10-08-2018 (Important News Clippings)
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Date:10-08-18
Watchdog Or Lapdog ?
Why authoritarian leaders like to brand the media as ‘enemy of the people
Gautam Adhikari, (The writer is former Executive Editor of The Times Of India, is a senior fellow at the Center for American Progress, Washington DC)
President Donald Trump keeps lashing out at the media as “the enemy of the people”. His surrogates refuse to say whether they agree with that description of the press, notably Sarah Sanders when she is accosted by CNN’s Jim Acosta in the White House. Journalists, including conservative anti-Trump pundits like Bret Stephens of The New York Times, are being threatened with dire consequences. Alarming? Yes, but there may be method in Trump’s rant.There are different ways in which an authoritarian, or would-be authoritarian, goes after the media in a democracy that constitutionally mandates a free press.
The old-fashioned way is to censor the media, ban criticisms of the leader and the administration, and throw leading journalists in jail. It’s still the preferred method of outright tyrants. A more effective way in a political system that is democratically structured is to avoid the appearance of suppression of a still independent media on the way to delegitimising it. It works like this: Keep a significant part of the media unquestioningly on your side as virtual state megaphones – witness Fox News and the overwhelming majority of US talk radio – while systematically attacking the credibility of the rest of the media. All the while, keep ranting against “the media” as corrupt and untrustworthy even as a substantial part of it is on your side. The part that is not, call it ‘the enemy of the people’ to stoke popular opinion against the press.
The term has long been used by leaders in power who would brand a subgroup, including an independent media, that might pose a check to unchallengeable authority. Robespierre used it during the French Revolution, so did Lenin and Stalin in the Soviet Union. All authoritarians hate an independent press. Trump, not a full-blown authoritarian thus far, realises how it makes tactical sense at this juncture of his drive to make America in his own image to keep berating the press as purveyors of “fake news” and to beat up the media as the enemy of the people. The tactic cleverly devalues truth and erodes the credibility of objective reportage.
The press in a liberal democracy is, of course, necessarily an ‘enemy of some people’ at a given point of time. It performs its defining role as watchdog, the more so when sections of it want to be lapdogs. In such a role it barks when it spies misconduct. But for any wannabe authoritarian who already controls the three estates of a constitutional democracy, ie the executive, the legislature and the highest rungs of the judiciary, a defiant fourth estate is his natural enemy.
Trump’s base of blind supporters is a substantial minority that, going by opinion polls, trusts him overwhelmingly over the coverage of the mainstream news outlets, unless it’s Fox or one of the numerous hard right websites or his amen corner of conservative talk radio. A tad more support from independents and wavering Republicans, of whom there are few, may be enough for him. The fabled checks and balances of the American system of governance are malfunctioning. Apart from the hope of a record high turnout for the midterm elections in November that might give Democrats a majority in one or both houses, the press remains the only bulwark left for slowing Trump’s assault on a liberal democratic United States.
Trump and his cohort know this well. That may be why he relentlessly attacks the media. Take his meeting last week with AG Sulzberger, publisher of The New York Times. Trump tweeted that he had discussed “the vast amounts of Fake News being put by the media and how that Fake News has morphed into phrase ‘Enemy of the People’, Sad!” Within two hours, Sulzberger clarified: “I told the president directly that I thought his language was not just divisive but increasingly dangerous.”
The publisher told him that he was far more concerned about his labelling of journalists ‘the enemy of the people’ and warned that “this inflammatory language is contributing to a rise in threats against journalists and will lead to violence.” Yes. But what if it’s an outcome which doesn’t perturb the president? In fact, he might be happy to have generated an atmosphere of intimidation of the press. Some of his hardline supporters at rallies have become menacing to reporters. And the real fake news that is purveyed by far right conspiratorial websites has already generated violence or the threat of violence. The media, or the part of it which isn’t yet servile to an authoritarian or near-authoritarian, simply must be as alert a watchdog as ever in these times. It’s the only fighter left in the ring, for now.
