
13-03-2025 (Important News Clippings)
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अराजकता के दौर से गुजर रहा है पड़ोसी पाकिस्तान
संपादकीय
पाकिस्तान में बलूच आतंकियों ने पूरी ट्रेन ही हाईजैक कर ली। कई दर्जन सैनिक मारे और सौ से ज्यादा अगवा कर लिए। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि भारत के समान ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि और ज्यादा उपजाऊ भूभाग के साथ गुलामी से आजाद हुए इस देश की सामूहिक चेतना क्यों इतनी जड़वत होती गई कि राज्य स्वयं आतंकवाद का पर्याय बन गया और क्यों आतंकी अवधारणा और धार्मिक कट्टरता एक-दूसरे के समानुवर्ती (को- टर्मिनस) बनते गए। पहला पाकिस्तानी ‘प्रजातांत्रिक’ संविधान आजादी के नौ साल बाद बना और लागू हुआ 1957 के सैनिक – शासन में । कई सैनिक शासकों के बीच कराहता यह देश क्षेत्रीय – धार्मिक आतंकवाद से इस कदर कमजोर रहा कि खैबर – र-पख्तूनख्वा के फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया) इलाके में कुछ वर्षों पहले तक सेना घुसने की हिम्मत नहीं करती थी । देश की 25 करोड़ आबादी वाला समाज सकारात्मक रूप से प्रतिक्रिया भी नहीं कर सका। प्रतिक्रिया आई भी तो इस बात को लेकर कि कौन किस आतंकी तंजीम के साथ है। आतंक राष्ट्र की चेतना का अपरिहार्य अंग बन गया। देश की रक्षा की जगह सेना की जमीनें बेचना या लीज पर देना आर्मी जीओसी (जनरल ऑफिसर कमांडिंग) से लेकर कोर कमांडर्स का पूर्णकालिक धंधा बन गया। सेना का औसत मेजर जनरल एक राजा से ज्यादा शानो-शौकत में जीने लगा। बीते 75 सालों में पाकिस्तान एक देश नहीं विकृत मनोदशा बन गया है।
Date: 13-03-25
जब महिलाएं काम करेंगी तो देश भी साथ में आगे बढ़ेगा
कनिका महाजन, ( अशोका यूनिवर्सिटी में इकोनॉमी की एसोशिएट प्रोफेसर )
जहां पूरी दुनिया में ही वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से कम है, वहीं क्षेत्रीय असमानताएं भी बहुत ज्यादा हैं। मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका सहित दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा जेंडर-एम्प्लॉयमेंट गैप पाया जाता है। भारत इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। ग्रामीण क्षेत्रों में 25 से 60 वर्ष की आयु की महिलाओं में श्रम-बाजार (लेबर-मार्केट) भागीदारी दर 1980 में 54% से 2017 में 31% तक गिर गई है। ये आंकड़े नेशनल सैम्पल सर्वे (1980) और पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (2017) के हैं। पिछले 5 वर्षों में यह फिर से 50% पर आ गई है। शहरी क्षेत्रों में गिरावट कम नाटकीय थी- 26% से 24% तक। उसके बाद 2022 में यह बढ़कर 30% हो गई। इस वृद्धि के लिए नियमित वेतन वाली नौकरियों के बजाय स्वरोजगार (मुख्य रूप से कृषि में) अधिक जिम्मेदार है। इसके बावजूद भारत की महिलाओं की ओवरऑल वर्कफोर्स भागीदारी दर अभी भी उसके जैसी ही आय और शैक्षिक-स्तर वाले देशों से पीछे है। जहां पुरुषों की रोजगार दर में स्थिरता बनी हुई है, वहीं लैंगिक-विभेद अभी भी व्यापक है।
जब अधिक संख्या में महिलाएं काम करने निकलती हैं तो इससे देश को आर्थिक लाभ होता है और यह अच्छी तरह से दर्ज किया जा चुका है। यही कारण है कि भारत के नीति-निर्माता अब इस दिशा में काम करने के लिए उत्सुक हैं। अनुमानों के मुताबिक वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी दर में मात्र 10 प्रतिशत की वृद्धि से भारत की जीडीपी में 16 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो सकती है। वास्तव में, पूरी दुनिया में ही महिलाओं की रोजगार-दरों में सुधार से वैश्विक जीडीपी में 12 ट्रिलियन डॉलर की वृद्धि हो सकती है।
