11-01-2018 (Important News Clippings)
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Liberal sanskritisation
Why BJP should look beyond social and political conservatism
TOI Editorials
The NDA government has struck interesting positions in recent times which suggest liberal values may not be anathema for it. Its position on recent Supreme Court decisions – making the playing of national anthem optional in cinema halls and setting the stage for reconsidering its 2013 verdict upholding criminalisation of homosexual sex – exemplifies this. In the first instance, the central government itself informed the apex court that it could modify its November 2016 interim order that mandated the compulsory playing of national anthem in cinemas. Meanwhile, on Section 377 of the Indian Penal Code, BJP leaders like Arun Jaitley have openly stated that the apex court had taken a conservative view of homosexual sex in 2013, not congruent with evolving legal jurisprudence.
All this might seem out of sync with BJP’s generally conservative social approach. But it can be explained by applying a version of sociologist MN Srinivas’s Sankritisation thesis, according to which a lower-ranking caste or tribal group can lay claim to higher caste status by emulating the latter’s way of life. Likewise there could be a global process that resembles Sanskritisation, whereby India lays claim to higher status in the global comity of nations and joins the front rank of countries – desired intensely by BJP – by adopting practices similar to OECD nations. This would entail moving towards liberal social values and away from the kind of social practices that characterise, say, sub-Saharan African countries or Islamist autocracies. If this is the case, it is a process we heartily recommend.
Adopting liberal values need not be out of sync with BJP’s politics. After all, the party does aim to elevate India to the league of developed nations that have promulgated enlightened laws on matters such as expanding social choice, protecting environment and animal rights – values that are already congruent with Hinduism, one might add.
Welcome Decision to Liberalise FDI
ET Editorials
It is welcome that the government has eased foreign investment norms further, although these are incremental, rather than path-breaking, in nature. Liberalising foreign direct investment in Air India will probably make sure that the company will actually get privatised, with a majority stake held by an Indian entity that enjoys the trust of foreign backers now in a position to bid for the company complete with its huge debt burden. Allowing foreign direct investment (FDI) in single brand retail up to 100% under the automatic route, rather than under the government approval route as till now, is no big deal; but easing the sourcing norm is significant. Now, the 30% of local sales that has to be sourced from India can be sourced for global operations, and must be achieved over five years.
Some other relaxation of FDI norms are unlikely to make it to the headlines, but improve ease of doing business, such as dispensing with government approval for issue of shares against non-cash considerations such as pre-incorporation expenses and import of machinery when the investment is in sectors marked for automatic inflow. The decision to dispense with government approval for investment into regulated financial firms that will invest in other companies should make it easier for private equity and venture funds to increase capital deployment to India. This matters, when distressed assets being auctioned under the Insolvency and Bankruptcy Code resolution of bad loans are going cheap for want of adequate numbers of buyers. Having liberalised FDI in single brand retail, the government should now make bold and open up multi-brand retail as well. This is the reform that would level the field with e-commerce and pave the way for the maximum increase in job creation.
An organised retail chain across the country relieves small producers of the need to build their own distribution network, and boost investment in them. However, if there are not enough number of such organised chains to compete amongst themselves, such chains would squeeze direct producers badly.
एफडीआई को बढ़ावा
संपादकीय
