12-03-2019 (Important News Clippings)
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Date:12-03-19
Mission Shakti
Naveen Patnaik will field 33% women candidates, it’s bold politics and also fair
TOI Editorials
In a historic first for any political party in the country, Odisha chief minister and BJD president Naveen Patnaik has pledged to field 33% women candidates in the coming Lok Sabha elections. This is against the backdrop of the Women’s Reservation Bill to reserve 33% of all Lok Sabha and state assembly seats for women, hanging fire in Parliament for around a quarter century. BJD has shown it doesn’t take a change in law to give women a fair representation.
In the absence of a Women’s Reservation Bill, many parties hesitate to put up women candidates due to doubts about their ‘winnability’. BJD is bold to buck this trend. But underlying such boldness could be a canny sense of social change. For two decades women voters have been considered key to BJD’s electoral success. BJP has targeted this constituency with the likes of the Ujjwala scheme for cooking gas connections. Congress president Rahul Gandhi has promised it welfare measures like free school, college, medical and other higher education. So Patnaik’s move sends as much a message of self-confidence as of outreach to women voters. A slew of fresh candidates should also help BJD counter anti-incumbency.
In 2014 women surpassed men’s turnout in half the states and Union territories. Milan Vaishnav and Jamie Hintson point out that the overall gender gap among voters that generally stayed between 7-12 percentage points between 1967-2004 plummeted to 1.8 points last time. But only 8% of the candidates were women, who still ended up as 11% of MPs elected. This shows an ignoble lag between women voters and women candidates, even though women candidates can evidently perform well once they are admitted into the ring. BJD has started repairing this ignoble record, other parties should follow suit.
Date:12-03-19
Naveen Patnaik Sets a Worthy Example
ET Editorials
Odisha chief minister and Biju Janata Dal president Naveen Patnaik’s decision to nominate women for one-third the seats in the coming Lok Sabha elections is welcome. Other political parties should follow BJD’s example while nominating their candidates, instead of giving reservation for women in Parliament mere lip support. Reservation for women should materialise in the legislatures as well to enhance their participation in lawmaking. The Sixteenth Lok Sabha had just 65 women MPs, 11.9% of 543 MPs. The ratio is almost the same in the Rajya Sabha (28 women members out of 244). This must change. The ideal way to raise women’s representation is for political parties to field women candidates in seats they are confident of winning.
Many women have gained experience in holding and running political office, following the 73rd and 74th amendments to the Constitution that mandated polls to local and urban bodies, complete with reservation of at least a third of the seats for women. This is so even after disregarding many women members of panchayats who have held office as proxies for their male relations. At the end of 2017, women sarpanchs reportedly accounted for 43% of total gram panchayats across the country. So, there is no dearth of women leaders for political parties to choose from.
The Women’s Reservation Bill — introduced by the UPA government in 2008 — aimed to reserve one-third of all seats in the Lok Sabha and the state legislative assemblies but lapsed after the dissolution of the Lower House, as parties lacked the needed will to see it through. Patnaik would do well to announce a similar proportion of women candidates for the assembly as well, to put paid to cynical voices that suggest this move is cover for dropping many sitting MPs.
Date:12-03-19
पोषण, प्रकृति और आजीविका से बना रहे खानपान का नाता
सुनीता नारायण
