13-09-2022 (Important News Clippings)
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Date:13-09-22
Get The Job Done
Why GoI should roll out a national urban employment guarantee scheme
TOI Editorials
Rajasthan recently launched its Urban Employment Scheme to provide 100 days of employment, as the national rural jobs scheme does. That an urban jobs programme is needed, especially after the pandemic’s massive impact on informal sectors, has been argued by many, including the PM’s Economic Advisory Council. And another level of urgency comes from NCRB data that 26% or 42,004 of 1. 6 lakh suicide cases in 2021 were by daily wagers. Inflation, particularly in food and fuel, added to the problems created by a terrible couple of years for low-skilled workers. CMIE data shows that urban unemployment went from 7. 32% in June to 9. 57% in August – substantially higher than rural unemployment for August at 7. 68%.
Therefore, and to reiterate PMEAC, this is the right time to seriously consider a national urban employment guarantee scheme. Plus, such a scheme, if designed well and if it subsumes a few other social welfare programmes, won’t really strain government budgets. Rajasthan’s scheme – which provides unskilled labour Rs 259 per day and skilled workers Rs 283 per day – will cost around Rs 800 crore annually compared to the 2021-22 state budget of Rs 2. 5 lakh crore. At the national level, estimates by researchers at Azim Premji University for providing 100 days of work for 20 million workers at Rs 300 per day project a cost of just Rs 1 lakh crore to GoI.
An urban jobs guarantee scheme can be a critical, even if temporary, intervention in the jobs crisis at the lower end of the labour market. That urban infrastructure upgrade as well as greenfield projects are a big spending category means there won’t be any shortage of productive work for the job guarantee scheme. GoI should soon come up with its version.
अपूर्ण शोध के निष्कर्ष सार्वजनिक न करें
संपादकीय
लांसेट के एक ताजा अध्ययन का निष्कर्ष है कि 12 डिग्री से कम या 21 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा के तापमान पर लोगों का व्यवहार आक्रामक हो जाता है। इसके लिए अमेरिका के 773 शहरों से किए गए 400 करोड़ ट्वीट्स का विश्लेषण किया गया। इस शोध का निचोड़ है कि घृणा का भाव व्यक्त करने वालों की संख्या तब कम हो जाती है जब वे 12-21 डिग्री तापमान के बीच रहते हैं या वातानुकूलित वातावरण में रहते हैं। इस निष्कर्ष के बहुआयामी असर होंगे। क्या इसका मतलब यह होगा कि गर्म स्थानों के लोग आक्रामक होते हैं या क्या ठंडे प्रदेशों के लोग ज्यादा शांत रहते हैं? क्या इसके जरिए अपराध न्याय-शास्त्र का चश्मा बदलना होगा और जज फैसला देने के पहले यह देखेगा कि अमुक हत्या किस भौगोलिक क्षेत्र में हुई या अपराधी अपराध के पहले कैसे तापमान पर रहा था जो उसके वश में नहीं था। शायद लांसेट ने इस शोध के नतीजे बगैर व्यापक पुनरीक्षण के ही प्रकाशित कर दिए। जरूरी नहीं कि हर अंतर-संबंध (को-रिलेशन) कार्य-कारण संबंध भी हो। अगर ऐसा होता तो उत्तर भारत में दंगे मई-जून में ही होते, दिसंबर या जनवरी में नहीं, या ठंडे प्रान्तों में नहीं केवल उच्च तापमान वाले राज्यों में ही होते। रेगिस्तान का तापमान दिन में ज्यादा और रात में कम हो जाता है तो क्या हिंसा शाम को नहीं होती? शायद अपराध मनोविज्ञान को इतना संकीर्ण नजरिए से देखना एक गंभीर भूल होगी, क्योंकि इन्हीं समाजशास्त्रीय सिद्धांतों से अपराध न्यायशास्त्र और उसके कानून प्रतिपादित होते हैं। लिहाजा दो कारकों के साथ होने से उनमें अपरिहार्य संबंध मानना नितांत गलत होगा।
आरक्षण की समग्र समीक्षा का समय
प्रो. रसाल सिंह, ( लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )
देश के मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित की अध्यक्षता वाली उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को दस प्रतिशत आरक्षण देने वाले कानून की संवैधानिकता की पड़ताल करने का निर्णय किया है। उल्लेखनीय है कि 2019 में संसद ने 103वें संविधान संशोधन द्वारा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थानों और नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण का प्रविधान किया था। इस कानून के खिलाफ कई लोगों और संस्थाओं ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करते हुए इसे संविधान के मूल ढांचे और भावना के प्रतिकूल बताया था। इन याचिकाओं की सुनवाई के लिए उच्चतम न्यायालय ने अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल द्वारा प्रस्तावित तीन प्रश्नों पर विचार का निर्णय किया है। क्या 103वां संविधान संशोधन संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध है? क्या यह गैर-सरकारी सहायता प्राप्त अथवा निजी शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण का प्रविधान करने के कारण संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करता है? क्या यह आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग को दिए गए आरक्षण में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को शामिल न करने के कारण असंवैधानिक है?
