08-09-2023 (Important News Clippings)
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ASEAN in the Time of G20
ET Editorials
PM Narendra Modi’s jaunt to Jakarta to attend the Asean Summit just before hosting the G20 summit speaks volumes of the importance of this engagement. The group, comprising 10 Southeast Asian countries, is key to ensuring the rules-based order for a free and open Indo-Pacific region that is geopolitically ‘hot area of influence’. The engagement with Asean is a recognition that challenges that dominate the global landscape cannot be addressed by one set of countries or another. This underscores the role that regional and plurilateral groups can play, working in partnership, to deliver on the promise of multilateralism in a manner that is fair, just and equitable for all countries.
India’s growing global engagement, particularly as a potential bridge between those in the tent and those outside, is part of this visit’s significance. As G20 president, India has spotlighted concerns raised by developing countries — not across the East-West axis or the North-South one, but as efforts towards collective action that will help address global and common challenges. This connect among the Asean is important as it provides Southeast Asian countries options for engagement and a say in shaping the future of the Indo-Pacific region. Much like AseanQuad cooperation, which emerged through sustained engagement, Asean-India engagement (and, indeed, with other members of G20) strengthens the future of a free and open Indo-Pacific region that can stay safe from the extreme gravity of a single country or bloc (read: China).
India understands Asean’s centrality within this rubric. It also recognises that these countries will need support and cooperation to make the choices that adhere to international laws, and benefits them as well.
एडिटर्स गिल्ड की टीम पर केस हो तो प्रजातंत्र कहां?
संपादकीय
मणिपुर सरकार ने एडिटर्स गिल्ड की फैक्ट फाइंडिंग टीम के खिलाफ वैमनस्य फैलाने, झूठ का सहारा लेने, शांति भंग करने संबंधी संगीन धाराओं में केस किया है। मुख्यमंत्री का कहना है कि ये सदस्य ‘एंटी-नेशनल’ हैं। टीम ने जांच रिपोर्ट में महीनों से चल रहे उपद्रव के पीछे एक समुदाय को सरकार का समर्थन बड़ा कारण बताया है। गिल्ड के अनुसार वहां की आर्मी के 3-कोर के कमांडर ने उसे पत्र लिखकर बताया कि स्थानीय मीडिया एक पक्षीय रिपोर्टिंग कर रहा है, जिससे उपद्रव भड़क रहा है। आरोप जांच में सही पाया गया। आर्मी ही नहीं देश की शीर्ष कोर्ट को भी वही शंका है, जो गिल्ड की टीम ने अपनी जांच में पाई है। फिर ऐसे में मुख्यमंत्री का वरिष्ठ पत्रकारों को देश-विरोधी बताना सत्ता में बैठे लोगों की एक खास किस्म की मानसिकता बताता है। यह मानसिकता है सरकार, सत्ताधारी दल, देश और राष्ट्र प्रेम को एक ही मानकर चलना । यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें सरकार या पार्टी की आलोचना हुई तो वह स्वतः देश और राष्ट्र-विरोध माना जाएगा। वरना एक मुख्यमंत्री को इतनी शक्ति कहां से आती कि वह आरोपों के जवाब देने की जगह मीडिया के लोगों पर जानबूझ कर झूठे तथ्यों को उजागर कर किसी समुदाय को भड़काने वाली दफाओं में मुकदमा करवाए ?
