12-11-2018 (Important News Clippings)
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Date:11-11-18
Unelected bodies like RBI are vital for democracy
SA Aiyar, (Swaminathan S Anklesaria Aiyar is consulting editor of The Economic Times.)
The recent controversy on the independence of the RBI from the government raised important issues of principle. Some analysts said that the government was elected while the RBI was not, and in a democracy the elected body must take precedence over the unelected one. This is at best a partial truth and at worst a very dangerous argument. Successful democracies depend as much on unelected institutions as elected ones. Which institutions are the most respected in India? The Supreme Court, Election Commission and the armed forces.
All three are unelected. Some will mention a fourth (also unelected) institution, the Comptroller and Auditor General. By contrast, citizens view most elected politicians as rascals and brigands. This does not mean that elected politicians have no legitimacy. But their legitimacy flows from the fact that their power is temporary, given for a few years by voters and withdrawable for non-performance. The mere fact that politicians are elected does not place them above institutions like the courts, Election Commission or Constitution. Lalu Yadav won more than one election while being tried for corruption, and declared that he had been exonerated by the “people’s court”. That was rhetorical rubbish. An election is not a people’s court, and does not determine criminal guilt. That must be determined by a non-elected legal process that disregards totally the mere fact that the accused is politically popular.
James Madison, a key architect of the US constitution, said that elected governments could easily become instruments of majoritarian tyranny, or tyranny of powerful vested interests. He noted that true freedom required the primacy of individual rights, which should not be trampled on by temporary elected majorities. Hence he emphasised the need for checks and balances on elected governments, typically through empowered but unelected institutions, to check political actions that might have short-term attractions but carry long-term dangers. Individual rights flow from equality before the law, enshrined in the Constitution. Group rights, however, are mainly politics. Much political activity aims to secure advantages (or penalties) for this or that group, in the name of religion, caste, ethnicity, regionalism, or other such divides. Such activity can violate the fundamental rights of individuals, and hence can be struck down by the courts.
Remember, the Constituent Assembly that framed the Constitution was unelected. Did that diminish its legitimacy, or make it inferior to elected bodies? Not at all. Indeed, a key feature of the Constituent Assembly was that its members didn’t have to worry about getting re-elected, and so could resist pressures from this or that group. They were empowered to focus on the long run, on basic principles that merited precedence over short-term expedients, temptations and moods. Of course, the unelected Constituent Assembly could be challenged by subsequent elected governments, that amended the Constitution over a hundred times. But every amendment required a two-thirds majority in both Houses of Parliament plus the sanction of a majority of states. This ensured that Constitutional amendments were deliberated on at several levels, enjoyed very wide legitimacy, and could not be engineered for short-term political gains by politicians seeking to stay in power by hook or crook.
India’s top unelected bodies are not entirely independent of political control. Governments have a role in appointing judges, election commissioners, chiefs of the armed forces, and CAGs. This ensures some limited accountability to elected governments. Some analysts feel that the government has been robbed of a sufficient say in judicial appointments by the Constitutional interpretation of the Chief Justice. But even Supreme Court judges can be impeached by Parliament. Their independence is not absolute.
In sum, every democracy needs checks and balances. India needs independent, unelected institutions to check the power of elected governments. At the same time, India also needs political checks on independent institutions, that cannot remain completely unaccountable. Debates on the strength and legitimacy of such checks and balances are both inevitable and healthy in a democracy. There will always be potential or actual clashes between different principles. A Constitution is a living document that will sometimes need to change with the times, for all values are not written in stone. In the Odyssey, Ulysses told his crewmen to plug their ears to avoid being seduced by the songs of the sirens. He told his crew to tie him to the mast, and ignore all the pleas he might make when tempted by the sirens, for his own good. Every elected government should submit to being tied to the mast by unelected but independent institutions, to avoid succumbing to short-term siren temptations.
