12-10-2024 (Important News Clippings)
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विश्व भूख सूचकांक में हम लगातार पीछे क्यों हैं
संपादकीय
विश्व भूख सूचकांक की ताजा रिपोर्ट एक बार फिर कड़वी सच्चाई उजागर करती है। दुनिया के 127 देशों में भारत इस सूचकांक में आज भी 105वें स्थान पर है। हम पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, जहां 18 साल से खाद्य सुरक्षा कानून है, 81 करोड़ लोगों ( आबादी का 58 प्रतिशत) को पांच किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह मुफ्त अनाज पिछले पांच वर्षों से दिया जा रहा है। फिर क्यों भूख सूचकांक में इस साल भी भारत ‘गंभीर’ श्रेणी में है? महज रिपोर्ट को खारिज करके यह कहना कि यह सब पश्चिमी देशों की साजिश है और देश स्वर्णिम भारत युग में है, क्या सत्य से मुंह मोड़ना नहीं होगा ? रिपोर्ट ने यह भी बताया कि भूख की समस्या बने रहने के बावजूद पांच देशों- बांग्लादेश, मोजाम्बिक, नेपाल, सोमालिया और टोगो ने इस समस्या पर काफी काबू पाया है। इस बार भी सूचकांक तैयार करने में कुपोषण और बाल-मृत्यु दोनों को 1/3, 1/3 वेटेज दिया है, जबकि पांच साल से कम आयु के बच्चों में नाटेपन को 1/6 और दुबलापन (कम वजन) को 1/6 वेटेज दिया गया। और ये आंकड़े भारत सरकार के ही हैं न कि किसी विदेशी एनजीओ के । देश की 13.7% आबादी में कुपोषण है जबकि नाटापन 35.5, कम वजन 18.7 और बाल-मृत्यु 2.9% में है। जाहिर है गरीब पोषक भोजन नहीं पा रहा है।
Date: 12-10-24
पड़ोसी देश हमारी अनदेखी नहीं कर सकते और ना हम उनकी
पवन के. वर्मा , (पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनयिक)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘नेबर-फर्स्ट’ नीति का कोई भी मूल्यांकन समग्र होना चाहिए, टुकड़ों में नहीं। भारत सात देशों से सीमाएं साझा करता है: बांग्लादेश (4096 किमी), चीन ( 3485 किमी), पाकिस्तान (3310 किमी), नेपाल (1752 किमी), म्यांमार (1643 किमी), भूटान ( 578 किमी) और अफगानिस्तान – पीओके (106 किमी)। पाकिस्तान-चीन से सीमा विवाद है, जो सैन्य टकरावों का कारण बनता रहा है। बांग्लादेश से अवैध शरणार्थी आते रहते हैं, म्यांमार से ड्रग्स-हथियारों की तस्करी होती है और नेपाल हमारे सीमांकन पर जवाबी दावे करने लगा है।
हमारे कई क्षेत्रीय पड़ोसी राजनीतिक रूप से अस्थिर हैं। पाकिस्तान- जहां फौज और आईएसआई ही वास्तविक सरकार हैं- वर्तमान में हिंसक आंदोलनों की चपेट में है, क्योंकि जेल में बंद इमरान खान के समर्थक चुनावी धांधली के बाद उनकी रिहाई की मांग कर रहे हैं। शेख हसीना सरकार के पतन के बाद बांग्लादेश में उथल-पुथल है, कट्टरवाद बढ़ रहा है। नेपाल में, कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकारें लगातार अस्थिर हैं। दमनकारी सैन्य- सत्ता द्वारा शासित म्यांमार से रोहिंग्या शरणार्थी भारत चले आते हैं।
इसके अलावा भारत के पास 7000 किमी से ज्यादा लंबी समुद्री तटरेखा भी है। हम श्रीलंका और मालदीव से समुद्री सीमा साझा करते हैं और अंडमान-निकोबार में थाईलैंड, इंडोनेशिया और म्यांमार से श्रीलंका में, वामपंथी अनुरादिसानायके के नेतृत्व वाली नई सरकार हाल ही में चुनाव जीता है। मालदीव में, खुले तौर पर चीन समर्थक राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू सत्ता में हैं।
