11-07-2019 (Important News Clippings)

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11 Jul 2019
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Date:11-07-19

India’s Shifting Population Profile

Working people will continue to grow, but we also need to plan for burgeoning elderly

Argentina Matavel Piccin , [ The writer is India Country Representative, United Nations Population Fund (UNFPA) ]

There is increasing realisation of the growing numbers of older people in India. Some even claim that India will soon be a country of old people. Is there reason for alarm or rather a sign of success? On the face of it, the numbers do certainly stack up.

Currently 8.4% of India’s population is above the age of 60 years. In numbers, this translates into approximately 102 million people. According to the United Nations Population Fund (UNFPA) projections, by 2061 the elderly population (of and above 60 years) in India will increase to 425 million. In other words, every fourth person in India will be 60 years old or more. Or to reiterate, in 42 years, the number of 60+ people will be four times its current strength.

However, let us not assume we are staring into a bleak reality of old men and women outliving the young. India’s youth population is not on the decline. Projections show that India’s youth population will continue to grow. Starting 2001 and till 2030, India will have seen a huge increase in its working age population: 390 million will be added to the existing working age population, resulting in a billion plus strong workforce in India by mid 2040s.

The good news is, mortality is on the decline, life expectancy is on the rise. In other words, Indians are living longer, working longer, and will continue to do so. Projections by UNFPA also show that women will live longer than men, an important factor that needs to be kept in mind while formulating policies and designing programmes for elderly people. Life expectancy for women will increase, from 69.4 in 2011 to 79.7 in 2061 as opposed to for men, from 66.0 in 2011 to 76.1 in 2061.

India’s fertility rate, or the number of children who would be born per woman, has decreased rapidly from 3.6 in 1994 to 2.2 in 2015-16. We are that much closer to reaching the replacement fertility rate of 2.1. This means, among other things, more and more women today have access to choices and opportunities made possible by access to family planning services. It also means women today are claiming the right to their bodies and asserting their right to choose whether, when and the number of children they want to have. They can choose to stay in school longer, to enter the labour market, participate in political life, to contribute more to their communities.

So then, why aren’t we celebrating? Because even as we take these large strides towards a demographic dividend, our social structures – also going through a transformation – are not keeping pace.

With migration on the rise and the young leaving their homes to move to more productive and economically lucrative states, families comprising of the elderly are being left behind to fend for themselves. A UNFPA study also shows, poverty is higher among the elderly. This trend will only continue and perpetuate. Furthermore, large family units have broken down into nuclear families, leaving the elderly alone.

The breaking down of gender stereotypes has also made way for the young daughters-in-law, traditionally caregivers of the elderly, to transition to working women. It’s all good news, except that the old are falling through the cracks. Unlike countries like Japan that provides a comprehensive social healthcare package to the elderly, India is not quite ready to deal with this demographic transition that is taking place. The World Assemblies on Ageing (Vienna, 1982 & Madrid 2002) signalled the need for governments to implement measures to address this. In India too, several consultations have been held, and southern states like Kerala are leading the way by setting aside 10% of annual village funds to take care of the elderly.

The need of the hour is context specific policy planning for the elderly in India. Ageing will happen at a different pace in different states. For example, there is an almost ten-year difference in the male life expectancy in Kerala and Bihar; 77.8 vs 69. In 2061, the female life expectancy will be 85.5 and 79.1 years in Kerala and Bihar, respectively. Per capita income, which could be taken as an indicator for economic well-being of people including the elderly, is Rs 22,890 in Bihar while it is more than Rs 1 lakh in Kerala and Tamil Nadu.

While policies and plans can’t be a one size fits all, there is need for a minimum national package of services to ensure dignity for the elderly. At the same time, it is important to keep in mind that most of the labour force in India is not covered by retirement pension plans and the elderly are generally dependent on children or on property for an alternate source of income.

Innovative and sustainable models of social support, care and social protection need to be planned and institutionalised now so that the country is ready with viable models and solutions to support the large number of elderly people in the not too distant future. Social bridges could be established to ensure that the knowledge sitting with the old can be transferred to the young, and that the young can help the elderly bridge the technological gap such as use of smartphones and social media. Without it, India’s elderly population remains highly vulnerable to loneliness, ill health and neglect. India cannot let them fade from its collective consciousness.


Date:11-07-19

आखिर कब बढ़ाएंगी सरकारें सेहत पर खर्च ?