सही खानपान के अभाव में गरीब देशों में स्वास्थ्य समस्याएं बनी रहती हैं। लोगों के पास जैसे ही थोड़ा पैसा आने लगता है उन्हें वक्त पर भोजन मिलने लगता है लेकिन वे स्वास्थ्य मामले में लाभ की स्थिति भी गंवाने लग जाते हैं। दरअसल वे नमक, चीनी और वसा की अधिकता वाले प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का सेवन करने लगते हैं जो उन्हें मोटा और बीमार बनाने लगता है। हालांकि जब समाज में समृद्धि काफी बढ़ जाती है तब उन्हें सही खानपान से होने वाले लाभों का अहसास होता है। यह विडंबना ही है कि भारत में ये सारी स्थितियां एक साथ घट रही हैं। कुपोषण की बड़ी चुनौती के साथ ही हम मोटापे और उससे जुड़ी मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप की बीमारियों का भी सामना कर रहे हैं। लेकिन हमें इस मामले में थोड़ी बढ़त भी हासिल है कि हम सही खानपान की अपनी संस्कृति अभी तक भूले नहीं हैं। अब भी पोषण, प्रकृति और आजीविका के तार जुड़े हुए हैं। करोड़ों भारतीयों को अब भी थोड़ा भोजन ही मिलता है क्योंकि ये अधिकतर गरीब हैं। हमारे सामने यह चुनौती और सवाल है कि इनके पास पैसे आने पर भी क्या वे पहले की तरह प्रकृति से मिले खाद्यान्नों से बना पौष्टिक भोजन ही करते रहेंगे? यह असली परीक्षा है।
लेकिन ऐसा करने के लिए हमें अपनी खानपान की आदतें ठीक करनी होंगी। हमें समझना होगा कि पैसे आने पर गलत खानपान से अपनी स्वास्थ्य बढ़त को गंवा देना महज आकस्मिक नहीं है। ऐसा प्रसंस्कृत खाद्य उद्योग के कारण है क्योंकि सरकारों ने पोषण के मामलों में नियमन बंद कर दिया है। इस तरह उन्होंने शक्तिशाली खाद्य उद्योग को हमारे जीवन कारोबार के सबसे अहम तत्त्व खानपान का नियंत्रण अपने हाथ में लेने का मौका दे दिया है। हमें यह समझने की भी जरूरत है कि गलत खानपान का संबंध कृषि के बदलते तरीकों से जुड़ा हुआ है। इस तरह खाद्य कारोबार एकीकृत एवं उद्योग का रूप ले लेता है। यह मॉडल सस्ते भोजन की आपूर्ति पर बना हुआ है जिसमें रासायनिक पदार्थ मौजूद होते हैं। नाम भले ही बदल जाए लेकिन खानपान में मौजूद कीटनाशक एवं एंटीबॉडी का बस स्वरूप ही बदलता है।
दरअसल हमें कृषि वृद्धि के ऐसे मॉडल की जरूरत है जो स्थानीय स्तर पर उपजने वाले बढिय़ा खाद्यान्नों को अहमियत दे। इस मॉडल में पहले कीटनाशकों का इस्तेमाल कर उससे सबक सीखने की प्रवृत्ति से परहेज किया जाएगा। भले ही इस मॉडल को अपनाना मुश्किल है लेकिन ऐसा करने से ही हमें पोषणयुक्त आहार मिलने के साथ आजीविका की सुरक्षा भी मिल सकेगी। फिर भी खाद्य सुरक्षा व्यवसाय का डिजाइन ऐसा है कि साफ-सफाई एवं मानकों पर ध्यान दिया जाए। लेकिन नियमन के लिए खाद्य निरीक्षकों की जरूरत पडऩे से निगरानी की लागत बढ़ जाती है। विडंबना है कि इस मॉडल में वही चीज बाहर रह जाती है जो हमारे शरीर और सेहत के लिए सबसे अच्छी है, यानी छोटे किसान और स्थानीय खाद्य कारोबार। हमारे पास बड़ा कृषि-कारोबार बचा रह जाता है जिसकी हमें जरूरत ही नहीं होती है।
लेकिन इसी के साथ हमें गलत तरह के खानपान के खिलाफ संरक्षण की भी जरूरत है। सरकारें यह नहीं कह सकती हैं कि प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ का सेवन निजी पसंद का मामला है। सरकारें किनारे खड़े रहते हुए उद्योग जगत को प्रसंस्कृत उत्पाद के सेवन के लिए उपभोक्ताओं को लुभाते एवं मनाते हुए नहीं देखती रह सकती है। लोग जिसे भोजन मानते हैं असल में वह जंक फूड और सेहत के लिए नुकसानदायक है। भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) दो प्रमुख नियमों के प्रस्ताव पर बैठा हुआ है। किसी भी खाद्य उत्पाद को ‘जंक’ श्रेणी में रखना और बच्चों के खाद्य उत्पादों में पौष्टिक एवं स्वास्थवद्र्धक वस्तुओं को जगह देने के लिए स्कूलों को सलाह देने के नियम शामिल हैं।
यह विलंब ताकतवर एवं संगठित खाद्य प्रसंस्कृत उद्योग के चलते हो रहा है। यह उद्योग नहीं चाहता है कि डिब्बाबंद उत्पादों के पैक पर चीनी, नमक या वसा की मात्रा से संबंधित जानकारी अंकित की जाए। ऐसा होने पर पता चल जाएगा कि हम निर्धारित दैनिक सीमा से कितना अधिक चीनी, नमक या वसा खा ले रहे हैं। इस मसौदा अधिसूचना का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि उपभोक्ताओं के तौर पर हमें पता चल जाए कि अपने पसंदीदा सॉफ्ट ड्रिंक की एक बोतल पीने से दो दिन के बराबर चीनी गटक जाएंगे। इसी तरह हमें यह भी पता चल जाएगा कि अपने बच्चों को नूडल्स का एक कटोरा परोसने का मतलब है कि उस दिन बाकी समय उन्हें नमक-रहित उबली हुई सब्जियां ही देनी होंगी। वहीं लेबलिंग को लेकर जारी मसौदा अधिसूचना में आहार मानकों के बरक्स नमक, चीनी और वसा की मात्रा की जानकारी देने की बात कही गई है। इससे हम एक उपभोक्ता के तौर पर कोई भी प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद इस्तेमाल करने का फैसला सटीक जानकारी के आधार पर कर पाएंगे। लेकिन ऐसा करना उस उद्योग के लिए खासा असुविधाजनक हो जाएगा जो जंक खाद्य उत्पाद बनाता है और उनमें किसी तरह की पौष्टिकता भी नहीं होती है।
इतना ही काफी नहीं है। भारत में हमें खानपान की अपनी समृद्ध परंपरा का जश्न मनाने की भी जरूरत है जिसमें रंग, स्वाद, मसालों और प्रकृति की विविधता है। हमें यह जानने की जरूरत है कि अगर जंगल में जैव-विविधता खत्म होती है तो हमारे प्लेट में रखे भोजन की गुणवत्ता भी कम हो जाएगी। फिर भोजन निजी पसंद का मामला नहीं रह जाएगा। यह सभी की पसंद एवं स्वाद के लिहाज से बना पैकेज रह जाएगा। आज यही हो रहा है जहां हम प्लास्टिक कैन से प्लास्टिक फूड खा रहे हैं। हम जो खाते हैं और किसलिए खाते हैं, के बीच रिश्ता जोडऩे की जरूरत है। अगर हम स्थानीय पकवानों के बारे में जानकारी खोते जाएंगे तो हम स्वाद एवं सुगंध के अलावा भी कुछ गंवाएंगे। हम जिंदगी भी गंवा देते हैं और हमारा भविष्य भी चपेट में आ जाता है।
Date:12-03-19
ऊर्जा पहुंच का लक्ष्य कितना हुआ हासिल ?
