13-05-2019 (Important News Clippings)
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Date:13-05-19
They Want Bt Brinjal
Ditch the Luddite approach to GM food, instead research and regulate it
TOI Editorials
Tests confirming illegal cultivation of Bt Brinjal in Fatehabad, Haryana must force Indian government out of its stupor. The cultivation of unauthorised, untested genetically modified (GM) food crops is a biohazard and strict action must be taken to deter the spread of these seeds. The cluelessness of authorities on the source of the contamination – with suspicion falling on smuggling from Bangladesh where Bt Brinjal is legal even when the role of a domestic company could be probed – is worrying.
There is a clear lesson here for biotechnology regulators. Farmers are opting for the illegal GM seeds because they are convinced that these have higher yield and better resistance to pests. In 2017, illegal GM soybean cultivation was detected in Gujarat. Sure-footed regulation can remedy this situation. But India has adopted a Luddite approach despite farmer complaints about rising pestilence and increasing use of insecticides, which trigger other health threats. Biotech regulator GEAC (Genetic Engineering Appraisal Committee) had approved Bt Brinjal in 2009 but UPA government imposed a moratorium on its commercial release. Government changed but the policy has remained stuck, with a Sangh Parivar group stiffly opposing field trials for a GM mustard variety developed at Delhi University.
The importance of investing in biotechnology cannot be overstated, given groundwater depletion and frequent droughts. Equally debilitating are the constraints placed on Indian researchers from developing competence in this arena, leaving the field restricted to MNCs. Cotton farmers have struggled with stagnating yields from Monsanto’s Bt cotton hybrids for years, but institutions like Nagpur-based ICAR-CICR are only belatedly offering them alternative Bt Cotton varieties. Governments serious about “doubling” farm incomes and reducing edible oil imports cannot allow fringe ideological lobbies to hinder technological advances. India’s long-term food security needs the incoming government to tread much more purposefully.
Date:13-05-19
High Alert on Mass Extinction of Species
ET Editorials
The planet’s natural systems are rapidly degrading because of human activities such that a million species of plants and animals are on the verge of extinction. Human actions are ravaging the earth’s ecosystems and undermining the systems that sustain life. A new report from UN’s Intergovernmental Science-Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services, the most comprehensive assessment of the global ecosystems to date, is an indictment of how humans have treated the Earth. While the situation is grim, all is not lost. It is possible to slow down and even halt the degradation but that will require concerted action by governments, the private sector and civil society. The window of opportunity is small and calls for action now at local, national, regional and global levels.
The main causes of the deterioration of the natural ecosystem is land-use change, overfishing, pollution, climate change and population growth. As the global south develops and as many more people move out of poverty, the demand for food, energy and infrastructure goes up. But the assessment makes clear that persisting with the current patterns of human behaviour will make it impossible for most countries to achieve the 2030 Sustainable Development Goals. The only way to keep the pledge to leave no one behind is to ensure a radical transformation of the systems of consumption and production to those that are resource efficient and generate less waste through the life cycle.
To ensure that development does not degrade lives, it is imperative to mainstream biodiversity and ecosystem concerns in policy-making. Compartmentalisation must give way to an integrated and synchronised approach. India and the world have the knowledge and regulatory framework required for the transformation. It is now about the will to act.
