11-02-2020 (Important News Clippings)

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11 Feb 2020
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Date:11-02-20

गैरजरूरी कदम

संपादकीय

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला के खिलाफ सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) डॉजियर दुनिया के सर्वाधिक अधिनायकवादी शासन व्यवस्था से आया प्रतीत होता है। 42 वर्ष पुराना यह अधिनियम किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने की इजाजत देता है ताकि वह इस तरह काम न कर सके जो राज्य की सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के खिलाफ हो। यह गिरफ्तारी दो वर्ष तक के लिए हो सकती है। मुफ्ती और अब्दुल्ला ने नजरबंदी के छह महीने पूरे किए हैं। उनके खिलाफ यह डॉजियर विचित्र है। बिना ठोस प्रमाण के दोनों नेताओं के खिलाफ लगे आरोप एक जीवंत लोकतंत्र में नेताओं की सामान्य गतिविधियों पर लगे आरोप हैं। मसलन, मुफ्ती को बिना किसी स्पष्टीकरण के ‘पिता की प्यारी पुत्री’ (क्या पिता का करीबी होना सुरक्षा के लिए खतरा है?) कहा गया है जो खतरनाक और कुचक्र में माहिर और हड़पने वाली प्रकृति की हैं। इसके सबूत के रूप में उन वक्तव्यों को पेश किया गया है जो उन्होंने केंद्र सरकार के अनुच्छेद 370 और 35 ए समाप्त करने पर दिए थे। संविधान के ये अनुच्छेद जम्मू कश्मीर नामक पूर्व राज्य को विशेष दर्जा देते थे। मुफ्ती ने केंद्र के कदम की तुलना बारूद के ढेर में आग लगाने से की थी और तीन तलाक को आपराधिक बनाए जाने के खिलाफ ट्वीट किए थे। ऐसी बातें तो तमाम टिप्पणीकारों ने की थी। क्या इस बात से वह सार्वजनिक सुरक्षा के लिए खतरा बन गईं?

डॉजियर में कुछ गोपनीय रिपोर्टों के हवाले से यह भी कहा गया है कि वह अलगाववादियों से मिलीभगत रखती हैं। गोपनीय रिपोर्ट का हवाला तभी दिया जाता है जब कोई ठोस प्रमाण नहीं होता। शायद उनकी इस मांग को देश के खिलाफ माना गया हो कि मौत के बाद आतंकियों के शव के साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाना चाहिए। एक असहज करने वाला तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने 2016 से 2018 तक इन्हीं महबूबा मुफ्ती की पार्टी से गठबंधन किया था। अब्दुल्ला के खिलाफ सबूत के रूप में भी अनुच्छेद 370 और 35 ए के समर्थन में उनके भाषणों और उनके इस वक्तव्य को पेश किया कि अनुच्छेदों को खत्म करने से जम्मू कश्मीर के संवैधानिक दर्जे पर बहस फिर शुरू हो जाएगी। यह कहा गया है कि उन्हें इसलिए बंदी बनाया गया है क्योंकि उनमें लोगों को किसी भी काम के लिए प्रभावित करने की क्षमता है। इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया गया है कि वह आतंकी गतिविधियों और चुनाव के बहिष्कार के चरम दिनों में भी लोगों को वोट देने के लिए घर से बाहर निकलने के लिए प्रेरित कर लेते थे। यह अत्यंत विसंगतिपूर्ण बात है।

कहा जा सकता है कि दोनों नेता अपने ही हथियार के शिकार हो गए। क्योंकि राज्य सरकार सन 1978 में पारित होने के बाद से आए दिन इस कानून का प्रयोग करती रहती थी। परंतु केंद्र ने जिन सबूतों पर कार्रवाई की है वे यही बताते हैं कि यह जम्मू कश्मीर का दर्जा बदलने के निर्णय की आलोचना के प्रतिक्रिया में किया गया। यह भी ध्यान देने लायक बात है कि उसने पीएसए अधिनियम में 2018 में किए गए संशोधन का पूरा इस्तेमाल किया। इसके तहत लोगों को राज्य के बाहर भी बंदी बनाया जा सकता है। यह सब सन 1919 के रॉलेट ऐक्ट की मुखालफत करने वालों के प्रति ब्रिटिशों की प्रतिक्रिया जैसा है। अंतर केवल यह है कि वह दमन एक औपनिवेशिक शक्ति ने किया था। केवल भाजपा ही नहीं देश की तमाम सरकारें ऐसे कदम उठाती रही हैं। सन 1971 में पारित विवादास्पद आंतरिक सुरक्षा रखरखाव अधिनियम (मीसा) को याद कीजिए। दुखद है कि यह परंपरा जारी है। यदि सरकार की आलोचना का नागरिक अधिकार कानून व्यवस्था की चुनौती बन जाए तो लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्य दांव पर लग जाता है।


Date:11-02-20

प्रकृति के साथ हमारे कुत्सित संबंधों से विषाणु की समस्या

सुनीता नारायण , (लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं।)

