08-10-2019 (Important News Clippings)

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08 Oct 2019
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Date:08-10-19

Reverse protectionism

A limited US trade deal now should be a stepping stone to a comprehensive agreement later

TOI Editorials

The next few days hold the possibility that India and the US may roll back some measures which have strained trade ties. Those ties have worsened recently following a regression to protectionism in both countries. This is consequential to India in particular, as the US is its second largest export market after the European Union and also an important source of foreign direct investment. In addition to trade in goods and services, defence deals have increased exponentially over the last decade. Consequently, any positive step in trade ties is welcome.

India’s complaints include tariffs imposed under a national security based legislation and the more recent decision of the Trump administration to strip India of concessions offered under the Generalized System of Preferences (GSP) programme. The US has been vocal about its displeasure with the Modi government’s policy of price control on medical devices and market access for agricultural goods. A limited trade agreement therefore will at least iron out some of the new complications in a fraught trade relationship.

The US-India trade negotiations have been taking place alongside talks to conclude the Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP). This potentially includes Asean and six other countries, including India and China. RCEP has triggered a palpable sense of unease among sections of Indian industry, primarily on account of China’s inflexible positioning. Even though there is strong push by some countries to conclude a deal in November, the China factor makes it tricky. The US-India trade negotiations need to be viewed in the backdrop of current challenges confronting cross-border trade. WTO recently forecast that world trade in both 2019 and 2020 will find it tough on account of trade tensions and economic uncertainty.

India needs to limit the negative fallout of this trade environment. Exports are an essential engine of an economic revival. India’s slowdown can partially be attributed to the decline in exports as a percentage of GDP over the last few years. One solution is to reverse the slide in trade ties with US, India’s most important economic partner. Given the level of differences and the beginning of a US election cycle, a limited deal may be the only possible outcome now. But it should serve as a stepping stone to a far more comprehensive trade relationship in future.


Date:08-10-19

विकास और पर्यावरण

मुंबई में मेट्रो परियोजना के कार – शेड निर्माण के लिए पेड़ काटे जाने पर पर्यावरण और विकास एक बार फिर आमने – सामने हैं। इन दोनों के बीच संतुलन कायम करने की ज़रूरत है।

संपादकीय

मुंबई में मेट्रो के कारशेड निर्माण के लिए पेड़ों को काटने का विरोध आखिरकार सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। उसने मुंबई की आरे कॉलोनी में पेड़ काटने पर रोक लगाने का आदेश देने के साथ ही मामले को पर्यावरण पीठ के समक्ष भेज दिया। इस पीठ का फैसला जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जितने पड़े काटने जरूरी थे उतने काटे जा चुके हैैं। बंबई हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह काम आनन-फानन में शायद इसीलिए हुआ, क्योंकि मुंबई मेट्रो कॉरपोरेशन यह जान रहा था कि हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी जाएगी। जो भी हो, यह पहली बार नहीं जब पर्यावरण प्रेमियों एवं सामाजिक संगठनों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया हो और अपनी लड़ाई अदालत तक ले गए हों। कई बार तो सड़क या फिर रेल मार्ग के निर्माण के लिए पांच-दस वृक्षों को भी काटने का विरोध किया गया है। इस विरोध के चलते विकास योजनाओं का काम रुका भी है।

आज जब जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है और जल-जंगल-जमीन को संरक्षित करने की जरूरत कहीं अधिक बढ़ गई है तब यह सुनिश्चित किया ही जाना चाहिए कि शहरी इलाकों में वृक्षों को काटने की नौबत न आए, लेकिन इसी के साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विकास जमीन पर ही होगा और जब ऐसा होगा तो कहीं न कहीं पेड़ काटने ही पड़ेंगे। वास्तव में पर्यावरण और विकास के बीच संतुलन कायम करने की जरूरत है और इस जरूरत की पूर्ति तभी होगी जब बीच का रास्ता तलाशा जाएगा। पहले तो यह देखा जाए कि कम से कम पेड़ काटने पड़ें, फिर यह सुनिश्चित किया जाए कि जितने पड़े काटे जाएं उससे कहीं अधिक न केवल लगाएं जाएं, बल्कि उनकी देखभाल भी की जाए। अगर यह जिद पकड़ी जाएगी कि चार पेड़ भी न कटने पाएं, भले ही विकास के काम न हों तो इससे बात नहीं बनेगी।

