14-12-2022 (Important News Clippings)

Afeias
14 Dec 2022
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Date:14-12-22

What AIIMS Server “Hijack” Tells Us About Cyber Security

Every database is vulnerable, and our defences aren’t as robust as we think

Mishi Choudhary is a New York-based tech lawyer and Faisal Farooqui is a tech entrepreneur.

For days, hundreds of dedicated healthcare professionals at Delhi’s prestigious AIIMS had to work with pen and paper to register a sea of patients waiting in long queues after a ransomware attack. What should have been a seamless task of admitting patients in the hospital or rendering check-ups and diagnostic services in the outpatient department had to be done as it was in the 1970s and 80s.

This is because on November 23 the core or main servers of AIIMS were hijacked (or held hostage) by an unknown, faceless enemy who could have been operating as a single individual or a group or organisation. The servers were partially restored on December 6 and online appointments were restored earlier this week.

How safe is Digital India?

We have used the word hijack and not hacked only to draw attention to the sophistication of the level of this type of attack.

‘Hijack’ because the attacker/s have demanded an astronomical amount of Rs 200 crore to unlock these servers which are required for the smooth functioning of almost everything at AIIMS.

Such an attack in the IT industry is known as a ransomware attack and is becoming more frequent than you and I can imagine.

Worryingly, the national infrastructure remains exposed to a public network, ‘the internet’, which becomes the conduit for such ransomware attacks.
India is moving at breakneck speed to roll outDigital India in every aspect of our lives but without a comprehensive cyber security plan.

The too-big-to-fail Aadhaar database

Consider the Aadhaar database. When various petitioners argued before a five-judge constitution bench in 2018 that Aadhaar data is not safe, the then Attorney General of India responded that the data remains secure in a building that has 13-feet-high and five-feet-thick walls.

Of course, the Attorney General knew that walls and buildings do not protect data on servers that are powered by silicon chips and connected to fibre-optic networks. Anything, anything and we repeat anything that’s on a connected digital medium is extremely vulnerable to outside attack. One such attack happened on AIIMS.

Despite a clear prohibition issued by the Supreme Court against making Aadhaar registration mandatory, GoI and enthusiastic parties in both state governments and industry proceeded to adopt Aadhaar-basedtechnology and impose requirements for Aadhaar registration for even the most mundane services from educational scholarships to booking railway tickets to marrying voter ID databases to Aadhaar.

By making Aadhaar registration de facto mandatory, GoI has to now think about the security of personal information of citizens.

India’s enemies could target Aadhaar

Shouldn’t we dread the consequences of what will happen if our Aadhaar infrastructure or servers are held to ransomware or cyberattack in any form? Proponents of Aadhaar will argue that it’s stored safely behind sophisticated firewalls and layers of software and hardware-based protection and in worst-case scenarios, backup systems will kick in immediately.

Well of course, the system will be up and running again, but what about the identity and demographics, photos, biometric fingerprint, and eye scan of 135 crore citizens and residents that may end up in the hands of hostile groups or people or nations? There would be no victory even if our data was recovered afterwards, because the damage would already be done.

We recommend that a Cyber Security Board should be established with government and private sector participants that have the authority to convene following a significant cyber incident to analyse what happened and make concrete recommendations to improve cybersecurity.

You and I are simple ordinary citizens. We know that no government anywhere at present can promise a perfect security for its most critical personnel data. The only way to protect our nation’s and its citizen’s data health and identity data is perhaps by not having them stored anywhere. Period.


Date:14-12-22

मौसम का सीधा असर अब आम जिंदगियों पर

संपादकीय

विश्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार आगामी कुछ वर्षों में भारत में गर्मी मनुष्य की बर्दाश्त करने की सीमा पार कर जाएगी, जिससे मौतें होंगी, बेरोजगारी बढ़ेगी और आर्थिक-खाद्य संकट भयानक रूप लेगा। रिपोर्ट में बताया गया कि दुनिया में इसका सबसे ज्यादा दंश भारत झेलेगा, जहां उच्च तापमान, लम्बे समय तक गर्मी और मानव जीवन के लिए बर्दाश्त से ज्यादा गर्म हवाएं होंगी। रिपोर्ट के अनुसार आज भारत में 75% कामगार (38 करोड़ लोग ) भीषण गर्मी में काम करते हैं जैसे खेती, निर्माण कार्य व मजदूरी रिपोर्ट ने इस वर्ष के अप्रैल में तापमान के 46 डिग्री सेल्सियस होने और मार्च से ही जबरदस्त गर्मी होने का जिक्र करते हुए बताया कि आने वाले समय में यह बढ़ेगा। दुनिया में करीब 80 करोड़ लोग बेरोजगार होंगे, जिनमें 34 करोड़ केवल भारत के होंगे। गरम हवाएं या लू सन् 2036 तक 25 गुना बढ़ जाएंगी। सन् 2030 में उच्च तापमान की वजह से आर्थिक गतिविधियां कम होंगी और भारत अपनी जीडीपी का 4.5% खोने लगेगा। चूंकि भारत में कोल्ड चेन की व्यवस्था केवल 4% ताजा उत्पादों के लिए है, लिहाजा हर साल करीब एक लाख करोड़ रुपए का खाद्य पदार्थ बर्बाद होता है। तापमान बढ़ने से दो-तिहाई वर्ग ऐसा होगा, जो इस गर्मी को नहीं झेल पाएगा। इससे मौत, बीमारियां और अनेक तरह का जीवन-संकट बना रहेगा। इसमें दो राय नहीं कि विगत मार्च माह में भयंकर गर्मी के कारण ही गेहूं की पैदावार घट गई। आने वाले दिनों में न केवल तापमान बढ़ने बल्कि लम्बे समय तक बने रहने वाले ग्रीष्म काल से भी कृषि -चक्र प्रभावित होने का खतरा है। यानी मानव- जीवन, उत्पादन, अर्थ-व्यवस्था सभी पर आसन्न संकट ।