इसे कीड़े का प्रतिशोध कहें। नए कोरोनावायरस ने चीन की अर्थव्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाया है, वह अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भी नहीं कर सके। इस वायरस को 2019-एनसीओवी नाम दिया गया है। इसने दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह झकझोर दिया है, उत्पादन ठहर गया है, शहरों की रफ्तार थम गई है और लोगों को अलग-थलग कर दिया गया है। इस संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए संभवत: अब तक के सबसे व्यापक प्रयास किए जा रहे हैं। चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने इसे वायरस के खिलाफ जनता की लड़ाई बताया है। लेकिन चिंताजनक सवाल यह है कि करीब एक महीने में इससे 900 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और 40 हजार से अधिक लोग संक्रमित हैं। आखिर इसका खात्मा कब होगा? यह वायरस दो सप्ताह से अधिक समय तक निष्क्रिय रहता है। इस दौरान संक्रमित लोगों में कोई लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। अच्छी बात यह है कि इसकी मृत्यु दर कम है। लेकिन इसके फैलने का खतरा बहुत अधिक है क्योंकि यह हवा के जरिये एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है। इसके प्रसार को रोकने का यही तरीका है कि संभावित मरीज को अलग-थलग रखा जाए।

लेकिन आपस में जुड़ी दुनिया में इसके क्या मायने हैं? एक ऐसी दुनिया जिनमें सीमा के आरपार लोगों की आवाजाही और व्यापार रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुका है। इस तथ्य पर गौर कीजिए। दुनिया में पहली बार 2003 में इस तरह का स्वास्थ्य संकट देखने को मिला था जब सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) का कहर बरपा था तो दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में चीन की हिस्सेदारी केवल 4 फीसदी थी। आज यह 16 फीसदी है। इसी से दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए चीन की अहमियत को समझा जा सकता है। यह दुनिया में सस्ते सामान की आपूर्ति शृंखला है। इसलिए चीन में स्वास्थ्य संकट से पूरी दुनिया में कारोबार प्रभावित होगा। साथ ही अब दुनिया में बड़ी संख्या में लोग एक देश से दूसरे देश जाते हैं, इसलिए वायरस के तेजी के फैलने की आशंका भी ज्यादा है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस संकट से निपटने के लिए सरकारें हरसंभव प्रयास कर रही हैं। लेकिन इससे हमारी साझा कमजोरी दिखती है कि कैसे एक आम सर्दी जुकाम दुनिया के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।

यह 2003 के सार्स और 2012 में फैले मिडल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (मर्स) से ज्यादा गंभीर है। इन सभी मामलों में चमगादड़ में पाया जाने वाला वायरस जानवरों से इंसानों में आया है। सार्स के मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने पाया कि वायरस सिवेट कैट, रैकून डॉग और बिज्जू के जरिये इंसानों में आया। 2019-एनसीओवी के मामले में अब तक यह साफ नहीं है कि यह इंसानों में कैसे आया। कहा जा रहा है कि कि जहां से इसकी शुरुआत हुई वहां के स्थानीय बाजार में चमगादड़ नहीं बेचा जाता है। वैज्ञानिक अभी इस बारे में जांच कर रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इंसानों में जीवों से होने वाली बीमारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इनमें स्वाइन फ्लू से एवियन इनफ्लूएंजा शामिल हैं। ये ऐसी बीमारियां हैं जो जानवरों से इंसान में फैल रही हैं और महामारी का रूप ले रही हैं।

सच्चाई यह है कि प्राकृतिक दुनिया के साथ हमारे कुत्सित संबंधों के कारण वायरस जानवरों से इंसानों में आ रहे हैं। एक तरफ हम हर तरह के रसायन और जहरीले पदार्थों को अपने खाद्य पदार्थों में मिला रहे हैं। इससे हम खाद्य पदार्थों को पोषण के बजाय बीमारी का स्रोत बना रहे हैं। जानवरों और यहां तक कि फसलों को ऐंटीबायोटिक की खुराक दी जा रही है। इसकी वजह बीमारी पर काबू पाना नहीं है बल्कि जानवरों का वजन बढ़ाना है ताकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। इससे इंसान की प्रतिरोधक क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। दूसरी तरफ, हम अपने भोजन में उन तरीकों को बढ़ा रहे हैं जो रोग बढ़ाने के अनुकूल हैं। जानवरों का मांस बड़े-बड़े कारखानों में प्रसंस्कृत किया जा रहा है जो दुनिया में तेजी से संक्रमण का स्रोत बन रहा है। याद रखिए कि स्वाइन फ्लू की शुरुआत मैक्सिको में सूअर के मांस का प्रसंस्करण बनाने वाले कारखानों से हुई थी। इससे पानी प्रदूषित हुआ था। इंसान और जानवरों के पर्यावास के बीच सीमाओं के टूटने से इस तरह की बीमारियों की संख्या बढ़ेगी। आज की आपस में जुड़ी हुई दुनिया और वैश्वीकरण के दौर में इस तरह का संक्रमण तेजी से फैलेगा।

