14-12-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Brexit wins in UK, Left radicalism loses
Editorials
The decisive victory of the Conservative Party in the UK under the leadership of Boris Johnson, the largest Tory margin since Margaret Thatcher, ends the uncertainty over Brexit and demonstrates, for the benefit of the rest of the world, that extreme Left policies of the kind espoused by the Labour Party, do not resonate with voters. Johnson has declared that Brexit will be a reality by the end of January.
While it is now a settled matter that the UK will leave the EU, the Brexit deal is unlikely to be completed by then, leaving issues to be dealt with later. The Conservative victory in traditional Labour strongholds is a function of several things -the fact that voters were not willing to trust Labour leader Jeremy Corbyn and a rejection of his policies such as nationalisation, Johnson’s appeal to the British working class, and perhaps a level of exhaustion with the uncertainty over Brexit. The huge margin of victory puts Johnson firmly in control giving the authority to shape the future of the post-EU Britain.
However, his preferred deal has left Irishmen fuming over a possible Customs barrier between the Republic and Northern Ireland, a part of Britain. Brexit will harden the separatist resolve in Scotland, where First Minister Nicola Sturgeon has already characterised the electoral verdict as a renewed mandate for a second Independence referendum. How resilient the British economy proves to be will depend on the terms of its re-engagement with the EU. If Paris and Frankfurt seek to take away a chunk of financial business from London and bend EU policy in this direction, the impact would be tangible.
India will need to work out a trade deal with the UK, while dealing with the anti-immigrant undertone of Brexit on English streets and in British visa policies.
अश्वेत मिस यूनिवर्स के मायने और खूबसूरती का झूठा जुनून
संपादकीय
साउथ अफ्रीका की अश्वेत सुंदरी जोजिबिनी तुंजी ने पिछले हफ्ते मिस यूनिवर्स का खिताब जीता है। क्राउन पहनने से पहले तुंजी ने कहा, मैं एक ऐसी दुनिया में पली-बढ़ी हूं जहां मेरी तरह दिखने वाली औरतें कभी सुंदर नहीं मानी जाती थीं। उनका ये हासिल इसलिए भी अहम हो जाता है क्योंकि इसी साल मिस यूएस, मिस टीनएज यूएस और मिस अमेरिका का ताज भी अश्वेत ने जीता है। भले इनकी जीत पर कितने ही सवाल उठाए जाएं, लेकिन यह खास है क्योंकि दुर्भाग्य से आज भी दुनिया में सुंदरता को रंग के आधार पर नापा जाता है। जबकि हाल के वर्षों मेंं मिस वर्ल्ड या यूनिवर्स जैसी ब्यूटी कॉन्टेस्ट अपने मापदंड सुंदरता और ग्लैमर से इतर, रखने का दावा किया है। इसमें शामिल प्रतिभागी नस्ल, एलजीबीटी, अबॉर्शन जैसे मुद्दों पर बेखौफ बोलती हैं। लेकिन वह भरोसा नहीं जीत पातीं कि एक अश्वेत का ब्यूटी कॉन्टेस्ट जीतना सिर्फ पीआर स्टंट नहीं है। 1977 में जैनेल पेनी कमीशन मिस यूनीवर्स जीतने वाली पहली अश्वेत महिला थीं। उनकी जीत की अहमियत जितनी उस वक्त थी, आज इतने साल बाद भी कम नहीं हुई है। ये हैरानी और अफसोस दोनों का मिलाजुला मामला है। दुनिया में आज भी खूबसूरती को लेकर बेफिजूल का जुनून है। इस सबके बीच क्या ये जरूरी नहीं कि खूबसूरती से जुड़े स्टैंडर्ड बदले जाएं? तुंजी की काबिलियत को सही मायनों में स्वीकार किया जाए और ब्यूटी को बार्बी जैसे दिखावे से कहीं आगे रंग-रूप से हटकर मान्यता दी जाए। रिसर्च के मुताबिक 1990 से पहले मिस यूएस में किसी भी अश्वेत महिला ने भाग नहीं लिया था। और साल 2000 के बाद से ब्यूटी कॉन्टेस्ट में भाग लेने वाली अश्वेत महिलाओं की संख्या हर साल दोगुनी गति से बढ़ रही है। उम्मीद करें कि ये यूं ही जारी रहे और वह वक्त आ जाए जब खूबसूरती के फलक पर रंग की कोई जगह ही न रहे। खूबसूरती के अपने अलग-अलग वर्जन हैं और वे सभी स्वीकार किए जाएं। 18वीं सदी के फिलॉसफर हूमे ने सच ही कहा है, खूबसूरती अपने आप में कुछ नहीं। यह तो देखने वाले के दिमाग में हैं, हर दिमाग इसे अपनी तरह से देखता है। तुंजी प्रेरणा हैं और एक लैटिन पारंपरिक गीत उनकी तरह तमाम अश्वेत महिलाओं की भावनाएं बखूबी कहता है, ‘चित्रकार तुम हमारा भी चित्र क्यों नहीं बनाते, क्या तुम नहीं जानते ऊपर वाले को काली परियां भी प्यारी हैं’?
