09-07-2024 (Important News Clippings)
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क्या वजह है कि शोध की दौड़ में हम पिछड़ रहे हैं
संपादकीय
यह निर्विवाद सत्य है कि विकसित देशों के मुकाबले भारत में शोध की गुणवत्ता अच्छी नहीं है। उद्योगों को जो चाहिए, उस पर पर्याप्त शोध नहीं होता और जिस पर शोध होता है, वह उद्योगों की जरूरत से काफी पीछे होता है। इसका कारण प्रतिभा की नहीं, धन की कमी है। एआई-एमएल (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस – मशीन लर्निंग) के दौर में शोध पर जीडीपी का मात्र 0.6 प्रतिशत खर्च करके हम विश्वस्तरीय शोध नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री ने जब अपनी अध्यक्षता में ‘अनुसंधान नेशनल रिसर्च फाउंडेशन’ बनाने की घोषणा की और इस पर आने वाले 50 हजार करोड़ रुपए के खर्च का 70 प्रतिशत उद्योगों के जरिए लेने की बात की, तो लगा कि शोध में सुधार होगा। लेकिन पिछले सप्ताह के एक कदम से बहुत उम्मीद नहीं जगी । विज्ञान मंत्रालय ने इस फाउंडेशन की एग्जीक्यूटिव और गवर्निंग बॉडीज की घोषणा की। इनमें एक भी सदस्य उद्योग जगत से नहीं है। यह सरकार का उद्योगपतियों के प्रति रवैया दर्शाता है। अमेरिका या यूरोप में शोध का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र स्वयं खर्च करता है और उस हिसाब से लाभ भी लेता है। आखिर क्या वजह है कि सेमी-कंडक्टर के उत्पादन को बढ़ावा देने की योजना के तहत गुजरात में इकाई लगाने के लिए एक अमेरिकी उद्योग को उसकी कुल लागत का 70 प्रतिशत सब्सिडी के रूप में देने के बावजूद आज तक देश में फाउंडरीज ही लाई गई हैं ना कि डिजाइनिंग जैसी मौलिक उत्पादन प्रक्रिया शुरू हुई है। रिसर्च फाउंडेशन कानून ने प्रधानमंत्री को उद्योग जगत से पांच सदस्य नामित करने की शक्ति दी है। कहना न होगा कि इस संस्था के भविष्य को लेकर प्रधानमंत्री ने एक बार फिर अफसरशाही पर ज्यादा भरोसा जताया है, क्योंकि तमाम विभागों के सचिव इसके सदस्य होंगे, जिनका उच्च-स्तरीय शोध से कुछ भी लेना-देना नहीं है ।
Date: 09-07-24
सबसे पावरफुल ब्रांड अपने अंदर का आत्मविश्वास है
रश्मि बंसल, ( लेखिका और स्पीकर )
कुछ दिन पहले मैं एक फैंसी मॉल गई, जहां दुनियाभर की फैंसी दुकानें हैं। डिस्प्ले विंडो में एक जूता पसंद आया, प्राइस टैग लगा नहीं था। पूछना पड़ा, ये कितने का है? सेल्समैन ने गंभीरता से उद्घोषणा की, ‘मैडम 70 हजार रु. का। ओनली।’ जी, उस दुकान का सबसे सस्ता माल यही था। क्या उसमें हीरे-जवाहरात जड़े थे? नहीं। वही मटेरियल, जो हर जूते में होता है, डिजाइन थोड़ा अलग था। कीमत सिर्फ ब्रांड की थी। क्रिस्टियां डियॉ, अरमानी, लुई वितों, यहां से खरीद का चार्म किसी नुक्कड़ की दुकान में थोड़े ही मिलेगा।
वैसे कुछ कहानी तो फिर भी बनानी पड़ती है ना, तो लीजिए। हमारा बैग ‘मेड इन इटली’ है। कारीगरी देखिए, पूरा हाथ से बना है। अपने देश में भी जूते-बैग हाथ से बनते हैं। मगर देसी-विदेशी हाथों में फर्क होता है, समझा करो।
खैर, हाल ही में एक खबर आई जिसने इसका भी भांडा फोड़ दिया। जिस ब्रांड का हैंडबैग ढाई लाख रुपए का बिक रहा है, उसे बनाने की कीमत सिर्फ 4500 रुपए है। और माल बनता है छोटे-से कारखाने में, जो इटली में है, मगर बनाने वाले हाथ हैं चीनी। दस घंटा काम करते हैं ये वर्कर्स, बंधुआ मजदूर के समान। अगर महीने में एक भी छुट्टी न लें तो भी 1,000 यूरो नहीं बनेंगे (जो वहां रहने के लिए नाम मात्र पैसा है)। ये जानकारी एक कोर्ट केस के तहत दिए गए बयान से बाहर निकली।
लेकिन कॉमन सेंस की बात है, कहीं न कहीं खरीदने वालों को पता था कि इस बैग में कोई बहुत खास बात नहीं। बस लोगो देखकर औरों पर इफेक्ट पड़ेगा, इसलिए हमें लेना है। चिल्ला-चिल्लाकर कहता है, इसके पास जरूरत से ज्यादा पैसा है। शायद इनके घर से भी प्री-वेडिंग का बुलावा आएगा।
पैसा कोई बुरी बात नहीं, जिसने मेहनत से कमाया है, उसे जरूर एंजॉय भी करना चाहिए। मगर हमारे अंदर एक रडार भी जरूरी है। क्या मैं ये अपनी खुशी के लिए कर रही हूं, या सिर्फ दिखावे के लिए? ये आप आसानी से परख सकते हैं, एक सिंपल टेस्ट से। आपने एक ड्रेस ली, शीशे में खुद को देख मुस्कुराईं। सोचा, मैं अच्छी लग रही हूं। मतलब ड्रेस अपनी खुशी के लिए ली थी, मकसद पूरा हुआ। लेकिन अगर अपनी छवि देखकर आप सोच रही हैं, आज डिंपल जलेंगी, डॉली कॉम्प्लिमेंट देगी, इत्यादि-इत्यादि, तो आप दिखावे वाली कैटेगरी में हैं।