Date:11-11-18
एकता और अस्मिताएं
संपादकीय
भारत के बारे में होने वाली वैचारिक बहसें किसी भी विचारधारा से क्यों न उत्पन्न हों, इस बात पर अवश्य सहमत होती हैं कि यहां सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और प्रतीकों की विविधता है। पर एक राष्ट्र-राज्य के रूप में ‘विविधता में एकता’ भारत की अद्वितीय विशेषता है। इस विशेषता को विरासत मानते हुए हम अपनी ‘परंपरा’ से जोड़ते और एक ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं जहां विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में कोई संघर्ष या द्वंद्व नहीं है और हर समूह को फलने-फूलने की सकारात्मक स्थिति उपलब्ध है। जबकि यथार्थ में यह परिकल्पना साकार होती नजर नहीं आती। ‘विविधता में एकता’ भारतीय समाज के जिन सांस्कृतिक प्रतीकों पर निर्मित है, वे इन समूहों के सामाजिक-आर्थिक संबंध को ऐतिहासिक ढंग से नहीं प्रस्तुत करते हैं।
वे भारत के राजनीतिक मानचित्र पर संस्कृति के बेलबूटों के समान हैं, जिनका होना एक-दूसरे के प्रभाव से मुक्त है। जबकि समूहों के पारस्परिक संबंध और अस्मिता एक भिन्न कहानी कहते हैं। इस कहानी में सहअस्तित्व के साथ संघर्ष की भी संभावनाएं हैं। भारत की परिकल्पना करने वालों का एक धड़ा ऐसा है जो एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा के नाम पर हर विविधता को एकरूपता में बदल कर ‘वृहद् भारत’ की रचना करना चाहता है। भला कोई व्यक्ति या समूह क्यों अपनी पहचान की कीमत पर किसी ‘अन्य’ द्वारा दी गई पहचान को अपनाएगा? और अगर दबाव में अपनाएगा तो भावानात्मक संबंध स्थापित नहीं कर पाएगा। स्वाभाविक है कि यह तरीका प्रतिरोध को जन्म देगा। इससे कमजोर समूहों में न केवल डर पैदा होगा, बल्कि घृणा और हिंसात्मक प्रतिरोध की प्रवृत्तियों को बल मिलेगा। कुछ समूह अपनी विशिष्ट पहचान में भारत-बोध को अस्वीकार करना चाहते हैं।
वे अपने सांस्कृतिक इतिहास के उन किस्सों-कहानियों को सर्वोपरि मानते हैं, जो उन्हें भारत से भिन्न सिद्ध करते हैं। न चाहते हुए भी यह स्वरूप एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा का पूरक बन जाता है। विडंबना यह है कि ये दोनों धाराएं हर सांस्कृतिक समूह को अपनी तरफ से प्रमाणपत्र देने को उत्सुक हैं। एक तीसरी धारा ‘निरपेक्षता’ की पैरोकार है। यह संविधान सम्मत है, लेकिन इसकी उतनी स्वीकृति नहीं बन पा रही है, क्योंकि अन्य दो धाराओं ने मीडिया जैसे साधनों के प्रयोग द्वारा ऐसी संकटकालीन स्थिति का प्रोपगंडा किया है, जहां बिना मजबूत समूह के अस्तित्व का संकट दिखाया जा रहा है। इसे ही स्टेन कोहेने ने मोरल पैनिक की संज्ञा दी है। इस तरह दो परस्पर विरोधी आख्यान एक-दूसरे के पूरक बन कर दो भिन्न राजनीतिक धाराओं को ऊर्जा दे रहे हैं। ये संवाद, सौहार्द और सह-अस्तित्व के बदले अलगाव की हर संभावना को खोजने और पुष्ट करने का कार्य कर रहे हैं। इनके प्रभाव में ही कभी क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को एक राज्य से खदेड़ा जाता है, तो कभी धर्म के नाम पर उन्माद फैलाया जाता है।
