08-11-2017 (Important News Clippings)
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Date:08-11-17
Politics drives move against black money
ET Editorials
On the first anniversary of demonetisation, it is unambiguously clear that the project has been a resounding political success. It sent out a clear message that the government is determined to clamp down on black money and is prepared to take unorthodox measures for the purpose. Since the government continues to celebrate the move, it follows that more steps are likely to expose black money, to validate demonetisation. The Prime Minister, in other words, was not indulging in campaign rhetoric when he told an election crowd in Himachal Pradesh that his government would now go after benami property, property held in the name of someone other than the actual owner. The exposés on accounts held in tax havens ties in conveniently with this narrative.
People were given a chance to take part in the great war against black money by standing in line in front of banks, offsetting the discomfort and the odd death while queueing up with the vicarious pleasure of being a part of penalising the illicit rich. The ruling party won the crucial state of Uttar Pradesh on the back of the goodwill that flowed from this move. But the RBI’s final figures show that the notes that did not come back into the banking system, a measure of the black money extinguished by denotification of Rs 500 andRs 1,000 bank notes, was just 0.1% of the 2016-17 GDP. The government’s own Economic Survey estimated lost output, as a result of demonetisation, to be 1% of GDP. Most black money is held as real estate, gold and other assets, not as cash. Even of the amount held as cash, most came back. But at a cost to the black money holder: they had to employ people, directly or indirectly, to deposit the money in banks. Thus, demonetisation did effect some redistribution of hoarded money.
Cash in circulation today is lower than a year ago, giving credence to the claim that India is moving to a less cash economy. But the real anti-black money move by the government is GST, whose proper implementation will bring transparency to corporate accounts, big and small. What remains is cleaning up political funding.
Date:08-11-17
न्यायपालिका को ही मिले न्यायाधिकरणों की कमान
सोमशेखर सुंदरेशन, (लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
विधि आयोग ने भारत में न्यायाधिकरणों के वैधानिक ढांचे के आकलन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले साल आयोग को विचार के लिए जिन पांच मुद्दों को प्रेषित किया था, यह रिपोर्ट उन्हीं पर केंद्रित है। पहला, न्यायाधिकरणों के गठन को कई बार संवैधानिक चुनौती दी जा चुकी है। न्यायाधिकरणों के गठन को अक्सर सही ठहराया गया है लेकिन एक मूलभूत मसला चर्चा से बाहर रहा है। हमारे संवैधानिक स्वरूप में शक्तियों का पृथक्करण कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच किया गया है।
यह शासन संचालन में नियंत्रण एवं संतुलन का एक अहम बुनियादी तत्त्व है। हालांकि अब न्याय देने का बड़ा जिम्मा अदालतों के स्थान पर न्यायाधिकरणों को हस्तांतरित हो चुका है लेकिन ये अधिकरण न्यायपालिका के बजाय सरकार (कार्यपालिका) द्वारा संचालित होते हैं।अधिकरणों के सदस्यों की नियुक्ति का तरीका, प्रदर्शन की समीक्षा, करियर प्रगति की संभावनाएं, मेहनताना और सेवा शर्तें- ये सभी न्यायपालिका के दायरे से बाहर होते हैं। न्यायाधिकरणों पर आधारित न्याय व्यवस्था में यह सबसे बड़ी समस्या है। इस मुद्दे का हल निकाले बगैर हितों के टकराव की समस्या पैदा होगी। मसलन, उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को महाभियोग की प्रक्रिया के ही जरिये संसद द्वारा हटाया जा सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता के लिए संविधान में यह व्यवस्था की गई थी।