यह ठीक नहीं कि विकास की कई योजनाएं पर्यावरण संबंधी सवालों से दो-चार होने के कारण अटकी पड़ी हुई हैैं। इनमें से कुछ की तो लागत भी बढ़ गई है। यह ठीक नहीं। निश्चित रूप से विकास की चिंता करते समय पर्यावरण की भी चिंता करनी होगी, लेकिन केवल तभी नहीं जब किसी योजना-परियोजना की राह में कुछ वृक्ष आ रहे हों। क्या यह अजीब नहीं कि पर्यावरण की तमाम चिंताओं के बीच पंजाब और हरियाणा में पराली एक बार फिर जलाई जा रही है? क्या यह पर्यावरण को जानबूझकर जहरीला बनाने वाला काम नहीं? बेहतर हो कि पर्यावरण के साथ विकास की भी समान चिंता की जाए और जंगल बचाने-बढ़ाने पर कहीं ज्यादा ध्यान दिया जाए।


Date:08-10-19

पहलकदमी जरूरी

संपादकीय

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की आधिकारिक भारत यात्रा के बाद हमारे पास यह अवसर है कि दोनों देशों के आपसी रिश्ते का आकलन किया जाए। सरकार से सरकार के स्तर पर यह रिश्ता मजबूत है लेकिन कुछ महत्त्वपूर्ण मानकों पर यह कमजोर बना हुआ है। यात्रा के दौरान सात समझौते हुए और तीन परियोजनाओं की शुरुआत हुई। इन समझौतों का दायरा काफी व्यापक है। उदाहरण के लिए बांग्लादेश के तटीय इलाके में रडार आधारित निगरानी तंत्र स्थापित करने पर काफी ध्यान दिया गया है। बंगाल की खाड़ी की समुद्री सुरक्षा की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण बात है। एक अन्य उपयोगी घटना है बांग्लादेश के मंगला और चट्टोग्राम बंदरगाहों के इस्तेमाल की साझा प्रक्रिया को अंतिम रूप देना। यहां से भारत के पूर्वोत्तर राज्यों से और वहां तक वस्तुओं का मालवहन हो सकता है। बांग्लादेश पूर्वी भारत में तरल प्राकृतिक गैस की आपूर्ति सुनिश्चित करने में भी सहायता करेगा।

ये सभी महत्त्वपूर्ण कदम हैं। नौवहन समझौते को पूर्वोत्तर भारत के साथ बेहतर संचार सुनिश्चित करने के व्यापक प्रयास के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके लिए बंगाल की खाड़ी के रास्ते बांग्लादेश तक पहुंच अनिवार्य है। यदि एशिया प्रशांत क्षेत्र के पश्चिमी किनारे में चीन की उपस्थिति से निपटना है तो बंगाल की खाड़ी में सुरक्षा सहयोग भी आवश्यक है। इसके बावजूद अन्य मुद्दों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। उदाहरण के लिए, खेद की बात है कि तीस्ता नदी जल के सवाल पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सका। बांग्लादेश त्रिपुरा के एक सूखे कस्बे के लिए फेनी नदी से पानी देने को तैयार हो गया, वहीं भारतीय अधिकारियों को यह समझना होगा कि बांग्लादेश के लिए तीस्ता का मुद्दा कितना भावनात्मक है और इससे जुड़ी बाधाओं को जल्द से जल्द समाप्त करना होगा। केंद्र में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी तब पश्चिम बंगाल की राजनीति के चलते इस मसले पर समझौता नहीं हो सका। अब जबकि आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी प्रदेश में अपने लिए अच्छी संभावना देख रही है तो तीस्ता नदी का मुद्दा एक बार फिर राज्य की राजनीति के कारण टाला नहीं जा सकता है। राज्य की राजनीति के चलते सामरिक महत्त्व के मुद्दों को यूं अनंत काल तक नहीं टाला जा सकता।

