10-06-2019 (Important News Clippings)
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Date:10-06-19
सपने देखें व उन्हें पूरा करने का आत्मविश्वास भी विकसित करें
पशु चराने के साथ पढ़ाई की, कड़ी मेहनत देखकर न सिर्फ फ्री कोचिंग मिली बल्कि वहां पढ़ाकर कमाई का मौका भी मिला
वनमती सी. डिप्टी कलेक्टर, नंदूरबार
तमिलनाडु के सत्यमंगलम गांव में बहुत ही गरीब परिवार में मेरा जन्म हुआ। पांचवीं कक्षा तक मैं गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ी। मेरी मां सब्बूलक्ष्मी घरेलू महिला रहीं, घर चलाने के लिए वे कई काम करती थीं, उन्हीं में से एक पशु चराना भी था। मैं भी मां के साथ पशु चराने जाने लगी। कई बार मां अन्य काम में उलझी रहती थीं तो मुझे बड़ी बहन के साथ पशु लेकर जंगल जाना पड़ता था। जब बड़ी हुई तो पढ़ाई की किताबें लेकर मैं अकेली ही पशु चराने जाने लगी। यह सब मेरे लिए सामान्य बात थी, क्योंकि गांव में ऐसा ही होता है। मेरा मन पढ़ाई में खूब लगता था, इसलिए माता-पिता ने पांचवीं के बाद एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में मेरा दाखिला करवा दिया। मेरे पिता चेन्नीयप्पर पेशे से ड्राइवर थे। दोनों मिलकर कड़ी मेहनत करते थे, तब जाकर मुश्किल से हमारा गुजारा हो पाता था। हमेशा घर में गरीबी रहती थी। ऐसे हालात में भी पिता चाहते थे मैं खूब पढ़ूं। मैं जब 10वीं कक्षा में थी तब एक दिन जिला कलेक्टर अतिथि बनकर स्कूल में आए। उन्होंने हायर एजुकेशन के साथ-साथ यूपीएससी के बारे में बताया। बोले- जीवन में कुछ पाना है तो शिक्षा को महत्व दो। मंजिल पाने का एक ही साधन है- शिक्षा। उनकी स्पीच सुनकर, रुतबा देखकर मैं इतनी प्रभावित हुई कि खुद भी कलेक्टर बनने के सपने देखने लगी। इसी के साथ एक लोकप्रिय टीवी सीरियल में आईएएस लेडी अफसर के कारनामे देखकर मेरे मन में उसके जैसी बनने के सपने और मजबूत होने लगे। 12वीं कक्षा पास करने तक मैं पशु चराती रही, अपनी किताबें भी साथ ले जाती थी। मेरे लिए पढ़ने का वही सबसे अच्छा समय होता था।
जब 12वीं पास कर ली तो रिश्तेदार मेरी शादी करने का दबाव बनाने लगे। गांव में ज्यादातर लोग निरक्षर ही थे। हमारे समाज में लड़की जैसे ही कुछ बड़ी होती है, उसकी शादी कर देते हैं। लेकिन मैं आगे पढ़ना चाहती थी। पिता मेरे साथ खड़े हुए तो समाज और रिश्तेदारों की परवाह न करते हुए मैंने कॉलेज में दाखिला ले लिया। अम्मन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएशन के साथ मैं प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी करती रही। प्रतियोगी परीक्षा के लिए मैंने नोट्स बनाए, अखबार की कतरनें जमा कर अपनी फाइल तैयार की। मेरी मेहनत रंग लाई और मैंने बीएससी बहुत अच्छे अंकों से पास की। मैंने चेन्नई जाने का मन बना लिया था। वहां एक सहेली की मदद से शंकर आईएएस अकादमी में मेरा दाखिला हो गया। यहां यूपीएससी की तैयारी कराई जाती थी। मैंने यहां के संचालकों को अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में बताया तो उन्होंने मेरी फीस माफ कर दी। इसके बाद मैंने पढ़ाई में जी-जान लगाकर दिन-रात एक कर दिया।
मेरी एक वर्ष की कड़ी मेहनत देखकर अकादमी ने मुझे अपने यहां शिक्षक के रूप में रख लिया। अब मैं स्टूडेंट्स को पढ़ाने के साथ खुद भी पढ़ती थी, साथ ही मुझे मिलने वाले वेतन से मेरी व परिवार की कुछ मदद होने लगी। आईएएस बनने के लिए मुझे इससे अच्छा अवसर कहां मिलने वाला था? तीन वर्ष मैंने वहां नौकरी की और आईएएस के साथ बैंक की परीक्षा भी दी। मुझे सफलता मिली और इरोड के नम्बीअर इंडियन ओवरसीज बैंक में मुझे असिस्टेंट मैनेजर बना दिया गया। इस नौकरी में पैसे ज्यादा मिलने लगे, लेकिन मेरा मन तो आईएएस बनने को बेताब था। मैंने पहली