07-11-2017 (Important News Clippings)

Afeias
07 Nov 2017
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Date:07-11-17

Broaden tax base

Leaks and demonetisation have enriched database, now harness it sensibly

TOI Editorials

The foundation of a modern nation state is an efficient tax system. This translates into a policy characterised by moderate tax rates and a large base of tax payers. Recent developments across the world show that these two objectives can be realised if governments harness the ubiquity of communications technology to create a suitable database. Subsequently, information has to be complemented by a non-intrusive approach to close loopholes and ensure legitimate taxes are collected.

Through all the pain and dislocation stemming from last year’s demonetisation exercise, one positive was a significant addition to government’s database. To illustrate, about 35,000 firms of dubious provenance deposited and later withdrew Rs 17,000 crore. Data of this nature can significantly enhance the efficacy of moves to curb tax evasion. Big data provides the possibility of widening the tax base without resorting to heavy-handed methods. Thus not only are honest tax payers not asked to bear a larger compliance burden, the system becomes fairer by getting more people to shoulder responsibility. In this context, an encouraging step has been the creation of a tax policy research unit in finance ministry to study the data being generated.

Separately, the so-called “Paradise Papers” represent a leak of 13.4 million records primarily from an offshore law firm in the Caribbean and company registries of 19 tax havens. This and similar leaks show how lax laws in tax havens often allow companies and individuals to sidestep taxes and conceal ownership details from relevant regulators. This opaque system also provides cover to finance criminal pursuits and terrorism. Over the last few years, governments through fora such as G20 have tried to step up sharing of information by tax authorities. Much more needs to be done here.

The key to dealing with current tax evasion is to harness data. In pursuit of this aim, India’s tax departments have to enhance their skills and approach. Data mining has emerged as the most important tool in this regard. But this tool’s potential will be actualised only if it is utilised in a framework which includes sensible legislation and enforcement. It is possible to widen India’s tax base in an unobtrusive manner. But if, on the contrary, the government chooses to unleash ‘tax terrorism’ for political reasons, that will further worsen an investment climate that is already poor.


Date:07-11-17

Don’t Count on Ecstasy in Paradise

What we need is case-by-case investigation

A globally-coordinated media investigation, labelled Paradise papers that promises to expose the hidden wealth of many powerful individuals and show how corporations may have avoided taxes, turns the spotlight once again on the use of offshore accounts. Reportedly , 714 Indian names feature in the over 13.4 million leaked documents from offshore law firm Appleby . This is good news in the battle against tax evasion and stashing away of wealth abroad. However, it would be a mistake to presuppose that all foreign accounts and foreign registered companies have illicit money or business -it could lead to needless harassment of law-abiding citizens. There can be legitimate purposes for companies to create and operate offshore entities for corporate restructuring. So, the government must institute a thorough inquiry and take tough action if tax evasion is proven.

Last year, it had initiated a multi-agency probe to investigate the list of Indians named in files leaked from Panama-based Mossack Fonesca. The need is for speedy completion of such investigation. When individuals and companies minimise their tax liabili ty by arranging their affairs in a way that is legal, that is being tax-efficient, not evading tax, in violation of the in come-tax law. However, tax avoidance in deals is often seen by tax authorities as strictly legal in form, but perhaps not in substance. The Shome committee deemed tax avoidance as a “grey area“. India is now enforcing general anti-avoidance rules to curb sharp tax practices mainly in transactions structured overseas.Ideally, the government should fix glitches in the domestic income-tax law to curb tax avoidance.

India has joined the global fight against tax evasion.Being a signatory to the OECD’s automatic information exchange, a part of its campaign to end base erosion and profit-shifting by multinational companies, helps. As a step towards global cooperation on tax transparency , India should make companies identify their real beneficial owners, as Britain has. And tax rates must come down, to globally competitive levels.


Date:07-11-17

वायु प्रदूषण की बड़ी समस्या से निपटने में अहम हैं कड़े उपाय

सुनीता नारायण

मुझे गलत मत समझिए। दो सप्ताह पहले मैंने कहा था कि हमें इन सर्दियों में सांस लेने में राहत होगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम स्वच्छ हवा में सांस ले सकेंगे। मेरा मतलब था कि कुछ कदमों की बदौलत पिछले जाड़ों की तुलना में इस बार वायु प्रदूषण कम होगा। स्तर बहुत ज्यादा होने का यह अर्थ नहीं है कि हम प्रदूषण के खिलाफ शिथिलता बरतें या जरूरी कदमों को धीमा कर दें।बीती सर्दियों में नवंबर के 53 फीसदी दिन प्रदूषण से भरे हुए थे। दिसंबर में 32 फीसदी और जनवरी में 45 फीसदी दिनों के साथ यही बात थी। जाहिर है यह निहायत खतरनाक और जहरीला था। इन जाड़ों में हम उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसे दिन कम होंगे। परंतु हवा की गुणवत्ता अभी भी निहायत खराब है। अगर हम कोई ठोस उपाय नहीं करते हैं तो हालात ऐसे ही बने रहेंगे।इस स्तर को कम करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? मैं जरूरी कदमों को चार श्रेणियों में बांटती हूं: तात्कालिक और आवश्यक, लंबी अवधि के लिए लेकिन तत्काल शुरू करने वाली, आवश्यक लेकिन क्रियान्वयन की दृष्टिï से कठिन और कठिन लेकिन असंभव नहीं।