केंद्र सरकार ने साहसी कदम उठाया है। जिस समय भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर कुछ हलकों में चिंताएं जताई जा रही थीं, तब उसके ताजा फैसलों को मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इससे दुनियाभर के निवेशकों में सकारात्मक संदेश जाएगा। गौरतलब है कि ये कदम उस समय उठाया गया है, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्विट्जरलैंड के शहर दावोस में होने वाली वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना बैठक में जाने की तैयारी में हैं। मोदी वहां 23 जनवरी को दुनिया की मशहूर कंपनियों के प्रमुखों को संबोधित करेंगे। साफ है, उसके पहले भारत में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश का मार्ग प्रशस्त किया गया है। इसके तहत अब सिंगल ब्रांड रिटेल में भी विदेशी कंपनियां ऑटोमेटिक रूट से शत-प्रतिशत निवेश कर सकेंगी। यानी ऐसे निवेश के लिए उन्हें पूर्व-अनुमति की जरूरत नहीं होगी। साथ ही ऐसी निवेशक कंपनियों के लिए भारत के घरेलू बाजार से 30 फीसदी खरीदारी करने की शर्त को आसान बनाया गया है। शर्तों में फेरबदल के बाद उम्मीद है कि ज्यादा-से-ज्यादा विदेशी कंपनियां भारत में कारोबार के लिए प्रोत्साहित होंगी। सिंगल ब्रांड के कारोबार में एच एंड एम, गैप और आइकिया जैसी कंपनियां पहले ही भारतीय बाजार में आ चुकी हैं। खबरों के मुताबिक 50 से भी ज्यादा कंपनियां इस क्षेत्र में आने को तैयार हैं। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने की नरेंद्र मोदी सरकार की नीति काफी सफल रही है। 2013-14 में 36.05 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आया था, जो 2016-17 में 60.08 अरब डॉलर तक पहुंच गया। अब चूंकि एनडीए सरकार ने फिर निवेशकों के अनुकूल निर्णय लिया है, तो ऐसे निवेश में और बढ़ोतरी हो सकती है। इससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। विदेशी कंपनियां अपने साथ नई तकनीक और कार्यशैली भी लेकर आती हैं। इसका लाभ आम उपभोक्ता को मिलता है।
देश के व्यापारी समुदाय में सरकार के ऐसे निर्णयों से कुछ चिंता पैदा होना स्वाभाविक है। सरकार को इसे दूर करने के लिए उनके संगठनों से संवाद कायम करना चाहिए। वैसे अतीत का अनुभव यही है कि विदेशी निवेश को लेकर जताई गई अधिकांश चिंताएं निराधार साबित होती हैं। अब सरकार ने कंस्ट्रक्शन डेवलपमेंट क्षेत्र में भी ऑटोमेटिक रूट से 100 फीसदी विदेशी निवेश की छूट दे दी है। इसके अलावा एक बड़ा फैसला एयर इंडिया में विदेशी कंपनियों को 49 प्रतिशत तक निवेश की हरी झंडी देना है, हालांकि इसके लिए सरकार की पूर्व अनुमति जरूरी होगी। एयर इंडिया में विनिवेश का फैसला सरकार पहले ही ले चुकी थी। कई बेलआउट पैकेज के बावजूद अपने पैरों पर खड़ा रहने में विफल रही इस एयरलाइन में निजी क्षेत्र को हिस्सेदारी मिले, इस पर अब लगभग आम-सहमति बन चुकी है। अब चूंकि विदेशी कंपनियां भी हिस्सेदारी हासिल कर सकेंगी, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि एयर इंडिया के प्रबंधन को अधिक पेशेवर बनाना संभव हो सकेगा। कुल मिलाकर यह कहने का आधार बनता है कि अर्थव्यवस्था को गति देना और देश को समृद्ध बनाना मोदी सरकार की शीर्ष प्राथमिकता बनी हुई है। उस दिशा में अब उसने कुछ और साहसी फैसले लिए हैं।
Date:11-01-18
गंभीर होते खेती व रोजगार के सवाल
प्रदीप सिंह, (लेखक राजनीतिक विश्लेषक तथा वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
लोकसभा चुनाव अभी सवा साल दूर हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि लोकसभा चुनाव में बस 16 महीने रह गए हैं। सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव की तैयारी अभी से शुरू कर दी है। 2014 के लोकसभा चुनाव और 2019 के चुनाव में एक बड़ा फर्क होगा। तब कांग्रेस सत्ता में थी और उससे सवाल पूछे जा रहे थे। आज भाजपा सत्ता में है और उससे जवाब मांगा जा रहा है। चुनाव के समय सत्तारूढ़ दल होने के फायदे कम होते हैं और नुकसान ज्यादा।
पिछले लोकसभा चुनाव और आगामी चुनाव में एक और फर्क होगा। इस बार सत्तारूढ़ भाजपा के लिए चुनौती मुख्य विपक्षी दल नहीं, अपने ही वादों पर खरा उतरने की है। दो मुद्दे ऐसे हैं जो मोदी सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर सकते हैं। ये हैं किसानों की खराब हालत और बेरोजगारी। भारत में खेती-किसानी की पिछले 70 सालों से उपेक्षा हुई है। इसके बावजूद कि यह सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है। खेती के बारे में सरकारों की सोच न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से आगे नहीं जाती। केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने के बाद से किसानों की हालत सुधारने के कई उपाय किए गए हैं। नीम कोटेड यूरिया, अच्छे किस्म के बीजों की उपलब्धता और मृदा स्वास्थ्य कार्ड (स्वायल हेल्थ कार्ड) जैसे उपायों से फसल की लागत कम करने और पैदावार बढ़ाने में मदद मिली है, लेकिन कृषि क्षेत्र की दो विकट समस्याएं हैं। एक, जब पैदावार भरपूर हो तो दाम गिर जाते हैं। ऐसे समय न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता। सरकारी खरीद के प्रयास भी उस समय किसानों के काम नहीं आते। दूसरी समस्या ज्यादा बड़ी है और वह यह समझना है कि कृषि पैदावार का सही मूल्य न मिलना ही ग्रामीण भारत की सबसे बड़ी समस्या है।
