12-08-2024 (Important News Clippings)

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12 Aug 2024
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Date: 12-08-24

Model For Medals

Olympics tally won’t rise unless more athletes are picked. Create larger talent pool

TOI Editorials

A medal tally of 6 – no gold – is a disappointing Olympic performance for India. There were as many as 6 fourth-place finishes that could have gone our way, but for a nation of 1.4bn, even that’s not really good enough. Though there is no doubt India has improved considerably at Games since Beijing 2008, we have stayed in the 2-7 medal range in the last five editions. In what is a striking and sobering contrast, China bagged second place in total medals tally at Paris, even as it matched US in number of golds. For India, rethink of strategy and implementation is required to move to the next level.

Contingent’s still small | One reason we haven’t enough to show is that we aren’t sending enough athletes to Olympics. Our 117 athletes at Paris made for a representation of just .08 per mn population. Compare that with 37.8 for New Zealand. Or, Japan, with less than one-tenth of our population, sending more than 400 athletes. A larger pool at the Games is the first step to go up the medal tally. Increasing the number of sports we compete in is one way this can be done. At Paris, we were in the reckoning in just 16 of the 32 sports. Our neighbour China competed in 30. The problem is too few athletes qualify for Olympic selections.

Expand pool to draw from | Widening of the talent base is what’s needed if more of our athletes are to qualify for the Games. Our top-level infra has improved immensely in recent years. But, barring sporting states like Haryana and Punjab, it is largely urban talent that is benefiting from such infra. This will not change without a grassroots based approach. We need to create a sporting culture and build infra at our schools and universities. Such infra is what is behind US’s sporting success. To take just one example, American universities have produced US gymnastics champions.

Reform sporting bodies | And then there’s the pressing need to change how our sporting federations function. As the Wrestling Federation of India controversy highlighted, politicians, their kin, or their aides continue to rule the roost at many of these bodies, often at the cost of our athletes. A Vinesh Phogat bloomed not because of the system but despite it. The National Sports Development Code of India, meant to reform their functioning, is yet to be followed by many federations. Unless this changes, we might have to continue to endure underwhelming performances at sport’s greatest event.


Date: 12-08-24

ओलिंपिक में भारत

संपादकीय

पेरिस ओलिंपिक के समापन के पहले ही भारत का सफर खत्म हो चुका था। इस बार भारत एक रजत पदक समेत कुल छह पदक ही हासिल कर सका। इस प्रदर्शन को उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि भारत तमाम तैयारी के बावजूद पिछले प्रदर्शन को भी नहीं दोहरा सका। इससे यही रेखांकित होता है कि भारत को खेलों में बड़ी शक्ति बनने के लिए अभी लंबा सफर तय करना है। पदक तालिका में भारत का स्थान पहले 50 देशों में भी नहीं है। सबसे बड़ी आबादी वाले देश का पदक तालिका में इतना पीछे रहना ठीक नहीं। इस बार कुछ ही खेलों में भारतीय खिलाड़ी बेहतर प्रदर्शन कर सके। इनमें सर्वोपरि रहे नीरज चोपड़ा, जिन्होंने पिछली बार स्वर्ण पदक जीतकर करिश्मा किया था और इस बार उन्हें रजत से संतोष करना पड़ा। इसके बाद भी वह भारत के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे। शूटिंग में मनु भाकर ने भी चमत्कृत करने वाला प्रदर्शन किया। उन्होंने व्यक्तिगत स्पर्धा के साथ युगल प्रतिस्पर्धा में भी सरबजोत सिंह के साथ कांस्य पदक जीता। शूटिंग में ही ऐसा ही प्रदर्शन स्वप्निल कुसाले ने भी किया। कुश्ती में अमन सहरावत के कांस्य के रूप में एक ही पदक मिला। विनेश फोगाट से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। पदकों की संख्या कम रह जाने का एक कारण यह भी रहा कि लक्ष्य सेन, अर्जुन बबूटा समेत कई खिलाडी चौथे स्थान से आगे नहीं जा सके। हॉकी टीम की ओर से लगातार दूसरा कांस्य पदक हासिल करना एक बड़ी उपलब्धि है। यह उपलब्धि यही बताती है कि भारतीय हॉकी अपने स्वर्णिम दिनों की ओर लौट रही है।