महंगी निजी मेडिकल सेवाओं के कारण हर साल गरीबी रेखा से नीचे जाते तीन करोड़ से ज्यादा लोग

एनके सिंह , ( राजनीतिक विश्लेषक )

नीति आयोग ने 23 पैमानों पर आधारित सालाना स्वास्थ्य सूचकांक हाल हीं में जारी किया। शाश्वत निर्लज्ज भाव से उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे निचले पायदान पर विराजमान रहे। जो बात किसी विश्लेषक ने नहीं देखी वह यह कि 2015-16 के मुकाबले 2017-18 में स्वास्थ्य सेवाओं में गिरावट बिहार में सबसे ज्यादा (6.35 प्रतिशत) रही।

अगर किसी व्यक्ति की हत्या होती है तो अभियुक्त को फांसी नहीं तो आईपीसी के तहत आजीवन कारावास का प्रावधान जरूर है। अगर व्यक्ति मर गया, लेकिन इरादा जान से मारने का नहीं केवल शारीरिक क्षति पहुंचाने का था तो दस साल और अगर किसी उतावलेपन या उपेक्षा से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो दो साल की सजा का प्रावधान है। स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में देश में लाखों बच्चे पिछले तमाम दशकों से हर साल असमय मौत की गोद में सो जाते हैं। इस साल फिर नीति आयोग ने केंद्र और राज्य की सरकारों को आईना दिखाया, लेकिन सत्ता चलाने के लिए खाल मोटी रखना जरूरी है। तभी तो पिछले वर्ष संसद में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री ने कुछ आंकड़े दिए थे, जिनके अनुसार भारत और राज्यों की सरकारों का स्वास्थ्य को लेकर सम्मिलित खर्च दुनिया में सबसे कम है यहां तक कि जो दुनिया में सबसे गरीब देश हैं उनसे भी कम। विडंबना यह कि बिहार देश में स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाला राज्य है जो राष्ट्रीय औसत के भी एक-तिहाई खर्च करता है, लेकिन पिछले 12 साल से सत्ता पर काबिज सरकार के मुखिया को ‘सुशासन बाबू’ कहा जाता है। मालदीव जैसे मुल्क भी हमारे मुकाबले प्रति व्यक्ति खर्च अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के लिहाज़ से पांच गुना है। भूटान, थाईलैंड और श्रीलंका का खर्च भी काफी ज्यादा है। लेकिन जब सत्ता पक्ष वोट के लिए जनता के पास जाता है तो कहता है ‘आज भारत ने इतना विकास किया है कि हम जीडीपी में दुनिया में पांचवें स्थान पर आ गए हैं’। नासमझ जनता कराहते हुए यह मान लेती है कि उसके ‘जिगर के टुकड़े’ का बीमार होना और चिकित्सा सुविधा के अभाव में मर जाना उसकी नियति है (या लीची खाने/खिलाने का दोष)। बच्चे को कफ़न में लपेटे हुए भी वह 70 साल से यही समझ रही है कि ‘विकास यानी जीडीपी के आकार में इंग्लैंड से आगे निकल जाना या हमारे नेता का दुनिया के बड़े नेताओं के गले मिलना’। वैसे 2017 में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाई गई और इन्हीं स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में एलान किया कि इस मद में खर्च को जीडीपी का 2.50 फीसदी किया जाएगा (यानी दोगुने से भी ज्यादा) पर ऐसे ऐलान अमल में शायद ही आते हैं। बजट आने पर पता चला कि खर्च में और कटौती हो गई।

समझ में नहीं आता कि जब इन्हीं कराहते हुए लोगों, बीमार बुढ़िया या बेटे के गम में विलाप करती मां के वोटों से सत्ता में दशक-दर-दशक काबिज नेता सत्ता-सुख भोग रहे हैं तो स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति यह आपराधिक उदासीनता क्यों और कैसे संभव? पिछले दस साल से भारत और राज्यों की सरकारें स्वास्थ्य पर कुल मिलाकर मात्र तीन रुपए से कुछ कम प्रति-व्यक्ति रोजाना खर्च करती हैं। बिहार में यह खर्च केवल 1.20 रुपए। इसमें भी वेतन और सरकारी स्वास्थ्य तंत्र चलाने में इसका 75 प्रतिशत चला जाता है। यानी दवा-दारू (वैसे यहां मद्य-निषेध के कारण दारू महंगी है) के लिए मात्र 30 पैसे।

