12-10-2019 (Important News Clippings)
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Date:12-10-19
124A: Has British Raj Returned?
How 21st century Indian governments have become Macaulay’s best disciples
Pavan K Varma , [ The writer is an author and member of JD(U) ]
The Bihar police has done well to dub the complaint of sedition as “maliciously false” against 49 public spirited citizens, including Mani Ratnam, Shyam Benegal, Anurag Kashyap, Aparna Sen, Shubha Mudgal and Ramachandra Guha, who wrote to Prime Minister Narendra Modi in July this year expressing concern about the increasing incidents of lynching. But it is inexplicable that the court in Muzaffarpur took cognizance of the complaint. Equally, it is very worrying that this outdated provision on sedition still remains in our law books.
Section 124A of the Indian Penal Code (IPC), which deals with sedition, was drafted by Thomas Babington Macaulay and included in the IPC in 1870. It is truly a colonial relic, and should have been junked decades ago. The exact provision is a classic example of deliberately ambiguous drafting, with a view to stifling dissent and debate. The clause reads: “Whosoever by words, either spoken or written, or by signs, or by visible interpretation, or otherwise, brings or attempts to bring into hatred or contempt, or excites or attempts to excite disaffection towards the government established by law in India” shall be punished with life imprisonment.
Mahatma Gandhi called Section 124A “the prince among the political sections of the IPC designed to suppress the liberty of the citizen”. Jawaharlal Nehru said that the provision was “obnoxious” and “highly objectionable”, and “the sooner we get rid of it the better”. But in July 2019 Nityanand Rai, minister of state for home affairs, told the Rajya Sabha that “there is no proposal to scrap the provision under the IPC dealing with the offence of sedition. There is a need to retain the provision to effectively combat anti-national, secessionist and terrorist elements.”
The real problem arises here. What exactly is anti-national, and secessionist, and who exactly is a terrorist? The manner in which governments have been labelling people seditious is ludicrous to say the least.
Consider these examples. In September 2012 Aseem Trivedi, a cartoonist in Mumbai, was arrested for sedition for a series of cartoons against corruption. In February 2016 JNU student union president Kanhaiya Kumar was arrested for sedition, but released later on interim bail for want of conclusive evidence. In August 2016 the internationally respected organisation Amnesty International was accused of sedition. The police complaint was filed by an activist of the Akhil Bhartiya Vidyarthi Parishad (ABVP), an RSS affiliated organisation.
In September 2018 Divya Spandana, then social media chief of the Congress party, was booked for sedition for accusing PM Modi of corruption. In January this year a sedition case was registered against 80 year old Cambridge scholar and leading Assamese intellectual, Hiren Gosain, for remarks against the Citizenship Amendment Bill.
Sudhir Kumar Ojha, the local advocate in Muzaffarpur who filed the complaint against the 49 citizens, is a serial litigant. In his complaint he said that the letter these citizens wrote supported “secessionist tendencies” and “tarnished the image of the country and undermined the impressive performance of the Prime Minister”. The letter, in fact, was not secessionist at all. It spoke about the immediate need to take steps to stop the lynchings of Muslims and Dalits, and to prevent the slogan ‘Jai Shri Rama’ from becoming “a provocative war cry”. Such a critique is natural in a democracy. If it annoys Ojha, so be it. But – as the Bihar police is now saying – it is certainly not seditious.
The question then is why Surya Kant Tiwari, the chief judicial magistrate at a Muzaffarpur court, admitted the petition. The Bihar police can only recommend to him that the case is totally frivolous and needs to be dropped. Is the magistrate not aware that the higher judiciary has categorically said that any expression must involve incitement to imminent violence for it to amount to sedition? Does he not know that Article 19 of the Constitution guarantees freedom of speech and expression as a fundamental right? Is he oblivious to the fact that in 2018 the SC had said that “dissent is the safety valve of a democracy. If dissent is not allowed, then the pressure cooker may burst”?
For judicial officers to show such abysmal ignorance both about the law and what superior courts have pronounced, is unpardonable. It should prompt the higher judiciary to severely reprimand him.
The fact of the matter is that the draconian sedition law is being used recklessly, indiscriminately, punitively and purposefully against anybody or any institution that has the temerity to disagree with the ruling establishment, and has the courage to publicly voice such an opinion. This deliberate misuse is an augury of an authoritarian state that looks upon all dissent as some form of anti-national activity, and wishes to live in an echo chamber where all opinion must be congruent with its own self-estimation.
