10-04-2019 (Important News Clippings)

Afeias
10 Apr 2019
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Date:10-04-19

Vital Suggestions to Strengthen IBC

Needed , regulatory innovation and manpower

ET Editorials

A column in this newspaper by Amitabh Kant, CEO, NITI Aayog, and Richa Roy, a lawyer, rightly underscored the need to strengthen the working of the Insolvency and Bankruptcy Code (IBC) for effective resolution of corporate distress. It assumes significance following the Supreme Court’s decision to quash RBI’s February 12 circular that directed banks to initiate bankruptcy proceedings against defaults above a specified amount. Banks must now, on their own volition, put the code to use. It is the real cure to tackle corporate sickness. But more can, and should be, done for the IBC to deliver better outcomes. For one, the government should provide more human and financial resources to the National Company Law Tribunal. Its appellate tribunals have interpreted the law, for example, on the share of different classes of creditors on the resolution proceeds. This must be corrected.

To minimise delays, the need is to vastly enhance capacity and induct experts. More benches — also specialised benches — of the adjudicating authority must be set up. And bankers must be given the leeway to take haircuts without inviting a witch-hunt by enforcement agencies. Changes are also warranted to the Banking Regulation Act (Section 35AA) to dispense with the precondition that the Centre must authorise RBI to issue directions in the case of specific defaults. RBI should be fully empowered to issue directions to banks initiate bankruptcy proceedings, if needed. The column’s suggestion to introduce pre-packed insolvency arrangements, subject to proper regulation by the Insolvency and Bankruptcy Board of India, makes eminent sense, as well as the suggestion to allow for contingent assessments, subject to later revisions, that allow the proceedings to continue without waiting to resolve all disputes along the way.

It is widely acknowledged that the IBC has helped to bring about a behavioural change in debtors who want to settle defaults to avoid losing their companies. Innovation and course-correction will help banks make more rapid progress in resolving the bad loan problem.


Date:10-04-19

चुनाव खर्च की समस्या

संपादकीय

देशव्यापी स्तर पर हुई छापे की कार्रवाई ने इस बात को उजागर कर दिया है कि देश में चुनाव अभियान किस हद तक (संभवत: अवैध) धन पर निर्भर करते हैं। चुनाव आयोग की विशेष टीम ने अब तक देश भर से जो नकदी, शराब और मादक पदार्थ जब्त किए हैं उनकी कीमत 1,800 करोड़ रुपये तक हो सकती है। यह न केवल अपने आप में एक बड़ी समस्या है बल्कि इसमें दिनोदिन इजाफा भी होता जा रहा है। अभी मतदान शुरू भी नहीं हुआ है और इसके बावजूद ऐसा प्रतीत होता है मानो 2014 के आम चुनाव के दौरान जो 300 करोड़ रुपये की नकदी जब्त की गई थी, वह आंकड़ा पीछे छूट चुका है। इस चुनाव में अब तक 473 करोड़ रुपये की नकदी जब्त की जा चुकी है और 410 करोड़ रुपये मूल्य का सोना पकड़ा जा चुका है। अकेले तमिलनाडु से 220 करोड़ रुपये मूल्य का सोना जब्त किया गया है। जब्त नकदी के मामले में भी तमिलनाडु 154 करोड़ रुपये के साथ शीर्ष पर है। इस बीच, पंजाब और गुजरात मादक पदार्थों की जब्ती के मामले में शीर्ष पर हैं। अकेले गुजरात से ही 500 करोड़ रुपये मूल्य का मादक पदार्थ जब्त किया गया है। चुनाव आयोग ने जो राशि जब्त की है, उसके अलावा भी आयकर विभाग समेत विभिन्न सरकारी एजेंसियों ने भी काफी मात्रा में नकदी जब्त की है। हाल के दिनों में 60 से ज्यादा छापे मारे गए। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुमान के मुताबिक इन चुनावों में कुल मिलाकर 50,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि खर्च हो सकती है। यह राशि 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में खर्च हुई राशि से अधिक है।

ध्यान रहे कि निर्वाचन आयोग ने चुनाव में हर प्रत्याशी के व्यय की सीमा तय कर रखी है लेकिन उसका हमेशा उल्लंघन होता है। चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के लिए 50 से 70 लाख रुपये के व्यय की सीमा तय की है। परंतु यह निरर्थक है क्योंकि राजनीतिक दलों के व्यय की सीमा तय नहीं की गई है। तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम समेत कुछ विपक्षी दलों ने यह दावा भी किया है कि छापे राजनीति से प्रेरित हैं। कुछ मामलों को अपवाद मानते हुए भी यह ऐसी व्यवस्थागत समस्या बन चुकी है जिसे हल करना आवश्यक है। गत वर्ष प्रकाशित-कॉस्ट्स ऑफ डेमोक्रेसी: पॉलिटिकल फाइनैंस इन इंडिया, में देवेश कपूर और मिलन वैष्णव समेत राजनीति विज्ञानियों के एक समूह ने देश में चुनावी फंडिंग की समस्या की जांच की और उन्हें जो नतीजे मिले वे परेशान करने वाले थे।