जिस तरह केवल आय के आधार पर गरीबी का आकलन नहीं किया जा सकता है उसी तरह ऊर्जा विपन्नता को भी समझने के कई पैमाने होते हैं।
अरुणाभ घोष ,(लेखक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट ऐंड वाटर के सीईओ हैं)
भारत ने पिछले वर्षों में अपने करोड़ों नागरिकों तक ऊर्जा पहुंचाने के मामले में उल्लेखनीय प्रगति की है। आपूर्ति में आई तेजी ने ऊर्जा पहुंच के मामले में राजनीतिक वादों और नीतिगत क्रियान्वयन के बीच की खाई पाटने का काम किया है। अब हमें नीतिगत क्रियान्वयन और जमीनी हकीकत के बीच का फासला दूर करना है। जब संपोषणीय विकास लक्ष्यों को वर्ष 2015 में अंगीकार किया गया था तो भारत के करीब 4 करोड़ घरों तक बिजली नहीं पहुंची थी और 10 करोड़ से अधिक घरों में खाना बनाने के लिए जलावन वाली लकड़ी और गोबर से बने उपलों का इस्तेमाल होता था। उस समय भारत में ऊर्जा पहुंच से वंचित दुनिया के सर्वाधिक लोग थे।
फिर अचानक ही हालात तेजी से बदलने लगे। अक्टूबर 2017 में शुरू की गई सौभाग्य योजना के तहत करीब 2.5 करोड़ परिवारों को बिजली कनेक्शन दिए जा चुके हैं। उज्ज्वला योजना के तहत भी 6.5 करोड़ परिवारों को भी रसोई गैस (एलपीजी) सिलिंडर मिल चुके हैं। इसका असर यह हुआ है कि एलपीजी सिलिंडरों की पहुंच आज 85 फीसदी से भी अधिक परिवारों तक हो चुकी है जबकि 2015 में यह संख्या 60 फीसदी ही थी। हमें इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को इसका श्रेय देना चाहिए। लेकिन ऊर्जा पहुंच का मतलब केवल कनेक्शन देना नहीं है। जिस तरह गरीबी का आकलन केवल आय के आधार पर नहीं हो सकता है, उसी तरह ऊर्जा विपन्नता को समझने के कई पैमाने होते हैं। ग्रिड से जुड़ा कनेक्शन किसी काम का नहीं है अगर उन तारों में बिजली न प्रवाहित होती हो। अगर ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी सिलिंडर समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं तो घरों में खाना पकाने के लिए परंपरागत ऊर्जा साधनों का इस्तेमाल जारी रहेगा। अगर ऊर्जा सेवाएं लगातार नहीं मिल रही हैं तो लोग दोबारा ऊर्जा विपन्नता की स्थिति में पहुंच जाएंगे।
समय के साथ ऊर्जा पहुंच की न्यूनतम सीमारेखा भी बढ़ जाएगी। एक बिजली बल्ब और पंखा चलाने भर की मांग आगे चलकर रेफ्रिजरेटर और टेलीविजन चलाने लायक बिजली कनेक्शन की मांग में तब्दील हो सकती है। घरों के भीतर चलने वाले छोटे कारोबार (जैसे सिलाई) के लिए भरोसेमंद बिजली आपूर्ति की जरूरत पड़ेगी। बात यह है कि अपेक्षाएं बढऩे के साथ आज पर्याप्त लग रही ऊर्जा कल के लिए कम पड़ जाएगी। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट ऐंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) ने ऊर्जा पहुंच के आकलन के लिए एक बहुआयामी, बहुस्तरीय ढांचा विकसित किया है। खाना पकाने के लिए काउंसिल ने प्राथमिक रसोई ईंधन की उपलब्धता, खाना बनाने वाले स्टोव का स्वास्थ्य पर पडऩे वाले असर, खाना बनाने की गुणवत्ता और सुविधा के अलावा इसका खर्च उठाने की क्षमता जैसे बिंदुओं को ध्यान में रखा।
बिजली पहुंच का मामला भी बहुआयामी है। बिजली कनेक्शनों की भार क्षमता, आपूर्ति की अवधि, बिजली की गुणवत्ता (अधिक वोल्टेज होने पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खराब हो जाते हैं और कम वोल्टेज होने पर वे चल ही नहीं पाते हैं), विश्वसनीयता (हर महीने होने वाले ब्लैकआउट दिनों की संख्या), वहन-क्षमता और कनेक्शन की कानूनी स्थिति जैसे पहलू होते हैं। हरेक आयाम को एक स्तर दिया गया है। किसी घर का समग्र स्तर निम्नतम स्तर के बरक्स होता है ताकि नीति-निर्माताओं और जमीनी स्तर पर सक्रिय लोगों को सबसे कमजोर कड़ी का पता चल सके। सीईईडब्ल्यू ने इस बहुआयामी ढांचे का इस्तेमाल अपने एक्सेस सर्वे में भी किया है। वर्ष 2015 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी और 2018 में नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर एवं इनिशिएटिव फॉर सस्टेनेबल एनर्जी पॉलिसी के सहयोग से ये सर्वे किए गए। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में इस सर्वे को अंजाम दिया गया। सर्वे में 50 लाख से अधिक आंकड़े हैं जो भारत और शायद दुनिया में भी इसे ऊर्जा पहुंच से संबंधित सबसे बड़ा पैनल डेटा बनाते हैं।