Date:14-12-22

स्वागतयोग्य परिवर्तन

संपादकीय

जीन संवर्द्धित (जीएम) सरसों की हाइब्रिड किस्म डीएमएच-11 को मंजूरी देने को लेकर संसद में जो वक्तव्य दिए गए और सर्वोच्च न्यायालय में जो साक्ष्य दिया गया वह जीएम फसलों को लेकर सरकार की नीति में सकारात्मक बदलाव का संकेत देता है। इन फसलों की वा​णि​ज्यिक खेती को लेकर अनि​श्चित रुख रखने के बजाय अब सरकार इनके पक्ष में नजर आ रही है। जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रैजल कमेटी (जीईएसी) द्वारा जीएम सरसों को मंजूरी का बचाव करके सरकार ने न केवल यह स्वीकार किया है कि यह खाने-​खिलाने की दृ​ष्टि से सुर​क्षित है ब​ल्कि उसने एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहा कि जीएम तकनीक खाद्य सुरक्षा और निर्यात में कमी की दृ​ष्टि से अहम है। यह कृ​षि वैज्ञानिकों के उस विचार का समर्थन है जिसमें उनका मानना है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक की मदद से ही कृ​षि उत्पादों की बढ़ती मांग पूरी की जा सकती है और उत्पादन लागत कम करके किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। कीटनाशकों, बीमारियों और जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न चुनौतियों से निपटने में भी ऐसी फसलें मददगार होंगी।

दिलचस्प बात है कि डीएमएच-11 वही जीएम सरसों है जिसे जीईएसी ने 2017 में मंजूरी दी थी लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। अब वही मंत्रालय कह रहा है कि विषाक्तता, एलर्जी और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर किए गए गहन अध्ययनों में पाया गया है कि जीएम हाइब्रिड हर लिहाज से सुर​क्षित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जब सरकार से यह पूछा कि डीएमएच-11 को पर्यावरण संबंधी मंजूरी देने की वजह क्या रही तो सरकार ने जो जवाब दिया वह भी नीतिगत बदलाव की ओर संकेत देता है। सरकार ने जो हलफनामा पेश किया है उसमें जोर दिया गया है कि कृ​षि सुधार मसलन जीएम फसलों की खेती की मदद से ही घरेलू खाद्य तेलों की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है ताकि उनका आयात कम किया जा सके और उनकी कीमतों को नियंत्रित रखकर मुद्रास्फीति का प्रबंधन किया जा सके। दिल्ली विश्वविद्यालय के जैव प्रौद्योगिकी केंद्र द्वारा विकसित डीएमएच-11 के बारे में जानकारी है कि यह किस्म सरसों की लोकप्रिय किस्म वरुणा की तुलना में 28 फीसदी अ​धिक उपज देती है। दुनिया भर में जीएम हाइब्रिड के आने के बाद उत्पादन में काफी वृद्धि देखने को मिली है। भारत अपनी जरूरत के खाद्य तेल का करीब 60 फीसदी आयात करता है और माना जा रहा है कि जीएम बीजों के आने के बाद इसमें काफी कमी आएगी।

अहम बात यह है कि जीएम सरसों इकलौती खाद्य फसल नहीं है जिसे बीते एक दशक से अ​धिक समय से मंजूरी का इंतजार था। जीन संवर्द्धित बीटी-बैगन की तकदीर और भी बुरी है। भारी खपत वाली यह जीएम सब्जी कभी खेतों तक नहीं पहुंची जबकि जीईएसी ने इसे 2009 में ही इसे मंजूरी दे दी थी। ऐसा इसलिए हुआ कि जीएम फसलों का विरोध करने वाली लॉबी तथा सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध स्वदेशी जागरण मंच ने इसका जमकर विरोध किया। हकीकत में यही वजह थी कि तत्कालीन सरकार ने सभी जीएम फसलों के खेतों में परीक्षण को 10 वर्ष के लिए स्थगित कर दिया था। भारतीय बीटी बैगन अब बांग्लादेश और फिलिपींस में जमकर उगाया जा रहा है।