महिलाओं को श्रम बाजार में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित करने के लिए नीति-निर्माताओं को सबसे पहले यह समझना होगा कि भारत में महिलाओं की वर्कफोर्स में कम भागीदारी क्यों है। शुरुआती रिसर्च सप्लाई-साइड की बाधाओं की एक शृंखला की ओर इशारा करते हैं, जैसे आय और शिक्षा के बीच यू-शेप्ड संबंध, घरेलू श्रम का असमान विभाजन (विशेष रूप से बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल में) और सामाजिक मानदंड, जो महिलाओं को घर से बाहर काम करने के लिए हतोत्साहित करते हैं। विवाह के लिए गैर-कामकाजी महिलाओं को प्राथमिकता देने, सीमित गतिशीलता, अपर्याप्त कौशल-प्रशिक्षण और कार्यस्थल व सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा-संबंधी चिंताओं के कारण भी समस्या और बढ़ जाती है। मातृत्व-अवकाश और चाइल्डकेयर सुविधाओं की कमी के कारण भी काम के अवसर सीमित हो जाते हैं।
हालांकि इनमें से कई बाधाओं की जड़ घर-समाज में है, लेकिन सरकारें इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इसका एक तरीका निर्यात-उन्मुख उद्योगों का समर्थन करना है। जहां सप्लाई-साइड की बाधाएं मध्य-पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया में अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित करती हैं, वहीं बांग्लादेश जैसे देश में निर्यात-संचालित क्षेत्रों की बढ़ती मांग के कारण महिलाओं की रोजगार-दर में वृद्धि हुई है। यह दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों का भी अनुभव रहा है कि निर्यात-केंद्रित मैन्युफैक्चरिंग से श्रम बाजार में महिलाओं का प्रवेश बढ़ता है।
इसमें इतिहास भी मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। अमेरिका में 100 वर्षों के अंतराल में महिला रोजगार दर नाटकीय रूप से बढ़ी। 1890 में यह 5% से कम थी, तो 1990 में 60% से अधिक हो गई। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण मोड़ आया था, जब श्रम की कमी के कारण पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान नौकरियों में भी महिलाओं को अधिक प्रवेश मिला।
मातृत्व लाभ अधिनियम और पोश एक्ट जैसे अच्छे इरादों वाले नियम महिलाओं को काम पर रखने की लागत भी बढ़ाते हैं, जिससे अनजाने में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। अगर चाइल्डकेयर सुविधाएं स्तरहीन हैं या होस्टल्स सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहते हैं तो वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी भी कम ही रहेगी। इसके अलावा, भारत में कौशल-कार्यक्रमों को प्रमुख शहरों के बाहर बहुत कम सफलता मिली है। जहां पुरुषों को ही नौकरी पाने में संघर्ष करना पड़ता है तो महिलाओं को वर्कफोर्स में शामिल करना और चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
Date: 13-03-25
रोजगार की गारंटी हमारी विशेषता, इसकी रक्षा करें
ज्यां द्रेज, ( प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री व समाजशास्त्री )
अगर कोई एक पहल है जिसके लिए भारत को विश्वगुरु कहा जाना चाहिए, तो वह है रोजगार गारंटी। किसी देश में मनरेगा जैसा कानून नहीं है। लेकिन कई देश इस प्रयोग को देख रहे हैं और इससे प्रेरणा ले रहे हैं। मनरेगा के पहले पांच साल ऊर्जा व उम्मीद से भरे थे। बड़ी संख्या में मजदूर काम करने लगे थे। यह उनके और खासकर महिलाओं के लिए नया अवसर था। योजना आकर्षक थी, क्योंकि उस समय मनरेगा की मजदूरी बाजार-मजदूरी से अधिक थी।
कार्यक्रम शुरू होने के पांच साल बाद यानी 2011-12 में 5 करोड़ परिवार मनरेगा के तहत कुछ न कुछ काम कर रहे थे। इस कार्यक्रम से 200 करोड़ से ज्यादा व्यक्ति-दिवस यानी हर नियोजित परिवार को औसतन 40 दिन का काम मिल रहा था। आधे से ज्यादा मजदूर महिलाएं थीं और लगभग 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के थे। ये आधिकारिक आंकड़े हैं। लेकिन दो स्वतंत्र घरेलू सर्वेक्षणों (भारत मानव विकास सर्वेक्षण और राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण) द्वारा भी इनकी पुष्टि की गई है।