चुनाव खर्च का बोझ वहन कर सकने वाले प्रत्याशियों की बढ़ती तादाद का अर्थ यह है कि लोकसभा के स्वरूप में ऐसा बदलाव आ रहा है कि वहां अमीरों की तादाद बढ़ रही है। उदाहरण के लिए 2014 की लोकसभा में 82 फीसदी उम्मीदवारों के पास एक करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति थी। राजनीति विज्ञानियों ने यह भी पाया कि इस प्रकार के व्यय को वोट के बदले नोट के रूप में देखना सरलीकरण होगा। बल्कि यह तोहफे देने और मूलभूत चुनावी मशीनरी पर व्यय करने जैसा है। जरूरत इस बात की है कि व्यय को नियंत्रित किया जाए और पार्टी स्तर पर नकदी जुटाने को सीमित किया जाए तथा पार्टियों द्वारा अपने प्रत्याशियों को की जाने वाली फंडिंग को अधिक पारदर्शी बनाया जाए। इससे प्रत्याशियों की खुद की फंडिंग पर निर्भरता कम होगी। मौजूदा सरकार के बेनामी चुनावी बॉन्ड इसमें मददगार नहीं हैं। प्रोफेसर कपूर और डॉ. वैष्णव का सुझाव है कि व्यापक सहमति की आवश्यकता है जहां धन जुटाने वाले सभी पक्ष शमिल हों और पैसा डिजिटल तरीके से जुटाया जाए। राजनीतिक दलों का अंकेक्षण तृतीय पक्ष करे। बदले में चुनावों के वास्तविक खर्च के हिसाब से थोड़ी ढील दी जाए और चुनावों में सरकारी फंडिंग की व्यवस्था लागू की जाए।


Date:10-04-19

क्या खैरात बांटने से खेती, व्यापार का उद्धार होगा ?

मुख्य दलों के घोषणा-पत्रों में इन क्षेत्रों में बुनियादी सुधार करने की दूरदृष्टि दिखाई नहीं देती

वेदप्रताप वैदिक, ( भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष )

चुनाव के तीन दिन पहले संकल्प-पत्र और सप्ताह भर पहले घोषणा-पत्र जारी करने का अर्थ क्या है? देश की दो प्रमुख पार्टियों- भाजपा और कांग्रेस- ने यही किया है। दूसरी छोटी-मोटी प्रांतीय पार्टियों ने भी कोई आदर्श उदाहरण उपस्थित नहीं किया है। इन पार्टियों के नेताओं से पूछिए कि आपके 50-50 पृष्ठों के इन घोषणा-पत्रों को कौन पढ़ेगा? क्या देश के 70-80 करोड़ मतदाता उसे पढ़कर मतदान करेंगे? इन दलों के नेता और कार्यकर्ता भी उन्हें पढ़ेंगे, इसमें संदेह है। चुनाव अभियान तो पिछले डेढ़-दो माह से चला हुआ है। उसमें जनहित के कौन-से मुद्दे पर सार्थक बहस हो रही है, यह सबको पता है।

फिर भी इन संकल्प-पत्रों और घोषणा-पत्रों का महत्व है। जो भी पार्टी जीतती है, उसकी खिंचाई उसके विरोधी घोषणा-पत्रों के आधार पर करते हैं। उसका कुछ न कुछ असर भी जरूर दिखाई पड़ता है। 2019 के जो चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण छपे हैं, उनके आधार पर यह कहना कठिन है कि किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलेगा या नहीं। जो भी गठबंधन सत्तारूढ़ होगा, उसका घोषणा-पत्र उसके गले का हार बन जाएगा। जो घोषणाएं और संकल्प अभी जुमलों के पहाड़-से लग रहे हैं, ये ही आने वाली सरकार के लिए कांटों का ताज सिद्ध होंगे। पिछले पांच वर्षों में भारत की जनता को परेशान करने वाले खास मुद्‌दों में रोजगार की कमी और किसानों की दुर्दशा रही है। इन मुद्दों पर भाजपा और कांग्रेस ने लंबे-चौड़े वादे किए हैं। यदि भाजपा ने किसानों को 6 हजार रुपए सालाना देने का वादा किया है तो कांग्रेस ने गरीब किसानों को छह हजार रुपए महीना देने का सब्जबाग दिखाया है। छोटे किसानों को भाजपा 60 साल की उम्र के बाद पेंशन भी देगी। उन्हें वह 1 लाख रुपए का कर्ज भी देगी। यही सुविधा छोटे दुकानदारों को भी मिलेगी। भाजपा जब जनसंघ थी, तब वह दुकानदारों की पार्टी के तौर पर ही जानी जाती थी। वे ही उसकी रीढ़ थे, लेकिन नोटबंदी ने उनकी कमर तोड़ दी और जीएसटी ने उनका जीना मुहाल कर दिया। यह अच्छा हुआ कि चुनाव के वक्त भाजपा को उनका ध्यान आया।

लेकिन भाजपा और कांग्रेस, ये दोनों पार्टियां अभी तक यह नहीं समझा सकी हैं कि जो अरबों-खरबों रुपए किसानों और छोटे व्यापारियों को बांटा जाएगा, वह आएगा कहां से? बजट पहले से ही काफी घाटे का होता है, यह नया घाटा वे कहां से पूरा करेंगी? इस साल जो कर उगाहा गया है, वह भी आशा से काफी कम रहा है। इसके अलावा यह कैसे तय किया जाएगा कि किस किसान या व्यापारी की आमदनी कितनी है? क्या सरकार के पास कोई ठोस आंकड़े हैं? यहां शंका यही है कि जैसे ‘मनरेगा’ जैसी उत्तम योजना पर कांग्रेस सरकार के दिनों में आधा-अधूरा अमल हुआ और वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई, कहीं इन घोषणाओं का भी वैसा ही अंत न हो जाए।

कांग्रेस ने सरकार के 24 लाख खाली पदों को भरने और अन्य लाखों रोजगार पैदा करने का वादा किया है, लेकिन रोजगार के मामले में भाजपा ने काफी संयम का परिचय दिया है। उसका 2014 का दो करोड़ रोजगार का वादा और हर व्यक्ति को 15 लाख रुपए देने की घोषणा का इतना मजाक बनता रहा है कि उसने इस बार काफी सावधानी बरती है। दोनों पार्टियों ने यह बताना जरूरी नहीं समझा कि वे देश में रोजगारों की रक्षा और बढ़ोतरी कैसे करेंगी? यही हाल किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादे का है। यहां असली प्रश्न यह है कि क्या किसानों और छोटे व्यापारियों को खैरात बांटने से खेती और व्यापार में चार चांद लग जाएंगे? उनकी मदद करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन हमारी पार्टियों के पास इन क्षेत्रों में बुनियादी सुधार करने के लिए कोई गंभीर दूरदृष्टि दिखाई नहीं पड़ती।