किसान की असली समस्या है खेती के अलावा किसी अतिरिक्त आमदनी का जरिया न होना। खेती में कुछ आधुनिक उपकरण आने के साथ ही तमाम किसानों ने अपनी परंपरागत चीजें छोड़ दीं। इनमें सबसे प्रमुख है पशुपालन। ट्रैक्टर आया तो बैल चले गए। बैल गए तो गाय, भैंस, बकरी और दूसरे जानवर चले गए, क्योंकि चरागाह खेत बन गए। ट्रैक्टर और रासायनिक खाद आई तो अपने साथ कर्ज की नई ग्रामीण अर्थव्यवस्था लाई। ट्रैक्टर किसान की जरूरत से ज्यादा प्रतिष्ठा की वस्तु बन गया। जिसके पास बमुश्किल दो एकड़ खेत था, वह भी ट्रैक्टर मालिक बन गया। खेत गिरवी रखकर कर्ज लेने का चलन शुरू हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि किसानों की अब सबसे बड़ी मांग कर्ज माफी बन गई है। आखिर यह सिलसिला कब तक चल सकता है? कर्ज माफी किसान और ऐसा करने वाली सरकारों, दोनों के लिए नुकसानदेह है। इससे बैंकिंग व्यवस्था को होने वाले नुकसान का मसला तो अलग ही है।
मोदी सरकार के सामने ग्रामीण व्यथा को दूर करना, देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं राजनीतिक नजरिए से भी सबसे बड़ी चुनौती है। हाल में हुए गुजरात विधानसभा के चुनाव ने इस समस्या को फिर से राष्ट्रीय विमर्श में ला दिया है। ग्रामीण भारत की समस्या का हल गुजरात चुनाव के नतीजों में छिपा है। सौराष्ट्र में कपास और मूंगफली की बंपर पैदावार हुई। यही किसानों के लिए आफत बन गई। एमएसपी पर राज्य सरकार ने बोनस भी दिया, लेकिन जब बाजार में दाम एमएसपी से नीचे हों तो एमएसपी कितनी भी हो, उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। सौराष्ट्र में ये दोनों फसलें किसानों के पूरे साल का खर्च चलाती हैं। इनमें गड़बड़ मतलब पूरे साल का आर्थिक संकट। सौराष्ट्र से बाहर गुजरात के बाकी और खासकर उन ग्रामीण इलाकों को देखें, जहां किसान खेती के अलावा दूध और सब्जी उत्पादन से जुड़ा है। सब्जी की खेती करने वाले साल में तीन फसल लेते हैं। एक फसल में घाटा हो जाए तो बाकी दो में भरपाई हो जाती है। सौराष्ट्र के किसानों ने राज्य सरकार से नाराजगी दिखाई और भाजपा के खिलाफ वोट दिया। वहीं गुजरात के बाकी क्षेत्रों के किसानों में राज्य सरकार के प्रति नाराजगी नहीं दिखी। यह बात पूरे देश पर समान रूप से लागू होती है कि खेती से होने वाली आमदनी लगातार घट रही है, लेकिन उसका निदान सिर्र्फ एमएसपी बढ़ाने और कर्ज माफी से नहीं होने वाला। जरूरत किसानों के लिए खेती के अलावा आय के अन्य साधन उपलब्ध कराने की है। कोल्ड चेन, नए गोदामों के निर्माण और फूड प्रोसेसिंग के जरिए किसानों की आय बढ़ सकती है, लेकिन ये खर्चीले और समय लेने वाले उपाय हैं। इसलिए इनके साथ-साथ पशुपालन और कुटीर उद्योग को फौरी तौर पर शुरू किया जा सकता है। मोदी सरकार को चाहिए कि वह उद्योगों से कहे कि वे सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी) के जरिए रेवड़ी बांटने के बजाय अपने लाभ का एक हिस्सा ग्रामीण इलाकों में पशुपालन और कुटीर उद्योग लगाने में निवेश करें। इससे उन्हें लाभ भी होगा, इसलिए वे रुचि भी दिखाएंगे।
बेरोजगारी किसी भी देश के लिए बड़ी समस्या है। भारत के लिए यह और बड़ी समस्या है। देश की एक तिहाई आबादी 35 साल या उससे कम उम्र वालों की है। संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर घटे हैं और जिस तरह से उद्योगों में ऑटोमेशन बढ़ रहा है, उससे आने वाले दिनों में और कम लोगों को रोजगार मिलेगा। विनिर्माण क्षेत्र सबसे ज्यादा रोजगार दे सकता है, लेकिन निजी निवेश न होने के कारण इस क्षेत्र का विकास बहुत धीमा है या ठहरा हुआ है। मोदी सरकार ने इस मोर्चे पर अब तक कई अवसर गंवाए हैं। कौशल विकास ऐसा क्षेत्र है, जिसमें पिछले साढ़े तीन साल में अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। यही वजह है कि राजीव प्रताप रूडी को हटाकर इस विभाग की जिम्मेदारी धर्मेंद्र प्रधान को दी गई। उज्ज्वला योजना को शानदार तरीके से लागू करके उन्होंने अपनी क्षमता का परिचय दिया है। उनसे अपेक्षा है कि वह इस मोर्चे पर भी कुछ करेंगे, पर उनके पास समय बहुत कम है।
रोजगार के मोर्चे पर केंद्र सरकार की एक नाकामी यह भी रही है कि वह विभिन्न् विभागों के खाली पदों को नहीं भर पाई है। पिछले कुछ दिनों में रेल मंत्री पीयूष गोयल दो बार बोल चुके हैं कि रेलवे में एक लाख साठ हजार पद खाली हैं। सवाल है कि उनके पूर्ववर्तियों ने इन पदों पर भर्ती क्यों नहीं की? भाजपा या उसके सहयोगी दल डेढ़ दर्जन राज्यों में सत्ता में हैं, पर पुलिस में बड़ी संख्या में खाली पदों को भरने का कोई बड़ा प्रयास नहीं हुआ। इसके अलावा केंद्र और राज्य के विभिन्न् उपक्रमों में खाली पद एक तरह से बेरोजगारों को चिढ़ा रहे हैं। सरकार के पास अब भी समय है, वह युद्धस्तर पर खाली जगहों को भरे। इससे देश में एक सकारात्मक माहौल भी बनेगा। मोदी और अमित शाह के लिए एक अच्छी बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी उनके लिए कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती नहीं है। राहुल गांधी का नया अवतार गुजरात में कांग्रेस को सत्ता नहीं दिला सका। अब देखना है कि वह कर्नाटक में सत्ता बचा सकता है या नहीं?
दलितों का देश कहां महाराज!