दोनों देशों की अर्थव्यवस्था को बुनियादी ढांचे और साझा प्रक्रियाओं के माध्यम से प्राथमिकता प्रदान की जानी चाहिए। बांग्लादेश को रेलवे रोलिंग स्टॉक का प्रावधान एक अच्छा कदम है लेकिन सामान्य वाहनों की इजाजत को भी अंतिम रूप दिया जाना चाहिए। भारत में बांग्लादेश की वस्तुओं पर से गैर टैरिफ अवरोध समाप्त किए जाने चाहिए। साझा पादपस्वच्छता मानक और प्रयोगशाला परीक्षण के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है। दोनों देशों का आपसी व्यापार 1,000 करोड़ डॉलर से कम है और इसे आसानी से दोगुना किया जा सकता है। दोनों देश आर्थिक रूप से जितने करीब आएंगे, उन्हें उतना ही लाभ होगा। सुरक्षा के मुद्दे पर किसी मतभेद की आशंका नहीं है। भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह दूरगामी दृष्टि अपनाए। ढाका में शेख हसीना एक अहम साझेदार हैं, दोनों देशों के रिश्ते को सत्ताधारी प्रतिष्ठान के साथ गर्मजोशी से आगे बढ़ाना होगा। आम जनता के बीच संपर्क आसान बनाया जाना चाहिए। विश्वसनीय विपक्ष की अनुपस्थिति में वहां के नागरिक समाज तक पहुंच बढ़ानी चाहिए। भारत के साथ अच्छे रिश्तों को वहां भी ऐसी ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए। अगर भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए थोड़ा आगे बढऩा पड़ता है, मिसाल के तौर पर नदी जल या निगरानी डेटा के संयुक्त इस्तेमाल के बारे में, तो राष्ट्र हित में ऐसा करना सर्वथा उचित होगा।


Date:08-10-19

जल उपयोग के तरीके पर पुनर्विचार की दरकार

सुनीता नारायण

दक्षिण अफ्रीका की कार्यकर्ता जैकी किंग को नदियों में पारिस्थितिकी प्रवाह की जरूरत पर बल देने के लिए वर्ष 2019 के विश्व जल पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। आज यह मुद्दा अहम है कि पानी की बढ़ती जरूरत एवं जलवायु परिवर्तन को लेकर बढ़ते जोखिम के दौर में अपनी नदियों के अधिकारों को कैसे बहाल किया जाए? हमें समझना होगा कि नदियों के प्रवाह का मुद्दा असल में सत्ता की राजनीति से जुड़ा है। नदियों के अधिकारों का सवाल उस समय बेहद जटिल एवं राजनीतिक हो जाता है जब पानी की कमी हो और अधिकारों को चुनौती दी जा रही हो।

भारत जैसे देशों में पानी अनाज पैदा करने में लगे करोड़ों किसानों को दिया जाता है। लेकिन आज शहरों के साथ-साथ उद्योगों की संख्या भी बढ़ रही है। जद्दोजहद इस बात पर है कि इस प्राकृतिक संसाधन के पुराने एवं नए उपभोक्ताओं के बीच पानी का पुनर्वितरण कैसे हो? यह काम बेहद कठिन है। इस पुनर्वितरण से तनाव पैदा होता है और कुछ जगहों पर यह खूनी संघर्ष का भी रूप ले लेता है। बाकी दुनिया के साथ अपने मतभेदों को समझना भी जरूरी है। पहले ही विकसित हो चुकी दुनिया मसलन यूरोप में पानी का वितरण मुख्य रूप से शहरों एवं उद्योगों को ही होता है क्योंकि आजीविका की तलाश में लोग शहरों में ही बस चुके हैं। लेकिन भारत में अब भी करोड़ों लोग खेतों में काम करते हैं और उन्हें अपनी आजीविका के लिए पानी की जरूरत है।

समस्या यह भी है कि शहर एवं उद्योग पानी तो लेते हैं लेकिन इसके बदले वे अपशिष्ट पदार्थ एवं प्रदूषण देते हैं। वे नदियों को नष्ट कर देते हैं और इस तरह पहले से ही कम उपलब्ध पानी और भी लुप्त हो रहा है। लिहाजा इस संघर्ष में नदियों के पास कोई अधिकार नहीं रह जाता, उनमें प्रवाह के लिए पानी ही नहीं है। लेकिन एक और समस्या है। नदी के पास समुचित जल नहीं होने से वह इंसानों के पैदा किए हुए अवशिष्ट को बहाकर ले भी नहीं जा पाती। यह अपनी सफाई खुद नहीं कर सकती है और रोज कई मौतें मरती है।

