10-08-2024 (Important News Clippings)

Afeias
10 Aug 2024
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Date: 10-08-24

Bail, under any law

SC’s Sisodia order should be a widely followed precedent

TOI Editorials

The points on which Supreme Court granted Sisodia bail in the Delhi liquor policy case mark a precedent for bail not only in cases under PMLA, but also for those laws where application of bail is limited, such as anti-terror law UAPA.

Jail without bail | Yesterday, SC reiterated the principle of bail not jail, saying a long time behind bars – almost 18 months in Sisodia’s case – before conviction shouldn’t become “punishment without trial”. For context, earlier this week Parliament was told that in the last decade, 5,297 cases were filed under PMLA, conviction secured in 40 – that’s less than 1%.

Policy & quid pro quo | SC queried investigators on how they “per se infer” conspiracy from the mere fact that a policy benefitted certain wholesalers. SC asked, “Where do you draw the line between policy and criminality?”

Delay in trial | The key point: SC said both trial court and HC should have noted top court’s Oct 2023 judgment that “prolonged incarceration” and “delay in trial” should be read into bail provisions in both criminal code CrPC and PMLA. SC had said that a speedy trial is an accused’s “basic right”. That, when trial isn’t proceeding “for reasons not attributable to the accused, court…may grant bail. This would be truer where the trial would take years.”

Denied bail last year, SC had allowed Sisodia to re-apply if “trial…proceeds at a snail’s pace in next three months”. Yesterday, SC referenced investigators’ claim from Oct 2023 that trial would be completed in “6 to 8 months”. Investigators, SC said, were unprepared to start trial. From Elgar Parishad cases to those on Delhi riots, and several PMLA cases, securing bail is often process as punishment. It is this that SC’s Sisodia order can put a stop to.


Date: 10-08-24

बच्चे का भविष्य ‘कहां पैदा हुआ’ से तय होता है

संपादकीय

आज बिहार में जन्मे बच्चे की आय गोवा, दिल्ली, चंडीगढ़, हरियाणा या तेलंगाना में पैदा हुए बच्चे की आय का मात्र 15-20% होगी। दिल्ली में पैदा हुए बच्चे की आय तो दक्षिण अफ्रीका के नवजात के बराबर होगी, लेकिन यूपी का ऐसा ही बच्चा सोमालिया के शिशु के बराबर होगा। जीवन के पांच बसंत देखने की संभाव्यता सबसे कम छत्तीसगढ़ और मप्र के बच्चे में होगी, जहां प्रति हजार बच्चों पर बाल मृत्यु दर (आईएमआर) क्रमशः 443 और 41.3 (एनएफएचएस-5 के अनुसार) है जबकि मिजोरम, नगालैंड, सिक्किम, गोवा और मणिपुर / केरल में ये संभाव्यता अधिक है। (यूके-यूएस के बराबर ) आखिर 75 साल के स्वशासन में हमने जीवन की सामान्य शर्तों को लेकर इतना क्यों नहीं किया कि हमारा नौनिहाल पैदा कहीं भी हों, चिकित्सा, पोषण, संस्थागत डिलीवरी और जच्चा की देखभाल के अभाव में दम न तोड़ें? संविधान निर्माताओं ने तो एक अर्ध- संघीय शासन प्रणाली देकर गवनेंस को विकेंद्रित किया। फिर दिल्ली और छत्तीसगढ़ में सात दशक बाद भी इतना अंतर क्यों? क्यों देश की आधी से ज्यादा फैक्ट्रियां केवल पांच राज्यों- मुख्यतः तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात में हीं हैं। मात्र समाज की अकर्मण्यता मान कर इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। समस्या गवनेंस की भी है।


