12-05-2018 (Important News Clippings)
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Date:12-05-18
Good times but uncertain: Even in India growth has to accelerate to avoid ‘growing old before becoming rich’
Andreas Bauer and Ranil Salgado, [Andreas Bauer is Senior Resident Representative and Ranil Salgado is Head of India Country Team, International Monetary Fund]
As the IMF’s latest Regional Economic Outlook points out, the Asia-Pacific region remains the main engine of the global economy. Near-term growth prospects have improved. Still, there are many risks on the horizon, including a tightening of global financial conditions, a shift towards protectionist policies, and an increase in geopolitical tensions.
Over the longer run, Asian economies will face challenges from population ageing and slowing productivity growth. And while the rise of the digital economy could yield huge benefits, it could also bring major disruptions. Given the many uncertainties, macroeconomic policies should be conservative and aim at building buffers and increasing resilience. Policy makers should also take advantage of favourable conditions to implement structural reforms that promote sustainable and inclusive growth.
Regional growth is expected to remain strong at 5.6% in 2018 and 2019 – slightly higher than our previous forecast – supported by strong global demand. Inflation is expected to remain generally subdued. Among the larger economies, China’s growth for 2018 is projected to ease to 6.6% from 6.9% in 2017, as tightening measures take effect. Growth in Japan is expected to remain relatively strong this year at 1.2%.
In India, after temporary disruptions caused by the currency exchange initiative and the rollout of GST, growth is expected to recover to 7.4% in FY2018/19, making it once again the world’s fastest-growing large economy. Risks to Asia’s near-term growth are balanced, but downside risks prevail over the medium term. On the upside, the global recovery could again prove stronger than expected. The region, however, remains vulnerable to a sudden tightening in global financial conditions. More inward-looking policies in major global economies could disrupt trade and financial markets and have a substantial impact on Asia, which has benefited so much from economic integration. Finally, geopolitical tensions could have serious financial and economic repercussions.
Over the longer run, growth prospects for Asia will be heavily affected by demographics, productivity growth and digital economy. Population ageing is an important challenge, as the adverse effects on growth and fiscal positions could be substantial. Even in India where demographics are relatively more favourable, growth has to accelerate to avoid “growing old before becoming rich”. Another challenge is to arrest and reverse slowing productivity growth in manufacturing and services. Finally, the global economy is becoming increasingly digitalised. While some recent advances could be truly transformative, they also bring challenges, including those related to the future of work. Asia is embracing the digital revolution, albeit with significant heterogeneity across countries.
Strong near-term growth provides a valuable opportunity to focus macroeconomic policies on building buffers, increasing resilience, and ensuring sustainability. In many countries, continued fiscal support is less urgent given buoyant economic activity, and policy makers should focus on ensuring that debt remains under control. Some countries, among them India, should also focus on strengthening revenue mobilisation to create space for infrastructure and social spending and to support structural reforms.
Monetary policy can remain accommodative in much of the region given generally still muted inflation. Nonetheless, central banks should be vigilant, since our analysis suggests that much of the undershooting of inflation targets in Asia has been explained by temporary global factors, such as low commodity prices and imported inflation, which could reverse. Tailored measures are needed to boost productivity and investment; narrow gender gaps in labour force participation; deal with demographic transition; and support those affected by shifts in technology and trade. And to reap the full benefits of the digital revolution, Asia will need a comprehensive policy strategy covering information and communications technology, infrastructure, trade, labour markets and education.
For India, policy priorities include to further reduce banking and corporate vulnerabilities, strengthen the governance of public sector banks, durably lower sticky inflation expectations, and continue fiscal consolidation at the Centre and states. Maintaining the strong reform effort, notably by enhancing the efficiency of labour and product markets, and pursuing steps to modernise the agricultural sector will also be essential to support high and inclusive growth.
Date:12-05-18
भारत-इंडोनेशिया तुलना
टी. एन. नाइनन
यह बात एकदम जाहिर हो चली है कि भारत और चीन के बीच तुलना का कोई तुक नहीं है। ये दोनों देश भौगोलिक रूप से विशाल और अधिक आबादी वाले हैं, दोनों को दो सर्वाधिक तेज गति से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाले देश माना जाता है, परंतु आर्थिक वृद्घि के मोर्चे पर वे बीते चार दशक में काफी अलग दायरे में रहे हैं। चीन की अर्थव्यवस्था का आकार भारतीय अर्थव्यवस्था का पांच गुना है। चीन शक्ति के खेल में एक अलग ही दायरे में है जबकि भारत अपने पड़ोस तक में प्रभुत्व गंवा रहा है। तकनीक अधिग्रहण, शिक्षा की गुणवत्ता और गरीबी उन्मूलन के मोर्चे पर चीन हमसे बेहतर है। चुनौतियों से निपटने के मामले में भी उसकी स्थिति हमसे अच्छी है। यह अंतर बताता है कि कैसे अब दोनों देशों की तलाश एकदम जुदा है। चीन के पास मजबूत हथियार निर्माण कार्यक्रम है जबकि भारत रक्षा आयात के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ है।