तात्कालिक श्रेणी से शुरू करते हैं। सच यह है कि वायु प्रदूषण को लेकर तमाम शोरगुल के बीच हम हालात संभाल नहीं पा रहे हैं। गंदे से गंदा ईंधन कर से रियायत पा रहा है जबकि स्वच्छ ईंधन को रियायत नहीं दी जा रही। वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था के अधीन फर्नेस ऑयल जैसा जहरीला ईंधन इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को ईंधन पर रीफंड दिया जा रहा है। परंतु प्राकृतिक गैस जीएसटी से बाहर है। यानी उद्योगपति चाहकर भी स्वच्छ ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं कर सकते। इस पर जमकर कर लगाया गया है और कोई रीफंड नहीं दिया जाता। हम दुनिया का सबसे प्रदूषक ईंधन यानी पेट कोक, अमेरिका से आयात करते हैं। अमेरिका प्रदूषण के चलते खुद इस पर प्रतिबंध लगा चुका है। चीन ने इसका आयात बंद कर दिया है लेकिन हम ओपन जनरल लाइसेंस के अधीन इसे अनुमति दिए जा रहे हैं। तीन साल पहले हमने करीब 60 लाख टन पेट कोक का आयात किया था और गत वर्ष मार्च के अंत तक यह 1.40 करोड़ टन हो गया था। घरेलू स्तर पर भी 12 से 14 लाख टन पेट कोक का उत्पादन होता है। यानी हम इस मायने में चीन को भी पीछे छोड़ चुके हैं।

अब सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इस गंदे ईंधन का इस्तेमाल बंद करने के लिए दखल दिया है। उसने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से कहा है कि वह उच्च सल्फर ईंधन से उत्पन्न प्रदूषकों को देखते हुए उत्सर्जन मानक तय करे। उद्योग जगत इससे बचने की हरसंभव कोशिश कर रही है। दुख की बात है कि हम स्वच्छ हवा को लेकर चिंतित नहीं नजर आ रहे।इसके बाद आता है दीर्घावधि का तात्कालिक एजेंडा। यह सच है कि वाहन उद्योग प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान कर रहा है। उसमें डीजल इंजन सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाते हैं। फिलहाल पूरा प्रयास प्रदूषण मानकों में सुधार के जरिये प्रदूषण कम करने पर है। परंतु यह अपर्याप्त है। सच्चाई यह है कि भले ही हम हर वाहन से होने वाला प्रदूषण कम कर दें लेकिन वाहनों की तादाद तो रोजबरोज बढ़ती ही जा रही है। देश में अभी ऐसे लोग बहुत बड़ी तादाद में हैं जो नए वाहन खरीदेंगे। तो प्रदूषण में कमी कैसे आएगी? इकलौती राह यही है कि सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा दिया जाए। परंतु इस मोर्चे पर भी कुछ खास नहीं हो रहा है। बीते कुछ सालों में दिल्ली में एक भी नई बस शुरू नहीं हुई। पैदल या साइकिल से चलने वालों के लिए कोई नया मार्ग नहीं बन रहा। दूरदराज इलाकों तक आवागमन की सुविधा उपलब्ध कराने की दिशा में भी कोई प्रयास नहीं हो रहा है। हम इस मोर्चे पर पूरी तरह विफल हैं।

सड़कों से उठने वाली धूल, विनिर्माण के कचरे या कचरा जलाने से उपजे धुंए को मैं आवश्यक लेकिन कठिन निपटान की श्रेणी में रखती हूं। जब हर जगह सड़क या तो खोदी जा रही है या फिर उस पर काम चल रहा है तो भला उससे कितनी धूल साफ की जा सकती है। नगर निकायों को मिलकर काम करना होगा। ऐसा केवल सॢदयों में नहीं करना होगा बल्कि हर समय इसकी जरूरत होगी। कचरा जलाने के मामले में भी यही सच है। हमारे पास कचरा निपटान की कोई ठोस व्यवस्था नहीं है। हम आग लगाकर ही कचरे को निपटा सकते हैं। दिल्ली जैसे शहरों में जहां कचरा निस्तारण के ठिकाने बनाए गए हैं वहां भी जब तब आग लगती ही रहती है। अगर कचरा फेंकने की उपयुक्त व्यवस्था नहीं है तो भी सबसे आसान यही लगता है कि उसे एक जगह एकत्रित कर जला दिया जाए। यही होता आया है। हमें कचरे के पूर्ण निस्तारण की व्यवस्था करनी होगी। इसमें कचरे को अलग-अलग करना शामिल है। आधे अधूरे उपायों से काम नहीं चलने वाला।

अंत में बात करते हैं दिल्ली के आसपास पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसल जलाने की प्रवृत्ति की। इस समस्या को हल किया जा सकता है लेकिन इसके लिए ऐसा हल निकालना होगा जो किसानों को अपने फसल अवशेष के वैकल्पिक उपयोग का तरीका सिखा सके। यहां हमें बड़े जवाब तलाश करने होंगे तभी इनका क्रियान्वयन हो सकेगा। हम चाहे जितनी पीठ थपथपा लें लेकिन हमें ठोस उपायों और कदमों की आवश्यकता है। वायु प्रदूषण तब तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि हम उपरोक्त सवालों को हल नहीं करते। इसके कोई फौरी इलाज नहीं हैं बल्कि इस कठिन समस्या के कठिन हल तलाश करने होंगे।


Date:07-11-17

पुनर्पूंजीकरण से हो पाएगा बैंकों का कायाकल्प?

