
10-11-2016 (Important News Clippings)
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Shock therapy
To target black money, demonetisation of high value notes must be supplemented by other measures
A war on black money cannot be limited to demonetisation. For example, Modi should use his political capital to bring real estate within the ambit of GST. This will incentivise developers to seek tax credits and establish an audit trail. In addition, states who administer many land related transactions should be persuaded to lower high levels of stamp duty to encourage reporting of transactions. If this disruption of black money chains is to be effective, the scope of governmental action has to widen.
सरकार का कदम साहसी मगर काले धन से निपटने में नाकाफी
सरकार ने 500 और 1,000 रुपये के करेंसी नोट को प्रचलन से बाहर कर दिया है। यह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए सबसे साहसिक कदमों में से एक है। सरकार ने यह कदम आय की स्वैच्छिक घोषणा संबंधी योजना पेश करने के दो महीने के भीतर उठाया है। उस वक्त लोगों को अवसर दिया गया था कि वे अपनी अघोषित संपत्ति की घोषणा करें और ऊंची दर पर कर चुकाकर उसे सार्वजनिक रूप से इस्तेमाल में ला सकें। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सरकार की काले धन से निपटने और उससे निजात पाने की नीति का ही हिस्सा है। हालांकि इसे लेकर बहस हो सकती है कि यह कदम काले धन पर अंकुश लगा पाने में सक्षम होगा या नहीं? पांच ऐसी वजहें हैं जो स्पष्ट करती हैं कि आखिर क्यों सरकार का यह कदम अर्थव्यवस्था से भारी भरकम काले धन को अलग कर पाने में सफल नहीं होगा।
Date: 10-11-16
मोदी का ‘ट्रंप’ कार्ड
Date: 10-11-16
औद्योगिक नीति और अनिवार्य सेवाएं
प्रभावी आपूर्ति और नीतिगत सुविधाएं, इन दोनों का इस्तेमाल अनिवार्य सेवाएं प्रदान करने में किया जाना चाहिए। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं श्याम पोनप्पा
55 लाख लोग हर साल हो रहे प्रदूषण का शिकार
स्मॉग : स्मोक और फॉग का जहरीला कॉकटेल
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि दुनिया में हर साल करीब 55 लाख लोग जहरीली हवा में सांस लेने के चलते अपनी जान गवां देते हैं। औद्योगीकरण की बढ़ती रफ्तार के साथ जो खामियाजे सामने आए हैं, उनमें स्मॉग बहुत बड़ा कारण बनकर उभरा है। बुरी बात यह है कि ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं होता कि स्मॉग असल में कितना खतरनाक हो सकता है। इसकी भयावहता को इस बात से समझा जा सकता है कि वर्ष 2013 के आंकड़ों के अनुसार स्मॉग और उससे संबंधित बीमारियों के चलते चीन में 16 लाख लोग मारे गए जबकि भारत का यह आंकड़ा 13 लाख तक पहुंच गया था। डब्ल्यूएचओ के अनुसार वैश्विक स्तर पर मृतकों का आंकड़ा वर्ष 2050 तक डेढ़ गुना ज्यादा हो जाएगा।
भारत-चीन पर बढ़ा है प्रभाव
