11-07-2018 (Important News Clippings)

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11 Jul 2018
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Date:11-07-18

सुधारों से ही बदलेगी कृषि की तस्वीर

सीता, (लेखिका आर्थिक मामलों की जानकार हैं)

पिछले हफ्ते दो अलग-अलग राजनीतिक समूह यह दर्शाने की कोशिश करते नजर आए कि उन्हें वास्तव में किसानों के हितों की दूसरों से ज्यादा फिक्र है। इस संदर्भ में सबसे बड़ी घोषणा तो बेशक मोदी सरकार द्वारा खरीफ सीजन की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में डेढ़ गुने इजाफे को लेकर की गई। वहीं दूसरी ओर कर्नाटक की जद(एस) व कांग्रेस की साझा सरकार ने अपने पहले बजट में किसानों के लिए 34,000 करोड़ रुपए की कर्ज माफी योजना घोषित की।कह सकते हैं कि किसानों की आपदा दूर करने के नाम पर सत्ताधारी वर्ग द्वारा अमूमम ऐसी ही घोषणाएं की जाती हैं, खासकर जब चुनाव नजदीक हों। लेकिन ऐसी लोक-लुभावन घोषणाओं की इनके प्रतिकूल वृहद-अर्थशास्त्रीय निहितार्थों की वजह से आलोचना भी होती है। एमएसपी में हालिया इजाफे की भी यह कहते हुए आलोचना की जा रही है कि ये उस अनुपात में नहीं है, जितना किसान उम्मीद कर रहे थे। किसान फसल की सी2 लागत पर डेढ़ गुना इजाफा चाहते हैं, जबकि यहां पर ए2 प्लस एफएल पर डेढ़ गुना इजाफे की बात हो रही है।

गौरतलब है कि सी2 लागत में फसल उत्पादन हेतु प्रयुक्त नकदी और गैर-नकदी के साथ ही जमीन पर लगने वाले लीज रेंट और जमीन के अलावा दूसरी कृषि पूंजियों पर लगने वाला ब्याज भी शामिल होता है। वहीं ए2 लागत में किसानों द्वारा फसल उत्पादन में किए गए सभी तरह के नकदी खर्च जैसे बीज, खाद, रसायन, मजदूर खर्च, ईंधन खर्च, सिंचाई खर्च आदि शामिल होते हैं। ए2 प्लस एफएल लागत में नकदी खर्च के साथ ही कृषक परिवार के सदस्यों की मेहनत की अनुमानित लागत को भी जोड़ा जाता है। बहरहाल, यहां बुनियादी सवाल यह है कि क्या कर्ज माफी या न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा करने जैसी कवायदों से वास्तव में किसानों का भला होता है? पहले कर्ज माफी की बात करते हैं। यदि कर्ज माफी योजनाओं से किसानों की समस्याओं का समाधान होता तो वर्ष 2008 में संप्रग सरकार द्वारा 72,000 करोड़ रुपए की भारीभरकम कर्ज माफी की जो घोषणा की गई थी, उससे तो किसानों की समस्याओं का हमेशा के लिए अंत हो जाना चाहिए था।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि यह योजना उस मूल कारण का समाधान नहीं करती थी, जिसके चलते किसान कर्ज चुका नहीं पाते और वह है कृषि में लाभकारिता का अभाव। लिहाजा कर्ज माफी योजनाओं से किसानों के तात्कालिक कर्ज की समस्या का तो समाधान हो जाता है, किंतु वे अगले कर्जों को चुकाने में सक्षम नहीं बन पाते। इसके अलावा कर्ज माफी योजनाओं से सिर्फ उन्हीं किसानों को फायदा मिल पाता है जो किसी सरकारी या सहकारी संस्था अथवा बैंक जैसे संस्थागत स्रोत से कर्ज लेते हैं। इन कर्ज माफी योजनाओं का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों के खाते में चला जाता है। सीमांत किसान, जिनके पास एक हेक्टेयर से भी कम जमीन है और जो कुल किसानों के तकरीबन 67 फीसदी हैं, अपने ज्यादातर कर्जे महाजनों या सूदखोरों, रिश्तेदारों, व्यापारियों और भू-स्वामियों से लेते हैं और इस तरह वे कर्ज माफी योजनाओं के दायरे से बाहर रह जाते हैं।

