09-02-2019 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
Date:09-02-19
A new innovation era: India jumps eight places among 50 countries in global IP index
Patrick Kilbride, [The writer is senior vice president of the Global Innovation Policy Center at the US Chamber of Commerce.]
If the new year is anything to go by, India is already signalling its position on innovation and creativity. The Supreme Court kick-started 2019 by upholding Monsanto’s patent on genetically modified cottonseeds, suggesting that patent rights will not be hostage to political discretion. Additionally, the Indian government clarified that patented drugs will be protected from price controls for a period of five years, and also proposed definitive measures to criminalise film piracy.
This growing pro-innovation narrative is very welcome and not entirely surprising. Over time, the government has gradually invested in a series of incremental initiatives to improve the country’s innovation ecosystem guided by the vision of the 2016 National Intellectual Property Rights (IPR) Policy.
Two days ago, the US Chamber of Commerce’s Global Innovation Policy Centre released its seventh annual IP Index, ‘Inspiring Tomorrow’. The Index analyses the IP climate in 50 countries, covering over 90% of global gross domestic product. It ranks economies based on 45 unique indicators that benchmark activity critical to building an innovation-led economy supported by robust patent, trademark, copyright, and trade secrets protection. It presents a data-driven view of global competitiveness based on the business community’s investment criteria.
The 2019 IP Index showed that India ranked 36th of 50 economies – eight places up from 44th place last year – reflecting the importance that India’s policymakers are placing on building an innovation ecosystem. For the second year in a row, India’s score represents the largest gain of any country measured on the Index, re-emerging as the top global improver – but this time with a big leap.
The Index findings highlight the positive spillovers from India’s broader economic reforms, captured by other global indices: The 2018 World Bank Doing Business Report ranked India as the “top global improver for a second consecutive year,” and India registered “the largest gain of any country in the G20” on the 2018 WEF Global Competitiveness Report. The global economy benefits when the world’s fastest growing major economy thrives.
The increase in India’s score and rank can be attributed to reforms that better align India’s IP environment with the international IP system, including its accession to the WIPO Internet Treaties, steps to initiate agreements to expedite patent examination with international patent offices, a dedicated set of IP incentives for small business, and administrative reforms to address the patent backlog.
India also performs well on some of the Index’s new indicators. On two of these – tax incentives for creation of IP assets, and targeted IP incentives for small business – India scores full points. Targeted incentives for small business – including expedited review for patent filings, reduced filing fees, and technical assistance – make India a world leader with Brazil.
However, to maintain this momentum, much work remains to be done. Frugal innovation is a great starting point to build a culture of creativity and efficiency. But the leap from frugal to transformative innovation requires a system of property rights that enables significant, risky, long-term investments.
Indian policymakers will need to streamline the country’s overall IP framework to better support transformative innovation and inspire creativity. For instance, innovators continue to be discouraged by superfluous patentability requirements, lengthy pre-grant opposition procedures, and lack of regulatory data protection. If a patent is granted, enforcement of its full term of 20 years remains a challenge – either through the looming possibility of price controls on patented products, or the threat of compulsory licenses. Online piracy is rampant, and the lack of enforcement capacity to seize counterfeit goods hurts business. A coherent trade secrets law is absent.