बार आईएएस परीक्षा दी तो पर्सनालिटी टेस्ट में फेल हो गई। पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते दूसरी बार प्री-एक्जाम पास नहीं कर पाई। तीसरी बार परीक्षा दी तब भी नौकरी के साथ घर की जिम्मेदारियों ने जकड़ रखा था और मेन एक्जाम में फेल हो गई। हर बार कोई मामूली चूक या कुछ अंकों से पिछड़ जाती थी। लेकिन मैंने खुद को कमजोर नहीं होने दिया और पिछली गलतियों से सबक लेकर 2015 में चौथी बार आईएएस की परीक्षा दी तो पिताजी गंभीर बीमार हो गए। जब रिजल्ट आने वाला था तब पिता को लकवा हो गया, उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। यह मेरे लिए बहुत बड़े हादसे के समान था। वे चार महीने भर्ती रहे, मैंने उन्हें अस्पताल में बताया कि मैंने आईएएस परीक्षा पास कर ली है। ऑल इंडिया लेवल पर मेरी 152वीं रैंक आई है। वे खुशी से रो पड़े तो मेरे भी आंसू निकल गए। एक सपना जो पूरा हो रहा था। उन्हें अस्पताल में छोड़कर मैं इंटरव्यू देने गई थी। पिता ने मेरे लिए बहुत संघर्ष किया, जब मेरी बारी आई कि मैं उन्हें सुख के दिन दे सकूं, उसके पहले उनका देहांत हो गया। मैं गम में टूट चुकी थी तभी मेरा ट्रेनिंग शेड्यूल आ गया। उनका आशीर्वाद साथ था। मुझे मसूरी भेज दिया गया। ट्रेनिंग के बाद पहली पोस्टिंग डिप्टी कलेक्टर के रूप में नंदूरबार (महाराष्ट्र) में हुई। यहां का मैंने कभी नाम नहीं सुना था। मार्च 2018 को मैंने इंटीग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट की सहायक कलेक्टर व परियोजना अधिकारी के रूप में ज्वाइन किया।
जब मैं बैंक में नौकरी करती थी, तभी चंद्रमोहन और मेरे बीच प्रेम हुआ। वे बैंक में बड़े अफसर हैं, हमने 2017 में शादी कर ली। अब मैं नंदूरबार में हूं तो पति तमिलनाडु में हैं। पता नहीं हमें कब तक यूं ही दूर-दूर रहना होगा। मुझे सब कुछ सपने जैसा लगता है। हमें सपने देखना चाहिए, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए दृढ़ आत्मविश्वास भी विकसित करना चाहिए। मुझे आगे बढ़ाने के लिए कुछ लोग मिलते गए, उन्हीं की बदौलत मैं यहां हूं।
Date:10-06-19
The Final Frontiers
India must focus on cyber and space war capabilities in its defence modernisation
TOI Editorials
India’s first ever simulated space war exercise dubbed IndSpaceEx, slated to happen in July, underscores the newfound seriousness in thwarting threats posed to our space assets by rival nations. In March, India had launched an anti-satellite (A-Sat) missile to take down an imaging satellite creating a measure of deterrence for vital Indian interests in space that include communications, navigation, earth observation and surveillance satellites. Subsequently, a tri-service Defence Space Agency is taking shape which could even become a Space Command when its space war capabilities mature.
Like in other areas, China has a head start demonstrating its A-Sat capabilities in 2007 and only some days ago launching multiple satellites from a ship at sea. India’s civilian space programme is going great guns, with a human spaceflight and a lunar landing on the anvil. But for too long there has been ambivalence towards channelling some of these advances towards defence requirements, due to residual ‘pacifist’ considerations. However India lives in a tough neighbourhood, sharing borders with nations such as Pakistan and China who are, moreover, specialists in asymmetric warfare. They will look to probe India’s weaknesses rather than play to its strengths.
