09-03-2023 (Important News Clippings)

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09 Mar 2023
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Date:08-03-23

महिला सशक्तीकरण की गाथा

द्रौपदी मुर्मु

गत वर्ष संविधान दिवस के अवसर पर मैं उच्चतम न्यायालय द्वारा आयोजित समारोह में समापन भाषण दे रही थी। न्याय के बारे में बात करते हुए मुझे अंडर-ट्रायल कैदियों का खयाल आया और उनकी दशा के बारे में बोलने से मैं स्वयं को रोक नहीं पाई। मैंने अपने दिल की बात कही और उसका प्रभाव भी पड़ा। आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मैं आपसे उसी तरह कुछ विचार साझा करना चाहती हूं, जो सीधे मेरे दिल की गहराइयों से निकले हैं।

मैं बचपन से ही समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर व्याकुल रही हूं। एक ओर तो किसी बच्ची को ढेर सारा प्यार-दुलार मिलता है और शुभ अवसरों पर उसकी पूजा भी की जाती है। वहीं दूसरी ओर उसे जल्द ही यह आभास हो जाता है कि हमउम्र लड़कों की तुलना में उसके जीवन में अवसर एवं संभावनाएं कम हैं। महिलाओं को उनकी सहज बुद्धिमत्ता के लिए आदर मिलता है। पूरे कुटुंब में सबका ध्यान रखने वाली, परिवार की धुरी के रूप में उनकी सराहना की जाती है तो दूसरी ओर परिवार से जुड़े और यहां तक कि उनके ही जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णयों में उनकी कोई भूमिका नहीं होती और यदि होती भी है तो अत्यंत सीमित।

एक छात्रा, अध्यापिका और बाद में एक समाज सेविका के रूप में घर के बाहर के परिवेश में ऐसे विरोधाभासी रवैये ने मुझे स्वयं हैरान किया। अक्सर मैंने यही महसूस किया है कि हममें से अधिकांश लोग व्यक्तिगत स्तर पर तो पुरुषों और महिलाओं की समानता को स्वीकार करते हैं, लेकिन सामूहिक स्तर पर वही लोग आधी आबादी को सीमाओं में बांधना चाहते हैं। यद्यपि मैंने अधिकांश व्यक्तियों को समानता की प्रगतिशील अवधारणा की ओर बढ़ते देखा है, किंतु सामाजिक स्तर पर पुराने रीति-रिवाज और परंपराएं पुरानी आदतों की तरह हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं। विश्व की सभी महिलाओं की यही व्यथा-कथा है। महिलाएं अपना जीवन बाधाओं के बीच ही शुरू करती हैं। 21वीं सदी में जब हमने हर क्षेत्र में कल्पनातीत प्रगति कर ली है, तब भी कई देशों में कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं बन सकी है। इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि दुनिया के तमाम हिस्सों में आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। यहां तक कि स्कूल जाना भी किसी लड़की के लिए जिंदगी और मौत का सवाल बन जाता है।

हालांकि, सदैव ऐसी स्थिति नहीं रही। भारत में ही ऐसे कालखंड भी रहे, जब महिलाएं निर्णय लिया करती थीं। हमारे शास्त्रों और इतिहास में ऐसी महिलाओं का उल्लेख मिलता है जो अपने शौर्य, विद्वत्ता और प्रभावी प्रशासन के लिए जानी जाती थीं। आज भी अनगिनत महिलाएं अपनी पसंद के क्षेत्रों में कार्य करके राष्ट्र निर्माण में योगदान दे रही हैं। अंतर केवल इतना है कि उन्हें एक साथ दो स्तरों पर अपनी योग्यता तथा उत्कृष्टता सिद्ध करनी पड़ती है-अपने कार्यक्षेत्र में भी और घरों में। फिर भी वे शिकायत नहीं करतीं, लेकिन समाज से केवल इतनी आशा जरूर करती हैं कि वह उन पर भरोसा करे।

इधर एक विचित्र स्थिति भी उत्पन्न हुई है। हमारे यहां जमीनी स्तर पर निर्णय लेने वाली संस्थाओं में महिलाओं का अच्छा प्रतिनिधित्व है, लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ते हैं तो महिलाओं की संख्या घटती जाती है। यह तथ्य राजनीतिक संस्थाओं के संदर्भ में भी उतना ही सच है जितना नौकरशाही, न्यायपालिका और कारपोरेट जगत के लिए। जिन राज्यों में साक्षरता दर बेहतर है, वहां भी यही स्थिति दिखती है। स्पष्ट है कि केवल शिक्षा द्वारा ही महिलाओं की आर्थिक और राजनीतिक आत्मनिर्भरता को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि समाज में व्याप्त मानसिकता को बदलने की जरूरत है। एक शांतिपूर्ण और समृद्ध समाज निर्माण के लिए महिला-पुरुष असमानता पर आधारित जड़वत पूर्वाग्रहों को समझना तथा उनसे मुक्त होना जरूरी है। सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने के लिए सुविचारित प्रयास किए गए हैं, परंतु ये प्रयास महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की दिशा में पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए। जैसे शिक्षा प्राप्त करने तथा नौकरियां हासिल करने में महिलाएं पुरुषों की तुलना में बहुत पीछे रहती हैं। उनके इस पिछड़ेपन का कारण सामाजिक रूढ़ियां हैं न कि कोई साजिश।