जर्नल नेचर में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक स्मॉग का सबसे ज्यादा असर दक्षिण एशियाई और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में पड़ा है। स्माग का प्रभाव गर्मियों के मौसम में ज्यादा घातक साबित होता है। यह पहले ही घोषित किया जा चुका है कि विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में आधे से ज्यादा भारतीय शहर हैं। पिछले दिनों दिल्ली में लागू ऑड-ईवन पॉलिसी के दौरान सामने आए कई सर्वेक्षण बताते हैं कि वायु प्रदूषण से देश में प्रतिवर्ष होने वाली मौतों के औसत से दिल्ली में 12 फीसदी अधिक मौतें होती हैं। दिल्ली जैसा ही हाल कमोबेश देश के अन्य महानगरों और महानगर बनने की ओर अग्रसर देश के बड़े शहरों का है। अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी के अध्ययन के मुताबिक ताजा एनवॉयरमेंट परफॉर्मेंस इंडेक्स (ईपीआई) में 178 देशों में भारत का 155वां स्थान है।
यह बड़े कारण-यूं तो दिल्ली में स्मॉग की बड़ी वजह पड़ोसी राज्यों केे किसानों द्वारा जलाए जा रहे कृषि अवशेषों को बताया जा रहा है। लेकिन रुटीन लाइफ में इस्तेमाल होने वाली चीजें भी इसका बड़ा कारण साबित होती हैं।
30.6% धुंध विद्युत उपकरणों के जरिए इलेक्ट्रिक की आपूर्ति कोयला, प्राकृतिक गैसों, खनिज तेल, रेडियोधर्मी पदार्थों द्वारा की जाती है। ताप बिजलीघरों में कोयले, तेल एवं गैस का ईंधन के रूप में प्रयोग होता है। इनकी चिमनियों से निकलने वाली विभिन्न गैसें, कोयले की राख के कण स्मॉग की बड़ी वजह हैं। भारत में 54 फीसदी बिजली उत्पादन कोयला आधारित है।
14.8% फीसदी प्रदूषित हिस्सा परिवहन से
कोर्ट ने दिल्ली सरकार को लताड़ते हुए कहा था कि वह वादे के अनुसार पुरानी डीजल गाड़ियों को भी सड़क से हटा नहीं पाई। इसकी वजह है कि परिवहन से होने वाला वायु प्रदूषण स्मॉग पैदा करने वाला बड़ा कारण है। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली में 70 लाख से ज्यादा वाहन रोजाना सड़कों पर आवाजाही करते हैं।
19.1% फीसदी हवा में जहर उद्योग और निर्माण से
वैश्विक स्तर पर बढ़ते औद्योगीकरण ने अपने साथ चिमनियों से निकलने वाली जहरीली गैसें कार्बन डाईआक्साइड, सल्फर मोनो आक्साइड, धूल के कण, वाष्प कणिकाएं धुंआ आदि भी प्रचुर मात्रा में देने का काम किया है। कंस्ट्रक्शन और निर्माण कार्य धूल की मात्रा बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
11.1% हिस्सा कृषि संबंधित वस्तुओं का
कृषि कार्यों में रासायनिक उर्वरकों का बढ़ता प्रयोग, फसलों में विभिन्न कीटनाशकों की मात्रा तेजी से बढ़ी है। इन रासायनिक कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान ये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वायुमण्डल में प्रविष्ट होकर शुद्ध वायुमण्डल संघटन को खराब करती हैं। अनेक कीटनाशक रसायनों का स्थाई प्रभाव अधिक खतरनाक है।
आजादी और मर्यादा का सवाल
यह अच्छा हुआ कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने एनडीटीवी पर एक दिन की पाबंदी के फैसले को स्थगित कर दिया और सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले को सुनने पर राजी हो गया। शीर्ष अदालत चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, लेकिन इस मामले से देश में प्रेस की आजादी के दुरुपयोग और सरकार द्वारा मीडिया के विरुद्ध अवांछनीय हस्तक्षेप, दोनों पर बहस छिड़ गई है। अब गणेश शंकर विद्यार्थी या दुर्गादास जैसे मिशन मोड वाले पत्रकार तो रहे नहीं। आज तो पत्रकारिता बस एक नौकरी होकर रह गई है जिसे सामान्यत: कोई व्यापारी या राजनीतिज्ञ नियंत्रित करता है। एनडीटीवी इंडिया भी इसका अपवाद नहीं। सभी को विदित है कि उस चैनल के मालिक प्रणव रॉय का माक्र्सवादी नेताओं वृंदा करात और प्रकाश करात से पारिवारिक संबंध है और 2009 से उसके वित्तीय पक्ष पर प्रमुख व्यवसायी मुकेश अंबानी का वर्चस्व, लेकिन उसके कारण यदि उस चैनल का झुकाव भाजपा और मोदी सरकार के विरुद्ध हो तो भी उसकी इजाजत भारतीय संविधान देता है।