आज स्थिति क्या है? कहना बहुत मुश्किल है। अगर हम आधिकारिक आंकड़ों पर गौर करें तो मनरेगा की सेहत बहुत अच्छी है। यह 2011-12 की तुलना में और भी ज्यादा रोजगार पैदा करता है : लगभग 300 करोड़ व्यक्ति-दिवस प्रतिवर्ष। हालांकि, आज इन आधिकारिक आंकड़ों को मान्य करने के लिए कोई स्वतंत्र सर्वेक्षण उपलब्ध नहीं है। कौन जानता है कि इन 300 करोड़ व्यक्ति-दिनों के रोजगार में से कितने असली हैं और कितने नकली? केंद्र सरकार ने यह धारणा बनाई है कि आधार-आधारित भुगतान जैसे तकनीकी उपायों ने मनरेगा में भ्रष्टाचार को लगभग खत्म कर दिया है। लेकिन मनरेगा मजदूरों, कार्यकर्ताओं और अन्य चिंतित नागरिकों का सामूहिक अनुभव बहुत अलग है। उनके बीच, यह व्यापक रूप से साझा धारणा है कि मनरेगा में भ्रष्टाचार बढ़ा है।
जब 20 साल पहले मनरेगा पारित हुआ था, तो उम्मीद थी कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) भ्रष्टाचार को खत्म कर देगा। याद रखें, मनरेगा और आरटीआई अधिनियम एक ही वर्ष में पारित किए गए थे। इनके पीछे विचार यह था कि भ्रष्टाचार गोपनीयता पर पनपता है, और अगर गोपनीयता हटा दी जाए, तो भ्रष्टाचार मुश्किल हो जाएगा।
हालांकि, पारदर्शिता अधूरा कदम है। मनरेगा रिकॉर्ड का खुलासा करने से तब तक कोई खास फर्क नहीं पड़ता जब तक कि रिकॉर्ड सत्यापित न हो जाएं। इस अहसास ने सामाजिक अंकेक्षण के विचार को जन्म दिया। सामाजिक अंकेक्षण के दौरान, मनरेगा रिकॉर्ड को सार्वजनिक रूप से सत्यापित किया जाता है।
सामाजिक अंकेक्षण ने निश्चित रूप से भ्रष्टाचार को कम करने में मदद की है। वे सतर्कता और सत्यापन में बड़ी संख्या में लोगों को शामिल करते हैं। लेकिन रिकॉर्ड की जांच करना ही काफी नहीं है। बदमाशों को सजा देना भी जरूरी है। जब तक उनको सजा नहीं मिलेगी, वे पकड़े जाने के बाद भी धोखाधड़ी करते रहेंगे। पारदर्शिता, सत्यापन, कार्रवाई- भ्रष्टाचार को रोकने के लिए तीनों की आवश्यकता हैं।
यहीं पर सरकारों की बड़ी विफलता है। जब भ्रष्टाचार सामने आता है, तो आमतौर पर ग्राम रोजगार सेवक जैसे छोटे अधिकारियों पर कार्रवाई की जाती है। पर्दे के पीछे काम करने वाले असली बदमाशों को शायद ही कभी सजा मिलती है, भले ही उनका पर्दाफाश हो जाए। यह विफलता आकस्मिक नहीं है। अधिकांश भ्रष्ट बिचौलिए राजनीतिक दलों के साथ मिले हुए हैं। राजनेता उन्हें संरक्षण देते हैं। यह भारत में चुनावी लोकतंत्र का दुखद पहलू है। केवल जनांदोलनों और मजदूर संगठनों के दबाव में ही सरकारें बिचौलियों के खिलाफ कार्रवाई करती हैं। यदि मनरेगा से भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो इस दबाव को बढ़ाना होगा।
यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि मजदूरी का भुगतान समय पर हो। जब इसमें देरी होती है, तो मजदूरों की दिलचस्पी खत्म हो जाती है। इससे सतर्कता नहीं रहती और भ्रष्टाचार फैलता है। भ्रष्टाचार से वित्त-वर्ष के बीच में ही फंड खत्म हो जाता है, क्योंकि बहुत सारा पैसा बर्बाद हो जाता है। फंड खत्म होता है, तो मजदूरी भुगतान में देरी बढ़ती रहती है। मनरेगा इस दुष्चक्र में फंसने के खतरे में है।
मुश्किल में पाक
संपादकीय
बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी यानी बीएलए की ताजा कार्रवाई से साफ हो गया है कि पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ गई हैं। हालांकि बीएलए और दूसरे बलूच विद्रोहियों से पाकिस्तानी हुकूमत को लंबे समय से चुनौती मिलती रही है, मगर इधर के कुछ वर्षों में इन चरमपंथी गुटों ने जिस तरह अपनी रणनीतियां बदली हैं, उससे वहां की सेना और पुलिस के लिए नाकों चने चबाने जैसी स्थिति हो गई है। मंगलवार को बीएलए विद्रोहियों ने एक रेलगाड़ी पर हमला कर दिया। उसमें चार सौ लोगों के सवार थे। पाकिस्तानी सेना का दावा है कि उसने उनमें से तीन सौ लोगों को छुड़ा लिया है और सभी बागियों को मार गिराया है। सेना के प्रवक्ता ने बताया कि विद्रोही कुछ मुसाफिरों को गाड़ी से उतार कर जंगलों की तरफ ले गए थे। इस संघर्ष में करीब तीस सैनिकों के मारे जाने की खबरें सामने आई है। पर इस घटना को लेकर कोई आधिकारिक जानकारी नहीं मिल पा रही है। बताया जा रहा है कि कुछ आत्मघाती बलूच लड़ाके गाड़ी के भीतर मुसाफिरों के बीच मौजूद थे, जिससे उन्हें मुक्त कराने के अभियान में मुश्किलें आर्ईं।