Date:10-08-18
चुनाव में पाला बदलने का वक्त आ गया है
विज्ञान और तर्क को दरकिनार कर दिए गए सत्ता में बैठे जिम्मेदार व्यक्तियों के अतिशयोक्ति पूर्ण बयान
प्रीतीश नंदी
कुछ दिन पहले कर्नाटक के भाजपा विधायक बासनागौडा पाटिल येतनाल ने कारगिल विजय दिवस कार्यक्रम में कहा कि भारत को भीतर से ही इसके बुद्धिजीवियों और उदारवादियों से गंभीर खतरा है, जो राज्य-व्यवस्था पर बोझ से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उन्होंने कहा कि वे सब राष्ट्र-विरोधी हैं और यदि वे गृहमंत्री हो तो पुलिस को आदेश देंगे कि सबको कतार में खड़े करके गोली मार दो। सौभाग्य से वे मंत्री है नहीं लेकिन, पत्रकार गौरी लंकेश सहित चार बुद्धिजीवियों को कर्नाटक और पड़ोसी महाराष्ट्र में गोली मारी गई है। पुलिस ने नहीं बल्कि किराये के हत्यारों ने। मुझे लगता है कि इन्हें किराये पर यतनाल जैसे लोगों ने ही लिया होगा। ये सभी चारों सम्माननीय शख्सियतें थीं और पांच अन्य इस वक्त कर्नाटक में पुलिस सुरक्षा में जी रहे हैं, क्योंकि माना जा रहा है कि वे निशाने पर हो सकते हैं।
यतनाल ही वे शख्स हैं, जिन्होंने पहले एक वायरल वीडियो में कहा था कि उनकी पार्टी के पार्षद मुस्लिमों के लिए काम नहीं करेंगे। वे अकेले नहीं हैं। हमने ऐसे ही विचार उनकी पार्टी के कुछ अन्य लोगों से भी सुने हैं, जो सोचने-समझने वाले लोगों, उदारवादियों, धर्मनिरपेक्षवादियों, अल्पसंख्यकों, किसानों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को अपना शत्रु मानते हैं। वे इसे भिन्न तरीकों से कह सकते हैं पर यह साफ है कि ऐसे लोग उन्हें अखरते हैं, वे भी जो आधुनिक विज्ञान की भाषा बोलते हैं। उनके लिए ये ‘दूसरे’ हैं- और उन्हें राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। वे पाठ्यपुस्तकें भी बदलना चाहते हैं। यदि उनकी चले तो इतिहास से मुगल अध्याय ही समाप्त हो जाए और उसी तरह ब्रिटिश शासन भी। राजस्थान में कक्षा 10वीं की पाठ्यपुस्तक में छात्रों को पढ़ाया जाता है कि महाराणा प्रताप हल्दीघाटी की लड़ाई जीत गए थे, जबकि अन्य जगहों पर बच्चे सीखते हैं कि वे अकबर की सेना से हार गए थे।
अकबर भी राजस्थान की पाठ्यपुस्तकों से बाहर कर दिए गए हैं। टीपू सुल्तान भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है, जो अंग्रेजों से लड़ते हुए मारा गया था। किसी स्पष्ट कारण के बिना उसे खलनायक बना दिया गया है। लेकिन, बात सिर्फ इतिहास की किताबों की नहीं है। वे डार्विन को भी नकारते हैं। हमारे बच्चे जिन स्कूल-कॉलेजों में पढ़ते हैं उससे संबंधित मानव संसाधन मंत्रालय के जूनियर मंत्री ने डार्विन को फर्जी बताकर उसकी निंदा की। उन्होंने मानव उत्क्रांति के सिद्धांत को पाठ्यपुस्तकों से निकालने की कसम खाई है, क्योंकि उनका दावा है कि वे बरसों से देख रहे हैं पर किसी वानर को मानव होते नहीं देखा (मेरा ख्याल है अब आइंस्टीन निशाने पर होंगे, क्योंकि इसी तर्क से किसी ने e को mc2 होते नहीं देखा।
लेकिन पूर्व पुलिसकर्मी, जो प्राय: मंत्रालय के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति होने की शेखी बघारते हैं वे सत्यपाल अकेले नहीं हैं। पार्टी में कई और हैं, जो बहुत जल्दी में है। उन्हें हमारा संविधान बदलने की जल्दी है। वे सारे मुस्लिमों को पाकिस्तान– और अब बांग्लादेश भेजना चाहते हैं। उन्हें सारे अंतरजातीय, अंतर्धार्मिक विवाह रोकने की जल्दी में हैं। उन्हें दलितों को घोड़े पर बैठकर विवाह करने जाने से रोकने की जल्दी है। उन्हें महात्मा को हटाकर उनके स्थान पर उनके हत्यारों को लाने की जल्दी है। हमारे सामने तो त्रिपुरा के राज्यपाल भी हैं, जो 2002 में गुजरात में मुस्लिमों के मारे जाने को सकारात्मक कार्रवाई बता रहे हैं। त्रिपुरा के मुख्यमंत्री भी कम नहीं हैं। उन्होंने राज्य के युवाओं को सलाह दी है कि वे सरकारी नौकरियों के पीछे न भागे बल्कि घर पर रहे और गाय का दूध निकाले या पान की दुकान खोल लें। वे सिविल सेवा में सिर्फ सिविल इंजीनियर चाहते हैं, क्योंकि उनकी योग्यता काम के अनुरूप है।
जैसे-जैसे हम 2019 के चुनाव के नज़दीक जा रहे हैं, इस तरह का शोर अधिक तीखा, कर्कश और अधिक भड़काऊ होगा, क्योंकि उन्हें रोकने वाला कोई है नहीं। मजे की बात है कि जो बचे हुए सरकार के सहयोगी हैं चुपचाप उससे दूर हो रहे हैं। लेकिन, समस्या यह है कि खेल के नियम बदल गए हैं। हर कोई आगामी चुनाव के लिए पैसे की जुगाड़ में है और जैसा हम जानते हैं पैसा हमेशा सत्ता में होता है। इस तरह यदि विपक्ष राजनीतिक गठजोड़ों और संसाधनों दोनों स्तरों पर काम नहीं करता, तो उन्हें चुनाव बाद के खरीद-फरोख्त के माहौल में मात मिलेगी। मुझे आश्चर्य होता है कि क्यों सरकार नफरत को इतना फैलाना चाहती है। वे उदारवादियों को गोली मारना चाहते हैं, धर्मनिरपेक्षतावादियों को निर्वासित करना चाहते हैं। बुद्धिजीवी तो उनके लिए राष्ट्रविरोधी हैं, मुस्लिम आतंकी। किसान तो लगातार अर्थव्यवस्था को निचोड़ने वाले, इसलिए उनकी जमीन को विकास यानी –बुलेट ट्रेन और हाईवे- के लिए हथिया लेना चाहिए। आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहे सारे एक्टिविस्ट माओवादी हैं। पर्यावरणविद तो तरक्की के दुश्मन है, क्योंकि वे जंगलों की कटाई, मेनग्रोव को उखाड़ने, नदियों पर बांध बनाने का विरोध करते हैं। पत्रकार प्रेस्टीट्यूट हैं।