चीन चौथी औद्योगिक क्रांति की ओर मजबूती से बढ़ रहा है जबकि भारत को चीन के अतीत की कम मेहनताने वाले आयात की सफलता के उदाहरण से ही पार पाना है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है और उसकी कुछ कंपनियां दुनिया में अव्वल हैं। भारत का आकार इस क्षेत्र में बहुत छोटा है। ऐसा नहीं है कि भारत के पास दिखाने के लिए कोई सफलता ही नहीं है लेकिन आर्थिक और ताकत के मामले में दोनों देश अलग-अलग क्षेत्र में हैं। शायद वक्त आ गया है कि दोनों देशों की तुलना का काम बंद किया जाए। चीन जहां अमेरिका को चुनौती दे रहा है, वहीं भारत में चीन से तुलना की जा रही है। अगर तुलना ही करनी है तो भारत की तुलना इंडोनेशिया से क्यों नहीं की जाती? अगर ऐसा किया गया तो महाशक्ति बनने की अपनी ही गढ़ी हुई छवि को नुकसान पहुंच सकता है। यह भारत की उन उपलब्धियों के साथ नाइंसाफी होगी जिन तक इंडोनेशिया पहुंच नहीं सका है।
परंतु प्रमुख मानकों पर इंडोनेशिया चीन से बेहतर तुलना लायक है। इंडोनेशिया की अर्थव्यवस्था 10 खरब डॉलर से अधिक की है और उसकी प्रति व्यक्ति आय 4,000 डॉलर के साथ भारत से दोगुनी है। हम शायद 2030 तक उस स्तर पर पहुंच सकेंगे। चीन की प्रति व्यक्ति आय तो 8,600 डॉलर है जो भारत की पहुंच से कोसों दूर है। इंडोनेशिया की आर्थिक वृद्घि दर 5 से 6 फीसदी के साथ काफी अच्छी है। उसकी आबादी भी बड़ी है, हालांकि वह भारत के पांचवें हिस्से के बराबर ही है। दोनों देशों में आबादी की वृद्घि की दर लगभग समान है। दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाएं समान ढंग से चलती हैं। दोनों के पास बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र है और उन्होंने बाजार के बजाय मूल्य नियंत्रण को तरजीह दी है। दोनों देश सुधार के पथ पर हैं और उन्होंने विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया है। दोनों की क्रेडिट रेटिंग लगभग समान है, हालांकि भारत वृहद आर्थिक संकेतकों पर बेहतर स्थिति में है। इंडोनेशिया अन्य मोर्चों पर बेहतर है।
विश्व बैंक की कारोबारी सुगमता सूची में वह बेहतर स्थिति में है। भ्रष्टïाचार के मामले में भी उसकी स्थिति भारत से अच्छी है। सामाजिक रुझानों के मामले में भी दोनों देश एक दूसरे के समान है। हालांकि भारत की अधिकांश आबादी हिंदू और इंडोनेशिया की मुस्लिम है, परंतु इंडोनेशिया को एक ऐसा समाज माना जाता है जो व्यापक तौर पर जातीय और धार्मिक विविधता को लेकर सहिष्णु है। अलगाववादी आंदोलन दोनों देशों में लंबे समय से समस्या बने रहे। हाल के दिनों में धार्मिक विभाजन ने दोनों देशों में तनाव और हिंसा में इजाफा किया है। भारत की तरह इंडोनेशिया के समाज में भी धार्मिकता बढ़ रही है। वहां हिजाब पहनने वाली महिलाओं की तादाद बढ़ी है। भारत में भी राजनीति हिंदू बहुसंख्यकवाद की ओर केंद्रित है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्थागत नियंत्रण धीरे-धीरे बढ़ रहा है। विभिन्न समूहों का दखल भी बढ़ रहा है। इंडोनेशिया में धार्मिक पुलिस का गठन और रूढि़वादी धार्मिक नेताओं का उभार नजर आ रहा है जो खुद को नैतिकता का झंडाबरदार बताते हैं और इस्लामिक राज्य का प्रसार चाहते हैं। दोनों देशों के बीच अंतर भी है। इंडोनेशिया में बड़े राजनीतिक उतार-चढ़ाव और तीक्ष्ण आर्थिक घटनाएं नजर आई हैं।
उसका लोकतांत्रिक इतिहास कहीं अधिक ताजा है। वहीं आर्थिक मोर्चे पर भारत गरीब जरूर है लेकिन उसका औद्योगिक और वित्तीय क्षेत्र अधिक विविध और विकसित है। दोनों के सामने विकास की एक समान चुनौतियां हैं: औद्योगीकरण, बुनियादी विकास, व्यापक असमानता से निपटना और गरीबी का मुकाबला करना आदि। यानी भले ही हमारी आकांक्षा चीन का संक्षिप्त लोकतांत्रिक संस्करण बनने की हो लेकिन हम शायद इंडोनेशिया का बड़ा लेकिन अधिक परिपूर्ण संस्करण बन सकते हैं।
Date:12-05-18
रिश्तों की गांठ खोल सकता है प्रधानमंत्री का नेपाल दौरा
संपादकीय
उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी तीसरी नेपाल यात्रा में यह अच्छी तरह समझ सकेंगे कि भारत का यह पड़ोसी देश हमसे क्या चाहता है और नेपाल के कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली मोदी के समक्ष अपने देश और सरकार का मानस खोलकर रखेंगे। मोदी ने अपनी पहली यात्रा की तरह ही इस यात्रा को भी धार्मिक-सांस्कृतिक रंग देने की कोशिश की है। पहली यात्रा में उन्होंने पशुपतिनाथ में पूजा अर्चना की थी तो इस बार उन्होंने जानकी मंदिर में प्रार्थना के साथ और जनकपुर से अयोध्या की बस सेवा को हरी झंडी दिखाई। मोदी सरकार का लक्ष्य इस बस सेवा से भारत और नेपाल के सांस्कृतिक संबंधों की प्राचीनता को रेखांकित करना है। अयोध्या और जनकपुर के इस पौराणिक रिश्तों के आख्यान से जो लोग परिचित हैं वे यह भी जानते हैं कि सीता को आजीवन हुए कष्ट के कारण मिथिलावासी अपनी बेटी अवध में नहीं भेजना चाहते।
इसी पौराणिक ग्रंथि को आधुनिक संदर्भ में भारत और नेपाल के बीच सितंबर 2015 में हुई नाकेबंदी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। नाकेबंदी नेपालियों ने ही की थी लेकिन, आरोप यही था कि यह सब भारत सरकार के इशारे पर हो रहा है। उससे आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित हुई और नेपाल भारत की बजाय चीन पर अधिक निर्भर हो गया। मोदी का नेपाल दौरा तब पड़ी गांठ को खोल सकता है। इस बीच भारत-नेपाल और चीन के बीच गलतफहमियां दूर करने के राजनयिक प्रयास तेज हुए हैं। पिछले महीने नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली भारत आए थे तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी चीन गए थे। इस बीच नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप गयाली भारत का दौरा करने के बाद सीधे चीन गए। तब चीन के विदेश मंत्री वांग ही ने कहा था कि भारत और चीन के सहयोग का स्वाभाविक फायदा नेपाल को मिलना चाहिए। ऐसे में मोदी को चाहिए कि वे नेपाली प्रधानमंत्री ओली के समृद्धि के नारे को अर्थ प्रदान करें। इस काम को करने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं, जलमार्ग परिवहन, रेलवे लाइनों का विस्तार जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। मोदी की ही तरह ओजस्वी वक्ता और देश को नए-नए सपने दिखाने में माहिर ओली चाहते हैं कि समुद्र से कटे उनके देश का भी एक जहाजी बेड़ा हो, जिस पर नेपाल का ध्वज फहराता रहे। भारत को नेपाल से पौराणिक रिश्ता जोड़ने के साथ एक आधुनिक देश की इन भावनाओं को समझना होगा।
Date:12-05-18
भारत कराए अमेरिका व ईरान के बीच समझौता
महंगे तेल की मार से चाबहार योजना ठप हुई तो ग्वादर बंदरगाह तक पहुंच के लिए चीन की ओर झुकेगा ईरान
वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में तहलका मचा दिया है। उन्होंने ईरान से हुए परमाणु-समझौते के बहिष्कार की घोषणा करके सारी दुनिया को हक्का-बक्का कर दिया है। लोगों के दिमाग में कई सवाल कौंधने लगे हैं। क्या ईरान अब दुबारा परमाणु बम बनाने में जुट जाएगा? क्या इजरायल और ईरान में अब खुली मुठभेड़ होगी? क्या पश्चिम एशिया में सऊदी अरब और ईरान के बीच वर्चस्व की लड़ाई छिड़ जाएगी? क्या इजरायल और ईरान की आड़ में अब अमेरिका और रूस एक-दूसरे के विरुद्ध जोर आजमाइश करेंगे? इस समझौते के टूटने से कहीं तीसरा विश्व-युद्ध तो नहीं भड़क उठेगा?
