांकि नरेंद्र मोदी की दूसरी पारी की शुरुआत मनमोहन सिंह की तुलना में ज्यादा धमाकेदार थी, लेकिन इस पारी में मोदी सरकार की साख कहीं ज्यादा तेजी से गिरती दिखाई दे रही है। नागरिकता संशोधन कानून संसद में पास होने के बाद से पिछले एक महीने से पूरे देश ने एक अभूतपूर्व उथल-पुथल देखी है। पिछले महीने भर में इस जन-उभार के चरित्र में बदलाव हुआ है। यह केवल पूर्वोत्तर और मुस्लिम समाज के प्रभावित वर्गों का आंदोलन नहीं, बल्कि देश के युवजन का आंदोलन बन चुका है। अब यह केवल एक कानून या एक मुद्दे पर विरोध नहीं है, बल्कि एक समग्र जनआंदोलन की शक्ल ले चुका है। यह केवल विरोध तक सीमित नहीं है, बल्कि एक सकारात्मक आंदोलन का रूप ले चुका है।

शुरुआत में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध केवल उन समुदायों द्वारा हुआ, जिन्हें इससे सीधा नुकसान होने की आशंका थी। इस कानून के पास होते ही असम और पूर्वोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में जो जबरदस्त प्रतिरोध शुरू हुआ वह आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस आंदोलन ने असम गण परिषद सहित सभी राजनैतिक दलों को किनारे कर दिया है और इसकी कमान युवाओं ने थाम ली है। इसे नैतिक बल असम के साहित्यकार और कलाकार दे रहे हैं। अब यह आंदोलन बड़े शहरों से उतरकर गांव-गांव तक पहुंच चुका है। याद रहे कि असम और त्रिपुरा में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले अधिकांश लोग हिंदू हैं। उन्हें अपनी भाषाई पहचान की चिंता है। आज असम में भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगी असम गण परिषद के नेताओं को मुंह छुपाने की जगह नहीं मिल रही है।

उसके तुरंत बाद मुस्लिम समुदाय का देशव्यापी विरोध शुरू हो गया। पिछले पांच साल से परेशान और सशंकित मुसलमान को इस सरकार के खिलाफ अब आवाज उठाने पर मजबूर होना पड़ा। यहां भी मुस्लिम समुदाय ने अपने राजनीतिक और धार्मिक ठेकेदारों को दरकिनार कर दिया है। देशभर में स्वत: स्फूर्त तरीके से मुस्लिम समाज अपनी नागरिकता बचाने की लड़ाई में खड़ा हो रहा है। कुछ हिंसा की घटनाओं के बावजूद कुल मिलाकर यह आंदोलन शांतिपूर्ण रहा है। तिरंगे झंडे के तले, संविधान की दुहाई देकर और और देशप्रेम के नारों के साथ यह आंदोलन देश भर में फैल गया है। शाहीन बाग की तर्ज पर चल रहे महिलाओं के संघर्षों ने इस आंदोलन को एक अनूठा स्वरूप दिया है। बीजेपी ऐसा सोच सकती है कि उसे मुसलमानों का वोट तो मिलता नहीं था तो उनके आंदोलन से उसे कोई नुकसान नहीं होगा। चुनावी रणनीतिकार इसमें बीजेपी का नफा भी ढूंढ़ सकते हैं। लेकिन अंततः अगर समाज का कोई वर्ग नैतिक आधार पर सरकार का विरोध करता है तो कहीं ना कहीं उसका असर सरकार की साख पर पड़ता है।

सरकार के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात इस आंदोलन में छात्रों और युवाओं का जुड़ना है। जामिया विश्वविद्यालय में पुलिस की बर्बरता के विरुद्ध सिर्फ एक समुदाय के नहीं, बल्कि देशभर के विद्यार्थी खड़े हुए। जेएनयू के विद्यार्थियों के साथ पुलिस के संरक्षण में हुई हिंसा का विरोध उन विश्वविद्यालयों में भी हुआ, जहां आमतौर पर छात्र राजनीति गर्म नहीं रहती है। इस बहाने छात्रों का अन्य कई मुद्दों पर सुलगता हुआ आक्रोश भी अब फूट पड़ा है। कैंपस में लगाई गई तमाम उटपटांग बंदिशों से विद्यार्थी परेशान हैं, अधिकारियों द्वारा शिशुवत व्यवहार से अपमानित महसूस करते हैं और शिक्षा तथा रोजगार के सही अवसर न मिलने से चिंतित हैं। अन्ना आंदोलन गवाह है कि जब युवा वर्ग में किसी सरकार की साख गिरने लगती है तो फिर वह जंगल में आग की तरह फैल जाती है। आज मोदी सरकार के सामने कुछ ऐसा ही खतरा मंडरा रहा है।