ऐसे प्रतिगामी कदमों की देश ने भारी कीमत चुकाई है। कुछ प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो देश में कपास क्रांति लाने वाले बीटी-कॉटन समेत जीन संव​र्द्धित फसलों के विकास से जुड़ी रही हैं उन्होंने भारत से अपना कारोबार समेट लिया और अन्य देशों में चली गईं। इसके अलावा भारत ने विकास के अलग-अलग चरणों से गुजर रही कई जीएम किस्मों और हाइब्रिड फसलों की मंजूरी भी रोक दी। ऐसे में किसान भी इनकी खेती से होने वाले वाणि​ज्यिक लाभ से वंचित हो गए। माना जा सकता है कि नीतियों में इस बदलाव से बेहतर जीन वाली खाद्य और वा​णि​ज्यिक फसलों का इस्तेमाल शुरू हो सकेगा तथा एक और तकनीक समृद्ध हरित क्रांति देखने को मिलेगी।


Date:14-12-22

लोकतंत्र पर मंडराता अदालती खतरा

आर जगन्नाथन आर जगन्नाथन, ( लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं )

न्यायधीशों की नियुक्ति को लेकर इन दिनों कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जारी जुबानी जंग बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। हालांकि, यदि इसके लिए किसी को जिम्मेदार ठहराना हो तो इसका दोष न्यायपालिका के हिस्से में ही अधिक आएगा। दरअसल, न्यायपालिका ने स्वयं को ऐसी शक्तियां प्रदान की हैं, जिनका संविधान में भी कोई उल्लेख नहीं था और यही पहलू टकराव के मूल में है।

कुछ दिन पहले की बात है जब न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाला पीठ सरकार पर कुपित था। उसके आक्रोश का कारण यह था कि सरकार नई नियुक्तियों को लेकर कॉलेजियम की सिफारिशों पर कुंडली मारे बैठी है। न्यायमूर्ति कौल ने कहा कि सरकार शायद इस बात से नाराज हो कि 2015 में शीर्ष अदालत ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) से जुड़ी उसकी पहल को खारिज कर दिया था, लेकिन उसे अदालत का फैसला मानना तो पड़ेगा। उन्होंने कहा, ‘यही देश का कानून है, जिसका सभी को पालन करना होगा।’

एक ऐतिहासिक विषयांतर दर्शाता है कि यह कथन कितना आत्म-विवर्धक है। फ्रांसीसी क्रांति द्वारा राजशाही को चुनौती देने से पहले 18वीं सदी में फ्रांस में दो उल्लेखनीय सम्राट हुए। एक लुई चतुर्थ और दूसरे लुई षष्ठम। उसमें लुई चतुर्थ का एक फ्रांसीसी कथन बहुत चर्चित है, जिसका सार यही था कि उसने स्वयं को ही राज्य का पर्याय करार दे दिया था। उसके कहने का यही अर्थ था कि ‘मैं ही राष्ट्र (या राज्य) हूं।’ वहीं लुई षष्ठम का अक्सर अपनी संसद के साथ विवाद हुआ करता था। उसने अप्रैल 1788 में संसद द्वारा पारित कानून को खारिज करते हुए यह कहा था, ‘जब मैं अपनी संसद से मिलता हूं तो इसका मकसद वहां रखे जाने वाले कानूनों पर होने वाली चर्चा को सुनना होता है, जिन कानूनों पर मैं अपने समक्ष प्रस्तुत किए गए तथ्यों के साथ निर्णय करता हूं। गत 19 नवंबर को भी मैंने यही किया। मैंने चर्चा सुनी। जब तक मैं आपके विचार-विमर्श में उपस्थित नहीं होता, तब तक उन्हें सारांशित करने की कोई आवश्यकता नहीं…वहीं, जब मैं उपस्थित होता हूं तो मैं बैठक के लिए अपने भाव का स्वयं फैसला करता हूं। यदि संसद का बहुमत मेरी इच्छा के विरुद्ध जाने में सक्षम होता, तो राजशाही मजिस्ट्रेटों के कुलीन वर्ग से कुछ अधिक नहीं रह जाती। यह राष्ट्र के अधिकारों और हितों के लिए उतना ही खतरनाक है, जितना संप्रभु के लिए।’अब यदि उच्चतम न्यायालय को लुई षष्ठम के स्थान पर रख दिया जाए तो अपनी शक्तियों के प्रति न्यायपालिका के दृष्टिकोण को कुछ इस प्रकार समझाया जा सकता है, ‘हमने सुना है कि एनजेएसी के माध्यम से न्यायिक नियुक्तियों को लेकर संसद का क्या कहना है, लेकिन यहां न केवल हम उसकी व्याख्या करते हैं, बल्कि यह भी तय करते हैं कि कानून वास्तव में कैसा होना चाहिए।’ उच्चतम न्यायालय के पीठ के कहने का यही अर्थ है कि संसद द्वारा संविधान संशोधन हो सकता है और वह भी भले ही सर्वानुमति के साथ, लेकिन यह निर्णय हम ही करेंगे कि वह स्वीकार्य है या नहीं। और अंत में जो हम निर्णय करते हैं, वही देश का कानून है, न कि वह जिसे निर्वाचित एवं जवाबदेह विधि निर्माता प्रवर्तित करते हैं। इस पर कतई ध्यान न दें कि संविधान इस प्रकार की न्यायिक नियुक्तियों पर कुछ नहीं कहता।

