08-11-2024 (Important News Clippings)
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Date: 08-11-24
All or any
The state must have bandwidth to guard against concentration of resources
Editorial
That the Constitution has an economic philosophy rooted in socialist principles, mainly embodied in its Directive Principles of State Policy, is well understood. However, a question that has often arisen for judicial review concerns how far the state’s obligation to subserve the common good and prevent the concentration of wealth and means of production can be allowed to go against fundamental rights of individuals. The state’s obligation to ensure that the ownership and control of “material resources of the community are so distributed as to subserve the common good” and to prevent the working of the economic system to the common detriment is found in Articles 39(b) and (c). The recent verdict of a nine-judge Bench of the Supreme Court, holding that not all private resources would fall under the ambit of ‘material resources’ of the community in Article 39, is notable for its examination of whether the underlying economic thought should be given an expansive view, or there are limitations on what sort of private property can be the subject of state action. The Court’s majority opinion rejects the expansive view taken in a few precedents in favour of any private resources, including those individual-owned, falling under its ambit. In tune with present-day economic realities, it holds that this directive principle cannot be seen through any particular ideological prism, and disapproves of such earlier formulations.
The majority view is that while, theoretically, private resources could be part of the community’s resources, the relevant consideration for the state to acquire or distribute them in pursuit of the common good will depend on “non-exhaustive factors”: the nature of the resources and their characteristics, whether such acquisition is essential for the community, the scarcity of such resources, and the consequences of their being concentrated in private hands. Land acquisition has always been based on the principle of eminent domain, while allocation of natural resources will require fair and transparent processes. On the other hand, nationalisation of utilities, services and industries has required constitutional justification through the Directive Principles. The majority is right in holding that the Constitution-makers consciously worded Article 39 in broad terms so that they do not tie down future regimes to any particular strand of economic thought. However, Justice Sudhanshu Dhulia’s dissent has significance. Highlighting the continuing inequality in society, he has questioned the majority for seeking to limit the scope of the “material resources”, when the better approach would have been to leave it to the wisdom of the legislature.
Date: 08-11-24
कॉलेजियम व्यवस्था और वीटो इस्तेमाल के मायने
संपादकीय
अपने कार्यकाल के अंतिम सप्ताह में सीजेआई ने एक साक्षात्कार में कहा, ‘अगर कुछ मामलों में जजों की नियुक्तियां न करते हुए या विलंब करके सरकार एक किस्म का ‘वीटो पावर (निषेधात्मक शक्ति) इस्तेमाल करती है, तो कॉलेजियम भी इस शक्ति का प्रयोग करता है क्योंकि उसकी संस्तुति के बगैर सरकार कोई नियुक्ति नहीं कर सकती।’ उनका कथन कई मायनों में चौंकाने वाला है। जजों की नियुक्ति के मामले में स्वयं इस कोर्ट ने फैसला दिया कि कॉलेजियम को पूर्ण स्वायत्तता होगी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता आधारभूत ढांचे का अंग है। स्वयं सीजेआई के नेतृत्व वाली एक बेंच ने इसी कोर्ट की कॉलेजियम द्वारा समय-समय पर जजों की नियुक्ति के लिए भेजी गई अनुशंसा पर सरकार से सख्त लहजे में यह ब्योरा मांगा कि कब-कब, कितनी संस्तुतियों पर कितने दिन नियुक्ति करने में देरी की गई। दरअसल ऐसे आरोप लगते रहते हैं कि नामों की संस्तुति और कॉलेजियम द्वारा दोबारा उन्हीं नामों को भेजने के बाद भी अक्सर सरकार नियुक्ति पत्र देने में देरी करती है। वर्ष 2014 में कानून के जरिए एनजेएसी बना कर कॉलेजियम को खत्म करने की कोशिश हुई थी, जिसे कोर्ट ने अवैध करार दिया। लेकिन इस साक्षात्कार में वीटो के सवाल पर सरकार और कॉलेजियम को एक ही तराजू पर तौलना विचित्र लगा |