अब यह आंदोलन किसी छिटपुट विरोध प्रदर्शन से बढ़कर एक राष्ट्रव्यापी जनआंदोलन का रूप ले चुका है। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की दोनों धाराएं अब युवा आंदोलन से जुड़ गई है। अब इस आंदोलन में वह वर्ग भी जुड़ रहे हैं जिन्हें सीधे तौर पर नागरिकता संशोधन से कोई खतरा नहीं है। इनकी संख्या भले ही कम हो, लेकिन इनकी भागीदारी से आंदोलन को नैतिक आभा मिलती है। किसी भी बड़े आंदोलन की तरह इसमें भी अब कवि, लेखक, कलाकार और अभिनेता सब शामिल होने लगे हैं। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध से शुरू हुआ यह आंदोलन अब एक “भारत जोड़ो आंदोलन» में बदल चुका है। जो लोग नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोधी नहीं भी हैं, उन्हें भी समझ आने लगा है कि कहीं ना कहीं यह सारा मुद्दा देश का ध्यान असली समस्याओं से बांटने के लिए उठाया जा रहा है। आज जब देश के सामने बेरोजगारी चरम सीमा पर पहुंच गई है, देश मंदी की मार का शिकार है, खेती किसान और गांव पर संकट है और महंगाई फिर सर उठाने लगी है, ऐसे में नागरिकता के सवाल पर हिंदू-मुसलमान को बांटने की रणनीति अब लोगों को साफ दिखने लगी है।

जनलोकपाल आंदोलन के सामने मनमोहन सिंह सरकार को समझ नहीं आया कि वह क्या करें? इस अनिश्चय में वह सरकार चली गई। मोदी सरकार का चरित्र बिल्कुल अलग है। अनिश्चय या कदम पीछे खींचने की बजाए इस सरकार की प्रवृत्ति आक्रामक रहने की है। इसलिए तमाम विरोध के बावजूद सरकार ने नागरिकता संशोधन को अधिनियमित कर दिया और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के काम को चालू कर दिया है। उत्तर प्रदेश में किसी भी विरोध-प्रदर्शन पर पुलिस के हमले और जेएनयू की हिंसा से सरकार की नीयत साफ है कि वह इस जनांदोलन का दमन करेगी। जन आंदोलनों का इतिहास बताता है कि इनका दमन अल्पकाल में सफल हो सकता है, लेकिन दीर्घकाल में वह सरकार और समाज दोनों के लिए घातक साबित होता है।


Date:15-01-20

वैचारिक असहिष्णुता का बेजा प्रदर्शन

आज वामपंथी और मध्यमार्गी-वामपंथी भाजपा से यह उम्मीद क्यों कर रहे हैं कि वह उनके हिसाब से चले ?

डॉ. एके वर्मा , (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)

आज देश में विचारधाराओं के संघर्ष से वैमनस्य और उन्माद उपज रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा-राजग सरकार बनने के बाद यह और ज्यादा मुखर हुआ है। स्वतंत्रता के बाद केरल और त्रिपुरा वामपंथी गढ़ हुआ करते थे, लेकिन देश के अन्य भागों जैसे कानपुर (जहां कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ), बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र आदि में भी उनकी उपस्थिति रहती थी। बंगाल में 1977 से करीब 30 वर्षों तक वामपंथी सरकार रही। आज केरल के अलावा हर जगह से वामपंथी सरकार साफ हो चुकी है। 1990 के दशक में सोवियत संघ में साम्यवाद के अंत और कम्युनिस्ट चीन में उदारवाद के अभ्युदय से वामपंथ की नींव हिल गई। भारत में वामपंथ की अस्मिता पर ग्रहण लग गया, जिसे बचाने हेतु कई क्षेत्रों में उग्र-वामपंथ और नक्सलवाद का फैलाव हुआ। आज जेएनयू की हिंसा को वामपंथी अस्मिता संकट के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है, अन्यथा शीर्ष वामपंथी नेता समस्या के साथ नहीं, वरन केवल वामपंथी छात्रों के साथ ही क्यों खड़े दिखाई देते?