सार्वजनिक बैंकों में अतिरिक्त पूंजी डालने के फैसले से बैंकिंग क्षेत्र की हालत में कितना सुधार हो सकता है?

देवाशिष बसु

हाल ही में एक सफल एवं सजग फंड मैनेजर ने मुझे ईमेल भेजकर सार्वजनिक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की सरकारी योजना की एक तुलनात्मक तस्वीर भेजी। मैंने उस तस्वीर का थोड़ा विस्तार किया है। कल्पना कीजिए कि एक प्रमोटर (प्रवर्तक) परिवार के नियंत्रण वाली कुछ सूचीबद्ध कंपनियां हैं। भ्रष्टाचार की चपेट में आकर इन कंपनियों का मूल्य काफी कम हो चुका है। प्रवर्तक भी कंपनियों के बेहतर परिचालन पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं। घाटे का बोझ बढऩे से उनके पास पूंजी की भी कमी है लेकिन वे जुटाई गई विशाल सार्वजनिक जमाराशि को दबाकर बैठी हैं। एक दिन प्रवर्तक चतुराई-भरी योजनाओं के जरिये इस सार्वजनिक जमा का इस्तेमाल करने का फैसला करता है। कंपनियों को अपने पास रखी विशाल राशि कर्ज के तौर पर प्रवर्तक को देनी होगी जो उसका इस्तेमाल इन कंपनियों में नए शेयर खरीदने के लिए करेगा। इसके पीछे तर्क यह दिया जाएगा कि इससे उन कंपनियों की सेहत सुधरेगी, भले ही पुराना प्रबंधन उनका संचालन करता रहे।

केंद्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पुनर्पूंजीकरण की योजना का ऐलान कर बिल्कुल यही काम किया है। सरकार ने इन बैंकों से वह राशि ले ली थी जो उसकी थी ही नहीं और अब अपने पैसे के तौर पर उन्हें वापस करने जा रही है। अगर निजी क्षेत्र के किसी प्रवर्तक ने पिछली कोशिशों की नाकामी के बाद ऐसी ही योजना पेश की होती तो निवेशकों और नियामकों की क्या प्रतिक्रिया होती? नियामकों ने इसे एक इरादतन चूककर्ता की तरफ से किए जाने वाले बार-बार किए जाने वाले कुप्रबंधन का सटीक उदाहरण बताते हुए फटकार लगा दी होती। निवेशकों ने तो गुस्से और अविश्वास के चलते उस प्रवर्तक कंपनी के शेयरों को तिलांजलि दे दी होती। इसके पीछे उनकी सोच यही होती कि पूंजी का विस्तार होगा और फिर उसे कम कर दिया जाएगा। खैर, खराब प्रबंधन और पूंजी का गलत आवंटन वित्त से संबंधित किताबों का विषय है। वास्तविक जिंदगी में हालात वैसे नहीं होते हैं। असलियत में, नियामकों ने चुप्पी साध ली जबकि निवेशक खुशी से उछल पड़े। यह अपने आप में वित्त के छात्रों और निवेशकों के लिए एक अच्छा सबक है। हर कोई इस बात से काफी खुश है कि एक गहराते बैंकिंग संकट का समाधान निकाल लिया गया है। यह संकट उस दोषपूर्ण बैंकिंग मॉडल की उपज है जो 1969 में लागू किया गया था। इस बैंकिंग मॉडल ने बैंकों की अक्षमता बढ़ाने, कर्ज आवंटन में भ्रष्टाचार का सहारा लेने और बार-बार बेलआउट पैकेज लागू करने के हालात पैदा किए।

सवाल है कि क्या जाना चाहिए था? किसी भी लाभदायक व्यावसायिक उद्यम के लिए जवाबदेह प्रबंधन और जिम्मेदार स्वामित्व तो उसकी जान हैं। मालिकों का यह दायित्व है कि वे पूंजी का आवंटन सही तरीके से करें जबकि प्रबंधकों पर अपने कारोबारी लक्ष्यों को हासिल करने का जिम्मेदारी होती है। ऐसे में प्रोत्साहन राशि ही वह जरिया है जो मालिकों और प्रबंधकों को एक दूसरे से जोड़ता है। मालिकों के लिए अधिक मुनाफा और बढ़ा बाजार मूल्य प्रोत्साहन का काम करता है तो प्रबंधकों को लिए अधिक प्रतिफल और बाजार मूल्य प्रोत्साहित करता है। सरल शब्दों में, यह साझा प्रोत्साहन ही आधुनिक पूंजीवाद और पूंजी निर्माण का मूल आधार है। अगर इनमें से कोई भी अवयव नदारद है तो उससे पूंजी के गलत आवंटन और घाटे की स्थिति पैदा होगी। दुर्भाग्य से, जहां घाटे में चल रहे निजी उद्यम को बंद किया जा सकता है या उसका अधिग्रहण हो सकता है वहीं घाटे में चल रही एक सरकारी कंपनी की स्थिति उस जुआरी जैसी होती है जो कितनी ही बार मात क्यों न खा चुका हो लेकिन उसे नई जिंदगी मिल जाती है। लिहाजा इन सार्वजनिक उद्यमों को प्रोत्साहन देने से इतर हम अगले गैर-जिम्मेदार पूंजीकरण की जमीन तैयार करते हुए उन्हें गलत-प्रोत्साहन देते हैं।