इंग्लैंड के प्रतिष्ठित अखबार मैनचेस्टर गार्डियन के संपादक सीपी स्कॉट ने कहा था कि तथ्य और मूल्य (विचार) पत्रकारिता के दो मूल तत्व हैं। तथ्य अपरिवर्तनीय है, लेकिन विचार स्वतंत्र हैं। इसका आशय है कि तथ्यों को प्रस्तुत करने में पत्रकार स्वतंत्र नहीं हैं। उसे तथ्यों का प्रस्तुतीकरण करने में सामाजिक हित और राष्ट्रीय सुरक्षा सरोकारों को ध्यान में रखना चाहिए। न तो तथ्यों का नग्न प्रस्तुतीकरण किया जा सकता है, न ही उसे तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीतिक संस्कृति में आई गिरावट ने संपूर्ण समाज को अपनी चपेट में ले लिया। आज जनता के मन में यह पीड़ा है कि देश में लगभग सभी संस्थाओं में भारी गिरावट आई है और मीडिया भी उससे अछूता नहीं।
एनडीटीवी इंडिया को सामान्यत: एक गंभीर चैनल के रूप में देखा जाता है, लेकिन कभी-कभी अति उत्साही पत्रकारों को व्यावसायिक मर्यादाओं और राष्ट्रीय सुरक्षा सरोकारों की अनदेखी करने को प्रेरित कर देती है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि एनडीटीवी इंडिया ने जानबूझकर और पाकिस्तानी आतंकवादियों के हैंडलर्स की मदद करने के उद्देश्य से इस वर्ष जनवरी में पठानकोट में आतंकवादियों के हमले की कोई रिपोर्टिंग की होगी, लेकिन उन पर जाने-अनजाने अपनी लक्ष्मण रेखा को लांघने का आरोप तो लग सकता है। यह सच है कि चैनल के प्रस्तुतीकरण में जो आपत्तिजनक बातें थीं वे अन्य चैनलों पर भी आईं, लेकिन सरकार द्वारा राष्ट्रीय चैनल एनडीटीवी इंडिया को ही इसका दोषी मानने से यह गलत संदेश गया कि सरकार ने विरोधी विचारधारा के चैनल को दंडित किया है। इससे और चैनलों में यह भय समा गया कि सरकार कहीं इंदिरा गांधी के पदचिन्हों पर तो नहीं जा रही। कहीं यह 1975 की तरह दूसरे आपातकाल की आहट तो नहीं, पर इस प्रकरण से सरकार ने संभवत: मीडिया को यह संदेश देने की कोशिश की है कि रिपोर्टिंग में उनको राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति संवेदनशील होना पड़ेगा।
4 नवंबर 2016 के प्राइम टाइम प्रोग्राम ‘जब हम सवाल नहीं पूछ पाएंगे कुछ बता नहीं पाएंगे तो हम करेंगे क्या’ में एनडीटीवी ने जनता को मुद्दे से थोड़ा भटकाने की कोशिश जरूर की। स्थगित प्रतिबंध न तो सवाल पूछने पर था, न ही कुछ बताने पर। वह एक विशेष संदर्भ में एक विशेष रिपोर्टिंग को लेकर था और ऐसा प्रतिबंध लगाने का अधिकार सरकार को है। संविधान के द्वारा भाषण और अभिव्यक्ति का जो मौलिक अधिकार हमें प्राप्त है और जो प्रेस की आजादी की आधारशिला है उस पर देश की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशों से मैत्रीपूर्ण संबंध, शांति व्यवस्था और नैतिकता आदि के आधार पर समुचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार राज्य को प्राप्त है। कोई अखबार या चैनल यह नहीं कह सकता कि उस पर तब तक कोई कार्रवाई न हो जब तक अन्य सभी पर भी वैसी ही कार्रवाई न की जाए। बड़े और प्रभावी मीडिया संस्थानों पर तो और ज्यादा जिम्मेदारी होती है। हालांकि लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा यदि सरकार सेबी या ट्राई मॉडल पर किसी स्वतंत्र मीडिया अभिकरण की स्थापना करे और केवल उसके प्रतिवेदन के आधार पर ही कोई प्रतिबंध लगाए।