अरुण त्रिपाठी
भीमा कोरेगांव में पहली जनवरी 2018 को हुई रैली के दौरान हुआ हमला और उसके जवाब में हुए बंद के दौरान हुई तोड़फोड़ और हिंसा निंदनीय है लेकिन उससे निकला आख्यान और नेतृत्व महत्त्वपूर्ण है। अब मामला महज ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के साथ लड़ने वालों की शौर्यगाथा बनाम बाजीराव पेशवा की सेना और उनके देशी राज से सहानुभूति रखने तक सीमित नहीं है। मामला इतना ही नहीं है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान मिलने वाला सामाजिक सम्मान चाहिए या देशी शासकों के शासन में मिलने वाली गुलामी चाहिए। यह सिर्फ राष्ट्रभक्ति बनाम देशभक्ति का मामला भी नहीं रह गया है। इसके साथ अब युवाओं के सपने और रोजगार का सवाल भी जुड़ता जा रहा है और अल्पसंख्यक समाज भी इसकी ओर आकर्षित हो रहा है।बात निकली है तो दूर तक चली गई है और अक्सर सत्ता के लिए तो कभी साधनों के सवाल पर बिखराव की स्थिति में रहने वाला दलित समुदाय प्रकाश अम्बेडकर और जिग्नेश मेवाणी के साथ मिलकर पूछ रहा है कि क्या यह वही देश है, जिसे बनाने के लिए बाबा साहेब अम्बेडकरने 1927 के महाड़ सत्याग्रह में मनुस्मृति जलाई थी और 1950 में आधुनिक मनु के तौर पर संविधान बनाकर देश को सौंपा था। वह पूछ रहा है कि दलितों का देश कहां है महराज? इसीलिए गुजरात विधान सभा में हाल में चुनकर आए दलित विधायक जिग्नेश मेवाणी नौ जनवरी को संसद मार्ग पर होने वाली रैली में एक हाथ में मनुस्मृति और दूसरे हाथ में संविधान लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से पूछने जा रहे हैं कि अपने को अम्बेडकरका भक्त बताने वाले मोदी जी को क्या मंजूर है।
भीमा कोरेगांव से निकला दलितों की राष्ट्रीयता का यह आख्यान हिन्दुत्व के राष्ट्रवाद को सीधे चुनौती दे रहा है इसलिए उसके पदाधिकारी कह रहे हैं यह ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड’ है और जातिवाद का जहर फैला रही है। महाराष्ट्र से निकला यह संवाद देश के किस-किस हिस्से तक जाएगा यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन 2016 में पड़ी बाबा साहेब की 125 वीं जयंती के मौके पर संघ परिवार ने जिस उत्साह से उन्हें अपने वैचारिक और सांगठनिक दायरे में शामिल करने की कोशिश की थी और वोट के स्तर पर एक हद तक उसमें सफल भी रहे थे वह अब जाति उन्मूलन के सवाल पर उन्हें परेशान कर रहा है। पीछे पलट कर देखें तो आश्र्चय नहीं होगा कि 14 अगस्त 1931 को महात्मा गांधी से अपनी पहली मुलाकात में बाबा साहेब का विरोध और उनके प्रश्न लगभग इसी तरह के थे। अम्बेडकर ने कहा था गांधीजी मेरे पास मातृभूमि नहीं है’ और उनकी इस टिप्पणी को सुनकर गांधीजी सकपका गए थे। गांधीजी ने कहा था कि डॉक्टर साहेब आपके पास मातृभूमि है और उसकी सेवा किस तरह की जाए यह आपके कायरे से प्रकट होता है।’
इसका तीखा प्रतिकार करते हुए अम्बेडकरने कहा था जिस देश में हम कुत्ते और बिल्लियों जैसी जिंदगी जीते हैं उस भूमि को जन्मभूमि और उस धर्म को अपना धर्म मैं तो क्या कोई स्वाभिमानी स्पृश्य भी नहीं कह सकता।’ हालांकि इन 87 वर्षो में बहुत कुछ बदला है और एक दलित नागरिक दूसरी बार इस देश का राष्ट्रपति बना है, न्यायपालिका के शीर्ष पर दलित पहुंच चुके हैं, सबसे बड़े प्रदेश में एक दलित स्त्री पांच बार मुख्यमंत्री बनीं हैं और संसद में अनुसूचित जाति के तकरीबन डेढ़ सौ सांसद हैं और आरक्षण का लाभ लेकर शहरों में एक समर्थ मध्यवर्ग भी खड़ा हुआ है। इसके बावजूद सामाजिक स्तर पर कायम दूरी और वैमनस्यता और उसके चलते जगह-जगह दलित समुदाय पर होने वाले अत्याचार अम्बेडकरके उस कथन को नये सिरे से प्रासंगिक कर देते हैं। सरकारी संगठनों और सामाजिक संगठनों द्वारा हैदराबाद, उना, सहारनपुर और मेरठ जैसे देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों पर होने वाली अत्याचार की घटनाओं और समय-समय पर व्यक्त होने वाले संविधान विरोधी उदार दलितों के साथ ही समाज के लोकतांत्रिक संगठनों और व्यक्तियों में डर पैदा करते हैं और भीमा कोरेगांव युद्ध के दो सौ साल के उपलक्ष्य में हुए आयोजन से निकले आख्यान से उन्हें जोड़ते हैं। यह सही है कि 1818 के उस युद्ध में पहले अंग्रेजी सेना फिर महारों की वीरता और विजय का जिस तरह से वर्णन किया गया है उसका एक हिस्सा अंग्रेजों द्वारा गढ़ा गया है और दूसरा हिस्सा बाबा साहेब अम्बेडकरऔर उनके अनुयायियों द्वारा। पहले अंग्रेजों को भारतीयों को विभाजित करने की आवश्यकता थी तब उन्होंने वहां स्तंभ खड़ा किया और बाद में बाबा साहेब को अंग्रेजी सेना में महारों की भर्ती के माध्यम से उन्हें रोजगार और सम्मान दिलाना था इसलिए उन्होंने उसकी व्याख्या जाति के सम्मान और शौर्य से जोड़कर की।