Date: 08-11-24
मदरसा शिक्षा में सुधार की राह खुली
डॉ. हरबंश दीक्षित, ( लेखक उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग के पूर्व सदस्य एवं विधिवेत्ता हैं )
उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड अधिनियम, 2004 पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आम फैसलों से अलग है। ऐसा बहुत कम होता है कि अदालत के किसी निर्णय से दोनों पक्षकार संतुष्ट हों, लेकिन इस मामले में ऐसा ही देखने को मिला। सुप्रीम कोर्ट ने अंजुम कादरी और अन्य बनाम भारत संघ के निर्णय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए उत्तर प्रदेश मदरसा एक्ट, 2004 को संवैधानिक ठहराया, किंतु कामिल (स्नातक) और फाजिल (परास्नातक) डिग्री देने से संबंधित प्रविधानों को यूजीसी एक्ट 1956 के विरुद्ध होने के कारण असंवैधानिक घोषित कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट में यह मुकदमा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ अपील के रूप में आया था, जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड एक्ट, 2004 को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 22 मार्च, 2024 के अपने फैसले में कहा था कि मदरसा बोर्ड की स्थापना संविधान के पंथनिरपेक्ष ढांचे, अनुच्छेद 21(क) में उल्लिखित अधिकार और सबको समान शिक्षा पाने के मूल अधिकार का उल्लंघन है। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए कहा गया कि उच्च न्यायालय में में अल्पसंख्यकों को मिले मूल अधिकार की अनदेखी की गई है।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने तीन प्रश्न थे। पहला यह कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाओं को स्थापित करने और उनके संचालन के अधिकार का अर्थ और उसकी सीमा क्या है। दूसरा प्रश्न यह था कि क्या यह कानून पंथनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है और तीसरा यह कि अनुच्छेद 21(क) में दिए गए शिक्षा के मूल अधिकार और अनुच्छेद 30(1) में अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाएं स्थापित और प्रशासित करने के अधिकार के बीच क्या अंतर्संबंध है?
उत्तर प्रदेश में मदरसा शिक्षा बोर्ड एक्ट, 2004 के माध्यम से मदरसा बोर्ड स्थापित किया गया था। इसके अधीन मदरसों को पांचवीं (तहतानियां), आठवीं (फौकानिया), दसवीं (मुंशी-मौलवी), बारहवीं (आलिम), स्नातक (कामिल) तथा परास्नातक (फाजिल) डिग्री देने का अधिकार दिया गया था। मदरसा बोर्ड का तर्क था कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाओं के संचालन का अधिकार है और संविधान निर्माताओं की मंशा थी कि अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी भाषा और संस्कृति को संरक्षित करने का अधिकार होना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने टीएमए पई फाउंडेशन (2002), इस्लामिक अकादमी आफ एजुकेशन (2003) तथा पीए ईनामदार (2005) जैसे कई मुकदमों में यह कहा था कि अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक समाज को शिक्षण संस्थाएं खोलने और एवं संचालन का अधिकार है, किंतु यह अधिकार असीम नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट मान्यता रही है कि संस्थाओं के लोकतांत्रिक स्वरूप को बचाने तथा शिक्षा के स्तर एवं गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा बनाए नियमों को इन संस्थाओं को भी मानना होगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्ववर्ती निर्णयों की भांति उत्तर प्रदेश मदरसा बोर्ड एक्ट, 2004 के मामले में भी यही कहा कि अल्पसंख्यक समाज को अपनी पसंद की शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार अनुच्छेद 