उपभोक्ता-केंद्रित दृष्टिकोण से आंशिक समझ ही पैदा होती है। मसलन, झारखंड में 60 फीसदी ग्रामीण परिवार रोशनी के लिए ग्रिड बिजली का इस्तेमाल कर रहे थे वहीं आपूर्ति के औसत घंटे शायद ही कम हुए। उत्तर प्रदेश में रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल करने वाले घरों की संख्या में तीन-चौथाई वृद्धि देखी गई लेकिन यहां पर मुफ्त में बिजली कनेक्शन दिए जाने पर भी उसे लेने के लिए तैयार नहीं होने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक थी। बिजली कनेक्शन की संख्या और आपूर्ति अवधि के मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले पश्चिम बंगाल में भी वर्ष 2015 के बाद बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता एवं गुणवत्ता में गिरावट देखी गई है। इसके चलते कई परिवार बिजली उपभोग के मामले में फिर से निचली कतार में पहुंच गए हैं।
खाना बनाने के लिए जरूरी ऊर्जा के मामले में शून्य स्तर से ऊपर बढऩे वाले परिवारों में 42 फीसदी उज्ज्वला योजना के लाभार्थी थे। इसके बावजूद दो-तिहाई परिवार अब भी मुफ्त में मिलने वाले जैव ईंधन, दोबारा सिलिंडर भरवाने के लिए पैसे न होने, रीफिलिंग के लिए दूर जाने की समस्या और परिवारों के भीतर फैसले होने की जटिलता के चलते टियर-1 में फंसे हुए हैं। मसलन, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों के 59 फीसदी परिवारों में महिलाओं ने ही दोबारा सिलिंडर भरवाने के फैसले में अहम भूमिका निभाई है। वहीं मध्य प्रदेश में यह अनुपात महज 16 फीसदी रहा है। केवल गैस कनेक्शन दे देने से यह गारंटी नहीं दी जा सकती है कि महिलाएं खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल करने ही लगेंगी।
उपभोक्ता-केंद्रित नजरिया नीतिगत डिजाइन में भी मदद करता है। एक्केस सर्वे से सामने आया कि 84 फीसदी परिवारों ने केरोसिन सब्सिडी के स्थान पर सौर लालटेन पर सब्सिडी लेने को वरीयता दी। इसी तरह अधिकतर परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी पर अधिक सब्सिडी दिए जाने के साथ ही उनके वितरण में भी सुधार होते हुए देखना चाहते हैं। व्यवस्थागत समस्याएं भी नए परिप्रेक्ष्य से देखी जाती हैं। सीईईडब्ल्यू ने आईएसईपी के साथ किए गए एक अन्य सर्वे में यह पाया कि उत्तर प्रदेश के 84 फीसदी ग्रामीण और शहरी बिजली उपभोक्ता बिजली चोरी के लिए अब कटिया मारने के बारे में नहीं सोचते हैं। इसके बजाय बिजली मीटर और बिल बनाने में गड़बडिय़ां होने से भुगतान से जुड़ी शिकायतें आती हैं। उत्तर प्रदेश के केवल 45 फीसदी घरों में ही बिजली मीटर लगे हुए हैं। अगर मासिक बिल नहीं भेजे जाते हैं तो अधिकांश उपभोक्ताओं को यह यकीन ही नहीं होता है कि बिल मीटर की गणना के आधार पर जारी किया गया है। इसका नतीजा बिजली कंपनियों और उपभोक्ताओं के बीच भरोसे की कमी होने लगती है। अगर ग्रामीण क्षेत्रों में भी हर महीने बिजली बिल बनाए जाएं तो वहां के उपभोक्ता भी शहरी उपभोक्ताओं की तरह समय पर बिल भुगतान करने लगेंगे।
ऊर्जा पहुंच एक जुड़ी हुई शृंखला नहीं है। इसलिए हम यह न पूछें कि क्या आपके पास बिजली कनेक्शन है, हां या ना? इसके बजाय यह पूछें क्या आपको सेवा मिल रही है, कैसे? ऊर्जा जरूरतें समय के साथ बढ़ेंगी। घरों तक ऊर्जा पहुंच सुनिश्चित करने की इस जंग में मिली कामयाबी से पता चलता है कि एक बड़ी लड़ाई जीती जा चुकी है। हालांकि परिवारों का अनुभव बेहतर करने और उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने में अभी वक्त लगेगा।