अब न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की बात करें तो पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने भी वर्ष 2009 के चुनाव से पहले इसमें अच्छा इजाफा किया था। लेकिन क्या इससे किसानों की बदहाली दूर होने की राह प्रशस्त हुई? ऐसा नहीं हो सका क्योंकि कुल सरकारी खरीद में से 80 फीसदी तो पांच राज्यों में ही हो रही थी और आज भी ज्यादातर किसान एमएसपी या उस सरकारी खरीद एजेंसी के बारे में नहीं जानते, जिसके तहत वे अपनी उपज को बेच सकें। ऐसे में सरकारी खरीद तंत्र को जमीनी स्तर पर प्रभावी और कारगर बनाए बगैर महज एमएसपी में इजाफे से क्या होगा? इस परिप्रेक्ष्य में ओईसीडी-आईसीआरआईईआर द्वारा भारत में कृषि संबंधी नीतियों पर केंद्रित रिपोर्ट पर चर्चा लाजिमी है। इस रिपोर्ट में कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी ने बताया कि किस तरह एमएसपी के तहत आने वाले तमाम खेतिहर उत्पादों की बाजार कीमतें घोषित मूल्य इजाफे से कहीं कम थीं। मसलन, गुजरात के जामनगर में मूंगफली की कीमतें घोषित एमएसपी के मुकाबले 43 फीसदी कम पाई गईं, उज्जैन की मंडी में उड़द की कीमतें 59 फीसदी कम थीं और सूरत में मूंग 36 फीसदी कम भाव में बिक रही थी।

क्या सरकार के पास उच्च एमएसपी पर खरीद करने के वित्तीय व भौतिक संसाधन हैं, यदि बाजार इन मूल्यों को चुकाने के लिए तैयार नहीं हो? क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डीके जोशी का आकलन है कि यदि सरकारी खरीद पिछले साल के स्तर पर ही की जाती है तो मौजूदा एमएसपी से सरकारी खजाने पर 11,500 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगाा। लेकिन चूंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य बाजार कीमतों से उच्च होंगे, लिहाजा सरकारी खरीद और ज्यादा हो सकती है, इससे इसकी लागत और बढ़ेगी। हमारे कहने का मतलब यह नहीं कि एमएसपी में इजाफा व कर्ज माफी योजनाओं की जरूरत नहीं। लेकिन महज इतना करना ही काफी नहीं। जिस तरह पैरासिटामोल से हमें बुखार में राहत तो मिल जाती है, लेकिन इससे बीमारी के कारणों का निदान नहीं होता। किसान बदहाल हैं, क्योंकि उनके कार्य से जुड़े हर पहलू पर सरकार का कुछ ज्यादा ही नियंत्रण है। ऐसे में उनकी मदद के लिए बनाई जाने वाली योजनाएं आखिरकार उन्हें ही चोट पहुंचाने लगती हैं। इसकी एक प्रमुख मिसाल कृषि उत्पाद विपणन समितियों की मोनोपॉली है, जिससे किसान आढ़तियों के रहमोकरम पर निर्भर होकर रह गए हैं।

