10-10-2017 (Important News Clippings)
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Date:10-10-17
India needs to create greater economic opportunities for all
Maitreesh Ghatak
Thomas Piketty’s 2014 book, Capital in the 21st Century, which documents the rise of sharp income inequality in the developed world since the 1970s, became an unlikely bestseller for an academic book dense with facts and figures. In a recent article with Lucas Chantel, Piketty has turned his gaze on India (‘Indian Income Inequality, 1922-2014: From British Raj to Billionaire Raj?’, goo.gl/gbPEde).Combining income-tax data with household surveys and national accounts, Piketty and Chantel track income inequality from 1922, when the income tax was introduced by the British colonial government, to 2014.
Leaving aside measurement issues, their key finding is that the share of the very rich in the national income, after falling steadily since the late 1930s to the late 1970s, started rising from the early 1980s and has steadily increased since then to reach a historical high in 2014, the latest year covered by their study. And, the share of the bottom half, as well as of those in the middle of the distribution, show the opposite pattern over the same time-period.Thus, the authors conclude that top income shares were lower relative to the middle class and the poor in the 1950s to the 1970s due to “strong market regulations and high fiscal progressivity”, but this trend went the opposite way with the adoption of “pro-business policies” during the Rajiv Gandhi era, and continued with economic liberalisation. The authors do note their unwillingness to step into the old debate about the effect of reforms on poverty and inequality. But the way they frame their findings lends itself to the interpretation that low growth and government controls are good as they keep inequality down.Well, they do. They also keep average income levels down and more people below the poverty level.
Kuznets Curve
It was Simon Kuznets, who won the Nobel Prize in Economics in 1971, who first pointed out that economic growth leads to an increase in inequality at first, and then a decrease — the phenomenon being subsequently termed the ‘Kuznets curve’. In the early stages of development, those who are richer are better poised to take advantage of the new opportunities while an excess of supply of unskilled labour keeps average wages down.Eventually, however, capital accumulation leads to an increase in demand for labour that pushes up wages. Also, the increasing role of human capital in production pushes up the returns from acquiring skills. All of this leads to an eventual decrease in inequality.
The part of Chantel and Piketty’s article that has received less attention, in fact, demonstrates this clearly: for the period when inequality was falling, the growth rate of average income was low, and the subsequent rise in inequality has been accompanied by high growth rates. However, the growth rates of the richest have been much higher than the growth rates of those in the middle, and certainly of those in the bottom half, and that explains the trend of inequality. It also demonstrates clearly the validity of the basic logic of Kuznets.
Bridge The Divide
It also highlights the importance of distinguishing between undesirable versus natural inequality. The former emerges because the rich are given more opportunities than the poor while the latter arises even when everyone is given good opportunities, due to differences in skill, effort, and enterprise.
Under the former, we have a class society where one’s background governs one’s opportunities while in the latter people have a reasonable chance of doing well independent of their origins. Cross-sectional inequality can arise in a system that creates more opportunities and, therefore, winners and losers. While the intergenerational persistence of inequality occurs due to unequal distribution of opportunities.The focus of modern progressive policies should, therefore, be to create greater equality of opportunity, and not to restrict opportunities to equalise outcomes. Growth is not the enemy. Anytime someone criticises the increase in inequality that followed economic reforms, one should remember that 45% of the population was below the poverty line in the early ’90s. That percentage has gone down by almost half since, which means more than 100 million have moved above the poverty line. But before one gets a chance to get complacent, consider this fact: if instead of the income level that defines the poverty line, we take twice that value, even with three decades of relatively high growth, nearly 80% of the population is still below this threshold, which is striking given how stringently the poverty line is defined.
So yes, India has a major inequality problem, in terms of the distribution of gains of growth, reflecting differential opportunities. To tackle this, it needs a much greater investment in health and education, and much more of a conscious effort to create greater economic opportunities to help children from poor families experience upward mobility.It also needs a much more conscious effort to bring the rich under the tax net. And, in particular, inheritance taxes, which go after the main source of inequality of opportunity —wealth.