उच्चतम न्यायालय की पहल स्वागतयोग्य है, लेकिन उसे कुछ अन्य प्रश्नों पर भी ध्यान देना चाहिए, जैसे कि जब अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण की पात्रता संबंधी क्रीमी लेयर के निर्धारण में केवल परिवार की आय को आधार बनाया गया है तो आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण की पात्रता तय करने में परिवार के साथ स्वयं अभ्यर्थी की आय को भी आधार क्यों बनाया गया है? एक प्रश्न यह भी है कि अन्य पिछड़ा वर्ग की तरह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रविधान क्यों नहीं किया जाना चाहिए? अन्य पिछड़े वर्गों के साथ अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर उपविभाजन क्यों नहीं किया जाना चाहिए? क्या जाति आधारित आरक्षण से समाज की जाति-चेतना प्रबल और प्रगाढ़ नहीं हो रही है? आरक्षण का लाभ लेने वालों की आगामी पीढ़ियों को आरक्षण-लाभ से वंचित क्यों नहीं किया जाना चाहिए? इसी के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि आरक्षित पद खाली क्यों पड़े रहते हैं?
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से वांछित परिणाम प्राप्त न होने के दो बड़े कारण हैं। पहला, आरक्षण सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण का उपकरण बनने से अधिक वोटबैंक का विषय बन गया है। दूसरा, यह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पदानुक्रम में ऊंचे पायदान पर बैठे लोगों की विशेषाधिकारवादी मानसिकता का शिकार हो गया है, क्योंकि पिछले एक-दो दशकों में दलित-पिछड़ी जातियों में भी एक संपन्न वर्ग उभरा है।
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था की विसंगतियां सबके सामने स्पष्ट हैं, लेकिन उन पर विचार करने की कोई ठोस पहल नहीं हो रही है। जैसे हर व्यवस्था अथवा नियम-कानून की समय-समय पर समीक्षा होती है, वैसे ही आरक्षण की क्यों नहीं हो सकती? आरक्षण की समीक्षा इसलिए आवश्यक है ताकि इसका पता लगाया जा सके कि उसका अपेक्षित लाभ उन तबकों को मिल रहा है या नहीं, जिनके लिए वह लाया गया था।जाति आधारित आरक्षण की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि उसका लाभ कुछ ही जातियों तक सिमट कर रह गया है और पात्र लोग उसका फायदा नहीं उठा पा रहे हैं। इसीलिए रोहिणी आयोग की आरक्षण के वर्गीकरण संबंधी संस्तुतियों को यथाशीघ्र लागू किया जाए, ताकि पिछड़ों में अति पिछड़ों को भी आरक्षण का लाभ मिले सके। इसी तरह का वर्गीकरण अनुसूचित जातियों और जनजातियों को मिल रहे आरक्षण में भी किया जाना चाहिए। जब पात्र लोगों को ही आरक्षण मिलने की व्यवस्था बनाई जाएगी, तभी वे मुख्यधारा में शामिल हो सकेंगे।इसी प्रकार आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण की सबसे बड़ी विसंगति यह है कि इसमें अभ्यर्थी की भी आय और संपत्ति को पात्रता निर्धारण का आधार बनाने से प्रारंभिक स्तर पर तो आवेदक मिल रहे हैं, लेकिन ऊपर के पदों की रिक्तियां खाली पड़ी हैं, क्योंकि उनके लिए अनुभव आवश्यक अर्हता है। इसलिए आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू होने के बाद से इस प्रकार की अनुभव आधारित सभी दस प्रतिशत सीटें खाली पड़ी हैं। एक विसंगति यह भी है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के आरक्षण की पात्रता निर्धारण के लिए आय में कृषि आय को जोड़ा गया है और संपत्ति (कृषि भूमि, आवासीय/व्यावसायिक भूखंड आदि) को भी आधार बनाया गया है, जबकि अन्य पिछड़े वर्ग के लिए ‘क्रीमी लेयर’ निर्धारण में न तो कृषि आय को जोड़ा जाता है और न ही संपत्ति को आधार बनाया जाता है।