If India is to compete in the Fourth Industrial Revolution, it will need to look at today’s IPR as the addition and subtraction of the knowledge economy. The industrial assets of tomorrow’s economy are intangible: know-how, information, and data. Making a market for these assets will be far more complicated than simply protecting IP. An economy needs to walk before it can run, and all countries need to master IPR to prepare for tomorrow’s intangible economy. India has its work cut out, and the ‘josh’ is high.
Date:09-02-19
भारत में रोजगार से जुड़ी चुनौतियां
आने वाले समय में ऐसे लोगों की आकांक्षाएं पूरी करना एक चुनौती होगी जो रोजगार में तो लगे हैं, लेकिन अधिक आय की लालसा रखते हैं।
अमिताभ कांत , (लेखक नीति आयोग के सीईओ है।)
यह पूरी तरह स्पष्ट है कि आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) पीएलएफएस के नतीजों की पिछले रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण (ईयूएस) से तुलना नहीं की जा सकती। पीएलएफएस का इस्तेमाल 2017-18 के आधार से बदलावों को मापने में किया जाना चाहिए। हम पहले भी यह देख चुके हैं। भारत में सर्वेक्षण करना हमेशा पेचीदा रहा है और सर्वेक्षण पद्धति में छोटे से बदलाव से अप्रत्याशित नतीजे सामने आए हैं। पीएलएफएस में श्रम बल की भागीदारी की दर में गिरावट को भी उजागर किया गया है। अगर यह सही भी है तो इसमें यह उल्लेख नहीं किया गया है कि इसकी वजह स्कूलों में उपस्थिति में बढ़ोतरी या उच्च शिक्षा जैसे कारक हो सकते हैं।
समस्या सर्वेक्षण की पद्धति में है। नमूने का आकार बहुत छोटा था, जबकि तकनीक की मदद से ज्यादा परिवारों से प्रतिक्रिया हासिल की जा सकती थी। ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वेक्षण किए गए परिवारों की संख्या महज 55,000 थी। इसे देश में 16 करोड़ परिवारों के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस तरह नमूने का प्रतिशत 0.03 फीसदी यानी हर 10,000 पर करीब तीन परिवार। परिवारों के चयन में भी 75 फीसदी भारांश उन परिवारों को दिया गया, जिनमें 15 साल से अधिक उम्र के 10वीं पास लोगों की संख्या अधिक थी। वर्तमान स्थिति में 15 साल की उम्र के बाद भी शिक्षा को जारी रखने की संभावना होती है। 15 से 18 साल की उम्र के ज्यादातर लोग शिक्षा ग्रहण करना जारी रखते हैं। जो पढ़ाई कर रहे हैं, वे इस तरीके से जबाव देंगे कि वे रोजगार ढूंढ रहे हैं। नमूने का आकार इतना छोटा है कि आंकड़ों की संवेदनशीलता बहुत अधिक होगी। शहरी परिवारों में एक परिवार के प्रत्येक क्षेत्र में गलत जवाब देने पर श्रम बल की भागीदारी दर संख्या 25 फीसदी के दायरे में दिखेगी। इनकी तात्कालिक आंकड़ों से पुष्टि करने का कोई स्रोत नहीं है। सर्वेक्षण में जिन सर्वेयरों की सेवाएं ली गईं, वे बाहरी एजेंसी के थे। यह जरूरी नहीं कि वे लोगों से बातचीत करने के लिए सही व्यक्ति हों। हालांकि इन सर्वेयरों को डेटा रिकॉर्डिंग के लिए एक टैबलेट मुहैया कराया गया, लेकिन उन्हें सिम और डेटा कनेक्टिविटी नहीं दी गई। यहां तक कि जगहों की भी तस्वीरें नहीं ली गईं। मैं इस बात से अचंभित हूं कि आज की दुनिया में भी तात्कालिक डेटा और तकनीक का इस्तेमाल नहीं किया गया।
एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछा जा सकता है कि वर्तमान में भारत में रोजगार सृजन की स्थिति क्या है? सामाजिक सुरक्षा लाभों में योगदान देने वाले लोगों के बारे में अब हमारे पास वृहद आंकड़े उपलब्ध हैं। ये आंकड़े हमें कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ), कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) और राष्ट्रीय पेंशन फंड (एनपीएस) के माध्यम से प्राप्त होते हैं। सितंबर 2017 से नवंबर 2018 तक ईपीएफओ के साथ 73,50,786 नौकरीशुदा लोग जुड़े। दूसरे शब्दों में कहें तो हरेक महीने कुल 490,000 लोग इससे जुड़े हैं। ईएसआईसी भी लगभग यही कहानी बयां करता है। सितंबर, 2017 से नवंबर 2018 के बीच औसतन लगभग 10 से 11 लाख लोग हरेक महीने ईएसआईसी के साथ जुड़ते चले गए। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लें कि इनमें 50 प्रतिशत लोग ईपीएफओ से भी जुड़े हैं तो भी हरेक महीने 1 लाख और सालाना 12 लाख लोग औपचारिक रोजगार के दायरे में आए। एनपीएस का विश्लेषण करने से पता चलता है कि सरकार केंद्र एवं राज्य सरकारों में 6 लाख से अधिक नौकरियां सृजित हो रही हैं।