यह समझौता जुलाई 2015 में हुआ था। इस पर ईरान के अलावा अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी ने दस्तखत किए थे। इसे संपन्न करने के लिए ईरान के साथ इन देशों ने कई वर्षों तक कूटनीतिक वार्ता चलाई थी और कड़े अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध थोप दिए थे। ईरान की अर्थव्यवस्था लगभग चौपट हो रही थी। समझौता यह हुआ था कि ईरान परमाणु बम नहीं बनाएगा और यूरेनियम को संशोधित नहीं करेगा। इसके परिणामस्वरुप ईरान ने पिछले तीन साल में अपने 13,000 सेंट्रीफ्यूजेस और 97 प्रतिशत संशोधित यूरेनियम को नष्ट कर दिया। ईरान कहीं भी चोरी-छिपे परमाणु बम तो नहीं बना रहा है, इस संदेह को मिटाने के लिए ईरान ने वियना की अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी की कड़ी निगरानी भी स्वीकार की है। एजेंसी का कहना है कि ईरान समझौते की सभी शर्तों का ईमानदारी से पालन कर रहा है। इस समझौते के बाद अमेरिका सहित सभी राष्ट्रों ने ईरान पर से प्रतिबंध उठा लिए थे। ईरान की अर्थव्यवस्था भी फिर से पनपने लगी थी।
लेकिन, अमेरिका में हुए राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त से ही ट्रम्प ने इस समझौते की कड़ी भर्त्सना शुरू कर दी और वादा किया था कि वे इसका बहिष्कार करेंगे। किसी तरह लगभग डेढ़ साल तक उन्होंने इसे चलने दिया और अब उन्होंने बाकायदा इसे छोड़ने की घोषणा कर दी है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा है कि ईरान पर सारे प्रतिबंध दोबारा लागू करेंगे और जो राष्ट्र ईरान की मदद करेंगे, उन पर भी ये प्रतिबंध लागू कर दिए जाएंगे। ट्रम्प का तर्क यह है कि यह समझौता बड़ा मूर्खतापूर्ण है। इसमें भयंकर धोखाधड़ी होने वाली है। इसमें ईरान को यह छूट दे दी गई है कि 2025 के बाद वह इस समझौते के बंधन में नहीं रहेगा यानी 2025 के बाद वह परमाणु बम बना लेगा। क्या मालूम वह अभी भी परमाणु बम की तैयारी कर रहा है या नहीं ?
ट्रम्प के दावों का अंध-समर्थन इजरायल कर रहा है। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने पिछले हफ्ते एक बड़े पत्रकार सम्मेलन में 10 हजार पेज के गुप्त ईरानी दस्तावेज पेश करके यह सिद्ध करने की कोशिश की कि ईरान परमाणु बम बनाने पर डटा हुआ है। इजरायल और ईरान का 36 का आंकड़ा है। ईरान की मदद फिलिस्तीनियों, लेबनानी शियाओं और इजरायल-विरोधी हर संगठन को मिलती रहती है। यदि ईरान के पास परमाणु बम आ जाता है तो अरब देशों पर इजरायल की आधी दहशत अपने आप खत्म हो जाएगी। शिया-सुन्नी विवाद के कारण सऊदी अरब से ईरान की पहले से ठनी हुई है। ये दोनों राष्ट्र ट्रम्प के चहेते हैं। इसके अलावा ईरान के खिलाफ ट्रम्प इसलिए भी है कि वह सीरिया के शासक बशर अल-असद की खुलकर मदद कर रहा है। इस काम में रूस पूरी तरह से ईरान का साथ दे रहा है। चीन का भी उसे कूटनीतिक समर्थन प्राप्त है। इनके विपरीत इजरायल और अमेरिका सीरिया में असद के खिलाफ जबर्दस्त फौजी मोर्चा लगाए हुए हैं। ट्रम्प की घोषणा के बाद सीरिया में ईरानी और इजरायली फौजों के बीच जमकर युद्ध हुआ है। डर यही है कि यह युद्ध रूस और अमेरिका के बीच न छिड़ जाए।
ट्रम्प ने परमाणु-समझौते का जो बहिष्कार किया है, उसका इजरायल के अलावा किसी भी महत्वपूर्ण राष्ट्र ने समर्थन नहीं किया है। इस समझौते पर दस्तखत करने वाले ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस जैसे अमेरिका के परम मित्र राष्ट्रों ने भी ईरान से कहा है कि वे इस समझौते को अब भी मानते हैं और आगे भी मानते रहेंगे। लेकिन, इस आश्वासन के बावजूद मुझे नहीं लगता है कि वे अमेरिकी विरोध के मुकाबले टिक पाएंगे। फ्रांस के राष्ट्रपति एमेन्यूएल मेक्रां ने अपनी वॉशिंगटन-यात्रा के दौरान बीच का रास्ता निकालने के लिए चार-सूत्री फॉर्मूला सुझाया था, जो ट्रम्प के विचारों के करीब था। इसके अलावा सभी राष्ट्रों को पता है कि ट्रम्प का कोई भरोसा नहीं। वे कब क्या कर बैठें? ट्रम्प पहले जलवायु और प्रशांत-क्षेत्र व्यापार समझौते को तोड़ ही चुके हैं। उत्तरी कोरिया के अदम्य तानाशाह किम को वे झुका चुके हैं। लेकिन ईरान, ईरान है, उत्तरी कोरिया नहीं। वह धौंस और धमकियों से डरने वाला नहीं है। पहले भी उसने अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों की परवाह नहीं की थी। अब यदि वह दुबारा परमाणु बम बनाने पर उतर आया तो यह बड़ी खतरनाक बात हो सकती है। ईरान के नेताओं ने ट्रम्प को उन्हीं के शब्दों में बुरी तरह से शर्मिंदा किया है और नहले पर दहला मारा है।
ईरान पर लगे प्रतिबंधों का असर भारत-जैसे देशों पर काफी घातक होगा। इस समय भारत को तेल भेजने वाले देशों में ईरान का नंबर तीसरा है। भारत के लिए तेल बहुत महंगा हो जाएगा। पहले ही वह काफी महंगा है। मोदी सरकार का सिरदर्द तेज हो जाएगा। इसके अलावा ईरान के चाबहार से हम जो मध्य एशिया के पांच राष्ट्रों और अफगानिस्तान तक पहुंचने के नए रास्ते बनाने वाले थे, यह योजना भी ठप हो जाएगी। कोई आश्चर्य नहीं कि चाबहार योजना के ठप होते ही ईरान कोशिश करेगा कि वह चीन से सहयोग बढ़ाए ताकि उसे पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के इस्तेमाल की सुविधा मिल सके। चाहबहार से ग्वादर सिर्फ 80 किमी है।