एनजीओ को भारत के खिलाफ शत्रुता रखने वाली वैश्विक ताकतें पैसा देती हैं। जब तक आप नहीं मानेंगे कि संजय ने टीवी देखकर दृष्टिहीन धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र के युद्ध का वर्णन सुनाया था या गणेशजी ने प्लास्टिक सर्जन से सिर का प्रत्यारोपण कराया था, ऐसे किसी प्रागैतिहासिक भारत के सुनहरे युग में जब आसमान में सुपसॉनिक जेट उड़ते थे और हम ब्रह्मांडों के बीच उड़ान भरने वाले वाहनों में उड़ते थे, जो उस सबसे बहुत आगे की बात थे, जो एलन मस्क सोच रहे हैं, तब तक आप राष्ट्रवादी नहीं हैं। बेशक, धरती भी चपटी है और जब तक आप सारे नास्तिकों को कगार से नीचे नहीं धकेल देते तब तक हम यह पता नहीं लगा पाएंगे कि इतने दुष्कर्मों और लिचिंग और तर्कवादियों की हत्याओं के बाद भारत अतुल्य कैसे है। ऐसे राष्ट्र के लिए जिसने कला और विज्ञान के क्षेत्रों के हमारे समय के महानतम मस्तिष्कों को जन्म दिया यह सब अतिशयोक्तिपूर्ण है। लेकिन, फिर हमने ही इन्हें वोट देकर सत्ता सौंपी है। मुझे नहीं पता कि हमने तब क्या खाकर उन्हें वोट दिए थे। लेकिन, अब पाला बदलने का वक्त है फिर चाहे हमारी जीडीपी कुछ नीचे ही क्यों न गिर जाए और शेयर बाजार को धरती पर ही क्यों न ला दे। शायद एक थोड़ा कम महान, सुरक्षित, तर्कशील भारत इतनी बुरी बात भी नहीं है।
Date:10-08-18
राष्ट्रहित पर भारी पड़ते दलगत हित
प्रदीप सिंह,(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार है)
अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार रोकथाम) संशोधन विधेयक लोकसभा में आम राय से पास हो गया। उम्मीद है कि राज्यसभा से भी इसे मंजूरी मिल जाएगी। मौजूदा राजनीतिक माहौल में किसी विधेयक का आम सहमति से पास होना उपलब्धि से कम नहीं, परंतु यह एक विधेयक हमारी राजनीति, संसदीय व्यवस्था और कानून के राज के बारे में बहुत कुछ कहता है। जनतांत्रिक व्यवस्था में आम सहमति अच्छी बात है, लेकिन उसके साथ ही सवाल यह भी है कि आम सहमति किसलिए और उस आम सहमति से लिए गए फैसले का मकसद क्या है? राजनीति क्या और कैसे-कैसे फैसले करा सकती है, इसका उदाहरण उक्त विधेयक है। ऐसा लगता है पूरी संसद ने मिलकर तय किया कि वह कुछ मामलों में न्याय के सिद्धांत नहीं मानेगी- सर्वोच्च न्यायालय कहेगा तब भी नहीं। संसद के मानसून सत्र में दो बड़ी घटनाएं हुईं। पहली तो यह कि संसद की कार्यवाही चल रही है।
प्रत्यक्ष रूप से उसके दो कारण समझ में आते हैं। एक अविश्वास प्रस्ताव लाकर विपक्ष सरकार के खिलाफ अपने मन की भड़ास निकाल चुका है। हार तो तय थी पर हार के अंतर ने उसका हौसला थोड़ा पस्त किया। दूसरा, उसे समझ में आ गया कि लगातार संसद की कार्यवाही बाधित करने से उसकी नकारात्मक छवि बन रही है। कई राज्यों के विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव के नजदीक होने से इसका राजनीतिक नुकसान हो सकता है। संसद ने बीते दिनों पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाले विधेयक पर मुहर भी लगाई। कई दशकों से यह मांग थी। सभी सरकारें वादा तो करती रहीं, परंतु किसी ने किया नहीं। मोदी सरकार ने इसका बीड़ा उठाया और पूरा किया। यदि कांग्रेस ने राज्यसभा में अड़ंगा न लगाया होता तो इस विधेयक पर बजट सत्र में ही संसद की मुहर लग जाती।
समझना मुश्किल है कि कांग्रेस ने पिछले सत्र में अड़ंगा क्यों लगाया और इस सत्र में समर्थन क्यों किया? इस विधेयक के पास होने पर प्रधानमंत्री ने कहा कि इतिहास में यह सत्र सामाजिक न्याय सत्र के रूप में याद किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने यह भी घोषणा की कि अब हर साल एक से नौ अगस्त तक सामाजिक न्याय सप्ताह मनाया जाएगा। उक्त विधेयक पर मुहर लगाने के बाद लोकसभा में अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार रोकथाम) कानून में बदलाव के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए विधेयक को पारित किया गया। समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े इस वर्ग के लोगों को सुरक्षा देने के लिए कानून बने और सख्त कानून बने, इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती, परंतु यह संशोधन विधेयक जिन परिस्थितियों में सरकार को लाने के लिए मजबूर होना पड़ा वह हमारी राजनीति का विद्रूप चेहरा दिखाती है। सुप्रीम कोर्ट ने सिर्फ इतना कहा था कि इस कानून के तहत गिरफ्तारी से पहले पुलिस अधिकारी इसकी पड़ताल करेंगे कि प्रथमदृष्टया मामला बनता या नहीं? अदालत ने गिरफ्तारी के लिए कुछ शर्तें भी लगाई थीं।