देश में परिवहन क्षेत्र भी रोजगार के आंकड़े की झलक पेश कर रहा है। इसके लिए व्यावसायिक वाहनों की बिक्री पर विचार करें। भारत में वित्त वर्ष 2018 में 750,000 वाहनों की बिक्री हुई। इनमें अगर 25 प्रतिशत नए वाहन पुराने वाहनों की जगह खरीदे गए हैं तो भी आंकड़ा 560,000 के करीब रहता है, जो किसी दृष्टिकोण से कम नहीं है। अगर हरेक वाहन दो लोगों को रोजगार दे रहा है तो इस दर से इस क्षेत्र में सालाना 11 लाख नौकरियां जोड़ी जा रही हैं। इनमें अगर कारों की बिक्री भी शामिल कर लें तो केवल इस क्षेत्र में सालाना 30 लाख नौकरियां सृजित हो रही हैं। भारत में स्वरोजगार भी रोजगार सृजन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। पेशेवर सेवा प्रदाताओं जैसे चार्टर्ड अकाउंटेंट, वकील और डॉक्टर के माध्यमों से भी रोजगार सृजन होता है। इन पेशेवरों के कामकाज पर नजर और इनका नियमन करने वाली संस्थाओं के आंकड़ों से यह बात जाहिर हो जाती है।
आयकर आंकड़े तेजी से बढ़ रहे नए स्वरोजगार का संकेत दे रहे हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार समीक्षा वर्ष 2014-15 और 2017-18 के बीच कर दाखिल करने वाले सालाना 150,000 नए पेशेवर जुड़े। इससे यह भी पता चलता है कि इनमें ज्यादातर करदाता सहायता के लिए कर्मचारी रखते हैं, जिनकी संख्या 20 से कम होती है। कर्मचारियों की संख्या 20 से अधिक होने पर सामाजिक सुरक्षा पंजीयन कराना अनिवार्य हो जाता है। अगर प्रत्येक पेशेवर पांच लोगों की भी सेवाएं लेता है तो यह आंक ड़ा बढ़कर सालाना 750,000 हो जाता है। मुद्रा योजना के तहत 15.56 करोड़ ऋण जारी हो चुके हैं। इन ऋणों का कुल मूल्य करीब 7 लाख करोड़ रुपये होता है। पहली बार ऋण लेने वाले 4 लाख से अधिक लोगों ने अपने कारोबारी उद्यम शुरू किए हैं। छोटे उद्यमियों को इतनी बड़ी तादाद में ऋण दिए जाने से बड़ी संख्या में रोजगार सृजित हुए हैं।
मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट ‘इंडियाज लेबर मार्केट-अ न्यू एम्फेसिस ऑन गेनफुल इम्प्लायीमेंट’ में कहा गया है कि सरकार की तरफ से व्यय बढऩे और स्वतंत्र रोजगार और उद्यमशीलता का विकास होने से 2014-17 के दौरान 2 से 2.6 करोड़ लोगों के लिए रोजगार बढ़े हैं। पर्यटन मंत्रालय के एक विश्लेषण के अनुसार पिछले चार वर्षों में अकेले पर्यटन क्षेत्र ने 1.46 करोड़ रोजगार के अवसर सृजित किए हैं। हालांकि ऊपर वर्णित आंकड़े रोजगार सृजन का पूर्ण ब्योरा नहीं देते हैं, लेकिन ये देश में तेजी से हो रहे रोजगार सृजन का पुख्ता प्रमाण हैं, जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है। दूसरी तरफ रोजगार कम होने जैसी धारणा नकारने के लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं।
क्या इन तथ्यों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि भारत में रोजगार से जुड़ी चुनौतियां नहीं हैं? ऐसा कहना भी सच्चाई से भागना होगा। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत की मुख्य चुनौती उन लोगों की अपेक्षाएं पर खरा उतरने की है, जो रोजगार तो कर रहे हैं, लेकिन अधिक आय की लालसा रखते हैं। इसके लिए औद्योगिक क्षेत्र के मौजूदा कर्मचारियों और जो लोग कृषि क्षेत्र से बाहर निकलना चाहते हैं, उनके लिए अधिक आय देने वाली नौकरियां सृजित करने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति तैयार करने के लिए ऐसी नीतियों की जरूरत होगी, जो देश में उत्पादकता बढ़ाती हैं। जहां तक पीएलएफएस की बात है तो मेरा मानना है किइस परियोजना से मिले अनुभव को आधार पर बनाकरतकनीक और वास्तविक समय के आंकड़े के इस्तेमाल से और नमूने का आकार बढ़ाकर सर्वेक्षण की गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए। केवल मोटे अनुमानों से मदद नहीं मिलती है। अगर आयोग के सदस्य के तौर पर एक प्रति मुझे मिली होती या मसौदा रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए संपूर्ण आयोग की बैठक हुई होती तो ये मुद्दे मैंने उठाए होते।
Date:09-02-19
फिर कल्याण का दौर
टी. एन. नाइनन
वर्ष 2014 में अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण के पहले पैराग्राफ में ‘नव मध्य वर्ग’ का उल्लेख किया था। भाषण समाप्त होने के पहले भी उन्होंने कम से कम दो बार ऐसा किया। इसके विपरीत गत सप्ताह पीयूष गोयल के बजट भाषण में 12 करोड़ किसान परिवारों के लिए महत्त्वाकांक्षी कल्याण योजना की घोषणा की गई। सरकार ने आकांक्षापूर्ण वर्ग पर ध्यान देने से आम आदमी तक का सफर तय कर लिया है।
इसके बावजूद बीच के पांच वर्षों में प्रति व्यक्ति आय में करीब एक तिहाई की बढ़ोतरी हुई। यह किसी भी अन्य देश से अधिक थी। ऐसे में वृद्घि के लाभ का असमान वितरण लाजिमी था। परंतु इसके बावजूद बहुआयामी गरीबी सूचकांक पर आधारित संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2015-16 तक के दशक में गरीबी का स्तर आधा हो गया। करीब 27 करोड़ लोग इस अवधि में गरीबी के भंवर से बाहर निकले। इस बीच देश की आधी आबादी के पास स्मार्ट फोन हैं और प्रति स्मार्ट फोन इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले हम दुनिया के सबसे बड़े देश बन गए। इन पांच वर्षों में करीब 9 करोड़ स्कूटर और मोटर साइकिल खरीदी गईं जबकि इससे पिछले तीन वर्ष में यह आंकड़ा 4 करोड़ था। यानी 2011 से अब तक यह आंकड़ा 13 करोड़ पहुंच चुका है। जनगणना के मुताबिक देश के हर पांच में से एक परिवार के पास पहले ही इंजन वाला दोपहिया वाहन है। आज यह आंकड़ा दो परिवारों में एक वाहन तक पहुंच गया होगा। पिछले वर्ष हर दिन करीब 6.66 लाख लोगों ने विमान यात्रा की। यह विमानन में निजी क्षेत्र के प्रवेश के समय के यात्रियों का 25 गुना है। अगर हम आकांक्षा को ध्यान में रखें तो हमने कुछ तो हासिल किया है।