क्षेत्र में चीन की दखलंदाजी अतिरिक्त समस्याएं पैदा करती है। पाकिस्तान उसका कट्टर सहयोगी है। नेपाल में भी, कम्युनिस्ट पार्टियों और आर्थिक प्रोत्साहनों के जरिए चीनी प्रभाव तेजी से बढ़ा है। चीन श्रीलंका का सबसे बड़ा कर्जदार है। रणनीतिक महत्व के हम्बनटोटा बंदरगाह सहित कई बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में चीन ने पैसा लगाया है।
क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली देश होने के नाते भारत के पड़ोसी उसके बिना अपना काम नहीं चला सकते, लेकिन उसके कई पड़ोसियों को संदेह है कि भारत अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और जातीय-संबंधों का इस्तेमाल उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए करता है। कभी-कभी उनके द्वारा भी हमारे सक्रिय – हस्तक्षेप की मांग की जाती है, जैसे कि बांग्लादेश – निर्माण (1971), तमिल संघर्ष को हल करने के लिए श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की भागीदारी (1987-90) और मालदीव के राष्ट्रपति गयूम के खिलाफ तख्तापलट को दबाने में मदद (1988)। इसके बावजूद, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल किसी भी भारतीय हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशील बने हुए हैं और अक्सर भारत विरोधी भावनाएं उनकी आंतरिक राजनीति के लिए ईंधन का काम करती हैं।
कभी-कभी हमारी विदेश नीति में सूक्ष्मता और शिष्टता का अभाव दिखाई देता है। इसका एक उदाहरण पहले प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार (1989) और फिर 2015 में प्रधानमंत्री मोदी के शासन के दौरान नेपाल के साथ सीमा की नाकेबंदी है। मैंने 2015 में राज्यसभा में इसके प्रतिकूल राजनीतिक और मानवीय परिणामों पर चर्चा शुरू की थी, क्योंकि यह कदम नेपाल में चीन समर्थक और भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने वाला था। जबकि हमारी प्राथमिकता हमेशा विश्वास का निर्माण करने की होनी चाहिए। यहां तक कि आर्थिक सहायता प्रदान करते समय भी हमें ‘बड़े भाई की तरह व्यवहार नहीं करना चाहिए।
दूसरे, हमें चीन की निरंतर चालों के प्रति असाधारण रूप से सतर्क रहना होगा, अपनी खुफिया क्षमताओं को उन्नत करना होगा और नए और इनोवेटिव तरीकों से अपने सदियों पुराने संबंधों को मजबूत करना होगा । इसका एक अच्छा उदाहरण भूटान की 10,000 मेगावाट की पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण में हमारी सहायता है। इससे हमें बिजली और भूटान को राजस्व मिलता है; यह दोनों देशों के हित में है ।
तीसरे, हमें इन देशों में राजनीतिक स्पेक्ट्रम के सभी पक्षों के साथ संवाद करने के रास्ते बनाए रखने चाहिए। बांग्लादेश में, हमने शेख हसीना की भारत समर्थक लेकिन तानाशाहीपूर्ण हुकूमत को भरपूर समर्थन दिया था और अब हमें इसके परिणाम भुगतने होंगे। चौथे, हमें पाकिस्तान और चीन का मुकाबला करने के लिए अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करना जारी रखना होगा। क्षेत्र में भारतीय नेतृत्व के लिए उसका सैन्य रूप से मजबूत होना आवश्यक है।
Date: 12-10-24
नवाचार पर वैश्विक जुनून से कदम मिला सकेगा भारत?
अजित बालकृष्णन
किसी भी शैक्षिक पत्रिका के पन्ने पलटिए, किसी ऑनलाइन समाचार वेबसाइट या अखबार में प्रकाशित लेख पढ़े अथवा किसी समाचार के शीर्षक पर नजर डालें तो आप देखेंगे कि कि तमाम व्यवसाय अपने एकदम नए और अनूठे उत्पाद या सेवाएं शुरू होने का दावा कर रहे हैं अथवा सरकारें नवाचार से जुड़े निवेश या कानून की घोषणा कर रही हैं। आपको अचरज होने लगता है कि नवाचार के लिए यह कैसा पागलपन, कैसा जुनून है!