दुनिया में जिस तरह से कारोबार होता है, वह भी सवालों के घेरे में है। सच्चाई यह है कि बीमारी से जलवायु परिवर्तन तक दुनिया की कमजोरी बढ़ेगी। पिछले तीन दशकों में दुनिया ने एक एकाकी व्यापार व्यवस्था के निर्माण में निवेश किया जिसमें स्थानीय या क्षेत्रीय नियंत्रण के लिए कोई जगह नहीं है। गरीबों की जोखिम प्रबंधन व्यवस्थाओं से हमें यह सीखना चाहिए कि विविधता अस्तित्व की कुंजी है। हमारे किसान हमेशा फसल और पशुपालन के जरिये कम से कम जोखिम उठाते हैं। वे तरह-तरह की फसलें उगाते थे। वैज्ञानिकों का कहना है कि हर इलाकों में 50 से अधिक फसलें उगाई जाती हैं। उन्होंने उन कारकों पर अपनी निर्भरता कम की जिन पर उनका वश नहीं था। इसके बजाय उन्होंने ज्यादा लचीली स्थानीय अर्थव्यवस्था बनाने पर जोर दिया। अब मैं जानती हूं कि हम वैश्वीकरण की प्रक्रिया को पीछे नहीं मोड़ सकते हैं और इस तरह इस विश्व व्यापार व्यवस्था से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। यह मुनाफे वाली है और हर कोई विश्व आपूर्ति शृंखला के साथ जुडऩा चाहता है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि दुनिया में कुछ झटके हमारा इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में हमें वैश्वीकरण की अवधारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए। आइए पहले स्थानीयकरण पर काम करके शुरुआत करें।


Date:11-02-20

फिर आरक्षण का सवाल

संपादकीय

आरक्षण का मसला एक बार फिर सतह पर है और इसका कारण सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला है कि सरकारें नौकरियों और प्रोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं। उत्तराखंड के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कई राजनीतिक दल यह माहौल बनाने में जुट गए हैं मानों शीर्ष अदालत ने आरक्षण के खिलाफ कोई फैसला दे दिया है। हैरानी यह है कि ऐसा माहौल बनाने वालों में कांग्रेस भी है, जबकि 2012 में उसी के शासन वाली उत्तराखंड सरकार ने लोक निर्माण विभाग के सहायक अभियंताओं की पदोन्नति में एससी-एसटी आरक्षण लागू न करने का फैसला किया था।

उसके इस फैसले को उच्च न्यायालय ने सही नहीं पाया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सही करार देते हुए यह भी रेखांकित किया कि पदोन्नति में आरक्षण मूल अधिकार नहीं है। उसके इस फैसले का यह मतलब नहीं है कि एससी-एसटी आरक्षण पर किसी तरह की रोक लगा दी गई है या फिर उसे अमान्य करार दिया गया है। पता नहीं क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इस हिस्से पर गौर करने से बचा जा रहा है कि यदि किन्हीं सेवाओं में आरक्षित वर्गो के प्रतिनिधित्व में असंतुलन नहीं है तो फिर सरकारों को पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। आखिर इसमें ऐसा क्या आपत्तिजनक है कि संसद के भीतर और बाहर यह कहा जाने लगा है कि मोदी सरकार आरक्षण खत्म करने की तैयारी में है? यदि यह राजनीतिक शरारत नहीं तो और क्या है?

कम से कम इसका तो कोई औचित्य नहीं कि आरक्षण के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सरकार का फैसला बताकर दुष्प्रचार किया जाए। दुर्भाग्य से कांग्रेस ठीक यही कर रही है? उसने और कुछ अन्य दलों ने ऐसा ही काम तब किया था जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम को संशोधित कर दिया था। यह ठीक नहीं कि राजनीतिक दल संवेदनशील मसलों पर लोगों को गुमराह करने का काम करें।

क्या यह अजीब नहीं कि आज जो कांग्रेस एससी-एसटी समुदाय के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण के लिए व्यग्र दिख रही है उसने ही उत्तराखंड में सत्ता में रहते यह उचित समझा था कि उन्हें यह सुविधा देने की आवश्यकता नहीं है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर केंद्र सरकार ने यह सही कहा कि उसका इस फैसले से लेना-देना नहीं, लेकिन उसे इस पर ध्यान देना होगा कि केंद्र और साथ ही राज्यों की जिन सेवाओं में आरक्षित वर्गो का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है उनमें उनकी समुचित भागीदारी हो। इस भागीदारी के आंकड़े भी सामने लाए जाने चाहिए ताकि किसी तरह के दुष्प्रचार के लिए गुंजाइश न रहे।


Date:11-02-20

दोहरा सबक सिखाने वाली महाआपदा

डॉ. भरत झुनझुनवाला

चीन के महानगर वुहान से फैले कोरोना वायरस के कारण चीनी अर्थव्यवस्था भी दबाव में आ गई है। इस शहर में हवाई जहाज बनाने वाली कंपनी एयरबस और एपल आइफोन बनाने वाली फॉक्सकॉन जैसी तमाम कंपनियों की विनिर्माण इकाइयां हैं। फिलहाल उन्होंने अपने उत्पादन को रोक दिया है। चीन के शेयर बाजार लुढ़क रहे हैं। चीन से बाहर जाने वाले और दूसरे देशों से चीन को जाने वाले पर्यटकों की संख्या शून्यप्राय हो गई है।भारत में भी इसका प्रभाव पड़ रहा है। हमारा 14 प्रतिशत आयात और पांच प्रतिशत निर्यात चीन के साथ है। खासतौर से हम हीरों, मसालों, रबर और मछली का निर्यात करते हैं। इन निर्यातकों को परेशानी होगी। इसके अलावा कई उद्योगों द्वारा कच्चे माल जैसे कार के लिए कलपुर्जों का हमारे निर्माता चीन से आयात करते हैं। इन पुर्जों का आयात न हो पाने से हमारे देश में कार उत्पादन मुश्किल में पड़ेगा। कोरोना वायरस का प्रभाव उन क्षेत्रों पर ज्यादा पड़ा है जिनका विश्व व्यापार से कहीं अधिक जुड़ाव है।