Date:10-10-17
ई-वाहन के बजाय ई-परिवहन पर दिया जाए ध्यान
सुनीता नारायण
केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के हालिया बयान ने कबूतरों के दड़बे में बिल्ली को छोडऩे का काम किया है। उन्होंने वाहन उद्योग के एक सम्मेलन में कहा कि वह वैकल्पिक ईंधन के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए वाहन उद्योग को ‘मजबूर’ करने से भी नहीं हिचकिचाएंगे। गडकरी ने कहा, ‘आप चाहें या न चाहें लेकिन भारत प्रदूषण पर काबू पाने और तेल आयात बिल में कटौती के लिए इलेक्ट्रिक और जैव-ईंधन से चलने वाले वाहनों की दिशा में आगे बढ़ेगा।’ उन्होंने भारतीय ऑटोमोबाइल उत्पादकों के संगठन सायम के सालाना समारोह में यह बयान देकर वाहन उद्योग में खलबली मचा दी। वाहन कंपनियों का कहना है, ‘हम पहले से ही स्वच्छ वाहन तकनीक की दिशा में आगे बढऩे के लिए जरूरत से ज्यादा प्रयास कर रहे हैं।’हकीकत तो यह है कि हमारा वाहन उद्योग नीतिगत अनिश्चितता को लेकर काफी शोर मचाता है। इस उद्योग के पास स्वच्छ ईंधन की दिशा में आगे बढऩे की एक योजना रही है लेकिन या तो इसने उसे नजरअंदाज किया या फिर जानबूझकर उसे कमजोर करने की कोशिश की। जब ऐसा नहीं हो सका तो शोर मचाना शुरू कर दिया। मसलन, ईंधन एवं उत्सर्जन के बीएस-4 मानकों को भारत में वर्ष 2010 में लागू किया गया था। मार्च 2017 तक पूरे देश में इस मानक को लागू हो जाना था। लेकिन उद्योग ने इसके लिए तैयारी करने के बजाय मान लिया कि अधिक स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध ही नहीं हो पाएगी, लिहाजा वे इस समयसीमा के बाद भी बीएस-3 मानक वाले वाहन बेचते रहेंगे। लेकिन सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी जिस पर वाहन उद्योग ने खूब अचंभा जताया।
कुल मिलाकर कार निर्माताओं ने साफ नजर आ रही उस तस्वीर को देखने की कोशिश नहीं की जिसमें प्रदूषण और उससे होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं एक बड़ा सरोकार बनकर उभरी हैं। यह नीतिगत अनिश्चितता नहीं है। यह सार्वजनिक विमर्श और लोक नीति के प्रति आंख मूंदने जैसा है। इस पृष्ठभूमि में गडकरी का इलेक्ट्रिक एवं वैकल्पिक ईंधनों से चलने वाले वाहनों पर नीतिगत नेतृत्व दिखाना रोमांचक है। अब सवाल यह खड़ा होता है कि भारतीय सड़कों पर अधिक स्वच्छ ईंधन वाले वाहनों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए? हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाने की हमारे पास अनूठी वजहें हैं। अब भी भारत में वाहनों की गिनती काफी कम है, खासकर कारों की। अगर दिल्ली का ही उदाहरण लें तो यहां पर करीब 21 फीसदी लोगों के पास ही कारें हैं जबकि लगभग 40 फीसदी लोगों के पास दोपहिया वाहन हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक केवल 10 फीसदी भारतीयों के पास ही कारें थीं। इसका मतलब है कि मोटर वाहन अब भी एक बड़े तबके की पहुंच से दूर हैं। यह पहलू वाहन उद्योग के विस्तार की संभावनाओं को बयां करता है।
ई-वाहनों को लेकर हमारा नजरिया काफी अलग है। बाकी दुनिया में ई-वाहन अधिक स्वच्छ एवं ईंधन-सक्षम कारों से प्रतिस्पद्र्धा करने में खुद को पिछड़ता पा रहे हैं। अगर ई-वाहन प्राकृतिक गैस एवं कोयले से पैदा होने वाली बिजली का इस्तेमाल करते हैं तो फिर हम वातावरण में कार्बन डाई-ऑक्साइड को विस्थापित ही करेंगे न कि उसे खत्म कर सकेंगे। यानी ई-वाहनों का इस्तेमाल बढऩे पर भी प्रदूषण बरकरार रहेगा, वह कारों के साइलेंसर से न निकलकर ऊर्जा संयंत्रों की चिमनियों से निकलेगा। लेकिन ई-वाहन हमें शहरों के वायु प्रदूषण से राहत तो दिलाते ही हैं। गडकरी ने भी कहा है कि ई-वाहनों से कच्चे