Date:13-05-19
आयुष्मान की उपयोगिता
मोदी सरकार की आयुष्मान भारत योजना की लोकप्रियता इससे साबित होती है कि बहुत कम समय में लाखों लोग इसका लाभ उठा चुके हैं।
संपादकीय
एक अमेरिकी थिंक टैंक ने भी मोदी सरकार की आयुष्मान भारत योजना को तारीफ के काबिल पाया। इसके पहले अन्य देशी-विदेशी संस्थाएं भी इस योजना को बेहतर बता चुकी हैं। चूंकि निर्धन वर्ग के परिवारों को पांच लाख रुपये तक के मुफ्त इलाज की सुविधा देने वाली यह योजना गरीबों के लिए राहतकारी साबित हो रही है इसलिए उसका बखान कर चुनावी लाभ लेने की भी कोशिश हो रही है। इसमें हर्ज नहीं। सरकारों का यह अधिकार है कि वे अपनी सफल योजनाओं का गुणगान करते हुए राजनीतिक लाभ अर्जित करने की कोशिश करें।
इस योजना की लोकप्रियता इससे साबित होती है कि बहुत कम समय में लाखों लोग इसका लाभ उठा चुके हैं। इस योजना के सकारात्मक असर से इन्कार नहीं, लेकिन इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि क्या फिलहाल कारगर साबित होती दिख रही यह योजना देश में आवश्यक स्वास्थ्य ढांचे का निर्माण करने में सफल हो रही है? नि:संदेह यह इस योजना का मूल उद्देश्य नहीं है। मूल उद्देश्य गरीबों को मुफ्त इलाज उपलब्ध कराना है, लेकिन केवल इतने से बात बनने वाली नहीं है। किसी को यह देखना चाहिए कि जरूरी स्वास्थ्य ढांचे का भी निर्माण हो। यह सुनिश्चित करते समय इस पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है कि निजी क्षेत्र के साथ सरकारी स्वास्थ्य ढांचे का निर्माण और विस्तार होना बहुत आवश्यक है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि इतने बड़े देश में सरकारी स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर बनाए बिना अभीष्ट की प्राप्ति नहीं की जा सकती।
यह सही है कि फिलहाल गरीबों को मुफ्त उपचार की सुविधा मिल रही है, लेकिन अगर स्वास्थ्य ढांचे को विस्तार नहीं दिया जा सका तो गरीबी रेखा से इतर लोगों के लिए उपचार महंगा हो सकता है। इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने वाले धन का अधिकांश हिस्सा इस योजना में ही खप जाने का भी अंदेशा है। यह अंदेशा इसलिए और है, क्योंकि अभी कुल जीडीपी का बहुत कम प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता है। इस खर्च को बढ़ाए जाने और उसका एक हिस्सा सरकारी स्वास्थ्य ढांचे को विकसित करने में किया जाना चाहिए। यह काम प्राथमिकता के आधार पर होना चाहिए, क्योंकि भारत की छवि एक ऐसे देश की है जो तमाम रोगों का घर बना हुआ है। इसका प्रमुख कारण यह है कि एक ओर जहां गरीब तबका कुपोषण से ग्रस्त है वहीं मध्य और धनी वर्ग रहन-सहन की उन आदतों से ग्रस्त है जो बीमारियों का कारण बनती हैं।
स्पष्ट है कि किसी को इसकी भी चिंता करनी चाहिए कि औसत भारतीय अपने खान-पान, रहन-सहन को लेकर सतर्क रहें। मोदी सरकार को केवल इससे खुश नहीं होना चाहिए कि अमेरिकी थिंक टैंक ने आयुष्मान योजना की तारीफ कर दी, क्योंकि उसने इस योजना की कुछ चुनौतियां भी रेखांकित की हैं। यह सही है कि हर नई योजना में प्रारंभ में कुछ समस्याएं आती हैं, लेकिन जब यह कहा जा रहा है कि लागत को कम करने और गुणवत्ता में सुधार करने के लिए अभी काफी कुछ करना बाकी है तो फिर उस पर ध्यान देना वक्त की मांग है।
Date:12-05-19
अमन की शर्त ईमान
डॉ. दिलीप चौबे
अफगानिस्तान में अमेरिका की अगुवाई में चल रही शांति वार्ता के मद्देनजर भारत ने पड़ोसी देश में अपने रणनीतिक क्षेत्रों की रक्षा के लिए कूटनीतिक प्रयास तेज कर दिए हैं। अमेरिका और तालिबान के बीच वार्ता सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रही है। लगता है कि अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटाने की धुन में अमेरिका तालिबान को कुछ रियायत देने के लिए तैयार है। उसने तालिबान की इस शर्त को भी मान लिया था कि शांति वार्ता के वर्तमान दौर में काबुल की राष्ट्रीय सरकार का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं होगा।