अब आप पूछेंगे, दिखावे में क्या प्रॉब्लम है। दुनिया इसी पर ही तो चल रही है। प्रॉब्लम ये है कि दिखावा करने के बाद भी एक खोखलापन महसूस होता है। क्योंकि सतही स्तर से आगे वो रिश्ता बढ़ नहीं पाता। दो फुट के तालाब में तैरने का वो मजा नहीं, जो गहरे सागर में मिलता है। लोगों की नजर मेरे पहनावे पर लगी हुई है, मुझे तो वो जानते ही नहीं। मेरी खुशी, मेरा गम, मेरा दर्द, मेरा दिल, उस एक लोगो के पीछे छुपा के घूमती हूं। पर इस चक्रव्यूह में से निकलूं कैसे? चलिए एक और प्रयोग करते हैं।
अगली बार लोकल मार्केट जाकर, अपनी पसंद, अपने रंग-ढंग से कपड़े खरीदें। जरूरी है कि आप अपनी पसंद से खुश हों, पहनकर मन में ख्याल आए, मैं अच्छी लग रही हूं। अगर सच्चे दिल से खुद को कॉम्प्लिमेंट किया, तो दूसरे लोगों के भी कॉम्प्लिमेंट्स जरूर आएंगे।
असल में सबसे पावरफुल ब्रांड होता है अपने अंदर का कॉन्फिडेंस। अगर आपके चेहरे पर वो चमकता है, तो लोगों की नजर आप पर टिकेगी। आपके कपड़े-जूते या हैंडबैग पर नहीं। ये करके कैसा महसूस हुआ, नोट करें। एक संतुष्टि जरूर मिलेगी। जरूरी नहीं कि लंबी गाड़ी बेहतर गाड़ी है, आप छोटी गाड़ी में भी बढ़िया सफर कर सकते हैं। जरूरी नहीं कि हर छुट्टी विदेश में मनाई जाए, आप भारत में भी आनंद ले सकते हैं। ऊंचे ब्रांड पहन कर आप बुद्धू बन रहे हैं। उन कंपनियों की जेब भर रहे हैं। दिखावा है एक धोखा। खत्म करो अपने से धोखा।
फिर भारत की चिंता बढ़ाता नेपाल
डॉ. ऋषि गुप्ता, ( लेखक एशिया सोसायटी पालिसी इंस्टीट्यूट, दिल्ली के सहायक निदेशक और नेशनल चेंगची यूनिवर्सिटी ताइपे में फेलो हैं )
नेपाल में वाम दल की सरकार एक बार फिर अस्थिरता की ओर बढ़ रही है। इसका कारण नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) का मौजूदा गठबंधन से अलग होना है। पूर्व प्रधानमंत्री और एमाले पार्टी प्रमुख केपी ओली ने 2022 के संसदीय चुनाव में उभरी सबसे बड़ी पार्टी नेपाली कांग्रेस के प्रमुख शेर बहादुर देउबा के साथ समझौता कर नई सरकार बनाने की बात कही है। 275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में नेपाली कांग्रेस के पास 89 सीटें हैं, एमाले के पास 78 और पुष्प कमल दहल प्रचंड की पार्टी माओवादी सेंटर 32 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर है। प्रचंड के पास अब इस्तीफा देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह गया है। हालांकि यह पहली बार नहीं होगा कि केपी शर्मा ओली और नेपाली कांग्रेस पार्टी प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा मिलकर सरकार बनाएंगे। वह पहले भी ऐसा कर चुके हैं। इनकी गठित होने वाली सरकार मौजूदा वाम सरकार की अपेक्षा काफी स्थिर होगी, क्योंकि दोनों ही इस पर सहमत हैं कि ओली और देउबा बारी-बारी से सरकार चलाएंगे। वैसे नेपाली राजनीति में समझौतों का सम्मान विरले ही हुआ है और यदि यह सरकार भी गिरती है तो आश्चर्य नहीं होगा, लेकिन सरकारों का बार-बार गिरना नेपाली लोकतंत्र का एक चिंताजनक पहलू है। नेपाल की अस्थिरता भारत के लिए भी चिंता का विषय है।
नेपाल में 2008 का साल लोकतंत्र की स्थापना और एक नई व्यवस्था के आरंभ का पड़ाव बना। दस वर्ष लंबे चले माओवादी विद्रोह के बाद सदियों पुराने हिंदू राजशाही वाले शासन का अंत हुआ। उसी वर्ष पहले लोकतांत्रिक चुनावों में माओवादी सेंटर को अच्छी-खासी सीटें मिलीं और प्रचंड पहले लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनकी सरकार साल भर भी नहीं चली। तब से लेकर आज तक नेपाल की कोई भी पार्टी न अकेले बहुमत हासिल कर पाई है और न ही किसी गठबंधन सरकार ने पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा किया है। 2008 से नेपाल में 14 प्रधानमंत्री बन चुके हैं। पिछले दो वर्षों में ही तीन बार सरकारें बनी हैं, जिनमें दो बार वाम गठबंधन वाली सरकारें रहीं। नेपाली राजनीति और राजनीतिक दलों को नजदीकी से देखने पर एक बात साफ तौर पर सामने आती है कि वाम दलों के नेता इसी प्रयास में रहते हैं कि कब प्रधानमंत्री बनने का मौका मिले। प्रचंड और ओली वामपंथी होने के बावजूद एक-दूसरे के धुर-विरोधी हैं और सरकार में रहते हुए भी सत्ता के लिए लड़ते रहे हैं।