आशंकाएं और टकराव
संपादकीय
यह खतरा पहले से ही था। यह भी लगभग तय था कि भारत जैसे विशाल देश में नागरिकता संशोधन विधेयक अलग-अलग हिस्से में अलग-अलग विमर्श को जन्म दे सकता है। खासकर, पूर्वोत्तर भारत की सामाजिक जटिलताएं जिस तरह की हैं, वहां इससे कई परेशानियां खड़ी हो सकती हैं, यह बात पहले से ही कही जा रही थी। देश की नागरिकता और उसकी सीमाओं को फिर से परिभाषित करने वाले इस विधेयक के बारे में यह भी कहा जा रहा था कि वह एक तरह से असम के सिटीजन रजिस्टर का ही राष्ट्रीय विस्तार है। एक विचार यह भी था कि असम का सिटीजन रजिस्टर प्रकाशित होने के बाद से जो समस्याएं सामने आई हैं, यह विधेयक उनका भी कुछ हद तक समाधान देगा। इन सारी जटिलताओं के बारे में केंद्र और इन राज्यों की सरकारों ने भी सोचा ही होगा। इस विधेयक को लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में कोई बहुत बड़ा राजनीतिक विमर्श शुरू हुआ हो, ऐसी खबरें हमें नहीं मिली हैं। लेकिन वहां आंदोलन खड़ा होने, बंद के आयोजन और्र हिंसा की खबरें जरूर आने लगी हैं। यह बताता है कि अशंकाओं के बावजूद इस तरह की चीजों को रोकने के लिए जो प्रशासनिक तैयारियां होनी चाहिए थीं, वे नहीं हुईं, जबकि विरोध करने वाले अपनी पूरी तैयारी में थे और इसके पहले कि विधेयक राज्यसभा के पटल पर रखा गया, सड़कों पर विरोध और प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया।
पूर्वोत्तर भारत में मामला जटिल इसलिए भी है कि एक तो वहां के समाजों में अपनी अलग जातीय पहचान को लेकर संवेदनशीलता कुछ ज्यादा ही है। दूसरे, यह देश का वह इलाका है, जहां पड़ोसी बांग्लादेश से घुसपैठ कुछ ज्यादा ही हुई है। इनर लाइन परमिट के तहत आने वाले इलाके इसके असर से भले ही कुछ हद तक बचे हों, लेकिन बाकी जगहों पर जनसंख्या का स्वरूप पिछले कुछ दशकों में काफी तेजी से बदला है। ऐसा भी कहा जाता है कि कुछ जगहों पर जनजातियों के लोग भाषाई अल्पसंख्यकों में बदल रहे हैं। इन स्थितियों में रहने वाले नागरिकता को लेकर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील हैं, इसलिए नागरिकता संशोधन विधेयक वहां जनमानस को काफी खदबदा रहा है। वैसे यह उग्र आंदोलन इस विधेयक के लोकसभा में पास होने के बाद शुरू हुआ है, इसलिए यह पूरे देश की तात्कालिक परेशानी का कारण बन गया है, लेकिन यह भी सच है कि पूर्वोत्तर भारत में ऐसे आंदोलनों का एक इतिहास रहा है।
खासकर, विदेशी नागरिकों को निकाले जाने को लेकर लंबा आंदोलन चलाने वाले असम को इस विधेयक ने कुछ ज्यादा ही परेशान किया है। एक कारण वह असम समझौता भी है, जिसके आधार पर नागरिक रजिस्टर तैयार किया गया है। वहां लोगों को लगता है कि इस समझौते ने उन्हें जो दिया था, नया विधेयक उसे कुछ हद तक छीन रहा है।
पूर्वोत्तर पर इस विधेयक के कानून बन जाने के बाद क्या असर होगा, यह हमें अभी ठीक से नहीं पता, पर यह स्पष्ट है कि आशंकाएं समस्या को ज्यादा बढ़ा रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट किया है कि वहां के लोगों के अधिकार इस विधेयक के चलते किसी भी तरह से नहीं छिनेंगे, लेकिन अगर इस तरह का आश्वासन पहले दिया जाता और स्थानीय स्तर पर विभिन्न जातीय समूहों को विश्वास में लेकर आगे बढ़ा जाता, तो शायद इस टकराव से बचा जा सकता था।