ओलिंपिक में समापन के साथ ही हमारे नीति-नियंताओं, खेल संगठनों, खेल प्रशासकों और स्वयं खिलाड़ियों को इस पर आत्ममंथन करना चाहिए कि भारत ओलिंपिक में इतना पीछे क्यों है। यह तो साफ है कि अपने देश में वैसी खेल संस्कृति विकसित नहीं हो सकी है, जैसी अब तक हो जानी चाहिए थी। चूंकि खेल संस्कृति का सही तरह विकास नहीं हो सका है इसलिए विभिन्न खेलों में प्रतिभाओं की तलाश और उनका समुचित प्रशिक्षण नहीं हो पाता। इस काम में सरकारी विद्यालय भी पीछे हैं और निजी स्कूल भी। विभिन्न खेल संगठन भी खेल प्रतिभाओं को तलाशने और उन्हें निखारने का काम नहीं कर पाते। एक समस्या यह भी है कि खिलाड़ियों को बेहतर प्रदर्शन करने के साथ ही अपने करियर की भी चिंता करनी पड़ती है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार के साथ कुछ ही राज्य सरकारें खेलों को बढ़ावा देने के लिए तत्पर दिखती हैं। खेलों और खिलाड़ियों का विकास कैसे हो, इसकी सीख चीन समेत अन्य देशों से भी ली जानी चाहिए। अब जब भारत दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और आर्थिक विकास खेलों के विकास में सहायक होता है तब फिर भारत को ओलिंपिक की पदक तालिका में पहले बीस स्थानों में तो अपनी जगह बनानी ही चाहिए।


Date: 12-08-24

निराशाजनक प्रदर्शन

संपादकीय

पेरिस में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलिंपिक खेलों में भारत “के 117 खिलाड़ियों ने 16 खेलों में हिस्सा लिया। माना जा रहा था कि इन खेलों में देश टोक्यो ओलिंपिक के एक स्वर्ण और दो रजत समेत सात पदकों के प्रदर्शन को बेहतर करेगा। परंतु इन खेलों में हमें एक रजत और पांच कांस्य सहित केवल छह पदक मिले जो बताता है कि भारतीय खिलाड़ियों को विश्वस्तरीय बनाने के क्षेत्र में अभी काफी काम करने की आवश्यकता है। खासकर उन खेलों में जिनके बारे में हमारा दावा है कि हम विश्वस्तरीय सुविधाएं रखते हैं। मनु भाकर द्वारा एक ही ओलिंपिक में दो पदक (कांस्य) हासिल करने और अमन सहरावत के देश का सबसे युवा ओलिंपिक पदक विजेता (कुश्ती में कांस्य) बनने के अलावा भारत के प्रशंसकों को खुशी से अधिक निराशा का सामना करना पड़ा। विनेश फोगाट दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से अयोग्य घोषित कर दी गईं जिनकी अपील पर फैसला आना बाकी है। भारत कई अवसरों पर करीबी मामले में पदक पाने से चूक गया।

उदाहरण के लिए भाकर 25 मीटर पिस्टल शूटिंग में बहुत मामूली अंतर से तीसरा पदक पाने से चूक गईं। बैडमिंटन में लक्ष्य सेन सेमीफाइनल में दो बार बढ़त गंवा बैठे और कांस्य पदक के लिए हुए मुकाबले में हार कर चौथे स्थान पर रहे। यह उस खेल में भारत का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था जिसके बारे में उसका दावा है कि उसके पास विश्वस्तरीय सुविधाएं हैं। वेटलिफ्टर मीराबाई चानू जिन्होंने टोक्यो में रजत पदक जीता था, वह महज एक किलोग्राम वजन कम उठाने के कारण कांस्य पदक पाने से चूक गईं। हॉकी में जहां भारत को विश्व में पांचवीं वरीयता हासिल है, टीम ने लगातार दूसरे ओलिंपिक में कांस्य पदक जीता लेकिन यहां भी टीम स्वर्ण या रजत पदक जीत सकती थी। जर्मनी के खिलाफ मुकाबले में ढेर सारे पेनल्टी कॉर्नर को गोल में बदल पाने में नाकामी की शाश्वत समस्या के कारण टीम को 2-3 से हार का सामना करना पड़ा। भारतीय मुक्केबाजों को हमेशा पदक का दावेदार माना जाता है लेकिन उन्हें भी खाली हाथ लौटन पड़ा। नीरज चोपड़ा भी टोक्यो में स्वर्ण जीतने का कारनामा दोहरा नहीं सके और उन्हें पेरिस में रजत पदक से संतोष करना पड़ा। कुश्ती में भारत को केवल एक कांस्य पदक मिला। फोगाट को दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से अयोग्य घोषित किए जाने के बावजूद एक ऐसे खेल में यह कमजोर प्रदर्शन है जिसमें भारत वैश्विक शक्ति होने का दावा करता है।