कभी भौगोलिक अवस्थिति को मुद्दा बना कर अलग राज्य की मांग की जाती है, तो कभी भाषायी पहचान को संवैधानिक दर्जा दिलाने के नाम पर एक अलग भाषा समूह के अस्तित्व को सिद्ध किया जाता है। प्रत्येक समूह अपनी पहचान को कानूनी वैधता दिलाना चाहता है। दरअसल, ऐसा करके वे देश के हिस्से में अपना हक बढ़ाना चाहते हैं, जिसके लिए वे अपनी विशिष्ट स्थिति को न्यूनतम शर्त मान रहे हैं। इनका मानना है कि इस शर्त का पूरा होना उन्हें दूसरे सांस्कृतिक समूहों से अधिक ताकतवर बना देगा। यह ताकत देश के लिए कितनी हितकर होगी? ‘अस्मिता की राजनीति’ का एक ऐसा माहौल बन चुका है कि हर सांस्कृतिक समूह ने समुदाय के कल्याण के सापेक्ष अपने लोगों को लामबंद कर लिया है। ये अपने को समुदाय का रहनुमा घोषित कर उसे ताकतवर बनाने के लक्ष्य से जोड़ते हैं। इस लक्ष्य को वैधता देने के लिए समूह, अपने साथ हुए अन्यायों, उपेक्षा, गैर-बराबरी अवसरों की असमानता के तर्कों और प्रमाणों को प्रस्तुत करते हैं। वे अपनी सामुदायिक पहचान को सबसे ऊपर रखते हैं। वे सिद्ध करते हैं कि इस पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए दूसरे समूहों के हितों से टकराव अनिवार्य है। इस समूह के निर्णय ‘साझा हितों की लड़ाई’ के लिए प्रचारित किए जाते हैं, जबकि ये सत्ता और आर्थिक प्रतिष्ठानों पर वर्चस्व के लिए होते हैं। ऐसे समूह जो सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से पीछे छूट जाते हैं, वे सामाजिक न्याय के नाम पर अपने समूह की मांग को जायज ठहराते हैं और दूसरे समूह से अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ने लगते हैं।
इससे दूसरे समूह के रीति-रिवाजों, लोकाचारों के प्रति नकारात्मक और हेय दृष्टि पनपती है। प्राय: अस्मिता की राजनीति की शुरुआत सामाजिक आंदोलनों से होते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप तक पहुंचती है। बाद में राजनीतिक हस्तक्षेप द्वारा बदलाव का लक्ष्य सत्ता पर कब्जा बनाने की लोलुपता में बदल जाता है। ऐसी स्थिति में अस्मिता की लड़ाई को हवा देना और उसे बनाया रखना एक राजनीतिक मजबूरी बन जाती है। इस राजनीतिक मजबूरी का प्रमाण राजनीतिक दलों की जातीय, भाषायी, धार्मिक और क्षेत्रीय संबद्धता में देख सकते हैं। हर सांस्कृतिक समूह में यह राजनीतिक चेतना विकसित हो चुकी है कि शक्ति के केंद्रीकरण और अवसरों की असमानता की खाई को राजनीतिक व्यवस्था पर कब्जा करके पाटा जा सकता है। उनके लिए सत्ता पर कब्जा राज्य के हस्तक्षेप के रास्ते उत्पादन के साधनों पर कब्जा करना है। विडंबना यह है कि समूह विशेष में शक्ति का केंद्रीकरण ‘अन्य’ के लिए अवसरों की असमानता और शोषण के रूप में प्रकट होता है। वे इस असमानता के लिए राज्य की व्यवस्था को उत्तरदायी मानने लगते हैं। इस तरह जिस व्यवस्था को सकारात्मक भेदभाव करते हुए उपेक्षितों और शोषितों का पक्ष लेना था वह उनके विरुद्ध खड़ी हो जाती है।
एक तरह से हमारी राजनीतिक चेतना प्रतिशोधात्मक बनती जा रही है। हर समूह सत्ता प्रतिष्ठानों पर वैसे ही नियंत्रण करना चाहता है जैसे इनके पूर्ववर्तियों ने किया था। तो फिर राजनीतिक चेतना के प्रसार द्वारा लोकतंत्रात्मक मूल्य व्यवस्था- स्वतंत्रता, उदारता, सहिष्णुता और बंधुत्व का क्या? गरीबी, असमानता, विस्थापन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौतियों के समाधान का रास्ता कैसा हो? क्या ये चुनौतियां विविधता के आयाम- धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के सापेक्ष केवल एक राजनीतिक मुद्दा हैं? क्या इन आयामों पर किसी समूह के पीछे रहने का कारण उनकी सांस्कृतिक अस्मिता है या वे सामाजिक-ऐतिहासिक कारण, जो आर्थिक असमानता और राजनीतिक वर्चस्व के लिए उत्तरादायी हैं? ऐसी स्थिति में एक संभावित और सबसे सरल उत्तर है कि इनका समाधान राज्य द्वारा किया जा सकता है। इस उत्तर से उत्साहवर्धक माहौल तो बनता है, लेकिन हमारे रोजमर्रा के आपसी संबंध, जो अपने समूह से भिन्न समूहों से या तो दूरी बनाए हुए हैं या उनके साथ अंत:क्रिया के दौरान संदेह का भाव रखते हैं, उसका क्या? हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं, बल्कि यह एक भाव और अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है। हमें एक नागरिक बोध विकसित करने की आवश्यकता है, जिसके अनुसार साथ रहने की आवश्यकता केवल एक संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य के नागरिक होने की मजबूरी नहीं, बल्कि यह एक भाव और अभिवृत्ति है, जो ‘भारतीय’ होने के कारण स्वाभाविक रूप से हमें एकजुट रखती है।