संप्रति आधुनिक एवं उपभोक्तावादी समाज में व्यक्ति के सम्मान-स्वीकार्यता का प्राथमिक आधार उसकी आर्थिक स्थिति है। बाजार क्रय शक्ति के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन करता है। इसलिए उच्चतम न्यायालय को इन सामाजिक परिवर्तनों और प्रश्नों का भी संज्ञान लेना चाहिए। इस विषय में किसी भी राजनीतिक दल से न्यायसम्मत और तार्किक पहल की उम्मीद नहीं, क्योंकि आरक्षण राजनीतिक हथियार बन गया है। ऐसे में उच्चतम न्यायालय को आरक्षण व्यवस्था की समस्त विसंगतियों का स्वतः संज्ञान लेकर उसकी समग्र-समीक्षा करनी चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 330 एवं 332 में आरक्षण की समीक्षा और प्रभावशीलता के आकलन का उल्लेख है। तभी हम संविधान निर्माताओं की भावना के अनुरूप सामाजिक न्याय और आर्थिक समता सुनिश्चित कर सकेंगे।
Date:13-09-22
पुनर्विचार करे भारत
संपादकीय
भारत द्वारा इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) के व्यापारिक स्तंभ से बाहर रहने का निर्णय निराश करने वाला है और वह दीर्घकालिक आर्थिक संभावनाओं पर विपरीत प्रभाव डालेगा। हालांकि भारत इस फ्रेमवर्क के तीन अन्य स्तंभों-आपूर्ति श्रृंखला, कर एवं भ्रष्टाचार विरोध तथा स्वच्छ ऊर्जा में शामिल है लेकिन व्यापार को लेकर उसका रुख उसकी समग्र स्थिति को कमजोर करेगा। सरकार की दलील है कि व्यापार के संदर्भ में श्रम, पर्यावरण और सरकारी खरीद जैसे क्षेत्रों में की जाने वाली प्रतिबद्धताओं की रूपरेखा अभी उभर ही रही है। यह स्पष्ट नहीं है कि कौन से सदस्य देश लाभान्वित होंगे और क्या कुछ शर्तें विकासशील देशों के विरुद्ध भेदभाव करने वाली होंगी। सरकार ने कहा है कि वह व्यापार वाले पहलू को लेकर चर्चा में शामिल रहेगी और अंतिम रूपरेखा तय होने की प्रतीक्षा करेगी। अगर भारत भी उन शर्तों के निर्धारण की प्रक्रिया का हिस्सा होता तो अधिक बेहतर होता।
अमेरिकी नेतृत्व वाले आईपीईएफ की घोषणा मई में की गई थी और इसमें 13 सदस्य हैं। हालांकि यह सदस्य देशों के बीच व्यापार समझौता नहीं है और यह एक तरह का मंच है जो अलग-अलग क्षेत्रों में मानकों पर आधारित है लेकिन इसने भारत को यह अवसर मुहैया कराया था कि वह क्षेत्र के देशों तथा अमेरिका के साथ साझेदारियां विकसित कर सके। यह बात महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत बडे व्यापारिक समझौतों का हिस्सा नहीं है। फ्रेमवर्क के व्यापारिक पहलू पर भारत का रुख उसकी स्थिति को कई तरह से कमजोर करता है। उदाहरण के लिए व्यापारिक पहलू से दूर रहने से इस बात की काफी संभावना है कि भारत आईपीईएफ के आपूर्ति श्रृंखला वाले पहलू से भी बाहर रह जाएगा क्योंकि दोनों आपस में संबंधित और एक दूसरे पर निर्भर हैं। इतना ही नहीं इससे यह संकेत भी जाएगा कि भारत अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत की सदस्यता वाले क्वाड सामरिक समूह का सदस्य केवल संकीर्ण भूराजनीतिक सुरक्षा की दृष्टि से बना है और वह इस क्षेत्र में व्यापक आर्थिक साझेदारी के लिए तैयार नहीं है।