दुनिया भर में लोकतांत्रिक सरकारें जवाबदेह मालिक के रूप में काम करने के मामले में स्वाभाविक रूप से खराब साबित होती हैं जिससे वह कहावत चरितार्थ होती है कि ‘कारोबार में सरकार की कोई संलिप्तता नहीं होनी चाहिए’। खुद प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी ने भी 2014 के चुनावों के दौरान यही बात कही थी लेकिन जल्द ही वह इसे भूल गए। सार्वजनिक बैंकों के मालिक के रूप में सरकार न तो खुद पूंजी दे सकती है (खुद सरकार का खजाना खाली है) और न बैंकों का प्रबंधन ही कर सकती है (उसके पास समय और तवज्जो दोनों की कमी है)। जब हालात ठीक होते हैं तो लोकतांत्रिक सरकारें अक्सर इन बैंकों को गलत काम करने के लिए मजबूर करती हैं। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के समय कमोडिटी और रियल एस्टेट क्षेत्रों में भ्रष्ट एवं निकम्मे प्रबंधन के अलावा पूरी तरह धोखाधड़ी वाली गतिविधियों का भी बैंकों ने जिस तरह साथ दिया था, उससे यह बात बखूबी सामने आई थी। कुछ मामलों में बैंक प्रबंधक के स्तर पर भ्रष्टाचार हुआ था लेकिन अधिकांश मामलों में गलत ऋण आवंटन के आदेश नेताओं ने ही दिए थे। इसके लिए राजनीतिक मजबूरियों को भी ध्यान में रखना होगा। मोदी सरकार की पुनर्पूंजीकरण योजना का विरोध कर रहे पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने खुद बैंकों को किसी ठोस परिसंपत्ति आधार के बगैर हजारों करोड़ रुपये के शिक्षा ऋण जारी करने को कहा था। इसकी वजह यह थी कि पेशेवर शिक्षा तक सामान्य परिवारों के छात्रों की पहुंच बनाना सामाजिक रूप से वांछनीय था। बैंक प्रबंधन नेताओं को मना नहीं कर सकते हैं और उन्हें अपना काम सही तरह से अंजाम देने पर न तो कोई प्रोत्साहन दिया जाता है और न ही उन्हें भ्रष्टाचार के लिए दंडित किया जाता है। ऐसी स्थिति में अधिक पूंजी लगा देने से ही हालात कैसे सुधर सकते हैं? उसमें भी सरकार वित्तीय चालबाजी का आसान विकल्प यह काम कैसे कर सकता है? हमें शल्य चिकित्सा की जरूरत थी लेकिन केवल मरहम-पट्टी ही की गई।

यह अपने आप में रहस्यपूर्ण है कि इस तरह के आसान विकल्प को उसी सरकार ने अपनाया है जिसका दावा है कि पहली बार साहसिक फैसले लेने से नहीं डरने वाला एक प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार एव अक्षमता पर सख्ती बरत रहा है। साहसिक फैसले लेने के नजीर के तौर पर सरकार उस नोटबंदी का उदाहरण देती है जिसने समूचे देश को कतार में खड़ा कर दिया था और मजदूरों, किसानों एवं छोटे कारोबारियों की जिंदगी ही बदलकर रख दी। इस सरकार के साहसिक फैसले का एक और उदाहरण जीएसटी को बताया जाता है जिसे बिना पर्याप्त तैयारी के ही लागू कर दिया गया था। यह काफी अचरज भरा है कि इतनी साहसी एवं आग्रही सरकार ने भी चुपके से कमोबेश उसी विकल्प को अपनाया है जो अतीत में कई बार नाकाम हो चुका है। दुखद यह है कि रेटिंग एजेंसियों, कारोबारी जगत, फंड प्रबंधकों और विश्लेषकों ने इस स्थिति को जानते हुए भी इस घोषणा पर खुशी का ही इजहार किया।


Date:07-11-17

समझें कारोबारी सुगमता की हकीकत

डॉ. भरत झुनझुनवाला

विश्व बैंक ने कारोबारी सुगमता की वैश्विक रैंकिंग में हमारे देश भारत को 130 वें स्थान से उठाकर 100 वें स्थान पर स्थापित किया है। पिछले साल दुनिया के 190 देशों में से 129 देशो में व्यापार करना भारत की तुलना में ज्यादा आसान था और हम मात्र 60 देशों से ही आगे थे। इस वर्ष 99 देश हमसे आगे हैं और 90 हमसे पीछे हैं। कह सकते हैं कि हमारी रैंक में यह सुधार शुभ सूचना है। आशा की जाती है कि आने वाले समय में भारत में देसी एवं विदेशी निवेश की बाढ़ आएगी, क्योंकि दूसरे देशों की तुलना में भारत में व्यापार करना आसान हो गया है। विश्व बैंक ने कारोबारी सुगमता की सूची को दस बिंदुओं के आधार पर बनाया है। भारत की रैंक में सबसे प्रभावी सुधार ‘कर अदा करने की सुगमता के मोर्चे पर हासिल हुआ है। इस पैमाने पर हमारी रैंक 172 से उठकर 119 हो गई है।