जब मैंने अपने कारोबारी मित्रों से पूछा तो उन्होंने तुरंत कहा कि नवाचार उनके उत्पादों और सेवाओं को प्रतिस्पर्द्धियों के उत्पादों और सेवाओं से अलग बनाने के लिए जरूरी है। जब मैंने राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्माण से जुड़े अपने मित्रों से बात की तो उन्होंने कहा कि नवाचार ऐसे उद्योग तैयार करने के लिए जरूरी है, जो आर्थिक वृद्धि को गति देते हैं और इस प्रकार रोजगार एवं सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में इजाफा करते हैं।‘जीडीपी’ शब्द की बात करें तो हमारे कॉलेज के दिनों में हम सब यही मानते थे कि यह शब्द केवल शिक्षाविदों के काम का है। लेकिन आज की दुनिया में यह पेशेवर जगत से दूर बैठे लोगों के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण नजर आ रहा है, जितना भारत का एकदिवसीय क्रिकेट विश्व कप जीतना या किसी भारतीय युवती का मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता जीतना।
इसके बाद हम अमेरिका की गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के बारे में पढ़ते हैं जो नवाचार और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI) जैसे उन क्षेत्रों में दबदबा रखती हैं, जिनकी आजकल जमकर चर्चा हो रही है। फिर हम सुनते हैं कि नवाचार के मैदान की इन महारथी कंपनियों की कमान भारतीयों के हाथ में है: गूगल का नेतृत्व सुंदर पिचाई कर रहे हैं तो माइक्रोसॉफ्ट को सत्य नडेला चला रहे हैं, आईबीएम की कमान अरविंद कृष्ण के हाथ में है और शायद आपको यकीन नहीं हो मगर अमेरिका में व्हाइट हाउस की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति समिति की बागडोर भी आरती प्रभाकर संभाल रही हैं!
यह सूची बहुत लंबी है। भारत में बड़ी टेक कंपनियों और बड़ी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं की भी कमी नहीं है। फिर भी नवाचार से जुड़ी बड़ी खबरों या सुर्खियों में भारत का नाम आगे क्यों नहीं दिखता है? इससे भी अधिक हैरान करने वाली बात यह है कि अमेरिका की इन सभी कंपनियों की अगुआई कर रहे भारतीय और भारतीय टेक कंपनियों तथा प्रयोगशालाओं की बागडोर संभाल रहे भारतीय, एक ऐसी व्यवस्था से निकले हैं, जिस पर हम सभी को गर्व है: योग्यता या मेरिट पर चलने वाली भारत की शिक्षा व्यवस्था। वह शिक्षा व्यवस्था, जो सुनिश्चित करती है कि विज्ञान हो, इंजीनियरिंग हो, प्रबंधन हो या सामाजिक विज्ञान हो, सभी क्षेत्रों में बेहतरीन कॉलेज या संस्थान में दाखिला प्रवेश परीक्षा की प्रणाली के जरिये होगा, पारिवारिक संपर्क, विरासत या भारी भरकम धन के बल पर नहीं।
इन सभी के साथ यह खबर भी अक्सर पढ़ने या सुनने को मिल जाती है कि योग्यता पर बहुत अधिक चलने वाली इस व्यवस्था के कारण छात्रों और प्रवेशार्थियों की ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जो प्रवेश परीक्षाओं में रटकर (कोटा जैसे कोचिंग सेंटरों के जरिये) पास होने में माहिर हो गई है। यही वजह है कि उसके भीतर मौलिक सोच की क्षमता ही नहीं रह गई, जो नवाचार के लिए जरूरी है।
शायद हम अन्य देशों विशेषकर उन देशों से सीख सकते हैं, जो नवाचार में आगे हैं और इसके लिए अमेरिका से बेहतर जगह कौन सी हो सकती है। हम सभी जानते हैं कि आज के दौर में कारोबारी दुनिया में अमेरिका की नवाचारी कंपनियां हावी हैं और गूगल तथा माइक्रोसॉफ्ट इसकी उदाहरण हैं। शिक्षा जगत में भी स्टैनफर्ड विश्वविद्यालय और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी जैसे नवाचारी अमेरिकी संस्थान अग्रणी हैं। आखिर वह कौन सी बात है जो हमारे समय में अमेरिका को नवाचार में अग्रणी बनाती है?