यदि हम स्वयं कार के पुर्जे बना रहे होते तो अपने देश में कार उत्पादन पर संकट के बादल नहीं मंडराते। ऐसे में हमें विश्व व्यापार से जुड़ाव की उपयोगिता पर फिर से विचार करना होगा। इस विषय को एक किसान के उदाहरण से समझा जा सकता है। किसान को तय करना होता है कि वह अपनी अर्थव्यवस्था का शहर से कितना जुड़ाव करेगा। यदि किसान शहर से किराये पर ट्रैक्टर मंगाए, बीज खरीदे और ट्यूबवेल की मरम्मत के लिए मैकेनिक लाए तो उसकी उत्पादन लागत कम पड़ सकती है। चूंकि शहर में ये सुविधाएं सस्ते में उपलब्ध होती हैं, लेकिन यदि शहर में बाढ़ आ जाए या कोई महामारी फैल जाए तो उसे ये सुविधाएं मिलना बंद हो जाएंगी और उसकी खेती संकट में पड़ जाएगी।

इस प्रकार किसान के शहर से जुड़ाव के दो परस्पर विरोधी प्रभाव होते हैं। जुड़ाव बढ़ने से उत्पादन लागत कम होती है। साथ ही साथ जोखिम भी बढ़ जाता है। एक घटना से ही उसकी खेती प्रभावित हो सकती है। इन दोनों परस्पर विरोधी प्रभावों के बीच एक उचित स्तर होता है। इस उचित स्तर से अधिक जुड़ाव किसान के लिए नुकसानदेह है।इसी प्रकार प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव का एक उचित स्तर होता है। प्रारंभ में विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने से हमें लाभ अधिक होता है और जोखिम कम बढ़ता है। जैसे हमें फास्फेट फर्टिलाइजर उपलब्ध हो जाते हैं अथवा नई तकनीक मिल जाती है, लेकिन एक स्तर के बाद अत्यधिक जुड़ाव से हमारी अर्थव्यवस्था के लिए वैसे खतरे और बढ़ जाते हैं जैसे अभी दिख रहे हैं। देश में कलपुर्जे बनाना मुश्किल नहीं है, लेकिन सस्ते चीनी आयात के चलते हमने ऐसा नहीं किया और आफतों को आमंत्रण दिया। किसी देश की अर्थव्यवस्था के विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ाव का एक स्तर होता है और उससे अधिक जुड़ाव जोखिम ही बढ़ाता है।इसके उलट भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए यह फायदेमंद होता है कि प्रत्येक देश अधिकतम स्तर पर जुड़े। उन्हें इन देशों के जोखिम की कोई परवाह नहीं होती। जैसे चीन के इस संकट से आइफोन बनाने वाली फॉक्सकॉन को कोई नुकसान नहीं होगा। वह चीनी इकाइयों में ठप पड़े काम की भरपाई मलेशिया, चेक गणराज्य, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर या फिलीपींस के अपने कारखानों में उत्पादन बढ़ाकर कर लेगी। यदि मलेशिया में कोई संकट पैदा हुआ तो यह कंपनी किसी और देश में इसका समाधान खोज लेगी। इसके उलट यदि भारत की फैक्ट्री में ऐसा संकट आ पड़ा तो हमारे उद्यमी मलेशिया में उत्पादन नहीं कर सकेंगे, क्योंकि उनका इकलौता कारखाना भारत में है।

इससे स्पष्ट है कि विश्व अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ाव को लेकर किसी देश की अर्थव्यवस्था और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच द्वंद्व जैसी स्थिति होती है। ये कंपनियां चाहती हैं कि अधिकतम जुड़ाव से उन्हें अधिकतम लाभ मिल सके। वहीं देश के लिए उचित यही होता है कि वह न्यूनतम जोखिम के साथ अपने अधिकतम लाभ की संभावनाएं तलाशे। यानी उसे देश को अनावश्यक जोखिम में नहीं झोंकना चाहिए। इसीलिए सरकार को चाहिए कि वह जोखिम का समग्र मूल्यांकन कर जुड़ाव का निर्णय करे।विषय का दूसरा पहलू है कि कोरोना जैसे वायरस क्यों उत्पन्न होते हैं? ऐसे वायरस का अस्तित्व तो प्रकृति में पहले से ही होता है तब ये कैसे पशुओं आदि से निकलकर मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर अपने को तेजी से मल्टीप्लाई करने लगते हैं। एचआइवी-एड्स का ही उदाहरण लें तो 19वीं सदी के अंत में अफ्रीका में यूरोपीय शक्तियों ने उपनिवेश बनाए और आदिवासी जनता को उनके प्राकृतिक स्थानों से निकालकर तेजी से शहरों में बसा दिया ताकि रेलवे और बंदरगाह आदि बना सकें। इस प्रक्रिया में मनुष्य का तनाव बढ़ा। तनाव बढ़ने से उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्यून सिस्टम का ह्रास हुआ।