भारतीय लोकतंत्र वैचारिक स्पर्द्धा का खुला मंच है। संविधान इस स्पर्द्धा को मान्यता देता है। संविधान के प्रथम अनुच्छेद में ही कहा गया है- इंडिया, दैट इज भारत अर्थात जिसे हम ‘इंडिया कहते हैं वह ‘भारत है। जो लोग देश को ‘इंडिया के रूप में परिभाषित करते हैं वे प्रगतिशील और वामपंथी कहलाते हैं और जो उसे ‘भारत के रूप में देखते हैं उन्हें दक्षिणपंथी, हिंदुत्ववादी, संघी और भाजपाई कहा जाता है। इस प्रकार इंडिया और भारत परस्पर विरोधी विचारधाराओं के प्रतीक हैं। इंडिया शब्द का वजूद तो नया है जो 17वीं शताब्दी से प्रयोग हुआ, लेकिन भारत का विचार तो हजारों वर्ष पुराना है जिसमें ‘वयं ब्रह्मास्मि (हम सब ब्रह्म हैं) और ‘वसुधैव कुटुंबकम (संपूर्ण धरती परिवार है) की अवधारणाएं समाहित हैं। वे समस्त मूल्य और सांस्कृतिक तत्व समाहित हैं जो भारतीयता के प्रतीक थे। इंडिया के प्रयोग से हमें योरपीय लोकतांत्रिक मूल्यों, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का पाठ पढ़ाकर शिष्ट बनाने की कोशिश की गई, लेकिन शायद हम भूल गए कि ये सभी हमारी सांस्कृतिक विरासत के अभिन्न् अंग रहे हैं। स्वतंत्रता के लिए हमें ईसा पूर्व 11वीं शताब्दी में बनी अजंता-एलोरा और खुजराहो की कलाकृतियों और उनमें व्यक्त कामुक-भंगिमाओं को देखना होगा जिसे ‘पब्लिक-स्पेस में स्वतंत्रता की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। जहां पश्चिम में काम को वासना से जोड़ा गया, वहीं भारतीय संस्कृति उसे सृजन, संस्कार और देवत्व से संबद्ध करती है इसीलिए देश में शिवलिंग की सर्वाधिक पूजा-अर्चना होती है। पाश्चात्य जगत हमें समानता का क्या पाठ पढ़ाएगा? विश्व में आज लैंगिक-समानता की बात हो रही है, पर भारत में हजारों वर्ष पूर्व आदिशक्ति की परिकल्पना ‘अर्द्ध-नारीश्वर के रूप में की गई, जिसमें स्त्री-पुरुष समानता अपने सर्वोत्कृष्ट स्वरूप में विद्यमान है। बंधुत्व में हमसे आगे कौन हो सकता है, जहां वसुधा को परिवार माना गया और बेंथम के ‘अधिकतम लोगों और मार्क्स के ‘सर्वहारा से आगे जाकर ‘सर्वे भवंतु सुखिन: की परिकल्पना की गई। इसी प्रकार, सेक्युलरिज्म और सहिष्णुता को आधुनिक संकल्प मानकर ‘आइडिया ऑफ इंडिया को परिभाषित किया जाता है, लेकिन प्राचीन भारत में असंख्य पंथों व असीमित विभिन्न्ताओं वाले सामजिक परिवेश का अस्तित्व प्रमाणित करता है कि जब योरप सेक्युलरिज्म और सहिष्णुता से अपरिचित था तब भारत में ये संकल्प सामाजिक-संस्कृति की आधारशिला थे। संविधान निर्माताओं ने पश्चिम से कुछ ग्रहण किया जरूर पर स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, सेक्युलरिज्म और सहिष्णुता जैसे संकल्पों की संपदा तो स्वयं हमारे पास थी। इसीलिए उन्होंने ‘इंडिया को ‘भारत की पहचान दी।

हमारे संविधान में वामपंथ और दक्षिणपंथ, दोनों का समावेश है। किसी को भी हीन या अछूत नहीं समझा गया है। जनता भी विचारधारा को लेकर सहिष्णु है अन्यथा बंगाल, त्रिपुरा और अन्य क्षेत्रों में वामपंथ को स्वीकारने के बाद वह उसे अस्वीकृत क्यों करती? एक लंबे समय तक देश में मध्यमार्गी-वामपंथी कांग्रेस को सत्ता देने के बाद वह उसे अपदस्थ कर दक्षिणपंथी भाजपा को सत्ता क्यों देती? मूल प्रश्न है कि जनता किन परिस्थितियों में किस विचारधारा को स्वीकार करती है और क्यों? जिस दल को जनादेश मिलता है, उसे अपनी विचारधारा के अनुरूप नीतियां बनाने, निर्णय लेने, नियुक्तियां करने का अधिकार है। प्रधानमंत्री नेहरू के समय से यही सिलसिला चला आ रहा है। आज वामपंथी और मध्यमार्गी-वामपंथी क्यों भाजपा से उम्मीद करते हैं कि वह उनके हिसाब से चले?

वास्तविक लोकतांत्रिक सहिष्णुता तो यही है कि आज मोदी को अपना काम करने दो, कल जब तुम फिर आना तो अपने हिसाब से काम करना। आज यदि मोदी के लिए ‘ताजमहल से ज्यादा ‘गीता आइडिया ऑफ इंडिया को अभिव्यक्त करती है तो वामपंथ को आपत्ति क्यों? अगर पिछले 70 वर्षों में भारतीय विश्वविद्यालयों में वामपंथियों की नियुक्ति हुई है तो अब दक्षिणपंथियों की नियुक्ति पर सवाल क्यों?

आज कांग्रेस एवं वामपंथी विपक्ष के सामने अस्मिता का संकट है। वामपंथी तो राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकृत हो चुके हैं। फिर वे करें क्या? उनके लिए मोदी सरकार की हर बात बुरी है, हर नीति खराब है, हर निर्णय खोटा है, हर कार्यक्रम धोखा है, अन्यथा मोदी सरकार की प्रत्येक बात का वे इतना संगठित और सतत विरोध क्यों करते? जिस तरह नागरिकता के मुद्दे पर अनेक दल विरोध को हवा दे रहे हैं और मुद्दों को उलझाकर जनता को गुमराह कर रहे हैं, उसमें शांत और बौद्धिक विमर्श का स्थान बचा ही कहां है?