विश्व बैंक ने कहा है कि भविष्य निधि यानी प्रॉविडेंट फंड का भुगतान डिजिटल माध्यम से करना अनिवार्य कर दिया गया है। कंपनियों द्वारा अदा किए जाने वाले इनकम टैक्स के नियम सरल बना दिए गए हैं। जाहिर है कि पीएफ बड़े उद्यमों द्वारा भरा जाता है। कंपनियों के लिए आयकर अदा करने की सुगमता भी बड़े उद्योगों के लिए ही कारगर है, क्योंकि बड़े उद्योग ही कंपनी बनाते हैं। अधिकतर छोटे उद्योग प्रोपराइटर के रूप मे स्थापित होते हैं। इनके लिए टैक्स अदा करना सरल नही हुआ है। विशेष बात है कि विश्व बैंक ने जीएसटी के कारण छोटे उद्योगों को टैक्स अदा करने मे जो कठिनाई हुई है, उसका उल्लेख भी नहीं किया गया है। विश्व बैंक की यह कवायद जीएसटी लागू होने के पूर्व की गई प्रतीत होती है, परंतु रपट तो जीएसटी लागू होने के बाद ही जारी हुई है। मरीज मर जाए तो डॉक्टर यह कहकर छुटकारा नहीं पा सकता है कि खून की जांच रपट पुरानी थी। विश्व बैंक की जिम्मेदारी बनती थी कि वह जीएसटी के संदर्भ मे इस बिंदु पर अपना मत देता।

भारत की रैंक में सुधार का दूसरा बिंदु देश में दिवालिया कानून का लागू होना बताया गया है। इस बिंदु पर हमारी रैंक 136 से उठकर 103 हो गई है। पूर्व में यदि कोई उद्यम कठिनाई में आ जाता था तो उद्यम पहले बंद हो जाता था, बाद में दिवालिया घोषित होता था। बंद हो जाने के कारण उद्यम का पुनर्गठन कठिन हो जाता था। नए कानून में व्यवस्था है कि दिवालिया प्रक्रिया के दौरान उद्यम चलता रहेगा। निश्चित रूप से यह एक प्रभावी सुधार है, परंतु हमें यह भी समझना होगा कि नए कानून के दायरे में केवल बड़ी कंपनियां आती हैं।हमारी रैंक में सुधार का तीसरा बिंदु बड़ी कंपनियों के अल्पसंख्यक शेयरधारको के हितों की रक्षा का है। इस बिंदु पर हमारी रैंक 13 से उठकर 4 हो गई है। इस पैमाने पर हम विश्वस्तर पर श्रेष्ठ हैं, परंतु यह सुधार भी बड़े उद्यमों पर ही लागू होता है। हमारी रैंक में सुधार के उपरोक्त तीन बिंदु मुख्य हैं। इन सुधारों के कारण संभव है कि आने वाले समय में देश में बड़ी कंपनियों द्वारा अधिक निवेश किया जाए।

विश्व बैंक ने हमारी रैंक में सुधार का चौथा बिंदु कर्ज लेने की सुगमता में सुधार बताया है। इस बिंदु पर हमारी रैंक 44 से उठकर 29 हो गई है। विश्व बैंक ने कहा है कि नए नियमों के अनुसार बैंकों को अधिक संरक्षण दिया गया है। किसी उद्यम के फेल हो जाने पर बैंकों के लिए दिया गया ऋण वसूल करना आसान हो गया है। यह प्रक्रिया सही है, परंतु ऋण वसूली से व्यापार सुगम नहीं होता। विशेष बात यह है कि बैंकों द्वारा छोटे उद्यमों को ऋण कम ही दिया जा रहा है। बीते वर्ष दिए गए कुल ऋण में छोटे उद्यमों का हिस्सा 13.3 प्रतिशत था, जो कि इस वर्ष घटकर 12.6 प्रतिशत रह गया है। जानकार बताते हैं कि वर्तमान में बैंकों की ऋण देने की इच्छाशक्ति नहीं रह गई है, क्योंकि उन्हें डर है कि ऋण खटाई में पड़ जाएगा। आश्चर्य है कि विश्व बैंक को हमारे बैंकों की यह दुर्गति नहीं दिखाई दे रही है और ऋण वसूली को वह ऋण लेने की सुगमता बताकर गुणगान कर रहा है।विश्व बैंक ने हमारी रैंक मे सुधार का पांचवां बिंदु मकान बनाने की सुगमता बताया है। यहां 190 देशों के बीच हमारी रैंक 185 से उठकर 181 हो गई है। जैसे हम पहले कक्षा की पिछले बेंच के किनारे बैठते थे, वहीं अब पिछली बेंच के बीच में बैठ रहे हैं। इस बिंदु पर अफगानिस्तान को छोड़कर दक्षिण एशिया के सभी देश हमसे आगे हैं। यह ‘सुधार नगण्य है।