तेल के आयात पर खर्च होने वाला भारी खर्च कम करने में मदद मिलेगी। यहीं वजह है कि हमें ई-वाहन अपनाने की दिशा में अधिक साहसिक एवं आक्रामक होना होगा। अभी तक इस बारे में भारत की नीति ढुलमुल ही रही है। कुछ महीने पहले सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के मेरे सहयोगी ने हाइब्रिड एवं इलेक्ट्रिक वाहनों के त्वरित समेकन एवं विनिर्माण (फेम) के पहले चरण का विश्लेषण किया था। उससे पता चला कि सरकार की तरफ से लाई गई इस प्रोत्साहन योजना ने इलेक्ट्रिक मोबिलिटी बढ़ाने के नाम पर डीजल की औसत हाइब्रिड कारों को ही बढ़ावा दिया था। इस योजना का करीब 60 फीसदी उन कारों के ही हिस्से में चला गया जो न तो इलेक्ट्रिक थीं और न ही पूरी तरह हाइब्रिड। उसके बाद से हालात काफी बदल चुके हैं। संशोधित फेम योजना से औसत दर्जे की हाइब्रिड गाडिय़ों को मदद नहीं मिलेगी। इसमें इलेक्ट्रिक-बस पर भी जोर दिया गया है जिससे परिवहन क्षेत्र का परिदृश्य ही बदल जाने की संभावना है।
सबसे बड़ा पेच तो यही है। अधिकतर भारतीय निजी वाहनों से नहीं चलते हैं। यह कुछ बड़ा सोचने का मौका है ताकि हमें पहले कार और फिर साइकिल की तरफ न लौटना पड़े। हमें ऐसी नीतियां बनानी होंगी कि स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने वाले निजी वाहनों के साथ सार्वजनिक परिवहन के साधनों को भी बढ़ावा मिले। शहरों में लाइट रेल यानी ट्राम चलाना एक विकल्प हो सकता है। ट्राम बिजली से चलती है। इसके अलावा कुछ राजमार्गों का विद्युतीकरण कर उन पर बिजली-चालित बसें चलाई जा सकती हैं। उन बसों को जरूरत पडऩे पर रास्ते में ही चार्ज किया जा सकता है। अगर लोगों को उनके अंतिम गंतव्य तक पहुंचाने वाले वाहनों को भी इलेक्ट्रिक बनाया जा सके तो इससे आवागमन से संबंधित परिदृश्य ही बदल जाएगा।इसके लिए सजग सोच की जरूरत है। पहला बड़ा मसला इस सार्वजनिक ढांचागत क्षेत्र की लागत को कम करने के तरीके तलाशने का है। एक विकल्प है कि हम बड़े स्तर पर सार्वजनिक खरीद करें जैसा एलईडी लाइट के मामले में किया गया था। दूसरा विकल्प है कि वाहनों को इस तरह से बनाया जाए कि बैटरी के निर्माण की लागत उस वाहन की कीमत में न जुड़े। अगर हम ई-वाहनों के बजाय ई-परिवहन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करें तो हमारे विकल्प भी बदल जाएंगे। यह हमारे सामने एक अवसर पेश करता है। इस बार तो हमें यह बस छोडऩी नहीं है।
Date:10-10-17
निजी स्वास्थ्य संस्थानों की नकेल कसनी जरूरी
दूरसंचार, ऊर्जा और विमानन क्षेत्रों की तरह स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र के लिए भी एक नियामकीय संस्था बनाने की जरूरत है। इस बारे में विस्तार से बता रही हैं शैलजा चंद्रा
शैलजा चंद्रा
भारत में निजी स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र का उत्तरोत्तर विस्तार गौरव का विषय होने के साथ हताशा का भी मुद्दा है। निजी क्षेत्र के कई अस्पतालों ने हृदय रोग, कैंसर रोग, जटिल शल्य चिकित्सा और अंगों के प्रत्यारोपण जैसी विशेषज्ञ सेवाएं देने में कामयाबी हासिल की है। परिष्कृत निदान ने चिकित्सकीय इलाज को क्रांतिकारी रूप से बदल डाला है और विदेशों की तुलना में इस इलाज की लागत भी काफी कम है। इसके बावजूद आम धारणा यही है कि निजी अस्पताल अक्सर अनैतिक, लालची, इलाज को कारोबार मानने वाले और अस्पताल में भर्ती मरीज को अपने मुनाफे का जरिया मानते हैं। नागरिकों को सबसे ज्यादा परेशानी स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता, मापदंड और कीमत को निर्धारित करने वाले नियमों का पूरी तरह अभाव है। इसके अलावा इस क्षेत्र में एक ओम्बड्समैन का भी अभाव खटकता है।