किसानों के पास तो यह पता करने के भी समुचित स्रोत नहीं हैं कि विभिन्न् बाजारों (यहां तक कि राज्य में ही) में क्या भाव चल रहे हैं। छोटे किसान कर्ज के लिए महाजनों और अन्य अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भर हैं, क्योंकि ऐसे ज्यादातर बटाईदार किसान होते हैं और उनके पास पट्टे का औपचारिक अनुबंध नहीं होता। लिहाजा वित्त के औपचारिक स्रोतों तक उनकी पहुंच नहीं होती। अनौपचारिक बटाईदार प्रक्रिया को नियमित करने का कोई समुचित तंत्र नहीं है। फिर मूल्य निर्धारण नीति में शहरी उपभोक्ताओं की पक्षधरता का भी मामला है। जैसे ही किसी उत्पाद की कीमतें शहरी उपभोक्ताओं को चुभने लगती हैं, सरकार प्रतिक्रियास्वरूप निर्यात प्रतिबंधित करने, आयात में ढील देने और उसका स्टॉक रखने की सीमा निर्धारित करने जैसे कदम उठाने लगती है। इससे किसानों के लिए कीमतें गिर जाती हैं। इस संदर्भ में साख बाजार, भूमि बाजार सुधार समेत विपणन संबंधी सुधार करने भी जरूरत है। मौजूदा केंद्र सरकार ने ऐसे कुछ सुधार शुरू किए भी हैं, पर वह राज्य सरकारों को इसके लिए तैयार नहीं कर पा रही है। लेकिन इन बदलावों के बगैर, एमएसपी में वृद्धि और कृषि कर्ज माफी जैसी कवायदें भी किसानों के लिए दीर्घकाल में मददगार साबित नहीं होंगी।


Date:11-07-18

साफ-सफाई के प्रति राज्य सरकारें बेपरवाह, दिल्ली कचरे में डूब रही है और मुंबई पानी में

संपादकीय

स्वच्छ भारत अभियान के साथ शहरों को स्मार्ट बनाने के इस दौर में राज्य सरकारें साफ-सफाई के प्रति कितनी बेपरवाह है, इसका पता इससे चलता है कि सुप्रीम कोर्ट की नोटिस के बाद भी मेघालय, ओडिशा, केरल, पंजाब, बिहार, छत्तीसगढ़, हिमाचल, गोवा और पश्चिम बंगाल ने ठोस कचरे के निस्तारण पर अपना हलफनामा नहीं दाखिल किया। नाराज सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी राज्यों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना तो लगाया ही, यह कहकर नीति-नियंताओं को शर्मसार भी किया कि दिल्ली कचरे में डूब रही है और मुंबई पानी में। ध्यान रहे कि इसी मसले पर पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कचरा निस्तारण पर केंद्र सरकार के आठ सौ से अधिक पन्नों के दस्तावेज को एक तरह का कचरा करार दिया था।सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद भी साफ-सफाई के प्रति सरकारों के ऐसे रवैये से यह साफ है कि शहरों को स्मार्ट बनाना तो दूर रहा, उन्हें सामान्य तौर पर साफ-सुथरा बनाए रखने की भी चिंता नहीं की जा रही है।

इसके प्रमाण आए दिन सामने भी आते रहते है। जैसे दिल्ली के नीति-नियंताओं को यह नहीं सूझ रहा कि कचरे का क्या किया जाए वैसे ही मुंबई के नीति-नियंता बारिश से होने वाले जल भराव से निपट पाने में नाकामी का शर्मनाक उदाहरण पेश कर रहे है।  यदि दिल्ली-मुंबई सरीखे देश के प्रमुख शहर बदहाली से मुक्त नहीं हो पा रहे तो फिर इसकी उम्मीद करना व्यर्थ है कि अन्य शहर कचरे, गंदगी, बारिश से होने वाले जलभराव, अतिक्रमण, यातायात जाम आदि का सही तरह सामना कर पाने में सक्षम होंगे। आखिर इस पर किसी को हैरानी क्यों होनी चाहिए कि जानलेवा प्रदूषण से जूझते शहरों में हमारे शहरों की गिनती बढ़ती जा रही है? नगर निकाय, राज्य सरकारें और साथ ही केंद्र सरकार शहरी विकास के बारे में चाहे जैसे दावे क्यों न करे, देश के शहर बेतरतीब विकास का पर्याय और बदहाली का गढ़ बनते जा रहे है। यदि नगर नियोजन की घातक अनदेखी का सिलसिला कायम रहा तो देश के बड़े शहर तो रहने लायक ही नहीं रह जाएंगे। यह किसी त्रासदी से कम नहीं कि समय के साथ शहरों की समस्याएं बढ़ रही है और उन्हें ठीक करने के दावे महज जुमले साबित हो रहे है।