स्पष्ट है कि अगर भारत इस क्षेत्र में चीन के दबदबे के विकल्प के रूप में बनाए गए फोरम का सक्रिय सदस्य नहीं रहता है तो वह व्यापारिक तथा अन्य पहलुओं पर और अधिक अलग-थलग पड़ता जाएगा। व्यापार की बात करें तो शायद भारत का ध्यान द्विपक्षीय समझौतों पर केंद्रित है। यह रुख सही नहीं है। भारत बड़े समझौतों में जिन मानकों और शर्तों को लेकर असहज है वे तो विकसित देशों के साथ द्विपक्षीय वार्ता में भी उभरेंगे। ऐसी शर्तों को दरकिनार करने से केवल हल्के समझौते होंगे जो शायद दूर तक न चलें। भारत की व्यापार नीति की बुनियादी रूप से समीक्षा करने की जरूरत है। इसी आधार पर जरूरी सुधारों को तेज गति से अंजाम देने की आवश्यकता है।
व्यापार के मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन के लिए यह आवश्यक है कि हम वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनें। ऐसा तभी हो सकता है जब भारत भी बड़े व्यापारिक समूहों में शामिल हो तथा ऐसे समझौतों की शर्तों का पालन करने की इच्छा रखता हो। चूंकि भारत ऐसा करने का इच्छुक नहीं नजर आता है और हाल के वर्षों में उसने घरेलू कारोबारों को बचाने के लिए दरें बढ़ाई हैं इसलिए वैश्विक मूल्य श्रृंखला में उसकी हिस्सेदारी कम हुई है। आईपीईएफ पर भारत का रुख और कुछ वर्ष पहले क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी से बाहर होने का उसका निर्णय जैसी बातें द्विपक्षीय व्यापार वार्ताओं में उसकी स्थिति को भी प्रभावित करेंगी। वह ऐसी वार्ताओं में मजबूती के साथ अपनी बात नहीं रख सकेगा। ऐसे में बेहतर होगा कि भारत आईपीईएफ में अपने रुख की समीक्षा करे क्योंकि इसके भूराजनीतिक निहितार्थ हो सकते हैं।
Date:13-09-22
लंपी ने बढ़ाई चिंता
संपादकीय
मवेशियों को संक्रमित करने वाला लंपी (ढेलेदार) त्वचा रोग कई राज्यों में तेजी से फैल रहा है।इस बीमारी से गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित आठ राज्यों में हजारों गायों की मौत भी हो चुकी है। रोजाना संक्रमित गायों की संख्या और बढ़ती जा रही है। यह बीमारी डेयरी क्षेत्र के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि कि केंद्र सरकार राज्यों के साथ मिलकर मवेशियों में इस रोग को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है।यह खून पीने वाले मक्खियों, मच्छरों जैसे कीड़ों की कुछ खासी प्रजातियों द्वारा फैलाया जाता है। इससे मवेशियों को बुखार होता है, त्वचा पर गांठें निकल आती हैं, दूध की मात्रा कम हो जाती है और कई मामलों में मौत भी हो जाती है। यह बीमारी कई अफ्रीकी देशों में और मध्य एशिया में मौजूद है।2012 में यह यूरोप में भी फैल गई थी। जहां से यह एशिया भी पहुंच गई है। मोदी ने अंतरराष्ट्रीय डेयरी संघ के विश्व डेयरी सम्मेलन 2022 को संबोधित करते हुए बताया कि हमारे वैज्ञानिकों ने ढेलेदार त्वचा रोग के लिए स्वदेशी टीका तैयार कर लिया है। भारत लगभग 21 करोड़ टन प्रति वर्ष के साथ दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है।