इस घटना से कुछ संकेत साफ हैं कि बीएलए ने न केवल हमले की अपनी रणनीति बदली है, बल्कि अपने सिद्धांतों में भी बदलाव किया है। बीएलए हमेशा से आत्मघाती हमले के खिलाफ रहा है, पर रेलगाड़ी पर हमले में अगर आत्मघाती दस्ते उतारे हैं, तो साफ है कि उसने अपनी नीतियों में बदलाव कर लिया है। दरअसल, बलूचिस्तान प्रांत के लोग लंबे समय से अपनी आजादी की मांग के साथ पाकिस्तानी हुकूमत से संघर्ष करते रहे हैं। पाकिस्तान सरकार उन्हें बंदूक के बल पर दबाने का प्रयास करती रही है। इसका नतीजा यह हुआ कि वहां चरमपंथी संगठन सक्रिय होते गए और समय-समय पर ताकत बटोर कर चुनौती देते रहे हैं। बलूचिस्तान प्रांत में प्राकृतिक संसाधन बहुत है, और रणनीतिक रूप से भी उसका महत्त्व है, इसीलिए चीन ने वहां अपनी परियोजनाएं शुरू की। मगर ग्वादर बंदरगाह पर चीन की पैठ बनी, तभी से बलूच विद्रोही उसका विरोध करते रहे हैं। उनके चरमपंथी हमलों में कई चीनी अधिकारी और कर्मचारी भी मारे जा चुके हैं। मगर पाकिस्तान सरकार सदा की तरह इन विद्रोहियों को बंदूक के बल पर दबाने की कोशिश करती रही है। उसे इस मामले में कामयाबी भी इसलिए मिल जाती रही है कि बलूचिस्तान में सक्रिय चरमपंथी संगठनों के बीच हितों का टकराव देखा जाता रहा है।
मगर अब वहां सक्रिय सभी विद्रोही संगठनों ने हाथ मिला लिया है। पिछले महीने के आखिर में वहां के पांच प्रमुख चरमपंथी संगठनों की बैठक हुई थी, जिसमें फैसला किया गया कि चूंकि सबका मकसद एक है- बलूचिस्तान की आजादी, इसलिए सब साथ मिल कर लड़ेंगे। उन्होंने एलान कर दिया कि पाकिस्तानी हुकूमत और चीन का वे हर तरह से मुकाबला करने को तैयार हैं। जाहिर है, इससे विद्रोहियों की ताकत बढ़ गई है। पिछले कुछ समय में हुए हमलों की प्रकृति बताती है कि वे काफी सोच-समझ कर कदम बढ़ाने लगे हैं और उनकी कार्रवाई का बड़ा असर देखा जा रहा है। पाकिस्तान इन दिनों खुद आर्थिक तंगी का शिकार है, उसकी सेना इन विद्रोही गुटों का कहां तक और कितनी देर तक मुकाबला कर पाएगी, कहना मुश्किल है। वहां की सरकार इस बात को लेकर भी चिंतित है कि विद्रोही गुटों को अफगानिस्तान से शह मिल रही है।
निलंबन हटना सराहनीय
संपादकीय
खेल मंत्रालय ने भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) पर लगा निलंबन हटा लिया है जिससे कुश्ती के खेल में महीनों से बनी अनिश्चितता समाप्त हो गई है और प्रतियोगिताओं के आयोजन का रास्ता साफ हो गया है। संचालन संबंधी गतिविधियों में खामियों के कारण 24 दिसम्बर, 2023 को खेल मंत्रालय ने महासंघ को निलंबित कर दिया था। इससे मात्र तीन दिन पहले ही महासंघ की चुनाव संपन्न हुआ था, और इसकी नई कार्यकारिणी ने कार्यभार संभाला ही था कि एकाएक इसके संचालन संबंधी विवादों से इसका कामकाज प्रभावित होने का अंदेशा पैदा हो गया था। सरकार ने तत्काल महासंघ को निलंबित करते हुए इसके कामकाज देखने की गरज से एक तदर्थ गठित कर दिया था। दरअसल, संजय सिंह ने भारतीय कुश्ती महासंघ का अध्यक्ष चुने जाने के साथ ही महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के गढ़ नंदिनी नगर, गोंडा में अंडर-15 और अंडर-20 राष्ट्रीय चैंपियनशिप आयोजित करने की घोषणा कर दी थी। इससे सरकार खासी नाराज हो गई क्योंकि भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह यौन उत्पीड़न के आरोपों का सामना कर रहे थे। सरकार को चिंता थी कि गोंडा में इन आयोजनों से आम जन में गलत संदेश पहुंचेगा कि सरकार यौन उत्पीड़न के आरोपी अपने सांसद के कुश्ती महासंघ में अरसे से चले आए वर्चस्व को ही पुष्ट कर रही है। बेशक, सरकार ने अपनी छवि को धवल बनाए रखने के लिए कुश्ती महासंघ के निलंबन का कड़ा फैसला लिया लेकिन यह फैसला कुश्ती के व्यापक हितों के विरुद्ध साबित हो रहा था। शंका पैदा हो गई थी कि इस खेल की एक अदद संस्था के न होने से 2026 में होने वाले एशियाई खेलों और 2028 में होने वाले ओलंपिक में पहलवानों के पदक जीतने की संभावना धूमिल पड़ सकती है। खेल मंत्री मनसुख मांडविया ने कहा भी है कि पहलव आगामी टूर्नामेंटों में भाग लेने की अनुमति देने के लिए कुश्ती महासंघ का निलंबन रद्द करना जरूरी था। अब खेल मंत्रालय को इस बात पर नजर रखनी होगी कि कुश्ती महासंघ के पदाधिकारियों के बीच सौहार्द बना रहे। पूर्ववर्ती कुश्ती महासंघ में पदाधिकारियों के बीच शक्ति संतुलन गड़बड़ा गया था। यह सुंतलन सधा रहे तभी कुश्ती के खेल में अपेक्षित परिणाम मिल सकेंगे।