Date: 10-08-24

सलाखों पर सवाल

संपादकीय

आखिरकार दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत दे दी। हालांकि इसमें कुछ शर्तें भी जोड़ी हैं, पर अदालतों को एक बार फिर नसीहत दी है कि जमानत नियम है और जेल अपवाद। किसी की जमानत सजा के तौर पर नहीं टाली जानी चाहिए। हालांकि यह बात सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कई बार कह चुका है, मगर निचली अदालतें इसे गंभीरता से लेती नजर नहीं आतीं। मनीष सिसोदिया को दिल्ली आबकारी नीति में भ्रष्टाचार के आरोप में पहले प्रवर्तन निदेशालय और फिर सीबीआइ ने जेल में बंद कराया था। सिसोदिया निचली अदालत से उच्च न्यायालय के बीच अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देते और जमानत की अपील करते रहे, मगर किन्हीं तकनीकी कारणों से उन्हें सलाखों के पीछे ही रहने पर मजबूर होना पड़ा। करीब सत्रह महीने उन्होंने जेल में बिताए। जाहिर है, उनकी जमानत से आम आदमी पार्टी में उत्साह का माहौल है। मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि जब एक निर्वाचित सरकार के जिम्मेदार पद का निर्वाह कर रहे व्यक्ति को इतने लंबे समय तक जेल में रहने पर मजबूर होना पड़ता है, तो सामान्य नागरिक के बारे में क्या उम्मीद की जा सकती है। ये सवाल बेवजह नहीं उठ रहे हैं कि आखिर सिसोदिया के सत्रह महीनों का हिसाब कौन देगा।

सिसोदिया अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जिन्हें इस तरह सीखचों के पीछे लंबा वक्त गुजारना पड़ा। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी जेल में रह चुके हैं। सत्येंद्र जैन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अभी तक जमानत की आस लगाए हुए हैं। इस मामले में जांच एजंसियों के कामकाज पर गहरे सवाल उठे हैं। दिल्ली आबकारी मामले में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और सेना की जमीन खरीद घोटाले के आरोप में हेमंत सोरेन को जांच एजंसियों ने बिना पुख्ता आधार और दोषसिद्धि के लंबे समय तक जेल में डाले रखा। इसमें निचली अदालतों ने भी गंभीरता से विचार नहीं किया कि इस तरह जिम्मेदार पदों का निर्वाह करने वालों को जेलों में डालने से आखिरकार सार्वजनिक महत्त्व के कामकाज बाधित होते हैं। किस मामले में मिली मनीष सिसोदिया को जमानत? कोर्ट में क्या दी गईं दलीलें, पढ़ें पूरी डिटेल किसी को जमानत देने का यह अर्थ कतई नहीं होता कि उसे दोषमुक्त कर दिया गया। उसके खिलाफ लगे आरोपों की जांच तो चलती रह सकती है और दोषसिद्धि पर उसे सजा भुगतनी ही पड़ेगी। इस तरह केवल आरोप और आशंका के आधार पर लोगों को लंबे समय तक जेलों में बंद रखना एक तरह से नाहक सजा देने के बराबर ही माना जाता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की नसीहत पर गंभीरता से पालन के अपेक्षा की जाती है।

पिछले कुछ वर्षों से प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकंजा कसने के नाम पर जिस तरह अंधाधुंध छापे मारे और गिरफ्तारियां की, उसे लेकर उन पर आरोप लगते रहे हैं कि वे सत्तापक्ष के इशारे पर, उसकी राजनीतिक मंशा के अनुरूप काम करती हैं। वे जानबूझ कर तकनीकी अड़चनें पैदा कर अदालत को जमानत देने से रोकने का प्रयास करती देखी जाती हैं। भ्रष्टाचार और धनशोधन पर अंकुश लगाना निस्संदेह बड़ी चुनौती है, इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई से शायद ही कोई इनकार करे, मगर इसके लिए बने कानूनों का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होगा, तो असल मकसद हाशिये पर ही बना रहेगा। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की नसीहत पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।


Date: 10-08-24

बुजुर्ग पीढ़ी की बुनियादी समस्याएं

अजय जोशी

देश की जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग वरिष्ठ नागरिकों का है। वे अपने ज्ञान और अनुभव से समाज के लिए अपना अमूल्य योगदान कर सकते हैं। इस दृष्टि से उनका कल्याण भी सरकारों और समाज की प्राथमिकता में होना चाहिए। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में साठ वर्ष और इससे अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों की जनसंख्या 10.38 करोड़ थी। फिलहाल वरिष्ठ नागरिकों की आबादी कुल आबादी का लगभग दस फीसद है। राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा गठित जनसंख्या अनुमानों पर तकनीकी समूह की रपट के मुताबिक वर्ष 2026 तक देश में साठ वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों की संख्या 17.32 करोड़ होने की संभावना है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 में हर चौथा व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक होगा। इस वर्ग के अधिकांश नागरिक अपने परिवार, समाज और सरकार से किसी न किसी रूप में असहज, उपेक्षित और असहाय महसूस करते हैं। उनकी अपनी आर्थिक, शारीरिक और मानसिक समस्याएं हैं।