शहरीकरण तब घोर अव्यवस्था से दो-चार है जब हमारे नेता एवं नौकरशाह इससे परिचित है कि शहर ही विकास के इंजन है। वे इससे भी अवगत है कि शहरों की ओर ग्रामीण आबादी के पलायन की रफ्तार और तेज ही होनी है। जब कोशिश इसके लिए होनी चाहिए कि शहर नियोजित विकास का उदाहरण पेश करते हुए आबादी के बढ़ते बोझ को वहन करने की क्षमता विकसित करें तब वे असुविधाजनक नगरीय जीवन का ठौर बन रहे है। इसका मूल कारण है शहरी ढांचे को ठीक करने के लिए जरूरी इच्छाशक्ति का अभाव। इस अभाव के साथ नियोजित विकास के करीब-करीब हर पैमाने का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति ने शहरों की समस्याओं को कहीं अधिक गंभीर बनाने का काम किया है। यदि जिन लोगों पर शहरों को संवारने की जिम्मेदारी है उन्हें जवाबदेह नहीं बनाया गया तो हालात और खराब होंगे।


Date:11-07-18

सुधार जरूरी

संपादकीय

मौजूदा वर्ष देश के वस्त्र निर्यात के लिए अच्छा नहीं साबित हो रहा है। क्लोदिंग मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीएमएआई) के आंकड़ों के मुताबिक इस साल अप्रैल और मई में वस्त्र निर्यात पिछले वर्ष के समान महीनों की तुलना में क्रमश: 23 प्रतिशत और 17 प्रतिशत गिरा। वर्ष 2017-18 में भी इस क्षेत्र का प्रदर्शन कमजोर रहा था और पूरे साल के दौरान देश के वस्त्र निर्यात में 4 प्रतिशत की कमी आई थी। सीएमएआई ने इसके लिए आंशिक तौर पर अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित बाजारों में मांग की कमी को भी एक वजह बताया है। निर्यात क्षेत्र में देश के कमजोर प्रदर्शन के लिए वैश्विक मांग में कमी की यह दलील पहले भी दी जाती रही है। बहरहाल, अगर अन्य विकासशील देशों के बड़े वस्त्र निर्माताओं से तुलना की जाए तो पता चलता है कि दरअसल समस्या वैश्विक बाजारों की स्थिति की नहीं है बल्कि उसका संबंध देश की परिस्थितियों से है। उदाहरण के लिए जरा वियतनाम पर विचार कीजिए जिसके वस्त्र निर्यात में इस वर्ष अब तक 14 प्रतिशत की वृद्घि दर्ज की जा चुकी है।

अब यह वस्त्रों का पांचवां सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। पिछले वित्त वर्ष के दौरान जहां भारतीय वस्त्र निर्यात में 4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई, वहीं बांग्लादेश ने इसी अवधि में तैयार वस्त्रों के निर्यात के जरिये 9 फीसदी की राजस्व वृद्घि हासिल की। इसके पहले बांग्लादेश में कपड़ा एवं वस्त्र मिलों के बुनियादी ढांचे में जबरदस्त सुधार किया गया ताकि उच्च सुरक्षा मानकों का पालन किया जा सके। कुछ वर्ष पहले लगी भयावह आग के बाद ऐसा किया गया। मई 2018 में जब देश का वस्त्र निर्यात 17 प्रतिशत गिरा तो इसी अवधि में श्रीलंका का वस्त्र निर्यात सालाना आधार पर 9 प्रतिशत बढ़ा। अप्रैल में जरूर उसके वस्त्र निर्यात में 4 प्रतिशत की गिरावट आई थी लेकिन फिर भी वह भारत की 23 प्रतिशत की गिरावट से बहुत कम थी। उद्योग जगत ने अन्य प्रतिस्पर्धी देशों से बढ़ते आयात को भी देश के निर्यात की खस्ता हालत के लिए जिम्मेदार ठहराया है। परंतु इससे यही बात रेखांकित होती है कि यह प्रतिस्पर्धा की ढांचागत कमी है और इसका मांग की परिस्थितियों से कोई लेनादेना नहीं है। सरकार को इस क्षेत्र को लेकर अपने रुख की नए सिरे से जांच परख करनी चाहिए।