भारत अशरफ गनी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन देता है और तालिबान के बढ़ते प्रभाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। अमेरिका तालिबान से जारी बातचीत को लेकर भारत को विश्वास में रखना चाहता है। यही कारण है कि अमेरिकी वार्ताकार जलमय खालिद जान ने कुछ दिन पूर्व भारत यात्रा के दौरान विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और अधिकारियों को वार्ता के संबंध में अवगत कराया था। लेकिन यह सोचना आशावादिता होगा कि अमेरिका अपने शांति प्रयासों में भारतीय हितों को प्रमुखता देगा। यही कारण है कि भारत अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मिलकर अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता कायम करने के लिए कूटनीतिक प्रयास कर रहा है।
इसी क्रम में भारत और चीन ने इस संघषर्रत देश में शांति और स्थिरता कायम करने के लिए साझा प्रयास करने की ओर कदम बढ़ाया है। चीन के विशेष दूत डेंग झियोन ने हाल ही में अफगानिस्तान के वर्तमान हालात के बारे में भारतीय अधिकारियों से बातचीत की। दोनों देशों के अधिकारियों ने भारत और चीन के उच्च नेतृत्व द्वारा लिए गए निर्णयों के आलोक में अफगानिस्तान में संयुक्त रूप से सहयोग करने पर भी विचार किया। दरअसल, चीन, भारत, ईरान, पाकिस्तान और रूस जब तक संयुक्त रूप से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता के लिए आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक वहां शांति प्रयास विफल होंगे। चीन अफगानिस्तान में जिस तरह से विशेष रुचि रख रहा है, उसका रणनीतिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है। काबुल के साथ बीजिंग के बढ़ते कूटनीतिक और राजनीतिक रिश्तों का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई काबुल की राष्ट्रीय सरकार को इससे ताकत मिलेगी। इस सरकार को संयुक्त राष्ट्र का भी समर्थन प्राप्त है। इसीलिए भारत और चीन, दोनों संयुक्त रूप से अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए एकजुट होकर काम करते हैं, तो यहां सद्भाव कायम होने की संभावना दिखाई देती है।
अफगानिस्तान भारत और चीन, दोनों को पारंपरिक तौर पर अपने भरोसेमंद पड़ोसी के रूप में देखता है। पिछले अठारह वर्षो से देखा जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के जो भी प्रयास किए गए उनके सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आए। इसकी एक बड़ी वजह शांति प्रक्रिया में क्षेत्रीय ताकतों को अलग-थलग रखना भी रही है। इसके कारण इस क्षेत्र से आतंकवाद को खत्म करने के सामूहिक प्रयास विफल हुए और क्षेत्रीय अस्थिरता की खाई भी चौड़ी हुई। अफगानिस्तान के पड़ोसी होने के नाते भारत और चीन इस क्षेत्र की चुनौतियों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं, जो अफगानिस्तान में क्षेत्रीय स्थिरता और वैश्विक शांति को बढ़ावा देने में मददगार साबित होगी। भारत और चीन समेत अन्य क्षेत्रीय शक्तियां आतंकवाद से लड़ने के लिए खुफिया जानकारियों का आदान-प्रदान कर सकती हैं, प्रशिक्षण दे सकती हैं और लॉजिस्टिक मदद भी दे सकती हैं, जिससे तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को ध्वस्त करने में मदद मिलेगी।
क्षेत्रीय शक्तियों की ताकत से अल कायदा, इस्लामिक स्टेट, खोरासन सूबा, ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट, लश्कर-ए-तैयबा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसे आतंकवादी संगठन इस क्षेत्र को अशांत किए हुए हैं। चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने अठारहवें शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में कहा था कि 2019 से 2021 के दौरान आतंकवाद, अलगाववाद और उग्रवाद जैसी बुराइयों को उखाड़ फेंकना है। चीन अफगानिस्तान में शांति के लिए पाकिस्तान का भी इस्तेमाल कर सकता है। अगर ये सभी क्षेत्रीय शक्तियां ईमानदारी से साझा प्रयास करें तो काबुल में शांति और स्थिरता कायम हो सकती है।