दोनों पार्टियों ने शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करने की बात कही है, लेकिन उनके नेताओं ने यदि संपन्न और सबल राष्ट्रों की उन्नति का इतिहास पढ़ा होता तो उन्हें पता चलता कि वे इन दोनों मदों पर कितना ज्यादा खर्च करते हैं और कितना ज्यादा ध्यान देते हैं। हम इन मदों पर अपने सकल उत्पाद का 2-3 प्रतिशत खर्च करते हैं, जबकि अमेरिका और यूरोप के राष्ट्र 10 से 18 प्रतिशत तक खर्च करते हैं। मोदी सरकार ने गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा राशि की घोषणा करके अच्छा काम किया है, लेकिन इन मदों पर सिर्फ खर्च बढ़ाना काफी नहीं है। यहां मूल दृष्टि की आवश्यकता है। शिक्षा और चिकित्सा कैसी हो, उनके लक्ष्य क्या हों और उन्हें प्राप्त कैसे किया जाए, इस बारे में पिछले पांच साल लगभग खाली निकल गए। यदि पिछले 70 वर्षों में हमारे नेता इन दोनों मुद्‌दों पर भारतीय और आधुनिक दृष्टि रखते होते तो भारत अभी तक विश्व की महाशक्ति बन जाता।

भाजपा के संकल्प-पत्र में राष्ट्रवाद पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया है। सबसे पहले उसे ही स्थान मिला है, लेकिन मैं पूछता हूं कि हमारे नेताओं को क्या यह समझ है कि राष्ट्रवाद किसे कहते हैं और उसे सृदृढ़ बनाने वाले तत्व कौन-से हैं? भाजपा की स्पष्ट बहुमत की सरकार से मैंने आशा की थी कि वह भारत की संसद, सरकार और अदालतों का सारा काम भारतीय भाषाओं में शुरू करवाएगी। उच्चतम शिक्षण-संस्थाओं पर भी यह नियम लागू होगा, लेकिन अंग्रेज के जमाने की सांस्कृतिक गुलामी ज्यों की त्यों चली आ रही है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पहली सीढ़ी पर भी हम पांव नहीं धर सके। राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान आचार संहिता के मुद्‌दे ताक पर रखे रह गए। राम मंदिर को हिंदू-मुसलमान के दायरे से बाहर निकालकर देशी-विदेशी का मुद्‌दा बनाने की कुव्वत हमारे नेताओं में होती तो क्या बात थी।

यही बात विदेश नीति के क्षेत्र में भी लागू होती है। पिछले पांच साल में दक्षेस के कार्य-कलाप में कोई सुधार नहीं हुआ। उसके सम्मेलन तक स्थागित हो गए। हमारे सभी पड़ोसी देशों पर चीन का शिकंजा कसता जा रहा है। दक्षिण एशिया के सबसे बड़े और सबसे सबल देश के नाते भारत को जो भूमिका अदा करनी चाहिए थी, वह भारत नहीं कर सका। पाकिस्तान के बालाकोट पर हवाई हमला करके हमारी सरकार ने विश्व को सुदृढ़ संदेश जरूर दे दिया, लेकिन पिछले पांच साल में आतंकवाद की भंयकर घटनाओं पर क्या हम काबू पा सके? कांग्रेस रफाल-सौदे और अनेक अधूरे-वादों को लेकर भाजपा पर तीखे व्यंग्य जरूर कस रही है लेकिन, जनता जानती है कि जैसे सांपनाथ हैं, वैसे ही नागनाथ हैं।


Date:10-04-19

आम चुनाव के बीच चुनाव आयोग की साख पर सवाल

संपादकीय

देश में शीर्ष पदों पर काम कर चुके साठ से अधिक पूर्व नौकरशाहों ने जब राष्ट्रपति को पत्र लिखकर यह चिंता जाहिर की कि भारतीय निर्वाचन आयोग नामक संवैधानिक संस्था विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है, तो यह पूरे देश की चिंता की ही अभिव्यक्ति है। इन नौकरशाहों ने चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के उदाहरण देते हुए एंटी सैटेलाइट मिसाइल के सफल परीक्षण की प्रधानमंत्री द्वारा की गई घोषणा, जल्दी ही रिलीज होने वाली प्रधानमंत्री पर बनी बायोपिक, उन पर बनी वेब सीरीज, नमो टीवी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा भारतीय सेना को मोदी की सेना बताने और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह द्वारा भारतीय जनता पार्टी व प्रधानमंत्री मोदी की जीत की इच्छा जाहिर करने जैसे कई उदाहरण दिए हैं, जिसमें चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन होता प्रतीत होता है।