तस्वीर का दूसरा पहलू : अब अगर सरकारें जनता के स्वास्थ्य के प्रति उदासीन हैं तो ऐसा नहीं होता कि गरीब अपने बेटे/बेटी को दम तोड़ते देखता रहे। वह बेहद महंगी निजी स्वास्थ्य सेवाओं का सहारा लेता है, अनाज बेचता है और फिर जब कमी पड़ती है तो खेत भी। हर साल बीमारी में अपने जेब से खर्च के कारण 3.08 करोड़ लोग गरीबी की सीमा रेखा से नीचे उस रसातल में पहुंच जाते हैं, जहां से दोबारा निकलना संभव नहीं होता। चूंकि देश का सबसे गरीब राज्य बिहार सबसे ज्यादा सरकारी स्वास्थ्य सेवा के अभाव का दंश झेलता है लिहाज़ा देश में सबसे अधिक अपने जेब से खर्च करके बीमार नौनिहालों को और बूढ़े मां-बाप को बचाने का काम बिहार के लोग करते हैं। जहां हिमाचल प्रदेश की सरकार अपने लोगों के स्वास्थ्य पर करीब 2500 रुपए प्रति व्यक्ति, प्रति वर्ष खर्च करती है वहीं ‘सुशासित बिहार’ की सरकार मात्र 450 रुपए (जो किसी डॉक्टर की एक बार की फीस के बराबर है) और उत्तर प्रदेश की 890 रुपए। नतीजतन जहां बिहार की गरीब जनता को शोषक निजी चिकित्सा व्यवस्था के हाथों में फंसकर सरकारी खर्च का पांच गुना अपनी जेब से लगाना पड़ता है वहीं हिमाचल के लोग शायद ही निजी डॉक्टरों और नर्सिंग होम के शिकार बनते हैं। बिहार का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। कुल-मिलाकर इस सरकारी उदासीनता के कारण स्वास्थ्य पर लोगों का अपनी जेब से खर्च बढ़ता जा रहा जबकि सरकार का कम। दस साल के सरकारी आंकड़ों के हिसाब से उत्तर भारत के चार बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान के लोग मजबूरन घर-जमीन बेचकर इलाज़ करवा रहे हैं।

पूरे देश में जनता के स्वास्थ्य के मद में कुल खर्च (सरकारी और निजी जेब से) जितना है लगभग उतने ही मूल्य का अनाज यह देश पैदा करता है यानी जो काम लोगों को करना है (खेती) उससे तो वे अपना पेट भर लेते हैं बल्कि निर्यात करने लायक भी पैदा कर लेते हैं लेकिन जब वे बीमार पड़ते हैं तो सरकार उसे उसकी जेब या ‘राम-भरोसे” छोड़ देती है।

देश में कुल करीब छह लाख करोड़ रुपए का अनाज पैदा होता है और इतना ही स्वास्थ्य पर खर्च है। इसमें सरकार मात्र एक-तिहाई ही खर्च करती है बाकी उस गरीब 2/3 (करीब चार लाख करोड़) को जायजाद बेचकर लगाना पड़ता है यानी अगर एक गंभीर बीमारी परिवार में हो जाए तो वह किसान से खेत मजदूर बन जाता है और उससे भी पूरा नहीं पड़ता तो दिल्ली से सटे नोएडा या चंडीगढ़ या केरल में जाकर ईंट-गारा ढोने लगता है। अब आप समझ गए होंगे कि क्यों इस देश में पिछले 25 वर्षों से हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है और क्यों इसी दौरान हर रोज 2052 किसान खेती छोड़ देते हैं। सरकारें आत्महत्या का कारण गृहकलह या बीमारी बताती रही हैं और क्यों जब लगभग 180 बच्चे (अधिकांश बेहद गरीब दलित वर्ग के) एक्यूट एन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईसी) से मर गए तो लीची और गरीबों की चिकित्सा -विज्ञान के प्रति नासमझी पर इलजाम थोपा गया।


Date:11-07-19

अदालत में अनुच्छेद 370 

किसी राज्य को विशेष दर्जा देने में हर्ज नहीं लेकिन ऐसा विशेष दर्जा किसी राज्य को नहीं दिया जा सकता जो अलगाववाद को हवा दे और राष्ट्रीय एकता में बाधक बने।

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट का अनुच्छेद 370 पर सुनवाई के लिए तैयार होना इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि उसके समक्ष जम्मू-कश्मीर से जुड़ा एक और विवादास्पद अनुच्छेद 35-ए पहले से ही विचाराधीन है। जहां अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता है वहीं 35-ए राज्य सरकार को यह निर्धारित करने का अधिकार देता है कि यहां का स्थाई नागरिक कौन है? अनुच्छेद 35-ए इसलिए सवालों के घेरे में है, क्योंकि उसे राष्ट्रपति के आदेश के तहत संविधान में जोड़ा गया था।

अनुच्छेद 35-ए कितना भेदभाव भरा है, इसका पता इससे चलता है कि उसके कारण जम्मू-कश्मीर से बाहर के लोग इस राज्य में न तोे अचल संपत्ति खरीद सकते हैैं और न ही सरकारी नौकरी हासिल कर सकते हैैं। इस विवादास्पद और भेदभावजनक अनुच्छेद को लेकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय जो भी हो, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती राष्ट्रपति के आदेश-निर्देश से कोई प्रावधान संविधान का हिस्सा नहीं हो सकता।