लेकिन न्यायाधिकरणों के सदस्यों की नियुक्ति एवं सेवा शर्तों के मामले में स्थिति इसके ठीक उलट है। आमतौर पर सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को ही इन अधिकरणों का सदस्य नियुक्त किया जाता है लेकिन उनकी स्थिति एक सरकारी कर्मचारी जैसी हो जाती है और उन्हें हटाने की भी कोई जटिल प्रक्रिया नहीं होती है। शक्तियों के पृथक्करण में अवरोध होना संभवत: न्यायाधिकरणों की कार्यप्रणाली का सबसे बड़ा असंवैधानिक पक्ष है। दूसरा, उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से कई बिंदुओं के छिन जाने और न्यायाधिकरणों के सुपुर्द कर दिए जाने से न्यायपालिका पर एक गंभीर दीर्घकालिक नुकसान देखने को मिल रहा है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए न्यायपालिका काफी सजग रही है लेकिन नियुक्ति के बाद इन न्यायाधीशों के कामकाज को सुरक्षा देने में उसकी खास रुचि नहीं रही है। लगातार कई कानूनों ने न्यायाधिकरणों का क्षेत्राधिकार बढ़ाने का प्रावधान किया है और दीवानी अदालतों का अधिकार कम होता गया है। मसलन, बिजली अधिकरण या प्रतिभूति अपीलीय अधिकरण के फैसलों के खिलाफ अपील सीधे सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है जो उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को कम करने का ही काम करता है।
इस तरह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को वाणिज्यिक एवं नियामकीय महत्त्व वाले मामलों की सुनवाई करने का मौका ही नहीं मिल पाता है। गंभीर किस्म के वाणिज्यिक एवं नियामकीय मामले उच्च न्यायालय के परिक्षेत्र से बाहर ही रह जाते हैं। इसके विरोध में यह तर्क दिया जाता है कि किसी सरकार या नियामक के कदमों की संवैधानिक वैधता को चुनौती उच्च न्यायालयों में ही दी जा सकती है। हालांकि किसी अधिकरण के क्षेत्राधिकार वाले मामले में बहुत कम मौकों पर ही उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर की जाती है। अधिकरण में वैकल्पिक प्रभावी निदान की उपलब्धता के मुद्दे को सबसे पहले चुनौती दी जाती है और उस बिंदु पर ही न्यायालय को तय करने में कई हफ्ते लग जाते हैं। जब उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचते हैं तो उन्हें इन अधिकरणों के फैसलों के खिलाफ दायर अपीलों पर भी सुनवाई करनी होती है लेकिन अपने लंबे न्यायिक करियर में उन्हें ऐसे मामलों पर गौर करने का कोई व्यावहारिक अनुभव ही नहीं होता है। वही न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के बाद किसी अधिकरण का सदस्य बना दिए जाते हैं तो उन्हें खास क्षेत्र में नए सिरे से शुरुआत करनी होती है। यह विशेषीकृत मसलों के लिए अधिकरण बनाने की मूल धारणा के ही प्रतिकूल होता है। अंत में, न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में कटौती करने का काम केवल न्यायाधिकरण का गठन करके ही नहीं किया जा रहा है।