आज दलित समाज अगर अपने गौरवशाली अतीत की तलाश में और प्रभावशाली राष्ट्रवाद के मुकाबले भीमा कोरेगांव के माध्यम से अपनी शौर्यगाथा तैयार कर रहा है तो यह गांधी के नेतृत्व में तैयार किए गए कांग्रेस के राजनैतिक राष्ट्रवाद और संघ परिवार के माध्यम से तैयार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की तरह ही दलित राष्ट्रवाद की एक तीसरी धारा है, जो महाराष्ट्र में सशक्त तरीके से उपस्थित है। बेनेडिक्ट एंडरसन अपनी चर्चित पुस्तक इमैजिन्ड कम्युनिटी’ में मानते हैं कि राष्ट्रवाद एक काल्पनिक समुदाय की रचना पर ही खड़ा होता है। अगर देखा जाए तो पुणो, नागपुर और वर्धा के आसपास कहीं राष्ट्रवाद की इन तीनों धाराओं का केंद्र भी तलाशा जा सकता है और इसीलिए यहीं वे सबसे जोरदार तरीके से टकराती भी हैं। दलित जातियों की इस राष्ट्रीयता को उभारते हुए 1901 में भारतीय जनगणना के अधीक्षक राबर्ट वाने रसेल ने रायबहादुर हीरालाल के साथ मिलकर लिखी गई अपनी पुस्तक ‘‘कास्ट एंड ट्राइ ऑफ सेंट्रल इंडिया’(1916) में लिखा है कि महाराष्ट्र दरअसल महारों का राष्ट्र है। हालांकि बाद में ज्यादातर तत्वज्ञानी इसकी उत्पत्ति मराठी भाषा और जाति से बताते हैं। आज सवाल यह है कि अपने देश और राष्ट्रीयता की तलाश कर रहे दलितों को क्या पहले के गांधीवाद की तरह आज हिन्दुत्व से टकराना ही पड़ेगा और पहले उनके लिए दमनकारी रहा गांधीवाद आज हिन्दुत्व के समक्ष उनका सहयोगी और उद्धारक साबित होगा?
पुनर्विचार का आधार
सर्वोच्च न्यायालय ने दिसंबर 2013 में धारा 377 को संवैधानिक ठहरा कर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया।
संपादकीय
यह कभी-कभार ही हुआ है कि उच्चतम न्यायालय पूर्व में दिए अपने ही किसी फैसले से अलग रुख दिखाए। लिहाजा, भारतीय दंड संहिता की धारा 377 की बाबत सर्वोच्च न्यायालय का ताजा रुख एक विरल घटना है। स्वागत-योग्य भी। यह धारा ‘अप्राकृतिक अपराधों’ का हवाला देते हुए ‘प्रकृति के विपरीत’ यौनाचार को अपराध मानती है और यह अपराध करने वाले व्यक्ति को संबंधित कानून के तहत उम्रकैद या एक तय अवधि की सजा हो सकती है, जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है; उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस कानून की गिनती सबसे ज्यादा विवादास्पद कानूनों में होती रही है। इस कानून के औचित्य और इसकी संवैधानिकता पर काफी समय से सवाल उठाए जा रहे थे, पर इस दिशा में सफलता मिली 2009 में, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 को, जहां तक वह समलैंगिकता को अपराध ठहराती है, असंवैधानिक ठहरा दिया। यह व्यक्ति की अपनी पसंद और उसकी स्वायत्तता तथा निजता की रक्षा के लिहाज से एक ऐतिहासिक फैसला था। पर कुछ लोगों ने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने दिसंबर 2013 में धारा 377 को संवैधानिक ठहरा कर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। पर अब सर्वोच्च अदालत को खुद अपने उस फैसले की खामियां दिखने लगी हैं।
उस फैसले पर पुनर्विचार की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय पीठ ने न सिर्फ बिना अगर-मगर किए याचिका स्वीकार कर ली, बल्कि इस मामले को संविधान पीठ को सौंपने का एलान भी कर दिया।इस पर संविधान पीठ का फैसला जब भी आए, अदालत के बदले हुए रुख का कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा कि समाज का एक अंश या कुछ व्यक्ति अपने हिसाब से, अपनी पसंद से जीवन जीना चाहते हैं, तो उन्हें भय में क्यों रहना चाहिए? समाज के नैतिक मानदंड हमेशा वही नहीं रहते, जमाने के साथ बदलते भी हैं। पुनर्विचार का संवैधानिक आधार भी है। धारा 377 संविधान निर्माण के दौरान हुई बहसों की देन नहीं है, बल्कि इस कानून की शुरुआत औपनिवेशिक जमाने में हुई थी। इसके पीछे अंगरेजी हुकूमत की जो भी मंशा या सोच रही हो, इसे बनाए रखने का अब कोई औचित्य नहीं है। सच तो यह है कि इस कानून को बहुत पहले विदा हो जाना चाहिए था। हमारा संविधान कानून के समक्ष समानता और जीने के अधिकार की बात करता है। फिर, वह दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए संबंध को अपराध नहीं मानता। ऐसे में, दो बालिगों के अलग तरह के यौन झुकाव को अपराध कैसे ठहराया जा सकता है?