In future, it could be cyber warfare or space that is used to cripple us if we do not bolster capabilities in these areas. Such changing paradigms also negate the need for a large standing army and even make weaponry like battle tanks 20th century vintage. It is commendable that the Integrated Defence Staff will oversee the space war exercise. But it is unfortunate that we are still a long way away from a unified military command.
Countries like the US and China have seen the operational advantages of integrating the army, air force and navy into various theatres under a single command. Military modernisation is the need of the hour in India, but progress is slow. Too much money is being spent on salaries and pensions, leaving precious little for acquisitions or technology development. General Bipin Rawat’s attempts to trim the army met stiff resistance from within. Shifting focus to cyber and space warfare is also an opportunity to rope in the private sector and create a large vendor pool that can address India’s future defence acquisition needs. Above all, the government must gear the armed forces to fight the battles of this century – rather than the last one.
Date:10-06-19
India’s Tryst With Prosperity
These simple land reforms will unleash blockbuster growth and unclog our courts.
Arghya Sengupta and Lalitesh Katragadda, [ Arghya Sengupta is Research Director, Vidhi Centre for Legal Policy. Lalitesh Katragadda is an Internet pioneer.]
The average farming family in India needs an income of Rs 1.5 lakh per year to be comfortably out of poverty. This needs a combination of hard work, which they are willing to put in, and good practices, which are known. Unfortunately, this also needs access to about Rs 2 lakh of capital investment, which they don’t have. Ordinarily, such access should have been simple with the average farming family owning 2 acres of land, conservatively worth Rs 16 lakh. But there is more to legal ownership of land than meets the eye.
Legally, “property owners” in India are occupiers who happen to have a title document. The title document merely records transfer of title with the imprimatur of the state. What is registered is the deed of transfer, not the authenticity of the title itself. As a consequence, title holders have a presumptive title, not conclusive ownership.
Unsurprisingly, banks rarely treat legal property documents as sufficient collateral for extending loans. In addition to pledging their property, borrowers have to show other assets. This leads to an unfortunate paradox – despite being the seventh largest country in the world by land mass, India is still capital starved, unable to leverage all the land that its citizens own to jumpstart the economy.
The net result is that only about 3% of all private and public land in India is leveraged for capital. Contrast this with the US, where conclusive title and clear boundaries allow 40% leverage – unlocking over $15 trillion of low cost capital – leading to its unarguable position as the world’s largest economy.
The lack of conclusive titles has impact far beyond economics. 66% of civil court cases are land related, clogging our courts. Indians are not safe due to land mafia instigated violence in cities. Peri-urban farmers are systematically driven out of their land by local strongmen. Migrant workers leave their families behind partly with the worry they will lose their property. Women continue to be systematically disenfranchised from ancestral property despite progressive laws.
This is an unfortunate legacy of a monarchical and colonial state which viewed land from the perspective of maximising revenue collection rather than respecting property rights. Under Sher Shah, a standard measure of 1/4th of the total cultivation was collected as revenue. There was little incentive to conclusively determine the rightful owner as long as the cultivator paid their share.
The same system continued under the British. The Madras province had no record of rights, while in Bengal or Bombay which did, the revenue record indicated presumptive ownership so that collection would be smooth. The raison d’etre of the colonial government was simply to collect revenue – it is no coincidence that the chief administrator of the district was called the district ‘collector’!
In a democracy, one might have expected this state of affairs to change. But a permissive colonial acquisition legislation for public purposes (the Land Acquisition Act, 1894) which facilitated large-scale acquisition for roads, dams and factories, seen in the Nehruvian era as the cornerstone of growth in a centralised economy, foreclosed further land reform. The economic potential of conclusive titles for the ordinary Indian to lift her out of poverty was overlooked. It remains unrealised seven decades on.
This state of affairs can be set right with three simple but far-reaching reforms. First, India must move from loose property descriptions by patwaris to digital GPS boundaries tagged to a unique owner. The technology – from centimetre accuracy maps to Aadhaar – exists to facilitate this change. Second, titles must be conclusively guaranteed by the state. This entails the state actually guaranteeing title rather than simply registering deeds.
