10-05-2019 (Important News Clippings)

Afeias
10 May 2019
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Date:10-05-19

Danger Signals on the World Economy

India,too,to feel effects of US muscle-flexing

ET Editorials

Markets are down, not just in India but around the world, thanks to a fresh boost to trade tensions between the US and China, Iran’s announcement that it will resume uranium enrichment and North Korea’s latest missile tests. Unless things turn around, the only saving grace is that the combined effect of these developments would be to add strength to the US Fed’s dovish inclinations. Once again, the world is paying a price for US President Donald Trump’s capricious flexing of America’s superpower muscle over friend and foe alike.

President Trump has declared that 25% import tariffs on Chinese goods would kick in from Friday, unless the Chinese abandon their perceived effort to go back on initial agreements. While he is mistaken about who would bear those tariffs — the Chinese are paying us those tariffs, his tweet said, quite oblivious to the reality that US importers would bear the tariffs, if they continue with their imports — there is little doubt about his ability to harm Chinese producers, American consumers and multinational companies, including American ones, parts of whose supply chains are located in China. Iran’s declaration of a two-month deadline for European signatories to the Iran nuclear deal to find a way to shield it from US sanctions has met with bluster about European reluctance to work under any ultimatum. The Europeans, it would appear, do have a taste for blackmail, but only when it comes from across the Atlantic. The US has warned European business against dealing with the special purpose vehicle the EU is setting up to transact with Iran. A miffed China could ease the pressure on North Korea by resuming trade with it, and frustrate Trump’s Korean plans.

The net result is aggravation of the global economic climate and added risk of rising oil prices and a global slowdown at a time when there is little monetary room in the developed world to combat recession. India has no choice but to be even more disciplined on macroeconomic stability and rely even more on domestic investment and consumption to kickstart growth.


Date:10-05-19

स्टार्टअप के प्रयासों पर नए सिरे से जो

देश में बहुत बड़ी संख्या में एंजेल निवेशक तैयार करने की अवश्यकता है। ऐसा करके ही देश में स्टार्टअप को नए सिरे से गति प्रदान की जा सकती है।

अजित बालाकृष्णन

देश के राजनेता और नौकरशाह इन दिनों ‘स्टार्टअप’ शब्द को उतने ही उत्साह से बुदबुदाते हैं, जिस उत्साह से एक जमाने में लोग एक दूसरे को ‘राम-राम’ किया करते थे। उनको उम्मीद है कि वे जिस स्टार्टअप भगवान की पूजा अर्चना कर रहे हैं, वह किसी न किसी तरह तमाम युवाओं को अपना अनुयायी बना लेंगे और उनका ध्यान रोजगार जैसी चीजों से हटा देंगे ताकि वे उन पर पर्याप्त रोजगार नहीं तैयार करने का आरोप न लगाएं। शायद अब वक्त आ गया है कि हम इस उत्साही प्रार्थना से विराम लें और यह समझने का प्रयास करें कि स्टार्टअप का पूरा खेल दरअसल है क्या? क्या इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि किसी भी नए शुरू किए गए छोटे कारोबार के लिए इस शब्द का इस्तेमाल किया जाता है? क्या स्टार्टअप शब्द का इस्तेमाल केवल कंप्यूटर से संबंधित नए कारोबारों के लिए ही किया जाता है? यानी किसी रेस्तरां या नई किराना दुकान या रियल एस्टेट एजेंट का कारोबार स्टार्टअप नहीं कहा जा सकता? जब कोई कारोबारी परिवार अपने बेटे या बेटी को आर्थिक मदद कर उसे नया कारोबार स्थापित करने में सहायता करता है तो क्या उसे स्टार्टअप कहा जा सकता है? क्या कोई मशीन की दुकान जो अनुबंध के आधार पर मशीन का काम करती हो, उसे स्टार्टअप माना जा सकता है? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या केवल चुनिंदा प्रकार के नए कारोबारों को ही स्टार्टअप कहा जा सकता है और क्या सभी नए कारोबार उस श्रेणी में नहीं आते?