किसी की निगाह में या बहुतों की राय में कोई संबंध अप्राकृतिक हो सकता है, पर उसे अपराध क्यों माना जाए? अपराध हमेशा अन्य को नुकसान पहुंचाने से परिभाषित होता है। सिर्फ इस आधार पर कि किसी का यौन झुकाव औरों से अलग है, उसे अपराधी कैसे माना जा सकता है? उसे अपराधी मानना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ भी होगा, और सभ्य समाज के विधि शास्त्र के खिलाफ भी। साथ ही, यह हमारे संविधान के अनुच्छेद चौदह, पंद्रह और इक्कीस के खिलाफ भी है। यही नहीं, निजता के मामले में आए सर्वोच्च अदालत के फैसले से भी धारा तीन सौ सतहत्तर कतई मेल नहीं खाती। पिछले साल अगस्त में नौ न्यायाधीशों के संविधान पीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में निजता को एक मौलिक अधिकार ठहराया था। जबकि 377 को संवैधानिक मानने वाला 2013 का फैसला सर्वोच्च न्यायालय के सिर्फ दो जजों के पीठ का था। निजता संबंधी सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद तो धारा 377 पर पुनर्विचार और भी जरूरी हो गया है।
राष्ट्रगान का सम्मान
संपादकीय
मामले को अंत में शायद यहीं पहुंचना था। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहा है कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान को बजाया जाना अनिवार्य नहीं होना चाहिए और देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इस समझदारी भरी सलाह को स्वीकार कर लिया है। और इसके बाद अब यह भी मान लेना चाहिए कि पिछले कुछ महीनों से चल रहे उस विवाद का भी निपटारा हो गया है, जो सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद हुआ था, जिसमें कहा गया था कि देश भर के सिनेमाघरों में हर शो से पहले राष्ट्रगान अनिवार्य रूप से बजाया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, अदालत ने यह भी कहा था कि इस दौरान सिनेमाघर के दरवाजे बंद रहेंगे और वहां मौजूद हर व्यक्ति सावधान की मुद्रा में खड़ा होगा। इस फैसले की चौतरफा आलोचना तो हुई ही, इसके साथ ही कई तरह के विवाद भी खडे़ होने लग गए। गोवा के एक सिनेमाघर में सलिल चतुर्वेदी नाम के एक शख्स को कुछ लोगों ने सिर्फ इसलिए पीट दिया कि वह शो से पहले राष्ट्रगान के समय खडे़ नहीं हुए थे। सलिल विकलांग हैं और वह व्हील चेयर पर बैठकर ही सिनेमाघर पहुंचे थे। इसी तरह, मुंबई में भी एक वृद्ध पर राष्ट्रगान के दौरान न खडे़ होने पर हमला बोला गया। हालांकि अदालत ने बाद में विकलांग और वृद्ध लोगों के लिए खडे़ होने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी, लेकिन इन घटनाओं ने यह तो बता ही दिया कि कुछ लोग देशभक्ति के नाम पर कानून को अपने हाथों में लेने का काम भी कर सकते हैं। देश भर के सिनेमाघर अचानक ही देशभक्ति के परीक्षण की प्रयोगशाला बनते दिखाई देने लगे थे। हालांकि ये तमाम घटनाएं बाद की बात हैं, फैसले की आलोचना तो तुरंत बाद ही शुरू हो गई थी।
इस फैसले को न्यायालय की अति-सक्रियता का मामला बताया गया था। यह भी कहा गया कि ऐसा करते हुए अदालत अपने दायरे से बाहर चली गई है। सर्वोच्च न्यायालय का काम संविधान और कानून की व्याख्या करना है, कानून बनाना नहीं है, जबकि इस मामले में उसने देश को एक कानून दे दिया था। संविधान के हिसाब से राष्ट्रगान के समय सावधान की मुद्रा में खडे़ होना हर नागरिक का दायित्व है, यानी यह ऐसा मामला है, जिसमें सजा का कोई प्रावधान नहीं है। सर्वोच्च अदालत के पुराने ऐसे कई फैसले हैं, जिसमें उसने राष्ट्रगान के समय न खडे़ होने को गलत नहीं माना है। इस लिहाज से भी श्याम नारायण चौकसे की याचिका पर न्यायालय के दो सदस्यीय खंडपीठ के फैसले को हैरत से देखा जा रहा था। याचिका दायर करने वाले का तर्क था कि सिनेमाघर में राष्ट्रगान बजाकर लोगों में देशभक्ति की भावना को बढ़ाया जा सकता है। लेकिन सभी शायद इससे सहमत नहीं होंगे। राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज आदि ऐसे प्रतीक हैं, जिनमें हम अपनी राष्ट्रीय पहचान और अपने राष्ट्रीय गर्व को व्यक्त करते हैं। यह एक सहज भाव है, जो बिना किसी अनिवार्यता के ज्यादातर लोगों में आ जाता है। अनिवार्य बनाने से यह भावना बढ़ जाएगी ऐसा कोई प्रमाण नहीं है।’
दुनिया के प्राय: हर देश में ऐसे कुछ लोग हमेशा रहे हैं, जिनमें राष्ट्रभक्ति की भावना बढ़ाने के लिए प्रतीकों का कड़ाई से सम्मान कराना जरूरी होता है। लेकिन न तो आधुनिक मनोविज्ञान ही इसे मानता है, और न ही दुनिया भर के आधुनिक और परिपक्व लोकतंत्र ही इस पर विश्वास करते हैं। यह भी माना जाता है कि ऐसी सख्ती का अंत में गलत किस्म के तत्व ही फायदा उठाते हैं। भारत जिस तरह का देश है, उसमें व्यवस्था के सभी अंगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे परिपक्व ढंग से व्यवहार करें और बेवजह भावनात्मक गुबार में न उलझें। अच्छी बात यह है कि सरकार और न्यायपालिका, दोनों ही इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
Date:10-01-18
चीन के भी हित में नहीं है टकराव
विवेक काटजू, पूर्व राजदूत
सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का यह बयान सुखद है कि अरुणाचल प्रदेश का ‘तूतिंग मसला’ बातचीत के जरिये सुलझा लिया गया है। इसका यह अर्थ हुआ कि चीन की जो सैन्य टुकड़ी वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करके भारतीय सीमा में दाखिल हो गई थी, वह वापस लौट गई है। यह दर्शाता है कि सीमा-विवाद को भड़कने न देने व उसे जल्द सुलझाने का जो फैसला भारत और चीन ने किया था, वह अब फिर से काम करने लगा है। डोका ला में विवाद ने तूल पकड़ लिया था, क्योंकि चीन ने न सिर्फ इस निर्णय की अवहेलना की थी, बल्कि सैन्य-गतिविधियों पर काबू पाने की भारत की पेशकश को भी उसने ठुकरा दिया था। बाद में उसे अपने गलत रवैये का एहसास हुआ और डोका ला विवाद सुखद अंजाम तक पहुंच सका। ‘तूतिंग मसला’ इसलिए भी नजरों में था, क्योंकि दो महीने तक चले डोका ला विवाद ने दोनों देशों के आपसी रिश्तों को चोट पहुंचाई थी। जाहिर है, इसकी वजह चीन का रवैया था। वह नई दिल्ली पर दबाव डालना चाह रहा था, पर मोदी सरकार ने ऐसा होने नहीं दिया। देश के हितों की सुरक्षा करते हुए वह भारत के पुराने रुख पर कायम रही। चीन ने काफी उत्तेजित होकर मीडिया में बयान भी दिए और व्यंग्य का सहारा लिया, जो एक बडे़ देश को कतई शोभा नहीं देता। बावजूद इसके भारत ने बहुत सब्र और संयम का परिचय दिया और राजनयिक रूप से इस मसले का समाधान निकाला।
दरअसल, 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही यह फैसला लिया था कि भारत और चीन के आपसी रिश्ते को आगे बढ़ते रहना चाहिए और इससे अलग दोनों देश सीमा-विवाद के निपटारे को भी प्राथमिकता दें। चीन भी इससे सहमत था। उससे पहले चीन के साथ संबंध बढ़ाने को लेकर भारत संकोच करता था। तब तक नई दिल्ली का मानना था कि सीमा-विवाद सुलझाए बिना द्विपक्षीय रिश्ते गति नहीं पकड़ सकते। मगर आज हम देख रहे हैं कि राजीव गांधी का वह फैसला कितना सही था। अब करीब दो दशक हो चुके हैं और तमाम सरकारों ने इसी नीति पर अमल किया है। नतीजतन, भारत और चीन के आर्थिक व व्यापारिक संबंध मजबूत हुए हैं। हां, भारत को कोशिश जरूर करनी चाहिए कि यह रिश्ता उपनिवेशी न रहे। ऐसा कतई नहीं होना चाहिए कि हम अपने इस पड़ोसी देश को कच्चा माले भेजें और बदले में वहां से बने उत्पादों का आयात करें। द्विपक्षीय रिश्ता सहयोगात्मक के साथ-साथ स्पद्र्धात्मक भी रहे।
भारत और चीन एशिया के दो बड़े देश हैं और दोनों वैश्विक मंचों पर तेजी से उभर रहे हैं। चीन ने तो पिछले चार दशकों में काफी तेज प्रगति की है। इसी वजह से अब वह अमेरिका का मुकाबला करना चाहता है। ‘बेल्ट रोड इनिशिएटिव’ उसकी यह महत्वाकांक्षा जाहिर करती है। वह इस पहल के माध्यम से विश्व में अपना दबदबा कायम करना चाहता है और विशेषकर विकासशील देशों को अपने साथ जोड़ना चाहता है। भारत ने उचित ही इस परियोजना का विरोध किया है। इस ‘इनिशिएटिव’ से चीन को ज्यादा फायदा मिलेगा, जबकि दूसरे देशों के हितों को इसमें नजरंदाज किया गया है। भारत का यही विरोध चीन के गले नहीं उतर रहा।भारत और चीन के विवाद की एक वजह पाकिस्तान भी है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) पर चीन और पाकिस्तान मिलकर काम कर रहे हैं। यह ‘बेल्ट रोड इनीशिएटिव’ का ही हिस्सा है, जो जम्मू-कश्मीर राज्य में भारत की भूमि से गुजरता है। फिलहाल इस हिस्से पर पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्जा जमा रखा है। चीन की मंशा पाकिस्तान के जरिये भारत पर दबाव बनाने की है। अभी तक चीन और पाकिस्तान की दोस्ती इस बुनियाद पर टिकी थी कि दोनों देश भारत के प्रति नकारात्मक रुख रखते थे। मगर अब आर्थिक गलियारा ऐसा सकारात्मक तत्व बन गया है, जिससे दोनों देशों को आर्थिक और सामरिक, दोनों तरीकों से फायदा हो सकता है। यही वजह है कि चीन हमेशा पाकिस्तान के हितों को आगे बढ़ाने की कोशिश करता रहता है।
नई दिल्ली की हमेशा यही सोच रही है कि भारत और चीन, दोनों बड़े देश हैं और अपनी-अपनी तरक्की के लिए दोनों को एक-दूसरे की राह में आने की जरूरत नहीं है। खासतौर से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस रुख को कई बार व्यक्त किया था। मगर चीन के रवैये से लगता है कि वह भारत की राह में आने की मंशा पाल रहा है। आतंकी मसूद अजहर पर प्रतिबंध और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के दाखिले के मामले में उसकी रुकावट ने इसे साबित किया है। भले ही चीन यह कहता रहे कि आतंकवाद के वह खिलाफ है और अपने यहां उइगर दहशतगर्दों की गतिविधियों से परेशान है, पर मसूद अजहर के मामले में उसका रवैया उसकी कथनी के बिल्कुल विपरीत है। इसी तरह, उसे यह भी समझना चाहिए कि पूरी दुनिया अब भारत को महाशक्ति के रूप में देख रही है और एनएसजी पर उसका नकारात्मक कदम उसी की छवि को नुकसान पहुंचा रहा है। मेरा मानना है कि एक न एक दिन चीन अपने इस रुख को बदलेगा, भले ही इसमें कई साल लग जाएं।
चीन और भारत के शांतिपूर्ण भविष्य के लिए जरूरी है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर संयम दिखाया जाए। सीमा-विवाद का हल निकाला जाना जरूरी है, और जब तक कोई सर्वमान्य हल नहीं निकल जाता, तब तक दोनों देश सब्र का परिचय दें। नई दिल्ली तो ऐसा कर रही है, पर मुश्किल यह है कि बीजिंग का रवैया अनुकूल नहीं है। चीन को समझना होगा कि सीमा पर आक्रामक कदम उठाकर वह भारत को पीछे नहीं धकेल सकता। साल 1962 की घटनाओं को दोहराने की वह कतई न सोचे। आज का भारत उस दौर से कहीं आगे निकल चुका है। आर्थिक रूप से वह जरूर हमसे कहीं अधिक मजबूत है, लेकिन सीमा पर अपने हितों की रक्षा के लिए हमारे पास संसाधन और इच्छाशक्ति तो हैं ही, क्षमता भी पर्याप्त है। बस जरूरी यह है कि हमारी सरकार सेना की तमाम जरूरतों पर जल्द से जल्द गौर करे।
A Lose-Lose Proposition
Patriarchal attitudes limiting women’s work hurt both economy and society
Payal Hathi , [The writer is managing director, Research Institute for Compassionate Economics (R.I.C.E.)]