ऐसी स्थिति में भारत को एक तटस्थ-सा बयान देकर चुप नहीं बैठना चाहिए। भारत ने ईरान और अमेरिका से अनुरोध किया है कि वे इस मामले को शांतिपूर्ण ढंग से हल करें। यह काफी नहीं है। भारत इस समय अमेरिका और ईरान, दोनों का घनिष्ट मित्र है। किसी भी बड़े राष्ट्र की स्थिति इस मामले में आज वह नहीं है, जो भारत की है। यदि भारत पहले करे तो उक्त परमाणु-समझौते को अब इस तरह से ढाला जा सकता है कि वह सभी पक्षों को मान्य हो जाए।
Date:12-05-18
सौदा और सवाल
संपादकीय
कुछ साल पहले अपने देश में बहुत सारे लोगों ने वालमार्ट का नाम पहली बार तब सुना था, जब खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी देने की पहल हुई थी। तब बड़े पैमाने पर यह आशंका जताई गई थी कि अगर यह पहल आगे बढ़ी, तो भारत के खुदरा कारोबार पर वालमार्ट जैसी विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा, और इससे करोड़ों छोटे दुकानदारों की आजीविका पर बुरा असर पड़ेगा। इस विरोध में भाजपा भी बड़े मुखर रूप से शामिल थी, और विरोध के फलस्वरूप आखिरकार मनमोहन सिंह सरकार को बहु-ब्रांड खुदरा व्यवसाय में एफडीआइ को मंजूरी देने का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा था। लेकिन जिस वालमार्ट को यूपीए सरकार के समय तीखे विरोध के कारण रुक जाना पड़ा था, अब उसने राजग सरकार के समय भारत में प्रवेश के लिए अपने कदम बढ़ा दिए हैं। यों बहु-ब्रांड खुदरा कारोबार अब भी एफडीआई के लिए खुला नहीं है, पर वालमार्ट ने ऑनलाइन रास्ता चुना है। वह भी अधिग्रहण के जरिए। उसने ई-कॉमर्स की भारत की दिग्गज कंपनी फ्लिपकार्ट की 77 फीसद हिस्सेदारी खरीद ली है। यह वालमार्ट की तरफ से अब तक सबसे बड़ा अधिग्रहण है, और इसके फलस्वरूप अब वही भारत के ई-कॉमर्स में अमेजॉन की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी होगी। अमेजॉन भी अमेरिकी कंपनी है, और इस तरह भारत के ऑनलाइन खुदरा कारोबार पर वर्चस्व की लड़ाई दो अमेरिकी कंपनियों के बीच ही होगी। क्या यह मेक इन इंडिया के अनुरूप होगा या उसे मुंह चिढ़ाने वाला?
वालमार्ट ने फ्लिपकार्ट की सतहत्तर फीसद हिस्सेदारी सोलह अरब डॉलर में खरीदी है। यानी फ्लिपकार्ट की कुल कीमत 20.8 अरब डॉलर लगाई गई। जबकि बस एक साल पहले फ्लिपकार्ट की कुल कीमत केवल साढ़े दस अरब डॉलर आंकी गई थी। फिर सवाल उठता है कि वालमार्ट कंपनी इतनी ज्यादा कीमत चुकाने को क्यों तैयार हो गई? इससेभारत में ई-कॉमर्स की संभावनाओं का दोहन करने की उसकी रणनीति जाहिर है। हालांकि अभी भारत में खुदरा ई-कॉमर्स कुल खुदरा कारोबार का पांच फीसद ही है, पर इंटरनेट और स्मार्टफोन इस्तेमाल करने वालों की तादाद तेजी से बढ़ी है, और इसमें तेजी से वृद्धि जारी है। साथ ही, ऑनलाइन खरीदारी में लगातार इजाफा हो रहा है। वालमार्ट को लगा होगा कि भारत के खुदरा कारोबार में सीधे प्रवेश की इजाजत पता नहीं कब मिलेगी, तब तक वाया अधिग्रहण क्यों न ई-कॉमर्स को ही हथियाया जाए। इससे भारत में घरेलू ब्रांड बनने की उसकी महत्त्वाकांक्षा जाहिर है। लेकिन वालमार्ट द्वारा फ्लिपकार्ट के अधिग्रहण का एसोचैम जैसे कॉरपोरेट संघ ने स्वागत किया है, वहीं कई संगठनों ने विरोध भी जताया है। मसलन, स्वदेशी जागरण मंच ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर कहा है कि यह सौदा छोटे और मझोले कारोबारियों व दुकानदारों को खत्म करेगा और रोजगार सृजन के अवसर भी कम करेगा।
इस सौदे को देश-हित के विरुद्ध करार देते हुए मंच ने प्रधानमंत्री से हस्तक्षेप की मांग की है। इसी तरह कैट यानी कॉनफेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स ने फ्लिपकार्ट-वालमार्ट सौदे को देश के ई-कॉमर्स क्षेत्र के लिए घातक बताया है। फ्लिपकार्ट की शुरुआत ऑनलाइन किताबें बेचने वाले एक ‘स्टार्ट अप’ के रूप में हुई थी, लेकिन अगले ग्यारह सालों में यह साल-दर-साल सफलता का पर्याय और नई पीढ़ी की सफल भारतीय कंपनियों की अगुआ बन गई। लेकिन तमाम कामयाबी के बावजूद उसने वालमार्ट के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। ई-कॉमर्स की बाबत भारत में फिलहाल नियमन की कोई व्यवस्था नहीं है। क्या विडंबना है कि फ्लिपकार्ट पर वालमार्ट का कब्जा ऐसे वक्त हो रहा है जब स्टार्ट अप और मेक इन इंडिया पर जोर दिया जा रहा है।
Date:11-05-18
डील के मायने
संपादकीय
भारत के ई कॉमर्स क्षेत्र में सबसे ज्यादा व्यवसाय करने वाली कंपनी फ्लिपकार्ट के 77 प्रतिशत शेयर की वालमार्ट द्वारा एकमुश्त खरीदारी ने देश को भौंचक्क कर दिया है। सामान्यत: यह बात समझ से परे है कि एक फलती-फूलती कंपनी के मुख्य साझेदारों ने इस तरह अपने को क्यों बेच दिया? 77 प्रतिशत इक्विटी का मतलब है कंपनी का अधिग्रहण। हालांकि एक मायने में यह अद्भुत भी है। सामान्य स्टार्टअप के तहत खड़ी की गई कंपनी वालमार्ट ने 20.8 अरब डॉलर की कीमत लगाई। इस नाते यह फ्लिपकार्ट की उपलब्धि भी मानी जा रही है। हालांकि इसके कुछ शेयरधारकों ने अपने को कंपनी से अलग नहीं किया, इसलिए वालमार्ट ने 16 अरब डॉलर यानी 1.05 लाख रु पये खरीदने के लिए दिया। यह इस वर्ष के विलय और अधिग्रहण का सबसे बड़ा सौदा तो है ही, वालमार्ट का भी सबसे बड़ा अधिग्रहण है।