संवैधानिक न्यायालयों में नियुक्ति को लेकर अनुच्छेद 124 (2) में उल्लिखित व्यवस्था के अनुसार, ‘सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के बाद की जाएगी, जिन्हें राष्ट्रपति इस प्रयोजन-उद्देश्य के लिए आवश्यक समझ सकते हैं और वह 65 वर्ष की आयु तक अपने पद को धारण कर सकेगा, बशर्ते मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में, भारत के मुख्य न्यायाधीश से सदैव परामर्श किया जाएगा।’ फिर उच्चतम न्यायालय ने न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति के मामले में स्व-निर्मित कॉलेजियम व्यवस्था के बारे में कैसे पढ़ लिया, जिसमें सरकार के पास केवल समीक्षा का अधिकार है और अंतिम निर्णय कॉलेजियम का ही होता है। यह तो अनुच्छेद 124 (2) में उल्लिखित व्यवस्था के सर्वथा विपरीत है, जो इस संबंध में राष्ट्रपति (या कैबिनेट) को प्रमुख प्रस्तावक के रूप में रखता है।

स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 142 (1) के एक विशेष प्रावधान, जो उसे कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है, का उपयोग कर स्वयं को न्यायाधीशों के मुख्य नियोक्ता की भूमिका में गढ़ा है।

अनुच्छेद 142 (1) के अनुसार, ‘उच्चतम न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्रों के प्रयोग में ऐसी डिक्री पारित कर सकता है या ऐसा आदेश दे सकता है, जो किसी भी लंबित मामले या मामले में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो, और इस तरह से पारित कोई भी डिक्री या आदेश पूरे भारत के क्षेत्र में इस तरह से लागू किया जा सकता है, जैसा कि संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून द्वारा उसके तहत निर्धारित किया जा सकता है।

यह उपबंध उच्चतम न्यायालय को न केवल कानून की व्याख्या करने, बल्कि अपने कानून बनाने की गुंजाइश भी प्रदान करता है, भले ही संविधान उनके विषय में जो कहे। इस प्रकार यदि संसद कोई संविधान संशोधन करती है तो शीर्ष अदालत उसे खारिज कर सकती है। एक तरह से उच्चतम न्यायालय जो कहे, वही संविधान है।

हाल के वर्षों में विधि-निर्माण के मोर्चे पर अदालत ने अपनी पैठ बहुत गहरी की है। जीन संवर्धित सरसों पर सरकारी फैसले की वैधता से लेकर वैक्सीन नीति, दिल्ली में प्रवेश करने वाली एसयूवी गाड़ियों पर अतिरिक्त कर से लेकर राफेल विमान की सही कीमत का निर्धारण करना और हाईवे पर बार आदि जैसे तमाम मामलों पर उच्चतम न्यायालय सक्रिय रहा है। हाल में उसने पूछा है कि क्या चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति तीन सदस्य पैनल द्वारा नहीं की जानी चाहिए, जिस पैनल में मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हों। स्मरण रहे कि चुनाव आयोग भी एक संवैधानिक संस्था है और कतिपय खामियों के बावजूद उसने हमारे चुनावों को निष्पक्ष एवं पारदर्शी बनाए रखा है। यदि यह सिलसिला इसी प्रकार कायम रहा तो भविष्य में तब किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए यदि उच्चतम न्यायालय राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी स्वयं को यह कहकर शामिल कर ले कि उसकी मंशा ऐसे संस्थानों के राजनीतिकरण को रोकने की है। वह जिस धड़ल्ले से लगभग हर तरह की कथित ‘जनहित याचिकाओं’ की सुनवाई को लेकर तत्पर है, उससे यही लगता है कि वह किसी भी ऐसे मामले में दखल दे सकता है, जो अभी विधायिका या कार्यपालिका के दायरे में आता है।

भारत में कार्यपालिका और नेताओं को दोष देने की एक परिपाटी है कि उन्होंने अपने हाथ में हद से ज्यादा शक्ति ले रखी है, लेकिन भारत में यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि उच्चतर न्यायपालिका निरंतर निरंकुश एवं गैर-जवाबदेह होती जा रही है। अनुच्छेद 142 की समाप्ति के साथ ही अनुच्छेद 124 को संशोधन करने के पक्ष में दमदार दलीलें हैं, ताकि न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका और संसद की तार्किक भूमिका मुखरित हो सके। इस मामले में सरकार को सभी राजनीतिक धड़ों से संपर्क साधकर संसदीय सर्वानुमति बनानी चाहिए।