तमाम दीक्षा समारोहों में शामिल होने का मेरा अनुभव यही बताता है कि यदि महिलाओं को अवसर मिले तो वे शिक्षा में पुरुषों से प्रायः आगे निकल जाती हैं। भारतीय महिलाओं तथा हमारे समाज की इसी अदम्य भावना के बल पर मुझे विश्वास होता है कि भारत महिला-पुरुष के बीच न्याय के मार्ग पर विश्व समुदाय का पथ-प्रदर्शक बनेगा। ऐसा कतई नहीं है कि पुरुषों ने आधी आबादी को पीछे रखकर कोई बढ़त हासिल की है। सच यही है कि यह असंतुलन मानवता को हानि पहुंचा रहा है, क्योंकि मानवता के रथ के दोनों पहिए बराबर नहीं। मुझे विश्वास है कि यदि महिलाओं को मानवता की प्रगति में बराबरी का भागीदार बनाया जाए तो हमारी दुनिया अधिक खुशहाल होगी।

महिलाओं के लिए हानिकारक पूर्वाग्रहों और रीति-रिवाजों को कानून बनाकर अथवा जागरूकता के माध्यम से दूर किया जा रहा है। इसका सकारात्मक प्रभाव होता है। वर्तमान संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सबसे अधिक है। कहने की आवश्यकता नहीं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की राष्ट्रपति के रूप में मेरा चुनाव महिला सशक्तीकरण की गाथा का एक अंश है। मेरा मानना है कि महिला-पुरुष न्याय को बढ़ावा देने के लिए ‘मातृत्व में सहज नेतृत्व’ की भावना को जीवंत बनाने की आवश्यकता है। महिलाओं को प्रत्यक्ष रूप से सशक्त बनाने के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकार के अनेक कार्यक्रम सही दिशा में बढ़ते हुए कदम हैं। हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि श्रेष्ठ तथा प्रगतिशील विचारों के साथ तालमेल बनाने में समाज को समय लगता है। समाज मनुष्यों से ही बनता है, जिनसें आधी संख्या महिलाओं की होती है। ऐसे में सामाजिक प्रगति को गति देने के लिए आज मैं आप सबसे अपने परिवार, आस-पड़ोस अथवा कार्यस्थल में एक बदलाव लाने के लिए स्वयं को समर्पित करने का आग्रह करना चाहती हूं। ऐसा कोई भी बदलाव जो किसी बच्ची के चेहरे पर मुस्कान बिखेरे। ऐसा बदलाव जो उसके लिए जीवन में आगे बढ़ने के अवसरों में वृद्धि करे।


Date:08-03-23

बरकरार रहे निष्पक्षता

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों के संविधान पीठ ने गत सप्ताह सर्वसम्मति से उस विषय पर फैसला सुनाया जिसे ‘संवैधानिक निर्वात’ माना जाता रहा है। परंतु न्यायालय ने इसे दूर करने के लिए जो तरीका अपनाया वह बुनियादी समस्या को हल नहीं कर सकता और इसे केवल अंतरिम हल के रूप में ही देखा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) तथा निर्वाचन आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जानी चाहिए और यह नियुक्ति उस समिति की अनुशंसा पर होनी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष (अगर नेता प्रतिपक्ष न हो तो सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता) और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शामिल हों।

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि निर्वाचन आयोग को स्वतंत्र और कार्यपालिका के किसी भी प्रभाव से मुक्त होना चाहिए। केंद्र और राज्यों के स्तर पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के संचालन के लिए यह आवश्यक है। नागरिक समाज के विभिन्न हिस्सों में भी इस बात को लेकर चिंता रही है कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता को सीमित कर सकती है।

हालांकि आयोग में बीते तमाम वर्षों में अत्यंत ठोस और विश्वसनीय छवि वाले लोग नियुक्त हुए और उन्होंने अनेक सुधारों के साथ चुनावों को और अधिक विश्वसनीय बनाया, यह बात भी सही है कि हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों ने उसके आचरण पर चिंता जाहिर की है। चाहे जो भी हो लेकिन प्रधानमंत्री या कैबिनेट की सलाह पर सीईसी और ईसी की नियुक्ति संविधान अथवा संविधान सभा की भावना के अनुरूप नहीं है। यह भी एक अंतरिम व्यवस्था थी।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने इस संदर्भ में संविधान सभा की बहसों का विस्तार से विश्लेषण किया। संविधान के अनुच्छेद 324(2) में कहा गया है, ‘निर्वाचन आयोग में मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा इतने ही निर्वाचन आयुक्त शामिल होने चाहिए…। मुख्य निर्वाचन आयुक्त तथा अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संसद द्वारा इस बारे में निर्मित कानूनों के अनुसार होनी चाहिए और उन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी हासिल होनी चाहिए।’ चूंकि संसद ने इन तमाम वर्षों में कोई कानून नहीं बनाया इसलिए नियुक्तियां राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती रहीं। प्रासंगिक अनुच्छेद की पृष्ठभूमि के बारे में बात करें तो निर्णय में कहा गया कि देश के संस्थापक बुजुर्गों का यह इरादा कतई नहीं था कि निर्वाचन आयोग की नियुक्तियों के मामले में कार्यपालिका ही समस्त निर्णय ले।

बहरहाल, चूंकि यहां मामला निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता का है तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को अनुशंसा करने के लिए समिति गठित किए जाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। उदाहरण के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक की नियुक्ति भी ऐसे ही एक पैनल द्वारा की जाती है लेकिन उस पर भी उसके आचरण के लिए निरंतर हमले होते रहते हैं। हकीकत में सीईसी और ईसी की नियुक्ति की प्रक्रिया में प्रवेश करने का अर्थ यह है कि देश की सबसे बड़ी अदालत को भी आलोचनाओं का सामना करना होगा।