हाल में केरल में ‘इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस में मुख्य अतिथि राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खान के साथ वामपंथी इतिहासकार इरफान हबीब ने जैसी बदसलूकी की वह वामपंथ की वैचारिक असहिष्णुता की एक बानगी भर थी। विपक्ष यह नहीं समझ पा रहा कि लोकतंत्र में तर्कपूर्ण असहमति और विरोध अनिवार्य है, पर उसमें अभद्रता, संघर्ष और विद्रोह को मान्यता नहीं। आज विपक्ष ने संघर्ष और विद्रोह की लीक पकड़ ली है। ऐसे लोकतंत्र में समाधान के दो रास्ते होते हैं। एक हमें सैनिक हस्तक्षेप की ओर ले जाता है और दूसरा जन-हस्तक्षेप की ओर। कोई भी राजनीतिक दल सैन्य-हस्तक्षेप की कल्पना नहीं करना चाहेगा। तो दूसरा विकल्प जन-हस्तक्षेप का ही बचता है, जिसमें दो मार्ग हैं। एक हमें सिविल-वॉर और दूसरा चुनावों की ओर ले जाता है। अमेरिका में हम इन दोनों विकल्पों का प्रयोग देख चुके हैं जहां रंगभेद को लेकर दक्षिणी व उत्तरी राज्यों में 1861-65 के बीच सिविल-वॉर हुआ, लेकिन उसके बावजूद आज वह एक विकसित राष्ट्र के रूप में जाना जाता है और अपवादों को छोड़ अमेरिकी समाज समावेशी और सभ्य माना जाता है। बेहतर होता कि वामपंथी और मध्यमार्गी-वामपंथी कुछ वैचारिक सहिष्णुता का परिचय देते और भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथी विचारधारा को भी स्पेस देते जिससे लोकतंत्र एंव संविधान की छत्रछाया में जनता को वैचारिक स्पर्द्धा का आनंद मिलता और समाज एवं राज्य लोक-कल्याण व विकास में आगे बढ़ते रहते।


Date:14-01-20

आतंक का दायरा

संपादकीय

जिस दौर में पूरी दुनिया एक व्यापक और जटिल आतंकवाद की समस्या से जूझ रही है, उसमें किसी ऐसे व्यक्ति को आतंकियों के साथी के रूप में गिरफ्तार किया जाता है, जिसे आतंकवादियों से निपटने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, तो यह समझा जा सकता है कि इस समस्या की चुनौती कितनी गहरी है। खासतौर पर भारत ने आतंकवाद की पीड़ा जिस स्तर तक झेली है, वह किसी से छिपा नहीं है। लेकिन आतंकियों का सामना करने के लिए सरकार ने हर स्तर पर चौकसी बरती और यही वजह है कि आज आतंकवादियों के हौसले कमजोर हुए हैं। विडंबना यह है कि देश ने सुरक्षा व्यवस्था के तहत जिन लोगों को आतंकियों का सामना करने के लिए तैनात किया है, उनमें से ही कुछ लोग आतंकवादियों के साथी के तौर पर काम कर रहे थे। हालांकि देश का सुरक्षा तंत्र फिलहाल इतना चौकस है कि इसमें न केवल आतंकियों, बल्कि प्रच्छन्न रूप से उनका साथ देने वाले भी पकड़ में आ जाते हैं। गौरतलब है कि सोमवार को आई एक खबर के मुताबिक दक्षिण कश्मीर के कुलगाम इलाके में खुफिया सूचना मिलने के बाद शुरू किए गए सुरक्षा अभियान के दौरान जम्मू-कश्मीर में तैनात पुलिस उपाधीक्षक रैंक के एक अधिकारी को हिजबुल मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों के साथ गिरफ्तार किया गया। तीनों एक ही वाहन में पकड़े गए और आशंका है कि वे किसी आतंकी वारदात को अंजाम देने के मकसद से कहीं जा रहे थे।

इससे ज्यादा अफसोस की बात और क्या होगी कि जिस पुलिस अफसर को पिछले साल श्रेष्ठ सेवाओं के लिए राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया था, उसके आतंकवादियों के साथ मिले होने की बात सामने आई। बेशक अभी गहन जांच के बाद स्थितियां और स्पष्ट होंगी कि पकड़ा गया डीएसपी किस स्तर तक इस आरोप में सहभागी था, लेकिन इससे इतना तो साफ हुआ ही है कि जिस तंत्र के बूते हमारे देश में एक बड़ी चुनौती का सामना करने का दावा किया जा रहा है, उसके भीतर भी कई तरह के खतरे मौजूद हैं। यों जांच के दायरे में शायद सामने आया एक और तथ्य हो कि संसद पर हमले के लिए मौत की सजा पा चुके एक आतंकवादी ने अपनी चिट्ठी में इसी अफसर पर मिलीभगत की अंगुली उठाई थी। इसका बस अंदाजा भर लगाया जा सकता है कि एक ओर समूचे देश में आतंकी तत्त्वों से निपटने के लिए एक चौकस तंत्र का गठन किया जा रहा है, संसाधन झोंके जा रहे हैं, दूसरी ओर उसी तंत्र में बैठा कोई व्यक्ति आतंकवादियों का मददगार निकल आता है।