यह सब कुछ जलवायु परिवर्तन के युग में घट रहा है। तथ्य यह है कि हमें जल प्रबंधन के बारे में अपनी समझ एवं जानकारी के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है। आज बारिश होती है तो आसमान से बूंदें नहीं गिरती है, सैलाब आता है। वर्ष 2019 के मॉनसून में ही हम भारी एवं बहुत भारी बारिश के 1,000 से अधिक मामले देख चुके हैं, कई जगहों पर एक ही दिन में औसत बारिश की तुलना में 1,000-3,000 फीसदी अधिक बारिश हुई है। नतीजतन, इन जगहों पर बाढ़ आ गई। इससे भी बुरी बात यह है कि बाढ़ के बाद सूखे के हालात बन गए क्योंकि अतिवृष्टि वाले स्थानों पर अतिरिक्त पानी सहेजने के लिए जरूरी ढांचा ही नहीं है। जल निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं है, तालाबों एवं पोखरों को बरबाद किया जा चुका है। इस तरह सूखे के समय बाढ़ की स्थिति पैदा हो जाती है। यह सामान्य न होकर बेहद असामान्य बात है। याद रखें कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दिखने तो अभी बस शुरू हुए हैं। आगे चलकर तापमान और बढ़ेगा।

हमें अत्यधिक बारिश के दौर में बांधों की भूमिका पर भी सिरे से सोचने की भी जरूरत होगी। बांधों का निर्माण पानी इक_ा करने और प्रवाह के नियमन के लिए किया गया था। लेकिन अब पानी को इस तरह रखना काफी जोखिम भरा होता जा रहा है क्योंकि बांधों के प्रबंधकों के पास अत्यधिक बारिश की स्थिति में इक_ा पानी छोडऩे के सिवाय कोई चारा नहीं रह जाता है। अचानक पानी छोड़े जाने से बाढ़ एवं प्रलय जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। इससे व्यापक स्तर पर जनजीवन नष्ट होता है। इस मुद्दे पर हमें जैकी किंग की अवधारणा पर गौर करने की जरूरत है ताकि हम नदियों के अधिकारों पर निर्णय करने की वास्तविकता का सामना करें। यह एक मौका भी है क्योंकि अगर हम नदियों को पानी का अधिकार देते हैं तो फिर हम कम से भी ज्यादा कर पाना सीख जाएंगे।

पहला, कृषि क्षेत्र को पानी के इस्तेमाल पर अधिक समझदारी दिखानी होगी। लेकिन इसका मतलब केवल ड्रिप सिंचाई अपनाना भर नहीं है। इसका यह मतलब भी है कि हम अपने भोज्य पदार्थों में इस तरह बदलाव करें कि कम पानी का इस्तेमाल करने वाले भोजन करें और हम धनी देशों में प्रयुक्त औद्योगिक खेती के तरीकों का इस्तेमाल करते हुए मांसाहारी उत्पाद न तैयार करें। इसके लिए जरूरी होगा कि सरकार फसलों की खरीद के दौरान चावल के बजाय कम पानी में उपजने वाले बाजरे को प्राथमिकता मिले।

दूसरा, शहरों को नदियों से पानी लेने और फिर दोबारा पानी भरने के बारे में सीखना होगा। यहीं पर मल-मूत्र प्रबंधन का बड़ा अवसर भी है जो किफायती होने के साथ टिकाऊ भी है। शहरों को यह पता होना चाहिए कि उन्हें नाले में बहने वाली हरेक बूंद को रिसाइकल कर दोबारा इस्तेमाल करना है। शहरों को यह कहा जाना चाहिए कि वे अपने नाला गिरने वाली जगह से पीने के लिए पानी जुटाएं। ऐसा होने पर शहर अपने अवशिष्ट जल के शोधन के लिए बाध्य होंगे और वह पानी दोबारा जलचक्र में लौट आएगा। इससे जल सुरक्षा भी बढ़ेगी।

तीसरा और सबसे अहम, हमें यह अहसास करना होगा कि अत्यधिक एवं असमान बारिश से निपटने का इकलौता रास्ता यही है कि हरेक बूंद को संरक्षित किया जाए और निकासी के लिए समुचित ढांचा बनाया जाए। हरेक जलस्रोत, हरेक नाले को गहरा एवं संरक्षित किया जाए ताकि बाढ़ के पानी को जमा किया जा सके। भारत में जलभंडार प्रणालियां बनाने की असाधारण एवं विविध परंपरा रही है। ये ढांचे हमारे नए मंदिर बनने चाहिए। हरेक नाला, गड्ढा और जलस्रोत को इस तरह संरक्षित किया जाए कि बाढ़ का पानी भूमिगत जल को रिचार्ज करने में इस्तेमाल किया जा सके जो सूखे की स्थिति में काम आएगा।