In the year that we are celebrating the 150th birth anniversary of Mahatma Gandhi with so much fanfare, this growing intolerance to criticism is deeply saddening. Gandhiji was a flamboyant dissenter, and unrepentantly democratic. We cannot go through the rituals of paying tribute to him, and yet remain mute spectators to the undermining of democracy and the sacrosanct right to dissent within it.
Date:12-10-19
निजीकरण की राह
टी. एन. नाइनन
इस समय निजीकरण पर जोर है। रेलवे स्टेशन और रेलगाडिय़ां, हवाई अड्डे, कंटेनर कॉर्पोरेशन, शिपिंग कॉर्पोरेशन, राजमार्ग परियोजनाएं, एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम इन सभी का तथा अन्य संस्थानों का भी निजीकरण होना है। यहां हम विनिवेश नहीं बल्कि पूर्ण निजीकरण की चर्चा कर रहे हैं। यानी स्वामित्व में बदलाव। पिछली बार ऐसा वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में अरुण शौरी ने किया था। ऐसा लग रहा है कि आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी अपनी कही उस बात पर अमल करने जा रहे हैं कि सरकार का काम कारोबार करना नहीं है।
इसके लिए तमाम प्रेरक वजहें हो सकती हैं। उदाहरण के लिए सकारात्मक कदम उठाने की सरकार की प्रतिष्ठा बहाल करना। दरअसल 2016 की नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर के कमजोर क्रियान्वयन से ऐसी धारणा बन गई थी कि मंदी के लिए ये कदम भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं। एक अन्य लक्ष्य बढ़ते राजकोषीय घाटे को कम करना भी हो सकता है। सरकार एक के बाद एक नए व्यय कार्यक्रमों की घोषणा कर रही है और कर रियायतें प्रदान की जा रही हैं। एक ओर जहां व्यय बढ़ा है, वहीं कर राजस्व में कमी आई है। इससे पहले कि राजकोषीय अंतर शर्मिंदा करने वाले स्तर पर पहुंचे, कहीं न कहीं से तो धन जुटाना होगा। भारतीय रिजर्व बैंक को एकबारगी हस्तांतरण करने पर मजबूर किया गया लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। ऐसे में निजीकरण उपयोगी हो सकता है लेकिन दिक्कत यह है कि अभी आधे से अधिक वित्त वर्ष बाकी है और जिन सरकारी परिसंपत्तियों की बिक्री की घोषणा की भी गई है, वह मार्च के अंत तक पूरी होती नहीं दिखती।
बहरहाल, चाहे जो भी हो, निजीकरण का स्वागत है। राजकोषीय शुद्घतावादी कहेंगे कि मौजूदा व्यय की पूर्ति के लिए परिसंपत्तियों की बिक्री करना उचित नहीं है। वैसे ही जैसे किसानों या स्वास्थ्य बीमा योजना पर व्यय की प्रक्रिया निरंतर नहीं चल सकती। कभी न कभी तो बिक्री के लिए उपलब्ध परिसंपत्ति समाप्त हो जाएगी। हालांकि वह अभी दूर की संभावना है और सकारात्मक रूप से देखें तो निजी कारोबारियों द्वारा संपत्ति के व्यवस्थित इस्तेमाल के अपने लाभ हैं। निजीकरण के पीछे वास्तविक दलील भी यही है।
क्या यह कारगर साबित होगा? यह कारगर हो सकता है बशर्ते कि सरकार बिक्री या लीज की शर्तें समझदारीपूर्वक तय करे। वरना एयर इंडिया जैसी स्थिति बन सकती है। जहां तक खरीदारों की बात है तो यह सच है कि अधिकांश देसी कारोबारी घराने अभी नकदी खर्च करने के मिजाज में नहीं हैं। वे कर्ज कम करने पर केंद्रित हैं। इसके अलावा कई स्थापित कारोबारियों की निवेश करने की क्षमता दिवालिया प्रक्रिया के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई है। ऋण के बदले जारी किए गए शेयर एकदम मिट्टी के मोल बिक रहे हैं। अनिल अंबानी, रुइया बंधु, सुभाष चंद्रा और अन्य कारोबारी यह झेल चुके हैं जबकि गौतम थापर और रैनबैक्सी से जुड़े रहे सिंह बंधुओं को वित्तीय पूंजी के साथ-साथ सामाजिक साख भी गंवानी पड़ी है। दूसरी ओर बीते कुछ वर्षों के दौरान हालात ऐसे बने हैं कि कुछ कंपनियों के पास पर्याप्त नकदी और ज्यादा ऋण लेने की गुंजाइश है लेकिन वे खपत में धीमापन आने के कारण निवेश नहीं कर रहे। नया कारोबार शुरू करने या खराब परिसंपत्ति खरीदने के लिए उन्हें पैसे खर्च करने पड़ सकते हैं। इसके अलावा कुछ अंतरराष्ट्रीय हित भी जुड़े हो सकते हैं।