30(1) द्वारा दिया गया है। इसी के चलते उसने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय का वह हिस्सा निरस्त कर दिया, जिसमें मदरसा बोर्ड को पूरी तरह असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अल्पसंख्यक समाज अपनी पसंद के शिक्षण संस्थान स्थापित कर सकते हैं, किंतु शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए सरकार या उसके द्वारा स्थापित नियामक संस्थाओं द्वारा बनाए गए नियम अल्पसंख्यक संस्थाओं पर भी बाध्यकारी होंगे। यूपी मदरसा बोर्ड द्वारा दी जाने वाली डिग्री की मान्यता के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि शिक्षण संस्था खोलने के अधिकार और डिग्री की मान्यता को अलग-अलग देखा जाना चाहिए।
अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यक समाज को शिक्षण संस्थाएं खोलने का अधिकार देता है, किंतु इसके अंतर्गत संस्थाओं की डिग्री को मान्यता मिलने का अधिकार शामिल नहीं है। डिग्री की मान्यता के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च शिक्षा संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली डिग्री का नियमन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी द्वारा किया जाता है। शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए इसके द्वारा व्यापक नियम बनाए गए हैं।
चूंकि मदरसा बोर्ड विश्वविद्यालय आयोग अधिनियम, 1956 की धारा 2(एफ) के तहत मान्यता प्राप्त नहीं, इसलिए उसके द्वारा दी जाने वाली कामिल तथा फाजिल की डिग्री विधिसम्मत नहीं। पांचवीं, आठवीं, दसवीं तथा बारहवीं के समकक्ष जारी किए जाने वाले प्रमाण पत्रों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि वे अवैध नहीं हैं, किंतु शिक्षा की गुणवत्ता के लिए सरकार उनका भी नियमन कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय मदरसा शिक्षा से जुड़े कई भ्रम दूर करेगा और साथ ही उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में मदरसा शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने में भी मदद करेगा। मदरसा संचालित करने के अधिकार को मान्यता मिलने से अल्पसंख्यक समाज को संविधान के अनुच्छेद 30(1) में दिए गए मौलिक अधिकारों की रक्षा तो की गई है,
किंतु यह भी स्पष्ट किया गया है कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्य छात्रों की तरह स्तरीय शिक्षा पाने का हक है और इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार नियम बना सकेगी। स्नातक और परास्नातक डिग्री देने के अधिकार को भी स्पष्ट करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा कि इसे यूजीसी अधिनियम, 1956 के अनुरूप ही चलाया जा सकता है।
Date: 08-11-24
ट्रंप के आने के मायने
संपादकीय
रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए हैं। उन्होंने बहुमत के जादुई आंकड़ों से अधिक हासिल किए हैं जो अमेरिकी समाज में उनकी लोकप्रियता के दर्शाता है। वह 2016 में भी चुनाव जीते थे। उनकी यह दूसरी जीत इसलिए भी विशेष मावने रखती है कि इस बार उनकी पार्टी को सीनेट में भी वहुमत मिल गया है। चुनाव अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप पर जानलेवा हमला हुआ था। इस घटना ने अमेरिकी समाज को गहरे तक झकझोर दिया था। हमले के समय ट्रंप ने जैसी हिम्मत और दिलेरी दिखाई थी उसे अमेरिकी मतदाता बहुत प्रभावित हुआ था। आम लोगों में या धारणा वनी कि आज की अस्थिर और संघर्ष से जूझ रही दुनिया में ट्रंप जैसे दृढ़ संकल्प वाले नेता की जरूरत है। उनकी ऐतिहासिक जीत में ट्रंप के व्यक्तित्व के इस करिश्माई पहलू की बड़ी भूमिका रही है। चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में डेमोक्रेटिक पार्टी के दो बड़े नेताओं ने ट्रंप को समर्थन देने की घोषणा करके हलचल मचा दी। कॉमेडी परिवार के सदस्य रॉबर्ट एस कैनेडी ट्रंप के समर्थन में आ गए। जनमत सर्वेक्षणों के मुताबिक वह पांच फीसद मतदाताओं की पसंद थे। उनके पहले बदलने से कड़ी टक्कर वाले ‘स्विंग स्टेट’ ट्रंप को भारी सफलता मिली। इसी तरह डेमोक्रेटिक पार्टी की एक और पूर्व नेता तुलसी गार्ड ने भी ट्रंप को समर्थन देने की घोषणा की। सैनिक होने के वावजूद तुलसी युद्ध विरोधी हैं। डोनाल्ड ट्रंप की जीत का असर अमेरिका की घरेलू राजनीति के साथ वैश्विक राजनीति पर भी पड़ेगा। घरेलू स्तर पर अमेरिकी समाज और राजनीति में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज होगी। विदेश मोर्चे पर ट्रंप वाहन प्रशासन से अलग राह पकड़ सकते हैं। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने कहा कि ‘मैं बुद्ध शुरू नहीं करूंगा बल्कि रोकने की कोशिश करूंगा।’ उनकी इस घोषणा से उम्मीद बनती है कि रूस यूक्रेन बुद्ध अब जल्द समाप्त होगा। ट्रंप भारत को ट्रंप से काफी अपेक्षाएं भी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि वाहन प्रशासन की शह पर कनाडा जिस तरह से भारत के खिलाफ दुष्प्रचार कर रहा उस पर रोक लगेगी। हालांकि ट्रंप मनमौजी की किस्म के व्यक्ति हैं। वह किसी मुद्दे पर क्या रुख अपनाएंगे यह कहना मुश्किल है। फिर भी ट्रंप की नीतियों से भारत के हित एक हद तक सचेंगे ऐसा कहा जा सकता है।
Date: 08-11-24
योगी सरकार को झटका
संपादकीय
उत्तर प्रदेश के मदरसों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई मायनों में ऐतिहासिक है। मदरसा कानून को निरस्त करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज करते हुए कहा, मदरसा कानून अल्पसंख्यकों में शिक्षा के प्रसार का प्रभावशाली जरिया है। इससे उनमें सुरक्षा व आत्मविश्वास पैदा होता है। अदालत ने कहा उप्र मदरसा अधिनियम 2004 के रोजमर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप हीं करता बल्कि मदरसों के मानकीकरण में सहायक है। इस कानून को 2004 में मुलायम सरकार ने पास किया था। संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों की शिक्षा के लिए उन्हें संरक्षण प्रदान किया हाईकोर्ट ने इसी साल मार्च में मदरसा अधिनियम को धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाला बताते हुए उसे असंवैधानिक करार दिया था। साथ ही उप्र सरकार को राज्य के अलग-अलग मदरसों में पत्र रहे छात्र-छात्राओं को औपचारिक शिक्षा प्रणाली में शामिल करने के भी निर्देश दिए थे। उप्र में तकरीबन पचीस हजार मदरसे चल रहे हैं। इनमें से सोलह हजार से ज्यादा को राज्य मदरसा शिक्षा परिषद से मान्यता प्राप्त हैं। जबकि 500 को सरकार से अनुदान मिलता है। तकरीबन साढ़े आठ हजार मदरसे गैर मान्यता प्राप्त हैं। सबसे बड़ी अदालत के इस फैसले भाजपा सरकार को करारा झटका लगा है। अदालत ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि हायर एजूकेशन को छोड़ कर मदरसा में चल रहे सभी कोई उच्च न्यायालय के फैसले से पूर्व वाले फैसले की तरह मान्य होंगे। सरकार का भेदभाव करना शोभा नहीं देता । जरूरी है कि इस शिक्षा प्रणाली को सुधारने के सकारात्मक प्रयास हों। ताकि मदरसों से निकलें छात्र उच्चतम शिक्षा पाने या बेहतर भविष्य का निर्माण करने में अपनी योग्यता का इस्तेमाल कर सकें यूं भी शिक्षित व सम्पन्न मुसलमान परिवार अपने बच्चों को अंग्रेजी व प्राइवेट स्कूलों में दाखिला दिलाते हैं। वे मदरसों में शिक्षा दिलाने के प्रति तनिक इच्छुक नहीं होते। नई पौध को बेहतर शिक्षा मिले, जो उनके लिए उचित व ज्ञानवर्धक साबित हो, ऐसे प्रवास होने चाहिए। पूर्वाग्रहों से भरकर ऐसे कोई निर्णय जनता पर नहीं लादने चाहिए, जो उन्हें साम्प्रदायिक रूप से वांटने की बजाए सौहार्दपूर्ण माहौल प्रदान करने वाला हो।
Date: 08-11-24
बढ़ता स्वास्थ्य संकट
सुनिधि मिश्रा
हाल ही में इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2045 तक मधुमेह के रोगियों की संख्या 134 मिलियन होने का अनुमान है। चिंता का विषय यह है कि भारत में मधुमेह का निदान औसतन 10 वर्ष पहले हो रहा है, जो पश्चिमी देशों की तुलना में काफी कम उम्र है। वर्तमान समय में हमारा देश एक गंभीर स्वास्थ्य चुनौती का सामना कर रहा है। वह है मेटाबोलिक सिंड्रोम यह एक जटिल स्वास्थ्य समस्या है जो उच्च रक्तचाप, मधुमेह (उच्च रक्त शर्करा), असामान्य कोलेस्ट्रॉल स्तर और अधिक शरीर वसा जैसे कई लक्षणों का संयोजन है। अक्टूबर 2023 में, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने एक व्यापक अध्ययन जारी किया, जिसमें पाया गया कि भारत में मेटाबोलिक सिंड्रोम की दर पिछले पांच वर्षों में 15 फीसद बढ़ गई है। यह वृद्धि विशेष रूप से 30-45 वर्ष की आयु वर्ग में देखी गई है, जो चिंता का विषय है।