इस कमजोर प्रदर्शन की वजह निर्धारित कर पाना मुश्किल है। यकीनन सरकार के समर्थन में निरंतरता की कमी एक वजह है। उदाहरण के लिए शूटिंग में पदक जीतने वालों में से अधिकांश अच्छे परिवारों से आते हैं जिनकी वित्तीय स्थिति इतनी मजबूत होती है कि वे प्रशिक्षण और कोचिंग का खर्च उठा सकें। या फिर खिलाड़ी सरकारी सेवा में होते हैं, मसलन नीरज चोपड़ा सेना में जबकि शूटिंग का कांस्य पदक जीतने वाले स्वप्निल कुसाले आदि सरकारी कर्मचारी हैं। देश के अधिकांश खेल संघों के गैर पेशेवर रवैये ने हालात और भी खराब किए हैं। इन संघों में वरिष्ठ पदों पर राजनेता बैठे हैं जो खिलाड़ियों के कल्याण के बजाय अन्य बातों में रुचि रखते हैं। पिछले वर्ष पहलवानों द्वारा कुश्ती संघ के मुखिया और सत्ताधारी दल के ताकतवर राजनेता बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ प्रदर्शन इसकी बानगी है। फोगाट का अपने वजन को तय सीमा में रखने के लिए संघर्ष आंशिक रूप से उस विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने का भी परिणाम था। जैसा कि इस श्रेणी में स्वर्ण पदक हासिल करने वाली पहलवान ने कहा भी कि निचले भार वर्ग में लड़ने की तैयारी कम से कम दो साल पहले शुरू होनी चाहिए। फोगाट के पास तैयारी के लिए एक वर्ष से भी कम समय था । पेरिस में भारत का प्रदर्शन 1900 के बाद से दूसरा सबसे बेहतर प्रदर्शन था। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश की क्षमताओं को यह सही ढंग से नहीं दर्शाता ।


Date: 12-08-24

बचत की बुनियाद

संपादकीय

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की सेहत का पता इस बात से भी चलता है कि उसके बैंकों का कारोबार कैसा है। बैंकों का कारोबार मुख्य रूप से लोगों से जमा आकर्षित करने और उसे कर्ज के रूप में देकर उससे ब्याज कमाने से चलता है। मगर इस समय भारतीय बैंकों में जमा और कर्ज का अंतर काफी बढ़ गया है। इसे लेकर सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक की चिंता स्वाभाविक है। पिछले दिनों मौद्रिक समीक्षा के वक्त आरबीआइ के गवर्नर ने बैंकों से इस अंतर को पाटने के लिए विशेष योजनाएं चलाने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा कि बैंक ब्याज दरें निर्धारित करने को स्वतंत्र हैं। यही बात केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने आरबीआइ गवर्नर के साथ बैठक में कही। वित्तमंत्री ने कहा कि बैंक अपने मुख्य कारोबार पर ध्यान दें। लोगों से जमा आकर्षित करने के लिए वे आकर्षक योजनाएं चला सकते हैं। दरअसल, सार्वजनिक बैंक निवेश की कमी के चलते गंभीर परेशानियों के दौर से गुजर रहे हैं। कायदे से बैंक अपनी ब्याज दरें रेपो दरों से आधा से लेकर एक फीसद तक ऊपर रख सकते हैं। मगर इस मामले में भी उन्हें कुछ राहत दी गई है, फिर भी उनके पास अपेक्षित जमा नहीं आ पा रहा।