जिस याचिका पर यह फैसला आया उसमें कहा गया था कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। हालांकि यह कोई बहुत वाजिब तर्क नहीं था, क्योंकि दुरुपयोग तो हर कानून का होता है। दहेज विरोधी कानून इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। कुछ समय पहले इसी आधार दहेज विरोधी कानून में भी सुप्रीम कोर्ट ने शिकायत के बाद तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। शायद इसी फैसले से प्रेरित होकर याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट गए थे। यहां तक तो सब ठीक था, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह न तो नैतिक रूप से ठीक था और न ही राष्ट्रहित की दृष्टि से। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विपक्षी दलों और कुछ गैर राजनीतिक संगठनों ने अनुसूचित जाति और जनताति के लोगों को बरगलाया कि मोदी सरकार आरक्षण खत्म करना चाहती है। स्वाभाविक रूप से इसकी प्रतिक्रिया हुई। दो अप्रैल को आंदोलन की घोषणा हुई। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और हिंसा हुई जिसमें कई लोग मारे गए। अनुसूचित जाति-जनजाति के जो लोग इस आंदोलन में शामिल हुए उनसे जब पूछा गया कि प्रदर्शन में क्यों आए हो तो तमाम का जवाब था कि उन्हें बताया गया है कि सरकार आरक्षण खत्म कर रही है।
लोगों को गुमराह करने का यह काम इसके बावजूद हुआ कि 2015 में मोदी सरकार ने ही अनुसूचित जाति-जनजाति के खिलाफ अत्याचार की श्रेणी में आने वाले मामलों की संख्या 22 से बढ़ाकर 47 की थी। इसके अलावा भी सरकार ने इस वर्ग की सुरक्षा और विकास को लेकर कई कदम उठाए, परंतु यहां सवाल इसका नहीं कि सरकार ने क्या किया? सवाल है कि सरकार ने जो नहीं किया उसका झूठा प्रचार करके एक वर्ग को सड़क पर उतरने, सामाजिक समरसता को बिगाड़ने का प्रयास क्यों किया गया? यह केवल वोट के लिए किया गया। यह विपक्ष का अधिकार है कि वह सरकार की कमजोरियों और नाकामियों पर लोगों को लामबंद करे, परंतु समाज और देश के प्रति भी उसकी जिम्मेदारी है।एक झूठे प्रचार के जरिये केंद्र सरकार और अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को आमने सामने खड़ा कर दिया गया। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि कुछ संगठनों ने नौ अगस्त को इसी मुद्दे पर दोबारा भारत बंद का एलान कर दिया। प्रतियोगी राजनीति जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छी है, परंतु यही राजनीति जब राष्ट्रहित पर दलगत हित को तरजीह देने लगती है तो देश और जनतंत्र दोनों का नुकसान करती है।
विपक्षी दलों को लगता है कि यदि दलित समुदाय को भाजपा से अलग कर दिया जाए तो मोदी को रोका जा सकता है। यही कारण है कि उनकी राजनीति कभी दलित-मुस्लिम गठजोड़ की बात करती है तो कभी दलितों पर अत्याचार के मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है। यही राजनीति अपराध में कभी धर्म खोजती है तो कभी जाति। 2014 में कई राज्यों में दलित समाज का एक बड़ा तबका भाजपा के साथ गया। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी यह ट्रेंड बना रहा। इसी कारण दलित अस्मिता के नारे पर बनी बसपा लोकसभा में एक भी सीट नहीं मिली और विधानसभा में वह 19 सीटों पर सिमट गई। भाजपा और संघ की कोशिश है कि समाज का यह तबका उससे स्थाई रूप से जुड़े। आजादी के कई दशक बाद तक कांग्रेस को ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों का थोक में वोट मिलता था। भाजपा की कोशिश है कि उसका सवर्ण, अति पिछड़ा और दलित समीकरण बने जिससे चुनाव जाति पर जाएं तो भी उसे नुकसान न हो। विपक्ष इसी को रोकने के लिए नैतिक के साथ अनैतिक हथकंडे आजमा रहा है।
Date:10-08-18
नियामकों की क्षमता बढ़ाने से ही बन पाएगी बात
सोमशेखर सुंदरेशन, (लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
पिछले लेख में मैंने प्रतिभूति अपील अधिकरण (एसएटी) में रिक्तियों के चलते कामकाज प्रभावित होने का जिक्र किया था। अधिकरण अक्सर आलोचनाओं के घेरे में आ जाते हैं। सवाल उठाया जाता है कि ये अधिकरण स्टाफ से जुड़ी मुश्किलों के बावजूद किस तरह अदालतों की भूमिका निभा पाते हैं। अक्सर इन अधिकरणों की तरफ से बयान आता है कि उन्हें जरूरी स्टाफ नहीं मिल पा रहा है। हालांकि सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में इसका अभाव दिखता है कि अदालतों की तरह काम करने वाले इन अधिकरणों के स्टाफ की नियुक्ति कैसे होती है, उन्हें जरूरी स्टाफ क्यों नहीं मिल रहा है और ये अधिकरण क्या अपनी जिम्मेदारी पूरी करने लायक हैं? पहला, भारत में नियमन ढांचा इस तरह बना है कि हरेक काम के लिए एक नियामक बनाया गया है और उसके फैसलों के खिलाफ अपील की सुनवाई के लिए एक अधिकरण होता है। अधिकरण के फैसलों के खिलाफ अपील सीधे उच्चतम न्यायालय में जाती है। जहां विमर्श मुख्यत: इस पर होता है कि अधिकरण उच्चतर न्यायपालिका का विकल्प बनते जा रहे हैं।