Date:11-03-19
जंगल ही बनेंगे तारणहार
भारत डोगरा
हाल के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद आदिवासी हितों की रक्षा से जुड़े लोग बहुत चिंतित हुए कि जिन आदिवासी व वनवासी समुदायों के वन अधिकार के दावे अस्वीकृत हुए हैं उन्हें विस्थापित करने की कार्यवाही शीघ्र ही हो सकती है। यह बहुत चिंता की बात है क्योंकि वन अधिकार कानून तो आदिवासियों की रक्षा के लिए आया था। अत: यदि उन्हें इस कानून के नाम पर अपनी जमीन छोड़नी पड़ी, जिस पर वह पहले खेती कर रहे थे तो यह उनके लिए बहुत बड़ा आघात होगा। अत: सुप्रीम कोर्ट से इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कहा गया है व पुनर्विचार हो भी रहा है।
ऐसे किसी संभावित विस्थापन कार्यवाही को रोकने का एक उपाय यह है कि इस जमीन पर खेती की जगह वृक्ष-खेती हो। न्यायालय की चिंता तो यही है कि इस भूमि पर वन बने रहें। आदिवासियों के पूरे सहयोग से वन लगाकर और उन्हें वन अधिकार देकर यह उद्देश्य पूरा किया जा सकता है। इस तरह आदिवासी व वनवासी समुदाय के सहयोग से स्थानीय प्रजातियों के पेड़ लगाने का एक मॉडल भी विकसित हो सकता है। बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए हरियाली और वृक्षों को बढ़ाना बहुत जरूरी है। आदिवासियों-वनवासियों की आजीविका का संकट बढ़ रहा है और इस कारण उत्पन्न अभाव और असंतोष को दूर करना भी बहुत जरूरी है। इन दोनों उच्च प्राथमिकताओं को एक साथ पूरा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर वृक्ष खेती व उजड़ते वनों को नया जीवन देने का व्यापक स्तर का कार्यक्रम शुरू करना चाहिए। यह कार्यक्रम वन-विभाग व आदिवासियों-वनवासियों के नजदीकी सहयोग पर आधारित होगा व वन-विभाग को जनपक्षीय बनाने के एक नये अध्याय की शुरुआत कर सकता है। वन-विभाग के पास ऐसी लाखों एकड़ जमीन है, जिसमें वन नाम मात्र को है या पहले था पर अब बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका है। बहुत सी ऐसी जमीन है जो पूरी तरह खाली पड़ी है। यह वन-विभाग की जमीन कागजों पर जरूर दिखाई गई है पर इसमें वन नाम की कोई चीज नहीं है।
इसके अतिरिक्त वह जमीन है, जिसे वन-विभाग अपनी बताता जरूर है पर जिस पर वर्षो से आदिवासी-वनवासी खेती कर रहे हैं। इस लाखों एकड़ भूमि पर पेड़-पौधे लगाने के लिए व जहां पहले से क्षतिग्रस्त पेड़-पौधे मौजूद हैं, उन्हें नया जीवन देने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर आदिवासियों (व वनों में या उनके आसपास रहने वाले अन्य गांववासियों) का नजदीकी सहयोग बड़े पैमाने पर प्राप्त करना चाहिए। विशेषकर सबसे गरीब व भूमिहीन लोगों का सहयोग प्राप्त करने को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस सहयोग का मूल आधार यह है कि आदिवासी-वनवासी इस भूमि पर वृक्ष व औषधि पौधे लगाएंगे व उनकी रक्षा करेंगे। इसके बदले में जो भी लघु वन-उपज, औषधि व घास यहां से प्राप्त होगी, उस पर आदिवासियों-वनवासियों का हक होगा। जो लोग पहले से विवादित वन-विभाग की भूमि पर खेती कर रहे हैं उन्हें उसी भूमि पर बने रहने व उसपर वृक्ष खेती करने का अधिकार मिलेगा। जो खाली या क्षतिग्रस्त वन भूमि है, उसमें हरियाली लाने के लिए आदिवासियों व वनों के अन्य गांववासियों का आवश्यकता व रुझान के आधार पर चयन होना चाहिए। लगभग 200 से 300 एकड़ के वन-क्षेत्र के लिए ऐसे परिवारों का चयन कर उनकी एक वन उत्थान व रक्षा समिति बना देनी चाहिए। इन स्थानों पर वृक्ष लगाने या उनकी रक्षा के लिए कई तरह के कार्य की जरूरत होगी; जैसे चुने गए वन क्षेत्र के आसपास पत्थर की घेरवाड़ करना, गड्ढे खोदना, वन में जल संग्रहण व वाटर हाव्रेस्टिंग के प्रयास करना, नर्सरी तैयार करना आदि।