वैश्विक परिवर्तन का सूत्रधार बनता भारत
श्रीराम चौलिया, ( लेखक जिंदल स्कूल आफ इंटरनेशनल अफेयर्स में प्रोफेसर और डीन हैं )
आगामी 9-10 सितंबर को नई दिल्ली में आयोजित होने वाले जी-20 शिखर सम्मेलन पर समूचे विश्व की निगाह लगी है। जी-20 के सदस्यों सहित कुल मिलाकर 43 देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के प्रतिनिधि इस महत्वपूर्ण सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत आ रहे हैं। यह पिछले 17 जी-20 शिखरों के मुकाबले नया कीर्तिमान है। भारत में इतनी बड़ी संख्या में अंतरराष्ट्रीय समुदाय का एकत्रित होना संयोग की बात नहीं है। यह मेजबान देश द्वारा वैश्विक शासन-संचालन के प्रति निष्ठा और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान हेतु प्रतिबद्धता को दर्शाता है। पिछले वर्ष दिसंबर में जबसे भारत ने जी-20 का नेतृत्व संभाला तबसे देश के 28 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 60 से अधिक शहरों में 220 बैठकें आयोजित हो चुकी हैं। समूह के समक्ष विषयों में व्यापकता और विषयवस्तु में गहराई के लिए भारत ने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
विभिन्न देशों में जी-20 प्रक्रिया का अनुभव करने वाले राजनयिकों एवं विशेषज्ञों का मानना है कि बहुपक्षीय कूटनीति में जान फूंकने का श्रेय भारत के परिश्रम और लगन को दिया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि भारत ने ऐसे नाजुक दौर में वैश्विक नेतृत्व और समन्वय की बागडोर संभाली है, जब बहुपक्षवाद की सफलता पर ही सवाल उठने लगे थे। बढ़ते भू-राजनीतिक तनाव और कड़वाहट के चलते विभिन्न देशों का एकजुट होकर साझा हितों और विश्व कल्याण के लिए कार्य करना दुर्लभ होता जा रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने मार्च में जी-20 के विदेश मंत्रियों की बैठक में चेताया भी था कि ‘बहुपक्षवाद संकट की स्थिति में है’ और ‘वैश्विक शासन विफल हो गया है।’
भारत की जी-20 अध्यक्षता ने विशेष रूप से बहुपक्षवाद को अधिक समावेशी और सहभागी बनाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में बहुपक्षवाद की धारा के प्रति विश्वास को नए सिरे से बहाल किया है। जी-20 का विस्तार करके 55 देशों वाले अफ्रीकी संघ को स्थायी सदस्यता देने की भारत की पहल ने यह उम्मीद जगाई है कि ‘कुलीन बहुपक्षवाद’ को ‘न्यायसंगत बहुपक्षवाद’ में परिवर्तित किया जा सकता है। जी-20 देशों की आंतरिक औपचारिक बैठकों की शुरुआत से पहले ही भारत ने 125 अल्पविकसित देशों का ‘वैश्विक दक्षिण की आवाज’ के नाम से शिखर सम्मेलन बुलाया और उन वंचित देशों के परामर्श के आधार पर जी-20 की कार्यसूची बनाई। भारत की अध्यक्षता के अंतर्गत वित्तीय ऋण, महंगाई, खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा उपलब्धता, डिजिटल और जलवायु न्याय जैसे विकासशील जगत के अहम सरोकारों को जी-20 के मुख्य एजेंडे में शामिल करने और उन पर यथासंभव सहमति बनाने का प्रयास हुआ।
बीते दिनों एक कार्यक्रम में मैंने विदेश मंत्री एस. जयशंकर से पूछा कि क्या भारत ने जी-20 के विकसित सदस्य देशों में पिछड़े देशों की आशाओं एवं आकांक्षाओं के बारे में समानुभूति उत्पन्न की तो उन्होंने कहा कि ‘हमारा प्रयास यह है कि अमीर देशों को दिखाएं कि परस्पर जुड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था में गरीब राष्ट्रों के उद्धार में ही अमीरों का फायदा है।’ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का यही आशय भी है। विकसित देश ‘सतत विकास’ और ‘सामाजिक न्याय’ की बातें तो करते हैं, लेकिन यह भारत ही है, जिसने उन पर दबाव डाला है कि वे जी-20 के माध्यम से आवश्यक संसाधन प्रदान करने की दिशा में आगे बढ़ें, ताकि ‘सबका विकास’ एक स्वप्न मात्र न रह जाए।