वालमार्ट जैसी कंपनी ने यदि इतना बड़ा निवेश किया है तो उसके पीछे कुछ निश्चित कारण होंगे। जो सूचना है, उसके अनुसार वालमार्ट ने इस सौदे के पहले भारत में ई कॉमर्स की वर्तमान स्थिति और संभावनाओं पर विस्तृत अध्ययन कराया। उसमें निष्कर्ष यह आया कि फ्लिपकार्ट ने भारत में अपना ऐसा विस्तार कर लिया है कि इसके नीचे आने की दूर-दूर तक आशंका नहीं है। साथ ही भारत में जिस तरह डिजिटल क्रांति का विस्तार हो रहा है, जिसका परिणाम होगा ई कॉमर्स में व्यापक वृद्धि। अगर फ्लिपकार्ट की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत है तो अमेजन की 27 प्रतिशत। जापानी कंपनी सॉफ्टबैंक की पहले से फ्लिपकार्ट में 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी, जिसे उसने बेच दिया है। यही इसमें सबसे बड़ी निवेशक थी। कहने का मतलब यह कि विदेश निवेश भी इसमें पहले से था। माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन अभी भी कंपनी का भाग है। किंतु वालमार्ट तो अब इस कंपनी का लगभग स्वामी ही हो गया है। उसे लेकर आशंकाएं खड़ी की जा रहीं हैं कि कहीं यह खुदरा बाजार में परोक्ष तरीके से प्रवेश का प्रयास तो नहीं? हालांकि अभी भारत में ई कॉमर्स को लेकर एकदम साफ नीति-नियम नहीं है, इसलिए यह देखना होगा कि इस सौदे को सरकार की ओर से किस तरह मंजूरी मिलती है? वास्तव में वालमार्ट को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग सहित कई संस्थाओं से मंजूरी लेनी होगी। सब कुछ होते हुए एक वर्ष तो लग ही जाएंगे। जो भी हो एक विदेशी कंपनी का आम सामानों की खरीद-फरोख्त में इस तरह का वर्चस्व कोई सुखद प्रगति नहीं है।
Date:11-05-18
जेब से जेब का समझौता
आलोक पुराणिक
देश की महत्त्वपूर्ण आनलाइन विक्रेता कंपनी फ्लिपकार्ट को अमेरिका की बड़ी कंपनी वालमार्ट ने टेकओवर कर लिया है। यानी फ्लिपकार्ट के करीब 77 प्रतिशत शेयर वालमार्ट के पास होंगे। फ्लिपकार्ट कंपनी को वालमार्ट कंपनी ही चलाएगी। फ्लिपकार्ट का भारत के संदर्भ में महत्त्व यह है कि इसने भारतीयों को आनलाइन खरीद-फरोख्त से रू-ब-रू कराया। शुरू में इसके जरिये किताबें बेची जाती थीं। पर बाद में इसमें लगभग हर आइटम खरीदा-बेचा जाने लगा। ऑनलाइन खरीद-फरोख्त करने के मामले में फ्लिपकार्ट कंपनी एक अगुआ कंपनी बनी भारत में। इस समय में आनलाइन खरीद-फरोख्त की तीन बड़ी कंपनियां हैं भारत में। एक फ्लिपकार्ट, दूसरी अमेजन और तीसरी पेटीएम। अब तीनों ही विदेशी कनेक्शनवाली कंपनियां हैं। फ्लिपकार्ट पर वालमार्ट का हाथ है। अमेजन तो है ही अमेरिकन कंपनी और पेटीएम पर चाइनीज कंपनी अलीबाबा का हाथ है।
भारत का आनलाइन खरीद-फरोख्त बाजार अब लगभग विदेशी हाथों में है। कमाल यह है कि जिस डील के लिए अमेरिकन वालमार्ट ने 16 अरब डालर (77 प्रतिशत शेयर होल्डिंग के) दिए हैं, उस डील की कंपनी फ्लिपकार्ट ने अभी तक मुनाफा कमाकर नहीं दिया। घाटे में चल रही फ्लिपकार्ट को इतनी रकम इसीलिए मिली है कि ऑनलाइन खरीद-फरोख्त भविष्य के बड़े कारोबारों में से एक है। फ्लिपकार्ट की इस बड़ी कीमत पर बिक्री ने एक संदश और दिया है कि शानदार कीमत हासिल करने के लिए कंपनी का मुनाफे में चलना जरूरी नहीं है। हां यह जरूरी है कि उस कंपनी को भविष्य की कंपनी के तौर पर चिह्नित किया जाए। मुनाफे में ना चलने के बावजूद फ्लिपकार्ट की जो कीमत लगाई गई है, वह एक्सिस बैंक, एचसीएल टेक्नोलॉजीज और एनटीपीसी कंपनी से ज्यादा कीमत है। टाटा स्टील के मुकाबले फ्लिपकार्ट दोगुनी कीमती कंपनी है। फ्लिपकार्ट के दस करोड़ रजिस्र्टड प्रयोगकर्ता हैं।
फ्लिपकार्ट के पास पांच करोड़ से ज्यादा ग्राहक ऐसे हैं, जिन्होंने फ्लिपकार्ट से पिछले बारह महीनों में एक बार खरीद-फरोख्त की है। पांच करोड़ का आंकड़ा बहुत महत्त्वपूर्ण है। पूरे अमेरिका की जनसंख्या करीब तैंतीस करोड़ है। पूरी अमेरिकन जनसंख्या का करीब पंद्रह प्रतिशत हिस्सा फ्लिपकार्ट पर बतौर ग्राहक है। यह तय इस कंपनी को कीमती बनाता है। खास तौर पर जब भारत में तेजी से इंटरनेट अर्थव्यवस्था उभर रही है। एक दशक से ज्यादा काम करने के बावजूद फ्लिपकार्ट फायदे में नहीं है। पर वालमार्ट को उम्मीद है कि इसे देर-सबेर वह फायदे में ले आएगी। वालमार्ट अमेरिका की विख्यात और कुख्यात कंपनियों में से एक है। विख्यात इसलिए कि वालमार्ट अपने साइज की वजह से अपने आपूत्तर्िकर्ताओं से बहुत ही सस्ते में माल खरीदने का दबाव बनाती है। सस्ती लागत की वजह से इसकी कीमतें भी बहुत सस्ती होती हैं।
वालमार्ट ग्राहकों के बीच बहुत लोकप्रिय है। पर वालमार्ट कुख्यात भी है। लागत कटौती के चलते इसके आपूर्तिकर्ता और इसके कर्मचारी कई बार वालमार्ट से नाराज दिखाई देते हैं। वालमार्ट के फ्लिपकार्ट के जरिये रिटेल में आने के चलते कई रिटेल कंपनियों में खौफ है कि अपने सस्ते आइटमों की वजह से कई कंपनियां धंधे से ही बाहर ना हो जाएं। अभी वालमार्ट सीधे ग्राहकों तक नहीं पहुंचती है। वालमार्ट इंडिया की वेबसाइट बताती है कि ‘‘कैश एंड कैरी’ के नाम से यह नौ राज्यों में आधुनिक होलसेल स्टोर चलाती है। थोक के भाव पर यह तमाम आइटम छोटे खुदरा रिटेल दुकानदारों को बेचती है। वालमार्ट की जेब की गहराई का अंदाज इससे लगता है कि भारत के अब तक के कारोबार में इसे 2016 तक करीब 1874 करोड़ रु पये का घाटा हो चुका है। फिर भी धन की समस्या नहीं है वालमार्ट के लिए। अब फ्लिपकार्ट पर कब्जे के साथ वालमार्ट सीधे आखिरी उपभोक्ता तक आनलाइन पहुंचने की सामर्य रखती है। यानी एक साथ थोक और रिटेल में पहुंच बनाने की क्षमता वालमार्ट के पास आ गई है। इससे स्थानीय कारोबारियों में गहन चिंता है। कन्फेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स ने इस डील का विरोध किया है। वालमार्ट के मुकाबले छोटे कारोबार टिक ना पाएंगे, ऐसी आशंकाएं जताई जाती रही हैं।