वेस्टमिंस्टर संसदीय व्यवस्था में गठबंधन सरकारों का गिरना और बनना आम बात है, लेकिन जिस तरह नेपाल में लोकतंत्र का विकास हुआ है, उसने उसका अधिक नुकसान ही किया है। राजनीतिक अस्थिरता के चलते नेपाल से हर वर्ष लगभग डेढ़ लाख युवा अन्य देशों में काम की तलाश में पलायन कर रहे हैं। वहां इस स्तर का पलायन 1996 से 2006 के बीच हुए माओवादी विद्रोह के दौरान देखा गया था, लेकिन शांति काल में ऐसा होना चिंतनीय है। इसे देखते हुए माना जा रहा है कि आने वाले वर्षों में नेपाल में युवाओं की संख्या कम होती जाएगी। इस राजनीतिक अस्थिरता का उसके व्यापार, विदेशी निवेश और पर्यटन पर भी काफी असर पड़ा है। एक स्थलरुद्ध देश होने के बावजूद नेपाल अभी तक भारत और चीन के विषय में एक विस्तृत विदेश नीति का खाका नहीं तैयार कर पाया है। जब तक कोई नई सरकार और मंत्री नेपाल की विदेश नीति को समझ पाते हैं और नीतिगत निर्णय लेने के बारे में कुछ सोचते हैं, तब तक वह सरकार ही गिर जाती है। किसी देश की विदेश नीति उसके व्यापार और निवेश को कई मायनों में निर्धारित करती है। इसी कारण नेपाल विकास के मोर्चे पर लगातार पिछड़ रहा है।
केपी ओली की विदेश नीति जगजाहिर है। ओली की पिछले दस वर्षों की राजनीति भारत विरोध और चीन के साथ नजदीकी पर टिकी रही है। इस बार भी इसमें ज्यादा अंतर नहीं दिखेगा। वैसे भारत के साथ नेपाल के व्यापार पर इसका अधिक असर नहीं होगा, लेकिन चीन के सामरिक प्रभाव के चलते नेपाल में भारत के सहयोग से चल रहीं पनबिजली और बुनियादी ढांचे के विकास की योजनाओं की गति में कमी देखी जा सकती है। ओली चीन के साथ ज्यादा से ज्यादा जुड़ने की कोशिश करेंगे। 2017 में नेपाल चीन की अत्यंत महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड पहल का हिस्सा बना था, लेकिन उस पहल के अंतर्गत अभी एक भी प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो पाया है। चूंकि बेल्ट एंड रोड पहल चीन के सामरिक नजरिये से महत्वपूर्ण है, लिहाजा वह चाहेगा कि केपी ओली इसमें जान फूंकें। भारत के साथ सीमा विवाद के चलते चीन नेपाल में अपने सैन्य प्रभाव को भी बढ़ाने पर जोर देता रहा है। 2017 और 2018 में नेपाल और चीन की सेना के बीच ‘सागरमाथा मित्रता संयुक्त सैन्य अभ्यास’ हुआ था। 2019 से यह सैन्य अभ्यास बंद पड़ा है। चीन का प्रयास रहेगा कि ओली इसे पुनः शुरू करें।
भारत मानचित्र और कालापानी विवाद के बावजूद नेपाल नीति को एक नई दिशा देने में काफी हद तक सफल रहा है। नेपाल में कुछ दलों की भारत विरोधी नीतियों के बावजूद भारत ‘पड़ोसी प्रथम’ नीति के तहत उससे लगातार संपर्क करता रहा है, लेकिन ओली के सत्ता में आने के बाद भारत को चीन के प्रभाव और भारत विरोधी भावनाओं से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। भले ही चीन भारत और नेपाल के व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क को न तोड़ पाए, लेकिन नेपाली युवाओं में भारत के खिलाफ कालापानी विवाद के मुद्दे पर भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा।
Date: 09-07-24
उपभोक्ताओं का सशक्तीकरण
संपादकीय
गत सप्ताह एक स्वागतयोग्य घटनाक्रम में भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने खाद्य संरक्षा एवं मानक (लेबलिंग और प्रदर्शन) नियमन 2020 को मंजूरी प्रदान कर दी। इसके तहत खाद्य पदार्थों में नमक, शक्कर और संतृप्त वसा (सैचुरेटेड फैट) के बारे में मोटे अक्षरों में जानकारी देनी होगी। ऐसा नहीं है कि पैकेटबंद खाद्य पदार्थों में यह सूचना उपलब्ध नहीं है लेकिन यह अक्सर छोटे अक्षरों में दी जाती है जिसकी अक्सर अनदेखी हो जाती है। यह कदम उपभोक्ताओं को सही निर्णय लेने में सक्षम बनाने के उद्देश्य से उठाया गया है। इस संशोधन से जुड़ी मसौदा अधिसूचना अंशधारकों के सुझावों और टिप्पणियों के लिए सार्वजनिक पटल पर रखी जाएगी। प्राधिकरण यह देखना चाहता है कि अन्य अंशधारक मसलन कंपनियां प्रस्तावित संशोधन के क्रियान्वयन के बारे में क्या कहना चाहती हैं।