Date:07-10-19

संबंधों का विस्तार

संपादकीय

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना चार दिन की भारत यात्रा पर हैं। शनिवार को उन्होंने हमारे प्रधानमंत्री से मुलाकात और विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। इस दौरान कई मसलों पर समझौते भी हुए, जिनमें शांति और सुरक्षा के क्षेत्र में दोनों देशों ने अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। शेख हसीना की यह भारत यात्रा कई मामलों में महत्त्वपूर्ण है। एक ऐसे समय में जब भारत सरकार राष्ट्रीय नागरिक पंजी तैयार कर रही है और उसमें यहां रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों के सबसे अधिक प्रभावित होने की चर्चा है, बांग्लादेशी प्रधानमंत्री का यहां आना और दोनों देशों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण में उस मसले पर बातचीत करना उल्लेखनीय बात है। शेख हसीना ने राष्ट्रीय नागरिक पंजी पर अपनी चिंता जाहिर की, पर भारत ने उन्हें संतुष्ट किया कि सारी प्रक्रिया अदालत की निगरानी में पूरी हो रही है, इसलिए इसे लेकर ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है। इसके अलावा दोनों नेताओं की बातचीत में रोहिंग्या शरणार्थियों का मुद्दा भी उठा और दोनों ने इस बात पर सहमति जताई कि म्यांमा के रखाइन क्षेत्र में उनकी सुरक्षित वापसी होनी चाहिए।

बांग्लादेश आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है। वहां महंगाई से पार पाना कठिन बना हुआ है। ऐसे में भारत से उसके व्यापारिक रिश्ते मजबूत होंगे, वहां बेहतरी के कुछ रास्ते खुलेंगे। शेख हसीना की इस यात्रा में पहले से चले आ रहे व्यापारिक समझौतों को बरकरार रखते हुए चटगांव और मंगला बंदरगाहों को भारतीय पोतों को माल ढुलाई के लिए खोलने पर सहमति बनी। पहले ही भारत और बांग्लादेश के बीच व्यापारिक रिश्ते काफी मजबूत हैं, इस यात्रा से उन्हें और मजबूती मिलेगी। इसके अलावा तीस्ता नदी के जल बंटवारे से संबंधित विवाद को जल्दी ही सुलझा लेने का संकल्प दोहराया गया और बांग्लादेश की फेनी नदी का पानी त्रिपुरा के सबरूम में पेयजल के लिए उपलब्ध कराने पर रजामंदी हुई। दोनों नेताओं ने पूर्वोत्तर भारत में रसोई गैस आपूर्ति संबंधी परियोजना का उद्घाटन किया। शेख हसीना की इस यात्रा में उल्लेखनीय समझौता दोनों देशों के बीच सीमाओं को सुरक्षित बनाने को लेकर है। दोनों नेताओं ने अपने सीमा प्रहरियों को सीमा पर बाड़ लगाने की प्रक्रिया के शीघ्र पूरा करने का आदेश दिया। इस तरह शेख हसीना के भारत आने से उन तमाम आशंकाओं पर विराम लगा है, जो राष्ट्रीय नागरिक पंजी को लेकर जताई जा रही थीं।

भारत इन दिनों आतंकवादी गतिविधियों पर विराम लगाने के तमाम पक्षों पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से भी इस जरूरत को रेखांकित किया कि जब तक दुनिया के देश इस मुद्दे पर बंटे रहेंगे, तब तक इस पर काबू पाना कठिन बना रहेगा। छिपी बात नहीं है कि भारत में आतंकवादी गतिविधियों को सबसे अधिक बढ़ावा पाकिस्तान से मिल रहा है। उस पर नकेल कसने के लिए जरूरी है कि पड़ोसी देशों को भी चाकचौबंद बनाया जाए। इस लिहाज से बांग्लादेश के साथ आतंकवाद पर काबू पाने के लिए हुए समझौते महत्त्वपूर्ण हैं। तटीय निगरानी बढ़ाने के लिए बांग्लादेश से जुड़ी समुद्री सीमा में भारत करीब दो दर्जन राडार प्रणाली लगाएगा। छिपी बात नहीं है कि पाकिस्तान में पनाह पाए आतंकी संगठन बांग्लादेश की सीमा के जरिए भारत में घुसपैठ करने का प्रयास करते रहे हैं। इस तरह वहां की समुद्री सीमा पर निगरानी चौकस रखने की जरूरत है। नए समझौते से आतंकी गतिविधियों पर लगाम लगाने में काफी मदद मिलने की उम्मीद की जा सकती है।