नियामक की व्यवस्था वाले हरेक कानून में नियामक संस्था को दीवानी अदालत की कुछ विशिष्ट एवं सीमित शक्तियां सौंपी जाती हैं। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या ये नियामक न्यायाधीश की भूमिका निभाने और अदालत की तरह इंसाफ दिला पाने के लिए पूरी तरह सक्षम हैं? अमूमन इन कानूनों में एक व्यापक मूलभूत राजाज्ञा निहित होती है कि ‘नियामक प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का अनुसरण करेगा’। लेकिन इसके मायने और वास्तविक कार्य इसे एक बेलगाम घोड़ा बना देते हैं। किसी एक मापदंड से संचालित होने वाले दो नियामक प्रकृति में पूरी तरह जुदा हो सकते हैं। मसलन, रिकॉर्ड का मुआयना करने की इजाजत देने के मामले में दो नियामकों का रवैया पूरी तरह अलग हो सकता है। यहां तक कि एक नियामकीय संस्था के भीतर भी किसी आरोपी को मामले से जुड़े रिकॉर्ड देखने की इजाजत देने को लेकर दो अफसरों की राय अलग हो सकती है। रिकॉर्ड देखने से वंचित होने से खुद को गलत तरीके से आरोपित मानने वाला व्यक्ति अपील अधिकरण का रुख करता है और कई बार यह मामला वर्षों तक चलता रहता है।
दूसरा, नियामकों के गठन का प्रावधान करने वाले कानून आम तौर पर संबंधित मसले पर दीवानी अदालतों के अधिकार-क्षेत्र को दरकिनार कर देते हैं। इसके चलते अक्सर भारी दुविधा की स्थिति बनती है। एक नियामक दंड देने और नियम अनुपालन के साथ ही उपचारात्मक व्यवस्था भी कर सकता है। लेकिन एक नियामक निजी सुनवाई करने, साक्ष्यों को तौलने और मुआवजे के आकलन में सक्षम नहीं होगा। अगर आपको लगता है कि किसी नियामकीय कानून के तहत हासिल आपके अधिकारों का हनन हुआ है और उसके एवज में क्षतिपूर्ति चाहते हैं तो आप नियामक के समक्ष खुद याचिका नहीं दायर कर सकते हैं। अगर आप सीधे नियामक के पास जाते हैं तो वह आपकी याचिका की प्रासंगिकता और दायरे को देखते हुए उसे स्वीकार करने के प्रति अनिच्छुक हो सकता है। यह भी हो सकता है कि वह इसे अपना दायित्व ही न माने।
अगर आप नियामक को इसके लिए मजबूर करना चाहेंगे तो उसके लिए संवैधानिक अदालत में रिट याचिका दायर करनी होगी। अगर नियामक को इस शिकायत पर कार्यवाही शुरू करनी पड़ती है तो संभव है कि सवालों के घेरे में रहे नियामकीय अधिकारी की शिकायतकर्ता और आरोपी व्यक्ति के बीच विरोधात्मक कार्यवाही चलाने की मंशा और चाहत न हो। दूसरी तरफ एक नियामक गलत काम करने वाले शख्स को दंडित करने के लिए सक्षम होगा। नियामक गलत व्यक्ति को उपचारात्मक निर्देश भी दे सकता है। लेकिन विशेष शक्तियों के बगैर नियामक क्षतिपूर्ति के दावे की कार्यवाही नहीं चला सकता है। नियामक को ऐसी शक्तियों से लैस करने के लिए कानून में संशोधन किए जा सकते हैं लेकिन इसमें सावधानी भी बरतनी होगी। असल में आदेश पलटने की शक्ति पहली बार सेबी अधिनियम 1992 में दी गई थी। लेकिन उससे केवल इतना हो सकता है कि गलत काम करने वाला शख्स दोषपूर्ण तरीके से अर्जित लाभ का उपयोग न कर सके।
अगर वह लाभ उसके पास नहीं है तो फिर यह प्रावधान भी उससे वसूली नहीं कर पाएगा। अगर नियामक के पास नुकसान के आकलन और हर्जाने के भुगतान का आदेश देने की शक्ति नहीं है तो सामान्य अदालत के न्याय-क्षेत्र को बेदखल नहीं किया जा सकेगा। हमें अपने नियामकों को सशक्त करने के बारे में सोचने की जरूरत है। यह भी देखना होगा कि नियामक को अदालत की पूरी भूमिका निभानी चाहिए या नहीं। अगर उसे अदालत की भूमिका निभाने के लिए अधिकार सौंपे जाते हैं तो फिर उसी तरह का हंगामा मचेगा जैसा अधिकरणों पर होता है। आज नियामक काफी काम इसलिए कर पाते हैं कि वे भले ही देखने और काम करने में अदालत की तरह हैं लेकिन असल में अदालत नहीं हैं।
आखिर में, प्राकृतिक न्याय के समुचित अनुपालन के लिए गठित निकाय के न्यायिक प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की गंभीर कोशिशें काफी जरूरी हैं। नैसर्गिक न्याय के अनुपालन संबंधी विवादों पर अधिक संसाधन लगाना न केवल समय बल्कि नियामक के वित्तीय संसाधनों का भी अपव्यय है। एक ही नियामकीय संस्था के भीतर उठाए जाने वाले कदमों के बारे में एकरूपता होनी चाहिए। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संघर्ष में जगह तलाशना काफी नहीं है। अगर कार्यपालिका को लगता है कि इसकी एजेंसियां न्यायाधीश की भूमिका निभा सकती हैं तो उसे नियामकों की क्षमता बढ़ाने में निवेश करना चाहिए ताकि निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ, सुदृढ़ और संयमित तरीके
से अदालत की तरह कार्यवाही चल सके।
Date:09-08-18
दो टूक फैसला जरूरी
सुशील कुमार सिंह
भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य को विशेष दरजा प्राप्त है। यह स्थिति अनुच्छेद 370 के तहत है। मगर बीते एक वर्ष से अनुच्छेद 35ए को लेकर कोहराम मचा हुआ है। विभाजन के समय बड़ी संख्या में पाकिस्तान से शरणार्थी भारत आए थे, जिनमें लाखों की तादाद में जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं। अनुच्छेद 35ए के जरिए ही इन सभी भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर सरकार ने स्थायी निवास प्रमाण पत्र से वंचित कर दिया जिनमें 80 फीसद लोग पिछड़े और दलित हिन्दू समुदाय से हैं। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर में विवाह कर बसने वाली महिलाओं और अन्य भारतीय नागरिकों के साथ यहां की सरकार इस अनुच्छेद की आड़ लेकर भेदभाव करती है। इसी को लेकर इसे हटाने की मांग हो रही है। अनुच्छेद 35ए में यह भी है कि अगर जम्मू-कश्मीर की लड़की बाहर के किसी लड़के से शादी करे तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जाएंगे। इतना ही नहीं उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाते हैं।
गौरतलब है कि जब 1956 में जम्मू-कश्मीर का संविधान बनाया गया था, तब स्थायी नागरिकता को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया गया था। संविधान के अनुसार स्थायी नागरिक वह व्यक्ति है जो 14 मई, 1954 को राज्य का नागरिक रहा हो या फिर उससे पहले के दस वर्षो से राज्य में रह रहा हो और वहां संपत्ति अर्जित की हो। इसी दिन तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने एक आदेश पारित किया, जिसके तहत संविधान में अनुच्छेद 35ए जोड़ा गया था। सवाल है कि क्या अनुच्छेद 35ए, अनुच्छेद 370 का ही हिस्सा है, और 35ए को हटाने पर क्या अनुच्छेद 370 स्वयं हट जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 35ए को हटाए जाने को लेकर सुनवाई शुरू हो गई है। अनुच्छेद 35ए को लेकर आरएसएस के नजदीकी गैर-सरकारी संगठन वी द पीपुल्स ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर रखी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि इसी अनुच्छेद के कारण भारतीय संविधान में प्रदत्त समानता के अधिकार के अलावा मानवाधिकार का भी घोर हनन हो रहा है। गौर करने वाली बात है कि अनुच्छेद 35ए के तहत पश्चिमी पाकिस्तान से आकर बसे शरणार्थियों और पंजाब से यहां लाकर बसाए गए वाल्मीकि समुदाय के लोग नागरिकता से वंचित हैं। कश्मीरी पण्डित अनुच्छेद 35ए हटाने के पक्ष में हैं।
उनकी दलील है कि इस अनुच्छेद से हमारी बेटियों को दूसरे राज्य में विवाहित होने के बाद अपने सभी अधिकार जम्मू-कश्मीर से खोने पड़ रहे हैं। हतप्रभ करने वाली बात यह है कि भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 से लागू है, और संविधान के अनुच्छेद 1 में यह स्पष्ट है कि भारत राज्यों का संघ है, और उसी संघ का 15वां राज्य जम्मू-कश्मीर है। पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और तो और सीपीआई (एम) भी अनुच्छेद 35ए को हटाने के पक्ष में नहीं है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन्हें सियासत की चिंता है, वहां के बाशिंदों की नहीं। जम्मू-कशमीर से आईएएस टॉपर रहे शाह फैजल ने भी विवादित ट्वीट किया है, जिसमें उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 35ए हटाने से जम्मू-कश्मीर का भारत से रिश्ता खत्म हो जाएगा। उन्होंने इस रिश्ते को निकाहनामा से जोड़ा है। राजनेता हो या बुद्धिजीवी वर्ग अनुच्छेद 35ए को लेकर अपनी-अपनी व्याख्या में करने में लगा है जबकि वहां के नागरिक मौलिक अधिकार और मानवाधिकार, दोनों के खतरे से जूझ रहे हैं।
अनुच्छेद 35ए जम्मू-कश्मीर की विधानसभा को अधिकार देता है कि वह स्थायी नागरिक की परिभाषा तय कर सके। अब यह अनुच्छेद न्यायालय की शरण में है, और फैसला आने वाले दिनों में जब होगा तभी दूध का दूध और पानी का पानी होगा। फिलहाल, जिस तर्ज पर समस्या बढ़ी है, उसका हल इतना आसान भी प्रतीत नहीं होता। राजनीतिक फलक पर जब अनुच्छेद 370 हटाने की बात जोर पकड़ती थी, तब भी सियासत गरम होती थी, और जम्मू-कशमीर में लोग इसे लेकर सतर्क हो जाते थे। अब अनुच्छेद 35ए को लेकर घाटी में वह सब किया जा रहा है, जिसके चलते वहां का अमन-चैन पटरी से उतरा है। कह सकते हैं कि अब गेंद न्यायालय के पाले में है, और उसका निर्णय ही इस पर रोशनी डालने का काम करेगा। दो टूक बात यह भी है कि जम्मू-कशमीर मुख्यत: कश्मीर अलगाववादियों, आतंकवादियों और स्वार्थपरक सियासतदानों के हाथों खिलौना मात्र बनकर रह गया, यहां के नागरिकों का दोनों हाथों से शोषण हुआ।
Date:09-08-18
Reforming the civil services
The lateral entry scheme has the potential to bring fresh talent to the bureaucracy
Amitabha Bhattacharya, (Amitabha Bhattacharya is a retired IAS officer who has also worked in the private sector and the United Nations. The views expressed are personal.)
A recent move by the Centre seeking applications from ‘outstanding individuals’ to fill in 10 posts of Joint Secretary has caused consternation. A retired bureaucrat has filed a writ petition in the Supreme Court against the decision. The response from applicants, however, has been overwhelming.