हालांकि यह बेहद अफसोसनाक स्थिति है और देश के सुरक्षा तंत्र में एक बड़ी कोताही का सबूत भी कि उच्च पद पर बैठा पुलिस अधिकारी खुद ही आतंकियों के साथ पकड़ा गया। निश्चित तौर पर यह किसी इक्का-दुक्का पुलिस अफसर के आतंकियों के साथी के तौर पकड़े जाने का मामला है और उम्मीद यही की जानी चाहिए कि सुरक्षा बलों में आज भी इतनी विश्वसीयता कायम है कि वे देश की सुरक्षा जैसे सबसे संवेदनशील मसले पर कोई चूक बर्दाश्त नहीं करेंगे। इसके बावजूद यह समझना मुश्किल है कि इतने समय तक यह अफसर खुद उस महकमे में उच्च पद पर कैसे बना रहा, जिसका काम ही आतंकवादियों का सामना करना और खुफिया सूचनाएं हासिल कर देश के अर्धसैनिक सुरक्षा बलों को प्रेषित करना है। आखिर उसके बारे में खुफिया तंत्र को कोई सूचना कैसे नहीं मिल सकी और कैसे वह इतने समय से ऐसे काम में लगा हुआ था? क्या खुफिया सूचनाएं हासिल करने के इसी स्तर के बूते देश के सुरक्षा बल आतंकवाद से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं?


Date:14-01-20

कर्ज माफी का बोझ

संपादकीय

किसानों की कर्ज माफी अर्थव्यवस्था पर किस कदर भारी पड़ती जा रही है, इसका पता इस तथ्य से चलता है कि पिछले एक दशक में किसानों के करीब पौने पांच लाख करोड़ के कर्ज माफ कर दिए गए। इसमें दो लाख करोड़ रुपए तो पिछले दो साल में माफ किए गए। क्या यह गंभीर चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि एक तरफ तो हम किसानों के कर्ज माफ करते जा रहे हैं, लेकिन किसान की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा है। ऐसे तो कर्ज देने और माफ करने का चक्र कभी टूटने वाला नहीं। किसानों की कर्ज माफी को लेकर एसबीआइ रिसर्च की ताजा चौंकाने वाली है। इसमें साफ कहा गया है कि पिछले एक दशक में जितनी रकम किसानों को कर्ज के रूप में बांट दी गई है, वह देश के उद्योग जगत के फंसे हुए कर्ज यानी एनपीए का बयासी फीसद है। जाहिर है, अगर कुछ समय और किसानों को कर्ज माफी का यह झुनझुना थमाया जाता रहा है तो देश के समक्ष एनपीए का एक और पहाड़ खड़ा हो जाएगा।

किसानों की कर्ज माफी को लेकर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना रहा है कि किसानों की दशा सुधारने के लिए कर्ज माफी कोई स्थायी समाधान नहीं है। इससे न तो किसानों की समस्याएं ही दूर हो पाती हैं, बल्कि सरकारी खजाने पर बोझ और बढ़ता चला जाता है। भारत में यह हमेशा की समस्या रही है कि कर्ज माफी को हमारे राजनीतिक दल और सरकारें किसानों के वोट हासिल करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते आए हैं। लेकिन किसान की बुनियादी समस्याओं के समाधान की दिशा में कोई कारगर प्रयास शायद ही हुआ हो। इसलिए भारत का किसान खासतौर से छोटे सीमांत किसान आज भी उसी हालत में हैं जो दशकों से चली आ रही है। पिछले दो साल में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में किसानों के कर्ज माफ होते रहे। अगर देश के कृषि क्षेत्र के लिए उचित नीतियां बनतीं और लागू होतीं तो आज भारत के करोड़ों किसान दयनीय हालत में नहीं होते और आत्महत्या करने को मजबूर नहीं होते। कृषि कर्जमाफी के आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले वित्त वर्ष यानी 2018-19 में कृषि कर्ज का एनपीए एक लाख करोड़ रुपए से निकल गया था, जो इस वक्त देश के सभी वित्तीय संस्थानों के कुल एनपीए 8.79 लाख करोड़ का साढ़े बारह फीसद बैठता है। नतीजे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि किसानों के लिए पैसा तो बहाया जा रहा है, पर वह बेकार जा रहा है।

दो साल पहले नीति आयोग और रिजर्व बैंक तक ने भी किसानों के कर्ज माफ करने को लेकर अपनी असहमति जताई थी। नीति आयोग ने तब साफ कहा था कि कर्ज माफी का फायदा एक सीमित वर्ग जो दस-पंद्रह फीसद से ज्यादा नहीं है, को ही पहुंचता है, इसलिए इसे किसानों की समस्या के हल में रूप में देखना व्यावहारिक नहीं है। रिजर्व बैंक भी किसानों के कर्ज माफ करने के पक्ष में इसलिए नहीं रहा है, क्योंकि बड़े पैमाने पर कृषि कर्ज माफी से सरकारी खजाने पर बोझ तो पड़ता ही है, महंगाई भी बढ़ती है। किसानों की मदद लिए बेहतर रास्ता यह हो सकता है कि उन्हें कर्ज माफी जैसी सुविधा के बजाय खेती की जरूरत का सामान मुहैया कराया जाए। ऐसी दूरगामी योजनाएं बनें जिनसे किसान आर्थिक रूप से स्वावलंबी बन सके और उसे कर्ज की जरूरत ही न पड़े।