प्रधानमंत्री का कहना है कि हम पशुओं में पैर और मुंह की बीमारी के लिए 100 प्रतिशत टीकाकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं। चूंकि मवेशियों में बीमारी दूध उत्पादन और इसकी गुणवत्ता को भी प्रभावित करती है, इसलिए सरकार पशुधन के सार्वभौमिक टीकाकरण पर ध्यान केंद्रित कर रही है। लंपी संक्रमण पॉक्सविरिडे नाम के वायरस से होता है। इसे गोटपॉक्स और शीपपॉक्स वायरस परिवार से संबंधित माना जाता है। टीका ही इसका एकमात्र बचाव है।राहत की बात यह है कि डब्ल्यूओएएच के मुताबिक यह एक जूनोटिक बीमारी नहीं है, यानी यह इंसानों में नहीं फैलती। भारत में इसके लिए गोट पॉक्स टीके का इस्तेमाल किया जा रहा है। कई राज्य मवेशी पालकों के लिए यह टीका नि:शुल्क उपलब्ध करा रहे हैं। सरकार ने लंपी प्रो वैक नाम का नया टीका उपलब्ध कराना शुरू किया है।इस टीके का निर्माण राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र, हिसार तथा भारतीय पशु चिकित्सा संस्थान इज्जतनगर ने मिलकर किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लंपी पर जल्दी काबू पा लिया जाएगा और देश में दूध का कोई संकट नहीं होगा।
बेंगलुरु की चमक पर फिर गया पानी
एस. श्रीनिवासन, ( वरिष्ठ पत्रकार )
पिछले हफ्ते बेंगलुरु वालों के दिन दुखदायी जलभराव के बीच बीते। चारों ओर ट्रैफिक जाम की स्थिति थी, सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए संपन्न लोग ट्रैक्टर, बुलडोजर और नाव का सहारा ले रहे थे, फाइव स्टार होटल बुकिंग से भरे पड़े थे, और गरीब हमेशा की तरह अपने हाल पर छोड़ दिए गए।
इस दौरान नेतागण एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुटे रहे। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने पिछली कांग्रेस सरकार पर इसका ठीकरा फोड़ा और कहा कि बाढ़ की स्थिति ‘उसके कुप्रबंधन’ के कारण पैदा हुई। जवाब में विपक्ष ने भाजपा को निशाने पर लिया और राज्य में ‘राष्ट्रपति शासन’ लगाने की मांग की। यह टीका-टिप्पणी बहुत जल्द निरर्थक जंग में बदल गई। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने तेजस्वी सूर्या के खिलाफ ट्विटर पर मोर्चा खोल दिया और आरोप लगाया कि भाजपा सांसद के पास डोसा खाने और उसके बारे में बताने, राहुल गांधी की पदयात्रा की आलोचना करने, हर चीज के लिए पंडित नेहरू को दोष देने का पर्याप्त समय तो है, लेकिन बाढ़ में घिरे लोगों को राहत पहुंचाने का वक्त नहीं है।
कुछ दृश्य वाकई अरुचिकर थे। आप कितनी बार अमीरों (लखपति नहीं, बल्कि करोड़पति) या नामचीनों के लिए यह सुनते हैं कि उन्हें अपने पांव को सूखा रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है? इसीलिए मर्सिडीज और ऑडी की जगह ट्रैक्टर और नाव ने ले ली थी। होसुर-सरजापुर रोड लेआउट (एचएसआर लेआउट) तो सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ, जो अमीरों का आवासीय क्षेत्र और बेंगलुरु के इलेक्ट्रॉनिक सिटी का प्रवेश-द्वार माना जाता है। एप्सिलॉन व दिव्यश्री जैसे महंगे रिहायशी इलाके भी डूबे रहे। अनएकेडमी के सीईओ गौरव मंुजाल ने कहा कि उन्हें, उनके परिवार और पालतू कुत्ते को टैक्टर से बचाया गया। कई उद्यमियों और सीईओ को पानी में उतरते देखा गया।