अनुच्छेद 370 के संदर्भ में तो पहले दिन से स्पष्ट है कि यह एक अस्थाई व्यवस्था है। यह अस्थाई व्यवस्था तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए की गई थी। चूंकि उस समय के नेताओं को यह भरोसा था कि परिस्थितियां बदलेंगी इसलिए अनुच्छेद 370 को अस्थाई रूप दिया गया। क्या आज यह कहा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर की परिस्थितियां वैसी ही हैैं जैसी 1950 के दशक में थीं? इस पर लोगों की राय कुछ भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनुच्छेद 370 भारत से अलगाव का जरिया बन गया है। कश्मीरियत का जिक्र कुछ इस तरह किया जाता है जैसे वह भारतीयता से कोई अलग चीज हो।

यह एक विडंबना ही है कि जो व्यवस्था अस्थाई तौर पर लागू की गई थी उसे कुछ राजनीतिक दल स्थाई रूप देने की वकालत कर रहे हैैं। क्या यह संविधान की भावना के प्रतिकूल नहीं? आखिर अस्थाई व्यवस्था को स्थाई रूप कैसे दिया जा सकता है? बीते दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐसे ही राजनीतिक दलों को संबोधित करते हुए संसद में कहा था कि यह न भूला जाए कि यह एक अस्थाई व्यवस्था है। गत दिवस केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने भी यही बात दोहराई।

यह भी ध्यान रहे कि भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में यह वादा किया है कि वह इस अनुच्छेद को समाप्त करेगी। सच तो यह है कि यह भाजपा की एक पुरानी मांग है। देखना यह है कि अनुच्छेद 370 पर सुनवाई की स्थिति में मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष किस तरह रखती है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 35-ए की सुनवाई करते समय जब जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल शासन से इस बारे में राय मांगी थी तो उसकी ओर यह कहा गया था कि इस संदर्भ में कोई फैसला नई सरकार ही लेगी।

नि:संदेह किसी राज्य को विशेष दर्जा देने में हर्ज नहीं। वर्तमान में करीब दस राज्यों को विशेष दर्जा हासिल है, लेकिन ऐसा विशेष दर्जा किसी राज्य को नहीं दिया जा सकता जो अलगाववाद को हवा दे और राष्ट्रीय एकता में बाधक बने। चूंकि अनुच्छेद 370 यही काम कर रहा है इसलिए उसकी खामियों को दूर किया जाना समय की मांग है।


Date:10-07-19

अवांछित दखल

संपादकीय

किसी देश की आंतरिक स्थिति के बारे में संयुक्त राष्ट्र की ओर से जब आधिकारिक रूप से कोई राय जाहिर की जाती है तो उससे निष्पक्ष और तथ्यों पर आधारित होने की अपेक्षा स्वाभाविक है। ज्यादातर मामलों में ऐसा होता भी है। लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि किसी खास मसले पर एक तरह से निष्कर्ष देने के क्रम में कुछ जरूरी पहलुओं पर गौर करना जरूरी नहीं समझा जाता। पिछले कई सालों से जम्मू-कश्मीर में जो हालात चल रहे हैं, उन्हें किसी एक बिंदु पर खड़े होकर देखने से तस्वीर का एक पहलू ही नजर आएगा और मुमकिन है कि उसकी वजहों पर नजर नहीं जा सके। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय की ओर से जम्मू-कश्मीर की स्थिति पर जारी ताजा रिपोर्ट में जो बातें कही गई हैं, उन्हें इसी कसौटी पर रख कर देखा जा सकता है। इसमें भारत-प्रशासित कश्मीर में मानवाधिकार के उल्लंघनों को लेकर कई सवाल उठाए गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले साल डेढ़ सौ से ज्यादा आम शहरियों की मौत पिछले एक दशक के दौरान सबसे बड़ा आंकड़ा है।