Some apprehensions
Many serving Indian Administrative Service (IAS) officers see this move as threatening their hegemony. Some retired officers and political opponents consider this as the beginning of the end of a “neutral and impartial” civil service with the likely induction of loyalists to the current dispensation. It has also been argued that this marks the “privatisation of the IAS”. Doubts have been expressed if private business houses would “plant” their people in order to influence government policies. But the fact remains that most others think this is a bold decision that should be given a fair trial.
Since criticism is based on perception, a reality check is necessary. In our Cabinet system of government with collective responsibility, the secretariat plays a crucial role. The concept of a ‘generalist’ higher civil service can be contextualised against technical/specialised bodies on one side and the lay political executive on top. Political scientists like Prof. M.A. Muttalib have studied this aspect in their works on public administration.
How the Secretariat functions
Higher bureaucracy in the secretariat often has to examine proposals received from specialised departments/corporations (say, the Central Public Works Department, Central Water Commission, various Central public sector undertakings, manned largely by technical experts), and in consultation with other ministries/departments like Finance, Personnel and Law prepare a cohesive note to facilitate the Minister concerned or the Cabinet to take a final decision. This is a complex consultative process for which detailed procedures have been formulated. How to steer a proposal through this labyrinth requires both expertise and experience. A final government decision is obtained, after the file moves through this long internal and hierarchical process, when the proposal is approved. The key officials in the secretariat, from the Joint Secretary to the Secretary, are the point persons guiding this consultative process and advising the political executive to take a final call. How an abstract idea is to be given a concrete, implementable shape is one key concern of such officers.
A Joint Secretary to the government has this crucial “line” function to perform in policy formulation and its implementation. Though the original proposal is often prepared by technical experts and sent to the “government”, the final decision rests with the Joint Secretary/Additional Secretary, the Secretary and finally the Minister/Cabinet. The question often raised, in this context, is whether the higher bureaucracy is equipped to comprehend complex economic and technical issues in order to properly aid and advise the Minister. Can a career civil servant, recruited through a tough competitive examination, cope with the increasingly complex matrix of decision-making at the senior levels of government? Can an IAS officer, however brilliant and diligent she might be, based on her experience at the sub-district and district levels, handle diverse portfolios from civil aviation to power to defence? These are valid questions that have been raised from time to time.
Generalist v. specialist
Evidently, terms like “professionalism”, “specialisation”, and “technical expertise” are often used vaguely and inter-changeably. Doesn’t an IAS officer, after years of experience at the field level, become an expert in public systems? Can the expertise of a doctor or an engineer be of the same nature as that of a policeman or an auditor? Can a renowned oncologist, for example, be suitable to advise on how the health policy of the nation is to be formulated? How valid is the observation to ‘keep experts on tap, not on top’? Admittedly, concerted efforts should be made to help IAS officers, after their first decade of “immersion” in districts, acquire specialisation in broad sectors like social, infrastructure and financial, based on their qualification, aptitude and preference. This idea had never been pursued seriously.