2017 के आंकड़ों के मुताबिक ऑनलाइन खरीद-फरोख्त के बाजार में फ्लिपकार्ट की हिस्सेदारी 39.5 प्रतिशत है। अमेजन की हिस्सेदारी 31 प्रतिशत है। पेटीएम की हिस्सेदारी 5.6 प्रतिशत है। यानी आनलाइन खरीद का करीब 71 फीसद हिस्सा विदेशी या विदेशी वित्त पोषित कंपनियों के हाथों में है। वालमार्ट सीधे तौर पर भारतीय रिटेल कारोबार में नहीं सकती। पर ऑनलाइन रिटेल कारोबार में आने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। एक शोध संस्थान के मुताबिक ऑनलाइन खरीद-फरोख्त का बाजार 2026 तक भारत में करीब 200 अरब डॉलर का हो जाएगा। यह रकम कितनी बड़ी है, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी जो भारत का सकल घरेलू उत्पाद है, उसका करीब दस फीसद यह रकम बैठती है-200 अरब डालर। इतने बड़े कारोबारी मौके पर तमाम देशी-विदेशी नजरें हैं। छोटे कारोबारी इस डील से खुश नहीं हैं। ऑनलाइन सेल बढ़ने से ऑफलाइन सेल यानी छोटी दुकानों का धंधा कमजोर पड़ता है। कारोबारी भाजपा के वोटर भी हैं। पर देखने की बात यह है कि यह डील गैर कानूनी नहीं है। विदेशी कंपनियों के रिटेल में आने के रास्ते खुले नहीं हुए हैं। पर ऑनलाइन रिटेल में विदेशी कंपनियों को आने से कोई नहीं रोक सकता है। दरअसल, ऑनलाइन रिटेल पर अब विदेशी कब्जा पक्का ही हुआ है।
ग्राहकों के मजे आने वाले हैं, गहरी जेब वाली कंपनियां और ज्यादा डिस्काउंट वाले ऑफर लेकर आएंगी। ग्राहकों को सस्ता आइटम चाहिए होता है, स्वदेशी से आए विदेशी से आए, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यानी भविष्य के मुनाफे के लिए वह कुछ सालों तक घाटे के लिए तैयार हैं। पर आफत भाजपा सरकार के लिए आने वाली है, वह अपने वोट बैंक की नाराजगी का क्या तोड़ निकालेगी, जो बहुत कुछ ऑनलाइन खरीदे-बेचे जाने से परेशान है। हालांकि वालमार्ट के भारतीय कंपनी में निवेश से यह तो साबित होता है कि भारत के भविष्य में बहुत बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भरोसा है। पर इस डील के राजनीतिक निहितार्थो से चुनावी साल में निपटना मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी। यह चुनौती और गहरी तब हो जाती है, जब भाजपा के विचार परिवार के दूसरे संगठन इस डील का पुरजोर विरोध कर रहे हैं।
Date:11-05-18
ईरान के साथ खड़े होने का समय
दिनकर प्रकाश श्रीवास्तव, ( ईरान में भारत के पूर्व राजदूत )
राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप के भाषणों पर नजर डालें, तो ईरान के साथ परमाणु करार तोड़ने का अमेरिकी फैसला कहीं से भी अप्रत्याशित नहीं है। हालांकि फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन अंतिम क्षण तक ट्रंप को मनाने का प्रयास करते रहे कि भले ही कुछ बदलाव करने पड़ें, लेकिन अमेरिका को समझौते के साथ ही रहना चाहिए। लेकिन ट्रंप नहीं माने। आखिरकार यूरोपीय नेताओं ने एक बयान जारी कर स्पष्ट कर दिया है कि वे समझौते से पीछे नहीं हटेंगे। जाहिर है, अमेरिका का यह फैसला नाटो सहयोगियों के बीच मतभेद का कारण बन गया है। दूसरी तरफ, ईरान ने भविष्य में भी समझौते की शर्तों के अनुसार अपने दायित्व का पालन करते रहने का भरोसा दिलाया है। रूस और चीन भी समझौते के साथ हैं। यानी इस घटनाक्रम से साझी व्यापक कार्ययोजना (जेसीपीओए) खासी कमजोर तो जरूर हुई है, लेकिन खत्म नहीं हुई है।
ईरान परमाणु समझौता कोई द्विपक्षीय करार नहीं है। इस पर ईरान के साथ पी5+1 देश यानी अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी ने भी हस्ताक्षर किए हैं। समझौते को जुलाई, 2015 में प्रस्ताव 2231 के तहत सुरक्षा परिषद की मंजूरी भी मिल चुकी है। यह प्रस्ताव अब भी प्रभावी है। राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के मिसाइल कार्यक्रम और क्षेत्र में उसकी गतिविधियों को समझौता तोड़ने का आधार बनाया है। मगर मिसाइल कार्यक्रम तो सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का हिस्सा है। एक तर्क यह भी है कि सुरक्षा परिषद के स्वीकृत प्रस्ताव कानूनी रूप से बाध्यकारी होते हैं। रही बात ईरान के परमाणु कार्यक्रम की, तो अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने भी माना है कि ईरान परमाणु समझौते के तहत अपने दायित्वों को बखूबी निभा रहा है।
बहरहाल, अमेरिका को सऊदी अरब और इजरायल का साथ मिला है। इससे क्षेत्र में तनाव ही बढ़ेगा। यह सही है कि इस्लामिक स्टेट का प्रभाव दिनोंदिन कम हो रहा है, पर सीरिया और यमन में उथल-पुथल अब भी जारी है। सऊदी अरब और कतर के बीच कायम तनाव के कारण खाड़ी देश भी बंटे हुए हैं। स्पष्ट है, तनाव में यह नया इजाफा किसी के हित में नहीं है। अमेरिका ने यह फैसला ऐसे वक्त पर लिया है, जब उसके मुखिया उत्तर कोरियाई शासक से मिलने की तैयारी कर रहे हैं। फैसले का यह वक्त उत्तर कोरिया को भी गलत संदेश दे रहा है, जो परमाणु क्षमता को अपनी अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति का महत्वपूर्ण माध्यम मानता है।