गौरतलब है कि पिछले साल भी संयुक्त राष्ट्र ने कश्मीर की स्थिति पर पेश अपनी रिपोर्ट में लगभग इसी तरह के आकलन पेश किए थे। निश्चित रूप से कहीं भी मानवाधिकारों के हनन को लेकर जताई जाने वाली चिंता पर विचार किया जाना चाहिए। लेकिन अगर उस चिंता में हालात की मूल वजहों की अनदेखी की जाती हो तो उस पर सवाल उठना लाजिमी है। यह बेवजह नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट पर भारत ने सख्त एतराज जताया है। रिपोर्ट को खारिज करते हुए भारत ने इसे मनगढ़ंत और दुर्भावना से प्रेरित बताया है। सवाल है कि संयुक्त राष्ट्र जब कश्मीर में आतंकवाद की वजह से उत्पन्न हालात को संभालने के लिए भारत की कोशिशों पर सवाल उठाता है तो क्या उससे यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वह सीमा-पार की उन गतिविधियों पर भी गौर करे जिनमें लगातार आतंकवाद को बढ़ावा दिया जाता रहा है? यह अब कोई छिपा तथ्य नहीं है कि कई आतंकवादी संगठन पाकिस्तान स्थित ठिकानों से अपनी गतिविधियां संचालित करते रहे हैं और कश्मीर में लगातार आतंक का माहौल बनाए रखते हैं। तब एक संप्रभु देश के रूप में क्या भारत को उन आतंकियों से निपटने का अधिकार नहीं है? क्या भारत की ओर से आतंक का सामना करने को कठघरे में खड़ा कर संयुक्त राष्ट्र ‘आतंकवाद को वैधता’ प्रदान करने की कोशिश करना चाहता है?

संभव है कि आतंकियों का सामना करने के क्रम में कुछ नागरिक भी चपेट आ जाते हों। पैलेट गन से पीड़ित लोगों की तकलीफों पर खुद भारत में चिंता जताई जाती रही है। एक संप्रभु और लोकतांत्रिक देश के नाते भारत अपने स्तर पर भी गलत को गलत ही मानता है और कोशिश करता है कि आम नागरिकों को कोई नुकसान न हो। लेकिन एक देश के रूप में अपनी संप्रभुता को कायम रखने और आतंकवाद का सामना करने का अधिकार भारत के पास रहना चाहिए। बल्कि जिस आतंकवाद से दुनिया पीड़ित है, उसमें तमाम देशों से इसके खिलाफ लड़ाई में साथ खड़ा होने की उम्मीद की जाती है। दुनिया के किसी भी देश में अगर मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है तो संयुक्त राष्ट्र की ओर से न केवल उस पर राय जाहिर करने, बल्कि जरूरत पड़ने पर उसमें दखल देने की भी अपेक्षा स्वाभाविक है। लेकिन इसके साथ यह अनिवार्यता भी जुड़ी होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र की राय या निष्कर्ष तथ्यों पर आधारित हो, वह किसी देश की आंतरिक स्थिति में बेजा दखल नहीं हो और उससे किसी देश की संप्रभुता का हनन नहीं होता हो।


Date:10-07-19

ईरान का संकट

संपादकीय

यूरेनियम संवर्द्धन की सीमा बढ़ाने के ईरान के एलान के बाद अमेरिका की भौंहें और ज्यादा तन गई हैं। चार साल पहले ईरान और अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के बीच जो समझौता हुआ था, वह अब खटाई में पड़ता नजर आ रहा है। अमेरिका ने पिछले साल ही अपने को इस समझौते से अलग कर लिया था। उसके बाद से ही इस पर आशंका के बादल मंडरा रहे हैं। हालांकि समझौता अभी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है, न ही किसी ने इससे हटने का एलान किया है, लेकिन जिस तरह से इसे दरकिनार कर ईरान को घेरने की रणनीति पर काम हो रहा है और दूसरी ओर ईरान अपने यूरेनियम संवर्द्धन की मात्रा बढ़ा रहा है, उसका स्पष्ट संकेत तो यही है कि इस करार में किसी की भी दिलचस्पी नहीं रह गई है और एक-दूसरे को खुली चुनौती दी जा रही है। ईरान पर शिकंजा कसने के लिए अमेरिका कोई मौका नहीं छोड़ रहा और उसने ईरान को निपटाने के लिए कई तरह से घेरने की रणनीति अपनाई है। आर्थिक प्रतिबंध भी इन्हीं का हिस्सा हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि लंबे समय से कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की मार झेल रहे ईरान की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी है। हालांकि ईरान अब तक यही कहता आया था कि उसने समझौते का पूरा पालन किया है तो क्यों नहीं आर्थिक प्रतिबंधों में ढील मिलनी चाहिए। अमेरिका को छोड़ समझौते से बंधे बाकी यूरोपीय देशों को यह सुनिश्चित करना था कि ईरान पर से आर्थिक प्रतिबंध कम किए जाएं। लेकिन व्यवहार में ऐसा हुआ नहीं और इसी से नाराज ईरान ने भी यूरेनियम संवर्द्धन साढ़े चार फीसद तक बढ़ाने का एलान कर डाला। हालांकि अभी भी इस मात्रा से परमाणु हथियार बनाना कतई संभव नहीं है। ईरान का यह कठोर फैसला 2015 के समझौते- ज्वाइंट कांप्रिहेंसिव प्लान आॅफ एक्शन (जेसीपीओए) के विपरीत है। इस समझौते के तहत ईरान को कुछ ऐसे कदम उठाने थे जो इस बात का प्रमाण होते कि वह परमाणु कार्यक्रम बंद कर चुका है और शांति पूर्ण कार्यों और जरूरतों के लिए ही यूरेनियम संवर्द्धन करेगा, न कि परमाणु हथियार बनाने के लिए। हकीकत तो यह है और दुनिया के ज्यादातर देश इस बात को समझ भी रहे हैं कि ईरान को ऐसे कदम उठाने के लिए उकसाया जा रहा है, ताकि उसे घेरा जा सके। पिछले महीने ही तेल टैंकरों पर हमले और अमेरिकी ड्रोन को मार गिराने का अरोप लगा कर अमेरिका ने ईरान पर हमले की तैयारी कर ली थी। लेकिन ऐन मौके पर उसने अपना फैसला बदल लिया था और युद्ध टल गया।