न्यायपालिका द्वारा विधि-निर्माण एवं शासन वाली व्यवस्था लोकतंत्र न होकर किटार्की कहलाती है। वस्तुतः, लोकतंत्र को अक्षुण्ण रखने वाली नियंत्रण एवं संतुलन की नाजुक व्यवस्था को न्यायपालिका ने किनारे कर दिया है। न्यायपालिका को लुई षष्ठम सरीखे अपने ढर्रे को निश्चित ही तिलांजलि दे देनी चाहिए।


Date:14-12-22

असरकारी आवाज उठे

भारत डोगरा

विश्व में ‘डूमस्डे क्लाक’ अपनी तरह की प्रतीकात्मक घड़ी है जिसकी सुइयों की स्थिति के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि विश्व किसी बड़े संकट की संभावना के कितने नजदीक है। इस घड़ी का संचालन ‘बुलेटिन ऑफ एटोमिक साइंटिस्ट्स’ नामक वैज्ञानिक संस्थान द्वारा किया जाता है। इसके परामर्शदाताओं में 15 नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। ये सब मिलकर प्रति वर्ष तय करते हैं कि इस वर्ष घड़ी की सुइयों को कहां रखा जाए। इस घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर बहुत बड़े संकट का पर्याय माना गया है। घडी की सुइयाँ रात के 12 बजे के जितने नजदीक रखी जाएंगी, उतनी ही किसी बड़े संकट से धरती (और उसके लोग व जीव) के संकट की स्थिति मानी जाएगी। 2020-21 में इन सुइयों को (रात के) 12 बजने में 100 सेकेंड पर रखा गया। संकट के प्रतीक 12 बजे के समय से इन सुइयों की इतनी नजदीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में, यह घड़ी दर्शा रही है कि इस समय धरती किसी बहुत बड़े संकट के सबसे अधिक नजदीक है। इस समय यह चर्चा है कि निकट भविष्य में डूमस्डे से दूरी को और कम किया जाएगा क्योंकि 2022 में पर्यावरण व युद्ध के खतरे बढ़ गए हैं। ‘डूमस्डे घड़ी’ के वार्षिक प्रतिवेदन में इस स्थिति के तीन कारण बताए गए हैं।

पहली वजह यह है कि जलवायु बदलाव के लिए जिम्मेदार जिन ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में 2013-17 के दौरान ठहराव आ गया था उनमें 2018 में फिर वृद्धि दर्ज की गई। जलवायु बदलाव नियंत्रित करने की संभावनाएं समग्र से धूमिल हुई हैं। दूसरी वजह यह है कि परमाणु हथियार नियंत्रित करने के समझौते कमजोर हुए हैं। आईएनएफ समझौते का नवीनीकरण नहीं हो सका। तीसरी वजह यह है कि सूचना तकनीक का बहुत दुरुपयोग हो रहा है। जिसका सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इन तीन कारणों के मिले जुले असर से आज विश्व बहुत बड़े संकट की संभावना के अत्यधिक नजदीक आ गया है, और इस संकट को कम करने के लिए जरूरी कदम तुरंत उठाना जरूरी है। क्या ‘डूमडे घड़ी’ के इस अति महत्त्वपूर्ण संदेश को विश्व नेतृत्व समय रहते समझेगा? हाल के वर्षों में यह निरंतर स्पष्ट होता रहा है कि अब तो धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है। जिन कारणों से हजारों वर्षों तक धरती पर बहुत विविधतापूर्ण जीवन पनप सका, आधार ही बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुके हैं। धरती की जीवनदायिनी क्षमता के संकटग्रस्त होने अनेक कारण हैं – जलवायु बदलाव व अनेक अन्य गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं, परमाणु हथियार व अन्य महाविनाशक हथियार आदि । इस बारे में तो निश्चित जानकारी मिल रही है कि धरती पर जीवन संकट में है, पर इसे दूर करने के लिए समय पर असरदार कदम कैसे उठाए जाएंगे इस बारे में अभी बहुत अनिश्चित स्थिति है। जो प्रयास हो रहे हैं, वे बहुत अपर्याप्त हैं। उससे कहीं अधिक बड़े प्रयास और बड़े बदलाव चाहिए।