इन सवालों का जवाब देने की शुरुआत करने के लिए हमें कुछ और मूलभूत सवाल करने होंगे: उद्यमी (जो स्टार्टअप चलाते हैं) पैदा होते हैं या बनते हैं? क्या सफल उद्यमी ज्यादातर 20 से 30 की उम्र के होते हैं? क्या ऊंची शैक्षणिक डिग्री स्टार्टअप उद्यमियों की सहायता करती है या उनकी राह में बाधा खड़ी करती है? एक अनिवासी भारतीय उद्यमी विवेक वाधवा, जिन्होंने कई वर्षों तक इन मुद्दों पर अध्ययन किया है, वह अमेरिकी उद्यमियों के विषय में कहते हैं, ‘सिलिकन वैली के उद्यमियों में से 52 फीसदी अपने परिवार में कारोबार करने वाले शुरुआती लोग थे।’ वह आगे मार्क जुकरबर्ग, स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स, जेफ बेजोस, लैरी पेज, सर्गेई ब्रिन और जॉन कुम का उदाहरण देते हुए कहते हैं इनमें से कोई भी कारोबारी पृष्ठभूमि से नहीं आया। उनके माता-पिता दंत चिकित्सक, शिक्षाविद, अधिवक्ता, फैक्टरी कामगार अथवा पादरी थे। वह यह भी कहते हैं कि आम धारणा के तहत जहां माना जाता है कि 20 से 30 की अवस्था के लोग सफलतापूर्वक स्टार्टअप चलाते हैं, वहीं मार्क बेनिऑफ ने जब सेल्सफोर्सडॉटकॉम की स्थापना की तो वह 35 वर्ष के थे। रीड हॉफमैन ने जब लिंक्डइन की स्थापना की तब वह 36 वर्ष के थे। ऐपल कंपनी में स्टीव जॉब्स के सबसे अहम अविष्कार आईमैक, आईट्यून, आईपॉड, आईफोन और आईपैड तब सामने आए जब वह 45 की उम्र के हो चुके थे।

हमारे देश में स्टार्टअप उद्यमियों को जिस सबसे बड़ी बाधा का सामना करना पड़ता है, वह है शुरुआती स्तर पर पूंजी मुहैया कराने वालों यानी एंजल इन्वेस्टर्स की कमी। ये वे लोग होते हैं जो किसी भी स्टार्टअप को एकदम आरंभ में 50 लाख रुपये से एक करोड़ रुपये तक की पूंजी देते हैं ताकि उद्यमी अपने उत्पाद का प्रादर्श बना सके और चुनिंदा शुरुआती ग्राहकों के बीच उसका परीक्षण कर सके। ऐसी फंडिंग उस वक्त और बेहतर तरीके से काम करती है जब यह ऐसे व्यक्ति की ओर से आए जो युवा उद्यमियों को उनके शुरुआती ग्राहकों से जोड़ सके। हमारे कर कानून जिस प्रकार तैयार किए गए हैं, उन्हें देखते हुए यह बेहद मुश्किल है कि ऐंजल निवेशक स्टार्टअप के शुरुआती घाटे की भरपाई अपनी आय से करे। इसके लिए आयकर अधिनियम की धारा 10 (2ए) में मामूली बदलाव किया जा सकता है। यह धारा सीमित दायित्व साझेदारी वाली फर्म पर लागू होती है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा कोई व्यापारिक संगठन नहीं है जो इसके लिए लॉबीइंग कर सके। ऐसा इसलिए कि अधिकांश व्यापारिक संस्थानों पर ऐसे पारिवारिक कारोबारों का दबदबा रहता है जिन्हें स्टार्टअप फंड की आवश्यकता नहीं होती। उनका परिवार ही उन्हें धन मुहैया करा देता है।