मौजूदा संकट को दूर करने की दिशा में फ्रांस आगे आया है। उसने ईरान के राष्ट्रपति से बात की है और अगले हफ्ते पश्चिमी देशों का एक प्रतिनिधिमंडल ईरान जाएगा। ईरान संकट का शांतिपूर्ण समाधान जरूरी है। ईरान और अमेरिका के बीच मौजूदा तनाव पूरी दुनिया के लिए खतरा बना हुआ है। ईरान के समर्थन और विरोध में खड़े देशों के बीच लकीर साफ है। रूस, चीन जैसे देश अमेरिकी कार्रवाई का खुल कर विरोध कर रहे हैं। जबकि यूरोपीय देशों में भी ज्यादातर अमेरिकी कार्रवाई से सहमत नहीं हैं। पिछले साल जब अमेरिका ने खुद को समझौते से अलग किया था, तब उसकी आलोचना भी हुई थी। मामला इतना बिगड़ता नहीं अगर सभी देश 2015 के समझौते का ईमानदारी से पालन करते। लेकिन अमेरिका का मकसद शायद कुछ और है! वह किसी न किसी बहाने ईरान पर हमला कर उसके तेल पर कब्जा करना चाहता है। उसकी हठधर्मिता इसी का संकेत है।


Date:10-07-19

नए आधार की ओर

संपादकीय

आधार एक बार फिर नई जमीन हासिल करने की ओर बढ़ चला है। संसद के दोनों सदनों में पास होने के बाद अब नए आधार विधेयक को बस राष्ट्रपति की अनुमति का इंतजार है, इसके बाद यह कानून में बदल जाएगा। यह नया कानून मार्च में पास किए गए अध्यादेश की जगह ले लेगा। नए कानून की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब किसी को कोई सेवा या सुविधा देने से इसलिए इनकार नहीं किया जा सकता कि उसके पास आधार कार्ड या नंबर नहीं है। नया कानून यह अधिकार भी देगा कि बचपन में बने आधार कार्ड को कोई भी शख्स वयस्क होने पर रद्द करा सकता है। एक और चीज जिसकी इस समय सबसे ज्यादा चर्चा है, पहचान पत्र के तौर पर आधार कार्ड का इस्तेमाल अब ऐच्छिक होगा, यानी अगर कोई चाहे, तो बैंक में खाता खुलवाने या नया टेलीफोन कनेक्शन लेने के लिए अपने पहचान पत्र के तौर पर आधार का इस्तेमाल कर सकता है। पहले यह जरूरी था कि ऐसी सेवाओं के लिए आधार से पहचान प्रमाणित की जाए। लेकिन पिछले साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में ऐसी बाध्यता को खत्म कर दिया। इसी के बाद नए कानून की जरूरत थी।

पहचान पत्र के रूप में आधार का इस्तेमाल कई तरह से सुविधाजनक था, लेकिन शुरू से ही यह विवादास्पद रहा। खासकर इसलिए कि इसका अर्थ था इसके डाटा का निजी कंपनियों के पास पहुंच जाना। हालांकि जब सुप्रीम कोर्ट ने इसकी बाध्यता को खत्म किया, तो खासकर बैंकों और टेलीफोन कंपनियों के सामने इससे समस्याएं खड़ी होने लगी थीं। यह समस्या इसलिए भी थी कि देश में इस समय एक बहुत बड़ी आबादी ऐसी है, जिसके पास अपनी पहचान प्रमाणित करने का एकमात्र तरीका आधार कार्ड ही है। अब जब आधार का इस्तेमाल ऐच्छिक बनाया गया है, तो यह समस्या कुछ हद तक सुलझ सकती है। अच्छी बात यह है कि इसमें भी यह व्यवस्था की गई है कि आधार का दुरुपयोग न हो सके। इस्तेमालकर्ता को अब सीधे आधार नंबर देने की बजाय, हर मौके पर उसके लिए क्यूआर कोड लेकर देना होगा, जिससे संस्थाएं सीधे उसके आधार डाटाबेस तक नहीं पहुंच सकेंगी। ऐसे तरीके की जरूरत इसलिए भी थी कि आधार के इस्तेमाल को लगातार नया विस्तार मिल रहा है। हाल ही में पेश केंद्रीय बजट में यह प्रावधान किया गया है कि आयकर रिटर्न भरने का काम पैन कार्ड न होने की सूरत में आधार से भी किया जा सकता है। इसी के साथ सरकार ने यह विश्वास भी दिलाया है कि सरकार डाटा की सुरक्षा के विशेष उपाय करेगी।