Third, property documents, subject to safeguards, should be capable of being transferred in a demat form much like shares of a company in the stock market. The proposed registry must be digital, non-repudiable, transparent and voluntary, gently empowering owners to self-activate, migrating their holdings to the safety of a digital registry that potential buyers, banks and courts can safely rely on.
If these three changes are made, even by a conservative estimate of 40% capitalisation, India will unlock more than $4 trillion capital over a decade – dwarfing our FII and FDI flows combined. 150 million farm families will move out of poverty at societal scale. 100 million small-micro businesses will explode with capital-fuelled activity, creating hundreds of millions of jobs.
Startups and large enterprises alike empowered by an emboldened government and large pools of capital will become global industry leaders. The threat of choking a little of the hundred odd billion dollars in FDI, which today is enough to coerce the most well-intentioned governments to enact laws more favourable to international corporations, vanishes. Not only will this capital explosion flowing from conclusive titles increase India’s growth rate by more than 2%, it will be bottom-up, inclusive and freed of the yoke of foreign capital.
At the heart of this proposal is a simple idea – the Indian economy will not grow dramatically simply by infusion of FDI and creation of a few unicorns. It is only on the shoulders of millions of empowered small farmers and micro businesses that real growth is possible. India’s tryst with prosperity depends upon our resolve to give to ourselves, and particularly our farmers, the land we won back in 1947. Seven decades on after Independence, in Bhoomi Swaraj, lies the final realisation of Purna Swaraj.
Date:09-06-19
Population is not a problem, but our greatest strength
Amit Varma
When all political parties agree on something, you know you might have a problem. Giriraj Singh, a minister in Narendra Modi’s new cabinet, tweeted this week that our population control law should become a “movement”. This is something that would find bipartisan support — we are taught from school onwards that India’s population is a big problem, and we need to control it.
This is wrong. Contrary to popular belief, our population is not a problem. It is our greatest strength. The notion that we should worry about a growing populations an intuitive one. The world has limited resources. People keep increasing. Something’s gotta give.
Robert Malthus made just this point in his 1798 book, ‘An Essay on the Principle of Population.’ He was worried that our population would grow exponentially while resources would grow arithmetically. As more people entered the workforce, wages would fall and goods would become scarce. Calamity was inevitable.
Malthus’s rationale was so influential that this mode of thinking was soon called ‘Malthusian.’ (It is a pejorative today.) A 20th-century follower of his, Harrison Brown, came up with one of my favourite images on this subject, arguing that a growing population would lead to the earth being “covered completely and to a considerable depth with a writhing mass of human beings, much as a dead cow is covered with a pulsating mass of maggots.”
Another Malthusian, Paul Ehrlich, published a book called ‘The Population Bomb’ in 1968, which began with the stirring lines, “The battle to feed all of humanity is over. In the 1970s hundreds of millions of people will starve to death in spite of any crash programs embarked upon now.” Ehrlich was, as you’d guess, a big supporter of India’s coercive family planning programs. “I don’t see,” he wrote, “how India could possibly feed two hundred million more people by 1980.”
None of these fears have come true. A 2007 study by Nicholas Eberstadt called ‘Too Many People?’ found no correlation between population density and poverty. The greater the density of people, the more you’d expect them to fight for resources — and yet, Monaco, which has 40 times the population density of Bangladesh, is doing well for itself. So is Bahrain, which has three times the population density of India.
Not only does population not cause poverty, it makes us more prosperous. The economist Julian Simon pointed out in a 1981 book that through history, whenever there has been a spurt in population, it has coincided with a spurt in productivity. Such as, for example, between Malthus’s time and now. There were around a billion people on earth in 1798, and there are around 7.7 billion today. As you read these words, consider that you are better off than the richest person on the planet then.
Why is this? The answer lies in the title of Simon’s book: ‘The Ultimate Resource’. When we speak of resources, we forget that human beings are the finest resource of all. There is no limit to our ingenuity. And we interact with each other in positive-sum ways — every voluntary interaction leaves both people better off, and the amount of value in the world goes up. This is why we want to be part of economic networks that are as large, and as dense, as possible. This is why most people migrate to cities rather than away from them — and why cities are so much richer than towns or villages.
If Malthusians were right, essential commodities like wheat,maize and rice would become relatively scarcer over time, and thus more expensive — but they have actually become much cheaper in real terms. This is thanks to the productivity and creativity of humans, who, in Eberstadt’s words, are “in practice always renewable and in theory entirely inexhaustible.”