यह कई वजहों से अहम है। भारत तेजी से विकसित हो रहा है और उसका शहरीकरण भी हो रहा है। ऐसे में कई वजहों से अधिक से अधिक संख्या में लोग पैकेटबंद भोजन को अपना रहे हैं। पैकेटबंद खाद्य पदार्थों की सहज उपलब्धता के कारण बड़ी तादाद में बच्चे पैकेटबंद चीजों को खाते हैं जिससे उनके स्वास्थ्य को बड़ा खतरा उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए यूनिसेफ के वर्ल्ड ओबेसिटी एटलस 2022 के मुताबिक 2030 तक भारत में 2.7 करोड़ से अधिक बच्चे मोटापे के शिकार होंगे। यह दुनिया के कुल मोटे बच्चों का करीब 10 फीसदी होगा। भारत में बड़ी तादाद में कुपोषित बच्चे हैं और इस बीच अधिक वजन वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है। ऐसे में प्राधिकरण की यह अपेक्षा सही है कि जन स्वास्थ्य में सुधार के लिए इन बदलावों को लागू किया जाए।
प्राधिकरण की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उसने इस दिशा में सक्रियता दिखाई है लेकिन केवल पोषण संबंधी सूचना को बड़े अक्षरों में लिखाना पर्याप्त उपयोगी नहीं होगा बल्कि उपभोक्ताओं को इसका अर्थ भी पता होना चाहिए। उन्हें यह जानकारी भी होनी चाहिए कि किस सीमा तक उपभोग करने से नुकसान शुरू हो जाता है। साफ कहा जाए तो कुल संतृप्त वसा, नमक और शक्कर के बारे में मोटे अक्षरों में जानकारी दिए जाने के बावजूद बड़े पैमाने पर जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। केंद्र और राज्यों के स्तर पर जन स्वास्थ्य से जुड़े विभागों को यह सलाह दी जानी चाहिए कि वे जागरूकता फैलाने के लिए सार्वजनिक अभियान चलाएं। बेहतर खाद्य पदार्थों का चयन भी स्वास्थ्य व्यवस्था पर दबाव कम करने का काम करेगा।
एक अन्य मुद्दा पैकेटबंद खाद्य पदार्थों में नियमन की सख्ती का भी है। यहां खाद्य नियामक को अधिक सक्रियता दिखाने की जरूरत है। उदाहरण के लिए भारतीयों को कुछ लोकप्रिय ब्रांड के मसालों में हानिकारक तत्त्वों के होने का पता तब चला जब उनका विदेशों में परीक्षण किया गया। इसका खुलासा एक विदेशी गैर सरकारी संगठन ने किया था कि एक लोकप्रिय बेबी फूड ब्रांड भारत जैसे विकासशील देशों में अतिरिक्त चीनी का इस्तेमाल कर रहा है। एक इंटरनेट इन्फ्लुएंसर के खुलासों के बाद ई-कॉमर्स वेबसाइटों को यह सलाह दी गई कि वे कुछ ब्रांडों को स्वास्थ्यवर्धक पेय की श्रेणी में रखकर न बेचें। ऐसे में यह अहम है कि खाद्य नियामक न केवल यह स्पष्ट करे कि विभिन्न तत्त्वों की मान्य सीमा क्या है बल्कि यह भी सुनिश्चित करे कि खाद्य क्षेत्र की सभी कंपनियां दिशानिर्देशों का पालन करें। नियामक को यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि सभी कंपनियां नियमों का पालन करें। यह न केवल लोगों के स्वास्थ्य के लिए बेहतर है बल्कि प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों तथा अन्य उत्पादों के लिए निर्यात के अवसर भी तैयार होंगे। इससे रोजगार का सृजन होगा और सभी को फायदा होगा। वर्ष 2014-15 से 2022-23 के बीच कुल कृषि खाद्य निर्यात में प्रसंस्कृत खाद्य की हिस्सेदारी दोगुनी होकर करीब 26 फीसदी हो गई। खाद्य नियमन में वैश्विक मानकों का पालन अवसर बढ़ाएगा।
Date: 09-07-24
सहकारिता का भारतीय कृषि में योगदान
केसी त्यागी और बिशन नेहवाल
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, जो आधे से अधिक कार्यबल को रोजगार और जीडीपी में महत्त्वपूर्ण योगदान देती तथा देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती है। मगर भारतीय कृषि को लगातार एक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। ‘क्रिसिल’ की 2021 की रपट में कृषि में ऋण अंतर लगभग 6-7 लाख करोड़ रुपए होने का अनुमान लगाया गया था। यह ऋण अंतर कृषि विकास, आधुनिकीकरण और अंतत: किसानों की आय में बाधा उत्पन्न करता है। परंपरागत रूप से, भारतीय किसानों को अनौपचारिक स्रोतों, जैसे साहूकारों पर बहुत अधिक भरोसा है, जो अत्यधिक ब्याज वसूलते हैं। यह ऋण जाल कई किसानों को गरीबी में धकेल देता, यहां तक कि आत्महत्या को भी विवश कर देता है। वाणिज्यिक बैंकों जैसे औपचारिक ऋण संस्थान अक्सर बड़ी ऋण राशि को प्राथमिकता देते हैं, जिससे छोटे और सीमांत किसान दूर हो जाते हैं।
यहीं पर सहकारी समितियां आशा की किरण के रूप में उभरती हैं। अपने विशाल संजाल, सदस्य-केंद्रित दृष्टिकोण और ग्रामीण विकास पर ध्यान देने के साथ, सहकारी समितियां भारतीय कृषि की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। जबसे सहकारिता विभाग को कृषि मंत्रालय से अलग कर एक स्वतंत्र मंत्रालय बनाया गया, तब से सहकारिता क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधारों की उम्मीद जगी है।