Date:14-01-20

नई राह

संपादकीय

मामला संवेदनशील है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने नया रास्ता अपनाया है। डेढ़ साल पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत दी थी, तब से यह मसला लगातार उलझता जा रहा है। पांच जजों की पीठ का यह फैसला कई तरह से महत्वपूर्ण था। एक तो इस फैसले ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर दर्जा देते हुए एक पुरानी परंपरा को खत्म करने का रास्ता तैयार किया था, दूसरे ऐसे ही अन्य धर्मस्थलों में प्रवेश की लड़ाई लड़ रही महिलाओं को एक उम्मीद दी थी। लेकिन पिछले डेढ़ साल में हमने यह भी देखा कि इस फैसले को सर्वस्वीकार्य बनाना और लागू करना कितना कठिन है। जो लोग इस फैसले से संतुष्ट नहीं थे, उन्होंने अदालत में समीक्षा याचिका डाली। पिछले 14 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने इस मामले से जुड़े मुद्दों को ज्यादा बड़ी पीठ के हवाले करने को कहा। साथ ही यह भी आग्रह किया कि इसके साथ ही मस्जिदों, दरगाहों या अन्य धर्म-स्थलों में महिलाओं के प्रवेश के मसलों को भी जोड़ा जाए। इससे एक तरह से यह मामला अब सिर्फ सबरीमाला का नहीं रह गया, बल्कि विभिन्न समुदायों की अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुपालन की स्वतंत्रता बनाम नागरिकों के निजी आत्मसम्मान और बराबरी का हो गया है। आमतौर पर पांच सदस्यीय पीठ का फैसला समीक्षा के लिए सात सदस्यीय पीठ के हवाले किया जाता है, लेकिन इस मामले के व्यापक महत्व को देखते हुए प्रधान न्यायाधीश शरद अरविंद बोवडे ने नौ सदस्यीय पीठ के हवाले करने का निर्णय किया। इस निर्णय की एक वजह यह भी हो सकती है कि इसमें जिन फैसलों की समीक्षा होनी है, उसमें शिरूर मठ से संबंधित फैसला भी है, जो सात सदस्यों वाली पीठ ने दिया था।

हमारा संविधान सभी समुदायों को यह स्वतंत्रता देता है कि वे अपनी धार्मिक परंपराओं को बिना किसी बाधा के चलाते रहें। दूसरी तरफ, संविधान सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार भी देता है और यह भी सुनिश्चित करने की बात करता है कि धर्म, जाति, जन्म या लिंग के आधार पर किसी से कोई भेदभाव न हो। इन दोनों ही चीजों में कई बार टकराव हो जाता है और ऐसे मामले अदालत में पहुंच जाते हैं। ऐसे मामलों में कुछ एक फैसले परस्पर विरोधी हो सकते हैं, पर अदालत ने आमतौर पर नागरिकों के समता के अधिकार का ही साथ दिया है। समता की यह लड़ाई वैसे तो संविधान बनने से पहले देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही चल रही है। हरिजनों का मंदिर प्रवेश ऐसी ही कोशिशों का एक नतीजा था, जिसने बहुत कुछ बदला भी। हालांकि सब कुछ अभी भी नहीं बदला है। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट को अब जो फैसला करना है, उसमें उसे सैद्धांतिक मसलों का हल तो ढूंढ़ना है ही, इस सामाजिक यथार्थ से टकराना भी है।

इसके लिए अदालत ने सोमवार को जो रास्ता अपनाया, वह काफी महत्वपूर्ण है। इस मसले से देश के कई बड़े वकील जुड़े हैं, जो विधि और संविधान के विशेषज्ञ भी हैं। अब वे आपस में बैठकर पहले इसके मुद्दों को तय करेंगे। इसी बैठक में यह तय होगा कि कौन सा वकील किस मसले पर अपने तर्कों को अदालत में पेश करेगा। इसके बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत का जो भी फैसला होगा, वह सभी पक्षों, समुदायों और नागरिकों को मान्य होगा।


Date:14-01-20

पुलिस सुधार से ही निकलेगी राह

विभूति नारायण राय , पूर्व आईपीएस अधिकारी

यह क्षण शायद भारतीय पुलिस के सबसे शर्मनाक क्षणों में से एक था, जब देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक जेएनयू में मुंह पर कपड़े लपेटे गुंडे महिला छात्रावासों में तोड़-फोड़ कर रहे थे, अपने विरोधियों के हाथ-पैर तोड़ रहे थे, विश्वविद्यालय की संपत्ति को क्षति पहुंचा रहे थे, और तकनीक इन भयावह दृश्यों को पूरी दुनिया के लिए आंखों-देखा बना रही थी, तब दिल्ली पुलिस के अधिकारी विश्वविद्यालय गेट पर खड़े होकर दलील दे रहे थे कि अंदर घुसकर हिंसा रोकने के लिए उन्हें विश्वविद्यालय अधिकारियों की अनुमति की प्रतीक्षा है। कोई आश्चर्य नहीं कि यह अनुमति तब आई, जब गुंडे अपना काम खत्म कर कैंपस से जा चुके थे।