इसकी वजह हमारे लिए कोई अबूझ नहीं है। जलवायु परिवर्तन, खराब शहरी नियोजन, खस्ता जल-निकासी व्यवस्था, भ्रष्ट प्रशासन, राजनेता व बिल्डर की जुगलबंदी, अनियोजित शहरी विस्तार, लालच आदि के कारण बेंगलुरु को इस तरह से डूबना-उतराना पड़ा। मानवीय संकट के अलावा, इसमें माल-असबाब का भी खूब नुकसान हुआ। करीब 25,000 कारें पानी में डूबीं, और यह अब तक साफ नहीं है कि उनमें से कितनी ठीक हो सकती हैं। गरीबों का सामान बहना तो और भी कष्टदायक रहा।
जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव निस्संदेह इसका एक प्रमुख कारण है, हालांकि कई इससे अब भी इनकार करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बारिश की आवृत्ति, यानी बरसने की दर बढ़ी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो परिघटनाएं पहले 200 साल में एक बार होती थीं, अब उनकी अवधि घटकर 100 साल हो गई है। और, जो घटना 100 साल में एक बार होती थी, अब 50 या 25 साल में होने लगी है। कुछ मौसमी परिघटनाएं तो अब हर साल घटने लगी हैं।
जलवायु परिवर्तन का असर विकसित और विकासशील सहित दुनिया भर के शहरों में देखा जा रहा है। विडंबना है कि अमीर राष्ट्रों ने प्रकृति का सबसे अधिक दोहन किया, जबकि इसका नुकसान विकासशील देशों को सबसे अधिक उठाना पड़ रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमीर देशों ने नुकसान को कम करने का बुनियादी ढांचा तैयार कर लिया है। वहां सड़कें इस कदर बनाई जा चुकी हैं कि जलभराव नहीं होता। वहां राहत-कार्य तुरंत पहुंचाए जाते हैं। आपातकालीन सेवाएं यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी की जान न जाए। और, बुजुर्गों एवं गरीबों का विशेष ख्याल रखा जाता है। विकासशील देश इन तमाम सुविधाओं के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, जिस कारण ज्यादातर प्राकृतिक आपदाओं में लोग खासा प्रभावित होते हैं। संपन्न देशों में शहरी नियोजन को भी गंभीरता से लिया जाता है। वे निर्माण-कार्यों में इलाके के भौगोलिक चरित्र को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास करते हैं। इससे पानी बेजा बहता नहीं है, बल्कि वह मिट्टी में अवशोषित हो जाता है।
बेंगलुरु कभी ‘बगीचों और झीलों का शहर’ माना जाता था। अंग्रेज यहां आराम व मनोरंजन करने आया करते थे। मगर अब इसका रूप-रंग बदल गया है। 1.3 करोड़ की आबादी वाले इस शहर में 189 झीलें हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण 16वीं सदी में हुआ है। चेन्नई और मुंबई जैसे तटीय शहरों के उलट यह ऊंचाई पर है और इसीलिए कहीं अधिक संवेदनशील है। यहां की झीलों को राजकालुवे (नहरों) जोड़ते हैं, जो कभी यह सुनिश्चित करते थे कि बिना बाढ़ लाए पानी एक से दूसरे स्थान की ओर बह जाए। आंकड़े बताते हैं कि 890 किलोमीटर के राजकालुवे का अब बमुश्किल 50 फीसदी हिस्सा काम करता है, क्योंकि उसकी साफ-सफाई न किए जाने के कारण समय के साथ वे बेकार हो गए। यह शहर भारत का ‘सिलिकॉन वैली’ है और यहां नहरों में कई तरह के सेंसर भी लगाए गए हैं, जिनको उचित समय पर (जब नहर की क्षमता का 75 फीसदी पानी जमा हो जाए) पर चेतावनी भेजनी चाहिए। मगर लगता है कि इन सेंसरों ने भी काम नहीं किया।