सरकार की ओर से बहुप्रचारित ‘टेक्सटाइल पैकेज’ में पूरा ध्यान करों में बदलाव पर केंद्रित है जिसमें राज्यों के चुनिंदा शुल्क के पुनर्भुगतान की बात कही गई है। उद्योग जगत की यह शिकायत भी है कि वस्तु एवं सेवा कर के आगमन के बाद से करों के मामले में उसकी स्थिति थोड़ी कमजोर हुई है। कहा जा रहा है कि इस धारणा को बदलने में अभी कुछ वक्त लगेगा। इस क्षेत्र में तयशुदा अवधि के रोजगार के अनुबंधों की इजाजत देना और कर्मचारी भविष्य निधि में तीन साल तक नियोक्ता के योगदान का भारवहन करने का वादा आदि अधिक महत्त्वपूर्ण बातें हैं। कपड़ा एवं वस्त्र क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा के साथ दिक्कत यह है कि हमारी फैक्टरियां प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में निहायत छोटी हैं। इससे औसत लागत बढ़ती है और छोटे ऑर्डर से निपटने या नई तरह की इन्वेंटरी तैयार करने में दिक्कत होती है।  इससे पूंजी निवेश भी मुश्किल हो जाता है। बांग्लादेश में औसतन एक फैक्टरी में 600 कर्मचारी होते हैं। हमारा देश इसकी तुलना में कहीं नहीं ठहरता। अगर इससे निपटना है तो हमें कहीं अधिक व्यापक रुख अपनाते हुए यह देखना होगा कि श्रम कानूनों तथा अन्य कष्टकारी नियमों को कैसे और अधिक उदार बनाया जा सकता है। अस्थायी उपाय कारगर नहीं होंगे। चीन में बढ़ती लागत ने इस क्षेत्र के विकास के द्वार खोले। भारत को इस बार मौका नहीं गंवाना चाहिए।


Date:10-07-18

आभासी दुनिया की विकृतियां

मोनिका शर्मा

कभी भीड़ को कातिल बनातीं अफवाहें, तो कभी फर्जी तस्वीरों से किसी भी चेहरे की छवि बिगाड़ डालना। कभी किसी जीते-जागते सितारे की मौत की खबर फैला देना, तो कभी स्पष्टता से विचार साझा करने पर महिलाओं को ट्रोल किया जाना। सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर अब ऐसा आक्रामक, अराजक और लापरवाहीपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है जो असल दुनिया के सौहार्द को छीनने और उसे रक्तरंजित करने की बड़ी वजह बन रहा है। सोशल मीडिया की लत ने इन मंचों के सार्थक इस्तेमाल की उम्मीदों को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया है। मन और जीवन पर गहरा असर डाल रहा आभासी संसार अब बदलाव नहीं, बीमारियां ला रहा है। यह अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति के बजाय सामाजिक मानसिक विकृतियों को माध्यम बना रहा है। आए दिन हो रही ऐसी घटनाएं इस बात की तसदीक करती हैं कि सोशल मीडिया इंसान के बदलते व्यवहार और खो रही समझ का बड़ा कारण बनता जा रहा है। इस संदर्भ में हाल में शोध पत्रिका ‘न्यूरो रेग्यूलेशन’ में छपा एक अध्ययन चेताने वाला है। शोध के मुताबिक सोशल मीडिया से बहुत ज्यादा जुड़ाव रखना इंसान के व्यवहार में बदलाव की वजह बना रहा है।