निजी स्वास्थ्य क्षेत्र आईटी की तरह मानवीय करिश्मे की उपज न होकर आर्थिक सुधारों के लिए घोषित कई नीतियों का परिणाम है। विभिन्न सरकारों के दौरान वित्त मंत्रालय ने निजी स्वास्थ्य क्षेत्र के विकास में प्रोत्साहक की भूमिका निभाई लेकिन इस क्षेत्र में होने वाली गड़बडिय़ों पर निगरानी रखने के लिए कोई नियामकीय व्यवस्था बनाए बगैर ऐसा किया गया। निजी स्वास्थ्य सुविधाएं दे रहे संबद्ध पक्षों को उद्योग का भी दर्जा दिया गया जिसके चलते उन्हें सस्ते और लंबी अवधि के कर्ज मिलने का रास्ता साफ हो गया। वर्ष 2000 के बाद इस क्षेत्र में सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी मिल गई और फिर स्वास्थ्य बीमा में एफडीआई की सीमा दोगुनी होने से इस क्षेत्र का और भी विस्तार हुआ।
चिकित्सकीय उपकरणों पर सीमा शुल्क भी 100 फीसदी से कम करते हुए 7.5 फीसदी तक लाया जा चुका है। निजी अस्पतालों के लिए जमीन भारी सब्सिडी पर दी गई। हालत यह थी कि दिल्ली के प्रमुख स्थानों पर महज 5,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से जमीन दे दी गई। दिल्ली सरकार के साथ संयुक्त उपक्रम के रूप में स्वास्थ्य सुविधा देने के लिए एक निजी संस्थान को 15 एकड़ जमीन महज एक रुपये में सौंप दी गई। हालांकि इन अस्पतालों ने सस्ती जमीन लेने के लिए आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लोगों का मुफ्त इलाज करने की जिस शर्त पर रजामंदी जताई थी, वे उसका भी पालन नहीं कर रहे हैं। इन बाध्यकारी अनुबंधों को लंबे कानूनी पचड़ों में लपेट लिया गया है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) ने हाल ही में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में इन अन्यायपूर्ण रियायतों का जिक्र किया है। इसमें बताया गया है कि मुंबई के चैरिटी अस्पताल एवं ट्रस्ट किस तरह से गरीबों का मुफ्त इलाज करने की बाध्यता से मुकर रहे हैं?हालांकि कुल मरीजों की देखभाल का 60-80 फीसदी काम निजी स्वास्थ्य संस्थान ही कर रहे हैं। वाह्य रोगी देखभाल का 80 फीसदी और दाखिल रोगियों की देखभाल का 60 फीसदी काम इनके भरोसे ही है। यह हालत तब है जब देश के केवल महानगरों और कुछ बड़े शहरों में ही विशेषीकृत इलाज वाले अस्पताल मौजूद हैं। अधिकांश जिलों में बड़े निजी अस्पताल भी नहीं होने से अकेले प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर खूब कमाई कर रहे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के मुताबिक देश भर में इकलौते डॉक्टर वाले चिकित्सा केंद्रों की संख्या दस कर्मचारियों वाले स्वास्थ्य संस्थानों से भी काफी अधिक है। सर्वेक्षण में शामिल सभी चिकित्सकीय प्रतिष्ठानों का करीब 80 फीसदी हिस्सा इकलौते डॉक्टर वाले केंद्र ही है। इन केंद्रों का संचालन एलोपैथी, आयुर्वेद एवं होम्योपैथी डॉक्टरों के अलावा बड़े पैमाने पर ऐसे लोगों द्वारा भी किया जाता है जिनके पास कोई भी मेडिकल डिग्री नहीं है।
भारत में स्वास्थ्य ढांचे के सबसे निचले स्तर पर सात लाख गांव हैं जहां के निवासियों को अपनी स्वास्थ्य जरूरतों के लिए सरकार की तरफ से संचालित स्वास्थ्य उपकेंद्रों पर निर्भर रहना होता है। इन उपकेंद्रों का जिम्मा सहायक मिडवाइफ (एनम) के पास होता है लेकिन वह गंभीर बीमारी के इलाज के लिए जरूरी दवाएं संस्तुत करने के लिए अधिकृत नहीं होती है। इन उपकेंद्रों के ऊपर ब्लॉक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) होते हैं जहां पर डॉक्टरी सलाह मिलने की संभावना होती है। देश भर में 30,000 से भी कम पीएचसी होने से जमीनी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में गांव-देहात में रहने वाले मजदूर, रिक्शाचालक या किसान को बीमार पडऩे पर मजबूरन एक अकुशल प्रैक्टिशनर के पास ही जाना पड़ता है। एक कुशल डॉक्टर के पास जाने का मतलब होता है कि उस मजदूर को एक दिन की दिहाड़ी गंवानी पड़ेगी और उसे गांव से शहर तक आने-जाने का बोझ भी उठाना पड़ेगा। ऐसे में उस मजदूर को उस झोलाछाप डॉक्टर के यहां जाकर ही अपनी तकलीफ से फौरी राहत ले लेना अधिक किफायती लगता है।