09-11-2016 (Important News Clippings)

Afeias
09 Nov 2016
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times-of-indiaDate: 09-11-16

Mixed bag from May

UK must liberalise visas to take New Delhi-London ties to next level

UK Prime Minister Theresa May’s India visit – her first bilateral tour outside the EU – has turned out to be a mixed bag. Coming after Brexit, May’s trip was intended to signal the UK’s continued international relevance. And the relationship with India was viewed as a vital axis to prop up the UK’s economic future outside the EU. This is precisely why May has signalled her intention to facilitate easier visas for Indian businessmen, proposed a possible free trade agreement, and pledged support to raise a £500 million fund to finance Indian infrastructure projects.

Additionally, both sides have taken a strong position on terrorism and expressed determination to enhance the extradition mechanism. In the latter context, India has handed over the names of 57 suspects including Vijay Mallya, while the UK has provided a list of 17 it wants extradited. Further, the British side has reaffirmed its support to India’s bid for permanent membership of the UN Security Council and backed India’s campaign for membership of the Nuclear Suppliers Group. That said, glaring discrepancies remain. May’s pitch to attract Indian businessmen stands in stark contrast to her non-commitment on easing student visas. Add to this the high threshold of annual pay for working professionals to obtain a British visa.

Such stipulations show that the UK visa regime continues to be extremely stringent. But a free trade agreement can’t be achieved in the absence of people movement. Plus, London must realise that the UK was an attractive destination for India Inc because it served as an entry point to Europe. With that route now closing, London needs to take corrective steps to reverse the slowdown in bilateral trade since 2011. May’s visit may not be enough to arrest the decline in the relationship.


TheEconomicTimeslogoDate: 09-11-16

Why PM Modi’s move will lead to disruption than economic benefit

untitled-5Stamping out black money in the economy is a noble goal.

But demonetisation of Rs 500 and Rs 1,000 notes will cause huge disruption, push up the demand for gold and dollars as safe stores of wealth, give a big boost to e-wallets and credit cards and, most significantly, send into disarray the finances of all political parties that had filled their war chests with cash to fight the Uttar Pradesh elections and had no clue about the demonetisation move in the offing.

It will inconvenience small traders and businessmen across the hinterland, where the reach of the modern banking system is yet rudimentary. Will it put an end to black money? Hardly.People with large amounts of black money would convert it into gold and foreign currency, happily incurring the conversion costs this would entail, both when rupees are converted into precious metals or dollars and when these are converted back into rupees. The real way to stamp out black money is to disincentivise fresh generation and clean up political funding.Political parties spend thousands of crore rupees on their campaigns and rallies but declare only a few hundred crore rupees of income. The bulk of their income and spending are not accounted for.

To supply that money, businessmen have to generate black money, through overinvoicing of project costs and imports and other such means.Implementation of the goods and services tax would create multiple audit trails that lead to a unified database of production and income. Much of real estate still remains outside the ambit of the formal economy, and will stay like that till a system of registering land is instituted, in which the ownership of every bit of land is entered into a central registry maintained and guaranteed by the government.Once benami holdings become impossible, black money would become more difficult to maintain. Till then, measures like demonetising currency in an economy like India where more than 80 per cent of all transactions are in cash will serve more to disrupt economic life and to disarm political rivals than to curb black money.