The error made by Malthus, Brown and Ehrlich is the same error that our politicians make today, and not just in the context of population: zero-sum thinking. If our population grows and resources stay the same, of course there will be scarcity. But this is never the case. All we need to do to learn this lesson is look at our cities!
This mistaken thinking has had savage humanitarian consequences in India. Think of the unborn millions over the decades because of our brutal family planning policies. How many Tendulkars, Rahmans and Satyajit Rays have we lost? Think of the immoral coercion still carried out on poor people across the country. And finally, think of the condescension of our politicians, asserting that people are India’s problem — but always other people, never themselves. This arrogance is India’s greatest problem, not our people.
Date:09-06-19
जीएम फसलों के जंजाल से किसान बेहाल
प्रमोद भार्गव
दुनिया में शायद भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें नौकरशाही की लापरवाही और कंपनियों की मनमानी का खमियाजा किसानों को भुगतना पड़ता है। हाल ही में हरियाणा के एक खेत में प्रतिबंधित बीटी बैंगन के 1300 पौधे लगाकर तैयार की गई फसल को नष्ट किया गया है। ये फसल हिसार के किसान जीवन सैनी ने तैयार की थी। उसने जब हिसार की सड़कों के किनारे बैंगन की इस पौध को खरीदा तो उसे पता नहीं था कि यह पौध प्रतिबंधित है। जीवन ने सात रुपए की दर से पौधे खरीदे थे। उसने ही नहीं, हिसार के फतेहाबाद, डबवाली के अनेक किसानों ने ये पौधे खरीदे थे। ढाई एकड़ में लगी जब यह फसल पकने लग गई तब कृषि एवं बागवानी अधिकारियों ने यह फसल यह कहकर नष्ट करा दी कि यह प्रतिबंधित आनुवंशिक बीज से तैयार की गई है। इसे नष्ट करने की सिफारिश नेशनल यूरो फॉर प्लांट जैनेटिक रिसोर्स ने की थी। परीक्षण में दावा किया गया कि खेत से लिए नमूनों को आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। जबकि इन अधिकारियों ने मूल रूप से बैंगन की पौध तैयार कर बेचने वाली कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं की। दरअसल जैव तकनीक बीज के डीएनए यानी जैविक संरचना में बदलाव कर उनमें ऐसी क्षमता भर देता है, जिससे उन पर कीटाणुओं, रोगों और विपरीत पर्यावरण का असर नहीं होता। बीटी की खेती और इससे पैदा फसलें मनुष्य और मवेशियों की सेहत के लिए कितनी खतरनाक हैं, इसकी जानकारी निरंतर आ रही है। बावजूद देश में सरकार को धता बताते हुए इनके बीज और पौधे तैयार किए जा रहे हैं।
भारत में 2010 में केंद्र सरकार द्वारा केवल बीटी कपास की अनुमति दी गई है। इसके परिणाम भी खतरनाक साबित हुए हैं। एक जांच के मुताबिक जिन भेड़ों और मेमनों को बीटी कपास के बीज खिलाए गए, उनके शरीर पर रोंए कम आए और बालों का पर्याप्त विकास नहीं हुआ। इनके शरीर का भी संपूर्ण विकास नहीं हुआ। जिसका असर ऊन के उत्पादन पर पड़ा। बीटी बीजों का सबसे दुखद पहलू है कि ये बीज एक बार चलन में आ जाते हैं तो परंपरागत बीजों का वजूद ही समाप्त कर देते हैं। जांचों से तय हुआ है कि कपास की 93 फीसदी परंपरागत खेती को कपास के ये बीटी बीज लील चुके हैं। सात फीसदी कपास की जो परंपरागत खेती बची भी है तो वह उन दूरदराज के इलाकों में है जहां बीटी कपास की अभी महामारी पहुंची नहीं है। नए परीक्षणों से यह आशंका