कानूनी तौर पर डॉक्टर के अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति किसी बीमार का इलाज नहीं कर सकता है। लेकिन हमें एक विरोधाभास देखने को मिला है कि प्रशिक्षित डॉक्टर इन झोलाछाप डॉक्टरों को मरीज भेजने के एवज में कमीशन (फीस का 30 फीसदी) भी देते हैं। यहां तक कि प्रशिक्षित डॉक्टर ही इन लोगों को इंजेक्शन लगाने, आईवी फ्लूड चढ़ाने, एंटीबायोटिक और स्टेरॉयड दवाएं देने का मामूली प्रशिक्षण भी देते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 में कहा था कि भारत में प्रशिक्षित डॉक्टरों की तुलना में अप्रशिक्षित ही अधिक हैं। नियमों को कड़ाई से लागू नहीं किए जाने से ये झोलाछाप डॉक्टर मरीजों को कड़े असर वाली दवाएं भी दे देते हैं। नाकाबिल लोगों के इलाज करने और इसके व्यवसायीकरण के चलते टीबी के मरीजों पर मल्टी ड्रग का असर कम होने, एंटीबायोटिक दवाओं के नाकाम होने और चौथी पीढ़ी की दवाओं के अतार्किक इस्तेमाल जैसे मामले सामने आ रहे हैं।
भारत में समृद्ध या गरीब किसी को भी इलाज में शोषण या चिकित्सकीय कदाचार के खिलाफ कोई संरक्षण नहीं मिला है। राष्ट्रीय नियामक भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआई) और राज्यों में बनी चिकित्सा परिषदें बहुत कम मौकों पर ही इस कदाचार के खिलाफ आवाज उठाती हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 भी मुआवजे पर ही ध्यान देता है जबकि इलाज में गड़बड़ी को रोकना सबसे ज्यादा जरूरी है। सरकारी संस्थानों के डॉक्टर तो इस तरह के नियंत्रण से बाहर ही रखे गए हैं। केंद्र सरकार 2010 में क्लिनिकल इस्टेब्लिशमेंट ऐक्ट लेकर आई थी जिसमें सभी स्वास्थ्य प्रतिष्ठानों, उनके मापदंडों, कार्यबल की योग्यताओं के नियमन का जिक्र था। लेकिन अभी तक एक भी राज्य ने अपने यहां स्वास्थ्य सेवाओं के नियमन के लिए निकाय बनाने की पहल नहीं की है। आधे से अधिक राज्यों में तो ऐसे नियम भी नहीं हैं जो निजी स्वास्थ्य केंद्रों को लाइसेंस लेने के लिए बाध्य करते हों। जिन राज्यों में दिल्ली नर्सिंग होम्स ऐक्ट 1953 जैसे कानून लागू भी हैं वहां पर इसके प्रावधानों का उल्लंघन करने पर महज 100 रुपये का ही दंड लगाया जा सकता है।तकनीकी एवं नियामकीय नियंत्रण ने दूरसंचार, ऊर्जा, नागरिक उड्डïयन और कंपनी जगत में सक्रिय निजी इकाइयों को नियंत्रित करने का काम किया है। तमाम प्राधिकरण, बोर्ड, आयोग, न्यायाधिकरण और अपीलीय निकायों ने इन क्षेत्रों की निगरानी और नियमन की है। बहरहाल इंसानी जिंदगी को बचाने और उसका बेहतर इलाज करना कहीं अधिक जरूरी है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निजी एवं सार्वजनिक हरेक स्तर की निगरानी के लिए नियामकीय प्रणाली की जरूरत है। अब ऐसा किया जाना अनिवार्य हो चुका है।
Date:10-10-17
संस्थाओं को सुदृढ़ करने का वक्त