Dainik Bhaskar LogoDate: 09-11-16

जीने का तरीका बदलेंगे, तो ही प्रदूषण से बचेंगे

फेस मास्क अब नया फैशन हो गया है। नई दिल्ली में ऐसे मास्क बेचने वाली दुकानों के बाहर लगी लंबी कतारें बताती हैं कि मध्यवर्ग ने राहतभरी सांस लेने का आसान रास्ता खोज लिया है। जो थोड़ा ज्यादा खर्च कर सकते हैं, वे अमेजन ऑनलाइन ट्रेडिंग पोर्टल पर क्रेडिट कार्ड का प्रयोग कर एयर प्यूरीफायर खरीद रहे हैं। विशाल बाजार को देखते हुए अमेजन ने एयर फ्यूरिफायर खरीदने के लिए अलग पेज बनाया है। मिनी प्यूरीफायर, कार प्यूरीफायर और घर के लिए बड़े प्यूरीफायर के विकल्प मौजूद हैं।नई दिल्ली सरकार एक कदम और आगे बढ़कर पांच सब से व्यस्त ट्रैफिक चौराहों पर विशाल प्यूरीफायर स्थापित करने वाली है। 27 घनफीट की दैत्याकार मशीन इस रफ्तार से स्वच्छ वायु फेंकेगी कि विषैले तत्व दूर धकेल दिए जाएंगे। सीधे शब्दों में कहें तो चौराहों पर मौजूद विषैले प्रदूषक तत्व तेजी से कम प्रदूषण वाली जगहों पर फैलाए जाएंगे। इससे देर-सबेर ऐसी स्वच्छ हवा के गलियारे बनाने की नौबत आएगी, जिनसे आप स्वच्छ हवा लेने के लिए गुजरेंगे। यह ठीक एयरपोर्ट पर पाए जाने वाले स्मोकिंग लाउंज जैसे होंगे, जहां जाकर आप धूम्रपान कर सकते हैं। मामला ठीक उलट हो जाएगा। बाहर की हवा इतनी प्रदूषित होगी कि स्पेशल वातायन गलियारे बनाने होंगे ताकि आपको थोड़ी स्वच्छ व शुद्ध हवा मुहैया कराई जा सके। इसे पढ़कर आपके चेहरे पर मुस्कान आ सकती है, लेकिन यह कोई खयाली पुलाव नहीं है। चीन ने तो बीजिंग में पांच विशाल वेंटीलेशन कॉरिडोर का निर्माण शुरू भी कर दिया है ताकि लोगों को सेहत के लिए खतरनाक स्मॉग (धुएंभरे कोहरे) से राहत दी जा सके।
यह सब यहीं खत्म नहीं होगा। मुझे तो उस दिन का इंतजार है, जिस दिन नई दिल्ली लोकप्रिय स्थानों पर विशाल एलईडी स्क्रीन लगाएगी ताकि लोगों को बताया जा सके कि सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य कैसे दिखते हैं। स्माग भरे सप्ताह में जब कोहरा लगातार देखने में बाधा बना रहता है, बीजिंग ठीक यही करता है। नि:संदेह वह दिन दूर नहीं है जब हिमालय की ताजी हवा से भरी बोतलों की अमेजन, फ्लिपकार्ट और स्नैपडील पर सबसे ज्यादा बिक्री होगी। कनाडा के पर्वतों से भरकर लाई ताजी हवा की बोतलों का बीजिंग में बहुत क्रेज है।यदि नई दिल्ली लगातार नकार की मुद्रा में रहकर हवा की खराब होती गुणवत्ता के लिए पड़ोसी पंजाब व हरियाणा के किसानों को दोष देती रहेगी तो मुझे पक्का विश्वास है कि भविष्य का जो नज़ारा मैंने ऊपर खींचा है, वह जल्द ही वास्तविक रूप ले लेगा। धनी और बढ़ता मध्यवर्ग जिम्मेदारी स्वीकारने की बजाय बलि का बकरा खोज रहा है। वे न तो यह चाहते हैं कि कोई उनकी विलासी जीवनशैली पर सवाल उठाए और न वे खुद कोई त्याग करना चाहते हैं। ऐसे में बढ़ते प्रदूषण स्तर के लिए किसानों को दोष देना बहुत आसान है। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में खेतों में बचें ठूंठ जलाने से नई दिल्ली गैस चैम्बर नहीं बनी है। नई दिल्ली पिछले 15 वर्षों से गैस चैम्बर बनी हुई है। मुझे याद है कि करीब 15 साल पहले मैंने एक बड़े अखबार के लिए लेख लिखा था कि कैसे नई दिल्ली गैस चैम्बर बन गई है तो दिग्गज सितार वादक पंडित रवि शंकर ने मुझे यह कहने के लिए फोन किया कि रात को ड्राइविंग करते समय उन्हें ऐसा लगता है, जैसे वे धुएं की सुरंग में ड्राइव कर रहे हैं। जब 1998 में यह प्रस्ताव लाया गया कि सार्वजनिक परिवहन को कम प्रदूषक सीएनजी पर लाना अनिवार्य बनाया जाए तो लोगों के साथ मीडिया ने भी उसका कैसा विरोध किया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश नहीं होते तो दिल्ली ऑटो रिक्शे के घिनौने धुएं से बच नहीं पाती।
इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि धान की फसल काटने के बाद किसान बचे ठूंठ जलाने पर उतारू हो जाते हैं। धान की फसल सितंबर अंत या अक्टूबर की शुरुआत में ली जाती है और अगले पंद्रह दिनों में ही किसानों को फसल बाजार में बेचकर, जमीन तैयार करने के बाद अगली फसल के लिए बीज बोने होते हैं। समस्या कम्बाइन हार्वेस्टर मशीन से पैदा हुई है, जिनका इस्तेमाल इतने बरसों में लगातार बढ़ता रहा है। ये मशीनें ऊपर से अनाज की बाली वाला हिस्सा काट लेती हैं और करीब एक फुट तना छोड़ देती है। इन्हें खेत से हटाना अत्यधिक मेहनत और लागत का काम है। चूंकि जानवर इन्हें खाते नहीं और न ये मिट्‌टी में जल्दी गलते हैं। ऐसे में किसान के पास सबसे अच्छा विकल्प इन्हें जलाना ही है।मुझे लगता है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने जब ठूंठ जलाने वाले किसानों पर जुर्माना तय किया तो उसने जमीनी वास्तविकता को ध्यान में नहीं लिया। जलाने की बजाय उचित पद्धति अपनाई जाए तो प्रति एकड़ 5 हजार रुपए खर्च आता है, जो सरकार देने को तैयार नहीं है। चूंकि पंजाब के किसान की औसत अाय प्रति एकड़ 3,400 रुपए से ज्यादा नहीं होती, उससे इस लागत की अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा।
मैं बार-बार कहता रहा हूं कि हर विनाश बिज़नेस का मौका होता है। चाहे इन मशीनों पर सब्सिडी दी गई हो, अधिक मशीनों का मतलब किसानों पर अधिक कर्ज। सही समाधान यह है कि कम्बाइन हार्वेस्टर के साथ बैलर लगाना अनिवार्य कर दिया जाए। जब भी कम्बाइन हार्वेटर चले तो इसमें ठूंठ काटने के लिए दूसरी ब्लैड हो जो काटकर गठानें बनाकर ढेर लगा दे। इन गठानों को बिजली बनाने के लिए और कम्पोस्टिंग के लिए व्यावसायिक रूप से बेचा जा सकता है। पंजाब की मिट्टी को अॉर्गनिक पदार्थों की अत्यधिक आवश्यकता है।नई दिल्ली को प्रदूषण से निपटने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। 8.80 लाख वाहन तो पंजीकृत है ही, रोज 5.6 लाख शहर में प्रवेश करते हैं। धुआं उगलते उद्योगों, निर्माण उद्योग, कोयला आधारित बिजली केंद्र और डीज़ल से प्रदूषण पर कोई रोक न होने से मध्यवर्ग बेधड़क प्रदूषण फैलाता रहता है। शक्तिशाली लॉबियों ने ऑड-ईवन नीति भी फिर नहीं लगाने दी, क्योंकि आलसी मध्यवर्ग कोई त्याग नहीं करना चाहता। देश में जो त्रुटिपूर्ण शहरीकरण चल रहा है, दिल्ली का स्मॉग उसका नतीजा है। धनी वर्ग ने हवा का निजीकरण कर दिया है और मध्यवर्ग इसे खरीदकर अपना रास्ता निकाल रहा है। यह उस आर्थिक विकास के मॉडल की कीमत है, जो पटरी छोड़ चुका है। यही वक्त है कि उचित सुधार किए जाए। आप कल का इंतजार नहीं कर सकते।
देविंदर शर्मा,पर्यावरणविद और कृषि विशेषज्ञ(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