इन विविध कायरे के लिए रोजगार गांरटी योजना या अन्य ग्रामीण रोजगार योजनाओं व विभिन्न वानिकी योजनाओं के अंतर्गत चयनित गांववासियों विशेषकर महिलाओं को न्यायसंगत मजदूरी पर रोजगार मिलते रहना चाहिए। घास बेचने से जो आय होगी वह भी इन परिवारों में ही बंटेगी। इसके अतिरिक्त कई औषधि पौधों व अन्य झाड़ीनुमा पौधों से भी आय मिलने लगेगी। जब वृक्ष बड़े हो जाएंगे तो उनके फल, फूल, पत्ती, बीज आदि कई तरह की लघु वन उपज आय का मुख्य स्रेत बन जाएगी। इस स्कीम की सफलता के लिए जरूरी है कि इससे जुड़े सभी परिवारों को लघु वन उपज, औषधि उपज व घास का अधिकार निश्चित तौर पर दीर्घकाल के लिए मिलना चाहिए। जब तक कोई परिवार वनों की रक्षा ठीक से कर रहा है, तब तक उसे हकदारी से वंचित नहीं किया जाएगा। माता-पिता की मृत्यु के बाद उनकी संतान को यह हक विरासत के रूप में मिलेगा। इस तरह की दीर्घकालीन हकदारी से लोगों का वन-रक्षा से पूरा जुड़ाव हो सकेगा।
Date:11-03-19
मनरेगा से निकली हैं कई राहें
कार्तिक मुरलीधरन प्रोफेसर, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी
किसानों की आर्थिक समस्याओं को कम करने के लिए नीतिगत तौर पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, जो स्वागतयोग्य है। लेकिन किसानों के साथ-साथ, मजदूरी पर निर्भर लाखों भूमिहीन ग्रामीण परिवारों की खुशहाली का ध्यान रखना शायद और भी जरूरी है। ऐसे परिवारों को सरकारी कृषि योजनाओं (जैसे खाद सब्सिडी, कर्ज-माफी, न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने, या किसानों को दी जाने वाली नगदी) का सीधे तौर पर फायदा नहीं मिलता। और तो और, उनकी ही आर्थिक सुरक्षा के लिए मूल रूप से तैयार की गई महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) अब भारी दबाव में है।
मनरेगा दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक रोजगार कार्यक्रम है, जिसमें 60 करोड़ से अधिक श्रमिक लाभान्वित हुए हैं। लेकिन इस कार्यक्रम ने बड़े स्तर पर विवाद भी पैदा किए हैं। मनरेगा के समर्थकों का दावा है कि यह गैर-फसली मौसम में ग्रामीण गरीबों के लिए जीवन-रेखा के समान है। यह ग्रामीण वेतन को बढ़ाता है और उत्पादक सार्वजनिक संपत्तियों का निर्माण करने में भी मददगार होता है। दूसरी तरफ, आलोचक मानते हैं की यह योजना नुकसानदायक है और भ्रष्टाचार का पोषक है। उनकी नजरों में मनरेगा जमीनी स्तर पर फिजूलखर्ची है। बहरहाल, इन तमाम मुद्दों पर कई अच्छे अध्ययन हुए हैं, लेकिन सभी की अपनी तकनीकी सीमाएं हैं। नतीजतन, मनरेगा पर लोगों की राय सुबूत से अधिक विचारधारा और मान्यता से प्रभावित है।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर मनरेगा का असर देखने के लिए हमने उन आंकड़ों का इस्तेमाल किया, जब आंध्र प्रदेश (तब तेलंगाना नहीं बना था) सरकार ने मनरेगा भुगतान के लिए लाभार्थियों को बायोमेट्रिक स्मार्टकार्ड दिए थे। पहले, हमने स्मार्टकार्ड से भुगतान के बाद मनरेगा के क्रियान्वयन पर पड़ने वाले असर को जानने का प्रयास किया, जिसका आशाजनक नतीजा निकला। कई मामलों में हमें मनरेगा में खासा सुधार दिखा। लीकेज यानी रिसाव 41 फीसदी तक कम हो गया, कार्यक्रम में भागीदारी 17 फीसदी बढ़ी, काम करने और भुगतान के बीच का समय 29 फीसदी तक कम हो गया, भुगतान हासिल करने में लगने वाला समय 20 फीसदी तक घट गया, और भुगतान के अंतराल की अनियिमितता 39 फीसदी कम हो गई। दूसरे शब्दों में कहें, तो स्मार्टकार्ड के उपयोग से मनरेगा की सेहत जमीनी स्तर पर काफी सुधर गई और इसके क्रियान्वयन की गुणवत्ता इसके निर्माताओं के लक्ष्य के करीब आती दिखी।