इसकी वजहें साफ हैं। पिछले कुछ वर्षों से लोगों की आमदनी लगातार कम हुई है। पहले जीएसटी की वजह से छोटे कारोबारियों पर बुरा असर पड़ा, फिर कोरोनाकाल में पूर्णबंदी के बाद बहुत सारे कारोबार बंद हो गए, लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं। जिन लोगों के पास नौकरियां हैं भी, उनके वेतन में तुलनात्मक रूप से काफी कम बढ़ोतरी हुई है, जबकि महंगाई काफी बढ़ गई है। इस तरह बहुत सारे लोगों के पास बचत के लिए पैसे हैं ही नहीं कि उन्हें वे बैंकों में रखें। बल्कि इसका उलट यह हुआ है कि छोटे-छोटे काम के लिए भी लोगों को कर्ज लेने पड़ रहे हैं। कर्ज पर ब्याज की भरपाई करना भी बहुत सारे लोगों के लिए कठिन बना हुआ है। बचत के बारे में लोग तब सोचते हैं, जब उनके पास जरूरी खर्चों से अधिक आमदनी होती है। मगर सरकार लगातार इस हकीकत पर पर्दा डालने का प्रयास करती रही है कि रोजगार और आमदनी के स्रोत लगातार घटे हैं। कुछ दिनों पहले आम बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री ने खुद दोहराया था कि बेरोजगारी कोई समस्या नहीं है, गरीबी लगातार कम हो रही है। अगर सचमुच ऐसा होता, तो सरकार को इस तरह बचत बढ़ाने को लेकर चिंतित न होना पड़ता।

बैंकों में लोगों द्वारा जमा बचत से राष्ट्रीय बचत बनती है। जिस देश के पास राष्ट्रीय बचत जितनी अधिक होती है, उसे अपनी विकास परियोजनाएं चलाने में उतनी ही आसानी होती है। मगर इस वक्त जब चालू खाते में जमा की दर चिंताजनक देखी जा रही है, तो लंबे समय के लिए चलाई जाने वाली बचत योजनाओं में निवेश को लेकर क्या ही दावा किया जा सकता है। अगर बैंक आकर्षक योजनाएं लेकर आएंगे और उन पर अधिक ब्याज की पेशकश भी करेंगे, तो कितने लोग आकर्षित हो पाएंगे, कहना कठिन है। सरकारी योजनाओं के तहत कर्ज देने की बाध्यता और उनके वापस न लौट पाने, फिर बड़े पैमाने पर कर्जमाफी के चलते भी सार्वजिनक बैंकों के जमा और कर्ज में अंतर आया है। ऐसे में, सरकार बुनियादी पहलुओं पर काम करने के बजाय बैंकों पर दबाव बना कर शायद ही इस समस्या से पार पा सकेगी।


Date: 12-08-24

हमारे छह पदक

संपादकीय

पेरिस ओलंपिक 2024 के मीठे-खट्टे अनुभवों को भारत एक सबक की तरह हमेशा याद रखेगा। छह पदकों (एक रजत, पांच कांस्य) के साथ ओलंपिक 2024 में भारत के सफर का समापन हो गया। यह याद आना स्वाभाविक है कि पिछले टोक्यो ओलंपिक में हमने सात पदकों (एक स्वर्ण, दो रजत, चार कांस्य) के साथ इससे बेहतर प्रदर्शन किया था। यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि अगर पहलवान विनेश फोगाट की अयोग्यता का मामला न होता, तो भारत अपने प्रदर्शन को दोहराने में सफल हो जाता। यह भी याद किया जाएगा कि विनेश फोगाट के मामले ने देश में बड़ा राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया। ऐसा नहीं होना चाहिए था, लेकिन जिस देश में राजनीति और खेल संघों को अलग-अलग न किया जा सके, वहां ऐसे विवाद स्वाभाविक हैं। यह 100 ग्राम से उपजी सियासत भी सुबूत है कि हम खेलों व खिलाड़ियों के प्रति पूरी तरह पेशेवर या समर्पित नहीं हैं। विनेश प्रकरण के अनेक परत हैं, जिन पर हमें गौर करना होगा। फिर भी प्रशंसा करनी चाहिए कि हमने ओलंपिक की खेल अदालत में विनेश की शिकायत को पुरजोर ढंग से उठाया है और मुमकिन है कि 13 अगस्त को एक और रजत पदक हमारी झोली में आ जाए।