Date:13-12-19
क्यों आंदोलित हो रहा है पूर्वोत्तर
पेट्रीसिया मुखिम
उस रात जब संसद में नागरिकता कानून में बदलाव के लिए चर्चा चल रही थी, तब गुवाहाटी की सड़कों पर यूनिवर्सिटी के छात्र विरोध में मार्च कर रहे थे। कुछ महीने पहले भी ऐसे विरोध-प्रदर्शन से असम में जनजीवन बाधित हो गया था। नारे वही थे, जोय आइ असम। चिंता वही थी, ‘खिलोंजिया’ (मूल निवासी) के अधिकार। जब आधी रात को लोकसभा ने संशोधन विधेयक पारित किया, तब असम के पड़ोसी राज्यों में भी विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। भाजपा ने नागरिकता को फिर परिभाषित करने की नई कोशिश करके इस पुराने सवाल को जिंदा कर दिया है कि कौन स्थानीय है और कौन बाहरी?
इस संशोधन का असम में सबसे मुखर और स्पष्ट विरोध चौंकाता नहीं है। असम के लोगों को ऐसा लग रहा है कि उन्हें किनारे कर दिया गया है। गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि उन राज्यों में यह कानून लागू नहीं होगा, जो इनर लाइन परमिट या छठी अनुसूची के दायरे में आते हैं। असम के कुछ ही जिलों में छठी अनुसूची लागू है। छठी अनुसूची जनजातीय परिषदों को ज्यादा स्वायत्तता देती है। चूंकि असम इनर लाइन परमिट वाला राज्य नहीं है, इसलिए यह पूर्वोत्तर का अकेला ऐसा राज्य बन जाएगा, जहां बांग्लादेश से आए अवैध हिंदू शरणार्थी बसाए जा सकेंगे। केंद्रीय गृह मंत्री ने मणिपुर को आश्वस्त किया है कि उसे भी इनर लाइन परमिट व्यवस्था के दायरे में लाया जाएगा।
स्वाभाविक है, ऑल असम स्टूडेंट यूनियन और अन्य अनेक नागरिक संगठन ठगा महसूस कर रहे हैं। जो असम समझौता हुआ था, उसमें सहमति बनी थी कि 1971 से पहले जो लोग असम में आ गए हैं, उन्हें नागरिकता दी जा सकती है, लेकिन अब भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार 2014 तक आए अवैध शरणार्थियों को भी नागरिकता देगी। अकेले असम में लाखों लोगों को नागरिकता मिल जाएगी। पूर्वोत्तर में 238 मूल जनजातियां ऐसी हैं, जो आस्था से हिंदू नहीं हैं। पूर्वोत्तर के सात राज्यों की जनजातियां परस्पर मिलकर रहने पर कमोबेश सहमत हैं, लेकिन बाहरी लोगों को यहां बसाने की किसी भी कोशिश के प्रति सभी सशंकित हैं। चिंता सभी बाहरी लोगों को लेकर है, धर्म यहां कतई मायने नहीं रखता। मिसाल के लिए, अरुणाचल प्रदेश बौद्ध चकमा को नागरिकता देना नहीं चाहता, मिजोरम ब्रू और रियांग को बसाना नहीं चाहता। ये तीनों जनजातियां बांग्लादेश से आई हैं।
अपनी पहचान बनाए रखने की कोशिशों के कारण जहां पहले से ही अस्थिर माहौल हो, वहां नागरिकता संशोधन विधेयक नए प्रकार के दोष ही पैदा करेगा। पूर्वोत्तर में पिछले दो दशकों में कमोबेश जो शांति रही है, उसका क्या होगा? क्या नए राष्ट्रीय कानून से इन राज्यों के छोटे जनजाति समूहों की नींद उड़ जाएगी? क्या यह एक स्थाई चुनाव मुद्दा बन जाएगा?