इन बातों का राजनीतिक जोखिम भी है। आरएसएस प्रमुख ने इस नीति के कुछ पहलुओं को लेकर चेतावनी दी है। श्रम संगठनों द्वारा भी असंतोष दर्ज किया जा रहा है। मोदी सरकार ऐसे प्रतिरोध से पार पाने में सक्षम है लेकिन उसे अपनी प्रतिष्ठा को उत्पन्न जोखिम को भी ध्यान में रखना होगा। भारत समेत कई देशों में निजीकरण के साथ विवाद जुड़े रहते हैं। जब लंबे समय की लीज जैसे जटिल वित्तीय मसलों पर जल्दबाजी में बिना मशविरे के निर्णय लिया जाए तो विवाद उत्पन्न होते हैं। हवाई अड्डों को अदाणी समूह को देना इसका उदाहरण है।
इस बीच यह स्पष्ट नहीं है कि पूरा ध्यान परिवहन क्षेत्र पर क्यों केंद्रित है? निजीकरण की प्रक्रिया जहां प्रधानमंत्री कार्यालय और नीति आयोग की निगरानी में है और नितिन गडकरी और पीयूष गोयल के रूप में दो अत्यंत जीवंत मंत्री परिवहन से जुड़े क्षेत्रों के प्रभारी हैं। लेकिन यह कोई वजह नहीं है कि सरकार अन्य क्षेत्रों की संकट से गुजर रही सरकारी इकाइयों के निजीकरण पर ध्यान न दे। खासतौर पर घाटे में चल रही दोनों सरकारी दूरसंचार कंपनियां जिनमें सुधार की उम्मीद नहीं। इसके अलावा सरकारी बैंकों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए जो बीते पांच सालों में जनता के 2 लाख करोड़ रुपये पचा चुके हैं।
Date:11-10-19
क्यों पिछड़ जाते हैं भारत के किसान
अंतरराष्ट्रिय व्यापार समझौतों में हमारे देश के किसान किस तरह मात खाते हैं , इसे कपास के उदाहरण से समझा जा सकता है।
चित्रा सुब्रमण्यम
व्यापार समझौते करने वाले वार्ताकार तीन तरह के होते हैं। वार्ताकारों का पहला वर्ग वह होता है, जो मजबूत अर्थव्यवस्थाओं का नुमाइंदा होता है, और जो अपने लोगों के वास्ते सबसे बेहतर समझौता हासिल करने के लिए तमाम साधनों और ताकत का इस्तेमाल करता है। दूसरा वार्ताकार वर्ग वह होता है, जो अपने औपनिवेशिक अतीत, नए व्यापार नियमों और राष्ट्र के समूहों व राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के बीच फंसा होता है। ये सभी उसे अलग-अलग दिशा में खींचते रहते हैं। ऐसे वार्ताकार देशों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत भी इन्हीं देशों में एक है।
कपास और वस्त्र जैसे उत्पादों पर, जिनका वैश्विक बाजारों में स्वतंत्र रूप से कारोबार नहीं हो रहा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियम उचित रूप से लागू नहीं हैं। फिर भी, इस पर आज तक ध्यान नहीं दिया गया है। एक किलो कपास उगाने में भारत में 0.95 डॉलर (लगभग 67 रुपये) खर्च आता है, जो दुनिया में सबसे सस्ता है। लिहाजा तर्क तो यही कहता है कि दुनिया के कपास बाजार में भारत का बोलबाला होना चाहिए था। मगर इस राह में अंतरराष्ट्रीय व्यापार नियमों की बेड़ियां हैं। इन्हें तय करने में अब किसी युद्ध की तरह भयंकर जंग लड़ी जाती है।
जब मैं इन पंक्तियों को लिख रही हूं, तब 150 से अधिक देश विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के बैनर तले जिनेवा में अंतरराष्ट्रीय कपड़ा व्यापार पर चर्चा कर रहे हैं। यहां 7 अक्तूबर को विश्व कपास दिवस मनाया गया था, जो तथाकथित ‘कॉटन-4’ (बेनिन, बुर्किना फासो, चाड और माली का समूह) की एक पहल है और जिसे डब्ल्यूटीओ और संयुक्त राष्ट्र के कुछ संगठनों का समर्थन हासिल है। ऐसे में, बहुपक्षीय व्यापार के इतिहास की उस असंगत नीति का जिक्र यहां लाजिमी है, जो लंबे समय से कायम है। यह नीति मल्टी फाइबर एग्रीमेंट (एमएफए) है, जो एक ऐसा समझौता है, जिसके तहत अमीर देशों ने अपनी मिलों की रक्षा के लिए छह दशकों से भी अधिक समय से भारत जैसे विकासशील देशों से आयात का कोटा तय कर रखा है। यह समझौता टैरिफ और व्यापार पर आम करार (गैट) के मुक्त-व्यापार नियमों से अलग है। वैश्विक बाजारों में जरूरतों को देखते हुए भारत का यह मानना था कि यदि वह पेटेंट जैसे नए मसलों पर अमेरिका की बात मान लेता है, तो कपड़ा और अन्य निर्यात पर उसे कुछ राहत मिल सकती है। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