नियामकीय संस्थाओं का गठन और उन्हें अद्र्ध-न्यायिक शक्तियां देना भी अदालतों के क्षेत्राधिकार को कम करता है। मसलन, दीवानी अदालतों को बाजार नियामक सेबी से संबंधित मामलों में कोई अधिकार नहीं दिया गया है। सेबी अधिनियम, 1992 के मुताबिक अपीलीय अधिकरण के फैसलों के खिलाफ केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही अपील की जा सकती है। यह प्रवृत्ति इतनी नुकसानदेह हो चुकी है कि राज्य विधानसभाएं भी ऐसे कानून बनाने लगी हैं जिनमें अपील पर सुनवाई केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही होने का जिक्र होता है। राज्य स्तर के अधिकरणों में भी उच्च न्यायालयों को सुनवाई का अधिकार नहीं देने से सर्वोच्च न्यायालय पर काम का बोझ ही बढ़ता है। ये सारे पहलू न्यायाधिकरणों से संबंधित डिजाइन में बुनियादी खामी की तरफ ही इशारा करते हैं। ऐसी स्थिति में विधि आयोग की रिपोर्ट इन अधिकरणों के बारे में व्यापक चर्चा का मौका देती है। रिपोर्ट में पेश सुझाव व्यापक तौर पर अधिकरणों के गठन और उनकी निगरानी से जुड़े पहलुओं से ही संबंधित हैं। आयोग ने विधि एवं न्याय मंत्रालय के तहत एक नोडल एजेंसी बनाकर उसी को इन अधिकरणों की निगरानी का दायित्व सौंपने की बात कही है। इस समस्या की जड़ें गहरी हैं और व्यापक कदमों की जरूरत है। अधिकरणों की निगरानी का जिम्मा कार्यपालिका के बजाय न्यायपालिका को सौंपने और शासन के अनिवार्य अंग के तौर पर न्यायपालिका को उसकी अहम भूमिका देकर ही इस स्थिति को दुरुस्त किया जा सकता है।
Date:08-11-17
आधुनिकीकरण की राह पर मदरसे
रामिश सिद्दीकी,[ लेखक इस्लामिक मामलों के जानकार हैं ]
इस साल की शुरुआत में जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार आई थी तो कई विपक्षी नेताओं की ओर से यह प्रचारित करने की हर संभव कोशिश की गई कि अब यूपी के मुसलमानों के सामने मुश्किल पेश आने वाली है। अभी तक तो ऐसा कुछ हुआ नहीं। उलटे बीते दिनों योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश के मदरसों में एनसीईआरटी की किताबें पढ़ाए जाने का निर्णय लेकर यह साबित किया कि उसे तथाकथित सेक्युलर सरकारों के मुकाबले मुस्लिम छात्रों के भविष्य की कहीं अधिक चिंता है।
इस निर्णय के तहत मदरसा छात्रों को गणित और विज्ञान पढ़ना भी अनिवार्य होगा। इस फैसले के पक्ष में उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने स्पष्ट किया कि उत्तर प्रदेश सरकार का इरादा मदरसों को आधुनिक और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करके मदरसा छात्रों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने का है। यह उत्तर प्रदेश सरकार का ऐसा निर्णय है जो मूलत: सिर्फ मुस्लिम समाज के बच्चों के लिए ही लाभदायक साबित होगा। उनके हित की चिंता इसलिए की जानी चाहिए थी, क्योंकि वे आधुनिकीकरण की दौड़ में बहुत पीछे रह गए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार का यह कदम इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि पिछले कई वर्षों से मदरसा शिक्षित छात्रों को आधुनिक कौशल से लैस करने की मांग की जा रही थी ताकि वे नौकरी के बाजार में अपनी जगह सुरक्षित कर सकें। इस मांग और जरूरत के बाद भी पिछली किसी सरकार का ध्यान इस ओर नहीं गया, जबकि वे खुद को मुस्लिम हितैषी बताते नहीं थकती थीं।
देश में हजारों मुस्लिम बच्चे मदरसे में पढ़ते हैैं। कई मदरसों से उन्हें डिग्री भी प्राप्त होती है, लेकिन जब वे अपना कामकाजी जीवन शुरू करने की कोशिश करते हैं तो उन्हें समझ आता है कि वास्तविक जीवन की स्थितियों का सामना करने के लिए मदरसा शिक्षा पूरी तरह सक्षम नहीं है। इस कारण वे अपने आपको उपेक्षित महसूस करते हैं। इनमें से कुछ छात्र मदरसा शिक्षा पूरी करने के बाद अंग्रेजी, कंप्यूटर आदि सीखने का प्रयास करते हैं, परंतु मदरसा शिक्षा पूरी करने के बाद अंग्रेजी शिक्षा में जाने की प्रक्रिया समय बर्बाद करती है। धार्मिक शिक्षा और आधुनिक शिक्षा जब एक ही स्थान पर उपलब्ध कराई जाएगी तो छात्र अपना समय बचाने में सफल होंगे।