डॉ. भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्रियों में इस बात को लेकर सहमति बन रही है कि आर्थिक विकास की असल कंुजी देश की संस्थाओं में निहित है। सस्ते श्रम से आर्थिक विकास हासिल होना जरूरी नहीं है। जापान में श्रम महंगा है, फिर भी आर्थिक विकास में वह देश आगे है। आवश्यक नहीं कि प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयले अथवा तेल के जरिए भी विकास हासिल हो ही जाए। सिंगापुर में प्राकृतिक संसाधन शून्यप्राय हैं, फिर भी उस देश की प्रति व्यक्ति आय अमेरिका से भी अधिक है। तकनीकों से भी आर्थिक विकास जरूरी नहीं है। चीन के पास तकनीकें न्यून थीं, परंतु उनका आयात करके वह कहीं आगे निकल गया है। भारतीय मूल के वैज्ञानिक विदेशों मे जाकर नामी संस्थाओं के प्रमुख बन जाते हैैं और नोबेल पुरस्कार भी हासिल कर लेते हैं, क्योंकि वहां संस्थाओं में जवाबदेही और स्वतंत्रता, दोनों हैं।शासकीय संस्थाओं में सबसे अधिक महत्वपूर्ण नेताओं की विश्वसनीयता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम यानी विश्व आर्थिक मंच के अनुसार उत्तरी यूरोप के नार्डिक देशों के आर्थिक विकास का प्रमुख कारण वहां के नेताओं और अधिकारियों की ईमानदारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आज हमारे देश में शीर्ष स्तर पर विकास की यह प्रमुख शर्त पूरी हो रही है। विश्व आर्थिक मंच ने यह भी कहा है कि नेता और जनता के परस्पर सहयोग से आर्थिक विकास हासिल होता है, जैसे परिवार में बड़े और छोटे के बीच सामंजस्य हो तो परिवार आगे बढ़ता है।
देश की जनता को आज प्रधानमंत्री मोदी पर विश्वास है। हालांकि अर्थव्यवस्था में सुस्ती के कारण तमाम लोगों की जीविका प्रभावित हो रही है, परंतु उन्हें भरोसा है कि आने वाले वक्त में सब अच्छा हो जाएगा। जनता का अपने नेता में यह विश्वास सुखद है। इस क्रम में सरकार को जनता पर भी भरोसा करना चाहिए। किसी छोटे उद्यमी ने कहा कि हम टैक्स भी देते हैं और बेईमान भी कहलाते हैं, जबकि भ्रष्ट सरकारी कर्मियों को ईमानदार माना जाता है। इंदिरा गांधी ने बैंकों एवं कोयला कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके और शीर्ष उद्यमियों को जेल भेजकर एक नकारात्मक माहौल बनाया था, जिससे अर्थव्यवस्था दबाव में आई थी। नकारात्मक माहौल में उद्यमी की ऊर्जा का प्रस्फुटन नहीं हो सकता। नोटबंदी का आधार यह था कि जनता नंबर दो की कमाई को तिजोरी मे रखे हुए है। जीएसटी में खरीद एवं बिक्री का विस्तृत ब्योरा रिटर्न में मांगने का उद्देश्य है कि चोर को पकड़ा जा सके। जीएसटी की नजर में हर व्यापारी संदिग्ध है। हर शहर में रात में चोर घूमते हैं, लेकिन यदि पुलिस रात में अस्पताल जाने वाले के साथ चोर जैसा व्यवहार करे तो जनता दुबक जाएगी। सरकार को चाहिए कि हर नागरिक को ईमानदार समझे। जिन चुनिंदा लोगों पर शक हो, केवल उन लोगों से खरीद-बिक्री का ब्योरा मांगा जाए। जिस प्रकार देश की जनता को नरेंद्र मोदी पर विश्वास है, उसी प्रकार यदि प्रधानमंत्री जनता और संस्थाओं पर विश्वास करेंगे तो हमारा देश तेजी से आगे बढ़ेगा।दूसरी प्रमुख संस्था न्याय तंत्र है। अपने देश में न्याय तंत्र बीमार हो चला है। निचले स्तर की अदालतों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। यद्यपि युवा जजों के आने से नई लहर आई है, लेकिन पेशकार और वकीलों की मिलीभगत से वादी परेशान रहता है। मैंने किसी किरायेदार के विरुद्ध मामला दाखिल किया था। दो वर्षों तक किरायेदार कोर्ट में हाजिर नहीं हुआ। जब निर्णय का समय आया तो किरायेदार हाजिर हो गया, फिर से पूरी प्रक्रिया चालू हुई। इस प्रकार के तमाम पैंतरों पर विराम लगाने की जरूरत है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की भी हालत अच्छी नहीं है। किसी भी केस का निर्णय आने में 10 से 20 वर्ष लगना आम बात है। इस दिशा में सुधार के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए।