विश्व बैंक ने हमारी रैंक में सुधार का छठा बिंदु अनुबंध लागू करने की सुगमता बताया है। इस बिंदु पर हमारी रैंक 172 से उठकर 164 हो गई है, किंतु विश्व बैंक के अनुसार ही पूर्व में किसी अनुबंध को लागू करने में 1,445 दिन लगते थे और आज भी 1,445 दिन ही लगते हैं। इस बिंदु पर कोई सुधार नहीं हुआ है। फिर भी हमारी रैंक में सुधार इसलिए हुआ है कि दूसरे देशों में अनुबंध को लागू करने में कठिनाई बढ़ी है। इस प्रकार चौथे, पांचवें और छठे बिंदु पर विश्व बैंक की रैंकिंग भ्रामक है। हमारे बैंकों की हालत खस्ता है, परंतु विश्व बैंक कह रहा है कि ऋण लेना सुगम हो गया है। कंस्ट्रक्शन में हम एकदम नीचे हैं और अनुबंध लागू करने मे पूर्ववत टिके हुए हैं, परंतु बैंक ने हमारी रैंक को बढ़ा दिया है। व्यापार की सुगमता के अन्य चार बिंदुओं पर विश्व बैंक ने हमें फिसलता पाया है। सातवां बिंदु नए उद्योग चालू करने की प्रक्रिया का है। आठवां बिंदु विदेश व्यापार का है। नौवां बिंदु प्रॉपर्टी की रजिस्ट्री कराने का है। दसवां बिंदु बिजली कनेक्शन लेने में लगने वाले समय का है। इन चारों बिंदुओं पर विश्व बैंक के अनुसार हमारी स्थिति पहले के मुकाबले खराब हुई है।

अंतिम आकलन है कि तीन बिंदुओं में सुधार हुआ है, जो कि बड़े उद्यमों के लिए प्रभावी है। तीन बिंदुओं पर सुधार भ्रामक है। चार बिंदुओ पर हमारी स्थिति बदतर हुई है। यदि जीएसटी के कारण छोटे उद्यमों को टैक्स अदा करने में हो रही कठिनाई को जोड़ लें तो चार के स्थान पर पांच बिंदु नकारात्मक हो जाते हैं। सारांश है कि बड़े उद्योगों के लिए व्यापार करना कुछ सुगम अवश्य हो गया है, परंतु देश के लाखों छोटे उद्योगों के लिए व्यापार करना और कठिन हो गया है, लेकिन विश्व बैंक को यह सच दिख नहीं रहा है। कारण है कि विश्व बैंक पर अमेरिकी सरकार का दबदबा है। अमेरिकी सरकार पर अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व है। इन कंपनियों के लिए तीन बिंदुओं पर भारत में निवेश करना सुगम हो गया है, इसलिए विश्व बैंक ने भारत सरकार की पीठ ठोंकी है। विश्व बैंक ने इस रैंक की गणना करने के लिए केवल दिल्ली और मुंबई में सर्वेक्षण किए। यदि विश्व बैंक मुरादाबाद और तिरुपुर जैसे शहरों में सर्वेक्षण करता तो शायद परिणाम कुछ अलग ही निकलते। भारत सरकार को जमीनी स्तर पर व्यापार सुगम बनाने के कदम उठाने चाहिए। छोटे उद्योगों के दर्द को दूर करने की जरूरत है।


Date:07-11-17

पैराडाइज पेपर्स में छिपे हुए खजाने का रहस्य

पत्रकारों ने मिलकर अमीर और ताकतवर लोगों के गुप्त निवेश के बारे में पैराडाइज पेपर्स के नाम से जो नया धमाका किया है।

संपादकीय

दुनिया भर के पत्रकारों ने मिलकर अमीर और ताकतवर लोगों के गुप्त निवेश के बारे में पैराडाइज पेपर्स के नाम से जो नया धमाका किया है, वह पनामा धमाके से एक कदम आगे है और इसमें व्यक्तियों से ज्यादा कॉर्पोरेट पर जोर होने से सरकारों को जांच पड़ताल करने और कार्रवाई करने में सुविधा होगी। बरमूडा की कंपनी एपलबाई और सिंगापुर की कंपनी एशिया सिटी से लीक हुए 1.34 करोड़ दस्तावेजों के माध्यम से दुनिया के आर्थिक ताने-बाने की जो कहानी प्रस्तुत हुई है वह रोचक और रहस्यमयी है भले ही उसमें सब कुछ गैर-कानूनी और कालेधन से संबंधित न हो। इस रिपोर्ट की सबसे खास बात यह है कि किस तरह से कंपनियां नियामक संस्थाओं से नज़र बचाकर अपनी पूंजी को दूसरे देशों में कर्ज लेने के लिए इस्तेमाल करती हैं या उन्हें बेच देती हैं। दस्तावेज बताते हैं कि विजय माल्या ने कैसे यूनाइटेड स्प्रिट्स लिमिटेड इंडिया को 2012 में डियाजियो समूह को बेच दिया और इस तरह उन्होंने अपना धन उन जगहों पर भेजा जहां पर कर से छूट है। इस खुलासे में दुनिया के सबसे ज्यादा भारत के 714 लोगों के नाम हैं। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ से लेकर कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के करीबी लोगों के भी नाम हैं लेकिन, असली सवाल यह देखना है कि इन कानूनी फर्मों के माध्यम से हुए पूंजी, कर्ज और कर के हस्तांतरण और हेराफेरी में कितना गैर-कानूनी है और कितना कानूनी? भारत ने दोहरे कराधान को रोकने के लिए कई ऐसे देशों से समझौता कर रखा है जहां पर कर की दरें कम हैं। इसलिए वहां की कंपनियां अपने प्रमाण-पत्र दिखाकर यहां कर से बच जाती हैं। दूसरी तरफ कर से पूरी तरह बचने को रोकने के लिए गार जैसा कानून भी है जिसे 2012 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की असफल कोशिश के बाद 2017 में कानूनी रूप दिया जा सका। इसके बावजूद इन कानूनों का कितना पालन ईमानदारी और पारदर्शिता के हित में हो रहा है और कितना निहित स्वार्थ के, इसकी तहकीकात और उस पर कार्रवाई की चुनौती सभी सरकारों के समक्ष उपस्थित है। संयोग से भारत में काला धन विरोधी दिवस के ठीक पहले आई यह रिपोर्ट हमारी सरकार के समक्ष चुनौती पेश करती है और पूरी दुनिया की सरकारों के समक्ष विचार के मुद्‌दे खड़े करती है।


