11-07-2024 (Important News Clippings)

Afeias
11 Jul 2024
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Date: 11-07-24

Even the odd jobs

Gig workers need a comprehensive national law on their employee status

Editorial

For India’s gig workers, who are increasing in numbers but are perched precariously on the edge of the unregulated labour pool, the Karnataka Platform-based Gig Workers (Social Security and Welfare) Bill, 2024, offers a welcome reprieve, but still stops short of providing them with the security of being employees. When app-based gig work was introduced a decade ago, courtesy ride-sharing and food delivery apps, the absence of the word ‘employee’ was actually seen as a positive; it supposedly offered a chance for ‘partners’ to retain their autonomy and earn good money without being locked into a contract with rigid timings. That illusion soon dissolved as incomes crashed and working hours lengthened, and the lack of a formal ‘employee’ status left workers at the mercy of the aggregator and all-powerful algorithms, in the absence of safety nets or governmental regulation. Despite this, the gig economy is growing. According to a NITI Aayog report, India had 77 lakh gig workers at the beginning of the decade, and by 2029-30, they are projected to account for 4.1% of income, and 6.7% of the non-agricultural workforce.

A rights-based legislation, the draft Bill aims to prevent arbitrary dismissals, provide human grievance redress mechanisms, and to bring more transparency into the opaque tangle of automated monitoring and algorithm-based payments. It is a step up from the Union government’s Code on Social Security, 2020. Karnataka’s law also offers social security through a welfare board and fund, with contributions from the government and the aggregator, either through a cut from every transaction on the app, or as a percentage of the platform’s turnover in the State. Noting that many of the firms that own these platforms report minimal profits, workers’ unions have rightly demanded that the welfare fee is charged as a cess on each transaction. Sceptics note the moribund nature of other unorganised sector welfare boards, but one advantage of mandatory registration with such a board is that it will make gig workers visible in the eyes of the law. Karnataka’s Congress government aims to enact the Bill in the monsoon session of the Assembly, and it must quickly formulate rules and establish the welfare board to ensure that the law is in force before the end of the year. A similar legislation in Rajasthan, enacted by the predecessor Congress government, has been effectively put into cold storage by the BJP government. At the national level, comprehensive legislation is needed not just to set minimum wages, reasonable working hours and conditions and robust social security but also to provide gig workers with the coveted status of ‘employees’.


Date: 11-07-24

सिर्फ जीडीपी वृद्धि नहीं पुख्ता आर्थिकी लक्ष्य हो

संपादकीय

तीसरी बार सत्ता में आई मोदी सरकार अपना पहला बजट पेश करेगी। ताजा रिपोर्ट है कि देश में निजी निवेश पिछले 20 वर्ष के न्यूनतम स्तर पर है। यानी निवेशक सशंकित हैं। ऐसे में विकास के लिए जरूरी पूंजीगत निवेश का सारा बोझ सरकार पर होगा। कल्याणकारी योजनाओं की डिलीवरी जरूरी होगी और बजटीय नीतिगत सुधार के जरिए रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध कराने होंगे। साथ ही आमजन की क्रय शक्ति बढ़ाना और महंगाई पर लगाम लगाना पूर्व शर्त होगी। ये तीनों बजटीय नीतिगत प्रयास किसी देश को वास्तव में खुशहाल और लंबे समय तक विकासोन्मुख रखते हैं। बजट कैसा हो इसके लिए पहले तो केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को चुनावी मोड यानी लोकलुभावन प्रयासों से खुद को अलग करना होगा। दरअसल इस साल तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं। सरकार को ध्यान रखना होगा कि उसके आर्थिक क्रियाकलापों से सिर्फ देश की जीडीपी ही न बढ़े, बल्कि गरीब-अमीर की खाई भी घटे। एमएसएमई सेक्टर देश में सबसे ज्यादा 12 करोड़ रोजगार देता है, लेकिन पिछले कई वर्षों से मरणासन्न है। किसान के बेटे को स्किल न मिलने के कारण औपचारिक तो छोड़िए, अनौपचारिक सेक्टर में भी रोजगार नहीं मिलेगा, भले ही सरकार उन्हें सेल्फ-एम्पलॉइड मानती रहे। बजट नई सोच के साथ हो ।


Date: 11-07-24

सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश व्यापक प्रभाव वाला है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भी पति से भरण-पोषण यानी गुजारा भत्ता पाने की अधिकारी हैं। यह इसलिए एक बड़ा और बेहद महत्वपूर्ण निर्णय है, क्योंकि इसके माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी सरकार की ओर से उठाए गए एक गलत कदम का प्रतिकार करने के साथ ही मुस्लिम महिलाओं को न्याय देने का काम किया है।