नॉर्वे के नॉर्वेजियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के अनुसार टिकाऊ आर्थिक विकास के लिए न्याय तंत्र की स्वतंत्रता जरूरी है। सरकार के निर्णयों पर न्यायालय द्वारा की गई समीक्षा से सही निर्णय पर पहुंचा जा सकता है, जैसा सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम के निर्णय में किया था। सरकार को चाहिए कि न्यायालय की समीक्षा को सकारात्मक दृष्टि से देखे। न्यायालय की स्वतंत्रता का सरकार सम्मान करेगी तो सही निर्णयों पर पहुंचेगी। इस मुद्दे पर सरकार को अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। सरकार ने जजों की नियुक्ति के लिए एक कमेटी बनाने का कानून बनाया था। इस कमेटी में अधिक संख्या में सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा की जानी थी। इन सदस्यों के माध्यम से सरकार मनचाहे व्यक्तियों को जज नियुक्त कर सकती थी। मैं न्यायतंत्र पर बाहरी नियंत्रण का पक्षधर हूं, क्योंकि न्यायाधीशों द्वारा अपने परिजनों-परिचितों को जज बनाया जाता है, परंतु यह बाहरी नियंत्रण सरकार का नहीं होना चाहिए। कमेटी में कानूनी तौर पर चुने गए पेशेवर लोगों जैसे बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं इंस्टीट्यूट आफ चार्टर्ड एकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया के अध्यक्ष को नियुक्त किया जा सकता है। इसी क्रम में सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को अपंग बनाने की व्यवस्था कर दी है। वर्तमान में ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं। सरकार ने कानून में संशोधन करके अफसरों को ट्रिब्यूनल का प्रमुख बनाने का रास्ता खोल दिया है। मनचाहे अफसर को नियुक्त करके सरकार ट्रिब्यूनल द्वारा सरकार के निर्णयों की समीक्षा पर रोक लगाना चाहती है, जो दीर्घकाल में सरकार के लिए ही हानिप्रद होगा जैसा नॉर्वेजियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ने कहा भी है।
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन द्वारा किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि सफल अर्थव्यवस्था के लिए स्वतंत्र केंद्रीय बैंक जरूरी है, जो कि अल्पकालीन राजनीति से ऊपर उठकर निर्णय ले सके। चुनाव के पहले सरकार का प्रयास रहता है कि मतदाताओं को लुभाने के लिए लोक-लुभावन योजनाओं पर भारी खर्च करे, जैसे 2009 में कांग्रेस ने किसानों के कर्ज माफ किए थे। इन खर्चों को पोषित करने के लिए सरकार को बाजार से कर्ज लेना होता है। यहां केंद्रीय बैंक यानी हमारे भारतीय रिजर्व बैंक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यदि रिजर्व बैंक अधिक मात्रा में नोट छापकर मुद्रा की तरलता बनाए रखे तो सरकार के लिए कर्ज लेकर अनुपयुक्त खर्च करना आसान हो जाता है जो कि बाद में अर्थव्यवस्था को ले डूबता है, परंतु यदि रिजर्व बैंक स्वतंत्र है तो नोट नहीं छपेगा। सरकार कर्ज नहीं ले सकेगी। गलत दिशा में नहीं जाएगी। वर्तमान सरकार ने व्यवस्था बनाई है कि अब मौद्रिक नीति समिति यानी एमपीसी द्वारा मुद्रा नीति निर्धारित की जाएगी। इसमें तीन सदस्य रिजर्व बैंक के अधिकारी होंगे और तीन सदस्य सरकार द्वारा नामित होंगे। अल्पकाल में यह सरकार के लिए आरामदेह हो सकता है, परंतु जैसा कि ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन द्वारा कहा गया, यह व्यवस्था देश के दीर्घकालीन विकास के लिए ठीक नहीं है। नरेंद्र मोदी पर देश को भरोसा है। इस भरोसे को फलीभूत करने के लिए सरकार को हर नागरिक और प्रत्येक स्वायत्त संस्था को मित्र की दृष्टि से देखना होगा, अन्यथा इंदिरा गांधी की तरह यह सरकार भी देश को दीर्घकालीन विकास की पटरी पर नहीं ला सकेगी।
Date:09-10-17
Resources aplenty, no jobs