Indian women’s labour force participation, at just 27 per cent, is ranked 170 out of the world’s 188 economies. Not only is Indian women’s labour-force participation among the lowest in the world, research suggests it may be declining. This is despite rising education levels and declining fertility. There are many reasons why this matters: For one, women cannot contribute to India’s economic growth if they are not fully participating in the workforce. Also, working women tend to have greater bargaining power in their households, which could translate to better outcomes both for their children and themselves. Explanations for low women’s participation in the labour force have proliferated. Research mentions social norms in passing, but this explanation merits deeper consideration. What exactly is the problem with a woman working outside the home? For women in exploitative jobs, poor working conditions are clearly problematic. But more generally, the widespread belief that women should not work outside the home is based on a conservative view that elevates a man’s status if the women in his household are “able” to stay at home.
Social Attitudes Research India (SARI) is a survey that tracks social attitudes in India, including beliefs about women and work. We asked adult men and women between the ages of 18 and 65 in Delhi, Mumbai (only men), Uttar Pradesh, and Rajasthan whether they believe that a married woman, whose husband earns a good living, should or should not work outside the home. More than 40 per cent of respondents in every location report that women should not work outside the home. This is in stark contrast to the US, where the General Social Survey data shows that the percentage of adults who believe women should not work outside the home was below 40 per cent at least as early as 1972.Men are more likely to hold this view in each place (47 per cent in Delhi, 48 per cent in Mumbai, 57 per cent in UP, and 48 per cent in Rajasthan), but this attitude is commonly held by women too (34 per cent in Delhi, 48 per cent in UP, and 45 per cent in Rajasthan). And although it is commonly assumed that education will break down conservative social attitudes, over one quarter of respondents with greater than a 10th standard education in Delhi and Mumbai believe that women should not work outside the home. These attitudes of patriarchy have been internalised even by women and the most educated.
At the same time, it is not the case that women are not interested in working: According to India’s 2011 National Sample Survey, over one-third of women primarily engaged in household work expressed the desire to have a job. There may be many reasons why women who would like to work might not; the SARI survey suggests that disapproval of women working outside of the home is likely an important one.Evidence suggests that women with access to networks outside the home can gain a civic and political consciousness, which can benefit their communities and society. But traditional attitudes related to women’s work mean that these human development considerations and women’s own preferences tend to be disregarded. Until women and women’s work are valued at par with men and men’s work, it is likely that many capable women will be left out of contributing to India’s development.
What can be done to counter these conservative attitudes? At the very least, the government must loudly and persistently condemn the visible and invisible ways in which patriarchal attitudes disempower women.Further, aggressive implementation of policies that will encourage women’s work is critical. For example, macroeconomic evidence from OECD countries suggests that childcare subsidies can stimulate female labour participation by raising the returns of work outside the home. But while crèches and daycare facilities in India are mandated as per policy, they are often non-functional or do not exist near the women who need them. There is also evidence that paid parental leave and job guarantees have a positive effect on female workforce participation. Although India’s new maternity leave policy is quite generous by international standards, it does not cover the vast majority of working women engaged in the informal sector, and its costs are to be borne wholly by employers, potentially hurting the demand for female labour.
In addition, lessons from developed countries may not apply in the deeply patriarchal Indian context. Thus more data on women’s time use and perceived costs and benefits of being in the workforce is needed to make women’s contribution visible, learn about the constraints they face, and determine which policies are likely to expand work opportunities.Each one of us must engage in reflection and dialogue to recognise and counter gender inequality. By not addressing the attitudes that confine women’s choices and public presence, we are telling the next generation of girls and women that their preferences and aspirations do not matter, or matter only as far as they conform to what is most important for the men in their families. It is a costly mistake to so vastly limit India’s potential.