Date:06-11-17

भारतमाला और सागरमाला से उम्मीदें व चुनौतियां

जयंतीलाल भंडारी

एक साथ दो परियोजनाओं की इन दिनों काफी चर्चा है। इनमें एक है राजमार्गों के लिए बनी भारतमाला परियोजना और दूसरी, जलमार्गों के लिए बनी सागरमाला परियोजना। 83,000 किलोमीटर लंबी भारतमाला परियोजना की तो घोषणा भी कर दी गई है, जबकि गुजरात में रो-रो फेरी सेवा के साथ ही सागरमाला का भी आगाज हो गया है। तटीय नौवहन और जलमार्ग से ढुलाई को अगले सात साल में छह फीसदी से बढ़ाकर 12 फीसदी करने का लक्ष्य रखा गया है। इस समय देश में सिर्फ छह राष्ट्रीय जलमार्ग हैं। अब 111 नए नदी मार्गों को तैयार करने की योजना है।भारतमाला परियोजना पहली बार अप्रैल 2015 में पेश की गई थी, जिसमें गुजरात और राजस्थान को जोड़ने की योजना थी। उसके बाद इसमें पंजाब, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड को शामिल किया गया और बाद में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार के साथ सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मिजोरम में भारत-म्यांमार सीमा तक इसे बढ़ा दिया गया। इसके तहत 44 आर्थिक गलियारे बनेंगे। 26,200 किलोमीटर लंबे आर्थिक गलियारों में से 9,000 किलोमीटर आर्थिक गलियारे का विकास पहले चरण में होगा। इस परियोजना के लिए 70 फीसदी हिस्सा केंद्र सरकार खर्च करेगी और 30 फीसदी हिस्सा निजी भागीदारी से आएगा। यह भी अनुमान है कि इस योजना से 14.2 करोड़ कार्यदिवस का रोजगार पैदा हो सकेगा। यद्यपि देश में लगभग 46.90 लाख किलोमीटर लंबाई की सड़कों का विशाल नेटवर्क है। राजमार्गों के विकास के लिए देश में राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम की 1998 में शुरुआत की गई थी, जिसके तहत स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना के नेटवर्क से चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुंबई को जोड़ा गया था। यह भारत में सबसे बड़ी राजमार्ग परियोजना है और दुनिया में पांचवां क्रम रखती है। हालांकि इस परियोजना को 2006 में पूरा होना था, लेकिन इसे 2012 में पूरा किया जा सका। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार ऐसी देरी से बचा जा सकेगा।

भारतमाला परियोजना से मौजूदा राजमार्ग बुनियादी ढांचे के अंतर को पाटने में मदद मिलेगी। इससे यात्रियों और माल की आवाजाही सुगम हो जाएगी। सबसे बड़ी बात है कि इससे ग्रामीण इलाकों में भी सड़कों के विकास को गति मिलेगी। राजमार्गों के तेजी से विकास से निजी क्षेत्र के लिए अवसर बढ़ेंगे। छोटे शहरों में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन मिलेगा और नौकरी के अवसरों में वृद्धि होगी। ग्रामीण इलाकों से उपज की बेहतर परिवहन व्यवस्था के कारण किसानों के लिए अवसर बढ़ेंगे। ऐसी ही उम्मीदें सागरमाला से भी हैं। देश के पास 7,500 किलोमीटर तटीय क्षेत्र हैं, जबकि 14,500 किलोमीटर नदीमार्ग हैं। लागत के हिसाब से देखा जाए, तो एक हॉर्स पावर शक्ति की ऊर्जा से पानी में चार टन माल ढोया जा सकता है, जबकि इतनी ही ऊर्जा से सड़क पर 150 किलो और रेल से 500 किलो माल ही ढोया जा सकता है। यही कारण है कि यूरोप, अमेरिका, चीन तथा पड़ोसी बांग्लादेश में काफी मात्रा में माल की ढुलाई अंतरदेशीय जल परिवहन तंत्र से हो रही है। कई यूरोपीय देश अपने कुल माल और यात्री परिवहन का 40 प्रतिशत पानी के जरिए ढोते हैं। यूरोप के कई देश आपस में इसी साधन से बहुत मजबूती से जुड़े हैं। निस्संदेह हमारे देश के विशाल जलमार्ग और विशाल नदियों के कारण जल परिवहन के तहत माल ढुलाई संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए बहुत संभावनाएं हैं। हमारी कई बड़ी विकास परियोजनाएं राष्ट्रीय जलमार्गों के नजदीक साकार होने जा रही हैं। बहुत से नए कारखाने और पनबिजली इकाइयां इन इलाकों में खुल चुकी हैं। इनके निर्माण में भारी-भरकम मशीनरी की सड़क से ढुलाई आसान काम नहीं है। इसमें जल परिवहन की अहम भूमिका हो सकती है।सरकार ने अगले पांच वर्ष में जलमार्गों के विकास के लिए 50 हजार करोड़ रुपये खर्च करने के संकेत दिए हैं, पर निजी क्षेत्र से अगले पांच वर्षों में जल परिवहन के लिए इसके पांच गुना निवेश की उम्मीद की गई है। यह भी जरूरी है कि इन दोनों परियोजनाओं के समय पर अच्छी गुणवत्ता वाले कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाए, अन्यथा लक्ष्य अधूरे ही रह जाएंगे।