ऐसे में उपयुक्त यही होगा कि संविधान सभा ने सीईसी और ईसी की नियुक्ति को लेकर जैसा सोचा था, उस प्रकार का एक व्यापक कानून लाया जाए और इसके साथ निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता को लेकर अन्य पहलुओं पर भी ध्यान दिया जाए। इस संदर्भ में यह बात भी ध्यान देने लायक है कि कानून को केवल कार्यपालिका को अधिकारसंपन्न नहीं बनाना चाहिए। यह भी अहम होगा कि बनने वाला कानून निर्वाचन आयोग की स्वतंत्रता की स्थापना करते हुए उसे सभी संदेहों से परे करे।


Date:08-03-23

महिलाओं में वित्तीय साक्षरता की जरूरत

अजय जोशी

आज के दौर में महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों से कदम से कदम मिला कर चल रही हैं, मगर फिर भी कई मामलों में वे पीछे रह जाती हैं। उनमें एक मुख्य क्षेत्र है महिलाओं की वित्तीय साक्षरता का। इस मामले में न केवल गरीब, ग्रामीण और अनपढ़ महिलाएं पीछे हैं, बल्कि शहरी मध्यवर्ग और उच्च वर्ग की पढ़ी-लिखी महिलाओं में भी वित्तीय साक्षरता और जानकारी का अभाव देखा जाता है।

‘ग्लोबल फाइनेंशियल लिटरेसी एक्सीलेंस सेंटर’ (जीएफएलई) द्वारा 2020-21 में जारी रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय वयस्क आबादी का केवल चौबीस प्रतिशत वित्तीय मामलों में साक्षर है। अन्य प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत की वित्तीय साक्षरता दर सबसे कम है। महिलाओं के मामले में तो स्थिति और चिंताजनक है। यह राज्यवार चार प्रतिशत से 50 प्रतिशत के बीच है। महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल जैसे महानगरीय क्षेत्रों में क्रमश: 17 प्रतिशत, 32 और 21 प्रतिशत की वित्तीय साक्षरता दर है। बिहार, राजस्थान, झारखंड और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य, जहां गरीबी अधिक है, वहां साक्षरता दर कम है। ये आंकड़े अंतरराज्यीय असमानताओं को भी प्रदर्शित करते हैं। गोवा में महिलाओं की पचास प्रतिशत की उच्चतम वित्तीय साक्षरता दर है, जबकि छत्तीसगढ़ में वित्तीय साक्षरता की भारी कमी है। वहां वित्तीय साक्षरता दर सबसे कम, मात्र चार प्रतिशत, है।

आजकल जब बैंकों के माध्यम से लेनदेन बढ़ रहा है, क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड का चलन आम हो गया है और अब तो इसके आगे ‘कैशलेस’ लेनदेन पर जोर बढ़ रहा है, तब महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग बैंक के सामान्य कामकाज भी नही कर पाता। बैंक में रुपया जमा कराने या निकालने का काम हो या एटीएम कार्ड का उपयोग करना, सभी कामों के लिए अधिकांश महिलाएं अपने पति, पुत्र, भाई या किसी अन्य रिश्तेदार पर निर्भर हैं। इसका महिलाओं को कई बार खमियाजा भी भुगतना पड़ता है। उनके खाते से बड़ी रकम का गबन भी हो जाता है। कम निकालने का कह कर ज्यादा रकम उनके खाते से निकाल ली जाती है। एटीएम का गलत उपयोग कर लिया जाता है। बिना उस महिला की जानकारी के उसके खाते में अपना नामांकन करा लिया जाता है। खाली चेक पर हस्ताक्षर करा लिए जाते हैं, फिर मनमानी रकम भरकर निकाल ली जाती है। थोड़ा बहुत आनलाइन व्यवहार करने वाली महिला को ‘रिवार्ड पाइंट’ के आधार पर या नकद राशि मिलने के नाम पर ‘ओटीपी’ मांग कर या कोई लिंक भेज कर उस पर क्लिक करवा कर उसके बैंक खाते में जमा रकम साफ कर दी जाती है। इस तरह की बहुत-सी घटनाओं की खबरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं। अधिकतर मामलों में कोई कार्रवाई नहीं होती और पीड़िता का पैसा डूब जाता है। कई बार महिला के पुरुष रिश्तेदार जानबूझ कर उसे बैंक की कार्यप्रणाली से परिचित होने नहीं देते।

महिलाओं में वित्तीय साक्षरता न होने के दो तरह के प्रभाव होते हैं। एक तो यह कि महिलाएं रुपए-पैसे के लेनदेन में पूरी तरह पुरुष रिश्तेदारों पर निर्भर हो जाती हैं। उनको ऐसा कुछ भी काम करने का आत्मविश्वास ही नहीं रहता और किसी वजह से वे रिश्तेदार नहीं रहते, तो उनका पूरा वित्तीय कामकाज ठप्प हो जाता है। दूसरे, वित्तीय साक्षरता की कमी की जिम्मेदार कई बार खुद महिलाएं भी होती हैं। वे इस काम को सीखने और करने में आलस करती हैं। कुछ तकनीकी बातें सीखने और समझने की कोशिश ही नहीं करतीं। इस उदासीनता का नुकसान भी उनको उठाना पड़ता है। जब बैंक आदि के सामान्य कामों में महिलाओं की यह स्थिति है तो भला वे निवेश कहां करना है, कब करना है, कितना करना है और कैसे करना है, कितना बीमा करवाना है जैसी बातों की उनसे जानकारी की अपेक्षा करना तो बेमानी है। इस कारण भी महिलाएं गलत जगह और गलत आदमी के माध्यम से निवेश करके या तो अपना पैसा डुबा देती या फंसा लेती हैं।