वह वायरस, जो सामान्यत: प्रकृति में मौजूद रहता है और मनुष्य में प्रवेश नहीं करता, वह मनुष्य की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होने की वजह से किसी मनुष्य विशेष के शरीर में प्रवेश कर गया। इसके बाद वह संक्रामक एवं आक्रामक होकर बार-बार आक्रमण करता है। यह द्रुत गति से फैलने लगता है। गुजरे दशक के आरंभ में सार्स नाम का वायरस चीन के ग्वांगडोंग राज्य में पैदा हुआ।ग्वांगडोंग चीन के तीव्र आर्थिक विकास का केंद्र है। वहां भी चीन के दूरदराज के नागरिकों को जबरन पलायन कराकर बसाया गया। फिलहाल जिस कोरोना वायरस ने कोहराम मचाया हुआ है उसका प्रकोप भी उस इलाके में ही ज्यादा है जहां लंबे अर्से से बड़े पैमाने पर औद्योगिक-आर्थिक गतिविधियां चल रही हैं। एड्स के बारे में तो यह स्पष्ट है कि मनुष्य के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में ह्रास होने के कारण वह वायरस भयावह हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्वांगडोंग और वुहान में भी उसी प्रकार की परिस्थितियां रही हैं जो अफ्रीका में 19वीं शताब्दी में थीं।

हमें इस पर विचार करना चाहिए कि ये वायरस तीव्र आर्थिक विकास की होड़ का नतीजा तो नहीं हैं? यदि ऐसा है तो हमें अपनी चाल को थोड़ा धीमा करना चाहिए जिससे हम भविष्य में इस प्रकार के संकटों से मुक्त रहें। कोरोना वायरस के संक्रमण से हमें दो सीख मिलती हैं। पहली यह कि विश्व व्यापार से जुड़ाव की एक उचित सीमा है और दूसरी यह कि मनुष्य को पर्यावरण से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।


Date:10-02-20

राजपक्षे की यात्रा

संपादकीय

श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे का तीन दिवसीय भारत यात्रा द्विपक्षीय संबंधों की दृष्टि से कई मायनों में महत्वपूर्ण माना जाएगा। राजपक्षे ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के तौर पर भारत का चयन किया यह अपने–आप दर्शाता कि उनकी सोच में हमारा महत्व क्या हैॽ महिंदा 2005 से 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे। आरंभ में उस समय श्रीलंका के साथ संबंध बेहतर रहे‚ लेकिन लिट्टे को खत्म करने के लिए उन्होंने जो सैन्य अभियान चलाया; उसमें जिस तरह आम तमिलों के साथ क्रूरता‚ अत्याचार और दुर्व्यवहार हुए उससे संबंध बिगड़ गए। महिंदा धीरे–धीरे चीन की ओर झुकते गए। मोदी सरकार आने के बाद भारत ने विपक्षी नेताओं से संपर्क कर उनके बीच एकता कराई और वे चुनाव में विजय हुए। राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना तथा प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसंघे के कार्यकाल में श्रीलंका चीन के चंगुल से निकलकर भारत के साथ पुरानी मित्रता की पटरी पर लौट आया था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भी श्रीलंका गए उन्होंने महिंदा से भी मुलाकात कर उनसे संवाद बनाए रखा। राजनीतिक वनवास के काल में भी महिंदा कई बार भारत आए। महिंदा राजपक्षे के भाई गोताबाया के राष्ट्रपति के तौर पर निर्वाचन के बाद यह आशंका फिर बलवती हुई कि उनका झुकाव चीन की ओर होगा। लेकिन गोताबाया ने भी अपनी विदेश यात्रा की शुरु आत भारत से ही की। इससे यह आशंका कमजोर हुई। भारत ने उनकी विजय के साथ ही अपनी कूटनीति को काफी तेज कर दिया। महिंदा ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा भी कि वो मोदी के पड़ोसी प्रथम की नीति का स्वागत करते रहे हैं। भारत द्वारा श्रीलंका की सुरक्षा एवं आतंकवाद से संघर्ष में लगातार साथ दिए जाने का उनका बयान काफी महत्वपूर्ण है। जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने कहा दोनों देशों के बीच रक्षा‚ क्षेत्रीय सुरक्षा‚ निवेश और व्यापार के मुद्दों पर बातचीत हुई। भारत तमिल समस्या से आंखें नहीं मोड़ सकता‚ इसलिए मोदी ने स्वयं इस पर बातचीत की। उन्होंने कहा भी हमें पूरी उम्मीद है कि श्रीलंका में तमिल समुदाय की उम्मीदों को पूरा किया जाएगा। माना जा सकता है महिंदा भारत से एक भरोसेमंद मित्र एवं सहयोगी की धारणा को लेकर श्रीलंका वापस गए और इसका सकारात्मक असर निश्चय ही हमारे संबंधों पर कायम रहेगा।