Date:06-11-17

Seize the opportunity

The judiciary should now exercise a firm grip over criminal cases involving politicians

Sriram Panchu

On March 10, 2014, the Supreme Court passed an order in a case brought by the Public Interest Foundation. Various issues dealing with electoral reform were involved, including whether candidates for election should be disqualified only after conviction in a criminal case, or at the earlier point of framing of a charge sheet by a court. That issue was postponed for a more detailed hearing.

However, Justice R.M. Lodha utilised the occasion to pass a succinct and categoric direction, hopefully the forerunner of a game changer for cleaner politics in India. In relation to cases against sitting Members of Parliament (MP) and Members of Legislative Assemblies, who have charges framed against them for serious offences specified in Section 8 of the Representation of the People Act, 1951, the trial should be conducted expeditiously, he said, in no case later than one year. If this was not possible, the Chief Justice of the High Court should be notified.

Move the frame to the present. On November 1, 2017, Justices Ranjan Gogoi and Navin Sinha pick up the baton. They want to know how many of the 1,581 cases involving MLAs and MPs (as declared in their nomination papers to the 2014 elections) had been disposed of within the time frame of one year, and how many of these ended in conviction. The questions are as succinct as the previous order. The Central government will take six weeks to respond. It fairly states that it will cooperate in setting up special courts to try criminal cases involving political persons.

After the order

Hardly any reports have filtered in about convictions following Justice Lodha’s order; it is likely that the answer to the court’s questions will show extremely low numbers, corresponding to a high degree of violation of the court’s order. This by itself is a serious concern affecting all branches of government. However, it makes it all the more desirable that the Bench now exercises a firm grip over this case and steers it to conclusion. This will be as great a contribution to governance in India as any other.

Except perhaps for tainted politicians, the rest of India will acknowledge that those with criminal backgrounds cannot govern us. It is not just a few politicians, and not just any criminal background — out of the 542 members of Lok Sabha, 112 (21%) have themselves declared the pendency of serious criminal cases against them — murder, attempt to murder, communal disharmony, kidnapping, crimes against women, etc. These are the people who make laws for us. Furthermore, our ministers are largely chosen from MPs and State Assemblies. Crime and venality stalk the corridors of power. Those with criminal tendencies do not compartmentalise them. They also engage in corruption and infect the bureaucracy and the police. If virtually every aspect of public governance is tainted — from tenders and contracts to safety of buildings and roads to postings and transfers — lay the blame squarely on the decline and fall of political morality. Urgent judicial relief is therefore a necessity.

It is also a real possibility. Few things stand in its way. The argument that we will be somehow breaching the law of equality by creating special courts to try this lot can be brushed aside; Article 14 permits classification based on criteria and nexus; MPs and MLAs form a distinct class and their early trial is a democratic must. They thus deserve to be given priority treatment (as they get in so many other instances). A shortage of judges can be overcome. The Constitution, under Article 224A, provides for the reappointment of retired High Court Judges as ad hoc judges. There is thus a large pool of judges of integrity and experience to choose from.

It can be done

Special attention needs to be paid to two factors. One is the necessity of having prosecutors who are not attached to any political party. A directorate of prosecution, headed by a retired senior judge, who chooses prosecutors in turn vetted by the Chief Justice of the High Court, should be able to address this aspect. The other danger is that the main trial will be obstructed by interim orders. Experience has shown that political leaders are adept at finding legal counsel who file multifarious interim applications which stymie the trial; High Courts and the Supreme Court have sometimes failed to address these expeditiously. This needs to be avoided, and can be if Chief Justices have a superintending mission.

One concern expressed is to find funds to create the infrastructure and staffing for the special courts. A government which comes up with Rs. 2.11 lakh crore to clean up bank balance sheets should have no difficulty in finding a fraction to clean up political criminal spread sheets. And if required, the Finance Minister can devise a ‘Swachh Politics Bharat Bond’. It is bound to be oversubscribed, many times over, by delighted citizens.


 

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