डिजिटल माध्यमों की लत हमारी जैविक प्रतिक्रियाओं पर गहरा असर डाल रही है। समाज और परिवेश से अलग-थलग कर देने वाली यह लत कई मानसिक और दैहिक बीमारियों की वजह बन रही है। कुछ समय पहले कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने भी कहा था कि सोशल मीडिया से किशोरों का जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। इस शोध के परिणामों में यह सामने आया कि सोशल मीडिया का प्रभाव वास्तविक जीवन में इस कदर बढ़ रहा है कि ऑफलाइन होने पर घरों में झगड़े होते हैं। स्कूलों में समस्याएं सामने आती हैं। पूर्वी यूरोपीय देश हंगरी में ‘सोशल मीडिया एडिक्शन स्केल’ नाम का पैमाना भी ईजाद किया गया है, जिसके माध्यम से यह पता लगाया जाता है कि उपयोगकर्ता को सोशल मीडिया की कितनी लत है। इस पैमाने के मुताबिक हंगरी के साढ़े चार फीसद लोगों को सोशल मीडिया की लत पड़ गई है जिसके चलते ऐसे लोगों में खुद पर भरोसे की कमी साफ नजर आती है। ये अवसाद के शिकार हो चुके हैं। नतीजतन, ऐसे लोगों को बाकायदा सलाह दी गई कि वे स्कूल-कॉलेज में सोशल मीडिया डिएडिक्शन क्लास में जाएं और खुद का इलाज करवाएं। सामान्य जीवन जीने की ओर लौटें।

वैश्विक स्तर पर हुए ज्यादातर अध्ययनों में इस बात का खुलासा हुआ है कि विचार और व्यवहार पर गहरा असर डाल रहे आभासी संसार में बढ़ती मौजूदगी असामान्य व्यवहार और जीवनशैली संबंधी बदलावों के लिए जिम्मेदार है। उम्र और वर्ग के अनुसार ये प्रभाव अलग-अलग हैं। युवाओं में इस आभासी संसार में मौजूदगी के कारण शिक्षा और व्यक्तिगत संबंधों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है, तो पारिवारिक जीवन में रिश्तों में दरार आ रही है। बच्चे आत्मकेंद्रित और आक्रामक बन कम उम्र में ही दिशाहीन हो रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर में करोड़ों लोग सोशल मीडिया की लत के शिकार हो गए हैं। हालात ऐसे हो चले हैं कि किसी भी तरह की ऑफलाइन गतिविधियों में लोगों की रुचि ही नहीं दिखती। न तो घरेलू और आपसी संबंधों में संवाद बचा है, न कार्यस्थल पर सार्थक वार्तालाप। इसकी वजह भी साफ है कि फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, स्नैपचेट, इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म से लगातार जुड़े रहने पर इंसानी दिमाग कुछ खास दिशाओं में सोच ही नहीं पाता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिजीजेज’ के मसौदे के ग्यारहवें संशोधन में ‘गेमिंग डिसआर्डर’ को भी शामिल किया है। सोशल मीडिया की लत को सिगरेट या शराब के नशे की तरह माना जा रहा है। लाइक-कमेंट न मिलने या कम मिलने और स्मार्ट गैजेट की बैटरी खत्म होने की स्थितियां मन में बेचैनी पैदा करने लगी हैं।

ऐसे लती लोगों के व्यवहार में भय और आत्ममुग्धता का अजीबोगरीब मेल दिखता है जो कहीं न कहीं औरों से पीछे छूट जाने की चिंता लिए है। यह चिंता आधारहीन और यह बेचैनी गैर-जरूरी है। यह भावनात्मक फिक्र और डर उन बातों के लिए है जिनके असल में कोई मायने ही नहीं हैं। कुछ ही समय पहले मुंबई में एक एनजीओ ने दो सौ से ज्यादा लोगों पर एक सर्वे किया था। इसमें यह सामने आया कि सोशल मीडिया पर दिखने वाला जुड़ाव असली नहीं, बल्कि केवल दिखावा मात्र है। इसमें न तो अपनापन है और न ही किसी से कोई भावनात्मक लगाव। इतना ही नहीं, ट्रोलिंग, गाली-गलौज, बदसलूकी वाला बर्ताव भी इन मंचों से जुड़े लोगों के लिए तनाव और अवसाद का कारण बन रहा है। बावजूद इसके लोग इन माध्यमों के लती बन रहे हैं। दरअसल, सोशल मीडिया का विवेकपूर्ण इस्तेमाल न हो तो यह माध्यम न केवल समय और ऊर्जा खपाने वाला, बल्कि सोच-समझ की दिशा खो देने वाला मंच भी है। भारत में फेसबुक इस्तेमाल करने वाले चौबीस करोड़ से ज्यादा लोग हैं। बीस करोड़ से ज्यादा लोग वाट्सऐप का इस्तेमाल करते हैं। देश में स्मार्टफोन और इंटरनेट के विस्तार से सोशल मीडिया की पहुंच गांव-कस्बों तक हो गई है। आंकड़े बताते हैं कि सोशल मीडिया पर फोन से मौजूदगी रखने वालों की तादाद छप्पन फीसद की दर से बढ़ रही है।