सवाल यह है कि नव मध्य वर्ग से आम आदमी तक इस बदलाव को कैसे समझा जाए। खासकर कर्ज माफी, कर छूट और नकद राशि देने के इस दौर में। यह काफी हद तक सन 1971 की याद दिलाता है जब गरीबी हटाओ का नारा दिया गया था। आज हमारी प्रति व्यक्ति आय उस दौर से सात गुना अधिक है। हां, एक अंतर अवश्य है। इंदिरा गांधी ने पहले अमीरों पर कर लगाकर और राज्य का प्रभुत्व इस्तेमाल कर अमीरों से पैसे निकलवाए, उसके बाद उन्होंने कल्याण योजनाओं की मदद से गरीबों की सहायता की। नरेंद्र मोदी ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को कांग्रेसी विफलता का प्रतीक बताकर सही किया था लेकिन उन्होंने खुद इस मद में सबसे अधिक आवंटन किया। भोजन के अधिकार कार्यक्रम के तहत अभी भी अनाज इतनी कम कीमत पर बेचा जा रहा है जिसने सन 1984 में एनटी रामाराव की सरकार बनवाई थी। मानो गरीबों की असमायोजित आय बीते 35 वर्ष से वहीं ठहरी हुई है।
इसके बावजूद राजनीतिक वर्ग हमेशा लोक कल्याण की योजनाओं को लेकर एकमत रहा। दोहरापन इसकी एक व्याख्या हो सकती है। खासतौर पर इसलिए कि देश अच्छी तादाद में गैर कृषि रोजगार नहीं तैयार कर सका। इसकी दूसरी व्याख्या पहले नोटबंदी और उसके बाद वस्तु एवं सेवा कर से उपजी विसंगति के रूप में की जा सकती है। इनसे भी कृषि क्षेत्र में निराशा बढ़ी क्योंकि उपज की कीमतों में गिरावट आई। मोदी दूसरी बात से सहमत नहीं होंगे लेकिन वह पहली बात को भी विवादित मानते हैं। लोकसभा में अपने भाषण में उन्होंने ऐसा ही किया। आपको मानना होगा कि उनकी बातें तार्किक थीं। परंतु उनकी दूसरी अवधारणा को खारिज कर सकते हैं जो उन्होंने मुद्रा ऋण की सफलता की बात की, वह विसंगतिपूर्ण है। चाहे जो भी हो लेकिन सरकार के कदम बताते हैं कि उसे दोहरेपन विसंगति और कृषि संकट का ध्यान है।
यह शायद चुनावी वर्ष में बरती गई सतर्कता भर है लेकिन इन कदमों का फायदा तो होगा। एक लोक कल्याणकारी राज्य को तभी सही माना जा सकता है जब वह सबको शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करा सके। निम्र मध्य आय वर्ग वाले देश में यूं धन बांटना तब तक सही विकल्प है जब तक कि जिन लाभों का वादा किया गया है वे गैर जरूरतमंदों से पैसे लेकर पूरे किए जाएं और इनका आर्थिक बोझ बहुत अधिक न हो। अगर ऐसा नहीं है तो यह पुराना सवाल उठेगा कि किसी व्यक्ति को मछली देना सही है या उसे मछली पकडऩे की कला सिखाना? लोककल्याण के मौजूदा दौर से तो यही संदेश निकल रहा है कि राज्य के पास गरीबों को देने के लिए नकदी के अलावा कुछ नहीं है।
Date:09-02-19
ब्याज का लचीलापन
संपादकीय
भारतीय रिजर्व बैंक ने एक अर्से बाद अपनी मुख्य ब्याज दर रेपो रेट घटाई है। सारे भारतीय बैंक इसी दर पर रिजर्व बैंक से पैसे उठाते हैं। रेपो रेट में चौथाई फीसदी यानी 25 बेसिस पॉइंट की कटौती की गई है, जिससे यह 6.50 फीसदी से घटकर 6.25 फीसदी हो गई है। आरबीआई ने अपनी ब्याज दर में कमी पिछली बार अगस्त 2017 में की थी। उसके नए गवर्नर शक्तिकांत दास के कार्यकाल की यह पहली मौद्रिक नीति है। पूर्व वित्त सचिव दास को बीते दिसंबर में यह जिम्मेदारी दी गई तो ऐसी अटकलें लगाई गईं कि आते ही वह केंद्र की मर्जी के अनुरूप ब्याज के बंधन खोलेंगे ताकि अर्थव्यवस्था में थोड़ी हलचल आए। चुनावी साल में लोन सस्ता होना सत्तारूढ़ दल के लिए फायदेमंद होता है। लेकिन रेपो रेट घटाने को सीधे-सीधे राजनीतिक दबाव में लिया गया फैसला कहना गलत होगा। छह सदस्यों की मौद्रिक नीति समिति ने आम राय से नीति को सत से न्यूट्रल बनाने का फैसला लिया। बहस सिर्फ रेपो रेट को स्थिर रखने और इसे घटाने के बीच थी और पलड़े का दूसरी तरफ झुकना लाजमी था। शतिकांत दास न सिर्फ भारतीय बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था के लक्षणों का आकलन करके ही इस नतीजे पर पहुंचे हैं। दुनिया में कच्चे तेल की कीमत का रुझान स्थिर रहने या नीचे जाने का है। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध से क्रूड की किल्लत पैदा होने की आशंका थी, जो अमेरिका की नरमी से खत्म हो गई।