इसमें भ्रष्ट व्यवस्था का अपना योगदान है। रिपोर्टें बताती हैं कि जमींदारों, कुछ पुराने सामंतों ने अपनी काफी जमीन बिल्डरों को बेच दी, जिनमें झील का डूब क्षेत्र, निचले इलाके आदि भी शामिल थे। इन जमीनों पर बनी चमकदार इमारतों ने जल निकासी और प्राकृतिक जल-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया है। कुछ इलाकों में तो स्थानीय निकाय की अनुमति के बिना निर्माण-कार्य किए गए हैं। यहां कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि बेंगलुरु ही नहीं, पूरे भारत की यही सच्चाई है। देश भर में जहां-तहां ऐसा होता है, क्योंकि हमारी आबादी बड़ी है और भूमि पर दबाव है।
मगर भारतीय विज्ञान संस्थान (बेंगलुरु) में पारिस्थितिक विज्ञान विभाग के प्रमुख टीवी रामचंद्र ने कई अध्ययन करके बताए हैं कि बेंगलुरु में क्यों बार-बार बाढ़ आती है? उन्होंने मुख्यत: यहां की झीलों के कायाकल्प के साथ-साथ शहरी नियोजन में सुधार करने के उपाय सुझाए हैं। इससे न सिर्फ अत्यधिक बारिश में बाढ़ से बचा जा सकेगा, बल्कि गरमी में पानी की किल्लत भी नहीं होगी। साफ है, स्थानीय प्रशासकों को कहीं दूर देखने के बजाय अपने आसपास इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए।
Date:13-09-22
स्थायी संसदीय समितियों का बढ़ाना चाहिए कामकाज
देश दीपक वर्मा, ( राज्यसभा के पूर्व महासचिव )
संसदीय परंपराओं के पक्षधरों को यह देखकर प्रसन्नता हुई है कि हाल ही में संपन्न मानसून सत्र में विद्युत (संशोधन) विधेयक, 2022 व प्रतिस्पद्र्धा (संशोधन) विधेयक, 2022 को विस्तृत जांच और रिपोर्ट के लिए संसद की स्थायी समिति को भेजा गया है। यह इस तथ्य के आलोक में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि संसद के पास इस सत्र में सीमित विधायी समय था और केवल पांच विधेयक पारित हो सके और तब भी सरकार ने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। ऐसा तब हुआ है, जब विपक्ष द्वारा लगातार इस बात की आलोचना की जा रही थी कि वह पिछले कुछ सत्रों से विभिन्न विधानों को बिना विस्तृत विचार-विमर्श के और उन्हें बिना स्थायी समिति को संदर्भित किए पारित करा रही है।
सरकार की चिंता यह रहती है कि संसद में व्यवधानों के चलते इतना समय नष्ट हो जाता है कि विधायी प्रक्रिया विलंबित हो जाती है और ऐसे में विधेयकों को स्थायी समितियों को सौंपने से इस कार्य में अधिक विलंब हो सकता है। मानसून सत्र की कार्यवाही इस तथ्य की साक्षी है, जिसमें लोकसभा की उत्पादकता 47 प्रतिशत और राज्यसभा की केवल 42 प्रतिशत रही। गौरतलब है, संसद में विभागों से संबंधित 24 संसदीय स्थायी समितियां गठित हैं, जिनमें लोकसभा और राज्यसभा, दोनों के सदस्य 2 : 1 के अनुपात में रखे जाते हैं और यह लोकसभा अध्यक्ष व राज्य सभा के सभापति द्वारा संयुक्त रूप से गठित की जाती है। सवाल है कि क्या ये समितियां अपने निर्दिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने में सक्षम हैं? और यदि नहीं या मात्र अपर्याप्त रूप से सफल रही हैं, तो उनकी कारगरता और उनकी प्रासंगिकता बढ़ाने के लिए क्या कार्रवाई की जा सकती है?