यहां तक कि राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) के फंडिंग संबंधी दस्तावेज बताते हैं कि एनएसडीसी ऋण के रूप में फंडिंग मुहैया कराने को प्राथमिकता देगा। वह यह भी कहता है कि प्रवर्तक का योगदान निवेश आवश्यकता के 25 फीसदी के बराबर होना चाहिए। इतना ही नहीं मूल शुल्क स्थगन तीन वर्ष का होना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी तरह का शुल्क स्थगन या ब्याज नहीं दिया जाना चाहिए। इसे इस तथ्य के साथ पढ़ें कि 90 फीसदी स्टार्टअप नाकाम हो जाते हैं। जाहिर है किसी उद्यम के लिए इन शर्तों पर ऋण लेना आत्मघाती है। स्टार्टअप के बारे में एक अन्य पहलू जिसकी हमारे नीतिकार अक्सर अनदेखी करते हैं, वह यह है कि परिभाषा के आधार पर तो यह उभरती तकनीक का क्षेत्र है। यानी स्टार्टअप ऐसी तकनीक से संबंधित नहीं होते जो लंबे समय से अस्तित्व में हो और जो जिंस की तरह आसानी से उपलब्ध हो। बावजूद अगर आप केंद्र सरकार और कई राज्य सरकारों द्वारा बढ़ावा दिए जा रहे कौशल को देखेंगे तो उनसे यह स्पष्ट है कि इनमें से कोई भी कौशल आज स्टार्टअप का आधार नहीं बन सकता है। आज किसी भी स्टार्टअप की अवधारणा काफी हद तक डेटा विज्ञान और मशीन लर्निंग से संबद्घ है।

हमने शुरुआत में एक प्रश्न किया कि क्या स्टार्टअप चलाना रेस्तरां खोलने, किराना दुकान चलाने या अचल संपत्ति कारोबार से अलग है? इसका उत्तर यह है कि स्टार्टअप का अर्थ ही है कोई ऐसा उद्यम जिसके पीछे के मूल कारोबारी विचार को उन्नत तकनीक, कंप्यूटर, इंटरनेट, डेटा विज्ञान, मशीन शिक्षण, जैव प्रौद्योगिकी आदि का समर्थन मिल रहा हो और इनकी सहायता से वह आम भारतीयों की रोजमर्रा की समस्याओं के निराकरण का एकदम नया तरीका तलाश कर लाया हो। अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसे स्टार्टअप उद्यमी ज्यादातर 30 वर्ष के आसपास की उम्र के होंगे या फिर ज्यादा से ज्यादा 40 की उम्र के शुरुआती पड़ाव पर। बहुत संभव है इनके माता-पिता चिकित्सक, अधिवक्ता, शिक्षाविद आदि हों और उनके परिवार में पहले से कोई कारोबारी माहौल नहीं हो। ऐसे उद्यम शुरू करने के लिए जरूरी पूंजी एंजेल निवेशकों की जोखिम पूंजी से आती है। ऐसा केवल तभी हो सकता है जब हम कर किफायत वाले एंजेल निवेशक तैयार करें और उनके पास इस क्षेत्र में निवेश की विशेषज्ञता हो। जरा कल्पना कीजिए एक ऐसे भारत की जहां हजारों एंजेल निवेशक स्टार्टअप उद्यमी बनने की राह पर हों।


Date:10-05-19

परीक्षाओं में सौ फीसदी अंक किस ओर इशारा करते हैं ?

संपादकीय

परीक्षा परिणाम आने के साथ ही इस बार एक नई फुसफुसाहट सुनाई देने लगी है। यह फुसफुसाहट कम नहीं, बल्कि ज्यादा अंकों को लेकर सुनाई दे रही है। भले ही चंद लोग हैं, लेकिन सवाल उठाने लगे हैं कि आखिर बच्चे शत-प्रतिशत अंक कैसे ला सकते हैं? सवाल बच्चों की मेहनत या काबिलियत पर नहीं, बल्कि कॉपी जांचने की प्रक्रिया और प्रणाली पर उठाए जा रहे हैं। बहस खड़ी हो रही है कि क्या अब अचानक हमारे बच्चे इतने काबिल, पढ़ाकू और मेहनती हो गए हैं कि उनके लिए 90 फीसदी से ज्यादा अंक हासिल करना बाएं हाथ का खेल हो गया है? जबकि पहले अच्छे से अच्छे प्रतिभाशाली बच्चे के लिए भी 70-75 प्रतिशत अंक लाना गौरव की बात हुआ करती थी। क्या इतने ज्यादा अंक सिर्फ प्रश्न-पत्र के पैटर्न बदलने या कॉपी जांचने के तरीके का नतीजा है या वाकई बच्चे रचनात्मकता के शीर्ष पर आ खड़े हुए हैं? अगर ऐसा है तब तो सुकूनदायक है, लेकिन अगर सिर्फ सिस्टम बदलने की वजह से ऐसा हो रहा है, तो हम एक पूरी पीढ़ी को अंधेरे रास्ते पर धकेल रहे हैं, जहां से लौटना इसके लिए नामुमकिन होगा।