एक तरह से इस निर्णय के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने यही रेखांकित किया कि बहुचर्चित शाहबानो मामले में उसकी ओर से दिया गया फैसला सर्वथा उचित एवं संविधानसम्मत था और राजीव गांधी सरकार ने उसे पलट कर सही नहीं किया था।

ज्ञात हो कि शाहबानो पर सुप्रीम कोर्ट का 1985 का फैसला भी गुजारा भत्ता से संबंधित था, लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति के चलते राजीव गांधी सरकार ने इस फैसले को पलट दिया था और 1986 में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर उनके मन मुताबिक और शरिया के अनुकूल मुस्लिम महिला अधिनियम बनाया था। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन करना था।

अब सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम किसी पंथनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत याचिका दायर कर सकती हैं।

तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल यही नहीं कह रहा कि अलग-अलग समुदाय की महिलाओं को भिन्न-भिन्न कानूनों से संचालित नहीं किया जा सकता, बल्कि समान नागरिक संहिता की आवश्यकता भी जता रहा है। इसी के साथ यह भी संदेश दे रहा है कि देश के लोग संविधान से चलेंगे, न कि अपने पर्सनल कानूनों से, वे चाहे जिस पंथ-मजहब के हों।

यह अपेक्षा अनुचित नहीं कि विपक्षी दलों के वे नेता सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की प्रशंसा करने के लिए आगे आएं, जो पिछले कुछ समय से संसद के भीतर-बाहर संविधान की प्रतियां लहराकर यह दावा करने में लगे हुए हैं कि उन्होंने उसकी रक्षा की है और वे उसे बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यदि संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सच्ची है तो उन्हें इस फैसले का स्वागत करना ही चाहिए। इसकी भरी-पूरी आशंका है कि इस फैसले से कुछ मुस्लिम संगठन असहमति जताने के साथ उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दें।

पता नहीं वे क्या करेंगे, लेकिन राहत की बात यह है कि इस समय केंद्र में मोदी सरकार है, न कि तथाकथित सेक्युलरिज्म की दुहाई देने वाली कोई सरकार। यह सही समय है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़े। इसका कोई औचित्य नहीं कि देश में अलग-अलग समुदायों के लिए तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि के नियम-कानून इस आधार पर हों कि उनका उनका पंथ-मजहब क्या है?


Date: 11-07-24

गुजारे का हक

संपादकीय

तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं के लिए गुजारा भत्ता संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है। न्यायालय ने कहा है कि हर महिला को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म की हो। दरअसल, अभी तक मुसलिम पर्सनल कानून के तहत तलाकशुदा महिलाओं का गुजारा भत्ता तय होता था। शरीअत कानून के मुताबिक इद्दत की अवधि तक ही तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता दिया जा सकता है। इद्दत यानी तीन महीने की वह अवधि, जिसमें महिला किसी दूसरे के साथ विवाह नहीं कर सकती। मगर सर्वोच्च न्यायलय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 125 को सभी महिलाओं पर समान रूप से लागू करार देते हुए कहा कि हद्दत के बाद भी महिलाएं गुजारा भत्ते का दावा कर सकती है। हैदराबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में फैसला दिया था कि पति अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता दे। उसी फैसले को पति ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उसकी दलील थी कि मुसलिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के चलते, तलाकशुदा मुसलिम महिला दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता नहीं ले सकती। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि धर्मनिरपेक्ष कानून पर वह धारा आरोपित नहीं की जा सकती।

मुसलिम महिलाओं के गुजारा भते संबंधी विवादों पर पहले भी अदालतें सहानुभूति पूर्वक विचार कर चुकी हैं। करीब दो वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि तलाक के बाद महिला को पति से गुजारा भत्ता पाने का पूरा हक है। मद्रास उच्च न्यायालय ने कह दिया था कि शरीअत काउंसिल कोई अदालत नहीं है और न उसे कानून बनाने का हक है, तलाकशुदा औरतों को अपने पहले शौहर से गुजारा भत्ता मिलना ही चाहिए। इसी साल बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि तलाकशुदा महिला अगर दूसरी शादी कर लेती है, तब भी वह अपने पहले पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने उन तमाम फैसलों पर अपनी मुहर लगा दी है। मुसलिम महिलाएं तीन तलाक और गुजारे भने की परंपरा के कारण सदियों से अत्याचार सहन करती आ रही हैं। तीन तलाक के विरुद्ध कानून बन जाने से उन्हें काफी राहत मिली। अब तलाक के बाद दूसरे धर्मों की महिलाओं की तरह ही गुजारा भत्ता पाने का कानून स्थापित हो जाने के बाद उन्हें बड़ी राहत मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसला के बाद जो महिलाएं गुजारा भत्ते के लिए पहल नहीं करती थी, वे भी दावा पेश करेंगी।