आजकल विधवा और परित्यक्ता महिलाओं द्वरा एकाकी जीवन बिताने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही। ऐसे में उनको अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी विवाह, आवास निर्माण आदि कार्यों के लिए बड़ी धनराशि की जरूरत पड़ती है। बचत न होने के कारण उनको ऋण लेने की आवश्यकता पड़ती रहती है। वित्तीय साक्षरता के अभाव में वे सेठ-साहूकारों या निजी संस्थाओं के चंगुल में फंस जाती हैं। वहां उनको भारी ब्याज दरों पर ऋण लेना पड़ सकता है, जिसको चुकाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। यहां तक कि उनकी संपति कुर्क होने की नौबत आ जाती है।

एक मजबूत वित्तीय शिक्षा की व्यवस्था महिलाओं को प्रभावी ढंग से अपनी बचत और निवेश का प्रबंधन करने में सहायक हो सकती है। इससे वे अपनी बचत को इस प्रकार निवेश कर सकती हैं, जिससे उन्हें अपने अधिक से अधिक लाभ मिल सके और जमा राशि भी सुरक्षित रहे। इसी प्रकार महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से उनका उपयुक्त बीमा कवर होना भी जरूरी है। बीमारी की दशा में इलाज पर खर्च होने वाली भारी-भरकम राशि की व्यवस्था हेतु स्वास्थ्य बीमा का कवर भी जरूरी है, ताकि उनको और उनके परिवार को बीमारी की दशा में इलाज करवाने में कठिनाई का सामना न करना पड़े। यह भी महिलाओं की वित्तीय साक्षरता द्वारा ही संभव है।

केंद्र सरकार ने इस वर्ष के आम बजट में लोगों में आर्थिक साक्षरता बढ़ाने के लिए गैर-सरकारी स्वयात्तशासी संस्थाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रयास के प्रावधान किए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने ‘वित्तीय साक्षरता योजना’ नामक एक परियोजना शुरू की है, जिसका उद्देश्य स्कूल और कालेज के छात्रों, महिलाओं, ग्रामीण और शहरी गरीबों, रक्षाकर्मियों और वरिष्ठ नागरिकों सहित विभिन्न लक्षित समूहों में केंद्रीय बैंक और सामान्य बैंकिंग अवधारणाओं के बारे में जानकारी का प्रसार करना है। वित्तीय शिक्षा के लिए राष्ट्रीय रणनीति 2020-2025 बनाई गई है। इसके अंतर्गत डिजिटल लेन-देन की सुविधा, डिजिटल लेन-देन की सुरक्षा, लेन-देन में सावधानी, ग्राहकों के हितों की सुरक्षा के संबंध में आवश्यक व्यवस्थाएं करने के प्रावधान किए गए हैं। ‘सेबी’, रिजर्व बैंक और अन्य संस्थाएं भी समय-समय पर विज्ञापनों के माध्यम से बैंक लेन-देन और आनलाइन धोखाधड़ी से बचाव के संबंध में जानकारियां देती रहती हैं, ताकि वित्तीय साक्षरता बढ़ सके। इन सभी में महिलाओं की अधिकाधिक सहभागिता की जरूरत बताई गई है।

आज देश की लगभग 1.4 अरब की आबादी, जिसमें आधे से अधिक महिलाएं हैं, उनमें वित्तीय जागरूकता का लंबे समय तक चलने वाला प्रभाव पड़ेगा। देश के स्कूल, कालेज, महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों, आंगनबाड़ी केंद्रों आदि में वित्तीय शिक्षा को महत्त्व देते हुए उनमें कार्यरत महिलाओं को वित्तीय साक्षरता के संबंध में विशेष प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है, ताकि वे अपने स्तर पर समूह से जुड़ी महिलाओं को आवश्यक जानकारी दे सकें। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत बैंकों को भी समय-समय पर महिलाओं को वित्तीय लेनदेन की जानकारी देने हेतु कार्यक्रम चलाने चाहिए, ताकि वे बैंकिंग संबंधी जानकारियां प्राप्त कर सकें।

जरूरत इस बात की है कि जिन महिलाओं को बैंक और वित्तीय कामकाज की जानकारी नहीं है, उन्हें आगे बढ़ कर सीखने की कोशिश करनी चाहिए। कम से कम, बैंक में खाता खोलना, चेक भरना, जमा करवाना, रुपया निकालना, जमा कराना, एटीएम का उपयोग, आनलाइन भुगतान करना आदि जैसी सामान्य कामकाजी बातों की जानकारी तो आज के दौर में बहुत जरूरी हो गई है।


Date:08-03-23

2047 Is Not 1996. Why India Needs A Higher Benchmark

Niti Aayog’s former VC argues using South Korea as yardstick won’t do for our developed country target

Rajiv Kumar

Surjit Bhalla in an article in this paper (Developed by 2047? Yes; February 20, 2023) has tried to quantify PM Modi’s call for making India a developed economy. He has suggested that we adopt the level of per capita income in PPP terms that South Korea had reached in 1996, the year it was admitted as a member of the OECD.

Thus, the implicit suggestion is that we should take OECD membership as the criteria for being categorised as a developed country.

Bhalla cites this level of per capita income as $18,000. This is loosely based on South Korea’s level of per capita income in 1996. It is then argued that with India’s current per capita income of $6,027 (constant 2011 international dollars), it can easily reach this level of per capita income by securing a growth rate of 4. 8% over the next 25 years.