केंद्र और राज्य सरकारों ने वरिष्ठ नागरिकों का सहयोग करने के लिए कई योजनाएं बनाई हैं। उन्हें परिवहन, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य सेवाओं पर छूट तथा लाभ प्रदान किए जाते हैं। केंद्र और राज्य स्तर पर उनके लिए कई तरह की पेंशन योजनाएं भी हैं, जिनके माध्यम से उन्हें वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। उनके स्वास्थ्य देखभाल हेतु चिकित्सा व्यय पर छूट, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं और स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में उनको प्राथमिकता देने जैसी सुविधाएं सम्मिलित हैं। उन्हें आय कर में सामान्य कर दाताओं की तुलना में अधिक कर छूट प्रादान की जाती रही है।

वरिष्ठ नागरिकों के हित सरंक्षण हेतु सरकार ने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण तथा कल्याण अधिनियम 2007 बनाया, जिसके अंतर्गत वृद्ध व्यक्तियों और माता-पिता के भरण-पोषण तथा देखरेख के लिए प्रभावी व्यवस्था का प्रावधान है। इस अधिनियम के अंतर्गत वे अभिभावक और वरिष्ठ नागरिक, जो अपनी आय या अपनी संपत्ति द्वारा होने वाली आय से भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं, वे अपने व्यस्क बच्चों या संबंधितों से भरण-पोषण प्राप्त करने के लिए आवेदन कर सकते हैं। इस अधिनियम के तहत वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा और परित्याग को एक संगीन अपराध माना गया है, जिसके लिए पांच हजार रुपए का जुर्माना या तीन माह की सजा या दोनों हो सकते हैं। वरिष्ठ नागरिक के भरण-पोषण हेतु दस हजार रुपए प्रतिमाह राशि देने का आदेश भी किया जा सकता है। वरिष्ठ नागरिकों के लिए कई संगठन और गैर-सरकारी संस्थाएं भी विभिन्न रूपों में सेवाएं प्रदान करती हैं। इनमें ‘डे केयर’ केंद्र वृद्धाश्रम, कानूनी मामलों में सहायता और आर्थिक-सामाजिक गतिविधियां तथा सामुदायिक सहभागिता जैसे कार्य किए जाते हैं।

यह सब होते हुए भी देश के वरिष्ठ नागरिकों को विभिन्न समस्याओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बहुत से वरिष्ठ नागरिक गंभीर आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनकी कोई नियमित आय नहीं है, पेंशन या सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं तक उनकी पहुंच सुलभ नहीं है। इनकी स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित समस्याएं भी कम नहीं हैं। उनके लिए पर्याप्त आरोग्य परामर्श सेवाएं उपलब्ध नहीं होतीं। उनको विशेष चिकित्सा सुविधाएं और निश्शुल्क दवाएं पाने में भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वरिष्ठ नागरिक समाज में अलगाव की स्थिति से भी त्रस्त हैं। उनमें समाजिक संपर्कों की कमी के कारण अकेलापन बना रहता है। उनको अपनी संपत्ति की सुरक्षा और अपने साथ होने वाले अपराधों से बचाव की भी जरूरत होती है। वरिष्ठ नागरिकों, खासकर अकेले रहने वाले व्यक्तियों, के साथ उनकी संपत्ति से जुड़े और उनके साथ होने वाले अपराधों के समाचार आते रहते हैं।