आज देश में 1790 प्राइवेट और 190 सरकारी चैनल हैं जो दिन-रात सक्रिय रहते हैं। वे लोगों की जरूरत बन गए हैं और इसी का फायदा उठाकर वे चैनल पत्रकारिता कम और व्यवसाय या राजनीति ज्यादा करने लगे हैं। कई बार वे न्यायपालिका की तरह व्यवहार करते हैं। प्रेस की अनेक गतिविधियां मीडिया एथिक्स के प्रतिकूल होती हैं। आखिर उन पर कौन नियंत्रण करेगा? जो मीडिया सबसे हिसाब मांगता है उससे कौन हिसाब मांगेगा? कहने को देश में मीडिया को नियंत्रित करने के लिए 1978 में बनी विधिक संस्था प्रेस काउंसिल और स्वत: नियंता न्यू ब्राडकास्टिंग स्टैंडड्र्स अथॉरिटी हैं, पर जानकारों की मानें तो ये संस्थाएं भी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं लगा पातीं। यह जरूरी है कि मीडिया को अनियंत्रित और उच्छृंखल होने नहीं दिया जा सकता, लेकिन लोकतंत्र में यह भी जरूरी है कि सरकार मीडिया के कामों में कम से कम हस्तक्षेप करे बावजूद इसके कि संविधान उसे ऐसा करने की इजाजत देता है। वैश्वीकरण के बाद से यह और भी जरूरी हो गया है कि विदेशी और शत्रु देश देसी मीडिया को वित्तीय मदद देने की आड़ में देश की राजनीति और सरकार के निर्णयों को प्रभावित न कर सकें। अनेक प्रतिष्ठित चैनलों को तमाम विदेशी स्नोतों से वित्तीय मदद मिलने से इसकी संभावना प्रबल हो जाती है, लेकिन वे चैनल समाज की गंभीर समस्याओं को उठाकर और लोकतंत्र के सिद्धांतों की दुहाई देकर जनता में अपनी साख भी बनाए रहते हैं।
भारतीय लोकतंत्र और मीडिया के कॉर्पोरेटाइजेशन में कैसे संतुलन स्थापित किया जाए, यह चुनौती आज हमारे सामने है। सोशल मीडिया इसके समाधान में एक प्रभावी भूमिका निभा रहा हैै। संभव है मोदी सरकार द्वारा एनडीटीवी इंडिया को ऑफ एयर करने के निर्णय को इसी के चलते स्थगित करना पड़ा हो। हो सकता है सरकार ने किसी रणनीति के तहत संपूर्ण मीडिया को एक पेनाल्टी कार्ड दिखाया हो, जिससे मीडिया सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा पर और संवेदनशील होने के लिए आत्ममंथन कर सके। नि:संदेह सरकार और मीडिया में टकराव से दोनों का नुकसान होता है और जनता भी विभाजित होती है, परंतु इस प्रकरण से मीडिया एथिक्स और उत्तरदायित्व तथा मीडिया और सरकार के संबंधों पर एक सार्थक राष्ट्रीय बहस की शुरुआत की जा सकती है, जिससे अंतत: हमारा लोकतंत्र और मजबूत हो सके।
[ लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं ]
Date: 10-11-16
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेजा मे का आना
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेजा मे की यूरोप के बाहर यह पहली द्विपक्षीय यात्रा थी। यह संयोग भी हो सकता है। पर खुद ब्रिटेन में उनकी इस यात्रा को जिस तरह बहुत सारी उम्मीदों से जोड़ कर देखा गया उससे यही लगता है कि यह निरा संयोग नहीं रहा होगा। दरअसल, मे की इस यात्रा को यूरोपीय संघ से अलग होने के निर्णय के बाद ब्रिटेन की भविष्य की तैयारियों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ब्रिटेन अभी औपचारिक रूप से यूरोपीय संघ से अलग नहीं हुआ है, इसमें करीब दो साल का वक्त लगेगा। पर दो साल बाद के हालात के लिए उसने कमर कसना शुरू कर दिया है।