हालांकि, स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए जिम्मेदार निर्वाचन आयोग ने नोटिस जारी करने से आगे कोई कार्रवाई नहीं की है। हाल ही में आयकर व अन्य एजेंसियों द्वारा की गई छापे की कार्रवाई पर भी चुनाव आयोग ने वित्त मंत्रालय को सिर्फ ‘कड़ी सलाह’ देते हुए कहा है कि चुनाव के दौरान ऐसी कार्रवाई ‘निष्पक्ष’ और ‘भेदभावरहित’ होनी चाहिए। गौरतलब है कि मुख्य चुनाव आयुक्त संवैधानिक पद है और कार्यकाल के छह साल या 65 वर्ष की आयु पूरी होने के पहले उसे हटाया नहीं जा सकता और न उसकी सलाह के बिना अन्य किसी चुनाव आयुक्त अथवा क्षेत्रीय आयुक्तों को हटाया जा सकता है। संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत के साथ प्रस्ताव पारित होने के आधार पर ही राष्ट्रपति उन्हें हटा सकते हैं। राजनीतिक दलों को आचार संहिता की पटरी पर रखने के लिए इतना संवैधानिक संरक्षण काफी होना चाहिए। फिर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का कार्यकाल इस बात का उदाहरण है कि आयोग किस तरह अपना प्रभुत्व कायम कर सकता है, जबकि बूथ कैप्चरिंग जैसी आपराधिक चुनौतियां अब उतनी गंभीर नहीं रही है, जैसी शेषन के समय थी। चुनाव आयोग से संबंधी संवैधानिक प्रावधानों में जो खामियां बताई जाती हैं उसमें एक है रिटायर्ड चुनाव आयुक्तों पर कोई सरकारी पद ग्रहण करने पर रोक न लगाना। क्या अब इसका वक्त आ गया है? चुनाव आयोग के लिए भी यह आत्मपरीक्षण का वक्त है कि वह अपनी साख कायम रखने के लिए क्या कर सकता है।


Date:10-04-19

सोशल मीडिया रहे अफवाहों से सतर्क

सोशल मीडिया कंपनियों को अफवाह फैलाने वाले एकाउंट्स को लेकर अधिक पारदर्शिता बरतने की जरूरत है।

सृजनपाल सिंह , (लेखक सूचना-प्रौद्योगिकी मामलों के विशेषज्ञ व एपीजे अब्दुल कलाम सेंटर के सीईओ व सह-संस्थापक हैं)

वर्ष 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव इस आर्थिक महाशक्ति के आधुनिक इतिहास में शायद सबसे अव्यवस्थित चुनाव थे। चुनाव के दौरान राष्ट्रपति के दोनों प्रमुख उम्मीदवारों पर एक-दूसरे के खिलाफ सोशल मीडिया पर गलत सूचनाएं फैलाने का आरोप लगा था, जिसकी गहन जांच भी हुई। तब अफवाहें यहां तक फैला दी गई थीं कि हिलेरी क्लिंटन द्वारा अमेरिका के प्रमुख पिज्जा स्टोरों में बच्चों को गुलामों के रूप में छिपाकर बाल तस्करी की जा रही है। बात यहीं नहीं रुकी, तमाम अमेरिकियों ने इस फर्जी सूचना पर यकीन किया और पिज्जा स्टोरों पर हंगामा तक किया। 2016 के इस चुनाव से यह जाहिर हो गया कि सोशल मीडिया किसी भी लोकतांत्रिक देश के चुनाव में एक अहम भूमिका निभाएगा। आज अमेरिका में लगभग दो तिहाई लोग सोशल मीडिया से अपनी खबरें प्राप्त करते हैं, जहां पर सच्चाई और अफवाहों के बीच की रेखा को चिह्नित करना मुश्किल होता है। यह प्रवृत्ति दुनिया में हर जगह बढ़ती ही जा रही है। भारत भी (जहां डाटा रेट दुनिया में सबसे कम है और सस्ते स्मार्टफोन विभिन्न् भाषाओं में काम कर सकते हैं) एक सोशल मीडिया संचालित समाज बनता जा रहा है। वाट्सएप और अन्य सूत्रों द्वारा साझा की गई सूचनाओं पर लोगों का विश्वास काफी ज्यादा है, लेकिन इन सूचनाओं की पुष्टि करने के संसाधन कम हैं। 2016 के अमेरिकी चुनावों के बाद अमेरिकी सीनेट ने लगभग सभी सोशल मीडिया और सूचना-प्रौद्योगिकी कंपनियों के सीईओ को अपनी सफाई पेश करने बुलाया। इसमें फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग व गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई भी शामिल थे।

गौरतलब है कि फेसबुक इंस्टाग्राम और वाट्सएप का भी मालिक है। अमेरिकी सीनेट की जांच से फेसबुक का शेयर मार्केट में भाव कुछ ही दिनों में बीस प्रतिशत गिर गया, जो फेसबुक के लिए साढ़े आठ लाख करोड़ का नुकसान था। 2017 की सीनेट सुनवाई के बाद टेक्नोलॉजी दिग्गजों ने चुनावों में सोशल मीडिया के इस्तेमाल किए जाने पर नियंत्रण शुरू किया। अपने यहां हो रहे लोकसभा चुनाव के लिए फेसबुक और टि्वटर, दोनों ने ही राजनीतिक प्रचार के लिए नई नीतियां बनाई हैं। यहां यह कहना भी जरूरी है कि ये नीतियां अभी परीक्षण के दौर में ही हैं। बीते दिनों इन नीतियों का पहला परिणाम देखने को मिला, जब फेसबुक ने अपने इंस्टाग्राम के प्लेटफॉर्म से 700 पेज और खाते बंद कर दिए। इन खातों के जरिए राजनीति-प्रेरित गलत सूचनाएं फैलाने का आरोप है। फेसबुक के साइबर सिक्युरिटी पॉलिसी हेड नरानिएल लिचेर ने बताया कि बंद किए गए खातों में 687 खाते मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को समर्थित कर रहे थे, जबकि 15 भाजपा को समर्थित कर रहे थे। इन दोनों प्रकार के खातों में 2014 से लगभग 80 लाख रुपए का विज्ञापन व्यय हुआ और लगभग 28 लाख लोग इन फेसबुक एकाउंट को फॉलो करते थे। 80 लाख रुपए फेसबुक के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। फेसबुक ने 2018 में पूरे भारत में 521 करोड़ रुपए की आय विज्ञापनों द्वारा अर्जित की, जिसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीति-प्रेरित विज्ञापन थे। हालांकि यह भी ध्यान रहे कि फेसबुक सटीक राशि का खुलासा नहीं करता।