भारत में मेटाबोलिक सिंड्रोम की स्थिति चिंताजनक है। विशेष रूप से मधुमेह, हृदय रोग और मोटापे के संदर्भ में। इन तीनों स्थितियों का मेटाबोलिक सिंड्रोम से गहरा संबंध है और ये एक दूसरे को प्रभावित करती हैं। भारत को ‘मधुमेह की राजधानी’ के रूप में जाना जाता है, और यह उपाधि बिना किसी कारण के नहीं दी गई है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 77 मिलियन लोग मधुमेह से पीड़ित हैं, जो विश्व में दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा है। मेटाबोलिक सिंड्रोम वाले व्यक्तियों में टाइप 2 मधुमेह विकसित होने का जोखिम 5 गुना अधिक होता है। भारतीय आबादी में इंसुलिन प्रतिरोध की उच्च दर पाई गई है, जो मेटाबोलिक सिंड्रोम का एक प्रमुख लक्षण है। मेटाबोलिक सिंड्रोम का दूसरा प्रमुख लक्षण हृदय रोग है जो कि भारत में मृत्यु का प्रमुख कारण है। भारत में हर साल लगभग 4.77 मिलियन लोगों की मृत्यु हृदय रोग के कारण होती है। एक अध्ययन के अनुसार, भारतीयों में हृदय रोग का खतरा पश्चिमी आबादी की तुलना में 3-4 गुना अधिक है। मेटाबोलिक सिंड्रोम वाले व्यक्तियों में हृदय रोग का जोखिम 2 से 3 गुना अधिक होता है। भारत में हृदय रोग के मामले युवा आयु वर्ग (30-40 वर्ष) में भी तेजी से बढ़ रहे हैं, जो मैटाबोलिक सिंड्रोम के बढ़ते प्रसार से जुड़ा हो सकता है। मोटापा भी मेटाबोलिक सिंड्रोम का एक प्रमुख घटक है और भारत में यह एक बढ़ती हुई समस्या है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (2019-21) के अनुसार, भारत में 24 फीसदी महिलाएं और 22 फीसदी पुरुष मोटापे या अधिक वजन की समस्या से ग्रस्त हैं। शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा और भी अधिक है। एक अध्ययन के अनुसार, मेटाबोलिक सिंड्रोम वाले व्यक्तियों में कोविड-19 के गंभीर लक्षण विकसित होने का खतरा 3.4 गुना अधिक था। महामारी के दौरान लॉकडाउन और सामाजिक दूरी के कारण लोगों की शारीरिक गतिविधियां कम हुई और खान-पान की आदतें बिगड़ीं, जिसने मेटाबोलिक सिंड्रोम के जोखिम को और बढ़ा दिया। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महामारी के दौरान मोटापे के मामलों में 5.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जो मेटाबोलिक सिंड्रोम का एक प्रमुख कारक है। महामारी के दौरान से ही वर्क फ्रॉम होम और हाइब्रिड कार्य मॉडल के चलते लोगों की दिनचर्या में बड़े बदलाव आए हैं। एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में 69 फीसदी कर्मचारियों ने माना कि वर्क फ्रॉम होम के दौरान उनकी शारीरिक गतिविधियां कम हुई हैं और 42 फीसदी ने अस्वस्थ खाने की आदतों में वृद्धि की सूचना दी। ये दोनों कारक मेटाबोलिक सिंड्रोम के जोखिम को बढ़ाते हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में मेटाबोलिक सिंड्रोम से जुड़ी बीमारियों के इलाज पर हर साल लगभग 30 बिलियन डॉलर खर्च होते हैं। कोविड 19 महामारी के बाद की आर्थिक चुनौतियों के मद्देनजर यह व्यय देश की अर्थव्यवस्था पर एक बड़ा बोझ है।
इस बढ़ती समस्या से निपटने के लिए व्यापक रणनीति की आवश्यकता है। सबसे पहले, जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। सरकार और स्वास्थ्य संगठनों को मेटाबोलिक सिंड्रोम के बारे में जन जागरूकता अभियान चलाने चाहिए। लोगों को इसके लक्षणों, कारणों और परिणामों के बारे में शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण है। स्वस्थ जीवनशैली को प्रोत्साहित करना दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम है। नियमित व्यायाम और संतुलित आहार को बढ़ावा देना चाहिए। एक नए सर्वेक्षण के अनुसार, नियमित व्यायाम करने वाले लोगों में मेटाबोलिक सिंड्रोम का जोखिम 30 फीसद तक कम हो जाता है। आहार में सुधार भी अहम है। पारंपरिक भारतीय आहार, जो फलों, सब्जियों और साबुत अनाज से समृद्ध को बढ़ावा देना चाहिए। प्रोसेस्ड और जंक फूड पर कर बढ़ाने जैसे नीतिगत हस्तक्षेप भी मददगार हो सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि स्वस्थ समाज ही एक समृद्ध राष्ट्र का आधार है। मेटाबोलिक सिंड्रोम से लड़ना न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए महत्त्वपूर्ण है, बल्कि यह हमारे देश के समग्र विकास के लिए भी आवश्यक है।