Specialists like engineers, doctors, agricultural scientists, lawyers have always had a substantial say in the decision-making process as also in its implementation. Lateral entry at the level of Secretary has met with some success. Besides, Secretaries to the Departments of Atomic Energy, Science & Technology, Scientific and Industrial Research, Health Research, and Agricultural Research have always been scientists of eminence. Similarly, in departments like the Railways, Posts, etc., all senior positions are manned by Indian Railway or Postal Service officers. Therefore, there is nothing very original in the new initiative to allow entry at the level of Joint Secretary.
However, those inside the system feel threatened that their territory is under assault. One perceived fear is that the number of such lateral entrants may be increased with time and that the political leadership, by creating a ‘divide and rule’ mechanism, would further demoralise the ‘steel frame of governance’. The second related fear is that in the garb of recruiting outstanding individuals, politically indoctrinated persons will be inducted into the system. These fears could have been allayed by letting the Union Public Service Commission (UPSC) handle the recruitment process, after defining the job requirements more explicitly.
The government must ensure that only candidates, the likes of whom are not available in the existing system, are appointed. If they turn out to be truly outstanding, there should be provisions to induct them permanently in the government, with approval of the UPSC, and consider them for higher postings. Ideas have also been advanced for IAS and other officers to gain work experience, for a limited period, in the private sector.
The government should have the best people at the helm of affairs and if there is a need to supplement the existing stock of talent by attracting fresh blood into the system, the IAS, in fact, should welcome such an inclusionary move. The automatic mode of every member of the higher services reaching the top echelons requires a hard look. In view of this recent move, it is hoped that IAS and other officers will introspect why many of them turn out to be indulgent, self-serving and subservient to the political executive and how the system can be shaken to discourage such officers from ceaselessly moving upward, even after retirement. This move to reform the services should have come from within than from without. The lateral entry scheme, if implemented properly, may foster more competitive spirit, break the complacency of the higher civil servants and eventually prove to be a pioneering initiative in public interest.
Date:09-08-18
The Upward Push
Increase in infrastructure spending will place the economy on road to higher growth.
Yoginder K. Alagh,(The writer, a former Union minister, is an economist)
India’s growth rate at around 7 per cent annual makes it a high growth economy. But the inflation rate is just below 5 per cent and is expected to stay there. This then means the interest rate has to be kept at around 7 per cent. The RBI refuses to take chances and at that rate the inflow of funds is maintained with occasional hiccups because nowhere are such returns available. With the late monsoon, sowings are down and the yield effect will be two per cent. The MET is as variable as the weather and has insisted for long on it being a normal kharif until it was untenable and then grudgingly conceded, after Skymet said this monsoon was below normal with an evolving El Nino. The MSP increase was moderately good as compared to last year apart from cane, where the fall was hidden by changing the accounting recovery rate: A manoeuvre which didn’t impress anyone.
The so-called 50 per cent increase added to costs was a no-brainer. The government’s advisers were right in claiming that it was a 50 per cent increase in paid out costs plus family labour. But that meant rental and capital charges were excluded. The more sophisticated experts in the Niti Aayog said these were unearned incomes and so must be excluded. But the industrial and corporate sector is allowed to keep unearned incomes carrying scarcity returns. So why not the kisan? Besides the terms of trade are again moving against agriculture, a trend which M S Swaminathan had in his Farmers Commission used to recommend a more inclusive cost formula.
An economic commentator advising the government has chastised others and the larger business community for using current prices — gross investment series show a fall from 31.3 per cent of GDP to 28.5 per cent. He has called it a fake analysis. In constant prices, it is absolutely correct to point out that the investments have done reasonably well, given the inheritance bequeathed by the UPA. The investment share in GDP in real terms (2011/2012 prices) was 34.3 per cent in FY 2012, 32.6 per cent in FY 2014 and after reaching a low of 30.3 per cent in FY 2016 is now back at 31.4 per cent. But, forgetting about the UPA and NDA, even according to this series at constant prices, investment has fallen by 1.2 per cent of GDP. This year’s trends, in which we are hoping for recovery, have disappointed further. The real issue is whether India can raise investment levels back to around 34 per cent of GDP, which the Niti Aayog has been wanting. The delayed monsoon and the spike in food prices necessitated that the interest rate is kept high.
While the GDP from the manufacturing sector has been showing a reasonable rate of growth, the index of industrial production is again stuttering. The March figures show an improvement but since then the growth rate have again gone down. Public investment shares have fallen more and the decline in private investments has been relatively less. India seems to be at a stage where an increase in infrastructure spending by raising fixed capital formation in the public sector will push the economy to a higher growth path. The problem seems to be that in a pre-election year, this does not seem to be the agenda. The Mehul Choksi episode has been a setback. But that is more a matter of the investigating agency doing their work rather than economic policy. India needs to reinforce faith in the competitiveness of labour intensive Indian exports and skills that underline them. But the more important issue is nudging the macro economy upwards.We are doing well. We need to do better.