मनरेगा के क्रियान्वयन में इस सुधार ने हमें एक अन्य बुनियादी सवाल का जवाब ढूंढ़ने का अनोखा मौका दिया। खासतौर से यह कि इस सुधार का ग्रामीण गरीबों पर पूर्ण प्रभाव क्या है? इसका जवाब काफी दिलचस्प है। नतीजे बताते हैं कि मनरेगा जॉब कार्ड धारकों की आमदनी में 13 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि कुल गरीबी में 17 फीसदी की गिरावट आई। हमारे सर्वेक्षण के ये नतीजे स्वतंत्र रूप से सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के आंकड़ों से मेल खाते हैं, जो खुद भी गरीबी में उल्लेखनीय कमी बताते हैं।
इन फायदों के कुछ कारण तो सीधे तौर पर यही हैं कि भ्रष्टाचार कम हुआ और मनरेगा से लाभार्थी की आमदनी में वृद्धि हुई। लेकिन यह पूरी तस्वीर का सिर्फ एक छोटा हिस्सा है। वास्तव में, बढ़ी हुई आमदनी का 90 फिसदी हिस्सा खुद मनरेगा से नहीं, बल्कि बाजार आय में बढ़ोतरी होने से आया। खासकर, हमने बााजर में मिलने वाले वेतन में उल्लेखनीय वृद्धि पाई। यह शायद इसलिए, क्योंकि एक बेहतर रूप में लागू मनरेगा ने निजी क्षेत्र में काम देने वालों को मजबूर किया हो कि वे श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए उनका वेतन बढ़ाएं। इसके अलावा, बढ़ते वेतन से निजी रोजगार में भी कोई गिरावट नहीं हुई। बल्कि आंकडे़ तो यही बताते हैं कि रोजगार में भी बढ़ोतरी हुई।
एक ही समय में वेतन और रोजगार, दोनों भला कैसे बढ़ सकते हैं? इसकी पहली वजह यह है कि मनरेगा की खामियां सुधर जाने से सार्वजनिक संपत्ति के निर्माण में सुधार हुआ, जिससे उत्पादकता, वेतन और रोजगार में वृद्धि हुई। दूसरी, अगर गांव में काम देने वाले लोग कम हों, वे आपस में मिलकर श्रमिकों का वेतन कम रखने की क्षमता रख सकते हैं। ऐसी स्थिति में, आर्थिक सिद्धांत यह कहता है कि न्यूनतम वेतन में वृद्धि होने से रोजगार भी बढ़ सकता है। तीसरी वजह यह हो सकती है कि क्रेडिट बाधाओं में कमी (जिसके सुबूत हमें मिले) के कारण निजी निवेश और उत्पादकता बढ़ी हो। समय बीतने के साथ-साथ, ग्रामीण वेतन में वृद्धि से मशीनीकृत खेती-किसानी में भी तेजी आ सकती है, जिससे उत्पादकता बढ़ेगी, जैसा अमेरिकी कृषि के इतिहास में दिखता है।
कुल मिलाकर, मनरेगा के बेहतर क्रियान्वयन ने निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में किसी नुकसान के बिना गरीबी को कम किया। यह नीति-निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य है। इसने जाहिर तौर पर हमारी सोच को भी बदला है। शुरुआत में, हम मनरेगा में भ्रष्टाचार को लेकर निराश थे, क्योंकि हमारे पहले के अध्ययन का यही निष्कर्ष था। मगर हमारे नए सर्वे के परिणाम बताते हैं कि अच्छी तरह क्रियान्वित मनरेगा कार्यक्रम भूमिहीन ग्रामीण गरीबों के कल्याण और समग्र ग्रामीण उत्पादकता में वृद्धि का एक प्रभावी माध्यम बन सकता है।
ऐसी नीतियां दुर्लभ होती हैं, जो समानता और दक्षता, दोनों में सुधार करें। अच्छी तरह क्रियान्वित मनरेगा इसी तरह की योजना है। सरकार को इसमें कटौती करने या कमजोर क्रियान्वयन करके इसे धीरे-धीरे खत्म करने की बजाय इसे मजबूत करना चाहिए। यह अच्छी बात है कि हाल के बजट में इस योजना के लिए राशि आवंटन बढ़ाया गया है। लिहाजा सरकार को अब तय करना चाहिए कि इसका धन परियोजनाओं और लाभार्थियों तक समय पर पहुंचे। समय पर वेतन भुगतान के साथ-साथ सामाजिक संपत्ति गुणवत्ता को प्राथमिकता देने से लाभार्थियों का कल्याण होगा, और ग्रामीण-उत्पादकता में सुधार भी दिखेगा।
Date:11-03-19
The flawed unit of academic quotas
Much more needs to be done to improve faculty diversity on university campuses
Faizan Mustafa is Vice-Chancellor, NALSAR University of Law, Hyderabad.