Date:12-05-19
जलवायु नीति में मौलिक बदलाव जरूरी
डॉ आरबी सिंह
राष्ट्रीय जल नीति 2012 में लाया गया, लेकिन नीति का अध्ययन करें तो पाते हैं कि जो तत्कालीन समस्याएं हैं, उसमें उनको स्थान नहीं मिला है। इस नीति में जल का उपयोग, जल को उपयोग में लाने वाले कार्यक्रम, जल का उपयोग की क्षमता, मांग प्रबंधन, जल मूल्य (वाटर प्राइसिंग) और उसके संरक्षण के बारे में जिक्र है। लेकिन तत्कालीन चुनौतियां जैसे जलवायु परिवर्तन, जल मार्ग, गंगा स्वच्छता अभियान आदि के साथ-साथ अन्य नदियों के प्रबंधन आदि पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। अत: इसके मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है। वैश्विक संदर्भ में भारत की जनसंख्या करीब 18 फीसद है, अगर भौगोलिक क्षेत्रफल 2.4 फीसद है। जब हम विश्व के जल प्रतिशत को भारत के संदर्भ में देखें तो यह 4 फीसद ही है। अत: जल के सतत विकास के मूल धाराओं को हमें वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखना होगा।
भारत अभी अपना 6 फीसद वाषिर्क वष्रा जो 253 बिलियन क्यूबिक मीटर के बराबर है, का जल संग्रहित करता है। परंतु विकसित देशों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह बहुत ही कम है। हमारा जलसंसाधन काफी समुद्र में बेकार चला जाता है, जो 1200 बिलियन क्यूबिक मीटर के बराबर है। अत: भारत की खाद्य सुरक्षा हम तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब जल सुरक्षा पर ध्यान दिया जाए। अपने देश की ऊर्जा सुरक्षा भी इस पर निर्भर है। हमारे देश में वष्रा जल की जो प्राप्ति और भूमिगत जल के रिचार्ज में बहुत ही अंतर है। हम इसकी पूर्ण संभावनाओं को संग्रहित नहीं कर पाते। यह बहुत जरूरी हो गया है कि हर पंचायत के स्तर से लेकर जिला स्तर तक जो पानी का प्रवाह है, उसे हम समुद्र में जाने से रोकें। और सिंचाई आदि के लिए, जो हमारे जल के साधनों को क्वालिटी मॉनिटरिंग की बहुत आवश्यकता है, जिससे पानी को दूषित होने से बचाया जा सके।
यह कहना बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि जल राज्य का विषय है। और इसके लिए राज्य के और निचले स्तर पर नीति निर्धारण की आवश्यकता है। अत: जो हमारी वर्तमान संरचना है, उसको पुनर्निर्धारित करने की जरूरत है। यदि हम वाटरशेड मैनेजमेंट की बात करें तो यह 130 मिलियन हेक्टेयर है, मगर उसमें 40-50 मिलियन हेक्टेयर तक ही सरकार का ध्यान गया है। इसमें लोगों की भागीदारी बहुत नगण्य है। अभी करीब 54 मिलियन हेक्टेयर वर्तमान में सिंचित क्षेत्र है, जो एक अनुमान के अनुसार 65 मिलियन हेक्टेयर 2020 तक और 85 मिलियन हेक्टेयर आने वाले 50 सालों में सिंचित होगा। यह तभी संभव हो सकता है, जब हम नदी घाटी परियोजनाओं को जलवायु संसाधनों का समेकित नियोजित और प्रबंधन करें। भारत के कुछ क्षेत्रों में सामुदायिक संस्थाएं जैसे वाटरशेड मैनेजमेंट संस्थाएं, सूखा क्षेत्रों में, सिंचित क्षेत्र में जल उपयोग संगठन, वन क्षेत्रों में संयुक्त वन प्रबंधन और शहरी क्षेत्रों में रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) की मुख्य भूमिका हो सकती है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जहां भी जल का प्रबंधन अच्छे ढंग से हुआ है, वहां गरीबी दूर करने में मदद मिली है। पंजाब और हरियाणा इसके मुख्य उदाहरण हैं। हमें सूखा और बाढ़ के क्षेत्रों को एक साथ प्रबंधन करने पड़ेंगे। भारत के उत्तर में स्थित हिमालय में प्रति इकाई जल की सबसे अधिक मात्रा मिलती है। इस कारण से हम हिमालय को ‘पृथ्वी का वाटर टॉवर’ की भी संज्ञा देते हैं। जबकि भारत के 200 से अधिक जिले सूखा पीड़ित हैं। इसके लिए ‘इंटरलॉकिंग ऑफ रिवर्स’ आदि योजनाओं की शुरुआत कुछ वर्ष पहले की गई थी। इस संदर्भ में हम बहुस्तरीय योजना की संकल्पना लाना चाहेंगे। पूरे भारत के स्तर पर यह बहुत ही खर्चीली योजना है। इसके लिए हम कुछ प्रागमैटिक सोल्यूशन बताना चाहेंगे। हरेक राज्य में सूखा क्षेत्र है और बाढ़ का क्षेत्र है। यदि हम राज्य के अंदर ही बाढ़ और सूखा क्षेत्रों को जोड़ दें तो इसमें कम खर्च लगेंगे। आगे हम इसे अंतरराज्यीय बना सकते हैं।