अमेरिकी रिजर्व बैंक फेड ने अपनी दरें बढ़ाने को लेकर ठंडा रुख अपना लिया है, लिहाजा डॉलर भी तेजी से महंगा नहीं हो रहा। भारत समेत पूरी दुनिया में खाद्य वस्तुओं का सस्ता होना एक और राहत की बात है। चीन और दुनिया की कई और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का सुस्त पडऩा एक अलग समस्या है, लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था अभी इस बीमारी से भी बची हुई है। राष्ट्रीय सांयिकी कार्यालय ने भारत का वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद 7.2 फीसदी आंका है। रबी की बुवाई एक फरवरी तक पिछले साल से 4 प्रतिशत कम दर्ज की गई है लेकिन माना जा रहा है कि इस बार देर तक ठंड पडऩे से पैदावार अच्छी रहेगी। खुदरा और थोक वस्तुओं की महंगाई भी काबू में है। इन परिस्थितियों में रिजर्व बैंक ने अपने हाथ खोलने का फैसला किया तो ठीक ही किया।
आरबीआई ने किसानों को तोहफा देते हुए बिना गारंटी के मिलने वाले लोन की सीमा बढ़ा दी है। पहले यह सीमा एक लाख रुपये थी, जिसे बढ़ाकर 1.60 लाख रुपये कर दिया गया है। इसी तरह बड़ी जमाराशि से जुड़े नियमों में भी बदलाव किया गया है। रिजर्व बैंक गवर्नर ने अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के लिए पर्याप्त नकदी उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया। बहरहाल, रेपो रेट कम होने से बैंक होम लोन आदि की मासिक किस्त घटाएंगे या नहीं, कहना मुश्किल है क्योंकि फंसे हुए कर्जों का दबाव उन पर अब भी काफी है।
Date:08-02-19
भारतीय हितों को चुनौती
सतीश कुमार
अमेरिका और तालिबान अफगान संकट को खत्म करने पर सहमत हो गए हैं। शनिवार को दोनों पक्षों की तरफ से वार्ताकारों ने 17 साल से जारी युद्ध को खत्म करने पर सहमति व्यक्त की। दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों ने छह दिन की कठोर वार्ता के बाद आखिरकार अफगान युद्ध को समाप्त करने के समझौता मसौदे पर हस्ताक्षर किए। तालिबान सूत्रों के अनुसार अमेरिका को इस बात का आश्वासन दिया गया है कि अफगानिस्तान में अल कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों को पनाह नहीं दी जाएगी। वार्ता में अमेरिका की ओर से तत्काल संघर्ष विराम की मांग की गई थी। हालांकि इस संबंध में अभी कोई कार्यक्रम तय हुआ है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं हो सका है।
वहीं तालिबान ने दावा किया है कि अमेरिका अगले 18 महीनों में सभी विदेशी सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुला लेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की सोच अफगानिस्तान को लेकर बिल्कुल स्पष्ट है कि अमेरिका वहां से अपनी सेना को 18 महीने में वापस बुला लेगा। राष्ट्रपति की सोच के कारण से ही पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री मैटीज ने त्यागपत्र दे दिया था। 2001 से लेकर 2018 तक तकरीबन 7000 से ज्यादा अमेरिकी सैनिक और करीब 8000 तक अमेरिकी व्यवसायी अफगानिस्तान में हताहत हुए हैं। अमेरिका लगभग 45 मिलियन डॉलर हर वर्ष अफगानिस्तान में खर्च करता है। पिछले 17 साल से अमेरिकी सेना वहां पर तैनात है। इसलिए ट्रंप सुदूर की जंग लड़ने के मूड में नहीं है। उनकी नजरों में अमेरिका को कोई लाभ नहीं होगा। संभवत: अमेरिका की आर्थिक हालत भी बहुत अच्छे नहीं हैं। लेकिन दोहा में जो वार्ता हुई, वह अभी कोई नतीजे पर नहीं पहुंच पाई है। तालिबान की वचनबद्धता में कोई प्रमाणिकता नहीं, जो अमेरिकी अनुदेश को पालन करने की लिए उसे विवश करे।
तालिबान की पृष्ठभूमि भी ऐसी नहीं रही है, जो इसकी बातों को सहजता से स्वीकार की जा सके। पाकिस्तान की कूटनीति भी पिछले कुछ वर्षो में यही रही है कि तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान के राजनीतिक ढांचे को चलाया जाए। चीन की रणनीति भी पाकिस्तान के सबसे करीब है। रूस जो पाकिस्तान और तालिबान का विरोधी है, उसकी भी सोच बदल चुकी है। इस बदलाव का सबसे बड़ा आघात अफगानिस्तान की जनता और भारत को लगेगा। भारत की सोच अफगानिस्तान उन्मुख राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करना है, जिसमें तालिबान का वजूद ज्यादा शक्तिशाली नहीं हो। भारत अमेरिका के साथ मिलकर काम कर रहा था। मगर अमेरिका की वापसी के बाद भारत का कोई भी सहयोगी देश वहां नहीं बचा। पाकिस्तान का चाबहार बंदरगाह भी खतरे के घेरे में होगा अगर तालिबान का उपद्रव शुरू हुआ तो। तालिबान की गूंज कश्मीर में भी सुनाई देगी, जो पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलाया जाएगा। तालिबान और अमेरिकी वार्ता में अफगानिस्तान की सरकार को नहीं शामिल किया गया है।