Date:07-10-19

Good going

But with Dhaka something’s missing: Economic policy making in Delhi needs to be more sensitive to the regional dimension.

Editorial

Prime Minister Sheikh Hasina’s visit to Delhi over the weekend highlights the deepening bilateral relationship with Dhaka and also its important structural consequence — growing interdependence with Bangladesh. India’s foreign policy can claim great success for the former — relations with Bangladesh have never been as good as they are today. They are also the best when viewed in comparison with our other neighbours. But India’s economic policy makers can be rather insensitive to the logic of interdependence. Hasina’s visit saw agreements on expanding connectivity and transit, easing travel across the border, strengthening trade and investment ties, boosting development cooperation, putting the fledgling defence cooperation on a firmer basis and promoting regional cooperation. Even as Delhi celebrates the golden age in the relationship with Dhaka, however, it must heed some important warning signs.

That Hasina publicly complained, albeit in a light hearted manner, about the impact of India’s recent move to ban onion exports on her kitchen, underlines the headaches in the neighbourhood that Delhi’s economic decisions generate. Hasina was not objecting to the decision itself that has produced immediate onion shortages in Bangladesh. She was pointing to its sudden and unilateral nature. If Delhi had informed Dhaka in advance, Hasina said, her government could have made alternative arrangements for onion import. The problem goes deeper and reveals a lingering autarkic and anti-market orientation in Delhi’s economic policy even as India’s national strategy calls for regional integration. For example, governments in Delhi, both Congress and BJP-led ones, have long resisted export of cattle to Bangladesh where beef is a staple. In doing so, Delhi has created an incentive for cattle-smuggling across the border. Few in government had anticipated that the demonetisation of the Indian rupee at the end of 2016 might have consequences for Nepal and Bhutan that are so tied into the Indian economy. As India rises and integrates with Bangladesh, that is now one of the world’s fastest growing economies, Delhi must get its economic bureaucrats to integrate the regional dimension into their national policy thinking.

Beyond onions, Hasina was also channeling growing anxiety in Bangladesh at India’s implementation of the National Register of Citizens in Assam and the threats at the highest level about throwing foreigners (read Bengali Muslims) from the state. Given the deep political trust between PM Hasina and PM Narendra Modi, the problem appears to be under control. But the situation could easily get out of hand, become a major controversy in Dhaka’s domestic politics, severely constraining Hasina’s positive approach to India. The problem in Assam is part of the tragic legacy of the Subcontinent’s partition in 1947 and the movement of people across the new frontiers in the east since then. As two strong leaders focused on problem-solving, Modi and Hasina must try and develop a long-term joint strategy that will facilitate national identification and generate a system of work-permits for legitimate movement of labour. Today’s digital technologies offer solutions to difficult political problems that Delhi and Dhaka have inherited from the past. The markets demand it.


Date:07-10-19

Criticism is not sedition

The threat of sedition leads to unauthorised self-censorship and has a chilling effect on free speech

Ajit Prakash Shah , [former Chief Justice of the Delhi High Court and Chairman of the 20th Law Commission of India]

The recent order of a Bihar court directing the filing of an FIR against 49 eminent persons who signed an open letter to the Prime Minister expressing concerns over mob lynching is shocking, disappointing, and completely disregards the true meaning of the law. The FIR was lodged under various sections of the Indian Penal Code (IPC), including sedition, public nuisance, hurting religious feelings, and insulting with intent to provoke breach of peace. But many would agree that the writers of the letter were doing precisely what every citizen ought to do in a democracy — raise questions, debate, disagree, and challenge the powers that be on issues that face the nation.

It is evident that if you take the letter as a whole, leave alone sedition, no criminal offence is made out. Surely, this court decision warrants an urgent and fresh debate on the need to repeal the sedition law, for it has no place in a vibrant democracy.