Date: 13-03-25
नई ऊंचाई पर पहुंचेंगे रिश्ते
डॉ. एस. पी. शाही, ( लेखक मगध विवि के कुलपति हैं। )
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मॉरीशस के राष्ट्रीय दिवस समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेंगे। यह उनकी दूसरी राजकीय यात्रा होगी। इससे पहले वह 2015 में भी इस विशेष अवसर पर मुख्य अतिथि रह चुके हैं। यह यात्रा दोनों देशों के बीच विशेष और ऐतिहासिक संबंधों को और अधिक मजबूत करने का अवसर प्रदान करेगी।
प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के दौरान भारतीय नौसेना का एक जहाज पोर्टलुई पहुंचेगा। साथ ही, भारतीय नौसेना की मार्चिंग टुकड़ी, भारतीय वायु सेना की आकाश गंगा स्काई डाइविंग टीम, नौसेना का हेलीकॉप्टर और एनसीसी कैडेटों की टीम भी समारोह में भाग लेगी। यह यात्रा भारत और मॉरीशस के बीच गहरे द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास होगी। भारत और मॉरीशस कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में सहयोग कर रहे हैं। इनमें शामिल हैं समुद्री सुरक्षा, विकास साझेदारी, क्षमता निर्माण, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सहयोग, संस्कृति एवं जन-से जन संपर्क । भारत ने मॉरीशस में कई महत्त्वपूर्ण विकास परियोजनाओं में भागीदारी की है। 2016 में भारत ने 353 मिलियन अमेरिकी डॉलर का अनुदान दिया, जिससे मेट्रो एक्सप्रेस प्रोजेक्ट, सुप्रीम कोर्ट बिल्डिंग, नये अस्पताल, सामाजिक आवास परियोजना और स्कूल के बच्चों के लिए डिजिटल टैबलेट्स जैसी परियोजनाओं को वित्त पोषित किया गया। 2017 में 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर की ऋण सहायता दी गई, जिससे मेट्रो प्रोजेक्ट (फेज और), फायर- फाइटिंग वाहन, सौर ऊर्जा संयंत्र, फॉरेंसिक साइंस लैब, राष्ट्रीय अभिलेखागार और मॉरीशस पुलिस अकादमी जैसी 10 परियोजनाओं को वित्त पोषित किया गया। जनवरी, 2022 में 96 सामुदायिक विकास परियोजनाओं की योजना बनाई गई, जिनमें से 51 परियोजनाओं का उद्घाटन हो चुका है।
भारत ने हर संकट के समय मॉरीशस की सहायता की है। चाहे कोविड-19 महामारी हो, वाकाशियो तेल रिसाव संकट हो या चक्रवात चिडो हो । भारत ने इन चुनौतियों का सामना करने में मॉरीशस को महत्वपूर्ण सहायता प्रदान की। 2023-24 में मॉरीशस भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत था। 2021 में व्यापक आर्थिक सहयोग और भागीदारी समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिससे दोनों देशों के व्यापारिक संबंध और मजबूत हुए। भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की ग्यारह प्रमुख कंपनियां मॉरीशस में कार्यरत हैं, जिनमें एसबीआई, एलआईसी, बैंक ऑफ बड़ौदा, इंडियन ऑयल (मॉरीशस) और टेलीकम्युनिकेशन कंसल्टेंट इंडिया लिमिटेड शामिल हैं। मॉरीशस को भारत की तकनीकी शक्ति का लाभ मिल रहा है। 1986 में भारत और मॉरीशस के बीच उपग्रह ट्रैकिंग और कमांड स्टेशन स्थापित करने के लिए समझौता हुआ था एक नवम्बर, 2023 को भारत और मॉरीशस रिसर्च एंड इनोवेशन काउंसिल के बीच संयुक्त उपग्रह विकास के लिए समझौता हुआ।
मॉरीशस की 1.3 मिलियन जनसंख्या में 70% भारतीय मूल के लोग हैं। 1976 स्थापित महात्मा गांधी संस्थान भारत- मॉरीशस के सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा देता है। मॉरीशस में स्थित विश्व हिन्दी सचिवालय हिन्दी भाषा के वैश्विक प्रचार के लिए भारत और मॉरीशस की एक संयुक्त पहल है। 1987 में स्थापित इंदिरा गांधी भारतीय संस्कृति केंद्र विदेश स्थित भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक केंद्र है। ओसीआई कार्ड के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं, जिससे मॉरीशस के भारतीय मूल के नागरिक अपनी 7वीं पीढ़ी तक भारतीय मूल का प्रमाणपत्र प्राप्त कर सकते हैं।