आज भारत में 8.5 लाख से ज्यादा सहकारी समितियों का मजबूत नेटवर्क है, जो कृषि, डेयरी, आवास जैसे विभिन्न क्षेत्रों को मदद करता है। इन समितियों ने ग्रामीण समुदायों को सशक्त बनाने और समावेशी आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है। भारत में कई राज्यों ने कृषि ऋण में सहकारी समितियों की प्रभावशीलता को प्रदर्शित किया है। महाराष्ट्र अपने सफल सहकारी आंदोलन के लिए प्रसिद्ध है, खासकर चीनी और डेयरी क्षेत्र में। वहां सहकारी चीनी मिलों और डेयरी समितियों ने न केवल किसानों को ऋण उपलब्ध कराया, बल्कि मजबूत आपूर्ति शृंखला भी स्थापित की और उनकी उपज के लिए उचित मूल्य सुनिश्चित किया है। गुजरात का अमूल सहकारी माडल इस बात का एक शानदार उदाहरण है कि सहकारी समितियां किस तरह किसी उद्योग में क्रांति ला सकती हैं। ‘भारत का अन्न भंडार’ को जाने वाले पंजाब की कृषि सफलता का श्रेय मुख्य रूप से सहकारी समितियों के अपने मजबूत नेटवर्क को जाता है।
इन समितियों ने आधुनिक कृषि तकनीकों के लिए ऋण उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिससे किसानों की उत्पादकता और आय में वृद्धि हुई है। भारत की तीन स्तरीय सहकारी ऋण संरचना है- प्राथमिक कृषि ऋण समितियां (पैकस) गांव स्तर पर, जिला केंद्रीय सहकारी बैंक (डीसीसीबी) जिला स्तर पर, और राज्य सहकारी बैंक (एससीबी) राज्य स्तर पर। यह व्यापक नेटवर्क लगभग हर गांव में उपस्थित है। सहकारी समितियां सदस्य-स्वामित्व वाली संस्थाएं हैं, जो किसानों के बीच स्वामित्व और समुदाय की भावना को बढ़ावा देती हैं। मानकीकृत ऋण उत्पादों वाले वाणिज्यिक बैंकों के विपरीत, सहकारी समितियां लचीले पुनर्भुगतान कार्यक्रम, छोटी ऋण राशि और निजी कर्जदाताओं की तुलना में कम ब्याज दरों पर ऋण योजनाएं तैयार कर सकती हैं। ये बीज, उर्वरक और उपकरणों के लिए अल्पकालिक ऋण, सिंचाई या पशुधन के लिए मध्यम अवधि के ऋण जैसे छोटे पैमाने की खेती की विविध आवश्यकताओं को पूरा करता है।
सहकारी समितियों का एक महत्त्वपूर्ण लाभ कृषि समुदाय के कमजोर वर्गों को सशक्त बनाने पर उनका ध्यान केंद्रित करना है। छोटे और सीमांत किसान, किराएदार किसान और महिला किसानों को अक्सर संपार्श्विक (कोलेटरल) सुरक्षा या अपर्याप्त दस्तावेजों जैसे कारकों के कारण औपचारिक ऋण प्राप्त करने में कठिनाई होती है। सहकारी समितियां इन वंचित समूहों को ऋण देने को प्राथमिकता दे सकती हैं। यह न केवल सामाजिक समानता, बल्कि समावेशी कृषि विकास को भी बढ़ावा देता है। ये किसानों की अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों ऋण आवश्यकताओं को पूरा करती हैं।
अल्पावधि ऋण, जिसमें मौसमी कृषि गतिविधियों, जैसे बुवाई, सिंचाई और कटाई के लिए ऋण शामिल हैं। सहकारी समितियां इन तत्काल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए समय पर और पर्याप्त धनराशि प्रदान करती हैं, जिससे किसान बिना किसी वित्तीय तनाव के अपने फसल चक्र को बनाए रख पाते हैं। कृषि मशीनरी खरीदने, भूमि विकास और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं जैसे पूंजी-गहन निवेशों के लिए, सहकारी समितियां दीर्घकालीन ऋण प्रदान करती हैं। ये ऋण कृषि क्षेत्र में आधुनिकीकरण और उत्पादकता बढ़ाने में मदद करते हैं।
सहकारी समितियां प्रतिस्पर्धी कीमतों पर गुणवत्ता वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशक और अन्य कृषि उपादानों के लिए एक विश्वसनीय स्रोत के रूप में कार्य कर सकती हैं। इससे किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचने में मदद मिलती है। फसल कटाई के बाद होने वाला नुकसान भारतीय किसानों के लिए बड़ी चिंता का विषय है। एक अनुमान के अनुसार भारत को वार्षिक फसल कटाई के बाद खाद्यान्न में दस से पंद्रह फीसद के बीच नुकसान का सामना करना पड़ता है, जो ज्यादातर अपर्याप्त भंडारण सुविधाओं और अकुशल वितरण नेटवर्क के कारण होता है। यानी हर साल लाखों टन कीमती भोजन बर्बाद हो जाता है। यह एक ऐसी स्थिति है, जो तत्काल और अभिनव समाधान की मांग करती है। सहकारी समितियां किसानों को उनकी उपज को प्रभावी ढंग से संग्रहीत करने में मदद करने के लिए भंडारण सुविधाएं प्रदान कर सकती हैं, जिससे नुकसान कम से कम होगा और जब बाजार की स्थिति अनुकूल होगी, तो उन्हें अपनी फसल बेहतर कीमत पर बेचने की अनुमति मिलेगी।