अभी कुछ दिन पहले ही संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) के नतीजे भी आए थे, जिसमें कनिष्क कटारिया ने टॉप किया है, लेकिन शायद कम ही लोगों को जानकारी होगी कि कनिष्क को सिर्फ 55.35 फीसदी अंक ही मिले थे। यहां टॉपर के 55.35 प्रतिशत अंकों को भी सिर्फ इसलिए लिखा जा रहा है, क्योंकि ये 99.99 या 100 फीसदी के सामने तो लगभग आधे ही हैं। हां, यहां यह तर्क जरूर दिया जा सकता है कि यूपीएससी देश की सबसे कठिन परीक्षा होती है, इसलिए उसमें ज्यादा अंकों की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि यूपीएससी में सबसे प्रतिभावान विद्यार्थी ही सफल हो पाते हैं। यहां यूपीएससी या स्कूली परीक्षाओं को एक तराजू पर तौलने की कोशिश भी नहीं की जा रही है। आखिर दोनों ही परीक्षाओं का मनोविज्ञान और मकसद पूरी तरह अलग है, इसलिए ऐसा किया भी नहीं जा सकता। यह उदाहरण सिर्फ इसलिए दिया जा रहा है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि स्कूली परीक्षा की पूरी प्रणाली ही सिर्फ अंकों पर केंद्रित होकर रह गई है। विद्यार्थी अंक तो भरपूर ला रहे हों, लेकिन विषय को लेकर उनकी समझ अंकों के अनुरूप ही विकसित न हो पा रही हो! अगर ऐसा है तो हमें नए सिरे से और तत्काल इस गंभीर विषय की ओर ध्यान देना होगा।


Date:10-05-19

विचित्र नियुक्ति व्यवस्था

यह कोलेजियम व्यवस्था का ही परिणाम है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद के आरोप उछलते रहते हैं।

संपादकीय

न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार में मतभेद की खबरें एक बार फिर सतह पर हैैं। इस पर हैरानी नहीं। ऐसे मतभेद पहले भी सामने आएं हैैं और यह तय है कि आगे भी तब तक आते रहेंगे जब तक वह कोलेजियम व्यवस्था बनी रहती है जिसमें न्यायाधीश ही न्यायाधीशों को नियुक्त करते हैैं। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट के कोलेजियम ने झारखंड और गुवाहाटी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को शीर्ष अदालत में प्रोन्नत करने की जो सिफारिश की थी उस पर सरकार ने नए सिरे से विचार करने को कहा, लेकिन उसके पास वही नाम फिर से भेज दिए गए। अब सरकार के पास इन नामों को मंजूर करने के अलावा और कोई उपाय नहीं। क्या यह विचित्र नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार के पास अधिकार के नाम पर मात्र यह करने को है कि वह कोलेजियम की ओर से भेजे गए नामों को हरी झंडी दे दे? यह तो मुहर भर लगाने वाला काम हुआ।

नि:संदेह यह कहना कठिन है कि कोलेजियम की ताजा सिफारिश पर सरकार की आपत्ति कितनी उचित थी, लेकिन यह ठीक नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करें और इस क्रम में पारदर्शिता के लिए कहीं कोई स्थान भी नजर न आए। क्या कोई इसकी अनदेखी कर सकता है कि कुछ समय पहले खुद कोलेजियम ने उन न्यायाधीशों के नाम प्रोन्नति सूची से बाहर कर दिए थे जिन्हें खुद उसने ही तय किए थे? चूंकि इस मामले में न्यायाधीशों की वरिष्ठता की भी अनदेखी की गई थी इसलिए बार कौंसिल के साथ सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने भी सवाल खड़े किए, लेकिन कोई संतोषजनक जवाब सामने नहीं आया। क्या इससे न्यायपालिका की गरिमा और प्रतिष्ठा बढ़ी?