विगत कुछ वर्षों में वरिष्ठ नागरिकों को सरकारों से मिलने वाली सुविधाओं में कटौती देखी जा रही है। उन्हें इस वर्ष के आम बजट से काफी उम्मीदें थीं। कोरोना काल में वर्ष 2020 में रेल किराए में वरिष्ठ नागरिकों और महिलाओं को मिलने वाली छूट को बंद कर दिया गया। आम चुनाव के दौरान सत्तर वर्ष और उससे अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त इलाज हेतु स्वास्थ बीमा कवर देने का वादा किया गया, मगर उसके संबंध में बजट में कोई घोषणा नहीं हुई। वरिष्ठ नागरिक आयकर में और अधिक छूट की उम्मीद लगाए हुए थे, लेकिन उन्हें मानक कटौती में 25 हजार रुपए की मामूली वृद्धि के अलावा कुछ नहीं मिला। अस्सी वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली अतिरिक्त छूट में भी कोई वृद्धि नहीं हुई। स्वास्थ्य बीमा के प्रीमियम पर लगने वाले जीएसटी की वर्तमान दर 18 फीसद है, जिसका भार किसी न किसी रूप में बीमाधारकों को ही वहन करना पड़ता है, उसे घटा या हटा कर स्वास्थ्य बीमा की लागत कम करने की अपेक्षा थी, लेकिन बजट में इस बारे में कोई घोषणा नहीं हुई। अब स्वास्थ्य बीमा और जीवन बीमा के प्रीमियम पर लगने वाले जीएसटी को पूरी तरह हटाने की मांग जोर पकड़ रही है। सरकार को इस दिशा में विचार करने की जरूरत है।

वरिष्ठ नागरिकों की एक बड़ी संख्या के जीवन यापन का आधार उनकी सेवा निवृत्ति पर मिली पीएफ और ग्रेच्युटी की राशि पर मिलने वाला ब्याज है। उनको अन्य किसी तरह की पेंशन आदि नहीं मिलती। बैंकों में जमा राशियों पर मिलने वाले ब्याज की दरों में विगत दस-बारह साल से निरंतर कमी आ रही है। ब्याज दरें इस अवधि में लगभग तीन से पांच फीसद कम हो गईं। हालांकि बैंकों द्वारा वरिष्ठ नागरिकों को आधा फीसद ब्याज अधिक दिया जाता है, लेकिन दस वर्ष पूर्व की ब्याज दरों की तुलना में यह आधा फीसद जोड़ने के बाद भी वास्तविक ब्याज दर कम ही हुई है। एक तरफ महंगाई बढ़ी, दूसरी तरफ ब्याज दरों में कमी आई, इससे वरिष्ठ नागरिकों पर दोहरी मार पड़ी है।

संगठित क्षेत्र में नई पेंशन योजना यानी एनपीएस में आने वाले ऐसे कर्मचारी, जिनका वेतन कम था या उनकी सेवा अवधि कम रही, उनको इस योजना के अंतर्गत मिलने वाली पेंशन तीन-चार सौ रुपए प्रतिमाह मिलने के समाचार भी आते रहते हैं। यह राशि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा गरीब वरिष्ठ नागरिकों और महिलाओं आदि को मिलने वाली पेंशन से भी बहुत कम रहती है। एनपीएस में आने वाले वरिष्ठ नागरिकों को एक न्यूनतम पेंशन देने की मांग भी समय-समय पर उठती रही है, लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई घोषणा नहीं हुई है। कुल मिलाकर केंद्रीय बजट और सरकारी घोषणाओं में वरिष्ठ नागरिकों के हित में कुछ भी नहीं हुआ। समाज के अन्य कमजोर वर्गों की तरह वरिष्ठ नागरिकों का बड़ा वर्ग अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम नहीं है, कई मामलों में उनके भूखों मरने की नौबत तक आ रही है। आज जरूरत है कि वरिष्ठ नागरिकों को सम्मानजनक जीवन यापन करते रहने के लिए उनकी न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति के लिए सक्रिय प्रयास हों। इसके लिए ऐसे वरिष्ठ नागरिक, जो शारीरिक, आर्थिक और मानसिक दृष्टि से सक्षम हैं, वे स्वयं, सरकार और समाजसेवी संगठन इस दिशा में सक्रिय प्रयास करें, तो आम वरिष्ठ नागरिक अपने जीवन का शेष समय स्वस्थ, प्रसन्न रहते हुए बिता सकते हैं।