Problems with a benchmark income

There are serious problems in selecting $18,000 per capita income as our target for 2047 and use it to give India the tag of a developed economy.

Consider some countries which exceeded that benchmark in 2021.

Belarus ($19,757)
Libya ($21,965)
Malaysia ($26,333)
Mexico ($19,086)
Dominican Republic ($18,626)

By no stretch of our imagination can these countries be categorised as being developed even on the simple criterion of per capita incomes. We should also look at the quality of life, the state of the environment and other SDG parameters before recognising a country as being developed.

Do we really want India in 2047 to be similar tocountries mentioned above with the quality of life they have at present? The answer must be an emphatic no.

National security needs call for more

At $18,000 per capita income, the size of our economy in 2047 will be $28 trillion. With its current per capita income of $17,603, China will most likely reach the current OECD average per capita income level of $44,827 by 2047 by growing a mere 3. 8% over the next 25 years. It will then be the world’s largest economy at $63 trillion.

With an economic size less than half of China, India will face an unacceptable security deficit.
With our current per capita incomes at $6,592 (constant 2017 international dollar), can we possibly reach a level of $44,827 by 2047 and stake our claim to be a full-fledged OECD member?

To reach that level, per capita incomes will have to grow annually at 7. 95% for the next 25 years. Given an average population growth rate of 0. 7% over the next 25 years, it implies a GDP growth in real termsat about 8.6%.

This growth rate may seem unrealistic given that in the past our highest potential rate of growth has been estimated at 8%.

However, we can define another target. Nineteen of the 38 OECD members currently have an average per capita income of $33,106. To reach this level by 2047, India will have to achieve growth of 6. 7% in per capita incomes. This is eminently achievable.

Given that we are today in a ‘sweet spot’ internationally and that the large number of structural reforms during the last eight years have laid an even stronger foundation for higher rate of growth, we should as a nation surely strive to achieve this goal.

We need to grow faster

Such an aspirational target would help mobilise our entrepreneurs, farmers, scientists and the civil society in a nation-wide effort to make economic development the top most priority for the entire population. The goal has the motivational power to make development a Jan Aandolan, or a peoples’ movement.

It goes without saying that we will have to achieve this ambitious goal while ensuring that our economic growth remains ecologically sustainable and inclusive both in inter-personal and inter-regional terms.

At this level of per capita incomes, the size of the Indian economy in 2047 will be $54 trillion. This will be within catching distance of the Chinese economy, especially as our demographic advantage will then be significantly better than China’s.

The target, when achieved, will allow us to escape the middle-income trap and ensure that our firms and farmers attain global competitiveness and help raise India’s share in the global economy to levels commensurate with our share in world population. Most importantly, it will ensure that Indians get the quality of life they aspire for and deserve.


Date:09-03-23

Investment divide

South and West are attracting more FDI than North and East. The latter group must understand why

TOI Editorials

Even granting that both are headed into assembly elections this year, the squabble between Karnataka and Telangana on who bagged the latest foreign investment is healthy competition. Yes, there were typical pre-poll anxieties and image management on display. Both states’ governments raced to social media to claim wins. Letters from the foreign investor were tweeted, a letter of intent was seemingly confused with a done deal. But theatrics aside, that Apple partner and Taiwanese contract manufacturer Foxconn has set its eyes on investing in Telangana and/or Karnataka – in another sign of small but significant shifts away from its main manufacturing base in China – is good news for both states and all around.

At a time when global investor summits are quite the rage, CMs from almost all states beaming from hoardings and ads, and apparently wooing foreign investors in multiple ways, bulk of the FDI flows into Maharashtra, Karnataka, Tamil Nadu, Gujarat, Telangana. All these states are ahead in infrastructure, network capacity, policy stability and reasonably strong in law and order. Little wonder they are also destinations for the bulk of India’s migrant workers.

There’s a difference between South/West and North/East here. UP, MP, Bengal or even Bihar and Jharkhand may be high on intent and big on their outreach to investors – yet MoUs worth lakhs of crores that some states claim have barely moved beyond a summit’s photo-ops. Can rhetoric and claims bring in the global investor? No. And that is what state governments need to understand. Where infrastructure is deficient, connectivity scratchy, law and order sketchy, where fiefdoms, political or otherwise, run their writ with particular venom, where women don’t feel safe, where literacy levels are lower than average, there the investor will certainly not step.


Date:09-03-23

सांस्कृतिक कूटनीति का हिस्सा हैं जी-20 की बैठकें

शॉम्बी शार्प, ( संयुक्त राष्ट्र के भारत में रेजिडेंट को-ऑर्डिनेटर )

भारत की जी-20 की अध्यक्षता जटिल ग्लोबल मुद्दों के लिए उम्मीद की किरण है। दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत जी-20 देशों की सूची में शामिल अकेला निम्न मध्यम आय वाला देश है, जो विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की परेशानियों को करीब से जानता- समझता है। उसकी कोशिशों का ही नतीजा है कि जी -20 को आर्थिक सहयोग के मंच के रूप में देखा जा रहा है।

दुनिया की 85% जीडीपी और 80% ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के संदर्भ में जी-20 देशों की भूमिका अहम है। इस मीटिंग में भारत यूएन के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल की रफ्तार और संजीदगी सुधारने के लिए एसडीजी एक्सिलरेशन एक्शन प्लान भी लेकर आएगा। कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव के साथ पर्यावरण के लिए नई जीवनशैली पहल शुरू कर इस दिशा में ठोस कदम उठाने का जन-आंदोलन शुरू कर दिया है। जी-20 मीटिंग के तुरंत बाद सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल पर संयुक्त राष्ट्र असेंबली में 2023 एसडीजी समिट होगा, जहां 2015 में तय किए गए इन लक्ष्यों का रिव्यू किया जाएगा।