In the history of reservations in India, Parliament has sometimes had to resort to even constitutional amendments to overturn some court rulings that have the effect of protecting the interests of ‘general candidates’. The 77th constitutional amendment of 1995, which was recently extended to Kashmir, restored reservation in promotions as a nine-judge bench of the Supreme Court in Indra Sawhney (1992) while upholding Other Backward Classes reservation based on Mandal Commission recommendations had prohibited Scheduled Caste/Scheduled Tribe (SC/ST) reservation in promotions.
Ordinance and after
The 81st constitutional amendment was made to overturn the Supreme Court’s decision against the ‘carrying forward’ rule, which permitted the filling of unfilled reserved seats in subsequent years. Similarly, the 85th constitutional amendment was passed in 2001 to restore consequential seniority to promotee SC/ST employees as a ‘catch-up’ rule introduced by the court in Ajit Singh (1999) was causing hardship to SC/ST employees. Last week, the Narendra Modi government promulgated an ordinance to undo the Allahabad High Court’s judgment in Vivekanand Tiwari (2017) which had relied on a number of other High Courts and a few apex court judgments such as Suresh Chandra Verma (1990), Dina Nath Shukla (1997) and K. Govindappa (2009) that had made ‘department’ rather than ‘university’ as the unit of reservation in universities.
In Vivekanand Tiwari, an advertisement of the Banaras Hindu University (BHU) for teaching positions was challenged. The BHU, like other Central universities, was following the University Grants Commission policy of treating ‘university’ as the unit for the purposes of reservation. Due to judicial discipline, Justice Vikram Nath, who authored the judgment, did not have much of choice. But then Justice Nath himself did not seem to be a votary of reservations. In the beginning, he has said, “It is not a mandate but liberty given to the state. It is an enabling provision.” Thus, according to him, the government may not provide for reservation.
The importance of ‘shall’
Technically speaking, he is right. But then we cannot ignore that Article 335 categorically says that “claims” of SC/STs to posts in Centre and the States ‘shall’ be taken into consideration. As opposed to ‘may’ or ‘will’, the use of the word ‘shall’, in law, means mandatory. While the judgment ended at page 29, Justice Nath devoted several additional pages to make out a case for the re-examination of the reservation policy by the government though there were no pleadings on this issue. He asked it to examine whether reservation at all is needed in university teaching posts.
Our courts have used the differences between ‘cadre’, ‘service’ and ‘post’ to arrive at the conclusion that ‘department’ should be unit of reservation. So though lecturers, readers and professors in a university have the same scale and allowances in their respective cadres, they cannot be clubbed together. Since there is no scope for interchangeability of posts in different disciplines, each single post in a particular discipline is be counted as a separate post. On the face of it this seems to be perfectly logical. But the reality of the working of our universities is different. Every university spends lot of time in deciding reservation and tries to balance the completive interests and needs of various departments.
Even with the ‘university’ as the unit, in over 40 Central universities we have huge under-representation of SCs and STs especially at the level of professor and associate professor. If ‘department’ was allowed to be taken as a unit, these numbers would have been far less.
In its review petition, the government did share with the Supreme Court the BHU’s example of the adverse effect of using ‘department’ as the unit. For example, there were 1,930 faculty posts on May 12, 2017. If the BHU were to implement reservation based on using ‘university’ as the unit of reservation, 289 posts would have had to be reserved for SCs, 143 for STs and 310 for OBCs. Under the new formula of using ‘department’ as the unit, the number of reserved positions would go down to 119 for SCs, 29 for STs and 220 for OBCs.
Beginning of an end
Implementation of the department-wise reservation policy would have had a disastrous effect on other universities as well.
A study of 20 Central universities by the Central government has shown that reserved posts will come down from 2,662 to 1,241 in a year. The number of posts of professor would have reduced from 134 to just 4 for SCs; from 59 to zero for STs, and from 11 to zero for OBCs. But number of unreserved or general posts would have drastically increased, from 732 to 932. At the level of associate professor, for SCs it will have reduced from 264 to 48, for STs from 131 to 6, and for OBCS from 29 to 14. But here again the number of general posts would have increased from 732 to 932. In the case of assistant professor, the number of reserved posts would have reduced from 650 to 275 in STs, from 323 to 72 for SCs, and from 1,167 to 876 for OBCs. But the number of unreserved or general posts would have gone up from 2,316 to 3,233. Thus department-wise reservation was a sophisticated beginning of an end of reservation. If SC/ST candidates do not become professors, they cannot become vice-chancellors as only a professor with 10-year experience is eligible for this. In 2018, out of some 496 vice-chancellors of Central and State universities, there were just six SC, six ST and 48 OBC vice-chancellors.
The government deserves appreciation for the ordinance, though brought in belatedly on the eve of the elections to garner Dalit votes. But we need to do more to improve diversity on our campuses with more SCs, STs, OBCs, Muslims, persons with disabilities and sexual minorities being recruited as faculty as our campuses do not reflect social diversity despite the university being a unit for reservation. Let the score on the diversity index be a major criterion in giving grants to universities.