अब सोशल मीडिया के इन मंचों के जरिये भ्रमित करने वाली खबरें साझा करने से लेकर धार्मिक-राजनीतिक उन्माद तक फैलाया जा रहा है। इसमें फर्जी तस्वीरें साझा करना बड़ी समस्या बना गया है। यहां जिम्मेदार अभिव्यक्ति के बजाय असामाजिक और अविश्वसनीय सामग्री को साझा किए जाने का चलन चल पड़ा है। नतीजतन, आभासी दुनिया के इस गैर जिम्मेदार व्यवहार का असर अब आम जीवन पर भी दिखने लगा है। यह विचारणीय प्रश्न है कि सब कुछ जानते-समझते हुए भी लोग इसके चक्रव्यूह से निकल क्यों नहीं पा रहे हैं। अध्ययन बताते हैं कि सोशल मीडिया की लत के शिकार लोग चिड़चिड़े, गुस्सैल और आलसी हो जाते हैं। उनकी निजी और सामाजिक जिंदगी बुरी तरह से प्रभावित होती है। इस आभासी दुनिया को लोगों ने अपनी व्यक्तिगत परेशानियां साझा करने का माध्यम भी बना लिया है। जबकि असली रिश्तों की जगह आभासी दुनिया के अनजाने चेहरे नहीं ले सकते। मानवीय व्यवहार में कई तरह के विरोधाभासी बदलाव लाने वाले सोशल मीडिया की लत इस कदर हावी हो गई है कि दुनियाभर में लोग मनोवैज्ञानिकों और चिकित्सकों की सलाह लेने लगे हैं। विशेषज्ञ भी इस मानसिक व्याधि से जूझ रहे लोगों को अपनों-परायों से घुलने-मिलने और वास्तविक जीवन से जुड़ने की सलाह दे रहे हैं। स्क्रीन में झांकने के बजाय अपने परिवेश को जीने की राह सुझा रहे हैं।

अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में तो बाकायदा डिजिटल डिटॉक्स की सुविधाएं देने वाले स्टार्टअप शुरू हो चुके हैं। मोटी फीस वसूल कर लोगों को सोशल मीडिया की लत से छुटकारा दिलाया जा रहा है। उन शारीरिक-मानसिक व्याधियों का इलाज किया जा रहा है, जो इन माध्यमों के हद से ज्यादा इस्तेमाल की बदौलत उपजी हैं। हमारे यहां हालात ऐसे हो रहे हैं कि एम्स के राष्ट्रीय व्यसन उपचार केंद्र ने ऐसे लोगों की काउंसलिंग करने की शुरुआत की है जो सोशल मीडिया और इंटरनेट की लत के शिकार हैं। कैसी विडंबना है कि आभासी सामाजिकता के इस दौर में वास्तविक जीवन का सुखद मेल-मिलाप, औरों के साथ ही नहीं खुद अपने आप के साथ भी नहीं बचा है। हम व्यस्त हैं या अस्त-व्यस्त खुद नहीं समझ पा रहे हैं। सामाजिक रूप से सक्रिय रहना इंसान को तनाव, अवसाद और नकारात्मकता से दूर रखता है। मौजूदा समय में हर उम्र के लोगों का काफी समय ऑनलाइन बीत रहा है। नतीजतन, न तो हम कुछ नया सीख रहे हैं और न ही अपने परंपरागत परिवेश और संबंधों को संभाल पा रहे हैं। ऐसे में आभासी दुनिया में अपनी मौजूदगी के मायनों के संदर्भ में जरूरत और लत का अंतर समझना आवश्यक है, ताकि सोशल मीडिया बीमारियों का नहीं बल्कि बदलाव का माध्यम बने।