भाजपा ने 2019 के राष्ट्रीय चुनावों में अपने घोषणापत्र में इस वादे को शामिल किया था। चूंकि लोकसभा में भाजपा के सांसदों की संख्या बढ़ी है, इसलिए पार्टी ने यह सोचा कि लोग इस विधेयक का समर्थन करेंगे। यह मानना वाजिब होगा कि असम के जिन मतदाताओं ने भाजपा सांसदों को चुना है, उन्होंने नागरिकता संशोधन विधेयक के समर्थन में मत दिया है। उन्हें शायद अब अपना कदम गलत लग रहा है। लोगों को लग रहा है कि भाजपा ने असम को बाकी राज्यों से अलग कर दिया, ताकि इस कानून के विरोध की कमर टूट जाए। साथ ही, सत्ताधारी पार्टी के लिए पूरे पूर्वोत्तर से जूझने की बजाय केवल असम से निपटना आसान हो जाए। लेकिन भाजपा ने इस कानून के असर का गलत आकलन कर लिया है। जनजातियों में ज्यादातर लोग ईसाई हैं, वे इस कानून को शक की निगाह से देख रहे हैं। उन्हें लगता है, कानून का मकसद बांग्लादेश से आए हिंदुओं को बसाना है।
उधर पिछले साल, बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने नागरिकता संशोधन विधेयक को भाजपा की चुनावी रणनीति बताकर खारिज कर दिया था। आगे चुनाव में क्या होगा, यह कहना मुश्किल है, पर इसमें शक नहीं कि इससे पूर्वोत्तर में तनाव बढ़ेगा। त्रिपुरा का उदाहरण सामने है कि कैसे कुछ ही दशकों में यहां के मूल निवासी 32 प्रतिशत आबादी तक सिमट गए। राज्य को अब ऐसे लोग चला रहे हैं, जो पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से आए हैं। त्रिपुरा में बांग्ला बोलने वाली आबादी बहुसंख्यक हो गई है। ऐसी स्थिति कमोबेश क्षेत्र के दूसरे राज्यों में भी है।
मेघालय के शिलांग में ही दस गुणा दस वर्ग किलोमीटर का एक बड़ा इलाका है, जिसे यूरोपीय वार्ड कहा जाता है। यह छठी अनुसूची से बाहर है। इस इलाके में भारी आबादी है। कुछ इलाकों में झुग्गियां हैं, जहां बांग्लादेशी मूल के लोग ने कब्जे कर रखे हैं। कानून का विरोध करने वाले जानते हैं कि मेघालय में 1.70 करोड़ बांग्लादेशी हिंदू हैं, जिनका दावा है कि उन्हें उनके देश में सताया गया। ऐसे लोग अब मेघालय और असम की बराक घाटी में बसना पसंद करेंगे, क्योंकि यहां बांग्ला बोलने वाली आबादी पहले से ही बड़ी संख्या में रह रही है। मेघालय ने समाधान के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है।
इस कदम के राजनीतिक निहितार्थ क्या हैं? इस कानून के जरिए असम में चुनाव जीतने की योजना है या निशाने पर पश्चिम बंगाल है? पश्चिम बंगाल में कुछ लाख हिंदुओं को नागरिकता देकर भाजपा स्थाई वोट बैंक बना लेगी। यह ममता बनर्जी की उस तृणमूल कांग्रेस से लड़ने का एक तरीका है, जो मुसलमानों का अत्यधिक संरक्षण कर रही है, क्योंकि वे राज्य में एक मजबूत वोट बैंक हैं। पश्चिम बंगाल 42 सांसद और असम 14 सांसद भेजता है। दिलचस्प यह कि दोनों ही राज्यों में 2021 में चुनाव होने हैं।
पूर्वोत्तर में बढ़ते तनाव को देखकर लगता है कि केंद्र सरकार को सीमा से आगे जाकर इस इलाके में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। भारत में अनगिनत विविधताएं हैं। इस देश में शासन करने वालों में दूरदर्शिता व बड़ा दिल होना चाहिए, ताकि वे तमाम विभेदों का समावेश भी करें और पूर्वोत्तर के लोगों की भावनाओं का भी पूरा ध्यान रखें।
Region’s edge
Centre must urgently reach out to restive groups in Northeast, allay fears of demographic change.
Editorials