अपनी क्षमता के बावजूद, भारत में सहकारी समितियों को ऐसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जो उनकी प्रभावशीलता में बाधा डालती हैं। नौकरशाही की अक्षमता, उच्च ऋण चूक दरों के कारण कमजोर वित्तीय स्वास्थ्य और पुरानी परिचालन प्रथाएं कुछ ऐसी बाधाएं हैं, जिनका तत्कालीन समाधान किया जाना चाहिए। ऋण अंतर को प्रभावी ढंग से पाटने तथा किसानों का वित्तीय हित सुनिश्चित करने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसमें पैक्स यानी गांव स्तर की संस्थाओं को मजबूत करना बहुत जरूरी है। संचालन को सुव्यवस्थित करना, ऋण वसूली तंत्र में सुधार करना और बेहतर ऋण प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी को अपनाना आवश्यक कदम हैं। वित्तीय साक्षरता, जोखिम प्रबंधन और आधुनिक कृषि पद्धतियों पर सोसायटी के सदस्यों और कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम उनकी परिचालन दक्षता और प्रभावशीलता को बढ़ा सकते हैं। प्रौद्योगिकी को अपनाने से सहकारी समितियों के कामकाज में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। मोबाइल बैंकिंग, आनलाइन ऋण आवेदन और डिजिटल रिकार्ड रखने से पारदर्शिता बढ़ सकती है, ऋण प्रसंस्करण दक्षता में सुधार हो सकता है और किसानों के व्यापक आधार तक पहुंच हो सकती है।
सहकारी समितियों में भारतीय कृषि परिदृश्य को बदलने की अपार क्षमता है। इन संस्थाओं को पुनर्जीवित करके, सदस्य-केंद्रित दृष्टिकोण को बढ़ावा देकर और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाकर, सहकारी समितियां ऋण अंतर को पाट सकती हैं। इससे न केवल भारत की खाद्य सुरक्षा मजबूत होगी, बल्कि ग्रामीण विकास और समग्र आर्थिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान मिलेगा।
Date: 09-07-24
सार्थक स्वास्थ्य योजना
संपादकीय
आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लाभार्थियों की संख्या आगामी तीन साल में दोगुनी करने पर केंद्र सरकार विचार कर रही है। शुरुआत में 70 से ज्यादा उम्र वाले बुजुर्गों को इसके दायरे में लाने व बीमा कवरेज को बढ़ाकर दस लाख सालाना करने पर भी विचार कर रही है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधीकरण के अनुमान के अनुसार इससे सरकारी खजाने पर 12,076 करोड़ रुपए का अतिरिक्त खर्च आयेगा । इस योजना के लागू होने के बाद देश की दो तिहाई से ज्यादा आबादी इसके दायरे में आ जाएगी। नीति आयोग के अनुसार वर्तमान में तीस फीसद आबादी स्वास्थ्य बीमा से वंचित है। तकरीबन 20 फीसद आबादी सामाजिक स्वास्थ्य बीमा व निजी स्वैच्छिक स्वास्थ्य बीमा के माध्यम से कवर की जाती है। स्वास्थ्य कवर से वंचित इस आबादी को लापता मध्य यानी ‘मिसिंग मिडल’ कहा जा रहा है। इसको इस सेवा के दायरे में लाने के सरकार के प्रयास स्वागतयोग्य कहे जाने चाहिए। गरीबों व असहाय लोगों के लिए शुरू की गई यह योजना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ड्रीम क्ट्स में से है। इस योजना के तहत रोगी पर होने वाले खर्चों के कारण पड़ने वाले आर्थिक बोझ पर मदद व गुणवत्तापूर्ण इलाज उपलब्ध कराना है। अब तक इसमें सामाजिक, आर्थिक जातिगत तौर पर पिछड़ों, निराश्रितों, भूमिहीनों, खाद्य सुरक्षा पर्चीधारक, असंगठित मजदूरों आदि को समावेशित किया गया था। सूचीबद्ध निजी अस्पतालों द्वारा इन लाभार्थियों के इलाज से मुकरने या बहानेबाजी करने की लगातार शिकायतें आ रही थीं। देश में आर्थिक रूप से विपन्नों की संख्या को देखते हुए इस योजना का विस्तार किया जाना बेहद जरूरी हो रहा था। गंभीर रोगों के इलाज व औषधियों के बढ़ते दामों के मद्देनजर योजना का विस्तार अच्छा है। मगर सरकार को निजी अस्पतालों, पैथोलॉजी सेंटरों तथा दवाओं की कीमत पर लगाम कसने की योजनाएं बनानी चाहिए। अपने यहां बड़ा मध्य वर्ग भी है, जिसके लिए गंभीर रोगों का इलाज कराना खासा रीढ़ तोड़ने वाला साबित होता है। रही बात स्वास्थ्य बीमा कराने की तो इसके तहत सभी देशवासियों को लाने के प्रयास होने चाहिए। ऐसी योजनाएं बननी चाहिए, जिनसे सबको बेहतर व आसानी से लाभ प्राप्त हो सके। अगर इस योजना में निम्न मध्यम वर्ग को भी शामिल कर लिया जाए तो और ज्यादा लोग लाभान्वित होंगे।
Date: 09-07-24
सत्ता परिवर्तन और भारतीय कूटनीति
डॉ. रमेश ठाकुर