नए कानून के बाद आधार के प्रावधान में लोगों का अधिकार केंद्रीय तत्व बन गया है। कानून यह भी कहता है कि कोई भी सरकारी सेवा या सुविधा हासिल करना नागरिक का अधिकार है, इसे आधार जैसी चीजों के होने या न होने के आधार पर रोका नहीं जा सकता। इसके बाद देश में जो आधार का इतना विस्तृत डाटाबेस बना है, उसके नए लक्ष्य तय करने का समय आ गया है। आज देश में एक नागरिक को आधार, पैन और मतदाता पहचान पत्र जैसे कई कार्ड रखने पड़ते हैं, इसे भी जल्द ही बदलने की जरूरत है। इसके लिए ‘एक देश, एक कार्ड’ जैसी व्यवस्था के बारे में भी सोचा जा सकता है। लेकिन इससे पहले डाटा सुरक्षा कानूनों की नींव मजबूत करनी होगी।


Date:10-07-19

Global problem, local solutions

Forest dwellers and farmers are the best hope to preserve biodiversity and ensure food security

Soumya Sarkar is Managing Editor of IndiaClimateDialogue.net

The Dongria Kondh tribe of Niyamgiri Hills are among the best conservationists in the world. Known for the spirited defence of their forested habitat against short-sighted industrialisation, they have through millennia evolved a lifestyle that is in perfect harmony with nature. Across India, there are scores of indigenous people who have managed to lead meaningful lives without wanton destruction of natural ecosystems.

These tribes, along with marginalised communities living on the fringes of forests and millions of smallholder farmers, are the best hope that India has to preserve biodiversity and ensure food security. At a time when nature faces the threat of another mass extinction of species, their importance cannot be emphasised enough because they offer us solutions to avert an imminent meltdown.

The first global assessment of biodiversity by a UN-backed panel, which released its report in May, held humans squarely responsible for the looming mass extinction of species. Without radical efforts towards conservation, the rate of species extinction will only gather momentum. The red flag comes close on the heels of a February report by the UN Food and Agriculture Organization (FAO). A loss in biodiversity simply means that plants and animals are more vulnerable to pests and diseases, and it puts food security and nutrition at risk, the FAO said.

At a higher risk

Although biodiversity loss is a global problem, it can be countered only with local solutions. There’s no one-size-fits-all approach. A solution that has succeeded in a temperate, wealthy nation may not be suitable for a country like India. Our tropical homeland is rich in biodiversity, but the imperatives of relentless economic growth, urbanisation, deforestation and overpopulation place it at risk more than many other places.

Nothing can be achieved without the active participation of communities that live close to nature — farmers and forest dwellers. It is now obvious that intensive agriculture, exploitative forestry and overfishing are the main threats to biodiversity in India and the world. In their prognosis, UN agencies are unanimous that the best way to correct the present course is to heed the accumulated wisdom of indigenous peoples, fishers and farmers.

The situation with our forests is even more dire. Instead of evicting forest dwellers from their homes, we should be encouraging them to conserve and nurture their habitats. Pressure from industrialisation does not care too much about conservation and biodiversity. The same holds true for the overexploitation of our rivers and seas.

For solutions one has to just look at the growing movement of zero-budget natural farming in Andhra Pradesh and Telangana, or the community-driven forest conservation initiatives in Odisha and the Northeast, to realise that there is hope for the natural ecosystem, if only we act on the advice of local communities.

No silver bullet

There is no silver bullet to solve the problem of crop and biodiversity loss at the national level. The natural farming movement in Andhra Pradesh may not be suitable for, say, Punjab. Fortunately, India’s farmers and tribes are nothing if not innovative and they do have local solutions.

Loss of biodiversity and the threat of species extinction along with the alarming changes wrought by global warming are the primary concerns of our times. Our best bet for survival depends on how well we address these issues. We can do that only if we put people at the centre of our actions. If we continue to ride roughshod over the people who are essential to revitalising nature, we do so only at our peril.