आप सोच भी नहीं सकते मगर इसका जवाब एक सरकारी संस्थान है जिसका नाम है- डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एडमिनिस्ट्रेशन (डारपा)। इस संस्थान ने तकनीकी चुनौतियों को परिभाषित किया और गूगल के मूल सर्च अलगोरिदम को तैयार करने तथा चलाने वाले अल्गोरिदम के लिए जरूरी धन भी दिया।
डारपा से मिली वित्तीय मदद के बल पर ही इंटेल, एनवीडिया, क्वालकॉम, सिस्को के साथ-साथ रेथियॉन, बोइंग और तमाम दूसरी कंपनियां अस्तित्व में आईं और अपने-अपने क्षेत्रों में दबदबा बना पाईं। हाल ही में एमेजॉन की क्लाउड कंप्यूटिंग परियोजना को डारपा से मिली 60 करोड़ डॉलर की मदद चर्चा में रही। संयोग से वामपंथी विचार वाले मेरे कई अमेरिकी मित्र कहते हैं कि अमेरिका को हर समय जंग इसीलिए चाहिए ताकि इस तरह की वित्तीय मदद जारी रखी जा सके। खैर, वह अलग किस्सा है। प्रिय पाठकों जो बात मुझे चिंतित करती है और शायद आपको भी करती होगी, वह भारत में भी रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) जैसे बड़े संस्थानों की मौजूदगी एवं प्रदर्शन है। पिछले साल डीआरडीओ को ही 2.8 अरब डॉलर यानी करीब 23,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। उसके पास 52 से अधिक प्रयोगशालाएं हैं, जो देश भर में फैली हैं और इस संस्थान में 7,000 से ज्यादा वैज्ञानिक काम करते हैं। इसके बावजूद भारत के पास गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और एमेजॉन जैसी दुनिया भर में अग्रणी तकनीकी कंपनियां क्यों नहीं हैं?
जब मैंने यही सवाल अपने मित्रों और परिचितों से किया तो सबसे सटीक जवाब उस मित्र से मिला, जो देश के ‘कारोबारी समुदायों’ में से एक का सदस्य है। उसने कहा, ‘भारत में नवाचार या कुछ अलग और नया करने का कोई फायदा ही नहीं होता।’ मैंने भी तत्काल दूसरा सवाल दाग दिया, ‘ऐसा क्यों है?’ जवाब में मित्र ने कहा कि भारतीय कंपनियां निजी हों या सरकारी हों, उन्हें लगता है कि नए और अनूठे उत्पाद या नई सेवा को अपनाने में बहुत अधिक जोखिम है।
एक अन्य मित्र ने कहा कि भारत में शोध के लिए मिलने वाली रकम में बड़ा हिस्सा सरकार से आता है, जो खास तौर पर रक्षा, अंतरिक्ष एवं ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में चला जाता है। इससे निजी क्षेत्र में भी ब्यूरोक्रेसी जैसी दिक्कतें और सुस्ती आ सकती है तथा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाने में भी धीमापन दिख सकता है। इतना ही नहीं बड़ी भारतीय कंपनियां अक्सर अधिक जोखिम भरे मगर अधिक फल देने वाले नवाचार के बजाय कम जोखिम वाले सेवा पर आधारित मॉडल को तरजीह देती हैं।
और अंत में, भारत बेहद ऊंचे कौशल वाले कई इंजीनियर तथा तकनीकी ग्रेजुएट तैयार करता है किंतु उनमें से ज्यादातर अमेरिका जैसे देशों में चले जाते हैं, जहां उन्हें तकनीक में नवाचार के अधिक मौके मिलते हैं। जो वहां नहीं जाते, वे देश के ही भीतर सेवा क्षेत्र में खप जाते हैं। भारत की शिक्षा व्यवस्था भी समस्या के रचनात्मक समाधान पर सोचने के बजाय रटने पर जोर देती है। जाहिर है कि भारत को तकनीक के मामले में अधिक नवाचारी देश बनाना हमारे ही हाथों में है!