तालिबान अफगानिस्तान की सरकार को वैध नहीं मानता। अमेरिकी वार्ता के ठीक पहले तालिबान ने 100 से अधिक अफगान सैनिकों की हत्या कर दी। यह भी इतना ही सच है की तालिबान का मतलब अफगानिस्तान नहीं है। अफगानिस्तान जातियों और क्षेत्रों में बंटा हुआ है, जिसका सबसे बड़ा तबका पश्तून है। पश्तून के द्वारा ही तालिबान की रचना हुई है। लेकिन दूसरा सबसे बड़ा तबका ताजिकों का है, जो तालिबान के घोर विरोधी हैं। यह तबका ज्यादा पढ़ा-लिखा है। अमेरिकी वर्चस्व के बाद ताजिकों को सत्ता में स्थान दिया गया था। पश्तून इससे भी काफी खफा थे। ब्रिटिश काल में पश्तून और पाकिस्तान के सम्बन्ध बहुत तीखे थे। जब अंग्रेजों ने डुरंड रेखा पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच खींची थी, उससे पश्तून दो भागों में बंट गया था। उस दौरान अफगानिस्तान के विभिन्न जातियों में धर्म प्रधान नहीं था, उनके लिए जाति और क्षेत्र मुख्य था। इसलिए 1947 में अफगानिस्तान ने पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र संघ में शामिल किए जाने पर विरोध दर्ज किया था। लेकिन रूसी आक्रमण ने पाकिस्तान के सामरिक विस्तार को धारदार बनाया। जहां तक भारत की बात है तो इसकी मुश्किलें कई कारणों से बढ़ेगी। भारत की नीति पाकिस्तान के हस्तक्षेप को हर तरह से रोकने की रही है। क्योंकि पाकिस्तान निरंतर भारत विरोधी गतिविधियों में संलग्न रहा है। भारतीय प्रयास को पाकिस्तान के आतंकवादी समूहों द्वारा नुकसान पहुंचाया जाता रहा है।
1990 में भारत रूस और ईरान के साथ मिलकर अफिनस्तान में काम कर रहा था, जिसमें ताजिक और अन्य जातियों को विश्वास में लिया गया था, जो तालिबान के विरोधी थे। आज अफगानिस्तान को लेकर न ईरान और न ही रूस भारत के साथ हैं। इसका सीधा फायदा पाकिस्तान को मिलेगा। दूसरी तरफ चीन पाकिस्तान के जरिये अपनी ओबीओआर योजना को व्यापक बनाने की कोशिश करेगा। चीन किसी भी तरह से पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों की वजह से उस पर कोई लगाम नहीं डालेगा। तालिबान की दूसरी पारी पहले जैसी सहज नहीं होगी। आर्थिक व्यवस्था बेतरतीब है। अमेरिका और सऊदी अरब की आर्थिक सहयता के बिना ट्रैक पर गाड़ी को लाना मुश्किल होगा। तालिबान ताजिक समुदाय को भी नजरअंदाज करेगा तो गृहयुद्ध की आशंका बढ़ेगी। तालिबान के आने के बाद युद्ध और कलह तेजी से बढ़ेगा। महिलाओं और अल्पसंख्यक वर्ग की मुश्किलें भी बढ़ेंगी। 2019 में अफगानिस्तान में चुनाव भी होने वाला है। क्या तालिबान चुनाव के जरिये सत्ता पर काबिज होगा या अन्य तरीके अपनाएगा, यह देखने वाली बात होगी। अमेरिका मन बना चुका है अपनी वापसी का।
भारत के लिए चुनौती गंभीर है। केवल नुकसान अफगानिस्तान में ही नहीं होगा, इसका खामियाजा मध्य एशिया पर भी होगा, जहां पर भारत का हित है। आतंकी गतिविधियां भी कश्मीर में बढ़ेगी। ईरान के जरिये अफ्रीका तक पहुंचने का रास्ता भी भारत के लिए कांटों भरा होगा। चूंकि 1987 में रूस के साथ होने की भूल अफगानिस्तान में हम कर चुके हैं, जिससे पश्तून जाति पूरी तरह से भारत विरोधी हो गई। तालिबान उन्हीं की जमात है। ऐसी हालत में भारत की समस्या कुछ ज्यादा ही गंभीर है। अमेरिका किस तरीके से भारत के हित को बचा पाएगा या भारत को अपने हित की सुरक्षा खुद करनी होगी, यह आने वाला समय बताएगा।
Date:08-02-19
आखिर सहमति
संपादकीय
सबरीमला मंदिर का संचालन करने वाले त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड ने आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने पर सहमति जताई है। बोर्ड की तरफ से पेश हुए वकील ने संविधान में वर्णित सभी व्यक्तियों के धर्म पालन के समान अधिकार का उल्लेख करते हुए स्वीकार किया कि किसी वर्ग विशेष के साथ उसकी शारीरिक अवस्था की वजह से पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह आयु विशेष की महिलाओं के सबरीमला मंदिर में प्रवेश संबंधी प्रतिबंध हटने की स्थिति बनी है। अभी तक सबरीमला मंदिर में एक खास आयुवर्ग की महिलाओं के प्रवेश का निषेध था। इस पर जब यंग इंडियन लायर्स एसोसिएशन ने जनहित याचिका दायर की, तो त्रावणकोर देवस्वओम बोर्ड और अनेक संगठनों ने उसका यह कहते हुए विरोध किया था कि सबरीमला मंदिर में भगवान अयप्पा का विशेष स्वरूप है और इसे संविधान के तहत संरक्षण प्राप्त है, इसलिए महिलाओं के प्रवेश की अनुमति मंदिर की गरिमा को चोट पहुंचाएगी। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने तमाम सुनवाइयों के बाद मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी थी। उसके बाद भी देवस्वओम बोर्ड और उसके तर्कों से सहमत तमाम संगठन और राजनीतिक दल विरोध करते रहे। मंदिर के आसपास कड़ा पहरा लगा दिया गया, ताकि कोई महिला प्रवेश न करने पाए।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद जब सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रहा, तो विरोध प्रदर्शन तेज हो गए। इस बीच कुछ महिलाएं मंदिर में प्रवेश कर गईं, तो मंदिर संचालन बोर्ड ने मंदिर को पवित्र करने का अनुष्ठान कराया। उन महिलाओं की सुरक्षा खतरे में पड़ गई। राज्य सरकार और मंदिर की विशेष स्थिति के पक्ष में खड़े लोगों के बीच तनातनी का माहौल बना रहा। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सुनवाई की और मंदिर संचालन बोर्ड का पक्ष जानना चाहा। उसमें बोर्ड की तरफ से पेश हुए वकील ने मान लिया कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। यह विवेकपूर्ण कदम है। एक लोकतांत्रिक समाज में इस तरह का भेदभाव किसी भी रूप में उचित नहीं कहा जा सकता। इसके पहले शनि शिंगणापुर मंदिर में भी महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित था, पर कुछ महिला संगठनों ने इसे कानूनी चुनौती दी, तो वहां भी महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित हो सका। यह ठीक है कि धर्म और आस्था के मामले में बहुत सारे तर्कों का कोई मतलब नहीं होता, पर जैसे-जैसे सामाजिक स्थितियां बदलती हैं, लोगों के सोचने-समझने के स्तर का विकास होता है तो परंपरा से चली आ रही कई मान्यताएं और धारणाएं भी बदलती हैं। वैसे में आस्था से जुड़े सवालों को भी पुनर्व्याख्यायित करने की जरूरत पड़ती है। इस लिहाज से सबरीमला मंदिर मामले में बोर्ड का कदम सराहनीय है।