इस संबंध में केन-बेतवा लिंक एक उपयुक्त उदाहरण है। केरल में आए बाढ़ में करीब 300 लोग मारे गए और एक मिलियन (10 लाख) से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। इस त्रासदी में करीब 50 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। इसका मुख्य कारण था कि दो महीने में केरल में 37 फीसद ज्यादा बारिश हुई। लेकिन बांधों का प्रबंधन ठीक तरीके से नहीं होना इसका मुख्य कारण रहा। इसके लिए बहुत से कारक जिम्मेदार हैं। उसमें प्रमुख हैं जलवायु परिवर्तन, अवैध खनन, हरे-भरे जंगलों का नष्ट होना और बांधों का मिस मैनेजमेंट। यह कहा जाता है कि बांध से पानी को छोड़ने का मुख्य कारण तात्कालिक था। अत: बांधों का प्रबंधन वैज्ञानिक ढंग से बहुत ही जरूरी है। वचरुअल वाटरशेड ही आज के संदर्भ में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक होकर उभरा है। जैसे-हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली का गेहूं और चावल पूरे देश में पंजाब और हरियाणा से सप्लाई की जाती है। तो यहां के जल का उपयोग दूसरे राज्य के लोग करते हैं। यानी एक राज्य के जल का इस्तेमाल दूसरे रूप में बाकी राज्य भी करते हैं। इसका भी हमें ख्याल रखना होगा। ट्रांस बाऊंडरी रिवर (अंतरराष्ट्रीय नदी) की अवधारणा हमारे देश में बहुत ही सटीक परिलक्षित होती है। चाहे वह ब्रह्मपुत्र नदी हो जो भारत-चीन-बांग्लादेश में बहती है या गंगा नदी हो जो कई राज्यों से होकर गुजरती है या फिर सिंधु नदी है जो भारत-पाकिस्तान में बहती है। मगर एक बात थोड़ी कचोटती है। वह है पानी को लेकर राज्यों का आपस में लड़ना। दुश्मन सरीखा व्यवहार करना। इसके वास्ते हमें राज्य और अंतरराज्यीय स्तर पर रचनात्मक सहयोग की आवश्यकता होती है। हिमालय में स्थित 5.8 हजार ग्लेशियर पानी की सप्लाई करते हैं। जिस पर किसी एक राज्य का अधिकार नहीं है।
भौगोलिक शिक्षा द्वारा जनता में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करना बेहद जरूरी हो गया है। जल के संरक्षण और क्षमता को बढ़ाने के लिए कुछ प्रमुख सुझाव विभिन्न सेक्टर (क्षेत्रों) में देना चाहेंगे। डोमेस्टिक सेक्टर (घरेलू) क्षेत्र में जल बचाओ उपकरण, सभी उपभोक्ताओं को वाटर मीटर लगाना, प्रगतिशील जल टैरिफ, वाटर बैलेंस का ऑडिटिंग, उसकी गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए सीवेज सिस्टम में सुधार करना, औद्योगिक क्षेत्रों में वाटर रि-साइकिलिंग, वेस्ट वाटर का पुन: इस्तेमाल करना, शहरों में सीवेज वाटर आदि का ट्रीटमेंट करना, कृषि क्षेत्रों में जल की कीमतों का निर्धारण, सीवेज वाटर का उपयोग गैर कृषि उत्पादन (फूल उत्पादन) के लिए इस्तेमाल करना, ऐसे फसल लगाना जो खारे जल में पैदा होते हों, सिंचाई के तरीकों में सुधार करना जिससे पानी की बर्बादी रुके, स्प्रिंकलर और प्रत्येक बेसिन में नदी प्रबंधन के लिए मृदा संरक्षण और वनीकरण, पशुपालन, सीवेज ट्रीटमेंट (नदियों में गिरने से पहले) कृषि क्षेत्रों में प्रदूषण को कम करने के लिए बॉयो फर्टिलाइजर (जैव खाद) और जैव पेस्टीसाइड।
हमारे देश में जल नीति को लेकर परंपरागत प्रयास हुए हैं। अत: समय आ गया है कि पंचायत, ग्राम सभा और नगरपालिका के स्तर पर हम समाज में जल का उपयोग करने वाले विभिन्न घटकों में एक समझदारी भरा अभियान चलाएं।
Date:11-05-19
दबाव और चुनौती
संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर कालेजियम और सरकार के बीच एक बार जिस तरह का गतिरोध देखने को मिल रहा है, वह स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। सरकार और न्यायपालिका के बीच इस तरह का टकराव लोकतंत्र के लिए घातक होता है। लोकतंत्र के महत्त्वपूर्ण स्तंभों- न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच ऐसे विवादों से देश की जनता में अच्छा संदेश नहीं जाता। हाल का ताजा विवाद यह है कि कालेजियम ने सरकार के पास बारह अप्रैल को जिन दो जजों को सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने के लिए सिफारिश भेजी थी, वह सरकार ने पुनर्विचार के लिए लौटा दी थी। इनमें एक जज झारखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अनिरुद्ध बोस हैं और दूसरे गुवाहाटी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एएस बोपन्ना हैं। अब कालेजियम ने फिर से इन्हीं दोनों नामों को सरकार के पास इस टिप्पणी के साथ भेजा है कि सरकार ने दोनों न्यायाधीशों की योग्यता, आचरण और निष्ठा के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की है। सरकार की ओर से जो आपत्ति आई थी वह इन जजों की वरिष्ठता को लेकर थी। ऐसे में सवाल उठता है कि अगर वरिष्ठता से संबंधित कोई मुद्दा सामने आता है तो उसमें सरकार की मानी जाए या फिर कालेजियम की।
सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति, तरक्की और तबादले संबंधी काम कालेजियम ही देखता है। कालेजियम प्रधान न्यायाधीश सहित पांच वरिष्ठ जजों का समूह होता है। कालेजियम व्यवस्था की शुरुआत 1993 में हुई थी। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने छह अक्तूबर 1993 को तय किया था कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश का रुतबा कार्यपालिका से ऊपर है, इसलिए जजों की नियुक्तियां और तबादले कालेजियम द्वारा ही होने चाहिए। कालेजियम व्यवस्था लाने का मकसद न्यायपालिका को राजनीतिक दखल से मुक्त कर स्वतंत्र बनाना था। लेकिन पिछले दो दशकों में जब-तब ऐसे आरोप भी सामने आए जब कालेजियम व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाए गए और कहा गया कि कालेजियम प्रणाली से जजों की नियुक्ति में भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिल रहा है और उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों को लेकर पारदर्शिता नहीं रह गई है। इसी को आड़ बना कर सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों में दखल बढ़ाया।
कालेजियम व्यवस्था लागू होने के बाद सामान्य तौर पर यह परंपरा रही कि जजों की नियुक्ति के लिए जो नाम सरकार के पास भेजे जाते थे, उन्हें बिना किसी नुक्ताचीनी या काट-छांट के हरी झंडी दे दी जाती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों में सरकार ने कालेजियम की सिफारिशों पर जिस तरह का रुख दिखाना शुरू किया है वह न्यायपालिका के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा रहा। पिछले साल उत्तराखंड हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केएम जोसेफ के नाम को लेकर सरकार और कालेजियम के बीच लंबा टकराव चला था। हालांकि अंतत: झुकना सरकार को पड़ा, लेकिन उनकी वरिष्ठता कम हो गई। यह टकराव परोक्ष रूप से न्यायपालिका को नियंत्रित करने का संकेत था। जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन भी खटाई में पड़ा है। आयोग के गठन के प्रारूप से स्पष्ट है कि जजों की नियुक्तियों में सरकार का पूरा दखल रहेगा। हालांकि न्यायपालिका में जजों की वरिष्ठता और नियुक्ति संबंधी मामलों में सरकार के दखल के उदाहरण पहले भी देखने को मिलते रहे हैं और इसी को खत्म करने के लिए कालेजियम व्यवस्था बनी थी। अगर लोकतंत्र के स्तंभों में संतुलन नहीं बनेगा तो संस्थाएं खतरे में पड़ेंगी। आज न्यायपालिका भी ऐसी ही चुनौती का सामना कर रही है। सवाल है कि तब कैसे वह अपने को स्वतंत्र बनाए रख सकती है !