Date:11-11-18
वे जो पीछे छूट गए
पी. चिदंबरम
भारत में दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति है। 182 मीटर ऊंची इस मूर्ति को चीनी उत्पादों और मजदूरों की मदद से एक भारतीय ने गढ़ा और खड़ा किया है। इसकी अनुमानित लागत तीन हजार करोड़ रुपए है और इस धारणा के विपरीत कि इसके लिए राज्य सरकार ने पैसा दिया है, इसकी लागत का पूरा खर्च सार्वजनिक क्षेत्र के केंद्रीय उपक्रमों ने उठाया है। महात्मा गांधी के सिपहसालार, जीवनपर्यंत कांग्रेसी, जवाहरलाल नेहरू के सहयोगी और प्रखर देशभक्त, और एक रूढ़िवादी राष्ट्रवादी सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति बनने से मैं खुश हूं।
जब तक वे जीवित रहे, उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या करने वाले उन्मादियों को कभी माफ नहीं किया (बतौर गृहमंत्री उन्होंने आरएसएस पर सत्रह महीने का प्रतिबंध भी लगाया था), लेकिन आरएसएस और भाजपा दोनों ने ही पाया है कि इतिहास के इस अध्याय को भूल जाने में ही समझदारी है। हम कुछ पलों के लिए उत्सव मना सकते हैं, पर उस क्षण के बीत जाने के बाद हमें हर हाल में दुनियादारी के मुद्दों पर लौटना चाहिए।
डरावने तथ्य
भारत कुछ अन्य मामलों में भी ‘ऊंचाई’ पर आसीन है। अंतरराष्ट्रीय भुखमरी सूचकांक में भारत एक सौ तीनवें नंबर पर है जो भुखमरी की गंभीर स्थिति की ओर स्पष्ट इशारा है। इस सूचकांक में सिर्फ सोलह देश हमसे ऊपर हैं (मतलब हमसे भी खराब)। लैंगिक असमानता सूचकांक में कुल एक सौ अट्ठासी देशों में भारत का स्थान एक सौ पचीसवां है। आर्थिक स्वतंत्रता सूचकांक में एक सौ अस्सी देशों में भारत का स्थान एक सौ तीसवां है। मानव विकास सूचकांक में कुल एक सौ नवासी देशों में हमारा स्थान एक सौ तीसवां है। भारत तीसरे पायदान के देशों में है। प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में एक सौ अस्सी देशों में हमारा स्थान एक सौ अड़तीसवां है। प्रति व्यक्ति जीडीपी के मामले में भारत एक सौ अट्ठासी देशों में एक सौ चालीसवें पर है। यहां भी हम सबसे नीचे तीसरे पायदान के देशों में हैं। शिक्षा सूचकांक में स्थिति और बुरी है : कुल एक सौ इक्यानबे देशों में हम एक सौ पैंतालीसवें नंबर पर हैं। हम इस बात से संतुष्ट हो सकते हैं कि अधिकतम एक सौ इक्यानबे देशों में सर्वेक्षणों के बाद बनाए गए किसी भी सूचकांक में हम एक सौ बयासी की ‘ऊंचाई’ पर नहीं पहुंच पाए।
यद्यपि सूचकांक में 103, 125, 130, 138, 140 और 145 पर होना कोई ऐसी संख्या नहीं है, जिसे हम संदेहास्पद आंकड़ों का हवाला देकर हल्के में खारिज कर दें। सूचकांक में हमारा क्रम या स्थिति हमें क्या बताते हैं? यह कि देश की ऊंची वृद्धि दर और आर्थिक क्षेत्र में अच्छी खासी उपलब्धियां और प्रगति भी आबादी के एक खासे बड़े हिस्से को अतिशय गरीबी से बाहर निकाल पाने में विफल रही है। हम इसकी संख्या या आकार पर बहस कर सकते हैं लेकिन अगर इसे बीस फीसद भी माना जाए तो इसका मतलब है कि पच्चीस करोड़ लोग पीछे छूट गए हैं। गरीबी यद्यपि हर धर्म, जाति और समुदाय में है, पर इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि इस पच्चीस करोड़ अति निर्धनों में अधिकतर संख्या दलितों, आदिवासियों, अति पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और दिव्यांगों की है।