महिलाओं की पवित्रता-अपवित्रता से जुड़ी अनेक प्राचीन मान्यताएं अब तर्क की कसौटी पर बेमानी साबित हो चुकी हैं। वैज्ञानिक तथ्यों के आलोक में बहुत सारी रूढ़ियां ध्वस्त हो चुकी हैं। इसलिए सबरीमला संचालन बोर्ड का उनकी पवित्रता-अपवित्रता को लेकर दृष्टिकोण संकीर्ण ही साबित हो रहा था। फिर जब हमारा संविधान सभी नागरिकों को, चाहे वे महिला हों या पुरुष, धर्म और आस्था के मामले में भी समान अधिकार देता है, तो कुछ मंदिरों में विशेष स्थिति का तर्क देते हुए उन्हें इससे वंचित रखना एक तरह से संवैधानिक मर्यादा के भी खिलाफ है। अच्छी बात है कि सबरीमला संचालन बोर्ड ने महिलाओं के लिए प्रवेश द्वार खोलने पर सहमति व्यक्त की है।
Date:08-02-19
राहत भरा कदम
संपादकीय
रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने नीतिगत दरों में कमी कर इस बात का संकेत दिया है कि महंगाई अब काबू में है, मुश्किलों का दौर खत्म हो रहा है और अर्थव्यवस्था के लिए आने वाले दिन अच्छे होंगे। मौद्रिक नीति समिति की तीन दिन तक चली बैठक के आखिरी दिन इस बात के संकेत आने लगे थे कि इस बार महंगाई काबू में रहने के कारण केंद्रीय बैंक लचीला रुख अपनाएगा और नीतिगत दरों में कमी करेगा। केंद्रीय बैंक ने अब रेपो और रिवर्स रेपो दर में एक चौथाई फीसद की कमी कर दी है। रिजर्व बैंक के इस फैसले का लंबे समय से इंतजार था। कर्ज सस्ता या महंगा होने का गणित इसी पर टिका होता है और इसका सीधा और पहला असर उन उपभोक्ताओं पर पड़ता है जिन्होंने घर, गाड़ी, शिक्षा जैसी जरूरतों के लिए अपने बैंक से कर्ज लिया है या जो लोग इस इंतजार में रहते हैं कि कब कर्ज सस्ता हो और वे घर और गाड़ी खरीदने की योजना बनाएं।
रिजर्व बैंक की नीतिगत दरों के अनुरूप ही व्यावसायिक बैंक अपने कर्ज और सावधि जमाओं की ब्याज दरें तय करते हैं। इसलिए अब यह तय है कि व्यावसायिक बैंक भी कर्ज की दरें घटाएंगे, इससे कर्ज सस्ता होगा और बैंकों से कर्ज लेने वाले उपभोक्ताओं की मांग तेजी से बढ़ेगी। इसका सीधा और तात्कालिक असर वाहन बाजार और रियल एस्टेट बाजार पर पड़ेगा। लंबे समय से रियल एस्टेट बाजार में मंदी छाई हुई है और घर खरीदने वाले सस्ते कर्ज के इंतजार में थे। अगर रियल एस्टेट और वाहन बाजार उठता है तो इससे जुड़े अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में भी तेजी का रास्ता बनेगा। हालांकि सावधि जमाओं पर ब्याज में कटौती निराश कर सकती है। मौद्रिक नीति समिति की यह बैठक पहली बार नए गवर्नर की अगुआई में हुई है। छह में से चार सदस्य नीतिगत दरों को कम करने के पक्ष में थे। दो सदस्यों का कहना था कि इसे स्थिर बनाए रखने की जरूरत है। इससे यह संकेत मिलता है कि नए गवर्नर ने तटस्थ रुख अपनाना बेहतर समझा है। यह इस बात का भी संकेत माना जा सकता है कि आने वाले वक्त में रेपो दर और कम की जा सकती है। अभी तक केंद्रीय बैंक महंगाई के जोखिम के मद्देनजर सख्त रुख अपनाए हुए था। लेकिन डेढ़ साल में पहली बार ऐसा हुआ है जब पिछले साल दिसंबर में मुद्रास्फीति सबसे कम (2.2 फीसद) रही और नीतिगत दरें कम करने का रास्ता साफ हुआ।
रिजर्व बैंक का अनुमान है कि अब महंगाई परेशान नहीं करेगी और इस वित्त वर्ष की आखिरी तिमाही में महंगाई दर 2.8 फीसद रहेगी। अगर ऐसा रहा तो रिजर्व बैंक नीतिगत दरों को नीचे ला सकता है। लेकिन बाद के महीनों में महंगाई दर बढ़ने का जोखिम बरकार है। इसीलिए मौद्रिक समिति ने साफ तौर पर कहा है कि सब्जियों और तेल की कीमत, स्वास्थ्य और शिक्षा महंगी होने, वित्तीय बाजारों में उतार-चढ़ाव और मानूसन को लेकर सतर्क रहने की भी जरूरत है। रिजर्व बैंक को अभी उम्मीद है कि अंतरिम बजट में कर रियायतों और किसानों के लिए जो घोषणाएं हुई हैं उनसे बाजार में मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था पर इसका अच्छा असर दिखेगा। पिछले साल केंद्रीय बैंक ने जून और अगस्त में रेपो दर बढ़ाई थी। बैंक को यह सख्त कदम इसलिए उठाना पड़ा था कि महंगाई का ग्राफ तेजी से ऊपर जाने का खतरा बना हुआ था। ऐसे में लंबे समय बाद नीतिगत दरों में कटौती उपभोक्ताओं को राहत देने वाली होगी।
Date:08-02-19
Faith and gender justice
Court has upheld equality. Muslim Personal Law Board and devotees of Ayyappa must initiate internal reform.