Date:11-05-19
Lies and Loopholes
Non-disclosure of information and filing of falsities in election affidavits can’t be treated equally
Shraddha Gome & Harpreet Singh Gupta, [ The writers are Mumbai-based lawyers and alumni of National Law School of India University, Bengaluru. ]
On April 15, 2019, a Public Interest Litigation (PIL) was filed in the Supreme Court against Prime Minister Narendra Modi for filing a false affidavit. The petitioner, Saket Gokhale, a former journalist, has alleged irregularities regarding a plot of land, which, as per the land records, still belongs to the PM — but it has been omitted from his recent election affidavits. Recently, Union minister Smriti Irani was accused of falsifying her educational records in her affidavit. Surprisingly, despite the upsurge in the number of complaints of false affidavits, we are yet to see any strict action taken in this regard. Hence, it is important to look into the law governing false affidavits under the under the Representation of People’s Act, 1951 (“RPA”) and examine its effectiveness in curbing this malpractice.
Section 33 of the RPA, read with Rule 4A of the Conduct of the Election Rules, mandates all candidates contesting national/state assembly elections to furnish an affidavit comprising basic information such as their assets, liabilities, educational qualifications and criminal antecedents (if any). Failure to furnish information or filing false information in the affidavit is a penal offence under Section 125A of the RPA which prescribes a penalty of maximum six months or fine or both. However, unlike conviction for offences like bribery, conviction under Section 125A does not result in disqualification of candidate.
Another relevant provision is Section 8A which disqualifies any candidate found guilty of corrupt practice from contesting the election. Section 123 of the RPA defines “Corrupt Practices” to include “bribery”, “undue influence”, appealing to vote or not on grounds of caste, religion etc. What is baffling is that non-disclosure of information has been interpreted as a corrupt practice amounting to disqualification under section 8A, but, the courts’ silent stance in the treatment of filing false information has led to the understanding that filing false information does not amount to corrupt practice. This means that candidates who do not disclose certain information can be disqualified, but those who file false information can only be punished for maximum six months.
In Krishnamoorthy v. Sivakumar & Ors (February 6, 2015), the issue before the SC was whether non-disclosure of criminal antecedents by a candidate in his affidavit amounts to corrupt practice under Section 260 of Tamil Nadu Panchayats Act (which is similar to section 123(2) of RPA). The court ruled that the voter’s right to know the candidate who represents him in Parliament is an integral part of his freedom of speech and expression, guaranteed under the Constitution. Suppressing information about any criminal antecedents creates an impediment to the free exercise of the right to freedom of speech and expression. Therefore, non-disclosure amounts to an undue influence and corrupt practice under Section 123(2) of RPA.
A similar question came up before the SC in Lok Prahari v. Union of India & Ors (February 16, 2018), wherein the court followed the Krishnamoorthy judgment. It held that non-disclosure of information relating to source of income and assets by candidates and their associates, is a corrupt practice. The court laid emphasis on the following paragraph from Krishnamoorthy: “While filing the nomination form, if the requisite information, as has been highlighted by us, relating to criminal antecedents, is not given, indubitably, there is an attempt to suppress, effort to misguide and keep the people in dark. This attempt undeniably and undisputedly is undue influence and, therefore, amounts to corrupt practice.”