Redefining economic models to get them in sync with the technology-accelerated age is the need of the hour
Anil K. Antony
We are in the midst of the most transformative age in human history where technological leaps could make possible a world of limitless food, water, and energy. Although we have attained the ability to produce any resource at any speed or in any quantity, human capital requirement is on a steep decline owing to the advent of cutting-edge technologies such as artificial intelligence and robotics.While five high-technology firms find themselves among the list of the top seven most valuable companies in the world, with a cumulative market capitalisation of almost $3 trillion, it is distressing to note that that they employ just under 700,000 people among them. The inevitable widespread adoption of next generation technologies indicates a future of mass unemployment, and concentration of wealth in the hands of a few enterprises capable of providing minuscule job openings.
Today’s primary challenge is the optimal allocation of copiously produced resources among an increasing population with dwindling wage-earning opportunities. Taking cue from these trends, several progressive political outfits across Europe have started demanding legislation favouring reduced working hours with no cuts in pay, three-day weekends, and the introduction of a universal basic income.Even if new models built around the reduction, sharing, and diffusion of work and the provision of a supplementary income can sustain employment levels and living standards in wealthy nations with a steady, declining, or ageing population, with most of them plugged into the formal economy, it will be impractical in countries like India. The Indian scenario already looks grim with the Labour Bureau stating that India added just 1.35 lakh jobs in eight labour-intensive sectors in 2015, against a backdrop of almost 1.5 crore annually entering the job market. Conditions are ripe for the creation of a plenitude of frustrated people who would be easy prey to the sway of radical nationalists and populists.
Nevertheless, the informal economy employs more than 90% of our workforce. Efforts to structure the informal sector, by encouraging them to adopt modern-day tools and best practices, and by giving them adequate access to capital for expansion, would stimulate the economy and the job market.India has massive basic infrastructural capacity requirements. Focussed government planning and spending, along with the creation of an environment that would encourage private investments into these potentially large-scale projects, could create immediate openings for millions in sectors like construction, India’s second largest employer, providing jobs for over 44 million. If leveraged to create essential and permanent assets, employment-guaranteeing schemes like MGNREGA would also effectively absorb a large slice of job seekers. Redefining the existing economic planning, employment and resource-allocation models, to get them in sync with this technology-accelerated age, is the need of the hour.