हाल ही में सूडान के संवेदनशील इलाके अबेई में संयुक्त राष्ट्र अंतरिम सुरक्षा बल के साथ भारत की महिला शांति सैनिकों की बटालियन की तैनाती, संयुक्त राष्ट्र काउंसिल रेजोल्यूशन 1325 के मुताबिक हुई है । यह संयुक्त राष्ट्र मिशन में महिला शांति सैनिकों की भारत की सबसे बड़ी एकल इकाई है। भारत हमेशा से ही संयुक्त राष्ट्र के लिए सेना और सुरक्षा दल भेजने में अग्रणी रहा है। महिला स्वास्थ्यकर्मियों की पहली टीम को 1960 में कॉन्गो भेजा गया था। 2007 में लाइबेरिया में शांति के मिशन में भेजी कई यूए की पहली महिला पुलिस टुकड़ी में भी भारत की सक्रिय भागीदारी थी। महिलाएं शांति बहाली के साथ मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए शिद्दत से काम करती हैं। जहां वे तैनात होती हैं, उस इलाके की बेटियां भी शांति व राजनीतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा बनने का सपना देखने लगती हैं। इसका बड़ा उदाहरण लाइबेरिया है, जहां लगभग 9 सालों में भारत की शांतिरक्षक सैनिकों ने स्वास्थ्य सेवाओं और मानव हित से जुड़ी सेवाओं में ऐसा काम किया कि उस देश में पुलिस सेवाओं में निकली नौकरियों में महिलाओं ने चार गुना ज्यादा आवेदन किए।

7,500 किमी की तटीय रेखा के साथ भारत ऐसे ताकतवर देशों में शुमार है, जिसके पास समुद्र में सबसे बड़े एक्सक्लूसिव इकोनॉमिक जोन हैं यानी जहां ब्लू इकोनॉमी या समुद्री अर्थव्यवस्था में भरपूर संभावनाएं हैं। चाहे वो समुद्री संसाधनों की बात हो या शिपिंग की – संसाधनों का दोहन पूरी जिम्मेदारी के साथ हो, इस मकसद से भारत ने हाल ही में ब्लू इकोनॉमी पर राष्ट्रीय नीति का ड्राफ्ट तैयार किया है। समुद्र अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि पूरे जीवनचक्र के लिए अनमोल खजाना है। लेकिन एक खौफनाक सच यह भी है कि एक तरफ क्लाइमेट चेंज का ट्रिपल प्लेनेटरी क्राइसिस बढ़ रहा है, वहीं जैव- विविधता कम हो रही है। समुद्री तल का बढ़ना, जल का अम्लीकरण और प्रदूषण ऐसे खतरे हैं, जिनकी अनदेखी भारी पड़ सकती है। ऐसे में भारत जी-20 ओशंस डायलॉग की राह आसान बनाएगा और ब्लू इकोनॉमी के संरक्षण और संवर्धन में श्रेष्ठ उदाहरण पर विमर्श करेगा। जी-20 मीटिंग के एजेंडा में आतंकवाद की फंडिंग का मुद्दा भी है, जिस पर भारत पहले से ही काम कर रहा है।

भारत का एक मजबूत सांस्कृतिक पहलू भी है, जिसे दिखाने के लिए जी-20 की 200 से ज्यादा बैठकें दिल्ली से बाहर ऐसे शहरों में रखी गई हैं, जिनकी अपनी पहचान है। इन देशों के प्रतिनिधि इन शहरों के झरोखों के जरिए भारत की विविधता और सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहरों, खासकर यूनेस्को विश्व विरासत स्थलों को करीब से जान सकेंगे। यह सांस्कृतिक कूटनीति का हिस्सा है। संयुक्त राष्ट्र जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल जैसे आयोजनों के जरिए भारत और दुनिया के बीच सांस्कृतिक पुल बनाने पर काम कर रहा है। वसुधैव कुटुंबकम् की थीम पर होने जा रही जी-20 समिट ने हमें एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य का आधार दिया है और पूरी उम्मीद है कि इस रिश्ते से जुड़े देश एक साथ मिलकर ही समाधानों पर काम करेंगे।


Date:09-03-23

एक शहर से उम्मीदें

संपादकीय

बदलते समय के साथ बनारस में सुविधाओं और सहूलियतों का बढ़ना सुखद व आवश्यक है। बनारस या वाराणसी अपने रंग-ढंग का अकेला शहर है। नई दिल्ली अगर देश की राजनीतिक राजधानी है और मुंबई व्यावसायिक, तो बनारस को हम धार्मिक राजधानी कह सकते हैं। विगत आठ-नौ वर्ष से बनारस की रूपरेखा जिस तरह से बदल रही है, वह किसी से छिपा नहीं है। किसी भी बड़े बदलाव के साथ कुछ विवाद जुड़े होते हैं, लेकिन अंततः बदलाव का लाभ शहर और देश को होता है। दुनिया का यह सबसे प्राचीन जीवंत शहर अगर विकसित होगा, तो इससे न केवल देश की शोभा बढ़ेगी, बल्कि दुनिया में धर्म का आकर्षण भी बढ़ेगा। काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास जो विकास हुआ है, जिस तरह से वहां खुले प्रांगण में होली मनाने के भव्य दृश्य सामने आए हैं, उससे साफ लगता है, बनारस पहले की तुलना में ज्यादा आकर्षक हो गया है। कुछ साल पहले ऐसे प्रांगण की कल्पना कठिन थी, लगता नहीं था कि बाबा विश्वनाथ के दरबार में श्रद्धालुओं के लिए इतनी जगह निकल आएगी। बनारस में शहरी विकास पर बहुत ध्यान दिया गया है। दस से ज्यादा ऐसी परियोजनाएं चल रही हैं, जिनसे इसका कायाकल्प होना तय है।