Date:10-07-19

The malaise of malnutrition

India needs to double yearly rate of fall in stunting cases to achieve its 2022 target

Thomas Abraham is a Bengaluru-based writer on social issues. He is the author of ‘Polio: The Odyssey of Eradication’

A new report, ‘Food and Nutrition Security Analysis, India, 2019’, authored by the Government of India and the United Nations World Food Programme, paints a picture of hunger and malnutrition amongst children in large pockets of India. This punctures the image of a nation marching towards prosperity. It raises moral and ethical questions about the nature of a state and society that, after 70 years of independence, still condemns hundreds of millions of its poorest and vulnerable citizens to lives of hunger and desperation. And it once again forces us to ask why despite rapid economic growth, declining levels of poverty, enough food to export, and a multiplicity of government programmes, malnutrition amongst the poorest remains high.

A trap of poverty, malnutrition

The report shows the poorest sections of society caught in a trap of poverty and malnutrition, which is being passed on from generation to generation. Mothers who are hungry and malnourished produce children who are stunted, underweight and unlikely to develop to achieve their full human potential.

The effects of malnourishment in a small child are not merely physical. A developing brain that is deprived of nutrients does not reach its full mental potential. A study in the Lancet notes, “Undernutrition can affect cognitive development by causing direct structural damage to the brain and by impairing infant motor development.” This in turn affects the child’s ability to learn at school, leading to a lifetime of poverty and lack of opportunity.

Another study in the Lancet observes, “These disadvantaged children are likely to do poorly in school and subsequently have low incomes, high fertility, and provide poor care for their children, thus contributing to the intergenerational transmission of poverty.” In other words, today’s poor hungry children are likely to be tomorrow’s hungry, unemployed and undereducated adults.

The findings in the report are not new: many studies over the last five years have exposed the failure of the Indian state to ensure that its most vulnerable citizens are provided adequate nutrition in their early years. India has long been home to the largest number of malnourished children in the world. Some progress has been made in reducing the extent of malnutrition. The proportion of children with chronic malnutrition decreased from 48% percent in 2005-06 to 38.4% in 2015-16. The percentage of underweight children decreased from 42.5% to 35.7% over the same period. Anaemia in young children decreased from 69.5% to 58.5% during this period. But this progress is small.

An ambitious target

The government’s National Nutrition Mission (renamed as Poshan Abhiyaan) aims to reduce stunting (a measure of malnutrition that is defined as height that is significantly below the norm for age) by 2% a year, bringing down the proportion of stunted children in the population to 25% by 2022. But even this modest target will require doubling the current annual rate of reduction in stunting.

The minutes of recent meetings of the Executive Committee of Poshan Abhiyaan do not inspire much confidence about whether this can be achieved. A year after it was launched, State and Union Territory governments have only used 16% of the funds allocated to them. Fortified rice and milk were to be introduced in one district per State by March this year. But the minutes of a March 29 meeting showed that this had not been done, and officials in charge of public distribution had not yet got their act together. Or, as the minutes put it, “The matter is under active consideration of the Ministry of Consumer Affairs, Food and Public Distribution”. Anganwadis are key to the distribution of services to mothers and children. But many States, including Bihar and Odisha, which have large vulnerable populations, are struggling to set up functioning anganwadis, and recruit staff.

The key to ending the tragedy of child nutrition lies with a handful of State governments: the highest levels of stunted and underweight children are found in Jharkand, Bihar, Madhya Pradesh, Gujarat and Maharashtra. Malnutrition is a reflection of age-old patterns of social and economic exclusion. Over 40% of children from Scheduled Tribes and Scheduled Castes are stunted. Close to 40% of children from the Other Backward Classes are stunted. The lack of nutrition in their childhood years can reduce their mental as well as physical development and condemn them to a life in the margins of society.

Stunting and malnourishment starts not with the child, but with the mother. An adolescent girl who is malnourished and anaemic tends to be a mother who is malnourished and anaemic. This in turn increased the chances of her child being stunted.

The problem is access to food

As Amartya Sen noted, famines are caused not by shortages of food, but by inadequate access to food. And for the poor and marginalised, access to food is impeded by social, administrative and economic barriers. In the case of children and their mothers, this could be anything from non-functioning or neglectful governments at the State, district and local levels to entrenched social attitudes that see the poor and marginalised as less than equal citizens who are meant to be an underclass and are undeserving of government efforts to provide them food and lift them out of poverty.

A lot of attention has focussed on the government’s aim of turning India into a $5 trillion economy in the next five years. Whether this will achieved is a matter for debate. But these declarations only serve to obscure a larger reality. There is a large section of society, the poorest two-fifths of the country’s population, that is still largely untouched by the modern economy which the rest of the country inhabits. As one part of the country lives in a 21st century economy, ordering exotic cuisines over apps, another part struggles with the most ancient of realities: finding enough to eat to tide them over till the next day.