business-standard-hindiDate: 09-11-16

समग्र विकास की अवधारणा में भ्रामक है जीडीपी की होड़

इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली की हवा दुनिया में सबसे खराब है। जनवरी की सुबह की तरह का अंधेरा इन दिनों भरी दोपहरी में फैला हुआ है और धुएं का कहर चारों तरफ फैला हुआ है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हवा का स्तर जैसा होना चाहिए, वह उससे छह गुना खराब है। ऐसी हवा में एक घंटे भी खुला घूमने पर फेफड़ों को भारी नुकसान हो सकता है। हालात यहां कैसे पहुंचे? बीते एक सप्ताह या 10 दिन में हवा का स्तर बुरी तरह खराब हुआ है। दीपावली के पटाखों के कारण हवा में सल्फर की मात्रा बहुत बढ़ गई है। इसके अलावा पंजाब और हरियाणा में खेती के बाद बचा हुआ कचरा जलाया जा रहा है। इन राज्यों के किसान बार-बार अनुरोध के बावजूद खेतों में बची खूंटियों को निकालने के बजाय उनमें आग लगा देते हैं। उनका कहना है कि खेतों को दूसरी तरह से साफ करना खासा मुश्किल काम है। कहा जा सकता है कि यह समस्या गलत आर्थिक सोच से उपजी है।