देश में पहली बार किसी शहर में रोपवे परिवहन व्यवस्था निर्मित हो रही है। वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन से गोदौलिया चौक तक 3,850 मीटर लंबी रोपवे लाइन के बीच पांच स्टेशन पड़ेंगे। इससे शहर में सड़कों को भी राहत मिलेगी। शहर बहुत पुराना है, समय और जरूरत के हिसाब से गलियां-सड़कें संकरी हो गई हैं, लेकिन परिवहन के वैकल्पिक इंतजामों पर विचार और काम लगातार जारी है। गंगा घाटों और नौका विहार पर निरंतर काम हो रहा है। इस शहर पर आबादी का दबाव भी बहुत ज्यादा है। आज से पचास साल पहले बनारस की आबादी सात लाख भी नहीं थी, पर अब 17 लाख से ज्यादा हो गई है। यह स्थिति तब है, जब औद्योगिक रूप से यह इलाका बहुत आगे नहीं है। यदि यहां विगत दशकों में रोजगार बढ़ाने पर ज्यादा ध्यान दिया जाता, तो आबादी और ज्यादा तेजी से बढ़ती। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां से कोई जाना नहीं चाहता, पर रोजगार की पर्याप्त व्यवस्था से ही यहां लोगों को खुशहाल रखा जा सकता है। आबादी का दबाव शहर पर ही नहीं, यहां गंगा पर भी है। गंगा की स्वच्छता के लिए काम हुए हैं, पर कितने हुए हैं, कितने की अभी और गुंजाइश है, इसे परखते रहना चाहिए। गंगा की पवित्रता में बनारस की शोभा निहित है।

भौतिक विकास के साथ-साथ बनारस का शैक्षणिक, धार्मिक व आध्यात्मिक विकास भी जरूरी है। बनारस को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान व मूल भारतीय विचार का नेतृत्व करना चाहिए। अगर देश में किसी तरह की भ्रमपूर्ण स्थिति बने, तो बनारस को भ्रम निवारण के लिए सामने आना चाहिए। उदाहरण के लिए, भारत में कौन-सा त्योहार कब मनाया जाएगा, इसका फैसला बनारस को एकमत से करना चाहिए। इस बार होली 7 को है या 8 मार्च को, इस बारे में स्पष्टता नहीं थी । क्या होली, दिवाली जैसे महत्वपूर्ण त्योहारों के बारे में ज्यादा विद्वतापूर्ण और तार्किक फैसला बनारस से आ सकता है? प्राचीन काल से बनारस भारतीय ज्ञान का मौलिक केंद्र रहा है, ऐसे में, यहां से तिथि या पंचांग संबंधी अपेक्षा कतई अनुचित नहीं है। विद्वानों के बीच वाद- विवाद का अपना महत्व है, लेकिन बनारस स्वयं को पुनः शिक्षा व शोध का सर्वश्रेष्ठ केंद्र बनाए, तो यह देश की जीत होगी।


Date:09-03-23

ताकि किसी छोटे निवेशक का पैसा न डूबे

सतीश सिंह, ( बैंकिंग व आर्थिक विशेषज्ञ)

ਮले ही नेशनल सिक्योरिटीज डिपॉजिटरी लिमिटेड ( एनएसडीएल) और सेंट्रल डिपॉजिटरी सर्विसेज लिमिटेड (सीडीएसएल) के आंकड़ों के अनुसार, अगस्त 2022 में डीमैट खातों की संख्या 10 करोड़ से अधिक हो गई है, लेकिन आज भी शेयर बाजार में निवेश करने वाले देश के अधिकांश निवेशक वित्तीय रूप से निरक्षर हैं। इसी वजह से अडानी मामले में बड़ी संख्या में निवेशकों को नुकसान उठाना पड़ा और देश के सर्वोच्च न्यायालय को उनके हित सुरक्षित रखने के लिए सरकार को निर्देश देना पड़ा। अदालत ने शेयर बाजार के नियामकीय तंत्र को इतना मजबूत बनाने की बात कही कि छोटे निवेशकों को शेयर बाजार में होने वाले उतार-चढ़ाव की वजह से आए दिन होने वाले नुकसान से निजात मिल सके। हालांकि, निवेशकों को वित्तीय रूप से साक्षर बनाने की कहीं अधिक जरूरत है, ताकि वे खुद उचित निर्णय लेकर शेयर बाजार में निवेश कर सकें।

रेपो दर में हालिया वृद्धि से बैंकों की पूंजी लागत बढ़ गई है, जिसकी भरपाई के लिए उन्होंने ऋण दर में बढ़े हुए रेपो दर के अनुपात में वृद्धि की है, ताकि उनके मुनाफे में बढ़ोतरी हो और वे बढ़ी हुई जमा लागत की भरपाई मुनाफे से कर सकें। फिलहाल, कर्ज के महंगा होने के बाद भी उधारी की मांग में कमी नहीं आ रही है। लिहाजा, बैंकों को छोटे निवेशकों से जमा लेने के लिए अपने सामर्थ्य के अनुसार जमा दर में इजाफा करना पड़ रहा है, ताकि उनके जमा आधार का फलक विस्तृत हो और वे जरूरतमंदों, कारोबारियों और आम जन की कर्ज – जरूरतों को पूरा कर सकें।