ब्रिटेन में यह आम सोच है कि वैसी परिस्थितियों में आर्थिक अवसरों में वृद्धि के लिए यह जरूरी कि चीन, भारत और ब्राजील जैसे देशों के साथ कारोबारी रिश्ते बढ़ाए जाएं। यूरोपीय संघ से बाहर नई संभावनाएं टटोलने के क्रम में ब्रिटेन की नजर आस्ट्रेलिया और अमेरिका पर पहले से ही है। जहां तक भारत की बात है, इसके विशाल बाजार में ब्रिटेन अपने लिए काफी नए अवसर देख रहा है। मे की इस यात्रा के साथ-साथ तकनीकी शिखर बैठक का आयोजन भी इसकी गवाही देता है। दूसरी ओर, भारत के लिए भी ब्रिटेन की अहमियत जाहिर है। वह यूरोप में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा है। इसके अलावा, बाकी यूरोप में भारत के लिए निर्यात बढ़ाने में मददगार भी। इसलिए 2014 में ही प्रधानमंत्री मोदी ने ऊर्जा, रक्षा और चिकित्सा समेत अनेक क्षेत्रों में आपसी सहयोग बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाई थी। पर ब्रिटेन की सख्त वीजा तथा आव्रजन नीति के कारण वह पहल परवान नहीं चढ़ पाई। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि मे से हुई वार्ता में मोदी ने ब्रिटेन की वीजा नीति के कारण आने वाली मुश्किलों का जिक्र किया।
मे ने कारोबारियों के लिए तो वीजा नीति को आसान बनाने का भरोसा दिलाया है, पर भारतीय छात्रों की बाबत उन्होंने नरमी का कोई संकेत नहीं दिया। असल में ब्रिटेन की शिकायत है कि अध्ययन-वीजा पर वहां आने वाले बहुत-से लोग वीजा की अवधि पूरी होने के बाद भी वहां से जाना नहीं चाहते। द्विपक्षीय वार्ता में आपसी कारोबार बढ़ाने के अलावा एक और अहम मुद््दा प्रत्यर्पण का था। भारत ने जहां शराब कारोबारी विजय माल्या, आइपीएल के पूर्व प्रमुख ललित मोदी और अगस्ता-वेस्टलैंड सौदे के आरोपी क्रिस्टीन मिशेल समेत साठ वांछितों की सूची प्रत्यर्पण के लिए सौंपी हैं, वहीं ब्रिटेन ने भी सत्रह लोगों की सूची भारत को दी है जो वहां वांछित हैं।
आतंकवाद के खिलाफ भारत के साथ सहयोग का इरादा जताते हुए ब्रिटेन ने दो टूक कहा है कि किसी आतंकवादी को शहीद कह कर महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए। समझा जा सकता है कि इशारा बुरहान वानी की तरफ होगा, जिसे पाकिस्तान ने ‘शहीद’ घोषित किया था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की दावेदारी और एनएसजी की सदस्यता के मुद््दों पर ब्रिटेन पहले से ही भारत का समर्थन करता आ रहा है। आपसी व्यापार को एक महत्त्वाकांक्षी मुकाम तक पहुंचाने के दोनों देशों के इरादे की झलक एफटीए यानी मुक्त व्यापार समझौते को लेकर बनी रजामंदी से मिल जाती है। अलबत्ता जब तक ब्रिटेन औपचारिक रूप से यूरोपीय संघ से बाहर नहीं आ जाता, इस तरह की सहमति सैद्धांतिक स्तर पर ही रहेगी। पर इससे दो साल बाद की नई संभावनाओं का अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।
जिन्न फिर बोतल से बाहर
दुनिया में जब भी सैनिक-असैनिक कर्मचारी मांग करते हैं तो शत-प्रतिशत सरकारें मान लें, यह जरूरी नहीं। जो मूल बातें थीं उन्हें सरकार ने मान लिया और उसके साथ जुड़े कुछ बिंदुओं को छोड़ दिया तो कुछ का फैसला न्यायिक समिति को समीक्षा के लिए सुपुर्द कर दिया। इसमें दो राय नहीं कि एक ही रैंक से सेवानिवृत्त होने वाले सैनिकों को अलग-अलग प्रकार का वेतन मिलना गलत था