इसके साथ ही वे समाज के अन्य बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में भी सक्षम होंगे। नि:संदेह धार्मिक शिक्षा की एक महत्ता है, लेकिन उसकी एक सीमा है। आज के युग में केवल धार्मिक शिक्षा व्यक्तित्व के विकास में सहायक नहीं बनती।यह भी ध्यान रहे कि आज विश्व भर में मुस्लिम चरमपंथ की वृद्धि का एक कारण वैज्ञानिक शिक्षा की कमी है। हम आज विज्ञान के दौर में जी रहे हैं। युवा मुसलमानों के लिए आधुनिक शिक्षा से लैस होना इसलिए भी जरूरी हो गया है ताकि वे स्वयं को धार्मिक कट्टरवाद से बचा पाएं। परंपरागत मदरसों में इस्तेमाल किए जाने वाले पाठ्यक्रम को ‘दरसे निजामी’ कहा जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसका निर्माण 19वीं शताब्दी में हुआ था। एक मशहूर कहावत है कि ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है।’ यह कहावत मदरसों के मामले में सही साबित हुई। आधुनिक दुनिया को तेजी से बदलते देख कई मदरसों ने अपने पाठ्यक्रम में ‘असरी ऊलूम’ यानी आधुनिक शिक्षा को शामिल किया जिसमें वे कंप्यूटर, अंग्रेजी जैसे विषय पढ़ाते हैं, लेकिन फिर भी यहां से निकलने वाले छात्र स्वयं को अधूरा समझते हैं।
आज मदरसों में केवल मुस्लिम समाज के बच्चे ही पढ़ते नजर आते हैं, मगर हमेशा से ऐसा नहीं था। एक समय था जब झूठी धार्मिक बाधाएं नहीं थीं। तब कोई भी इन मदरसों में अध्ययन कर सकता था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब पांच वर्ष के हुए तो उन्हें फारसी, हिंदी और अंकगणित जानने के लिए एक मौलवी के ही मार्गदर्शन में रखा गया था। जो लोग उत्तर प्रदेश सरकार के उक्त फैसले का विरोध कर रहे हैं वे मुस्लिम समाज के हितैषी हरगिज नहीं हो सकते। इससे खराब बात और कोई नहीं कि योगी सरकार के फैसले के विरोध में एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर साहब यह कहते दिखे कि सरकार का यह फैसला मुसलमानों के दीनी मामलों में दखल है। ऐसे लोग मुस्लिम समाज के हितैषी नहीं हो सकते।हजरत मोहम्मद साहब का कहना है, ‘हर मुसलमान के लिए तालीम हासिल करना जरूरी है।’ यहां तालीम या ज्ञान से मतलब केवल मजहबी ज्ञान नहीं, बल्कि दुनिया के ज्ञान से भी है, क्योंकि तभी व्यक्ति जीवन में एक संतुलित नजरिया हासिल कर पाता है। हजरत मोहम्मद साहब के इस कथन की रोशनी में कहें तो मुस्लिम समाज की युवा पीढ़ी को प्रत्येक उस व्यक्ति का आभारी होना चाहिए जो ज्ञान पाने में उनकी सहायता कर रहा है। मदरसा शिक्षा के मामले में योगी सरकार के नेक फैसले के बावजूद यह एक तथ्य है कि ठोस नतीजे तभी मिलेंगे जब मदरसों में एनसीईआरटी की किताबों को पढ़ाने वाले कुशल अध्यापकों की नियुक्ति भी की जाएगी। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो अन्य सरकारी योजनाओं की तरह यह योजना भी अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच पाएगी।
इसके पहले वर्ष 2015 में महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में चल रहे मदरसों में अन्य विषयों को भी पढ़ाना अनिवार्य करने का फैसला किया था। उस समय महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री एकनाथ खडसे ने कहा था कि सरकार छात्रों को औपचारिक शिक्षा देने और साथ ही शिक्षकों की तैनाती के लिए पैसा देने को तैयार है। बेहतर होगा कि सभी राज्य सरकारें अपने प्रदेश के मदरसों में अंग्रेजी और विज्ञान विषयों की पढ़ाई अनिवार्य करें। चूंकि इस मामले में पहले ही देर हो चुकी है इसलिए और देर नहीं की जानी चाहिए। यह भी आवश्यक है कि मुस्लिम समाज आधुनिक शिक्षा को अपनाने के लिए आगे बढ़े और सरकारों का सहयोग भी करे। आज यह आंकड़ा पाना मुश्किल है कि भारत में कुल कितने पंजीकृत और अपंजीकृत मदरसे हैं, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि शायद ही कोई ऐसा शहर होगा जहां कोई मदरसा स्थापित न हुआ हो। स्पष्ट है कि मदरसे चलाने वाले चाहें तो समाज में एक बड़ी रचनात्मक भूमिका निभा सकते हैं।
Date:08-11-17
पनामा के बाद पैराडाइज
संपादकीय