मॉरीशस भारत के शिक्षा एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम के सबसे बड़े लाभार्थियों में से एक है, जिसके तहत 2002 से अब तक 4940 मॉरीशस के नागरिकों को प्रशिक्षण दिया गया है। इंडिया – अफ्रीका मैत्री छात्रवृत्ति योजना के तहत हर साल 60 छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। हर साल लगभग 200 मॉरीशस के छात्र भारतीय विश्वविद्यालयों में स्वयं वित्त पोषित पाठ्यक्रमों में दाखिला लेते हैं। वर्तमान में 2300 भारतीय छात्र मॉरीशस में विभिन्न क्षेत्रों जैसे चिकित्सा, होटल प्रबंधन और व्यवसाय अध्ययन में पढ़ाई कर रहे हैं।
मॉरीशस ने 2004 में भारतीय पर्यटकों के लिए वीजा मुक्त व्यवस्था शुरू की, जिससे भारतीय पर्यटक एक महीने तक बिना वीजा के मॉरीशस जा सकते हैं। भारत भी मॉरीशस के नागरिकों को निःशुल्क वीजा प्रदान करता है। कोविड- 19 से पहले हर साल 80,000 भारतीय पर्यटक मॉरीशस जाते थे, और 30,000 मॉरीशस के नागरिक भारत आते थे। यह संख्या अब फिर से बढ़ रही है। प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा विकास साझेदारी, क्षमता निर्माण, समुद्री सुरक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों को और मजबूत करेगी। साथ ही, यह दोनों देशों के बीच मजबूत वित्तीय और व्यापारिक संपर्क को बढ़ावा देने और ऐतिहासिक जन-से जन संबंधों को और अधिक गहरा करने का अवसर भी प्रदान करेगी। भारत और मॉरीशस के बीच संबंध केवल कूटनीतिक ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी की यह यात्रा इन मजबूत संबंधों को नई ऊंचाइयों पर ले जाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगी।
सैटेलाइट संचार
संपादकीय
यह सुखद और स्वागतयोग्य है कि भारत में सैटेलाइट इंटरनेट सेवाओं का आगाज होने वाला है। भारतीय कंपनी एयरटेल और एलन मस्क की स्टारलिंक के बीच सौदा हुआ है। स्टारलिंक अभी दुनिया के चुनिंदा देशों में सैटेलाइट फोन और इंटरनेट की सुविधा मुहैया कराती है। यह सौदा स्टारलिंक के लिए एक बड़ी कामयाबी है कि उसे दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश में सेवाएं शुरू करने का मौका मिलने जा रहा है। यह सौदा अमेरिकी सैटेलाइट इंटरनेट दिग्गज को एयरटेल के रिटेल स्टोर नेटवर्क का उपयोग करके पूरे भारत में अपने डिवाइस वितरित करने की अनुमति देगा। भारत सरकार ने भी अगर साथ दिया, तो यह सौदा भारत में संचार क्रांति को बल प्रदान करेगा। गौर करने की बात है कि स्टारलिंक की घोषणा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वाशिंगटन में मस्क से मुलाकात के कुछ सप्ताह बाद हुई है। दोनों के बीच अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी और नवाचार पर चर्चा हुई थी, उसके बाद ही अगर सौदा हुआ है, तो उसका विशेष महत्व है। यह भारत में मस्क और उनकी कंपनी की सेवाओं का नया आगाज है।
यह सौदा अगली पीढ़ी की सैटेलाइट कनेक्टिविटी के लिए कंपनी की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। एयरटेल की जिम्मेदारी बढ़ गई है। यह बताते चलें कि मूल रूप से स्टारलिंक मस्क की स्पेसएक्स कंपनी की सैटेलाइट इंटरनेट सेवा है। यह पृथ्वी की निचली कक्षा में स्थापित सैटेलाइट के माध्यम से तेज इंटरनेट सेवाएं देने का वादा करती है। सैटेलाइट सेवा से सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि जिन इलाकों तक अभी इंटरनेट सेवा नहीं पहुंची है, वहां भी उसकी शुरुआत हो जाएगी। हालांकि, यहां एक बड़ी चुनौती, सैटेलाइट सेवा शुल्क की होगी। आशंका जताई जा रही है कि स्टारलिंक की सेवाएं अपेक्षाकृत महंगी होंगी। एयरटेल क्या स्टारलिंक की सेवाओं को आम भारतीयों की पहुंच में रखने के प्रयास करेगी ? अभी हमारे शहरों में तो इंटरनेट सेवाओं की पूरी पहुंच हो गई है, पर दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में