बढ़ी है कि मनुष्य पर भी इसके बीजों से बनने वाला खाद्य तेल बुरा असर छोड़ रहा होगा। जिस बीटी बैंगन के बतौर प्रयोग उत्पादन की मंजूरी जीईएसी ने दी थी, उसे परिवर्धित कर नये रूप में लाने की शुरुआत कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में हुई थी। इसके तहत बीटी बैंगन, यानी बैसिलस थुरिंजिनिसिस जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया था। जीएम बीज निर्माता कंपनी माहिको ने दावा किया था कि जीएम बैंगन के अंकुरित होने के वत इसमें बीटी जीन इंजेशन प्रवेश कराएंगे तो बैंगन में जो कीड़ा होगा वह उसी में भीतर मर जाएगा। इसलिए इसकी मंजूरी से पहले स्वास्थ्य पर इसके असर का प्रभावी परीक्षण जरूरी था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के प्रसिद्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने करंट साइंस पत्रिका में लेख लिखकर चेतावनी दी थी कि बीटी बीज की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म ‘मट्टुगुल्ला’ बुरी तरह प्रभावित होकर लगभग समाप्त हो जाएगी। बैंगन के मट्टुगुल्ला बीज से पैदावार के प्रचलन की शुरुआत 15वीं सदी में संत वदीराज के कहने पर मट्टू गांव के लोगों ने की थी। इसका बीज भी उन्हीं संत ने दिया था।
बीटी बैंगन की ही तरह गोपनीय ढंग से बिहार में बीटी मका का प्रयोग शुरू किया गया था। इसकी शुरुआत अमेरिकी बीज कंपनी मोंसेंटो ने की थी। लेकिन कंपनी द्वारा किसानों को दिए भरोसे के अनुरूप जब पैदावार नहीं हुई तो किसानों ने शर्तों के अनुसार मुआवजे की मांग की। किंतु कंपनी ने अंगूठा दिखा दिया। जब मु यमंत्री नीतीश कुमार को इस चोरी-छिपे किए जा रहे नाजायज प्रयोग का पता चला तो उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय की इस धोखे की कार्यप्रणाली पर स त एतराज जताया। नतीजतन बिहार में बीटी मका के प्रयोग पर रोक लग गई लेकिन हरियाणा सरकार कंपनियों के विरुद्ध स ती दिखाने में नाकाम रही।
मध्य प्रदेश में बिना जीएम बीजों के ही अनाज व फल-सजियों का उत्पादन बेतहाशा बढ़ा है। अब कपास के परंपरागत बीजों से खेती करने के लिए किसानों को कहा जा रहा है। इन तथ्यों को रेखांकित करते हुए डॉ. स्वामीनाथन ने कहा है कि तकनीक को अपनाने से पहले उसके नफानुकसान को ईमानदारी से आंकने की जरूरत है।
Date:09-06-19
जनसांख्यिकी में बदलाव के मायने
टी वी मोहनदास पाई
चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4), 2015-16 के आंकड़ों ने आधुनिक भारतीय जनसांख्यिकी में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत दिया है। इतिहास में पहली बार भारत की कुल प्रजनन दर घटकर (टीएफआर) 2.18 रह गई है, जो वैश्विक प्रतिस्थापन दर (2.30) से कम है।
विकसित देशों में, जहां उच्च स्वास्थ्य मानक के चलते बाल मृत्यु दर कम है, संयुत राष्ट्र के मुताबिक, प्रतिस्थापन दर 2.1 निर्धारित है। चूंकि एनएफएचएस-4 के लिए सर्वेक्षण वर्ष 2013-15 में किया गया था, हमने यह निर्धारित करने के लिए टीएफआर की प्रवृति का अनुसरण किया कि मार्च 2019 तक भारत का टीएफआर लगभग 2.0 तक गिर गया होगा, जो विकसित देश की प्रतिस्थापन दर से और भी पीछे होगा। यह चौंकाने वाला है और आने वाले वर्षों में एनएफएचएस-5 द्वारा इसकी पुष्टि होनी चाहिए, जिसके लिए इन दिनों सर्वेक्षण चल रहे हैं। बड़ी आबादी वाला भारत ऐसे देश के रूप में माना जाता रहा है, जिसे बड़ी जनसांख्यिकी का लाभ मिलेगा। पहले जैसे जनसंख्या वृद्धि चरम पर पहुंच चुकी थी, वैसे ही आज हमें यह जानने की जरूरत है कि हमारे युवाओं की जनसंख्या में आज गिरावट आ रही है। जनसंख्या वृद्धि का चरम दौर बीत चुका है। वर्तमान आबादी को बदलने के लिए भारत में पर्याप्त बच्चों का जन्म नहीं होने वाला। एनएफएचएस-4 के जनसंख्या पिरामिड को देखें, तो पता चलता है कि पिछले दस वर्षों में बहुत कम बच्चे जन्मे हैं।