History of the sedition law

A century ago, debates around sedition were about how the British abused it to convict and sentence freedom fighters. Today, unfortunately, Indians face the same question, except that instead of a foreign government, the country’s own institutions appear to be misusing the law. This decision strangely coincided with Mahatma Gandhi’s birth anniversary. The soul of Gandhi’s philosophy lay in the right to dissent, which is today being systematically destroyed. Now, anyone, be it university students or civil society activists, who utters even a single critical phrase is instantly targeted, without any introspection on why such criticism was voiced at all.

Sedition laws were enacted in 17th century England, when lawmakers believed that only good opinions of the government should survive, as bad opinions were detrimental to the government and monarchy. This sentiment (and law) was borrowed and inserted into the IPC in 1870.

The law was first used to prosecute Bal Gangadhar Tilak in 1897. That case led to Section 124A of the IPC (which deals with sedition) being amended, to add the words “hatred” and “contempt” to “disaffection”, which was defined to include disloyalty and feelings of enmity. In 1908, upon conviction for sedition in another case, and imprisonment, Tilak reportedly said, “The government has converted the entire nation into a prison and we are all prisoners.” Gandhi, too, was later tried for sedition for his articles in Young India, and famously pleaded guilty.

Twice in the Constituent Assembly, some tried to include sedition as a ground for restricting free speech. But this was vehemently (and successfully) opposed for fear that it would be used to crush political dissent.

The Supreme Court highlighted these debates in 1950 in its decisions in Brij Bhushan v the State of Delhi and Romesh Thappar v. the State of Madras. These decisions prompted the First Constitution Amendment, where Article 19(2) was rewritten to replace “undermining the security of the State” with “in the interest of public order”.

However, in Parliament, Jawaharlal Nehru clarified that the related penal provision of Section 124A was “highly objectionable and obnoxious and …[t]he sooner we get rid of it the better.”

In 1962, the Supreme Court decided on the constitutionality of Section 124A in Kedar Nath Singh v State of Bihar. It upheld the constitutionality of sedition, but limited its application to “acts involving intention or tendency to create disorder, or disturbance of law and order, or incitement to violence”. It distinguished these from “very strong speech” or the use of “vigorous words” strongly critical of the government.

In 1995, the Supreme Court, in Balwant Singh v State of Punjab, acquitted persons from charges of sedition for shouting slogans such as “Khalistan Zindabaad” and “Raj Karega Khalsa” outside a cinema after Indira Gandhi’s assassination. Instead of looking at the “tendency” of the words to cause public disorder, the Court held that mere sloganeering which evoked no public response did not amount to sedition, for which a more overt act was required; the accused did not intend to “incite people to create disorder” and no “law and order problem” actually occurred.

This same lens must be used to examine the present letter. The law and its application clearly distinguishes between strong criticism of the government and incitement of violence. Even if the letter is considered hateful, or contemptuous and disdainful of the government, if it did not incite violence, it is not seditious. Unfortunately, Indian courts have, especially recently, repeatedly failed to appreciate this distinction.

The broad scope of Section 124A means that the state can use it to chase those who challenge its power, and the mere pressing of sedition charges ends up acting as a deterrent against any voice of dissent or criticism.

Challenging the law

Even the threat of sedition leads to a sort of unauthorised self-censorship, for it produces a chilling effect on free speech. This misuse must be stopped by removing the power source itself. The law must go, as has happened in the U.K. already. No government will give up this power easily, and logically, one would turn to the courts for help. Unfortunately, although I have been part of it, the judiciary seems less and less of a protector of our rights, having let us down on civil liberties often lately. Arguably, it is time for the people, for civil society, to challenge the law directly. There needs to be a concentrated movement from the ground up. What form such a direct challenge should take cannot be said, but we must protect our right to dissent as fiercely as we protect our right to live. If we fail to do so, our existence as a proudly democratic nation is at risk.