सेवाओं का अभाव है। इन इलाकों में आमतौर पर वंचित या अभावग्रस्त लोग ज्यादा रहते हैं। ऐसे में, इन लोगों तक स्टारलिंक की सेवाएं पहुंचाने में परेशानी हो सकती है। अगर सेवा शुल्क किफायती न हुआ, तो फिर इस सेवा का विस्तार प्रभावित होगा। यह समझने की बात है कि केबल या फाइबर ऑप्टिक्स पर निर्भर रहने वाली पारंपरिक इंटरनेट सेवाओं के विपरीत, स्टारलिंक सीधे सैटेलाइट के माध्यम से इंटरनेट सेवा प्रदान करता है। यह तय है, भविष्य में जो लोग स्टारलिंक की सेवाएं लेंगे, उन्हें कम से कम नेटवर्क की समस्या से नहीं जूझना होगा। ध्यान रहे, आंधी, तूफान, आपदा के समय जब संचार व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है, तब भी सैटेलाइट से जुड़ा फोन या यंत्र काम करता रहता है। अतः सैटेलाइट से जुड़ी संचार सेवाओं की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता।
अब सवाल यह है कि क्या देश में उपलब्ध 5जी सेवाओं से सैटेलाइट सेवा ज्यादा तेज होगी? क्या सैटेलाइट सेवा का वर्चस्व हो जाएगा और 4जी या 5जी सेवाएं अंत की ओर बढ़ चलेंगी ? वास्तव में, अभी तक जो स्थितियां हैं, उसमें 5जी सेवाओं को ज्यादा तेज माना जाता है। मतलब, स्टारलिंक को एयरटेल के साथ मिलकर अपनी उपयोगिता साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। भारत में किसी भी सेवा के व्यापक विस्तार के लिए उसका बहुत उपयोगी होने के साथ-साथ किफायती होना भी जरूरी है।
Date: 13-03-25
बलूचिस्तान में लहूलुहान पाकिस्तान
सुशांत सरीन, ( सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन )
पाकिस्तान में जाफर एक्सप्रेस ट्रेन को हाईजैक करने की घटना बलूचिस्तान आंदोलन के कई पहलुओं को | उजागर कर रही है। बलूच विद्रोहियों ने बीते कुछ वर्षों में न सिर्फ अपनी क्षमताएं बढ़ाई हैं, बल्कि रणनीति में भी खासा बदलाव किया है। अब जिस तरह से वे स्तब्ध कर देने वाले हमले करने लगे हैं, वह संकेत है कि बलूच विद्रोही बेहद आक्रामक मुद्रा में पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान से टकराने का इरादा रख रहे हैं।
यह सब अनायास नहीं है। वास्तव में, पाकिस्तान के वजूद में आने के साथ ही बलूचिस्तान विवाद शुरू हो गया था। 1947 में जब हिन्दुस्तान से अलग होकर पाकिस्तान बना, तो कलात रिवासत के खान शासक ने अपनी आजादी का एलान कर दिया था, जिसके जवाब में पाकिस्तान ने अपनी फौज भेजकर कलात पर कब्जा कर लिया। इसके बाद 1950, 1960 और 1970 के दशक में भी कई बार बगावतें हुई, जो कुछ समय के बाद कुचल दी जाती थीं। इन सबने पाकिस्तानी हुक्मरानों के प्रति बलूचों में नफरत का भाव पैदा किया। उनमें यह भी सोच पनपती गई कि पंजाबी बहुल पाकिस्तान बलूच लोगों को हिकारत की नजर से देखता है और उनके वाजिब हक हुकूक उनको नहीं देता। यहां तक कि बलूचिस्तान के संसाधनों का भी अपने हित में इस्तेमाल करता है।
पाकिस्तानी हुकूमत का रवैया भी ऐसा ही था। 1950 के दशक में ही नौरोज खान के नेतृत्व में जो बगावत हुई थी, उसे धोखे से खत्म किया गया था। नौरोज कबाइली नेता थे और पाकिस्तानी फौज ने उन्हें समझौते का आश्वासन देकर बुलाया था। अपने सात बेटों और कुछ समर्थकों के साथ वह जब आए, तो उन सबको गिरफ्तार कर लिया गया और उनके बेटों को फांसी दे दी गई। बाद में नौरोज की भी जेल में मौत हो गई ऐसी घटनाओं ने बलूच आबादी के मन में नासूर पैदा कर दिया है।
बगावत की नई लहर 2001 से शुरू हुई है, जब अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज ने तालिबान का तख्ता पलट किया। हालांकि, शुरुआत में इसका बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं दिखा, लेकिन 2006 में जब आजाद बलूचिस्तान की मांग करने वाले राष्ट्रवादी नेता नवाब अकबर बुगती की पाकिस्तानी फौज ने हत्या कर दी, तब यह आग बहुत तेजी से भड़क उठी। इसके बाद तो नौजवानों की इसमें खासी सहभागिता देखी गई। अब करीब 20 साल होने को है, तो इस आंदोलन की तीव्रता में भले सर्दी गरमी का आलम रहा हो, लेकिन 2021 में अफगास्तिान पर तालिबान शासन की पुनर्स्थापना के साथ इसमें काफी तेजी आई है। इनके हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इनका संगठनात्मक ढांचा मजबूत हुआ है। नौजवान लड़ाकों को शामिल किया जा रहा है। रणनीतियां बदली जा रही हैं और कबीलों व कबाइली नेताओं के आसपास सिमटे इस आंदोलन को बलूच राष्ट्रीयता का रूप दे दिया गया है।