Date: 10-08-24

एक और जमानत

संपादकीय

आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसोदिया को सर्वोच्च न्यायालय में मिली जमानत राजनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। राष्ट्रीय राजधानी के व्यापक समाज ने एक समय मनीष सिसोदिया को भी बहुत उम्मीद के साथ देखा था। नैतिकता के बल से ही वह अपने नेता अरविंद केजरीवाल के साथ एक वैकल्पिक ताकत बनकर उभरे थे। वह लगभग 17 महीनों की जद्दोजहद के बाद जेल से बाहर आए हैं। न्यायालय ने पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री को दिल्ली उत्पाद शुल्क नीति से जुड़े मामलों में जमानत दी है। दरअसल, पहले ही लगने लगा था कि सिसोदिया को ज्यादा समय तक सलाखों के पीछे रखना जांच एजेंसियों के लिए संभव नहीं होगा। आश्चर्य नहीं कि न्यायमूर्ति बीआर गवई और के वी विश्वनाथन की पीठ ने जमानत याचिका को विचारणीय मानते हुए कहा कि सिसोदिया को अब जमानत मांगने के लिए सुनवाई अदालत भेजना न्याय का मखौल होगा। वास्तव में, यह सिसोदिया के लिए पूरी रिहाई नहीं है, उन्हें आरोप मुक्त होने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ सकता है। हालांकि, यह माना जा रहा है कि सशर्त नियमित जमानत उनकी राजनीतिक ताकत को लौटा लाएगी।

प्रवर्तन निदेशालय जमानत से खुश नहीं है, अंतत: उसकी कोशिश थी कि सिसोदिया को दिल्ली सचिवालय या मुख्यमंत्री कार्यालय जाने से रोका जाए, पर न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय की याचना पर ध्यान नहीं दिया। अब यह इतिहास में दर्ज हो गया है कि सीबीआई और ईडी ने आखिर तक यही प्रयास किया कि जमानत न हो सके, पर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचकर जमानत मांगने की यह तीसरी कोशिश रंग लाई है। वैसे, एजेंसियों को जमानत रोकने पर जोर लगाने के बजाय दोष सिद्ध करने पर जोर देना चाहिए था, अगर पूरे प्रमाण के साथ मुकदमा शुरू हो जाता, तो सिसोदिया का बाहर आना मुश्किल हो जाता। अत: परोक्ष रूप से ईडी व सीबीआई की सुस्त चाल ने सिसोदिया की रिहाई को मुमकिन बनाया। एक पूर्व उप-मुख्यमंत्री को लगभग 17 महीने जेल में रखने के बावजूद सुनवाई और सजा की प्रक्रिया का किसी मुकाम पर न पहुंच पाना चिंता व विचार का विषय है। चिंता इसलिए कि जांच एजेंसियों की ऐसी कार्रवाई पर देश का खूब समय और संसाधन खर्च होता है, पर लोग कोई ठोस धारणा नहीं बना पाते हैं। एक लंबी फेहरिस्त है, ऐसे नेताओं की, जो सनसनीखेज ढंग से फंसे, जेल गए और बाहर निकल आए। एजेंसियां देखती रह गईं। इसी फेहरिस्त में अब एक नया नाम जुड़ गया है।

कुल मिलाकर, अभी न दूध का दूध हुआ है और न पानी का पानी। इंतजार करना होगा। यह भारतीय राजनीति के लिए चिंता की बात है। शक की चादर ओढ़े न जाने कितने नेता सक्रिय हैं। गौर कीजिए, तो राजनीतिक बिरादरी भी अपनी पूरी सफाई के पक्ष में नहीं है। सबके पास अपने-अपने दागी हैं, जिनके बचाव की त्रासद राजनीति लोगों और लोकतंत्र के समग्र विश्वास में सेंध लगा रही है। दाग छुड़ाने के बजाय छिपाने की राजनीति अब पीछे छूट जानी चाहिए। देश में विकास की गति बढ़ गई है, तो नेताओं से उम्मीदें भी बढ़ गई हैं, पर क्या जांच व कानून-व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियां देश के साथ कदमताल के लिए तैयार हैं?


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