बैंकों द्वारा जमा को आकर्षित करने के लिए चलाई जा रही मुहिम की वजह से बैंक जमा आधार में हाल में मामूली वृद्धि हुई है। रिजर्व बैंक के वित्तीय स्थायित्व रिपोर्ट (एफएसआर) के अनुसार, 16 दिसंबर को समाप्त पखवाड़े में जमा में वृद्धि की दर पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 9.4 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि पिछले पखवाड़े की तुलना में यह 9.9 प्रतिशत ज्यादा है। रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, 16 दिसंबर को समाप्त पखवाड़े में बैंकिंग व्यवस्था में समग्र जमा 173.53 लाख करोड़ रुपये रहा है, जो इसके पहले के पखवाड़े में 175.24 लाख करोड़ रुपये था। हालांकि, कर्ज की मांग में तेजी बनी होने के कारण बैंकों के लिए जमा में वृद्धि उसी अनुपात में करना अब भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, क्योंकि 16 दिसंबर को समाप्त पखवाड़े में बैंकिंग व्यवस्था से कर्ज की मांग 17.4 प्रतिशत बढ़ी है। यह जमा वृद्धि से बहुत अधिक है।

ऐसे में, बैंक की मियादी जमा (फिक्स्ड डिपॉजिट) योजना में निवेश फायदेमंद है। भारत में शुरू से ही यह निवेश का सबसे सुरक्षित और आकर्षक विकल्प माना जाता रहा है, लेकिन बीते कुछ वर्षों से इसकी ब्याज दरों में उल्लेखनीय कमी आने की वजह से छोटे निवेशकों ने शेयर बाजार का रुख कर लिया है, लेकिन आए दिन सटोरियों या वित्तीय अज्ञानता की वजह से उनको वहां नुकसान उठाना पड़ रहा है।

फिलहाल सस्ती दर पर पूंजी जुटाने के लिए बैंक मियादी जमा की ब्याज दरों में बढ़ोतरी कर रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक पांच से दस वर्षों की मियादी जमा पर वरिष्ठ नागरिकों को 7.5 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है, जबकि गैर वरिष्ठ नागरिकों को इस अवधि के लिए 6.5 प्रतिशत की दर से ब्याज दी जा रही है। उसने 400 दिनों के लिए अमृत कलश नाम से एक नई मियादी जमा योजना भी शुरू की है, जिस पर वरिष्ठ नागरिकों को 7.6 प्रतिशत की दर से ब्याज दिया जा रहा है। इस योजना का लाभ 31 मार्च, 2023 तक उठाया जा सकता है।

पंजाब नेशनल बैंक पांच वर्षों की मियादी जमा पर वरिष्ठ नागरिकों को सात प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है, जबकि पांच वर्षों से अधिक और 10 वर्षों तक की अवधि वाली मियादी जमा पर वह वरिष्ठ नागरिकों को 7.3 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है। वहीं, गैर वरिष्ठ नागरिकों को तीन से दस वर्षों की अवधि वाली मियादी जमा पर बैंक 6.5 प्रतिशत की दर से ब्याज की पेशकश कर रहा है।

सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया वरिष्ठ नागरिकों को तीन से दस वर्षों की अवधि वाली मियादी जमा पर 6.92 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है। केनरा बैंक तीन साल से अधिक और पांच साल की अवधि तक की मियादी जमा पर वरिष्ठ नागरिकों को सात प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है, जबकि 15 लाख रुपये से अधिक और दो करोड़ रुपये से कम राशि की मियादी जमा पर 7.45 प्रतिशत की दर से वरिष्ठ नागरिकों को ब्याज दे रहा है।

बैंक ऑफ इंडिया पांच से दस वर्षों की मियादी जमा पर आम नागरिकों को 6.75 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है, जबकि वरिष्ठ नागरिकों को दो से पांच वर्षों की अवधि के लिए 7.25 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है। बैंकों की तुलना में कुछ गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थान, जैसे यूनिटी स्मॉल फाइनेंस बैंक मियादी जमा पर नौ प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है, जबकि सूर्योदय स्मॉल फाइनेंस बैंक 8.51 प्रतिशत की दर से ब्याज दे रहा है।

फिलहाल, कारोबारियों की सुस्ती से उबरने की जद्दोजहद के कारण कर्ज के महंगे होने के बावजूद उधारी के उठाव में तेजी बनी हुई है। इसलिए, बैंक जमा आधार बढ़ाने के लिए विशेषकर छोटे निवेशकों को आकर्षक ब्याज देने की पेशकश करके उन्हें लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में जमा दर में बैंकों द्वारा और भी बढ़ोतरी की जा सकती है, क्योंकि अभी महंगाई उच्च स्तर पर बनी हुई है, उधारी में तेज उठाव बना हुआ है और ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) आगामी मौद्रिक समीक्षाओं में रेपो दर और बढ़ा सकता है। लिहाजा, निवेशकों को सुरक्षित एवं आकर्षक निवेश के मौजूदा मौके को कतई गंवाना नहीं चाहिए, लेकिन साथ ही, उन्हें सावधान रहने की भी जरूरत है, क्योंकि कुछ गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थान जमा पर ज्यादा ब्याज देने की पेशकश कर रहे हैं और कुछ साल पहले जमा पर ज्यादा ब्याज देने वाले कुछ सहकारी बैंक दिवालिया हो चुके हैं। ऐसे में, निवेशकों को लालच से बचने की सलाह भी दी जा रही है, जो लाजिमी है।


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