सबसे बड़ी खुशी राष्ट्रीय खेल हॉकी को लेकर है कि हमने लगातार दूसरी बार कांस्य पदक जीता है। इससे निस्संदेह भावी खिलाड़ियों का मनोबल बढे़गा, हम लगातार अपने खेल को सुधारते और पदक जीतते चले जाएंगे। इस ओलंपिक को नीरज चोपड़ा के रजत पदक और उनके साथी पाकिस्तानी अरशद नदीम के स्वर्ण पदक के लिए भी याद किया जाएगा। नीरज और नदीम की मां के उद्गार भी याद आएंगे। लंबे समय बाद पाकिस्तान की झोली में एक पदक, वह भी स्वर्ण आया है और पाकिस्तानियों को चर्चा के लिए एक सकारात्मक विषय मिला है। नदीम वहां प्रेरणास्रोत बनें, तो इसमें दक्षिण एशिया का हित है। यह ओलंपिक निशानेबाज मनु भाकर के लिए भी याद किया जाएगा। उन्होंने एक कांस्य पदक व्यक्तिगत शूटिंग में और दूसरा सरबजोत के साथ मिश्रित टीम में जीता है। निशानेबाज स्वप्निल कुसाले और पहलवान अमन सहरावत ने भी कांस्य जीतकर भारत का नाम रोशन किया है। यह ओलंपिक हॉकी गोलकीपर पी आर श्रीजेश की शानदार विदाई के लिए भी याद किया जाएगा। ये खिलाड़ी अब प्रेरणा-स्रोत बनकर भारतीय खेल इतिहास में दर्ज हो गए हैं।

अब यहां से खेल प्रबंधकों-निर्णायकों के लिए काम शुरू हो जाता है। क्या सोचा गया था और क्या हुआ है? आगे क्या सुधार करना है? किससे क्या सीखना है? खेल निर्णायकों को युद्ध स्तर पर काम करना होगा, तभी उनकी सार्थकता है, वरना पदक तालिका तो अभी कहीं उत्साह से दिखाने लायक भी नहीं है। सबसे ज्यादा पदक अमेरिका ने जीते हैं, पर चीनी खिलाड़ियों ने रणनीति के तहत स्वर्ण पर निशाना साधा है। जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, नीदरलैंड, ग्रेट ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, इटली इत्यादि के पदक गिनने के बजाय हमारा जोर अपने प्रदर्शन को सुधारने पर होना चाहिए। हमें सोचना होगा कि हमारा ध्यान किधर ज्यादा है? मुक्केबाजी और भारोत्तोलन में क्यों हमारी अवनति हुई है? खैर, यह पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के सत्कार का समय है। हम जब खिलाड़ियों के साथ मजबूती से खड़े होने लगेंगे, तो खेलों में सुधार की प्रक्रिया तेज हो जाएगी। हॉकी के पुनरोत्थान और ओडिशा सरकार के सहयोग से भी सीखना चाहिए।


Date: 12-08-24

दुनिया में हुए युवा आंदोलनों को याद करने की जरूरत

हरजिंदर, ( वरिष्ठ पत्रकार )

गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन और बिहार के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के जब 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, तब कई देशों में हुए एक और युवा आंदोलन को याद करना जरूरी है, जिसके घटनाक्रम अब भी हमारी स्मृतियों में ताजा हैं। चंद महीनों बाद उस आंदोलन के 15 साल पूरे हो जाएंगे, जिसे हम ‘अरब प्रिरंग’ के नाम से जानते हैं। ट्यूनीशिया से शुरू हुआ यह आंदोलन जब एक के बाद एक पश्चिम एशिया के तमाम देशों में फैलने लगा, तो पूरी दुनिया की खैर-खबर रखने वाले तकरीबन सभी आलिम-फाजिल दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर थे। लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया, बहरीन जैसे देशों में नौजवान सड़कों पर आ चुके थे। वे तानाशाही की तमाम पाबंदियां हटाने और मानवाधिकार देने की मांग कर रहे थे। यह हवा इतनी तेज थी कि मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान, सूडान और यहां तक कि सऊदी अरब में भी इसके झोंके महूसस किए गए। आंदोलन का भूगोल भले ही सीमित रहा हो, लेकिन इसने दुनिया के तानाशाहों और लोकतांत्रिक ताकतों को यह संदेश दे दिया था कि इस नए दौर में पुराने तौर-तरीकों से नौजवान पीढ़ी को ज्यादा समय तक भरमाए नहीं रखा जा सकता।