पूर्व सैनिक की आत्महत्या के बाद ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ का मामला फिर सुर्खियों में आ गया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर झूठ बोलने का आरोप लगा रहे हैं तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी कह रहे हैं कि ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ लागू हुआ ही नहीं है। राहुल के साथ कुछ पूर्व सैनिकों की बैठक हुई और वह जब बैठक के बाद बयान दे रहे थे तो उनके साथ अनेक पूर्व सैनिक भी थे। जाहिर है, जो लोग पूर्व सैनिकों के संघर्ष पर नजर रखे हुए हैं, वे जानते हैं कि ये आरोप सच नहीं है। अगर ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ लागू ही नहीं हुआ तो फिर बजट में अरुण जेटली ने 54 हजार 500 करोड़ की राशि कुल पेंशन पर आवंटित करने की घोषणा क्यों की? एक सैनिक की आत्महत्या के दुखद प्रकरण को घटिया राजनीतिक मोड़ देने की कोशिश हो रही है और उसी क्रम में इस तरह के निराधार आरोप लगाए जा रहे हैं। वास्तव में उस आत्महत्या के बाद पेंशन में व्याप्त विसंगतियों पर बात होनी चाहिए, अभी तक जो कुछ नहीं हो पाया उसे करने का दबाव बनाया जाना चाहिए। उसकी जगह आप यह आरोप लगा दें कि कुछ हुआ ही नहीं तो कोई विवेकशील व्यक्ति इसे स्वीकार नहीं करेगा। सच यह है कि अभी तक ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ के तहत 5,507.47 करोड़ रु पये दिए जा चुके हैं। इस योजना का कुल 20 लाख 63 हजार 763 पूर्व सैनिकों को इसका लाभ मिला। जो सूचना है कि उसके अनुसार 19 लाख 12 हजार 520 पूर्व सैनिक पेंशनधारियों को इसका लाभ मिल चुका है। कुल 1 लाख 50 हजार 313 मामले अभी बाकी है क्योंकि उनमें कागजातों की समस्या है। किंतु सरकार ने घोषणा कर दिया है कि अगर कागजात नहीं मिले तो भी उनको पेंशन दिया जाएगा और उसके लिए एक शपथपत्र लिया जाएगा। इसका कारण यह है कि उन सैनिकों के कागजात सरकारी रिकॉर्ड में भी नहीं मिल रहे हैं। तो उनके शपथपत्र को ही उनका कागजात मान लिया जाएगा। ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ की मांग का एक ही मतलब था कि कोई फौज में किसी भी वक्त सेवानिवृत्त हो, वह अपने पद के हिसाब से समान पेंशन का हकदार रहेगा। नरेन्द्र मोदी सरकार ने 5 सितम्बर 2015 को ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ का एलान कर दिया। 1 जुलाई 2014 से इसे लागू किया गया। एरियर्स यानी पूर्व बकाया राशि के लिए 12 हजार करोड़ रु पये देने थे। इसमें रास्ता यह निकला कि एरियर छह-छह महीने में चार किश्तों में दिया जाए। यह प्रश्न स्वाभाविक उठता है कि अभी तक सारे पूर्व सैनिक संतुष्ट क्यों नहीं हैं? आखिर जंतर मंतर पर अभी भी धरना क्यों चल रहा है? सरकार की घोषणा के बाद तो धरना समाप्त हो जाना चाहिए था। वास्तव में कुछ बिंदुओं पर सरकार के साथ इनका मतभेद है। पूर्व सैनिकों ने ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ के लिए आधार वर्ष 2013 बनाने की मांग की थी, जबकि सरकार ने 2015 को आधार वर्ष बनाया है। तो इनकी मांग अभी भी 2013 को आधार वर्ष बनाने की है। दूसरे, सरकार ने 2013 तक के न्यूनतम और अधिकतम पेंशन का औसत निकाल कर ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ देना निश्चित किया है। पूर्व सैनिकों की मांग है कि ज्यादा पेंशन को आधार माना जाए। तीसरे, सरकार ने हर पांच साल पर इसकी