भारतीय समाज में आज भी अधिकतर महिलाएं विवाह के बाद अपने पति पर निर्भर हैं अगर किन्हीं स्थितियों में पति उन्हें छोड़ देता है, तो उनका भरण-पोषण मुश्किल हो जाता है। जिन महिलाओं के कंधों पर बच्चों को पालने, पढ़ाने- लिखाने का बोझ है, उन पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ता है। बहुत सारी तलाकशुदा मुसलिम औरतें दुबारा शादी नहीं करती, इसलिए केवल हद्दत तक गुजारा भता पाने से उनके जीवन की मुश्किलें दूर नहीं हो पातीं। फिर, जो महिलाएं दूसरा विवाह कर भी लेती हैं, जरूरी नहीं कि उससे उनके बच्चों का उचित भरण-पोषण हो ही जाए। असल सवाल है कि किसी महिला को केवल धर्म के आधार पर दूसरी महिलाओं से अलग क्यों माना जाना चाहिए। एक नागरिक के तौर पर हर महिला को समान अधिकार मिलना चाहिए। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला एक कल्याणकारी राज्य के कर्तव्यों के अनुकूल और सराहनीय है।


Date: 11-07-24

रूस यात्रा का संदेश

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के बाद अपनी पहली द्विपक्षीय विदेश यात्रा के तौर पर रूस का चुनाव करना बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला रहा है। वास्तव में वह अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में ही रूस के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों को और अधिक ऊंचाइयों पर ले जाना चाहते थे। वह अपने इस मकसद में काफी हद तक सफल भी रहे हैं। दोनों नेताओं के बीच बाइसवीं वार्षिक द्विपक्षीय शिखर बैठक के बाद जारी संयुक्त वक्तव्य के मुताबिक दोनों पक्षों ने रणनीतिक साझेदारी के विकास के लिए प्रतिबद्धता दोहराई है। दोनों पक्षों ने नौ प्रमुख क्षेत्रों में सहयोग और मजबूत करने पर सहमति दिखाने के साथ ही 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार 100 अरब डॉलर से अधिक बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की है। यह मात्र संयोग था कि मोदी सोमवार को मास्को पहुंचे और उसी दिन यूक्रेन में रूस के क्रूर मिसाइल हमले में 38 लोग मारे गए जिनमें तीन बच्चे भी शामिल हैं। यह हमला यूक्रेन की राजधानी कीव में बच्चों के एक बड़े अस्पताल पर हुआ था। जाहिर है कि यात्रा के शुरुआती दिन हुआ यह विनाशकारी हमला प्रधानमंत्री मोदी को असहज कर देने वाला था। उन्होंने पुतिन के साथ शिखर वार्ता से पहले बच्चों की मौत का मुद्दा बहुत बेबाकी से उठाते हुए कहा कि बेगुनाह बच्चों की मौत हृदयविदारक और पीड़ादायक है। वास्तव में अस्पतालों और नागरिक बस्तियों पर हमला करना अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है और ऐसे कृत्य युद्ध अपराध की श्रेणी में रखे जाते हैं। हालांकि रूस ने किसी भी नागरिक बस्तियों पर हमले के आरोपों को खारिज किया है। लेकिन सच यह भी है कि रूस ने ऐसा किया है और उसकी बातों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी दुनिया को युद्ध और शांति के संदर्भ में भारतीय दर्शन से अवगत कराते हुए कहा कि युद्ध के मैदान से किसी तरह का समाधान नहीं निकलता। लोगों को याद होगा कि दो वर्ष पहले समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में मोदी ने कहा था कि यह युद्ध का समय नहीं है। मोदी की इस बात की पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी। रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ बातचीत में मोदी ने शांति बहाली की दिशा में भारत के यथासंभव सहयोग करने की पेशकश भी की है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने वैश्विक महाशक्तियों को सीधा संवाद बहाल करने में रूस- यूक्रेन की मदद करने की अपील की है। पुतिन ने शांति बहाल करने की पेशकश करने के लिए मोदी का आभार जताया है।