जिनेवा बैठक का जो खाका सामने आया है, उसमें यह साफ नजर आता है कि व्यापार के प्रबंधन में शक्तिशाली देशों को तवज्जो दी गई और उसी छल-बल का इस्तेमाल किया गया, जिसके द्वारा विदेशी उत्पादों व सेवाओं पर गरीब देशों की स्थाई निर्भरता सुनिश्चित की जाती है। उपनिवेशीकरण के नियमों पर बेशक अब चर्चा हो रही है, लेकिन लगता यही है कि विकासशील देशों के साथ बस स्वांग रचाया जा रहा है। भारत ने यहां अच्छा भरोसा दिखाया, लेकिन व्यापार वार्ता में शायद ही कभी यह भरोसा कारगर साबित होता है।
कृषि पर डब्ल्यूटीओ समझौता (एओए) बतौर उदाहरण सामने है। यह दरअसल सरकारों की तरफ से किसानों को मिलने वाली रियायत और समर्थन बांटने वाला एक सिस्टम है। इस समझौते के तहत, सदस्य राष्ट्र एग्रीमेंट मेजरमेंट ऑफ सपोर्ट (एएमएस) के तहत उत्पादों के आधार पर या सामान्य सब्सिडी देकर अपने किसानों की मदद कर सकता है। मगर यह सहायता एक तयशुदा सीमा तक ही की जा सकती है। अमेरिका अपने किसानों को सालाना 19 अरब डॉलर की मदद देता है। इससे वहां भारतीय कपास स्पद्र्धा में पिछड़ जाती है।
एओए नियमों के मुताबिक, विकासशील देशों में कृषि उत्पादन लागत का अधिकतम 10 प्रतिशत ही मदद हो सकती है, जबकि विकसित अर्थव्यवस्था के लिए यह सीमा पांच फीसदी है। मगर कपास उगाने वाले भारतीय किसानों को पश्चिम (खासतौर से अमेरिका) के किसानों की तरह कोई सब्सिडी नहीं मिलती। इस कारण उनके लिए विदेश के बड़े बाजारों में अपनी पकड़ बनाना लगभग नामुमकिन हो जाता है। भारत का इतिहास और अर्थशास्त्र उनकी स्थिति को और बदतर बना देते हैं।
इस प्रसंग की चर्चा यहां इसलिए जरूरी है, क्योंकि यह पश्चिम की मंशा का भी भंडाफोड़ करता है। दरअसल, एमएफए को दस साल के भीतर हटाने की प्रक्रिया एक जनवरी, 1995 को शुरू हुई। उस वक्त यूरोपीय, अमेरिकी और अन्य अमीर आयातकों ने अपने 16 फीसदी कपड़ा व्यापार को एमएफए के दायरे से बाहर निकालकर उसे डब्ल्यूटीओ द्वारा तय प्रतिबंध या कोटा के सामान्य नियमों में शामिल कर दिया। अगले तीन चरणों में सभी प्रतिबंध या कोटा खत्म होने वाले थे, और 31 दिसंबर, 2004 को घड़ी की सुई के 12 बजाते ही कपड़ा व्यापार मुक्त हो जाता।
मुक्त-व्यापार के दायरे में पैराशूट और सीट बेल्ट से लेकर महिलाओं के पेटीकोट और फर्श कवर करने वाले उत्पाद रखे गए। गैट के उलट डब्ल्यूटीओ एकमात्र संस्था थी। देश उन उत्पादों को नहीं चुन सकते थे, जिन्हें वे बाहर रखना चाहते थे। नतीजतन, एक-दूसरे देशों से खासा बदला लिया गया। मसलन, यदि आप किसी देश का स्टील नहीं खरीदते, तो वह अपने यहां आपके आम की आवक रोक सकता है। दिल्ली का अपना गणित भी इसी नीति को आगे बढ़ाता है। भारत सहित गरीब देशों के किसानों में कपास की खेती को लेकर एक नया आकर्षण पश्चिम में आधुनिक खादी पहनने को लेकर होने वाले फैशन शो पैदा कर रहे हैं।
मुक्त व्यापार की जंग में पेटेंट और सूचना प्रौद्योगिकी का जो हश्र है, वही भारत से निर्यात होने वाले कपास और कपड़े का माना जाता है। देश में खादी और कपास को लेकर कई प्रयास तो हुए, पर वे लागत और मूल्य के बीच के अंतर को प्रभावित करने वाले कारकों को पहचानने में विफल रहे हैं। इसलिए अक्सर यह सुनने को मिलता है कि ‘इसकी लागत सिर्फ पांच डॉलर (करीब साढ़े तीन सौ रुपये)’ है, जो यूरोप में या फिर दिल्ली के पॉश इलाकों में दस गुना अधिक कीमतों में बिकता है। आज दुनिया भर के देश अपने राष्ट्रीय उत्पादों को महत्व देते हैं और उन्हें राष्ट्रीय खजाना मानते हैं। खादी भारत के स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा से जुड़ी रही है। आखिर कब तक हम इसे लेकर मौजूदा वैश्विक कारोबारी नियमों के तहत संघर्ष करते रहेंगे?
Date:11-10-19
To Restore Dignity
A constructive approach, not polemic, is needed to address Dalit concerns
Sanjay Paswan , [The writer is national president, BJP SC Morcha.]
Last year, in March, India witnessed massive protests by Dalit organisations over the dilution of the Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act. The protests were a response to the Supreme Court’s direction barring automatic arrests and the provision of anticipatory bail for the accused in cases of atrocities against Dalits and tribal communities. It also ruled that public servants will not be prosecuted without the approval of the appointing authority. The apex court recently overturned the verdict, acknowledging the unimaginable levels of oppression faced by the socially disadvantaged sections of the society.