Date:10-02-20

राजपक्षे का दौरा

संपादकीय

इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रीलंका के प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे का भारत दौरा दोनों देशों के बीच रिश्तों को और मजबूत करेगा। क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर भारत के बढ़ते महत्त्व को श्रीलंका अच्छी तरह समझ-बूझ रहा है। शनिवार को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राजपक्षे के बीच तमिलों के मुद्दे से लेकर आतंकवाद, क्षेत्रीय सुरक्षा और व्यापार व निवेश बढ़ाने जैसे मुद्दों पर व्यापक वार्ता हुई। दोनों देशों के बीच मछुआरों का मुद्दा भी ध्यान खींचने वाला है। ये सभी मुद्दे ऐसे हैं जो दोनों ही देशों के लिए न सिर्फ जरूरी हैं, बल्कि इन पर साथ काम करने की जरूरत भी है। जहां तक तमिलों के मुद्दे को लेकर सवाल है, तो इस पर भारत की नीति शुरू से ही स्पष्ट रही है। भारत ने हमेशा श्रीलंकाई तमिलों की सुरक्षा और अधिकारों के मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाया है। श्रीलंका के उत्तरपूर्व में तमिल आबादी बहुतायत में है और अलग तमिल ईलम (प्रांत) की मांग को लेकर वहां लंबे समय तक सरकार और तमिल संगठनों के बीच टकराव चला, जिसका अंत लिबरेशन टाइगर्स आफ तमिल ईलम (एलटीटीई) के सफाए के रूप में हुआ। पर श्रीलंका में आज भी तमिलों को वे सब अधिकार नहीं मिल पाए हैं जिनके लिए वे लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए भारत तमिलों की सुरक्षा के लिए हमेशा से चिंतित रहा है। भारत की यही चिंता प्रधानमंत्री मोदी और राजपक्षे की बैठक में नजर आई है। भारत चाहता है कि श्रीलंका में तमिल आबादी को सुरक्षा, न्याय, समानता, सम्मान और वे सारे संवैधानिक अधिकार मिलें, जो सिंहल और बौद्धों को मिले हुए हैं। श्रीलंकाई तमिलों पर से अलगाववाद का ठप्पा हटना चाहिए। यही वह सबसे बड़ी समस्या है जो तमिलों को वहां बराबरी का दर्जा देने में बाधक बनी हुई है। इसलिए भारत ने श्रीलंका से साफ कहा है कि तमिलों के लिए उसे शक्तियों का विकेंद्रीकरण करने की जरूरत है। पर सवाल है कि क्या श्रीलंका इसे आसानी से सुनने वाला है? प्रधानमंत्री राजपक्षे एक दशक तक श्रीलंका के राष्ट्रपति भी रहे हैं और एलटीटीई के सफाए का श्रेय उन्हीं को जाता है। अब उनके छोटे भाई गोतबाया राजपक्षे देश के राष्ट्रपति हैं। जाहिर है, राजपक्षे परिवार की सत्ता पर मजबूत पकड़ है। ऐसे में तमिलों के मुद्दे पर श्रीलंका सरकार अपनी नीतियों और रुख में कितना बदलाव लाएगी, इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल है। सामरिक लिहाज से भी श्रीलंका भारत के लिए महत्त्वपूर्ण देश है। यह कोई छिपी बात नहीं है कि श्रीलंका चीन के प्रभाव में है और चीन का यह दखल महिंदा राजपक्षे के राष्ट्रपति रहने के दौरान ही बढ़ा। श्रीलंका को आर्थिक और सैन्य मदद की आड़ में चीन हिंद महासागर में पैर पसारने की नीति पर चल रहा है। इसीलिए उसने हंबनटोटा बंदरगाह की परियोजना को तेजी से बढ़ाया था। श्रीलंका के जरिए हिंद महासागर में अपनी पैठ बनाने की चीन की रणनीति भारत के लिए चिंता का बड़ा कारण रही है। श्रीलंका ने पिछले साल ईस्टर के मौके पर जिस तरह के आतंकी हमले झेले, वे क्षेत्रीय शांति के लिए बड़े खतरे का संकेत था। इसीलिए आतंकवाद के मुद्दे पर दोनों देशों की चिंताएं समान हैं। समुद्री सीमाओं में पता नहीं चलने की वजह से दोनों देशों के बीच मछुआरों का मुद्दा भी प्रमुखता से बना हुआ है। हालांकि ये सब मुद्दे बातचीत से हल हो सकते हैं। राजपक्षे की सत्ता चीन के प्रभाव से कितनी मुक्त हो पाती है और भारत के हितों को प्राथमिकता देती है, भविष्य के रिश्ते इसी पर ज्यादा निर्भर करेंगे।


Date:10-02-20

बदलते भारत के नए टकराव

बद्री नारायण

हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत की एक अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है- भारतमाता ग्रामवासिनी। किंतु पिछले कुछ वर्षों में ‘भारतमाता’ की अनुगूंज गांवों से ज्यादा शहरों-कस्बों में सुनाई पड़ने लगी है। देश की नई राजनीति ने भारतमाता का यह सिंहनाद शहरों व कस्बों तक फैलाया है। भारतमाता ‘ग्रामवासिनी’ अर्थ से उन्हें निकालकर इस राजनीति ने ‘नए भारत’ के निर्माण का नारा दिया है। यह गांवों की सीमांतवासी भारतमाता नहीं है, वरन एक ही साथ ‘नारीत्व’ के अर्थ के अलावा एक आक्रामक पुरुषत्व से पूर्ण भारत के अर्थ में भी तब्दील हो रहा है। इस नए बनते अर्थ के कारण हमारी भाषा के व्याकरण के सामने एक अजीब दुविधा खड़ी हो गई है। जहां भारतमाता के लिए हमें स्त्रीलिंग क्रिया पद का प्रयोग करना होता है, वहीं इस नए भारत के लिए पुल्लिंग क्रिया पद इस्तेमाल किए जाते हैं।