मैं भी उन असंख्य लोगों में से एक था, जो पूरे घटनाक्रम के दौरान अपने-अपने टीवी स्क्रीन से चिपककर बैठे थे। लोगों की दिलचस्पी के अलग-अलग कारण हो सकते हैं, पर मैं स्तब्ध था पुलिस अधिकारियों की ढिठाई और अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने की व्यग्रता पर। तीन दशकों से अधिक भारतीय पुलिस सेवा का सदस्य और एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति रहने के बाद मैं इतना ही कह सकता हूं कि मेरी जानकारी में देश का कोई कानून ऐसा नहीं है, जो पुलिस को किसी शिक्षण संस्थान में प्रवेश करने के पूर्व उसके प्रधान से अनुमति के लिए बाध्य करता हो। जिन परिस्थितियों में 5 जनवरी की शाम पुलिस थी, उनमें उसकी कार्रवाई को लेकर दंड प्रक्रिया संहिता या सीआरपीसी बड़ी स्पष्ट है। पुलिस की आंखों के सामने गैर-कानूनी भीड़ संज्ञेय अपराधों में लिप्त थी और विधायिका द्वारा पारित कानून सीआरपीसी उनसे निर्णायक हस्तक्षेप की अपेक्षा करता था। कोई भी प्रशासनिक आदेश, यदि यह अस्तित्व में हो भी कि पुलिस बिना कुलपति की अनुमति परिसर में नहीं घुसेगी, सीआरपीसी का उल्लंघन नहीं कर सकता।

यह सभ्य समाजों की अलिखित परंपरा तो है कि पुलिस शिक्षण संस्थाओं में बिना अनुमति प्रवेश नहीं करती, पर कहीं भी विधायिका द्वारा पारित कानून से इसे बाध्यकारी नहीं बनाया गया है। अमेरिका और यूरोप में भी, जहां नागरिक समाज हमसे अधिक सक्रिय है, पुलिस शिक्षण संस्थानों में सशस्त्र हस्तक्षेप करती रहती है। फिर 5 जनवरी की देर शाम जेएनयू में जो घट रहा था, वह न तो किसी सभ्य समाज में होता है और न ही भारतीय पुलिस की इस मामले में बहुत गौरवशाली परंपरा रही है। फिर कुछ ही दिनों पहले दिल्ली पुलिस जामिया मिल्लिया इस्लामिया में लाइब्रेरी समेत कैंपस के तमाम हिस्सों में अपनी कार्रवाई के नमूने दिखा चुकी थी। वहां घुसने के लिए तो उसने विश्वविद्यालय अधिकारियों की इजाजत नहीं ली थी और यह शिकायत खुद वहां की कुलपति महोदया ने सार्वजनिक रूप से की है।

अब जब बहुत से स्टिंग-ऑपरेशन सामने आ गए हैं, कई वाट्सएप ग्रुप की सक्रियता का भंडाफोड़ हो चुका है और यह भी सिद्ध हो चुका है कि 5 जनवरी की दोपहर से ही जेएनयू परिसर में लठैत-गुंडों का जमावड़ा हो रहा था और कई जमावड़ों के विजुअल्स में तो उनके करीब कई पुलिसकर्मी भी खडे़ दिख रहे हैं। तब किसी ऐसी पुलिस के लिए आप किस संज्ञा का प्रयोग करेंगे, जो यह जानते हुए भी कि परिसर के अंदर ऐसे संज्ञेय अपराध हो रहे हैं, जिनमें हस्तक्षेप करना उसका अधिकार नहीं, बल्कि कर्तव्य है, फिर भी दलील देती रहे कि वह एक ऐसे आदेश की प्रतीक्षा कर रही है, जिसके पीछे कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। यह एक मिलीभगत वाली पुलिस थी, जिसके लिए अंग्रेजी का शब्द ‘कांप्लिसिट’ प्रयोग करना ही उपयुक्त होगा।