निश्चित तौर पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहनी चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की एक ऐसी प्रक्रिया जारी रहे जिसका संविधान में उल्लेख ही नहीं। यह उल्लेखनीय है कि दुनिया के किसी भी प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करते, लेकिन भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के नाम पर ऐसा ही है। क्या अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि के बारे में यह कहा जा सकता है कि इन देशों की न्यायपालिका भारत से कम स्वतंत्र हैै? चिंताजनक केवल यह नहीं है कि वह कोलेजियम व्यवस्था बनी हुई है जिसे खुद सुप्रीम कोर्ट ने दोषपूर्ण माना था, बल्कि यह भी है कि इस व्यवस्था के दोष दूर करने का काम नहीं हुआ।

कोलेजियम व्यवस्था के दोष दूर करने की बात न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को निरस्त करते वक्त कही गई थी। इस कानून को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह गैर संवैधानिक है, लेकिन यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि आखिर कोलेजियम की व्यवस्था संविधान के अनुरूप कैसे है ? यह कोलेजियम व्यवस्था का ही परिणाम है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद के आरोप उछलते रहते हैैं। एक ऐसे समय जब समूची न्यायपालिका में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट को बहुत कुछ करना है तब यह देखना दयनीय है कि वह जजों की नियुक्ति के मसले को ही सुलझा पाने में नाकाम है।


Date:09-05-19

दावेदारी और अवरोध

संपादकीय

भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के लिए फ्रांस ने पुरजोर तरीके से समर्थन किया है। भारत को फ्रांस का यह समर्थन इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए कि सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के लिए भारत की दावेदारी का समर्थन तो तमाम देश करते रहे हैं, लेकिन उसे ‘बेहद जरूरी’ किसी ने नहीं बताया। हाल में संयुक्त राष्ट्र में फ्रांस के स्थायी प्रतिनिधि फ्रैंकॉइस डेलातरे ने कहा कि मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाना ‘बेहद जरूरी’ है। फ्रांस के इस समर्थन ने वैश्विक राजनीति में भारत के महत्त्व को तो रेखांकित किया ही है, साथ ही सुरक्षा परिषद के विस्तार की जरूरत भी साफ कर दी है। इससे यह भी पता चलता है कि अब दुनिया के विकसित राष्ट्रों में भारत की अहमियत को स्वीकार किया जा रहा है और सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य भी कहीं न कहीं यह महसूस कर रहे हैं कि परिषद का विस्तार कर भारत को स्थायी सदस्य बनाया जाना चाहिए। फ्रांस खुद सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और अब इस वैश्विक संस्था में सुधार के लिए आवाज उठा रहा है लेकिन कुछ राष्ट्र अपने हितों की वजह से इसे होने नहीं देना चाहते।

यों संयुक्त राष्ट्र में सुधार को लेकर लंबे समय से मांग चल रही है। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद बनी इस वैश्विक संस्था की स्थापना के समय से ही इस पर महाबलियों का कब्जा रहा है। वीटो की शक्ति से संपन्न ये राष्ट्र आज भी जिस तरह दुनिया को हांक रहे हैं, वह हैरान करने वाला है। इससे कुल मिला कर स्थिति यह बनी हुई है कि ज्यादातर राष्ट्रों के लिए यह संस्था एक मुखौटे से ज्यादा साबित नहीं हो रही। अंतरराष्ट्रीय महत्त्व के मसलों पर जब भी कोई अंतिम निर्णय की बात आती है तो पांच देशों का ही मत उसमें काम करता है। इस वक्त अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं। अगर किसी भी मामले में इनमें से एक भी सदस्य वीटो के अधिकार का उपयोग कर लेता है तो वह मसला निर्णायक बिंदु पर नहीं पहुंच पाता। जैसे जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने का मामला सिर्फ चीन के वीटो की वजह से सिरे नहीं चढ़ पा रहा था। इसलिए अगर सुरक्षा परिषद का विस्तार होता है तो इसके फैसले ज्यादा तर्कसंगत हो सकेंगे। फ्रांस ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए भारत के साथ ही जर्मनी, ब्राजील और जापान को भी स्थायी परिषद में जगह देने की वकालत की है। इसके अलावा, अफ्रीकी देशों में से भी सुरक्षा परिषद की नुमाइंदगी जरूरी समझी जा रही है। फ्रांस को आज यह बेहद जरूरी इसलिए भी लग रहा है कि वह अमेरिकी दबदबे के दूरगामी प्रभावों को समझ रहा है।