नए दौर का जिक्र यहां इसलिए जरूरी है कि इंटरनेट, मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के आगमन के बाद का यह पहला बड़ा आंदोलन था, जो एक साथ कई देशों में फैला। तकनीक ने देश की सीमाओं से परे लोगों को आपस में जुड़ने का मौका दे दिया था। इनसे लोगों को लामबंद किया गया, धरना स्थलों तक खींच लाया गया और जो नहीं पहुंच सके, वे लाइक, कमेंट और फॉरवर्ड से भागीदार बनते रहे। इस सबका असर भी दिखा। कई देशों के शासनाध्यक्षों को गद्दी छोड़नी पड़ी। कई राजाओं ने अपनी गद्दी तो नहीं छोड़ी, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्रियों को बर्खास्त करना पड़ा। तमाम जगहों पर सरकारें भंग की गईं और नए सिरे से चुनाव कराए गए।

मगर इन सबके बाद क्या रक्तहीन क्रांति की बात करने वाले इन देशों के नौजवानों ने वह हासिल कर लिया, जिसके लिए वे सड़कों पर निकले थे? इसका जवाब पाने के लिए हमें अमेरिकी थिंक टैंक ‘कौंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन’ के एक अध्ययन को देखना होगा। यह अध्ययन बताता है कि इन सबमें ट्यूनीशिया एकमात्र ऐसा देश है, जहां लोकतंत्र स्थापित हुआ। बाकी सभी देशों में तानाशाही जैसी थी, कम या ज्यादा वैसी ही बनी रही। अपवाद सिर्फ मिस्र और सीरिया को कह सकते हैं, जहां सत्ता पहले से ज्यादा सख्त हो गई। तमाम देशों में लोगों के अधिकार कम कर दिए गए और उनके जीवन-स्तर में भी कोई खास सुधार नहीं हुआ। यहां तक कि ट्यूनीशिया में भी, जहां लोकतंत्र काफी हद तक स्थापित हो चुका था। युवा आंदोलनों के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वे बेरोजगारी की कुंठा से उपजते हैं। इलाज भी यही बताया जाता है कि नौजवानों को काम में लगाकर घर-गृहस्थी में उलझा दो, तो वे सड़कों पर नहीं निकलेंगे। यह धारणा कितनी सही है और कितनी नहीं, इस विस्तार में जाए बिना अगर हम ‘अरब क्रांति’ के दौरान आंदोलित देशों को देखें, तो आंदोलन के बाद भी वहां की सरकारों ने इस इलाज को अपनाने की या तो कोशिश नहीं की या फिर इसमें सफलता हासिल नहीं की। ज्यादातर देशों में बेरोजगारी दर कम या ज्यादा वैसी ही बनी रही, जैसी वह पहले थी।

हम अरब देशों की इस क्रांति को तब याद कर रहे हैं, जब हमारे पड़ोस बांग्लादेश में युवा उबाल का एक अन्य रूप हमने अभी देखा है। चंद हफ्तों के युवा आंदोलन ने 15 साल से जमी-जमाई उस सरकार को उखाड़ फेंका, जो आई तो लोकतंत्र के दरवाजे से थी, लेकिन पूरे देश को तानाशाही की गहरी गुफाओं में ले गई। इस आंदोलन का स्वागत किया जाना चाहिए, पर अरब ्प्रिरंग के सबक यहां हमें आशंकित करते हैं। डर है कि ये नौजवान जितना हासिल करने के लिए घर से निकले हैं, कहीं उससे ज्यादा वे खो न दें। इस डर का कारण भी है। सत्ता में बदलाव के बाद वहां जिस तरह से हिंसा हो रही है, सांप्रदायिक तत्वों को खेलने का मौका मिला है और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है, वह भविष्य को लेकर कोई उम्मीद नहीं बनाता। क्या पश्चिम एशिया के नौजवानों की तरह ही बांग्लादेश के नौजवानों को भी एक अंधेरे के बदले दूसरा अंधेरा मिलेगा?