राजनीतिक सूचनाओं के साथ अफवाह फैलाने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल पहले से ही होता चला आ रहा है। यह लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यदि 700 पेजों पर एक साथ प्रतिबंध लगा, जिनसे 28 लाख लोग जुड़े हुए थे तो हमें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिखने वाली सूचनाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने की जरूरत है। अधिकांश चुटकुले, मीम्स, डेटा, चित्र और यहां तक कि खबरों पर हम आसानी से विश्वास कर लेते हैं और इसी कारण उन्हें आगे फॉरवर्ड कर देते हैं, लेकिन संभव है कि उनके पीछे किसी कंपनी द्वारा संचालित एक मार्केटिंग अभियान हो, जिसके आप केवल एक उपभोक्ता भर हों।

आखिर यह किससे छिपा है कि तमाम ऐसे टि्वटर एकाउंट मौजूद हैं, जो नाम से किसी एक व्यक्ति के लगते हैं लेकिन उनको बढ़ावा देने के लिए उनके पीछे एक पूरी टीम, एक पूरी इंडस्ट्री लगी है। एक मुद्दा फेसबुक की पारदर्शिता का है। दिलचस्प बात यह है कि किसी एकाउंट को राजनीतिक घोषित करने या किसी पोस्ट को राजनीतिक सामग्री बताने का एकाधिकार फेसबुक ने अपनी अमेरिका स्थित अपनी टीम को दिया है। इसका अर्थ यह है कि सात समंदर पार स्थित ऑफिस में भारत-जनित कंटेंट के राजनीतिक होने या नहीं होने की सच्चाई पर फैसला लिया जा रहा है। इस तरह के फैसले लेने की क्या प्रणाली है, इस पर फेसबुक ने ज्यादातर चुप्पी ही साध रखी है। आखिर यह क्यों नहीं संभव कि यह जांच व उसके आधार पर होने वाली कार्रवाई भारतीय पद्धति को समझने वाले लोग करें? सच तो यह है कि फेसबुक और साथ ही सभी बड़े सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भारत में सिर्फ एक ब्रांच ऑफिस चलाते हैं। इन कंपनियों के सभी नीतिगत फैसले अमेरिका में बैठे उनके अधिकारियों द्वारा लिए जाते हैं। ऐसे परिदृश्य में यह जानना जरूरी है कि फेसबुक पेज के जरिए करोड़ों रुपए राजनीतिक विज्ञापनों में तो नहीं बहाए जा रहे हैं? महज 700 खाते जिनका कुल व्यय चार साल में 80 लाख रुपए था, हटा देने से ये बड़ा सवाल दरकिनार नहीं किया जा सकता। फेसबुक के साथ अन्य सभी सोशल मीडिया कंपनियों को इस प्रकार की राजनीतिक गलतफहमियों और अफवाहों को फैलाने वाले खातों के ऊपर और पारदर्शी कार्रवाई करने की जरूरत है। 700 फेसबुक एकाउंट पर कार्रवाई एक छोटी सी शुरुआत है। यह कार्रवाई हमारी बड़ी चुनौती के ऊपर पर्दा नहीं बननी चाहिए।

सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियां बहुत बड़ी हो चुकी हैैं, लेकिन तंत्र पारदर्शी नहीं है। एप्पल कंपनी की संपत्ति लगभग 75 लाख करोड़ रुपए की है, जबकि फेसबुक जो महज एक कंप्यूटर प्रोग्रामिंग है, 45 लाख करोड़ रुपए के बराबर है। यानी फेसबुक की संपत्ति लगभग पाकिस्तान और बांग्लादेश की संयुक्त जीडीपी के बराबर है। फेसबुक ने इतनी संपत्ति बनाने के लिए 36000 कर्मचारियों का उपयोग किया है, जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश को अपनी पूरी 36 करोड़ की आबादी से यह जीडीपी मिलती है। साफ है कि ऐसे में कोई भी सरकार या उसकी एजेंसियां इन कंपनियों के ऊपर अपना नियंत्रण नहीं कर सकतीं।

आज जरूरत इस बात की है कि फेसबुक यूजर्स जिनकी संख्या एक अरब के ऊपर है, फेसबुक से अधिक पारदर्शिता की मांग करें। यह मांग अन्य सोशल मीडिया कंपनियों से भी करनी चाहिए। इसी के साथ यह भी जरूरी है कि आम लोग राजनीतिक अफवाहों से निपटने के लिए सोशल मीडिया कंपनियों की ओर से उठाए गए कदमों की पूरी जानकारी हासिल करने हेतु एक साथ आवाज उठाएं और स्व-नियमन की मांग करें। इस मांग का पूरा होना आसान नहीं, मगर यह तय है कि 2019 के आम चुनावों में सोशल मीडिया का उपयोग-दुरुपयोग वैश्विक लोकतांत्रिक संदर्भ में एक महत्वपूर्ण कड़ी अवश्य बनेगा।


Date:10-04-19

राजनीतिक दलों के बेवजह विशेषाधिकार

शंकर शरण, (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

चुनाव आयोग ने 25 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर बताया कि पिछले वर्ष विाीय कानून में किए बदलाव के कारण विदेशी कंपनियों द्वारा भारतीय राजनीति को प्रभावित किया जा सकता है। इसलिए और भी, योंकि राजनीतिक दलों को मिलने वाले देसी-विदेशी चंदे में पारदर्शिता कम हो गई है। यह मामला सामाजिक संस्था कॉमन कॉज और अन्य द्वारा विाीय कानून में किए गए बदलावों को चुनौती देने वाली याचिका से संबंधित है। मुख्यत: इसमें चुनावी बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा देने की नई व्यवस्था को अनुचित कहा गया है।