ऐसी सोच के चलते ही पंजाब चावल पर इस कदर निर्भर हो गया। धान की खेती नदी के किनारे होती है। इसकी बुआई केवल उस इलाके में होनी चाहिए जहां प्रचुर मात्रा में जल संसाधन हों। पंजाब जैसी जगहों पर किसानों को चावल की खेती का प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए जैसा कि अभी हो रहा है। धान की कृत्रिम सिंचाई के चलते शहरों और उद्योग धंधों को जल संकट और बिजली की कमी का सामना करना पड़ता है। जबकि भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। अब अद्र्घ शुष्क इलाकों में धान की खेती के परिणाम भी नजर आने लगे हैं। दिल्ली में धुएं की ताजा समस्या उसकी बानगी है।
प्रश्न यह भी है कि जब किसी किसान को लगता है कि धान के खेतों में बची रह गई खूंटी निकालने के लिए सस्ते श्रमिक रखना भी उसके लिए बहुत महंगा है तो इससे आपको क्या पता चलता है? पहली बात इसकी कीमत कई लोग चुकाते हैं। उसे लगता है कि उसे प्रदूषण फैलाने का अधिकार है जबकि इसका असर लाखों लोगों की सेहत पर पड़ता है। यह बाजार की ऐसी विफलता है जिसमें सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। परंतु राजनीतिक हालात उसे ऐसा करने से रोकते हैं। दूसरी बात यह पता चलती है कि सरकार बहुत कमजोर है। वह जन स्वास्थ्य के आसन्न संकट के बावजूद ऐसी गतिविधियां रोक नहीं पाती। खेतों में यूं आग लगाने पर 15,000 रुपये का जुर्माना है जो अब तक शायद ही किसी से लिया गया हो। क्या कोई बताएगा कि ऐसे हालात जारी कैसे रहने दिए गए? प्रधानमंत्री इतने कमजोर क्यों हैं कि जिस शहर में  वह रहते हैं वह नर्क का प्रतिरूप बन गया है। हम इसे प्रशासनिक क्षमताओं के अंत के रूप में क्यों नहीं देखते?
एक और प्रश्न जिस पर विचार किया जाना चाहिए वह यह है कि यह घटना हमारी जन नीति की अर्थव्यवस्था के बारे में क्या बताती है? सरकार अगर किसानों के लिए बुआई मशीन खरीदती है तो उसका पैसा लगेगा। अगर किसानों को खेती का कचरा निपटाने की सबसे सस्ती तकनीक अपनाने को कहा जाए तो उनका पैसा लगेगा। लेकिन मौजूदा व्यवस्था की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है यह कोई नहीं सोच रहा। श्रमिकों को हो रहा नुकसान नहीं नजर आता। स्वास्थ्य पर बढऩे वाला खर्च भी शायद जीडीपी के आंकड़ों को प्रभावित नहीं करता। हर बार जब आप प्रदूषित हवा में सांस लेते हैं तो आपको खुद से कहना चाहिए कि अगर जीडीपी वृद्घि पर ध्यान देने वाली सरकारें अगर हवा के इस बिगड़ते स्तर का ध्यान नहीं रख सकती तो हमें हमें जीडीपी वृद्घि के लक्ष्य का पीछा करना बंद कर देना चाहिए।
अतीत में जीडीपी की अधिकांश आलोचना इस बात के लिए की गई है कि इसका असमानता या गरीबी से कोई सीधा संबंध नहीं है। यह आलोचना तार्किक है। बहरहाल इसमें एक बड़ी खामी भी है: खामी यह कि असमानता और गरीबी का आकलन तो जीडीपी के बगैर किया जा सकता है। जीडीपी के प्रति मोह की आलोचना गलत वजह से होती रही। जीडीपी से जुड़ी कई बड़ी समस्याएं भी हैं। उनमें से सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसमें बाहरी परिस्थितियों, स्वच्छ हवा, स्वच्छ पानी और प्राकृतिक संसाधनों आदि को लेकर कुछ भी नहीं कहा गया है।
जरा एक अन्य प्रयोग पर विचार कीजिए। देश के तमाम अन्य शहरों की तरह दिल्ली के जीवन की एक और समस्या है निर्माण गतिविधियों का लगातार शोर। इमारतों की तोडफ़ोड़ की आवाज, संगमरमर को चमकाने की आवाज या अन्य शोरगुल भरी आवाज ने हममें से कइयों की रातों की नींद खराब की है। यह समस्या आसानी से हल हो सकती है। निर्माण वाली जगहों को धातु की शीट से ढका जा सकता है ताकि आवाज का शोर बाहर न जाए। कई अन्य देश ऐसा करते हैं। इसके बजाय हमारे यहां सबकुछ खुले में किया जाता है। हम मूलभूत नियमों का पालन भी नहीं करते क्योंकि इससे निर्माण कार्य महंगा होगा। ऐसा न करने से जीडीपी को भी तो मदद मिलती है। दूसरी तरह से सोचें तो निर्माण कार्य पर मूलभूत प्रतिबंध लगाने से जीडीपी पर बुरा असर होगा। फिर भी उसके अनेक लाभ हैं।
इससे आसपास के अन्य क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ेगी। लेकिन इस पहलू पर कोई गौर नहीं करता है कि कैसे शोरगुल का न होना अन्य क्षेत्रों की उत्पादकता में इजाफा करने वाला साबित होगा। मुझे उम्मीद है कि अगले 15 सालों में जो बदलाव आएंगे उनमें एक बड़ा बदलाव यह होगा कि अधिक से अधिक सरकारें यह समझना आरंभ कर देंगी कि जीडीपी वृद्घि के पीछे पड़े रहना न केवल अनुपयोगी है बल्कि खतरनाक भी है। इसलिए नहीं कि विकास बुरा है या जीडीपी को बढ़ावा देने वाली नीतियां बुरी हैं। बल्कि इसलिए क्योंकि बतौर उपकरण जीडीपी बहुत कुंद और कुरूप है।