जाहिर है, करार तोड़ने का असर अमेरिका का ईरान पर फिर से परमाणु प्रतिबंधों के रूप में दिखेगा। संभव है, तीन से छह महीने में ये प्रतिबंध लगा भी दिए जाएं। हालांकि ये बंदिशें एकतरफा ही होंगी, लेकिन इसका असर ईरान के साथ कारोबार करने वाले अन्य मुल्कों की कंपनियों पर भी पड़ेगा। ईरान से कच्चा तेल खरीदने वाले तो सारे ही देश इससे प्रभावित हो सकते हैं। फिलहाल, ईरान 22 लाख बैरल कच्चे तेल का निर्यात करता है। पिछले दिनों बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में सुधार के मद्देनजर पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन ओपेक और रूस ने तेल-उत्पादन में कटौती पर सहमति जताई थी, मगर इससे आने वाले दिनों में तेल की कीमतें चढ़ेंगी ही। यह सच है कि अमेरिकी शेल तेल कंपनियां और अन्य ओपेक निर्यातक देश बाजार में ईरान की हिस्सेदारी पाटने का प्रयास करेंगे, लेकिन इस सबके कारण उत्पन्न हुआ अनिश्चय का माहौल बाजार में अस्थिरता पैदा करेगा। तेल कीमतों में वृद्धि वैश्विक आर्थिक सुधारों को भी प्रभावित कर सकती है। इसका असर तेल आयातक देशों के कारोबार और करेंट अकाउंट बैलेंस यानी चालू खातों पर पड़ेगा। फरवरी, 2016 में तेल की कीमत घटकर 27 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी, जो अब बढ़कर 70 डॉलर प्रति बैरल से पार चली गई है। ब्रेंट क्रूड भी अब 77.72 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया है।
ट्रंप का फैसला कई बड़े देशों के आर्थिक हितों को प्रभावित करने वाला है। प्रतिबंध हटने के बाद यूरोपीय कंपनियों ने तेजी से ईरान के बाजार का रुख किया था। एयरबस ने नागरिक विमानों की आपूर्ति के लिए 20 अरब डॉलर से भी अधिक का करार किया था, जिनमें से तीन पहले ही आ चुके हैं। हाल ही में, ईरान ने एटीआर एयरक्राफ्ट की डिलीवरी ली है। मर्सिडीज, वोल्वो, प्यूजोट जैसी कंपनियां वहां अपनी गाड़ियां बेच ही नहीं रही हैं, बल्कि उन्होंने अपने निर्माण-कारखाने भी स्थापित कर लिए हैं। बोइंग ने भी 20 अरब डॉलर से अधिक बड़ा ऑर्डर हासिल किया है। अमेरिकी फैसला ईरान की घरेलू राजनीति को भी प्रभावित करता हुआ दिख रहा है। 2017 के चुनाव में राष्ट्रपति हसन रूहानी भारी बहुमत से जीते। इसका एक कारण यह समझा जाता है कि उनकी विदेश नीति, खासकर परमाणु समझौता लोकप्रिय है। अब ईरान के नरम धडे़ पर दबाव आ सकता है।
रही बात भारत की, तो क्षेत्रीय कनेक्टिविटी बढ़ाने और ऊर्जा सुरक्षा में सुधार के लिए हम ईरान के साथ मिलकर काम करने को उत्सुक रहे हैं। चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए हमने ईरान के साथ समझौता किया है, ताकि अफगानिस्तान तक हमारी पहुंच सुनिश्चित हो सके। भारत अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण ट्रांजिट कॉरिडोर को लेकर भी उत्सुक है, क्योंकि इससे मध्य एशिया और रूस के बाजारों तक पहुंचने में समय और संसाधन कम खर्च होंगे। तेल कंपनी ओवीएल (ओएनजीसी विदेश लिमिटेड) तो ईरान के साथ फरजाद-बी गैस फील्ड के विकास पर बातचीत कर ही रही है। ईरान चूंकि हमारे लिए भू-रणनीतिक महत्व रखता है, इसलिए हमें उसके साथ रिश्तों में निरंतरता बनाए रखने की जरूरत भी होगी। भारतीय प्रवक्ता ने इसीलिए जोर देकर कहा है कि ईरान के परमाणु मसले को संवाद व कूटनीति के माध्यम से शांतिपूर्वक हल किया जाना चाहिए। बहरहाल, ताजा घटनाक्रम कितनी दूर तक असर डालेगा, इसका पूरा अनुमान लगाना अभी जल्दबाजी होगी। यह काफी कुछ समझौते से जुड़े रहने के तीनों यूरोपीय देशों के वादे पर निर्भर करेगा। यदि तीनों यूरोपीय देश इस समझौते पर टिके रहते हैं, तो राष्ट्रपति रूहानी को भी इस करार को जारी रखने के अपने फैसले पर कायम रहने में आसानी होगी, वरना उन पर इसे रद्द करने का दबाव बढ़ता जाएगा।
Date:11-05-18
A Big Deal
Walmart-Flipkart affirms attractiveness of India’s market, maturing e-commerce. Politically, it must be handled with care
Editorial
There are three significant takeaways from Walmart’s $ 16 billion investment in Flipkart, which gives the US retail giant a 77 per cent stake in India’s largest e-commerce marketplace. First, it represents a huge vote of confidence in the Indian Consumption Story. According to national income statistics, private final consumption expenditure in the country for 2017-18 stood at $ 1.5 trillion. Within that, the share of retail e-commerce sales was just over $ 20 billion or 1.3 per cent. While consumer spending will continue growing at 9-10 per cent annually on the back of rising incomes, urbanisation and aspirations, the online retail segment is expected to expand four times as much — thanks to increased internet and smartphone penetration. Not surprisingly, then, Walmart is willing to pay so much to own a company, through whose platform some $ 7.5 billion worth of goods got traded last year. The Flipkart deal will also help take on its main rival Amazon, which is already doing $ 6 billion of gross merchandise value business in India.