पनामा पेपर्स के बाद पैराडाइज पेपर्स के जरिये जो तमाम जानकारी सामने आई वह एक बार फिर यह स्पष्ट नहीं करती कि टैक्स बचाने के नाम पर कालेधन को सफेद करने का काम किया गया। जो स्पष्ट हो रहा है वह यह कि दुनिया के तमाम देशों में ऐसी कंपनियां अभी भी सक्रिय हैैं जो धनी-मानी लोगों को टैक्स बचाने में सहूलियत प्रदान करती हैैं। चूंकि ऐसी कंपनियां उन देशों में स्थित हैं जो कालेधन के सुरक्षित ठिकाने माने जाते हैैं इसलिए संदेह गहराता है, लेकिन तमाम संदेह के बाद भी किसी के लिए यह कहना कठिन है कि जिन लोगों के भी नाम पैराडाइज पेपर्स में हैैं उन्होंने कोई कानून तोड़ा है। यह किसी जांच के बाद ही पता चल सकेगा कि टैक्स बचाने के नाम पर कोई गैर कानूनी काम किया गया है या नहीं? पैराडाइज पेपर्स में 714 भारतीयों के नाम दर्ज हैैं।
नि:संदेह यह एक बड़ी संख्या है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पनामा पेपर्स में 426 भारतीयों के नाम थे और इन सबकी जांच के बाद यह पता चला कि 147 मामले ही कार्रवाई के योग्य हैैं। अब देखना यह है कि पैराडाइज पेपर्स की जांच किस नतीजे पर पहुंचती है? इस जांच के नतीजे जो भी हों, यह ध्यान रहे कि मामूली या फिर न के बराबर टैक्स भुगतान वाले देशों की कंपनियों में पैसा लगाना अनैतिक भले ही माना जाता हो, लेकिन वह अभी तक गैर कानूनी घोषित नहीं है। इसी कारण ये कंपनियां और उनमें पैसा लगाने वालों के पास यह दलील होती है कि उन्होंने कानून के हिसाब से काम किया है। पैराडाइज पेपर्स इसलिए हैरान करते हैैं, क्योंकि उसमें कई ऐसी हस्तियों के नाम हैैं जिनकी छवि साफ-सुथरे तरीके से काम करने की है। कम से कम राजनेताओं और साथ ही समाजसेवक छवि वाली गैर राजनीतिक हस्तियों को यह शोभा नहीं देता कि वे टैक्स बचाने के लिए उन कंपनियों की शरण में जाएं जिनके तौर-तरीके अनैतिक दिखते हैैं।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि पैराडाइज पेपर्स से सामने आई जानकारी के बाद विभिन्न देशों में जांच-पड़ताल का सिलसिला कायम होता हुआ दिख रहा है, क्योंकि जरूरत इसकी है कि टैक्स के लिहाज से स्वर्ग माने जाने वाले देशों पर दबाव बनाकर उन्हें इसके लिए विवश किया जाए कि वे टैक्स बचाने के धंधे को वैध आवरण देने से बाज आएं। आम तौर पर ये कंपनियां किसी कानून को तोड़ती नहीं, लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि उन्होंने कानून अपने हिसाब से निर्मित कर लिए हैं। उन्हें ऐसा करने में इसलिए सहूलियत होती है, क्योंकि उन्हें उद्योग-व्यापार जगत के नामी लोगों के साथ आर्थिक-व्यापारिक मामलों के माहिर जानकारों का संरक्षण हासिल रहता है। यह ठीक नहीं कि दुनिया के बड़े देश और विश्व बैैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संस्थाएं गरीबी, असमानता, अभाव पर चिंता तो खूब जताती हैैं, लेकिन वैसी कंपनियों के खिलाफ आवाज नहीं उठातीं जो अपने वैध तौर-तरीकों से एक किस्म की अनैतिकता को संरक्षण दे रही हैैं। बेहतर होगा कि भारत सरकार इस मामले में वैसी ही सक्रियता दिखाए जैसी उसने कालेधन को लेकर दिखाई थी।
Date:08-11-17
Teaching ethics to aspiring civil servants
We need to debate the future of the IPS
The arrest in Chennai of an Indian Police Service (IPS) officer on probation, for cheating during the civil services examination, raises questions on future recruitments to the All India Services and the training of officers. It is tellingly ironic that the incident occurred around the same time when the nation was commemorating the birth anniversary of Sardar Vallabhbhai Patel, who stood for integrity in government and was considered the chief architect of post-Independence civil services. The incident also took place some months after the government approved all the recommendations of the Seventh Pay Commission, which was done in the hope that more pay would mean greater levels of honesty and dedication on the part of public servants.