Date:07-10-19

Sedition annoyance

The lower judiciary should not act reflexively on frivolous, politically motivated complaints

Editorial

The registration of a case of sedition against 49 prominent citizens at a police station in Bihar’s Muzaffarpur for writing an open letter in July to the Prime Minister has caused understandable outrage. There was nothing in the appeal, which asks for steps to stop lynching and other hate crimes, especially in the name of religion, that even vaguely connoted an attempt to promote disaffection or any prejudice to national integration. In these polarised times, it is not surprising that a lawyer took it upon himself to initiate criminal proceedings against the film-makers, artists and writers such as Shyam Benegal, Adoor Gopalakrishnan, Aparna Sen and Ramachandra Guha for signing the open appeal on a matter of public concern. That a chief judicial magistrate had taken this vexatious complaint on file and directed the police to register an FIR is perplexing. Magistrates indeed have the power to order a police investigation into cognisable offences. And the Supreme Court has, in Lalita Kumari vs. Uttar Pradesh (2013), laid down that registration of an FIR is mandatory if information received by the police discloses a cognisable offence, and that in some cases, a preliminary enquiry may be conducted before the FIR is registered. However, in this case, it is quite astounding how the court or the police could conclude that the contents were seditious or indicative of any other offence.

While private complaints targeting public figures are not unusual, courts should not, without sufficient cause, indulge the motivated outrage of litigious complainants. Superior courts do intervene to quell attempts by those claiming to be offended by some remark or public statements, but it is time the lower judiciary stopped acting reflexively on frivolous complaints. Surely, the court should have been aware of the ongoing national debate on retaining sedition as an offence under the IPC’s Section 124A and growing demand for its abrogation. The pervasive disregard for public opinion against the indiscriminate use of the sedition provision is disappointing enough. It is worse if the magistracy disregards Supreme Court judgments that say sedition is attracted only if there is incitement to violence, and does not apply to statements that contain mere opinions, howsoever strong they may be. It is unfortunate that the court did not see that the complaint was nothing more than a political counterblast to what the complainant saw as criticism of the Prime Minister. One can only hope that the Patna High Court puts an end to this farcical attempt to use the judiciary for political ends, and also examine how its supervisory powers can be used to sensitise the magistracy to the constitutional provisions protecting free speech.


Date:07-10-19

Best friends for now

India and Bangladesh share a great relationship, but areas of concern remain

Editorial

Frequent meetings between neighbours are hallmarks of a strong friendship, and Bangladesh Prime Minister Sheikh Hasina’s four-day India visit, the first full bilateral meeting since both countries went to polls, marks a new chapter between New Delhi and Dhaka. The two nations have come closer over a decade-long engagement that began with Ms. Hasina’s return to power in 2008, with an improvement in the strategic sphere, and alignment on regional and global issues, connectivity and trade. During this visit, the two countries have committed to upgrading port facilities, implementation of India’s under-utilised Lines of Credit, a coastal surveillance system, and agreements on education, culture and youth. They will also coordinate better border management and counter-terror cooperation, and are also working on a regional trilateral energy sharing arrangement with Bhutan. Mr. Modi and Ms. Hasina inaugurated three projects, which includes one for the availability of LPG to India. Where they have failed to make headway yet, despite many forward-looking paragraphs in the joint statement, is on river-water sharing agreements. Chief among them is the Teesta agreement, for which a framework agreement was inked in 2011, but which has not moved forward since, chiefly because of tensions between the Central and West Bengal governments. The long-pending upgrading of the Ganga-Padma barrage project, the draft framework of interim sharing agreements for six rivers — Manu, Muhuri, Khowai, Gumti, Dharla and Dudhkumar — as well as the draft framework of interim sharing agreement of the Feni river are also pending. This task must not be taken lightly between two countries that share 54 transboundary rivers, and where water management is key to prosperity, and often a source of tensions and humanitarian disasters.

Growing concerns in Bangladesh over the National Register of Citizens (NRC) in Assam are another source of tensions, and the government must not ignore questions Ms. Hasina raised with Mr. Modi, in New York and New Delhi. While Bangladesh appears to have taken at face value the explanations by Mr. Modi and the External Affairs Minister that the NRC is in its early stages, that it is a judicial process, and is at present an internal matter for India, it is worried by statements to the contrary by Home Minister Amit Shah. Even in the past week, he has said that India will deport all non-citizens — he has often called them “termites” — and has taken credit for the NRC as a policy the government will pursue across the country, rather than a court-mandated process. The divergence in the two sets of statements proffered by New Delhi will ensure the issue gets raised again and again by Dhaka, and could cast a shadow over what one Bangladesh official otherwise described as the “best of the best” of ties between two neighbours.