The second major takeaway concerns e-commerce itself, which can no longer be considered a “start-up” industry even in India. Flipkart may have been founded only in 2007, just as Paytm and Snapdeal were in 2010 and BigBasket in 2011. Sachin Bansal, Flipkart’s main founder who has just sold out, is still just 37. But the sector has matured to a point where the market will now effectively be controlled by three big players: Walmart (through Flipkart, which had earlier acquired fashion e-tailers Myntra and Jabong), Amazon and China’s Alibaba (which is the biggest shareholder today in Paytm and BigBasket). It points to a simple reality: E-commerce is today a business that requires a lot of capital. There’s nobody in India willing to commit that kind of capital, which may not even yield returns for extended periods.
That links up with the third implication, which is political. The Walmart-Flipkart deal is subject to regulatory approval. How will the ruling BJP and its ideological affiliates take to the prospect of India’s e-commerce market being in the hands of “foreign” players — that too, in a year leading to general elections? The Narendra Modi government needs to take a firm view here. The Indian retail market is big enough to accommodate players across multiple formats, from small mom-and-pop stores to organised supermarket chains and online marketplaces. The interests of Indian consumers as well as producers — be it farmers, fishermen or artisans — are best served when there is competition in the market for supply and demand of goods and services. The government should ensure fair competition rather than pander to so-called Swadeshi voices.
Date:11-05-18
Online Retail Flip
Walmart’s controlling stake in Flipkart shows why the government must update policy
EDITORIAL
India’s e-commerce market, which accounts for less than a tenth of its overall retail opportunity, has just got a significant thumbs-up from American supermarket giant Walmart. It has announced a plan to buy a controlling stake of around 77% in home-grown e-commerce firm Flipkart for a sum of $16 billion. In the process, Walmart has pipped rival Amazon, which is just behind Flipkart when it comes to its share of the Indian e-commerce pie and has independently been vying to acquire the Bengaluru-based company. China’s Alibaba, with its investment in Paytm Mall, is vying to compete in the space as well, along with the likes of Snapdeal, which around this time last year was being linked to a much-speculated merger plan with Flipkart. But the big battle for Indians’ e-tail space, for now, will play out between two of America’s biggest companies. Not surprisingly, traditional retail players have responded with willingness to adapt to this paradigm shift and consider strategic alliances with online rivals. Interestingly, Walmart investors have voted against what they saw as an expensive bet, with the firm losing about $8 billion in value on the bourses after the deal was finalised. Though e-tail may have changed shopping habits among swathes of Indians, it remains heavily dependent on discount-peddling. Flipkart, in particular, has reported accumulated losses of ₹24,000 crore.
Walmart is betting on the future growth it can unlock from this full-frontal entry into a market that has proved difficult despite its best attempts for over a decade. The company had entered India in 2007 but exited the joint venture with the Bharti group and restricted its operations to cash-and-carry stores, in the face of strict curbs on foreign direct investment (FDI) in the multi-brand retail sector. These restrictions, ostensibly to protect smaller retailers, have remained in place under the NDA government, belying expectations of a reset. Facing heat at home from Amazon, which is now moving from online-only to a brick-and-mortar plus e-tail model, this is a vital time for Walmart to get into India’s business-to-consumer segment. That this deal doesn’t ruffle extant policy restrictions, in fact, reveals the inefficacy of India’s approach to retail FDI in a rapidly changing global marketplace. Local trade lobbies as well as swadeshi advocates are determined to resist the deal, while analysts are wondering how Walmart will turn around Flipkart’s cash burn rates. However, for India’s policymakers, neither of these should matter. It is important to assess if, and how, the U.S. firm will integrate Indian suppliers into its international operations. Most importantly, it is time to nuance the debates that have dominated India’s retail FDI policy — big versus small, local versus foreign — to create a truly level playing field where all can compete, without artificial safeguards that can be overcome via such deals.