Unlike in normal criminal justice matters, the burden here of proving innocence rests with the offender, as long as the decision is to proceed against him in an internal inquiry and terminate his services thereafter. However, going by the severity of the offence, it is doubtful whether the ends of justice will be met by resorting only to departmental action. There is always a public perception that double standards are applied when punishing criminality in high places. This is why there is no option but to prosecute the officer in a court of law. Of course, he should be given every opportunity to defend himself, but the dice seems heavily loaded against him. The punishment aside, what needs to be revisited in this context is the provision in civil service rules that permits a serving officer to constantly look for opportunities outside the service to which he or she had been allotted in the first instance.
A wider malaise?
The question is, is this instance of misconduct by a public official, chosen on merit and pampered later with enviable perquisites, a mere aberration or is it symptomatic of a wider malaise? What is worrying is that there are growing accounts of dishonesty among public officials, especially in the State governments.This is not to say that amid widespread corruption, senior civil servants cannot but yield to a dishonest political executive. Ultimately it is the moral fibre of an individual officer that counts. A substantial percentage of senior officials still stick to the path of virtue and act according to the codes of good conduct. It is this phenomenon that gives us hope that all is not lost.
Improving instruction
The pride of the Indian Police is the National Police Academy in Hyderabad that trains IPS recruits. It offers comprehensive training to shape the profile of police officers. In recent years, some measures have been initiated to impart instructions in ethics. The Chennai incident throws serious doubts over the quality of such inputs aimed at character-building. It is not my case that a greater emphasis on ethics will measurably improve civil service conduct. However, we also cannot say nothing can be done in the matter; that would be disastrous.
The NPA faculty, including its director, must enhance the quality of instruction in ethics. The institution will receive ample support from the Home Ministry, which has been most generous in granting the finances needed to sharpen police training in the country. In sum, there must be indoctrination of trainees in ethical behaviour. Other training inputs take a back seat.
Further, supervisors in the State Police do not play the role required of them to train IPS probationers once they are assigned for field training after finishing the course at the NPA. Only a few senior officers take interest in instilling the right values in IPS trainees. This is not only because of sheer indolence and the low priority accorded to responsibility of monitoring training, it is also because of the declining moral standards of senior police officers themselves.If the IPS stands somewhat discredited in the present time despite its glorious record in maintaining order in the most difficult of terrains, including in Jammu and Kashmir and Naxalism-affected areas, it is because a large number of senior officers concentrate on their own careers at the cost of guiding trainees. A vibrant and well meaning national debate on the future of the IPS therefore seems appropriate.