इसी सिलसिले में कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी अपना विचार देने कहा था। चुनाव आयोग ने स्पष्ट कहा कि राजनीतिक दलों को चुनावी बांड द्वारा चंदा देने की व्यवस्था के गंभीर परिणाम हो सकते हैं, योंकि दलों को ऐसे चंदे का विवरण न देने की छूट दी गई है। 2017 के विाीय कानून के बाद आयकर कानून और जन-प्रतिनिधित्व कानूनों में भी बदलाव किया गया। चूंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी बांड से मिले चंदे का विवरण देना बाध्यकारी नहीं इसलिए यह जानना असंभव है कि उन्होंने जन-प्रतिनिधित्व कानून के अनुच्छेद 29-बी का उल्लंघन किया है या नहीं, जिसमें राजनीतिक दलों को सरकारी कंपनियों और विदेशी स्रोतों से चंदा लेने की मनाही है। चुनाव आयोग ने हलफनामे में यह भी कहा कि यह सब उसने कानून मंत्रालय को पिछली मई में ही बता दिया था। चुनाव आयोग ने विाीय कानून में लाए गए बदलाव को भी अनुचित बताया, जिससे उन विदेशी कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने का रास्ता खोल दिया गया, जो भारतीय कंपनियों में बड़ी साझेदारी रखती हैं। आयोग के अनुसार इससे यहां के दलों को अबाध विदेशी धन लेने की अनुमति मिल गई है। नि:संदेह यह विदेशियों द्वारा भारतीय नीतियों को प्रभावित करेगा। इन बातों के अलावा चुनाव आयोग ने विधि मंत्रालय को यह भी लिखा था कि यहां कई दल अपना अधिकांश चंदा प्रति स्रोत 20 हजार रुपये से कम बताते हैं, जिसके दाता के बारे में बताना जरूरी नहीं रखा गया है। आयोग ने ऐसे चंदे की सीमा दो हजार करने का सुझाव दिया था, जिस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। ये सभी बातें पूरी तरह साफ कर देती हैं कि सभी बड़े दलों ने अपने लिए भ्रष्टाचार का विशेषाधिकार जैसा हासिल कर लिया है। जहां सामान्य नागरिकों, दुकानदारों और कर्मचारियों से एक-एक पाई का हिसाब देने की व्यवस्था सख्त से सख्त होती जा रही है वहीं राजनीतिक दलों को देसी-विदेशी स्नोतों से कितना भी धन लेने और उसे कैसे भी खर्चने की छूट दे दी गई है। चूंकि कोई किसी को यूं ही पैसा नहीं देता इसलिए साफ है कि देसी-विदेशी कंपनियां, संगठन और एजेंसियां हमारे राजनीतिक दलों को धन यों देंगी? स्पष्ट है कि अपने-अपने लाभ के लिए। यह कोई अनुमान नहीं। पहले ही स्वतंत्र भारत में सोवियत केजीबी, सीआइए, विदेशी चर्च-मिशनरी और सऊदी- इस्लामी वित्तीय स्रोतों से भारतीय समाज और राजनीति को दुष्प्रभावित करने के प्रमाणिक विवरण उपलब्ध हैं।

राजनीतिक दलों को मिल रही तमाम छूट अविलंब बंद करनी चाहिए। साथ ही उनके खर्चों की मदों, सार्वजनिक गतिविधियों की सीमा बांधनी चाहिए। केवल चुनावों के समय कथित आदर्श आचार संहिता के सिवाय स्थाई रूप से भी एक आचार संहिता से बांधना चाहिए, जिसका उल्लंघन करने पर संबंधित दल को भारी हर्जाना और अन्य कड़े दंड का प्रावधान हो। सर्वविदित है कि हमारे राजनीतिक दल हर वत केवल साा पाने की जुगत में काम करते हैं। इसी उद्देश्य से उनकी तमाम गतिविधियां-धरना, प्रदर्शन, मांग, अभियान, नारेबाजी आदि चलती है। इन सबका इस्तेमाल समाज को विभाजित, उोजित करने, और झूठे आरोप-प्रत्यारोप से लोगों को भ्रमित करने आदि में न हो सके।

इस दृष्टि से संसद, विधानसभाओं और निर्वाचित संस्थाओं को दलीय तानाशाही से मुत करना भी जरूरी है। संविधान के अनुसार ये सब जनप्रतिनिधियों की संस्थाएं हैं, किंतु व्यवहार में ये विभिन्न पार्टियों के आलाकमान की मनमर्जी की गुलाम हो गई हैं। संसद का चलना, न चलना तक दो चार नेताओं के रहमो-करम पर निर्भर हो गया है। यह दुर्गति देश की हानि है। इसे सभी दलों के संजीदा लोग भी समझते हैं, किंतु पार्टियों की संयुत विशेषाधिकारी स्थिति के कारण कुछ नहीं कर पाते। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट इन तमाम विकृतियों पर विचार करके सरलता से इसका उपाय कर सकते हैं। संसद से लेकर नगरपालिका तक सभी निर्वाचित सदनों में विचारविमर्श और निर्णय को राजनीतिक दलों के सीधे हस्तक्षेप से मुत करना आवश्यक है ताकि वहां सचमुच विचार-विमर्श हो सके। दूसरे शब्दों में राजनीतिक दलों को कानूनन निर्देश मिलना चाहिए कि वे जन-निर्वाचित सदनों में अपने सदस्यों की अभिव्यति पर कोई अंकुश नहीं लगाएंगे।