Date: 12-10-24
एकता की आवाज
संपादकीय
दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के संगठन आसियान के लाओस शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने एक बार फिर एकजुटता की जरूरत रेखांकित की। यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब दुनिया के कई देश परस्पर संघर्ष में उलझे हुए हैं और इसके चलते अनेक आर्थिक समस्याएं चुनौती बन कर खड़ी हो गई हैं। विकसित कहे जाने वाले देश भी मंदी और सुस्त अर्थव्यवस्था से पार पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने ऐसी स्थिति में दक्षिण एशियाई देशों से परस्पर सहयोग और शांतिपूर्ण वातावरण बनाए रखने की अपील की । दक्षिण एशिया के सभी देश चीन की विस्तारवादी नीतियों के चलते किसी न किसी रूप में असहज महसूस करते हैं। इसलिए सभी ने शिखर सम्मेलन के मंच से चीन की खुल कर आलोचना की। प्रधानमंत्री ने चीन का नाम लिए बगैर कहा कि हमारी नीति विकासवादी होनी चाहिए, न कि विस्तारवादी । दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती सक्रियता के मद्देनजर उन्होंने समुद्री गतिविधियों के संबंधित कानूनी ढांचे ‘ अनक्लोस’ के तहत ही संचालित किए जाने पर बल दिया। निगरानी की आजादी और वायु क्षेत्र सुनिश्चित करने की जरूरत भी रेखांकित की। इस पर एक ठोस और प्रभावी आचार संहिता बनाने तथा क्षेत्रीय देशों की विदेश नीति पर अंकुश लगाने की कोशिशों पर विराम लगाने के उपाय तलाशने की जरूरत भी बताई ।
दरअसल, चीन की विस्तारवादी नीतियों के कारण न केवल दक्षिण एशिया, बल्कि दूसरे कई देशों में भी कई तरह की परेशानियां पैदा हो गई हैं। चीन ऐसा जानबूझ कर करता है, ताकि तेजी से विकास कर रहे और विकसित देश संघर्षो में उलझे रहें और वह उनके बाजार में अपना वर्चस्व कायम रखे। मगर चूंकि भारत अब विकसित देश बनने के पायदान चढ़ रहा है और उसके प्रयासों से वैश्विक दक्षिण देश अपना एक नया बाजार बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं, चीन की चिंता स्वाभाविक रूप से बढ़ गई है। दक्षिण चीन सागर में उसने इसीलिए अपनी गतिविधियां तेज कर दी हैं ।
कुछ समय पहले हुए क्वाड सम्मेलन में भी भारत,अमेरिका, जापान और आस्टेलिया ने दक्षिण चीन सागर में चीन की गतिविधियों पर नकेल कसने की जरूरत रेखांकित की थी। दरअसल, अब विकसित देशों को भी महसूस होने लगा है कि दक्षिण एशियाई देशों के सहयोग के बिना चीन को टक्कर देना संभव नहीं है । इन देशों को एकजुट रखने में भारत की अहम भूमिका है।
हालांकि आसियान का गठन आर्थिक मामलों में पश्चिम के विकसित देशों, चीन और रूस के वर्चस्व को तोड़ कर अपना एक बाजार विकसित करने और इस क्षेत्र में शांति और सहयोग बनाए रखने के मकसद से हुआ था । इसका असर भी दिखने लगा है। फिलहाल जिस तरह रूस और यूक्रेन लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं और उसके चलते पूरी दुनिया में आपूर्ति श्रृंखला बाधित हुई है । फिर इजराइल और हमास के संघर्ष का दायरा बढ़ा है और उसमें विश्व की दूसरी ताकतों के भी कूद पड़ने की आशंका जाहिर की जा रही है, आसियान देशों की भूमिका आने वाले समय में और महत्त्वपूर्ण होने वाली है। निस्संदेह अगर आसियान देश इस स्थिति में एकजुटता और परस्पर सहयोग बनाए रखते हैं, तो इस क्षेत्र को वैश्विक संघर्षों की आंच कम से कम प्रभावित कर पाएगी। प्रधानमंत्री के इस बयान से शायद ही कोई देश असहमत होगा कि यह समय बुद्ध और संघर्ष का नहीं, बल्कि परस्पर सहयोग और सामंजस्य का है।