The National Crime Records Bureau mentions that there is a 66 per cent increase in cases of atrocities against Dalits and tribal communities from 2007 to 2017. Looking at the Dalit issue through a political lens has caused great disservice to our cause. There is an urgent need to depoliticise the Dalit issue and analyse it from a fresh perspective. The government had the foresight to preempt the implications of the previous order. The SC’s move to reinstate the previous provision also vindicates the original law.
Any Act of Parliament represents the vision of the elected representatives in whom sovereignty rests. The Prevention of Atrocities Act was premised on the objective of the delivery of justice to marginalised communities, thereby ending social disability. The conversation on caste-based discrimination has multiple layers. With the advent of globalisation, growth and modernisation, the location of caste prejudice has also undergone a major shift. There is a glaring absence of Dalits in critical decision-making positions, both in the government and private institutions. Lack of representation automatically leads to lack of empathy and a sense of ownership. The numbers of Dalit vice chancellors and professors in academia, editors in the media and senior officers in the bureaucracy is dismally low. A Dalit, after facing persecution, is left with no alternative than to take shelter under the shadow of the Prevention of Atrocities Act.
R Vaidyanathan, a retired professor of finance at IIM, Bangalore, in his book Caste as Social Capital, observed that, “many consider caste as an outdated institution, but it thrives in post-liberalisation India. The establishment and running of businesses tap into caste networks, both in terms of arranging finance and providing access to [a] ready workforce”. Caste has not become redundant; it has merely relocated itself. The nature of institutional support in terms of mentorship available to privileged communities is missing for Dalits.
There is a widespread conviction among the community’s leaders that the assault on the interests of Dalits has been spearheaded by the judiciary in recent times. The attitude of the higher judiciary stems from the absence of empathy. There is, unfortunately, little social diversity in the Indian judicial system.
The Supreme Court has only once seen, to my knowledge, a Dalit Chief Justice — K G Balakrishnan. Although now, with Justice B R Gavai, we hope the court will be more sensitive to the concerns of the community.
There is a need to redefine the contours of social justice in our country. More nuanced conversations on the representation of the socially vulnerable sections is needed. Industry, media and civil society should take the discussion on social diversity at leadership positions ahead. Political parties premised on social justice have lost relevance, failing to capture the imagination of young Dalits.
There are enough polemics on caste already. We need a more constructive conversation. Outdated outreach methods like co-dining and co-bathing will not be accepted anymore. The new Dalit seeks a permanent place at the table. I am reminded of what Martin Luther King Jr said: “Change does not roll in on the wheels of inevitability, but comes through continuous struggle.”