यदि देश को संगठित भ्रष्टाचार से मुत करना है तो इसकी शुरुआत राजनीतिक दलों को मर्यादा में बांधने से ही संभव है। जैसा चुनाव आयोग के हलफनामे से भी स्पष्ट है, हमारे राजनीतिक दलों ने अपने को धन संबंधी भ्रष्टाचार की मर्यादा से भी आजाद कर लिया है। तब साा के लिए उनकी अन्य गतिविधियों के उच्चश्रृंखल होते जाने की कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने दिनों-दिन अपने को किसी भी नैतिकता, कानून से भी ऊपर मान लिया है। चुनावी बांड पर अंतरिम रोक से इन्कार के बाद जागरूक लोग चुनाव आयोग और सप्रीम कोर्ट से अपील करें कि दलों को उन तमाम विशेषाधिकारों से वंचित किया जाए, जो उन्होंने समय के साथ अनुचित रूप से हथिया लिए हैं। जैसे कोई नागरिक, दुकानदार, कंपनी या संस्थान देश के कानूनों और समान्य नैतिकता के अधीन हैं उसी प्रकार कोई नेता और राजनीतिक दल भी रहें। चाहे वह आय का हिसाब-किताब हो या संसद की गतिविधि। उच्च पदों के लिए भ्रष्टाचार की परिभाषा भी संकुचित न रहे। अवैध धन लिए बिना भी अपने या अपनी पार्टी के लाभ के लिए किए जाने वाले काम भ्रष्ट आचरण में गिने जाने चाहिए। अन्यथा नेताओं द्वारा किए जाने वाले बुरे काम भी अच्छे बताए जाते रहेंगे। यह सब बंद होना चाहिए। चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट इस का उपाय कर सकते हैं।


Date:09-04-19

सोशल मीडिया में राजनीति

द गार्जियन, लंदन

जिन फेसबुक अभियानों को लोकप्रिय भावना का स्वत:स्फूर्त प्रकटीकरण माना जा रहा था, उनका संचालन एक ऑस्ट्रेलियाई प्रचारक की कंपनी के कर्मचारी कर रहे हैं। यह ब्रिटेन के लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। अगले महीने स्थानीय चुनाव होने हैं। उसके बाद यूरोपीय चुनाव भी होंगे। इसके अलावा अगले छह महीने में आम चुनावों की भी संभावना है। सोशल मीडिया इन चुनावों में भी अपनी भूमिका निभाएगा, जैसे उसने जनमत संग्रह में निभाया है। यह समस्या सोशल मीडिया पर फेक न्यूज और अतिवादी कंटेंट द्वारा पैदा की जा रही समस्याओं से अलग है। हर माध्यम पर प्रचार अभियानों में सूचनाओं को तोड़े-मरोड़े जाने की आशंका रहेगी। सोशल मीडिया के दो निर्दिष्ट पहलू हैं। पहला पहलू है, लोगों को ऐसे विज्ञापन दिख सकते हैं, जिनमें विज्ञापन देने वालों के बारे में कोई सूचना दर्ज नहीं होगी। यदि किसी विज्ञापन में विज्ञापन देने वाले किसी व्यक्ति का नाम दिया भी गया होगा, तो उसके बारे में कुछ जानने के लिए आम लोगों के पास कोई तरीका नहीं होगा। दूसरा पहलू है, विज्ञापनों को इतने सटीक रूप से लक्षित किया जा सकता है कि उन्हें सार्वजनिक बहस या निराकरण के लिए कभी खोले जाने की गुंजाइश नहीं रहेगी। इस समस्या के समाधान को तकनीकी कंपनियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। सुधार में पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन जन नियामक को भी अपनी भूमिका पूरी तरह निभानी चाहिए। हालांकि चुनाव आयोग अकेला ऐसा पहरेदार नहीं है, जिसके नख-दंत में ज्यादा दम नहीं है। सोशल मीडिया में चल रहे अभियानों ने जो खतरा पैदा कर दिया है, उसके सामने चुनाव कराने की पूरी व्यवस्था अपर्याप्त नजर आ रही है। आज हम एक ऐसी डिजिटल दुनिया में जूझ रहे हैं, जहां परस्पर दबाव बनाने वाले समूहों ने राजनीतिक पार्टियों को आंशिक रूप से हाशिए पर कर दिया है। ये ऐसे समूह हैं, जिनके लक्ष्य या जिनका धन पारदर्शी नहीं है। आज ऐसे समूहों से ब्रिटिश राजनीति बहुत ज्यादा प्रभावित है। खतरा यह कि हम उस दुनिया के लिए तैयार नहीं हैं, जहां ऐसे समूह सीधे मतदाताओं से संवाद भी कर सकते हैं।


Date:09-04-19

Underlines Its Lines

BJP’s manifesto reiterates its position on key issues — scrapping Article 35A, disturbingly, makes an appearance.

Editorial

Election manifestos of political parties are not known to be statements of political daring, or even of political imagination. They go through the routines of re-stating the obvious. The Congress’s manifesto for the upcoming general election, made public last week, seemed to make a welcome break with that pallid tradition. It appeared to capture that rare thing — a political party in motion, rethinking its old positions, as on AFSPA and the sedition law, and taking new ones, like on hate crime or a safety net for the poor. The BJP manifesto unveiled on Monday goes back to the rites of manifestos-as-usual. It reiterates the BJP’s stated positions on most subjects. Consistency is sometimes a good thing, and the BJP has had a good run at the polls at different levels in the last five years and therefore may arguably not feel the pressure to change, even as the Congress carries the burden of being the challenger. Yet, the BJP’s apparent refusal to reconsider its positions on important issues includes those on which the limits of its ideological certitudes have been bared in its five years in power at the Centre.