अनाड़ी सरकार
सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों ने गरीबी को और बुरी शक्ल दे दी है। हमें स्कूली ढांचे, शिक्षकों और पढ़ाई के तरीकों को लेकर चिंतित होना चाहिए। हम चिकित्सकों, नर्सों, पैरा मेडिकल स्टाफ और तकनीशियनों की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं। उदारीकरण के बावजूद, अब भी बहुत सारे नियंत्रण हैं, नियामक ही नियंत्रक बनते जा रहे हैं। दखलंदाजी वाले कानूनों, करों की ऊंची दर, फायदा लेकर अनुचित लाभ पहुंचाना और निरीक्षकों तथा जांचकर्ताओं के पास दंडात्मक शक्तियों- जैसी चीजों के जरिए सरकार की सख्ती ने उद्यमिता को हतोत्साहित किया है। लैंगिक असमानता महिलाओं को अवसरों से वंचित करती है और आर्थिक वृद्धि पर बुरा असर डालती है। मीडिया जगत में भय का माहौल है। ये बुराइयां हमेशा से ही रही हैं, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक माहौल के दिनोंदिन बेहतर और अधिक स्वतंत्र होते जाने के बजाय ये चार वर्ष बढ़ती असहिष्णुता, कानून का डर खत्म होने, भीड़ की हिंसा, भय और घृणा के प्रसार के साक्षी रहे हैं- और सरकार तमाशबीन है।
सबसे बड़ी निराशा संसद और विधायिका के चलने- या कहें कि न चलने- को लेकर है। संसद के प्रति कार्यपालिका का बर्ताव तिरस्कार का है। नतीजे में कार्यपालिका की ज्यादतियां और अकर्मण्यता दोनों ही भरपूर बढ़ी हैं। इस विधायी-प्रशासकीय शून्यता को भरने के लिए अदालत आगे आई और उसने न्यायपालिका के प्राधिकार को खासा विस्तारित कर दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्त अर्थव्यवस्था और सुव्यवस्थित बाजार में भरोसा कम ही है। मेरी राय में उदारवाद की सुई घड़ी के तीन बजे पर पहुंचा दी गई है और शायद इसे बारह बजे तक भी पहुंचा दिया जाए। इसमें घाटे में अर्थव्यवस्था रहेगी लेकिन इससे भी ज्यादा घाटा पीछे छूट गए उन लोगों का होगा जो अब काफी पीछे रहेंगे। एक आंकड़ा आंख खोलने वाला है : इस देश में औसत मासिक घरेलू आय 16480 रुपए है। आप उन परिवारों की गरीबी और दुर्दशा की कल्पना कर सकते हैं, जो इस औसत आंकड़े से नीचे या अत्यधिक नीचे हैं।
ताकि हम उन्हें भूल न जाएं
यह बहस पुरानी है कि सरकारी संसाधनों पर पहला अधिकार किसका है। धर्म, जाति, लिंग या दिव्यांगता के आधार पर दावे किए जाते हैं। मेरी राय में, इनमें कोई भी प्रासंगिक नहीं है। सरकार के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार उस बीस फीसद आबादी का है जो पीछे छूट गई है।गरीबी, जिसे कि हम सामान्य अर्थ में समझते हैं, आय की गरीबी है; यद्यपि आय की यह गरीबी-भोजन, आवास, पानी, रोजगार, अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य- व तमाम अन्य वंचनाओं का भी कारण बनती है। इससे आगे, जब तक सबसे नीचे के बीस फीसद लोगों के पास पर्याप्त आमदनी नहीं होती, वे प्रतिकूल सामाजिक और राजनीतिक माहौल के शिकार बने रहेंगे। इसलिए, हमें सरकार या शासन प्रणाली पर नए सिरे से विचार करना होगा, बजट बनाने के सिद्धांतों को पुनर्लेखित करना होगा और उस माडल तथा प्रणाली को बदलना होगा जिसके जरिए सरकार अपनी योजनाओं के लाभ लोगों तक पहुंचाती है। ‘पीछे छूट गए लोग’ पिछले चार साल में सरकार के कुशासन से पूरी तरह उकता गए हैं और फिलहाल घटित हो रही चीजों और वादों से भौंचक्के हैं- भव्य मंदिर का निर्माण, शहरों के नाम बदलना और नई योजनाओं का एलान जिनके पास न पर्याप्त बजट है न फंड। किसी भी वादे का असली इम्तहान यह है कि वह पिरामिड में सबसे नीचे के लोगों के जीवन में क्या बदलाव ला सकती है।