14वीं, 15वीं और 16वीं लोकसभा के कार्यकाल के दौरान सदन में प्रस्तुत विधेयकों को संबंधित स्थायी समितियों को भेजे जाने का यदि हम प्रतिशत देखें, तो यह क्रमश: 60 प्रतिशत, 71 प्रतिशत व 27 प्रतिशत रहा है। 16वीं लोकसभा के दौरान इस प्रतिशत में गिरावट ज्यादातर दूसरी छमाही के दौरान देखी गई, जब सरकार 2019 के चुनाव के परिप्रेक्ष्य में अपने बड़े सुधारों और बड़ी योजनाओं को आगे बढ़ाने की जल्दी में थी और विपक्ष चुनावी प्रतिस्पद्र्धा के कारण इसे रोकने को समान रूप से अडिग था। भले ही सरकार के लिए प्रत्येक विधेयक समिति के पास भेजना अनिवार्य नहीं है, पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनुभव यह रहा है कि विधेयकों को संसदीय समितियों को संदर्भित करना तथा वहां होने वाले विचार-विमर्श का कानून को अंतिम रूप देने के लिए उपयोग करना लाभकारी रहा है।
यह समझ लेना चाहिए कि संसदीय समितियों द्वारा विधेयकों की जांच विपक्ष की तुलना में सरकार के लिए अधिक लाभकारी है। इसका सीधा सा कारण यह है कि संसदीय समितियों व संसद में चर्चा का माहौल बिल्कुल अलग होता है। समितियों की बैठकें गोपनीय होती हैं और वहां प्रेस का या सामान्य जनता का प्रवेश निषिद्ध होता है। इस कारण ये बैठकें तुलनात्मक रूप से ज्यादा समझदारी के माहौल में होती हैं और सदस्य अपने दल की घोषित स्थिति के बावजूद आम सहमति बनानेे का प्रयास करते हैं। बहरहाल, विधेयकों पर और बेहतर विचार के लिए संसद में निर्धारित प्रक्रियाओं में निम्न बदलाव किए जा सकते हैं। लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति के पास विधेयकों को संसद की स्थायी समिति को भेजने का अधिकार है। अक्सर विभिन्न कारणों से इस प्रावधान का उपयोग नहीं किया जाता है। इस दृष्टि से समितियों को स्वचलित प्रक्रिया के रूप में अनिवार्य बनाना उपयोगी होगा, ताकि कोई भी विधेयक पेश होते ही समिति के पास चला जाएगा।
संसदीय स्थायी समिति में सभी चर्चाएं स्वतंत्र होंगी, इसके लिए यह प्रावधान किया जा सकता है कि इन बैठकों की चर्चा में पार्टी का कोई व्हिप लागू नहीं होगा। समितियों को अपनी सिफारिशें पेश करने के लिए एक निश्चित समय-सीमा दी जा सकती है। समितियों में संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जा सकता है, इससे सांसदों को विचार करने में सुविधा होगी। ऐसी समितियों को मंत्रालयों को नई पहल करने और जनहित के उपाय करने के सुझाव भी देने चाहिए।