ब्रिटेन में बेशक कड़ाके की ठंड पड़ रही हो, लेकिन आम चुनाव के परिणामों ने अचानक मौसम को गर्म दिया है। वहां राजनीति इतिहास का नया पन्ना लिखा जाएगा, क्योंकि सियासत की नई सुबह का आगाज हुआ है । चुनाव का ऐसा रिजल्ट, जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने भी नहीं सोचा होगा। ब्रिटेनवासियों ने तकरीबन तकरीबन एक तरफा फैसला विपक्ष के हक में सुना डाला। चुनाव में विजय हासिल करने वाली ‘लेबर पार्टी’ ने ब्रिटेन के सियासी इतिहास में पूर्व में जीत के सभी रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। रिजल्ट देखकर पार्टी प्रमुख कीर स्टार्मर फूले नहीं समा रहे।
ब्रिटेनी नेशनल असेंबली में अभी तक वह नेता विपक्ष भूमिका में थे। विपक्ष के तौर पर उन्होंने जो जनकल्याणी मुद्दे कुरेदे। अलबत्ता, भारत के लिहाज से ऋषि सुनक की हार अच्छी नहीं है। क्योंकि प्रधानमंत्री रहते उनका मंदिरों में जाना, पूजा-अर्चना करना, हिंदू-हिंदुत्व की बातें करना, ये सब सनातनी प्रचार का हिस्सा माना जाता था । शायद ऐसा करना उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ हो। ब्रिटेन में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग रहते हैं । अफसोस इस बात का है कि उन्होंने भी सुनक से किनारा कर लेबर पार्टी को वोट किया। भारतीयों ने सुनक को क्यों नकारा इसकी समीक्षा लंदन से लेकर भारत में खूब हो रही है। प्रधानमंत्री सुनक बेशक अपनी संसदीय ‘नॉर्थलेरटन’ सीट से जीते हों पर बहुत कम अंतर से ? उनकी समूची पार्टी बुरी तरह से हारी है। सुनक भी मात्र 23,059 वोटों से ही जीते हैं। वरना, शुरुआती रुझानों में उनकी भी हालत पतली थी। दो राउंड तक पीछे रहे। ताज्जुब वाली बात ये है कि ‘नॉर्थलेरटन’ वह क्षेत्र है, जहां सुनक स्वयं रहते हैं और भारतीयों की संख्या भी अच्छी-खासी है। ऋषि के ज्यादातर मंत्री और पार्टी के वरिष्ठ प्रमुख नेता भी चुनाव में चित हो गए। कइयों की तो जमानत जब्त हुई है। लंदन और भारत के मौजूदा चुनावों ने एक बात बता दी है कि मतदाताओं के मिजाज को पढ़ना अब आसान नहीं? कोई नेता या दल इस मुगालते में न रहे कि फलां समुदाय या मतदाता उनका है? बहरहाल, ब्रिटेन में आए चुनाव नतीजे एग्जिट पोल के मुताबिक ही रहे। कुल सीटें 650 हैं, जिनमें एग्जिट पोल में लेबर पार्टी को 410 सीट मिलने का अनुमान था। कमोबेश, फाइनल नतीजे उसके आसपास ही रहे हैं। आए नतीजों को देखकर लेबर पार्टी चमत्कार मान रही है। जैसे, दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों को देखकर खुद अरविंद केजरीवाल हक्के-बक्के रह गए थे। ब्रिटेन चुनाव में मुद्दे कुछ ऐसे थे, जिनमें ऋषि घिर गए थे। दो प्रमुख मसले जिसमें पहला कोरोना में व्यवस्थाओं का चरमराना, वहीं दूसरा देश की अर्थव्यवस्था का ग्राफ नीचे खिसक जाना ? इन दोनों मुद्दों को लेबर पार्टी ने अपना चुनावी कैंपेन बनाया था। भारत के साथ मित्रता और देशवासियों के हितों की अनदेखी करने का मुद्दा भी लंदन के चुनाव में खूब उछला। बहरहाल, ब्रिटेन की नई हुकूमत के साथ हमारे संबंध कैसे होंगे? इस सवाल के अलावा बड़ा सवाल यह है कि आखिर भारतीयों का सुनक के प्रति मोहभंग हुआ क्यों? ऋषि के भारतीय मूल के होने पर प्रवासी भारतीयों को उन पर गर्व होता था। पर जब वोटिंग का समय आया तो ऐसा प्रतीत हुआ कि भारतीयों ने इमोशनल एंगल की जगह बदलाव के लिए मतदान किया। दरअसल, इसे कंजर्वेटिव पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के 14 साल के शासन से उपजी निराशा मानी जा रही है। वैसे, दिल पर लेने की जरूरत इसलिए भी नहीं है, राजनीति में हार-जीत कोई बड़ी बात नहीं? बदलाव होते रहते हैं और होने भी चाहिए? किसी एक व्यक्ति या दल के पास सत्ता की चाबी ज्यादा समय तक जनता रखना भी नहीं चाहती। हमारे यहां संपन्न लोक सभा चुनाव में भी दुनिया ने चमत्कारी बदलाव देखें? हालांकि, प्रधानमंत्री सुनक ने हार स्वीकार करते हुए लंदन वासियों से माफी मांगते हुए लेबर पार्टी के नेता ‘कीर स्टार्मर ब्रिटेन’ के अगले शासक बनने के लिए दिल खोलकर बधाई दी है। राजनीतिक लोगों में ऐसे नैतिकता हमेशा रहनी चाहिए। निःसंदेह लेबर पार्टी के लिए ये जीत करिश्माई है। उम्मीदों को सच करने वाली, अभिलाषाओं को जीवित करने वाली और नए इतिहास और संविधान को स्थापित करने वाली है।