समीक्षा का निर्णय किया है। पूर्व सैनिकों का कहना है कि सलाना या दो साल पर इसकी समीक्षा हो। सरकार का तर्क है कि कोई 100-50 लोगों की बात नहीं है, 20 लाख से ज्यादा लोगों की बात है। इसलिए 5 साल से कम पर समीक्षा संभव नहीं होगा। वैसे भी नागरिक सेवा में 10 वर्ष पर वेतन आयोग के गठन की व्यवस्था है। सरकार कह रही है कि सैनिकों को पांच वर्ष पर समीक्षा को मान लेना चाहिए। सरकार ने यह साफ किया है कि ‘‘वन रैंक, वन पेंशन’ का फायदा वीआरएस लेने वाले सैनिकों को नहीं मिलेगा। सेना में वीआरएस की व्यवस्था नहीं है, लेकिन बहुत सारे लोग प्री मैच्योर रिटायरमेंट के पूर्व ही निवृत्ति ले लेते हैं। इस विषय पर भी मतभेद हैं। क्या इन मतभेदों का अर्थ यह है कि ‘‘वन रैंक, वन पेंशन’ लागू हुआ ही नहीं है? कतई नहीं। सच कहा जाए तो सरकार ने इनकी मुख्य मांगे मान ली हैं और चार-पांच बिंदुओं पर अभी सहमति होना बाकी है। उसके लिए भी सरकार ने न्यायमूर्ति एल. नरसिम्हा रेड्डी की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी गई थी। अपनी रिपोर्ट बनाने के पहले रेड्डी ने पूर्व सैनिकों से सीधा संपर्क किया। 20 शहरों में जन सुनवाई करके सबका पक्ष लिया। कुल 704 ज्ञापन समिति को प्राप्त हुए। उनने पिछले 26 अक्टूबर को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। जो रिपोर्ट उनने सौंपी है, उसके आधार पर सरकार द्वारा उठाए जाने वाले कदमों की प्रतीक्षा करनी चाहिए। लेकिन जिनको राजनीति करनी है, उनके लिए सच और तय का कोई अर्थ नहीं होता। आत्महत्या करने वाले सैनिक के परिवार से सबकी सहानुभूति है। किसी कारण से कोई आत्महत्या करे, उसके परिवार के लिए यह असहनीय क्षति होती है। किंतु उस पूर्व सैनिक की समस्या अपने बैंक से थी। बैंक की गलती से उनको बढ़ा हुआ पेंशन नहीं मिल रहा था। यानी वह मामला ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ से सीधा जुड़ा हुआ नहीं था। दुनिया में जब भी सैनिक-असैनिक कर्मचारी मांग करते हैं तो शत-प्रतिशत सरकारें मान लें, यह जरूरी नहीं। जो मूल बातें थीं उन्हें सरकार ने मान लिया और उसके साथ जुड़े कुछ बिंदुओं को छोड़ दिया तो कुछ का फैसला न्यायिक समिति को समीक्षा के लिए सुपुर्द कर दिया। इसमें दो राय नहीं कि एक ही रैंक से सेवानिवृत्त होने वाले सैनिकों को अलग-अलग प्रकार का वेतन मिलना गलत था। कोई 15 वर्ष पहले सेवानिवृत्त हुआ तो उसे उस समय के अनुसार आप पेंशन दें और जो आज हो रहा है उसे आज के अनुसार यह न्यायसंगत नहीं था। उसे दुरुस्त किया गया। लेकिन जो अभी शंख बजा रहे हैं, उनकी सरकार ने क्या किया इसे भी तो याद रखना चाहिए। 1971 के बाद से यह मांग उठी थी। 44वें साल में जाकर यह मांग पूरी होती है। यह कैसा राजनीतिक न्याय है? तो शोर मचाने से पहले अपने गिरेबान में भी झांकना जरूरी है। 10 वर्ष की यूपीए सरकार में तो यह मांग काफी जोर-शोर से उठी थी। राज्य सभा सदस्य राजीव चंद्रशेखर ने कहा उन्होंने तीन-तीन बार पत्र लिखा। मगर तीनों बार नकारात्मक जवाब मिला। कहने का तात्पर्य यह है कि ‘‘वन रैंक वन पेंशन’ पर हो रही राजनीति असत्य और आधारहीनता पर खड़ी है। बेशक, जिनका पेंशन अभी तक ठीक नहीं हुआ या संपूर्ण मांग मानने की लड़ाई लड़ने वाले कुछ पूर्व सैनिक असंतुष्ट हैं, लेकिन लाखों की संख्या में ऐसे पूर्व सैनिक हैं, जो संतुष्ट भी हैं।
अवधेश कुमार