Date:08-11-17
बदलनी होगी जीवनशैली
विंध्यवासिनी त्रिपाठी
रोजमर्रा की भागम-भाग जिंदगी में आदमी का बढ़ता गुस्सा, सरदर्द, पीठदर्द, हताशा, निराशा व नकारात्मक विचारों की प्रबलता तत्पश्चात अवसाद ये कुछ ऐसे लक्षण हैं, जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि ये मानिसक रोगों के लक्षण हैं। लेकिन कथित विकास की प्रतिस्पर्धा में प्राय: लोग इसे मानसिक रोग मानने को तैयार नहीं। यही कारण है कि मनोरोगियों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है।वैसे तो पूरी दुनिया में मनोरोगियों की बहुत बड़ी तादाद है, और वह लगातार बढ़ती ही जा रही है।
लेकिन भारत जो गरीबी में जीते हुए भी इस रोग से 90 के दशक के पहले तक तकरीबन अछूता था, यहां अब रोग तेजी से पांव पसारता जा रहा है। आर्थिक उदारीकरण के बाद की समृद्धि ने देश में मनोरोगियों की भी बाढ़-सी ला दी है। वैसे तो देश या दुनिया में कुल कितने मानसिक रोगी हैं, इसका ठीक-ठीक आंकड़ा तो कहीं भी उपलब्ध नहीं है क्योंकि आम तौर पर 99 फीसद लोग इस रोग से प्रभावित होने के बावजूद चिकित्सकों के पास नहीं जाते और न ही खुद को मानसिक रोगी ही मानते हैं। बावजूद इसके भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का दावा है कि देश की लगभग 7 करोड़ आबादी मनोरोगों के चपेट में है जबकि यह तादाद 1991 तक महज 3 करोड़ ही थी।
हालांकि सरकार ने हाल के दिनों में इस ओर ध्यान दिया है, और संसद ने लंबित मानसिक स्वास्य देखभाल विधेयक, 2013 को मंजूरी दे दी है। लेकिन केवल कानून बन जाने से इस समस्या का समाधान संभव नहीं दिखता। समाजशास्त्री डॉ. अविनाश सिंह कहते हैं कि इस बीमारी के लिए पाश्चात्य जीवन शैली भी काफी हद तक जिम्मेदार है। कथित विकास और विलास की अतृप्त प्रतिस्पर्धा के चलते आदमी को अपने लिए वक्त ही नहीं है। उनका दावा है कि अकेले अमेरिका की 20 फीसदी आबादी किसी न किसी मनोरोग से प्रभावित है। धन कमाने की अंधी दौड़ में वे खुद को मानसिक रोगी मानने को तैयार नहीं हैं। वहीं, भारत में जहां 1991 तक महज 3 फीसद लोग इसके दायरे में थे, उनकी तादाद भी अब बढ़कर 6 फीसद से ज्यादा हो गई है। यद्यपि भारत में योग क्रांति के बाद के बाद लोगों में अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है। लोगों की जीवन शैली में बदलाव आ रहा है। लेकिन विकराल हो चुकी इस समस्या का व्यापक समाधान सिर्फ योग से संभव नहीं। इसके लिए सरकार के साथ ही सामाजिक संगठनों को भी आगे आना होना।
सरकार का दायित्व है कि वह पीड़ितों के समुचित इलाज का प्रबंध करे, तो सामाजिक संगठन लोगों को जागरूक करें और अपने स्तर से उन्हें इस मानसिक त्रासदी से उबरने में सहयोग दें। लेकिन अभी तक सरकार और सामाजिक संगठन, दोनों ही अपने दायित्व पर खरे नहीं उतरे हैं। भारत में 1982 से ही जिला मानसिक स्वास्य कार्यक्रम चल तो रहा है पर इसकी गति बेहद धीमी है। देश भर के 660 जिलों में अभी तक महज 443 जिलों में ही मानसिक रोग निवारण केंद्र खुल सके हैं। तो देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों, जिनकी आबादी 6 करोड़ से ज्यादा है, में अभी तक एक भी चिकित्सा केंद्र नहीं खुल पाया है। आंकड़े बताते हैं कि देश की 3.1 लाख आबादी पर महज 1 मनोचिकित्सक उपलब्ध है। इनमें भी 80 फीसद चिकित्सक तो शहरी क्षेत्रों में हैं। इस लिहाज से ग्रामीण क्षेत्रों में तो 10 लाख की आबादी पर एक मनोचिकित्सक ही उपलब्ध है।राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का आंकड़ा तो और भी चौंकाने वाला है। उसका कहना है कि पिछले 15 सालों में देश भर में तकरीबन 126166 लोगों ने विभिन्न मानसिक रोगों के चलते आत्महत्याएं की हैं। इनमें सर्वाधिक तादाद अकेले महाराष्ट्र में रही, जहां 19601 लोगों ने आत्महत्या की तो प. बंगाल दूसरे स्थान पर रहा। वहां 13932 लोगों ने अपना जीवन गंवा दिया।
इसकी विकरालता को इस आधार पर समझा जा सकता है कि दुनिया का हर चौथा आदमी कभी न कभी मानसिक रोग का शिकार हुआ है। लेकिन कुछ आदतों में सुधार करके इससे बचा भी जा सकता है। मनोचिकित्सक कहते हैं कि व्यक्ति अपनी कुछ आदतों जैसे ज्यादा देर तक टीवी देखना, सेलफोन का ज्यादा इस्तेमाल आदि के साथ ही देर तक सोने की आदतों जैसी आदतों का परित्याग कर इससे बच सकता है। इसके अलावा, नियमित 30 मिनट का व्यायाम एवं ध्यान भी बेहतर परिणाम दे सकता है। लेकिन जो इसकी चपेट में हैं, उन्हें चिकित्सकीय परामर्श जरूर लेना चाहिए।
Date:08-11-17
Lessons of October
The revolutionary idea of liberation from exploitation continues to inspire.