The underlining of immoveable ideological positions begins in the very first chapter in the manifesto titled “Nation first”, in which, after emphasising its “zero tolerance approach to terrorism”, the BJP talks of completing the National Register of Citizens process in Assam and of extending the NRC “in a phased manner” to “other parts of the country”, without showing any acknowledgement of the distortions intrinsic to the process that have come to light. It pledges itself anew to the dangerously misconceived Citizenship Amendment Bill which threatens to further polarise and communalise the complex matrix of identities and insecurities in the Northeast. This section ends with the BJP reiterating its position “since the time of the Jan Sangh” to the abrogation of Article 370 and to “annuling” Article 35A of the Constitution — both of these positions have only deepened the turmoil in the Valley in the last few years on the Modi government’s watch. Under the section called “Cultural heritage”, the party repeats its stand on the “expeditious” construction of the Ram mandir, and on Sabarimala, to secure “constitutional protection on issues related to faith and belief”.

On other issues, the BJP’s reiterations are welcome. It promises to double farmers’ income, and ease the burden on the middle classes. It promises investment of Rs 100 lakh crore in the infrastructure sector by 2024, pucca houses for all till 2022 and a Jal Jiwan Mission. In all, the BJP’s manifesto 2019 does not break new ground and promises continuity even in its promises of change.


Date:09-04-19

Maldivian Wave

President Solih consolidates power with his MDP’s victory in parliamentary polls

EDITORIAL

The administration of Maldives President Ibrahim Mohamed Solih has received a shot in the arm with the parliamentary election held over the weekend. His Maldivian Democratic Party is poised to garner more than 60 out of 87 seats, paving the way for easy passage of bills and a policy agenda with a realistic chance of implementation. Mr. Solih, whose pro-democracy government assumed power after a presidential election in September 2018, has sought to break with the regime of his predecessor Abdulla Yameen, which had propelled the Indian Ocean nation into Beijing’s economic embrace, described by some as “debt-trap diplomacy”. While Mr. Solih was quick to signal the shift in his government’s priorities, not least by ensuring that Prime Minister Narendra Modi was the chief guest at the presidential inauguration, his agenda has been hobbled by resistance from lawmakers on certain bills aimed at the previous administration. Specifically, Parliament Speaker Qasim Ibrahim, the head of the Jumhooree Party, a coalition partner of the MDP, declined to support a vote on a bill aimed at recouping stolen assets and looking into unresolved murders. With the election throwing up a single-party majority, Mr. Solih can push through his agenda with fewer stumbling blocks.

So far as India’s interests in the Indian Ocean Region are concerned, warm bilateral ties between New Delhi and Male are a high priority after five years of strategic drift that benefited Beijing considerably. According to some analyses, the surging influx of Chinese infrastructure investment under the Yameen administration may have caused the Maldives’ national debt to balloon to nearly a quarter of its GDP. As it seeks to unravel this web of Chinese loans, the new leadership has promised that what is owed would be paid. However, the honouring of such debt, especially where it was linked to the grant of land, lease rights and mega-construction projects, will be complicated. As Mr. Solih grapples with these challenges, the assurance that the Maldives has New Delhi’s backing would be vital. Already, the elements of a strategic reset with India seem to be falling into place. When Mr. Solih visited India in December, a $1.4 billion financial assistance package for the Maldives was announced, and the two governments agreed to exempt holders of diplomatic and official passports from visa requirements. MoUs on Indian grant aid for “high-impact community development projects” have been signed, as also agreements on clean energy and regional maritime security. So long as the new government presses on with the urgent task of rebuilding and deepening the Maldives’ democratic credentials, there is hope for political stability and economic development across the 1,192-island archipelago and the wider IOR.


Date:09-04-19

Crorepatis in Parliament

A rich people’s club is governing a largely poor country

Satya Naagesh Ayyagary , [The writer is Editorial Consultant, The Hindu, and is based in Hyderabad ]

It is an interesting facet of a changing India: there are ever greater numbers of crorepatis in the Lok Sabha, as well as among those who aspire to become MPs. According to the Association for Democratic Reforms (ADR), 430 out of the 521 sitting MPs in the Lok Sabha have assets worth more than ₹1 crore. In other words, 83% of our lawmakers are crorepatis. That makes them a rich people’s club governing a largely poor country.

There was a time when members of most legacy business and industrial houses of the country stuck to their business of doing business and left politics to politicians. During the License Raj, politicians were content accepting donations from businessmen or seeking jobs for their kin. But business and politics never intersected with each other. However, there were exploratory undercurrents across the dividing line.

Come 1991, that changed. Liberalisation altered India’s economic present and future. There was a permanent severance from the country’s socialist economic past. The nouveau riche saw politics and political power as a means to first secure and then expand their business interests. It is a truism that business and politics share a symbiotic relationship. Today, they have almost become one, necessitating a new definition of businessman-politician or politician-businessman. The hyphenation is not semantic or syntactical, but reflects the emergence of a new class.

Some examples

Konda Vishweshwar Reddy, an engineer-turned-businessman-turned-politician and former Telagana Rashtra Samithi (TRS) MP, is now the Congress candidate from Chevella, near Hyderabad. His declared family assets are over ₹895 crore (the major share of which belongs to his wife). Nama Nageswar Rao, the TRS candidate from Khammam Lok Sabha seat who is a former Telugu Desam Party (TDP) MP, is the founder of Madhucon Projects. He was among the richest Lok Sabha candidates in the 2014 elections with declared assets worth ₹338 crore. In Andhra Pradesh, Jaydev Galla of the TDP is the managing director of Amara Raja Batteries and has declared assets worth over ₹600 crore. These are just a few crossover examples. There are of course plenty of examples from other States too.

As Walter Annenberg, American businessman and diplomat, posited, “The greatest power is not money power but political power.” It suffices to say that the heady mix of economic and political power is even more intoxicating than either of its stand-alone constituents.