Evidently then, furnishing false information which misguides and violates the voters’ right to know their representative is a corrupt practice under the RPA. To reaffirm the same, a petition was filed in the SC in September 2018, seeking directions from the court to declare the filing of false affidavits a corrupt practice, and to direct the legislature towards implementing the recommendations of the 244th Law Commission Report. While the SC agreed in principle that filing a false affidavit for elections is a corrupt practice, it expressed its inability to direct a relevant legislation. It failed to realise that the mere absence of a separate clause declaring the filing of false information as a corrupt practice, does not stop the court from interpreting “undue influence” to include filing of false information. The court should have relied on its earlier judgments in Lok Prahari and Krishnamoorthy to rule that similar to non-disclosure of information, false affidavits will also constitute “undue influence” as they also try to misguide people.
Thus, the SC missed a golden opportunity to prevent the abuse of process and cure a gross error — of treating non-disclosure and filing false information differently. If at all, deliberately filing false information should be dealt with more strictly. In the absence of any specific direction from the SC, there is no clarity on the filing of false affidavits. Candidates are incentivised to file false information since the risk of disqualification exists only in cases of non-disclosure.
The lack of legal clarity relating to false affidavits has led to multiple candidates, including prominent leaders, getting away by filing false information in their election affidavits. It is high time the SC clarifies that filing false affidavits (similar to non-disclosure of certain information) constitutes “undue influence”, which is a “corrupt practice”. Further, to add clarity and discourage false affidavits, the legislature must incorporate threefold changes suggested by the Law Commission in the RPA. First, increase the punishment under Section 125-A to a minimum of two years; second, conviction under this provision should be a ground for disqualification of candidates under Section 8(1) of the RPA; and, third, falsification of affidavits by candidates must also be separately included in section 123 of the RPA as a corrupt practice. These changes are needed to ensure that the voter’s right to information remains paramount, and the candidate’s constitutional right to contest is subservient to it.
Date:11-05-19
For a Full Bench
Progress in judicial appointment is welcome, but it is time for systemic change
EDITORIAL
The government and the Supreme Court collegium seem to disagree on recommendations for judicial appointments quite frequently these days. It has become routine to hear that some recommendations for High Court appointments, as well as elevation to the Supreme Court, have met with disapproval from the government. In such instances, it requires reiteration by the collegium for the names to be cleared. This need not always be a cause for concern if it is a sign of some serious consultation on the suitability of those recommended. However, it acquires the character of a controversy if the government’s objections suggest an oblique motive to thwart or delay the appointment of particular nominees. The latest development concerns Jharkhand High Court Chief Justice Aniruddha Bose and Gauhati High Court Chief Justice A.S. Bopanna, who were on April 12 recommended for elevation to the Supreme Court. The government had sought a reconsideration of the two names. The collegium has now repeated its recommendations, emphasising that there is nothing adverse against the two judges in terms of their “conduct, competence and integrity” and that there is no reason to agree with the government. Under the present procedure, the government is now bound to accept the recommendation. The Supreme Court is keen to fill up the current vacancies. It has also recommended two more judges, Justice B.R. Gavai of the Bombay High Court and Chief Justice Surya Kant of the Himachal Pradesh High Court, for appointment to the apex court. If all these four recommendations go through, the court will have its full complement of 31 judges.
While this will be welcome, some issues persist. In systemic terms, the advisability of retaining the collegium system of appointments is a major concern; and in terms of process, the huge number of vacancies in the various High Courts and lower courts is another. The process of filling up vacancies depends on the relative speed with which the collegium initiates proposals for appointments and makes its recommendations after internal deliberations, and the time the government takes to process the names. As on May 1, the total number of vacancies in all the High Courts is 396. It is true that the filling up of vacancies is a continuous and collaborative process involving the executive and the judiciary, and there cannot be a time frame for it. However, it is time to think of a permanent, independent body to institutionalise the process. The known inadequacies of the collegium system and the mystery over whether a new memorandum of procedure is in the offing are reasons why the proposal for a constitutionally empowered council to make judicial appointments ought to be revived — of course, with adequate safeguards to preserve the judiciary’s independence. The time may have come for a systemic and processual overhaul.