ये वे लोग हैं, जो हथियारों के बल पर बलूचिस्तान पाना चाहते हैं। मगर इसके समानांतर ही यहां एक राजनीतिक आंदोलन भी चल रहा है, जिसकी कमान भी नौजवानों के हाथों में ही है। डॉ महरंग बलूच इसकी एक प्रतीक हैं। इस आंदोलन में औरतें काफी संख्या में शामिल हुई हैं। दरअसल, यहां की औरतें अपने परिजनों की सुरक्षित रिहाई को लेकर मुखर हुई हैं, जिनको पाकिस्तानी फौज ने वक्त-वक्त पर अगवा किया है। ने न जाने उनमें से कितने मार दिए गए हैं, मगर इन औरतों को विश्वास है कि फौजी कब्जे में जो बलूच पुरुष हैं, उनकी एक न एक दिन जरूर रिहाई होगी। इस राजनीतिक आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि यह भी है कि चंद जिलों में होने वाले विरोध-प्रदर्शन अब पूरे बलूचिस्तान में होने लगे हैं, जो पाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का करीब 45 फीसदी हिस्सा है। वे एक तरह से बलूचों के मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।
पाकिस्तानी फौज या रियासत की जवाबी कार्रवाई अब भी पहले जैसी ही है। जब कभी ऐसा कोई आंदोलन होता है, तो पाकिस्तानी हुक्मरान या तो आंदोलनकारियों को खरीद लेते हैं, ओहदे का लालच देते हैं, पैसे बांटते हैं या फिर डरा-धमकाकर पूरे आंदोलन को कुचल देते हैं। कहने को तो यहां चुनाव भी होते हैं, लेकिन फौज ही तय करती है कि मुख्यमंत्री का पद किसे मिलेगा ?
चूंकि पाकिस्तानी रणनीति दमन करके नियंत्रण हासिल करने की रही है, इसलिए खासतौर से नौजवानों में इस्लामाबाद के प्रति नाराजगी काफी बढ़ गई है।
देखा जाए, तो ट्रेन अपहरण के बाद भी पाकिस्तानी फौज के पास बहुत ज्यादा विकल्प नहीं हैं। सैन्य अभियान का रास्ता जरूर चुना गया है, लेकिन इसकी वजह पाकिस्तानी फौज की घटती लोकप्रियता है, क्योंकि पाकिस्तान के भीतर बलूचों को कुचलने की आवाजें उठती रही हैं और फौज ऐसा करने में नाकाम
रही है। दरअसल, बलूचों को उनके अपने इलाके में मात देना मुश्किल है। पहाड़ी घाटियों में गुरिल्ला युद्ध में वे इतने माहिर हैं कि फौज उनसे पार नहीं पा सकी है। ट्रेन अपहरण के बाद किए गए सैन्य अभियान में भी कई फौजियों के मारे जाने की खबर है। एक विकल्प राजनीतिक पहल का भी है, लेकिन दिक्कत यह है कि पाकिस्तानी फौज यहां की राजनीति को नियंत्रित करना चाहती है, लिहाजा जितना वह नियंत्रित करेगी, बलूचों से उतनी तेज प्रतिक्रिया आएगी।
..इन सबसे यही लग रहा है कि यहां के हालात अभी और खराब होंगे। बलूचों की संख्या पाकिस्तान की आबादी की बमुश्किल पांच-सात फीसदी होगी, लेकिन वे पूरे पाकिस्तान पर भारी पड़ते नजर आते हैं। बलूचिस्तान की सरहद ईरान व अफगानिस्तान से मिलती है, जहां से उनको पूरा समर्थन मिलता है। पाकिस्तानी फौज की कोई कार्रवाई इसलिए भी सफल नहीं होती, क्योंकि बलूच विद्रोही भागकर पड़ोसी देशों में चले जाते हैं।
रही बात भारत की, तो यहां उनके समर्थक इसलिए हैं, क्योंकि बलूचों में शेष पाकिस्तानियों जैसी कट्टरता नहीं है। वे मुसलमान जरूर हैं, पर इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ रहे हैं। फिर, कई भारतीय यह भी मानते हैं कि पाकिस्तान अगर घरेलू मुश्किलों में उलझा होता है, तो भारत के लिए मुश्किलें नहीं खड़ी करता। जबकि, बलूच की नजर में पाकिस्तान का दुश्मन उनका दोस्त है और वे भारत को अपना स्वाभाविक दोस्त मानते हैं। हमारे यहां से बलूचों के पक्ष में बेशक कुछ बयान आ जाते हैं, लेकिन अब तक ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि भारत सरकार ने इनका कोई समर्थन किया है। हां, पाकिस्तान ने इनका ‘भारत कनेक्शन’ साबित करने का प्रयास जरूर किया था, पर अपनी उस चाल में वह मुंह के बल गिर चुका है।