यह प्रयास अमन-शांति, पर्यावरण और जीवन के सभी रूमों की रक्षा, लोकतंत्र, समता और न्याय की परिधि में होने जरूरी हैं। इस सभी मुद्दों पर विश्व के विभिन्न देशों में विभिन्न जन- आंदोलन और जन-अभियान पहले से चल रहे हैं। इनके विभिन्न आयाम हैं। उदाहरण के लिए यदि केवल अमन-शांति के आंदोलनों और हिंसा – विरोधी आंदोलनों और अभियानों की बात करें तो किसी भी देश में इनके विभिन्न आयाम हो सकते हैं। बारुदी सुरंगों या अन्य विशिष्ट छोटे हथियारों के विरुद्ध एक अभियान हो सकता है, तो परमाणु हथियारों जैसे महाविनाशक हथियारों के विरुद्ध एक अलग अभियान। पड़ोसी देशों से संबंध सुधारने के कई अभियान हो सकते हैं। महिला हिंसा, बाल-हिंसा और घरेलू हिंसा के विरुद्ध कई आंदोलन हो सकते हैं। शिक्षा संस्थानों व कार्यस्थलों पर होने वाली हिंसा के विरुद्ध अभियान हो सकते हैं। एक बड़ी चुनौती यह है कि अमन-शांति के इन सभी जन- अभियानों और आंदोलनों में आपसी एकता बना कर उन्हें बड़ी ताकत बनाया जाए जिसका असर अधिक व्यापक व मजबूत हो। ये सभी शाखाएं एक-दूसरे की पूरक हों, इनकी अमन-शांति के मुद्दों पर व्यापक व समग्र सोच हो, वे अहिंसा की सोच में गहराई तक पहुंच सकें।

जब अमन-शांति की ये सभी धाराएं परमाणु हथियारों को समाप्त करने के बारे में आम सहमति बनाएं तो इस मांग को बहुत बल मिलेगा। दूसरे शब्दों में, अपनी विशिष्ट मांगों के साथ यह सभी अभियान उन मांगों को भी अपनाएँ जो धरती पर जीवन को बुरी तरह संकटग्रस्त कर रही समस्याओं के समाधान से जुड़ी हैं। इस तरह किसी भी देश में बहुत व्यापक स्तर पर धरती की रक्षा की मांग उठ सकती है। फिर सभी देशों से मांग उठेगी तो अपने आप विश्व स्तर पर यह मांग बहुत असरदार रूप से उठ पाएगी। विभिन्न देशों के अमन-शांति के आंदोलनों में आपसी समन्वय हो, एकता हो तो साथ-साथ जोर लगाकर परमाणु हथियारों को समाप्त करने की मांग को वे और भी असरदार ढंग से उठा सकेंगे। यही स्थिति पर्यावरण की रक्षा के आंदोलन की भी है। किसी भी देश में इस आंदोलन के कई अध्याय हो सकते हैं जैसे नदियों के प्रदूषण को कम करना, वायु प्रदूषण को कम करना, प्लास्टिक के प्रदूषण को कम करना आदि। यदि इन विभिन्न अभियानों और आंदोलनों का आपसी समन्वय हो तो इनकी आवाज मजबूत बनेगी। इस ओर भी विशेष ध्यान देना होगा कि जो मुद्दे धरती के जीवन को बुरी तरह संकटग्रस्त करने वाले हैं (जैसे जलवायु बदलाव का मुद्दा ) उन मुद्दों को पर्यावरण रक्षा के आंदोलन अपने विशिष्ट मुद्दों के साथ-साथ जोर देकर उठाएं।

इस तरह एक ओर पर्यावरण रक्षा के सभी पक्ष एक-दूसरे की सहायता से मजबूत होंगे तथा दूसरी ओर जलवायु बदलाव जैसे धरती को संकटग्रस्त करने वाले मुद्दों को कहीं अधिक व्यापक समर्थन मिलेगा। यदि लगभग सभी देशों में ऐसे प्रयास एक साथ हों तो जलवायु बदलाव जैसे संकट के संतोषजनक समाधान की मांग विश्व स्तर पर बहुत असरदार ढंग से उभर सकेगी। तिस पर यदि इन सभी देशों के पर्यावरण आंदोलनों में साझी कार्यवाही के लिए जरूरी सहयोग हो जाए तो वे एक साथ असरदार ढंग से विश्व स्तर पर आवाज बुलंद कर सकेंगे।


Date:14-12-22

वक्त की जरूरत

शशांक द्विवेदी

पिछले 10 महीनों से यूक्रेन- रूस युद्ध चल रहा है। इस दरम्यान दुनिया भर में क्रूड आयल के दामों में तेजी की वजह से ईंधन की कीमतें बढ़ी रहीं । युद्ध की वजह से यूरोप बिजली, प्राकृतिक गैस और ऊर्जा संकट से जूझ रहा है और कुछ समय से पूरी दुनिया महंगाई व ऊर्जा संकट का सामना कर रही है। भारत अपनी जरूरत का 90 फीसदी क्रूड आयल आयात करता है। ऐसे में हम अपनी ईंधन और ऊर्जा जरूरतों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर हैं। किसी भी देश आधारभूत विकास के लिए ऊर्जा का सतत और निर्बाध प्रवाह बहुत जरूरी है। किसी देश में प्रति व्यक्ति औसत ऊर्जा खपत वहां के जीवन स्तर की सूचक होती है। इस दृष्टि से दुनिया के देशों में भारत का स्थान काफी नीचे है ।