यह नया भारत एक ओर नए बनते फ्लाई ओवरों, छह लेन वाली सड़कों और स्मार्टफोन में दिखता है, तो वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री सड़क योजना पर बने लिंक रोड और पगडंडी पर भी आकार लेता दिख जाएगा। यह नया भारत एक ओर सोशल साइटों पर मुखर है, तो दूसरी ओर ज्यादातर गांवों में इसे आज भी मौन मान सकते हैं। इस नए भारत की राज्यसत्ता नरम यानी सॉफ्ट और सौम्य की जगह मजबूत (स्ट्रॉन्ग) स्टेट की छवि गढ़ना चाहती है। पुलवामा हो या पाकिस्तान की सीमा में घुसकर किया गया सर्जिकल स्ट्राइक, यह लगातार एक मजबूत राज्य की छवि गढ़ने की ओर बढ़ते रहना चाहता है। इस छवि से एक मुखर राष्ट्रवाद की आवाजें भी निकलती हैं, जो राजनीति के गलियारे से होते हुए मतों में बदलकर राज्यसत्ता पर नियंत्रण निर्मित करने का काम करती है। हालांकि इस नए भारत में दो छवियों की टकराहट अनवरत चल रही है।

हिंदुत्व की राजनीति से बनी छवि और धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बनने वाली भारत की छवि के बीच की टकराहट। इन टकराहटों की ध्वनियां इस नए बनते भारत में गूंज रही हैं। भारत के इन दो अर्थों के बीच एक तीसरा अर्थ है- आंबेडकर द्वारा परिभाषित भारत, जिसकी कुछ छवि तो भारतीय संविधान में अंकित है, किंतु उसकी कुछ अन्य छवियां आंबेडकर के विचारों पर आधारित राजनीति ने निर्मित की हैं। हिंदुत्व की छवि वाले भारत का अर्थ और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर टिके भारत का अर्थ, दोनों ही अपने में आंबेडकर द्वारा दिए गए भारत के अर्थ को समाहित कर लेना चाहते हैं। देखना है कि इस नए बनते भारत में आंबेडकर द्वारा दी गई छवियों वाला भारत किस ओर शामिल होता है या वह कुछ इधर-कुछ उधर में विभाजित हो जाता है।

इस नए भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया काफी तेज हुई है। धीरे-धीरे कस्बों और गांवों के एक भाग का शहरीकरण होता जा रहा है। फलत: ग्रामीण कही जाने वाली आबादी की संख्या इधर कम हुई है। 1901 में जहां शहरी आबादी 11.4 प्रतिशत थी, वह बढ़कर 2017 तक 34 प्रतिशत हो चुकी है। इस नए भारत में ग्रामीण आबादी कम होते-होते अब लगभग 65.37 के आस-पास रह गई है। नए भारत का भविष्य ग्रामीण से शहरी में रूपांतरण की दिशा में जाता दिख रहा है। आज जब बाजार का लगातार विस्तार हो रहा है, तो गांवों में भी यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से फैलता जा रहा है। यह बाजार अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद शहर और ग्राम के अंतर को कम करता जा रहा है। देखना यह है कि इस शहरी भारत में भारतीय परंपराएं, ग्रामीण जीवन मूल्य और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के मानवीय तत्वों का क्या होता है? हालांकि भारतीय शहरों में अब भी कई जगह ग्रामीण जीवन मूल्य, परंपरागत शैलियां देखने को मिल जाती हैं। देखना है कि यह नया भारत परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व में ही उलझा रहता है कि इस द्वंद्व और अंतर्विरोध को खत्म और जज्ब कर पाता है।

यह ठीक है कि आज के भारत के कस्बों में और सड़क से लगे गांवों के किनारे मोमोज, चाऊमिन और पिज्जा के ठेले दिखने लगे हैं, किंतु साथ में बाटी-चोखा की बिक्री भी कम नहीं हुई है। यह भी ठीक है कि गांवों से लगे कस्बों में चीनी मोबाइल की अनेक दुकानें दिख जाती हैं, गांवों में चीनी लैंप, पतंग और मांझे भी बिक रहे हैं, पर परिष्कृत रूप में देशी लालटेन भी गांव के चौपालों में कम नहीं हुई है। स्टार्टअप, नई उद्यमिता के विकास, ‘वन डिस्ट्रिक वन प्रोडक्ट’ जैसे अनेक कार्यक्रम हमारे इस नए भारत की देशी जरूरतों को पूरा करने की दिशा में अग्रसर हैं। यह नया भारत रक्षा उपकरणों के निर्माण की दिशा में आगे तो बढ़ ही रहा है, इसमें आदिवासी हाटों में तीर-धनुष की खरीद-बिक्री भी कम नहीं हुई है। ग्रामीण जरूरतों के अनेक संसाधन जो बाद में ग्रामीण, आदिवासी जनों की रक्षा के काम आने लगे, डिफेंस एक्सपो के दौर में भी बनते-बिकते हैं। बड़े मॉल, पीवीआर और माया बाजार-मीना बाजार के साथ ही गंवई हाट-बाजारों की संख्या बढ़ी ही है।

यह अलग बात है कि इन हाट-बाजारों में छोटे पाउच में साबुन, शैंपू, सॉफ्ट ड्रिंक और नमकीन ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति के अनुसार अपना रूप बदलकर पहुंचते गए हैं। यह भारत अभी तो अनेक अंतर्विरोधों का भारत है, लेकिन जिस नए भारत की संकल्पना लगातार की जा रही है, उसमें शायद धीरे-धीरे ये अंतर्विरोध खत्म हो जाएं। यह बदलता भारत धीरे-धीरे अपने लिए ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव’ की खोज कर रहा है। 90 के दशक में आई उदारवादी अर्थव्यवस्था, प्रखर राष्ट्रवाद की आवाज, सॉफ्ट की जगह एक स्ट्रॉन्ग राज्य, अनेक अंतर्विरोधों की टकराहटें, राजनीतिक विचारों का अंतरसंघर्ष, आक्रामक बाजार, तीव्र शहरीकरण और नवगति, नवलय की खोज, सभी इस नए भारत की आकृति को गढ़ रहे हैं। इस वक्त हम एक प्रकार के रूपांतरण की स्थिति से गुजर रहे हैं। देखना है कि इस रूपांतरण से क्या बनता है और क्या बिगड़ता है?