ऐसा नहीं है कि जेएनयू की हालिया घटना आजाद भारत में पुलिस के दुरुपयोग की पहली घटना है। दुर्भाग्य से सभी सरकारों के मन में पुलिस के दुरुपयोग की ढकी-छिपी इच्छा रही है, पर इस बार फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि तकनीक ने महाभारत के संजय की तरह रणभूमि से सीधे आंखों देखा हाल चिंतित देशवासियों तक पहुंचा दिया था। सारी छीछालेदर के बावजूद दिल्ली पुलिस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए अपनी गलतियों को छिपाने की दयनीय सी कोशिश की। उसने कुछ चुने हुए विजुअल्स दिखाकर दावा किया कि विश्वविद्यालय छात्र संघ की अध्यक्षा समेत वे सभी छात्र, जिन्हें हम पिटते हुए देख रहे थे, दरअसल खुद ही हमलावर थे। उसने पिछली तारीखों से संबंधित कई एफआईआर भी दर्ज कर डाली, जिनमें फिर उन्हीं छात्रों को दोषी ठहराने की कोशिश की गई, जो पिछले काफी दिनों से विश्वविद्यालय की फीस-वृद्धि के खिलाफ आंदोलनरत थे। इनमें उन छात्रों को बचाने की कोशिशें साफ दिख रही थीं, जो एक खास विचारधारा से जुडे़ थे और अब स्टिंग-ऑपरेशनों से उनकी संलिप्तता काफी हद तक सिद्ध हो चुकी है। इसके बावजूद अगर पुलिस दावा करे कि हाथों में लाठी लिए दौड़ते नकाबपोश पीड़ित थे और टूटे-फूटे अंगों के साथ कैमरे पर आए लड़के-लड़कियां ही हमलावर थे, तो आप कांप्लिसिट के अलावा उसे क्या कहेंगे?

पिछले दिनों सिर्फ दिल्ली नहीं, उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भी कांप्लिसिट पुलिस के नमूने देखने को मिले। खासतौर पर लखनऊ में जो कुछ हुआ, उसे किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं सदफ जफर, एसआर दारापूरी और दीपक कबीर की गलत तरीके से गिरफ्तारियां और फिर हिरासत में उनके साथ दुव्र्यवहार एक ऐसी पुलिस की तरफ आपका ध्यान आकर्षित करती है, जो अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है। इसी तरह, मुजफ्फरनगर में एक समुदाय विशेष के साथ ज्यादतियां उत्तर प्रदेश पुलिस पर समय-समय पर लगने वाले सांप्रदायिक आचरण के आरोपों की ही  पुष्टि करती हैं।

पुलिस व्यवहार के ये सारे विचलन व्यापक पुलिस सुधारों की मांग करते हैं। यह सब अब अपवाद नहीं, बल्कि उसके व्यवहार का सहज स्वाभाविक अंग बन गए हैं। इनसे मुक्त होकर ही लोकतांत्रिक समाज के अनुकूल और कानून-कायदों का सम्मान करने वाली पुलिस मिल सकेगी। मगर क्या हम इसके लिए तैयार हैं? यदि हम सचमुच सभ्य पुलिस चाहते हैं, तो हमें चुनावों में व्यापक पुलिस सुधारों को भी मुद्दा बनाना चाहिए।


Date:14-01-20

The Cost of Subsidy

Government is rationalising food subsidy. It must go further

Editorial

In April 1983, NT Rama Rao’s government in Andhra Pradesh launched a Rs 2 per kg rice scheme considered highly populist for that time. What would one, then, say of such a scheme replicated on a national scale, supplying 25 kg of wheat or rice per month at Rs 2/3 per kg even today to three-fourth of India’s rural and half of its urban population? Given the “economic cost” of over Rs 25 for the Food Corporation of India (FCI) to procure, store and distribute a kg of wheat and Rs 36/kg for rice, the annual losses on nearly 60 million tonnes (mt) of subsidised grain sales under the so-called National Food Security Act of 2013 (NFSA) are huge. But the distortion does not stop at supplying grain at prices frozen in time. It also extends to open-ended government procurement at minimum support prices (MSP) hiked year after year. The result: A Central food subsidy bill budgeted at Rs 1,84,220 crore for 2019-20 and the FCI’s rice and wheat stocks of 56.5 mt as on January 1 being way above the required 21.4 mt for this date, even after providing for the NFSA.

This is clearly unsustainable. The Narendra Modi government, as this newspaper has reported, is attempting rationalisation of food subsidy by making sure that the MSP payments are firstly going not to market intermediaries, but to actual farmers by transferring the money directly into the latter’s bank accounts. This complements efforts at seeding of the Aadhaar numbers of NFSA beneficiaries with their ration cards. The whole approach here is to curb “leakages” — of MSP benefits to non-farmers and that of NFSA to those who would simply divert the super-subsidised grain to the open market. Once a proper database of both farmers and NFSA consumers is built, a further targeting — limiting MSP-based procurement to only small holders and supplying subsidised grains to the genuinely poor (who will be less than the current roughly two-third of all households) — becomes possible.

But such measures merely nibble away at what is a most inefficient, market-distorting and fiscally costly way of “helping” farmers and poor consumers. The existing system is heavily biased in favour of two cereal crops, procured mainly from farmers having assured irrigation access. The interest of vulnerable consumers is best secured by the government making direct cash transfers and simultaneously building a buffer stock of all essential commodities — rice, wheat, pulses, edible oils, milk powder, butter fat and onions — that would enable effective market intervention. Such operations, in order to avoid excessive price volatility, do not require maintaining 60-70 mt of stocks. The Modi government can similarly do more for farmers, including those growing crops other than paddy and wheat, by expanding the scope of the PM-Kisan direct income support scheme. That will cost less and deliver better than the Rs 2,82,000 crore spent every year on the food, fertiliser and farm credit subsidy.