देश की बढ़ती आबादी के उपयोग के लिए तथा विकास को गति देने के लिए ऊर्जा की हमारी मांग भी बढ़ रही है । द्रुत गति से विकास के लिए औद्योगीकरण, परिवहन और कृषि के विकास पर ध्यान देना होगा। इसके लिए ऊर्जा की आवश्यकता है। दुर्भाग्यवश खनिज तेल, पेट्रोलियम, गैस, उत्तम गुणवत्ता के कोयले के हमारे प्राकृतिक संसाधन बहुत सीमित हैं। हमें बहुत सा पेट्रोलियम आयात करना पड़ता है । विद्युत की हमारी मांग उपलब्धता से बहुत ज्यादा है । आवश्यकता के अनुरूप विद्युत का उत्पादन नहीं हो पा रहा है। रेटिंग एजेंसी इक्रा ने यह अनुमान जताते हुए कहा है कि वित्त वर्ष 2021-22 में अखिल भारतीय स्तर पर बिजली की मांग 1,380 अरब यूनिट थी। भारत करीब 200 गीगावॉट यानी करीब 70% बिजली का उत्पादन कोयले से चलने वाले प्लांट्स से करता है, लेकिन ज्यादातर प्लांट्स बिजली की बढ़ती मांग और कोयले की कमी की वजह से बिजली की अपेक्षित सप्लाई कर पा रहे है। देश के कोयले से चलने वाले बिजली प्लांट्स के पास पिछले 9 सालों में सबसे कम कोयले का भंडार बचा है। इस संकट की प्रमुख वजह है कोयले का आयात घटना | दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कोयला आयातक भारत ने पिछले वर्षों से लगातार अपना आयात घटाने की कोशिश की। लेकिन इस दौरान घरेलू कोयला सप्लायर्स ने उतनी ही तेजी से उत्पादन नहीं बढ़ाया। इससे सप्लाई गैप पैदा हुआ।

अब इस गैप को सरकार चाहकर भी नहीं भर सकती क्योंकि रूस – यूक्रेन युद्ध की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमत 400 डॉलर यानी 30 हजार रुपये प्रति टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। भारत करीब 20 करोड़ टन कोयला इंडोनेशिया, चीन और ऑस्ट्रेलिया से आयात करता है लेकिन अक्टूबर, 2021 के बाद इन देशों से आयात घटना शुरू हो गया और अब भी इन देशों से आयात प्रभावित है। नतीजतन, बिजली कंपनियां कोयले के लिए पूरी तरह कोल इंडिया पर निर्भर हो गईं। भविष्य उज्जवल बनाए रखने के लिए वर्तमान परिस्थितियों में सभी तरह की ऊर्जाओं तथा ईंधन की बचत अत्यंत आवश्यक है क्योंकि आज बचत करेंगे तो ही भविष्य सुविधाजनक रह पाएगा। हमारे विद्युत उत्पादन केंद्रों की उत्पादन क्षमता इतनी नहीं है कि बढ़ती हुई मांग की पूर्ति कर सकें। यह बात विद्युत के संबंध में ही नहीं, बल्कि पेट्रोलियम पदार्थों के संबंध में भी लागू होती है। हमें इन मुद्दों पर ध्यान देना होगा। ऊर्जा बचत के उपायों को शीघ्रतापूर्वक और सख्ती से अमल में लाए जाने की जरूरत है। प्रत्येक नागरिक को इसमें जुट जाना चाहिए। बचत चाहे छोटे स्तर पर ही क्यों न हो, कारगर जरूर होगी क्योंकि बूंद- बूंद से ही सागर भरता है। संभल कर ऊर्जा के साधनों का इस्तेमाल करेंगे तो ही इनके भंडार भविष्य तक रह पाएंगे। कोशिश जमीन स्तर से की जाए तो आकाश छूने में समय नहीं लगेगा बशर्ते प्रत्येक नागरिक जागरूक हो । ऊर्जा की बचत करे तथा औरों को भी इसका महत्त्व बताए ।

भोजन, प्रकाश, यातायात, आवास, स्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ मनोरंजन, दूरसंचार, सुख संसाधन, पर्यटन जैसी आवश्यकताओं में भी ऊर्जा के विभिन्न रूपों ने हमारी जीवन शैली में अनिवार्य स्थान बना लिया है। इस सब में भी बिजली ऊर्जा वह प्रकार है, जो सबसे सुगमता से हर कहीं सदैव हमारी सुविधा के लिए सुलभ है। इधर आपने बटन दबाया और फट से बिजली सेवा में हाजिर हुई । यही कारण है कि अन्य ऊर्जा विकल्पों को बिजली में बदल कर ही उपभोग किया जाता है। ऊर्जा बचत में सबका सहयोग अत्यंत आवश्यक है। यदि ऊर्जा का उपयोग सोच-समझ कर नहीं किया गया तो इसका भंडार जल्द समाप्त हो सकता है। प्रकृति पर जितना अधिकार हमारा है, उतना ही हमारी भावी पीढ़ियों का भी है, जब हम अपने पूर्वजों के लगाए वृक्षों के फल खाते हैं, उनकी संजोई धरोहर का उपभोग करते हैं, तो हमारा दायित्व है कि हम भी भविष्य के लिए नैसर्गिक संसाधनों को सुरक्षित छोड़ कर जाएं, कम से कम अपने निहित स्वार्थों के चलते उनका दुरुपयोग तो न करें अन्यथा भावी पीढ़ी और प्रकृति माफ नहीं करेगी। कोरोना महामारी के बाद वैश्विक परिदृश्य बदल गया है । हमें हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर होना होगा। ऊर्जा क्षेत्र में आयात कम करके इसके संरक्षण पर ध्यान देना होगा ।