Date:10-02-20

Mapping life

Genome India Project is extremely promising and should proceed with maximum speed and maximum caution.

Editorial

The Genome India Project, a collaboration of 20 institutions including the Indian Institute of Science and some IITs, will enable new efficiencies in medicine, agriculture and the life sciences. The first obvious use would be in personalised medicine, anticipating diseases and modulating treatment according to the genome of patients. Several diseases develop through metabolic polymorphisms — the interplay of the environment with multiple genes, which differ across populations. For instance, one group may develop cancers and another may not, depending on the genetically-determined pathways by which they metabolise carcinogens. Cardiovascular disease generally leads to heart attacks in South Asians, but to strokes in most parts of Africa. If such propensities to disease can be mapped to variations across genomes, it is believed public health interventions can be targeted better, and diseases anticipated before they develop. Similar benefits would come to agriculture if there is a better understanding of the genetic basis of susceptibility to blights, rusts and pests. It may become possible to deter them genetically, and reduce dependence on chemicals.

Global science would also benefit from a mapping project in one of the world’s most diverse gene pools, which would provide data useful for the mapping of the spread and migration of a range of life forms in the Old World, from plants to humans. Traversing from the world’s tallest mountain range to warm seas through multiple bio-zones demarcated by climate and terrain, India could provide much information on the interplay of species and genetic groups within them. Eventually, a deeper understanding of ecology could emerge from the material thrown up.

However, some caution must be exercised in the field of human genetics, because the life sciences sometimes stray into unscientific terrain and heighten political bias. The mapping of brain regions to mental functions spun off the utterly unscientific and racist field of phrenology. The work on cranial volume measurements of the physician Samuel Morton — regarded in America as the father of scientific racism— justified slavery before the US Civil War. In India, a nation riven by identity politics and obsessed with the myths of pristine origins and authenticity, scientific work in mapping genetic groups may become grist to the political mill of the unscientific notion of race. Projects in genetics generally extend over long periods of time, which should be used by makers of scientific policy to ensure that the data which emerges is not interpreted for political ends.


Date:10-02-20

Searching for a solution

While the new accord empowers Bodos, questions about an enduring peace remain

Editorial

New Delhi’s third attempt at conflict resolution with Assam’s Bodos came out of the blue. The State had been more in the news for the sustained protests against the Citizenship (Amendment) Act, one that pre-dates the pan-India ferment after the Bill’s passage in Parliament. The signing of the peace accord on January 27 shifted attention after the Prime Minister had to abort two planned trips to Guwahati for a summit with Japanese Prime Minister Shinzō Abe on December 15 and the inauguration of the Khelo India Games on January 10. The new deal offers more hope than the 1993 and 2003 accords; some of the most potent factions of the National Democratic Front of Boroland that had stayed away from earlier agreements are now on board. More significantly, the stakeholders have agreed that the updated political arrangements would remain confined to the realm of wider autonomy within the State of Assam, giving statehood and Union Territory demands a final burial. The generous terms promise an expanded area to be renamed as Bodoland Territorial Region, a ₹1,500-crore development package, and greater contiguity of Bodo-populated areas. There is also an offer of general amnesty for militants, with heinous crimes likely to be benignly reviewed, and  5 lakh each to the families of those killed during the Bodo movement — it claimed nearly 4,000 lives. On a success scale, the agreement falls somewhere between the Naga framework agreement of August 2015, shrouded in secrecy, and the January 16 Bru settlement to permanently settle around 34,000 people displaced from Mizoram in 1997 in Tripura. While it empowers Bodos, the question of an enduring peace remains moot.

With newer claimants to a share of spoils, the current bonhomie could be severely tested when the expanded Bodoland Territorial Council goes to the polls soon. It has been dominated since inception in 2003 by the Bodoland Peoples Front, comprising former Bodo Liberation Tigers cadre, but the new batches of surrendered militants as well as the All Bodo Students’ Union intend to enter the fray. Of greater concern are inter-tribal and community ties. The Bodos comprise not more than 30% of the population in the BTR region, and the central munificence has deepened the insecurity among Koch Rajbongshis, Adivasis and Muslims. The politics of deferring to such identity-based movements is part of an old playbook of internal security in the Northeast — the Bru solution betrays shades of it, and one can trace it back to the Mizo insurgency and Laldenga becoming the Chief Minister of Mizoram. The Kokrajhar MP, a non-Bodo, has appealed to the government to ensure that a Bodo solution does not engender a non-Bodo problem. The accord’s success will lie in the stakeholders working out a power-sharing arrangement in the proposed BTR that privileges equity over hegemony.


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