हालांकि सुरक्षा परिषद में किसी भी तरह का विस्तार बिना चार्टर में संशोधन किए नहीं हो सकता और चार्टर में संशोधन के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा में दो-तिहाई सदस्य देशों का समर्थन जरूरी है। इसके अलावा इस संशोधन को बाद में पांचों स्थायी सदस्य देशों के दो तिहाई सदस्य देशों की हरी झंडी भी चाहिए। लेकिन भारत के लिए यह आसान इसलिए नहीं है कि चीन इसका विरोध करेगा, यह किसी से छिपा नहीं है। स्थायी सदस्यता के मसले पर द्विपक्षीय वार्ताओं में तो रूस भारत की उम्मीदवारी का समर्थन करता है, लेकिन बहुपक्षीय स्तर पर विस्तार की प्रक्रिया का विरोध करता है। यह भारत के लिए बड़ा अवरोध है। ऐसे में भारत के लिए स्थायी सदस्यता की राह असान नहीं लगती।


Date:09-05-19

Circle of life 

Biodiversity assessments must be factored into all economic activity.

EDITORIAL

The overwhelming message from the global assessment report of the Intergovernmental Science-Policy Platform on Biodiversity and Ecosystem Services (IPBES) is that human beings have so rapaciously exploited nature, and that species belonging to a quarter of all studied animal and plant groups on earth are gravely threatened. If the world continues to pursue the current model of economic growth without factoring in environmental costs, one million species could go extinct, many in a matter of decades. Catastrophic erosion of ecosystems is being driven by unsustainable use of land and water, direct harvesting of species, climate change, pollution and release of alien plants and animals in new habitats. While ecosystem losses have accelerated over the past five decades universally, there is particular worry over the devastation occurring in tropical areas, which are endowed with greater biodiversity than others; only a quarter of the land worldwide now retains its ecological and evolutionary integrity, largely spared of human impact. Nature provides ecosystem services, but these are often not included in productivity estimates: they are vital for food production, for clean air and water, provision of fuel for millions, absorption of carbon in the atmosphere, and climate moderation. The result of such skewed policies, as the IPBES estimates, is that the global rate of species extinction is at least tens to hundreds of times higher today than the average rate over the past 10 million years, and it is accelerating alarmingly.

Ecological economists have for years pointed to the extreme harm that humanity as a whole is courting by modifying terrestrial, marine and freshwater ecosystems to suit immediate needs, such as raising agricultural and food output and extracting materials that aid ever-increasing consumption. Expanding agriculture by cutting down forests has raised food volumes, and mining feeds many industries, but these have severely affected other functions such as water availability, pollination, maintenance of wild variants of domesticated plants and climate regulation. Losses from pollution are usually not factored into claims of economic progress made by countries, but as the IPBES assessment points out, marine plastic pollution has increased tenfold since 1980, affecting at least 267 species, including 86% of marine turtles, 44% of seabirds and 43% of marine mammals. At the same time, about 9% of 6,190 domesticated breeds of mammals used for food and agriculture had gone extinct by 2016, and another 1,000 may disappear permanently. Viewed against a shrinking base of wild varieties of farmed plants and animals, all countries have cause for alarm. They are rapidly emptying their genetic resource kit. Reversing course is a dire necessity to stave off disaster. This can be done by incorporating biodiversity impacts into all economic activity, recognising that irreparably breaking the web of life will impoverish and endanger people everywhere.