Faizan Mustafa , [The writer is vice chancellor, NALSAR University of Law, Hyderabad]
In a recent television interview, Prime Minister Narendra Modi said that while opposition to women’s entry into Sabarimala is a question of tradition, triple talaq is an issue of gender justice. The prime minister has echoed what his party president and other BJP leaders have been saying over the past few months: Sabarimala is an issue of aastha (faith). Surprisingly, however, the Supreme Court’s Shayara Bano judgment (2017) does not talk of gender justice. The court set triple talaq aside because the majority in the five-judge bench found the practice to be un-Islamic — that is, against the faith.
The prime minister’s sentiments on Sabarimala have been echoed by the RSS chief, VHP leaders and top ministers of the Modi government in the context of the Babri Masjid dispute. Some of them have quite brazenly asked the apex court to decide the property suit expeditiously.
At a time when it seems that religion will play a significant role in the electoral battle of 2019, it is of utmost importance that we understand the meaning of tradition? What is faith? What is gender justice? Are Sabarimala and triple talaq issues of faith/tradition or do they pertain to gender justice? Is it right for the prime minister and others to approve the dissenting opinion of Justice Indu Malhotra in the Sabarimala judgment but go against the dissent by the then Chief Justice of India J S Khehar and Justice Abdul Nazeer in Shayara Bano — the two had argued that the “tradition” of triple divorce is as old as Islam, that is, 1,400 years. The exclusion of women in Sabarimala is not such an ancient tradition and a queen of Travancore is said to have visited the temple as late as 1939.
In fact, the majority in the triple talaq judgment considered freedom of religion nearly absolute. CJI Khehar explicitly held that personal law is included within the freedom of religion and observed that the courts have a duty to protect personal law and are barred from finding fault in it. He went on to hold that personal law is beyond judicial scrutiny. “Triple divorce cannot be faulted either on the ground of public order or health or morality or other fundamental rights,” the-then CJI said. Justice Rohinton Nariman and Justice U U Lalit too accepted that triple talaq is considered sinful and thus cannot be termed as an essential Islamic practice that is entitled to constitutional protection. Sin is essentially a concept of “faith”. Moreover, they struck down the practice as arbitrary. The judges rightly observed that the fundamental nature of Islam will not change if triple divorce is not recognised. Justice Kurian Joseph too said triple divorce is un-Islamic and what is sinful in theology cannot be valid in law.
“What an individual does with his own solitariness” is how the English philosopher Alfred North Whitehead defined religion or faith. To former President S Radhakrishnan, “Religion was a code of ethical rules and the rituals, observances, ceremonies and modes of worship are its outer manifestations.” Thus, whom to worship, how to worship, where to worship and when to worship are all questions of faith or religious tradition. Faith also tells us what is permissible and what is prohibited in certain contexts. Thus, what food is permissible and with whom sexual relations are prohibited too are questions of faith for a believer or a follower of religious tradition. If the intimate relationship between a believing Hanafi (most Indian Muslims are followers of this sect) couple has become sinful — and goes against the tenets of their religion — we cannot, legally speaking, force them to continue in such a relationship. Article 26 gives every religious denomination or any sect thereof the freedom to manage its own affairs in matters of religion.
The argument that since some Muslim countries do not permit triple divorce — therefore triple divorce is not an issue of faith and can be made a criminal offence — is misconceived, as Islamic law is not uniform. It varies from one school (sect) to another. Moreover not recognising triple divorce as a valid form of divorce is one thing and making it a criminal offence is another. After the Supreme Court judgment, there is today near unanimity within experts of Indian Islam on the former point. But most of them are opposed to the criminalisation of triple talaq because divorce is fundamentally a civil matter.
Faiths are all about “beliefs” and these beliefs need not be based, either on rationality or on morality. Reason and empiricism are alien to religions. In fact, all faiths are regressive, exclusionary and discriminatory because their origins date to pre-modern times.
But the Constitution, as a progressive document, gives us the right to have a certain amount of irrationality and blind belief, under the Freedom of Religion (Articles 25-28). By overemphasising “constitutional morality,” the Sabarimala judgment tried to curtail this freedom to irrational beliefs. That led to protests. Justice D Y Chandrachud had described the exclusion of women as untouchability, while delivering the verdict in the Sabarimala case. Many of us thought that he was going too far but the purification of the temple after the entry of two women has proved that there is indeed an element of untouchability in the exclusion of women — this, when the Constitution has explicitly abolished untouchability.
In the Sabarimala case, the majority struck down the rule that prohibited women from entering the temple as it went against the parent act on places of worship. This Act lays down that all places of worship in Kerala shall be open to all sections of Hindus. The Supreme Court refused to recognise the Ayyappa devotees as members of a distinct Hindu sect. It also refused to extend the Freedom of Religion to gods, thus refuting the primary argument of the Sabarimala trust. The trust had argued that Ayyappa, being a celibate himself, excluded women from his temple. Justice Chandrachud held that deities are not entitled to fundamental rights. The review court may re-examine this claim.
Gender justice is a modern concept to which our Constitution is committed. Freedom of religion is subject to the Right to Equality and that’s why judges have little choice in upholding discriminatory practices. But we should not aim just at formal equality but try to achieve substantive equality. Substantive equality rejects the “sameness doctrine” under which men and women are to be given the same treatment. It rather favours recognition of differences between men and women and advocates differential but just treatment for women.
The distinction between faith and tradition is artificial and gender justice requires reforms in both. The devotees of Ayyappa as well as the Muslim Personal Law Board must appreciate the constitutional vision of gender justice and religions must reform themselves internally. However, the top- down model of reforms will not work as Indians are essentially religious and prefer to go by the opinions of clergy rather than the courts. The Sabarimala protests have yet again proved that courts are ill-equipped to initiate reforms in faiths.