The Northeast, particularly Assam, has reacted with agitation to the passage through Parliament of the Citizenship (Amendment) Bill, which makes illegal migrants who are Hindus, Sikhs, Buddhists, Jains, Parsis and Christians from Afghanistan, Bangladesh and Pakistan eligible for citizenship. The fear that the CAB will result in an influx of migrants from across the borders and alter the demography of Assam has provoked people to take to the streets. Many have defied the curfew to burn vehicles and target public buildings. Transport links to the region, and within it, have been disrupted and the government has shut down the internet. This situation threatens to undo the gains of the relative peace that the region has enjoyed in the past two decades. It could destabilise New Delhi’s Act East policy. Political players in the region and at the Centre must urgently come together and work to allay public fears and ensure calm.
The CAB, and the National Register of Citizens process before it, have stoked tensions that had flared in the region, especially in Assam, in the 1970s and ‘80s. The fear of demographic change has been the trigger for subnationalist movements, including the Assam agitation, in the 1970s, as well as the insurgencies in Nagaland, Manipur, Mizoram, Tripura and Meghalaya. It stemmed from the colonial era settlement policies for exploitation of the region’s resources and was sharpened by the fallout of Partition, which the region experienced twice, in 1947 and 1971, which saw an unsettling of populations, particularly in parts of Assam and Tripura. But these scars had started to heal over time, and a tenuous peace had set in. The NRC, which the BJP aggressively promoted in Assam, and now threatens to extend nation-wide, along with the CAB, have revived these fault lines. If the NRC process revived the “outsider” debate, the CAB pits Assamese against Bengali. Exemptions related to the Inner Line Permit (ILP) to allay the fears of Nagaland, Mizoram, Manipur, Arunachal Pradesh and Meghalaya, and the Schedule 6 areas, may have temporarily helped to avert a consolidated opposition to the CAB in the region. However, fears have been exacerbated in the Brahmaputra and Barak Valleys in Assam and Tripura that these places will have to bear the weight of the probable inward migration of Hindus from Bangladesh.
The onus is now on the Modi government to reach out to the restive groups and take the necessary steps to address and alleviate their fears. Electoral exigencies and ideological shibboleths cannot be the decisive factors in shaping the policy for the Northeast. Its repercussions will reflect in India’s relations with its neighbours apart from shaping domestic politics.