नई सरकार पर उम्मीदों का पहाड़ है। चरमराई अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने की चुनौती के अलावा विभिन्न देशों के साथ संबंध सुधारने की परीक्षा । पनपते नए किस्म के आतंकवाद से निपटना, अमेरिका की बिलावजह दखलदांजी को रोकना, ऊर्जा स्रोतों को स्थानीय स्तर पर खोजना, गैस और प्राकृतिक संसाधनों का उत्सर्जन करना, यूक्रेन – रूस युद्ध के बाद बिगड़े कई मुल्कों से संबंधों को फिर से नई धार देना। भारत के साथ मधुर हुए संबंधों को यथावत रखना किसी चुनौती से कम नहीं होगा। हालांकि स्टॉर्मर ने अपने पहले विजयी भाषण में सिर्फ अपने मुल्कवासियों को संदेश दिया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘मैं आपकी आवाज बनूंगा, आपका साथ दूंगा, हर दिन आपके लिए लडूंगा। लंदन का एक तिहाई समर्थन उनके पक्ष में है। इस जनादेश और जनसमर्थन को सहेजना भी कठिन परीक्षा जैसा रहेगा।
मॉस्को में मोदी
संपादकीय
तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद अपने पहले द्विपक्षीय विदेश दौरे के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस को चुना। पिछले दो कार्यकालों में उन्होंने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए पड़ोसी देशों को चुना था। जाहिर है, साल 2014 और 2019 के मुकाबले आज की वैश्विक चुनौतियां काफी अलग हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध ने जहां तमाम देशों की अर्थव्यवस्था और आपूर्ति शृंखला को प्रभावित किया है, तो वहीं हमास-इजरायल जंग ने एक अलग किस्म की मानवीय चुनौती पेश की है। ऐसे में, इस यात्रा के जरिये प्रधानमंत्री ने क्रेमलिन को यह संदेश देने की कोशिश की है कि भारत अपने भरोसेमंद मित्र देश का महत्व समझता है। रूस भी इस कदम की अहमियत से वाकिफ है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के कार्यालय के प्रवक्ता के बयान इसकी तस्दीक करते हैं। क्रेमलिन प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने प्रधानमंत्री मोदी के नई दिल्ली से उड़ान भरने से पहले ही कहा कि ‘हम एक अति महत्वपूर्ण दौरे की आशा करते हैं, जो दोनों देशों के आपसी रिश्तों के लिहाज से काफी अहम होगा।’
भारत और रूस के शीर्ष नेतृत्व की आखिरी सालाना शिखर बैठक दिसंबर 2021 में हुई थी, तब राष्ट्रपति पुतिन नई दिल्ली आए थे। उसके बाद से शीर्ष स्तर पर दोनों नेताओं की बैठक नहीं हो सकी थी। हालांकि, दोनों देशों के संबंधों की ऊष्मा बनी रही। इसकी एक बानगी उस वक्त देखने को मिली, जब यूक्रेन पर आक्रमण करने के कारण रूस के खिलाफ तमाम प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने पश्चिमी रुख को नजरअंदाज करते हुए उससे तेल खरीदना जारी रखा, बल्कि उसने पहले से कहीं अधिक तेल आयात किया। इस तरह उसने अपने अरबों डॉलर बचाए हैं। बहरहाल, प्रधानमंत्री के मौजूदा दौरे ने पश्चिम को प्रकारांतर से यह संदेश दिया है कि भारत की विदेश नीति स्वतंत्र है और अपने राष्ट्रीय हितों से संचालित है। गौर करने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री का मॉस्को दौरा उस समय हुआ है, जब रूस विरोधी नाटो समूह की अमेरिका में बैठक हो रही है।’
किसी एक देश की कीमत पर दूसरे से संबंधों में प्रगाढ़ता का भारत कभी हिमायती नहीं रहा। देर से ही सही, पश्चिम को यह बात अब समझ में आने लगी है। शायद यही कारण है कि अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते विगत दो दशकों में काफी सुधरे हैं और वाशिंगटन में भारत की जरूरतों की समझ भी बढ़ी है। जहां तक रूस का प्रश्न है, तो उसके साथ ऊर्जा, रक्षा, व्यापार, निवेश, स्वास्थ्य, शिक्षा-संस्कृति, पर्यटन आदि अनेक क्षेत्रों में भारत के गहरे संबंध हैं और बदली वैश्विक स्थितियों में उन पर नए सिरे से विमर्श जरूरी हैं। निस्संदेह, भारत प्रत्येक देश की संप्रभुता की शुचिता के बडे़ पैरोकारों में से एक रहा है और इसीलिए यूक्रेन पर रूसी हमले का उसने कभी समर्थन नहीं किया। प्रधानमंत्री मोदी कई मौकों पर दोनों पक्षों के बीच बातचीत शुरू करने की आवश्यकता पर जोर दे चुके हैं। मुमकिन है, राष्ट्रपति पुतिन से अनौपचारिक बातचीत में इस मौजूं पर उनकी बात हुई हो। रूस, चीन और ईरान की बढ़ती नजदीकियों पर भी भारत की गहरी निगाह है। प्रधानमंत्री मोदी के दौरे ने यकीनन रूस को यह कहने का अवसर दिया है कि वह लोकतांत्रिक दुनिया में पूरी तरह से अलग-थलग नहीं पड़ा है। ऐसे में, क्रेमलिन को भी बीजिंग के साथ अपने संबंधों की पटकथा लिखते हुए भारतीय हितों और चिंताओं का ख्याल रखना चाहिए।