ie-logoDate: 08-11-16

Unwise move

The decision to bring in a political appointee to the NHRC must be reconsidered.

The apparently unanimous decision to appoint a career politician to the National Human Rights Commission (NHRC) is a questionable step. Since its inception in 1993, the NHRC has always had a retired chief justice of India as its chairperson, a former judge of the Supreme Court, a former chief justice of a high court and two persons who have knowledge of, or practical experience in, matters relating to human rights. This precedent evolved from a principle laid down in the Protection of Human Rights Act, 1993. There is no evident reason for it to be abandoned now and the panel that appoints the NHRC members — including the prime minister, the Lok Sabha speaker, leaders of opposition in the Lok Sabha and the Rajya Sabha among others — should rethink its decision.

The reported choice of the panel for the post is Avinash Rai Khanna, a vice president of the BJP and a former MP, whose only claim to be a part of the NHRC seems to be a short stint in the Punjab State Human Rights Commission. The question is not whether a politician ought to be in the NHRC. It is: Why change a convention that has served the institution and the system well? The ex-officio members of the NHRC are mostly political appointees — chairpersons of the national commissions for minorities, Scheduled Castes, Scheduled Tribes and women. It is important for the balance of the institution to exclude persons with clear political affiliations from full-time membership. This organisational structure has allowed the NHRC to gather a standing, over the years, as an independent and fair-minded body capable of resisting pressure from the political executive. The contributions the NHRC has made to help victims of the Gujarat riots of 2002 and human rights violations in Jammu and Kashmir reveal the ability of the body to stand for justice, even if it means standing against the current.

It is telling that the Opposition, which rarely agrees with the government on any issue, has been a willing participant in the government’s bid to capture the body for the political class. Earlier, the BJP had opposed the nomination of a former judge to the NHRC because he was “perceived to be close to certain political and religious organisations”. Indeed, perceptions matter, especially when it comes to institutions like the NHRC. It is ironic, then, that in office, the BJP has picked a party office-bearer for the body. The move could erode the institution’s standing as an impartial body.


logo-hindustanDate: 08-11-16

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