Written by D. Raja,The writer is national secretary, CPI and a member of the Rajya Sabha.
The history of the 20th century cannot be written without a central role for the October Revolution. It is also the extraordinary story of a country by the name of Russia rising from being a poor agrarian country to become a military-industrial powerhouse in a very short period. Thus, it can be the history of the Russian people and their heroism, sacrifices and suffering of a magnitude unknown in history. There are also scholars who wish to study the October Revolution in its centenary year as the history of a great defeat. However, facts do not favour them.
The idea of the October Revolution was so powerful that it instantly caught hold of the imagination of the most oppressed people of all lands. The idea of the Revolution is one of the liberation of humanity from all kinds of exploitation and enslavement. It negates the capitalist system and constructs a new social order of socialism, which ends the exploitation of one human being by another, ensures harmonious relationship between nature and humans and empowers every one in every sphere of life.
The October Revolution changed the historical and ideological map of the world. It not only changed the fate of the Tsarist empire but also the world at large. The impact of the Revolution on national liberation movements across the world, including in India, was huge.The historical implications of the October Revolution to Indian conditions remain the same even today. Its influence stretched beyond the communists and Marxists in India. Great political leaders including Gandhi, Nehru, Netaji Subhas Bose, Tilak, Ambedkar, Lajpat Rai, Acharya Narendra Dev, Periyar, Bhagat Singh and great poets like Subramania Bharati, Tagore and other innumerable personalities appreciated the ideas of the Russian Revolution.
Lenin, leader of the October Revolution, advised the communists of Asian countries that every country should make its own contribution to the theory of revolution on the basis of the experience and needs of that particular country. He did not ask the communists to imitate the experiences of the Russian communists even when they were the most revolutionary. On the other hand, he proposed to learn the specific reality of each and every country and apply Marxism appropriately to local conditions. “Concrete analysis of concrete conditions” is Lenin’s definition for dialectics.The Asian reality was and still is much complicated. It has historically accumulated socio-cultural patterns, as Marx once mentioned, one kind of social relations superimposed on another. Marx referred to this complex reality as the Asiatic Mode of Production. Lenin asked the eastern Marxists to analyse afresh the given conditions and work out their strategy. Questions regarding the caste system and caste-based discrimination as well as gender discrimination are critical to understanding the Indian reality.
Lenin’s idea of imperialism also immensely contributed to the original studies of eastern societies. The role of capitalism is complicated in eastern conditions. The advice that eastern countries must repeat the western path of capitalist development has proved destructive in eastern conditions. Capitalism in the east under globalisation has destroyed biodiversity, natural resources, the aboriginal people, peasantry and many eco-sensitive production systems. The Indian people are already confronting the crude implications of capitalist type of development. Pollution of air, water and soil, pauperisation of peasants leading to suicides, excessive use of chemical fertilisers leading to the pollution of foodgrains, milk and vegetables, the widespread expansion of killer diseases, road and construction site accidents India is witnessing is a fallout of the country pursuing the capitalist way of development.
Neoliberalism is the current stage of capitalist-imperialist development. It has created unprecedented inequality in the society. Social contradictions and conflicts have intensified. The ruling classes, in order to protect their political power, are adopting more and more right-wing and fascist positions, undermining democracy and democratic institutions including Parliament.
The October Revolution teaches us to have a better understanding of capitalism in eastern countries. In India, the situation demands the unity of all the oppressed and exploited sections to strive for a secular democracy, social justice and socialism. It is imperative that the communists apply Marxism as a science and ideology to Indian conditions and intensify class struggle while taking into account the non-class contradictions of our society. Humanity needs many more Octobers.