Date:14-12-22

चीन का दुस्साहस

संपादकीय

यह सतर्क हो जाने का समय है। लाल सेना ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में एक बार फिर जो दुस्साहस दिखाया है, वह बताता है कि दो साल पहले गलवान घाटी में दोनों देशों की सेनाओं के बीच जिस तरह की झड़प हुई थी, उससे चीन ने कुछ सीखा नहीं है। साथ ही, उसने अपने इरादों को बदला भी नहीं है। पिछले शुक्रवार को वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर जिस तरह से चीन के 300 से ज्यादा सैनिकों ने घुसपैठ की कोशिश कर हमारे एक पोस्ट पर कब्जा करने का प्रयास किया और फिर दोनों सेनाओं के बीच जिस तरह से हाथापाई हुई, वह कोई सामान्य घटना नहीं है। तवांग एक ऐसा इलाका है, जहां दोनों देशों की सेनाएं नियमित रूप से निगरानी करती हैं। निगरानी दस्तों का कई बार आमना-सामना भी हो जाता है, लेकिन कुछ भी अप्रिय नहीं होता है। ये निगरानी दस्ते छोटे होते हैं और आमतौर पर वे अपनी हद में ही रहते हैं, लेकिन एकाएक 300 सैनिक अगर निकल पड़ते हैं, तो इसमें कुछ भी नियमित जैसा नहीं है। इसका एक ही अर्थ है कि किसी खास मकसद या रणनीति से उन्होंने यह कदम बढ़ाया है। कम-से-कम यह लाल सेना की स्थानीय टुकड़ियों के स्तर पर किया गया फैसला तो नहीं ही होगा।

हालांकि, यह सब अप्रत्याशित भी नहीं है। पिछले कुछ साल में चीन ने जिस तरह से सीमा क्षेत्र में भारी बुनियादी ढांचा कायम किया है और गांव तक बसा दिए हैं, उसने भारत के सैन्य विशेषज्ञों के कान तो काफी पहले ही खड़े कर दिए थे। दुनिया भर के विशेषज्ञ अक्सर चीन की ‘सलामी स्लाइसिंग’ नीति का जिक्र करते हैं। दक्षिण चीन सागर के इलाके में चीन जिस तरह से काबिज होने की कोशिश कर रहा है, उसकी व्याख्या इसी नीति से की जाती है। चीन पहले अपनी पूरी आक्रामकता के साथ एक बहुत छोटा-सा कदम बढ़ाता है और फिर कुछ समय के लिए रुककर शांत हो जाता है। इस तरह से वह धीरे-धीरे आगे बढ़ता जाता है। अंदेशा है कि चीन इसी नीति को भारत के साथ लगने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भी आजमा रहा है। गलवान और डोकाला में भी यही दिखाई दिया था। मुमकिन है कि मौसम को ध्यान में रखकर यह समय चुना गया हो। तवांग का यांगत्से क्षेत्र आने वाले कुछ ही समय में बर्फ की चपेट में होगा। बर्फबारी के इस मौसम में सीमा की गश्त भी आसान नहीं होती है। हो सकता है कि चीन उस स्थिति का फायदा उठाने के लिए थोड़ा पहले ही आगे बढ़ जाना चाहता हो।

जो भी हो, भारतीय सेना ने चीन के इन इरादों को सिरे नहीं चढ़ने दिया। अच्छी बात यह भी है कि भारत ने पहले से ही उस इलाके में जवाबी बुनियादी ढांचा खड़ा करना शुरू कर दिया है। वहां सड़कें बनने लगी हैं, ताकि किसी भी हालात के लिए सेना के आवागमन को आसान बनाया जा सके, लेकिन फिलहाल हालात को शांत करने के लिए भारतीय सेना की कोशिश रंग लाती दिखी है। दोनों सेनाओं के स्थानीय अधिकारियों की फ्लैग मीटिंग के बाद तवांग का यांगत्से क्षेत्र शांत है। जिस तरह से भारतीय सेना ने प्रत्युत्तर दिया, उसके बाद चीन के पास इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं था। लेकिन खतरा टला नहीं है और ऐसी साजिश फिर हो सकती है। पहले डोकाला और फिर गलवान जैसे उदाहरण यह बताते हैं कि चीन हर बार अपना दुस्साहस दिखाने के लिए कोई नया भूगोल चुन लेता है। हमारे लिए हर जगह, हर दम सतर्क रहना इसीलिए जरूरी है।


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