Date: 11-07-24

महिलाओं के हक में

संपादकीय

देश की आला अदालत ने बुधवार, 10 जुलाई को एक बार फिर तलाकयाफ्ता महिलाओं के भरण-पोषण के हक में जो फैसला सुनाया है, वह स्वागत योग्य तो है ही, उसके गहरे निहितार्थ भी हैं। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति एजी मसीह की पीठ ने ‘मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य…’ मामले में स्पष्ट कहा है कि देश की दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत कोई भी तलाकशुदा पत्नी अपने पति से गुजारा-भत्ता मांग सकती है और इसमें धर्म कोई रुकावट नहीं है। निस्संदेह, इस फैसले ने लगभग 39 साल पहले के सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले की याद दिला दी है, जो ‘शाह बानो मुकदमे’ के तौर पर देश के न्यायिक इतिहास में दर्ज है। तब राजीव गांधी सरकार ने गुजारे-भत्ते की मांग करने वाली शाह बानो के हक में आए उस सुप्रीम फैसले को अपनी विधायी शक्ति से पलट दिया था और इसके कारण देश में न सिर्फ धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को बल मिला, बल्कि सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा भी आहत हुई थी। मगर इन चार दशकों में देश के मिजाज में, लोगों की मजहबी सोच में काफी तब्दीली आ चुकी है। तीन तलाक कानून के मुद्दे पर हम इस परिवर्तन को देख चुके हैं।\nकोई भी तरक्कीपसंद लोकतांत्रिक देश और समाज यही चाहेगा कि उसके किसी भी नागरिक के साथ लिंग, रंग या नस्ल के आधार पर किसी किस्म की ज्यादती न हो, बल्कि जो लोग किन्हीं भेदभाव की वजह से पीछे छूट गए हैं, उन्हें अतिरिक्त सहारा दिया जाए, ताकि वे अवसरों के लाभ उठाकर मुख्यधारा में शामिल हो सकें। इसलिए न्यायमूर्ति नागरत्ना की यह टिप्पणी बेहद मानीखेज है कि भारतीय पति पत्नी की भूमिका और त्याग को पहचानें। संयुक्त खाता खोलकर उन्हें आर्थिक संबल प्रदान करें। निस्संदेह, भारत में महिलाओं के पिछडे़पन का एक बड़ा कारण आर्थिक रूप से उनकी पिता, पति या पुत्र पर निर्भरता रही है। उन्हें सशक्त और आत्मनिर्भर बनाए बिना भारत कैसे विकसित राष्ट्र होने के सपने देख सकता है?

विडंबना देखिए, याची अब्दुल समद ने तेलंगाना हाईकोर्ट के निर्णय के खिलाफ उसी कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट से संरक्षण की मांग की थी, जिसे शाह बानो मामले में आए फैसले के बाद 1986 में संसद ने बनाया था। मगर अब सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया है कि धर्म इस कानून के आडे़ नहीं आता और अब्दुल समद को अपनी पत्नी को गुजारा-भत्ता देना ही होगा। गौरतलब है, परिवार न्यायालय ने समद को हर माह 20,000 रुपये अपनी बीवी को भरण-पोषण के तौर पर देने का कहा था, जिसके खिलाफ वह तेलंगाना हाईकोर्ट गए। हाईकोर्ट ने गुजारा-भत्ते की राशि घटाकर 10,000 रुपये कर दी थी। मगर समद इससे भी छुटकारा चाहते थे। निस्संदेह, एक इंसाफपसंद देश के तौर पर भारतीय लोकतंत्र ने लंबी वैधानिक दूरी तय कर ली है, मगर महिलाओं के मामले में धार्मिक और सामाजिक बंदिशों के टूटने का सिलसिला अपेक्षाकृत धीमा रहा है। हर धर्म में अच्छी-बुरी प्रथाएं रही हैं। ऐसे में, आदर्श स्थिति तो यही है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ या किसी भी अन्य समुदाय के अंदर की विसंगतियां उसी समाज के भीतर से दूर करने की शुरुआत हो, मगर जब ऐसा नहीं होगा, तो संविधान के आलोक में उसे दुरुस्त करने की जिम्मेदारी विधायिका और न्यायपालिका की ही होगी। मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला इसी सिद्धांत की स्थापना करता है।


 

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