भारतीय इतिहास में पहली बार जनसंख्या पिरामिड उलट गया है। गिरावट की यह दर आने वाले वर्षों में और तेज होने की ही आशंका है। इसका मतलब यह नहीं कि देश की जनसंख्या तेजी से घटेगी, योंकि स्वास्थ्य संकेतकों में सुधार से दीर्घायु में सुधार हुआ, जो कि 60 वर्ष से अधिक आयु के नागरिकों की बढ़ती आबादी से दिख रहा है। पंद्रह वर्ष से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत एनएफएचएस-3 के 35 फीसदी से घटकर एनएफएचएस-4 में 29 फीसदी रह गया है। इसके विपरीत साठ वर्ष और उससे ज्यादा उम्र के लोगों की आबादी एनएफएचएस-3 के नौ फीसदी से बढ़कर एनएफएचएस-4 में 10 फीसदी तक पहुंच गई है। भारत अब बुजुर्ग लोगों का देश होने के कगार पर है, जहां हम अगले कुछ दशकों में देश की औसत आयु बढऩे की उम्मीद कर सकते हैं।
यहां एक महत्वपूर्ण सवाल पैदा होता है कि या भारत समृद्ध होने से पहले ही बूढ़ा हो जाएगा। यह जन जनसांख्यिकी बदलाव एक महत्वपूर्ण घटना है, जो आने वाले दशकों में राष्ट्रीय नीतियों को महत्वपूर्ण रूप से आकार देगी, जिससे सरकार को कुछ कठिन निर्णय लेने होंगे। या देश का कामकाजी वर्ग लंबी उम्र के वरिष्ठ नागरिकों के बढ़ते वर्ग के भरण-पोषण के लायक पर्याप्त धन का अर्जन कर सकेगा, जो तेजी से पेंशन पर निर्भर रहेगा? चीन पिछले कुछ दशकों में अपने शानदार आर्थिक प्रदर्शन के कारण कुछ हद तक ऐसा करने में सक्षम था। हालांकि भारत की जनसंख्या में गिरावट उस तेजी से नहीं होगी, जिस तेजी से चीन में हुई। भारत को भी जनसंख्या नियंत्रण के लिए नीतियों से परे और तेज गति से धन बनाने की दिशा में आगे बढऩा होगा। कुछ उपाय हो सकते हैं, जिसे सरकार को प्राथमिकता देने की जरूरत हैसबसे पहले तो कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ानी होगी। देश के श्रमिक वर्ग द्वारा धन सृजन की क्षमता बढ़ाने के लिए भारत को अधिक से अधिक महिलाओं को कार्यबल में शामिल करना होगा। विश्व बैंक की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2018 में भारत में कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी 27 फीसदी थी, जबकि वैश्विक औसत 48.5 का है। आईएमएफ रिसर्च के मुताबिक, कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के स्तर तक बढ़ाने से भारत की जीडीपी 27 फीसदी बढ़ सकती है और वे हर वर्ष भारत की जीडीपी वृद्धि में योगदान कर सकती हैं।
ऐसे ही, बदलती जनसांख्यिकी को देखते हुए सामाजिक सुरक्षा बढ़ाने की जरूरत है। पेंशन योजनाओं में निवेश को प्रोत्साहन देना भारत के लिए सर्वोपरि है। हर दस भारतीय श्रमिक में से आठ अनियोजित क्षेत्र में काम करते हैं, जिनकी सेवानिवृत्ति बचत खातों तक सीमित पहुंच है। इसके अलावा, एक बढ़ता हुआ मध्यवर्ग बढ़ती मजदूरी दर और जीवन की गुणवत्ता में सुधार देख रहा है, जिसके परिणामस्वरूप सेवानिवृत्ति आय में वृद्धि की उम्मीद होगी। यह गतिशीलता का वही परिणाम होगा, जिसकी भविष्यवाणी विश्व आर्थिक मंच ने की थी कि सभी बड़ी आबादी वाले देशों में सेवानिवृत्ति बचत अंतराल में उच्चतम वृद्धि (10 फीसदी संयुत वार्षिक विकास दरसीएजीआर) होगी।