जी-20 की अध्यक्षता करने वाला देश सदस्य देशों के बीच आम सहमति और संयुक्त बयान के लिए बहुत मेहनत करता है। इस संबंध में भारत को ‘ग्लोबल नार्थ’ और ‘ग्लोबल साउथ’ के साथ-साथ ‘भू-राजनीतिक पश्चिम’ और ‘भू-राजनीतिक पूर्व’ के बीच पुल-निर्माता की भूमिका निभाने की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है। रूस और पश्चिमी शक्तियों के बीच यूक्रेन युद्ध से जुड़ी तल्खी और चीन द्वारा जी-20 में खलल डालने की मंशा से चिंता के बादल मंडरा रहे हैं। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग दोनों की नई दिल्ली जी-20 शिखर सम्मेलन में अनुपस्थिति यही संकेत करती है कि दरार और फासले आसानी से मिटने वाले नहीं। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी का रुख सराहनीय है। उन्होंने जी-20 सदस्यों से अप्रासंगिक द्विपक्षीय भू-राजनीतिक मुद्दों को अलग रखने और टकराव के मुद्दों पर मिलकर काम करने का आग्रह किया है। भारत ने जी-20 की अध्यक्षता के तहत बुनियादी विकास संबंधी मामलों में व्यावहारिकता और विवेक की भावना के प्रवर्तन का प्रयास किया है, ताकि कुछ विशेषाधिकार प्राप्त शक्तियों के सत्ता समीकरणों के खेल की कीमत समग्र वैश्विक परिवार को न चुकानी पड़े।
सवाल केवल भारत के जी-20 शिखर सम्मेलन के सफलतापूर्वक आयोजन का नहीं, बल्कि जी-20 जैसी संस्था की प्रासंगिकता और समस्याओं को सुलझाने की क्षमता का भी है। गत वर्ष जी-20 अध्यक्षता के दौरान इंडोनेशिया ने स्वयं को भू-राजनीतिक चक्रव्यूह में फंसा हुआ महसूस किया था और बाली में आयोजित शिखर सम्मेलन में अंतिम क्षणों तक साझा बयान को लेकर अनिश्चितता रही। भारत के पास सहमति बनाने की दो राह हैं। पहली यह कि जी-20 सदस्यों में अधिकांश के साथ हमारे मजबूत संबंध और सामरिक-आर्थिक साझेदारी है। पश्चिमी देशों और रूस, दोनों के साथ भारत के मित्रतापूर्ण संबंधों की बदौलत उन्हें मनाया जा सकता है कि हमारी मेजबानी का सम्मान रखना उनका कर्तव्य है। अन्यथा जी-20 में उनके खराब रवैये से भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। हमारे तरकश में दूसरा तीर विकासशील देशों का है, जिनके हितों के विपरीत अगर चीन या पश्चिमी देश जाएंगे तो वे ‘ग्लोबल साउथ’ के नेतृत्व के हकदार कदापि नहीं बन सकते। भारत के विकास केंद्रित जी-20 एजेंडे में अगर कुछ देश खेल बिगाड़ने वाले बन गए तो उनकी नैतिक छवि और विकासशील जगत में कारोबार एवं निवेश पर खासा असर होगा। जी-20 जैसे विविधता भरे अंतरराष्ट्रीय समूह में सौदेबाजी और मध्यस्थता तो अनिवार्य है। भारत के पास सकारात्मक परिणामों के लिहाज से पर्याप्त कूटनीतिक पूंजी है। भारत की अध्यक्षता ने जी-20 की दशा-दिशा और प्राथमिकताओं को बदलने का निश्चय किया है। इस संकल्प को सिद्धि में परिवर्तित करना असंभव नहीं।
Date:08-09-23
व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत
संपादकीय
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से जी-20 शिखर बैठक के पहले विभिन्न देशों और सरकारों के प्रमुखों, मुख्यमंत्रियों आदि को आधिकारिक भोज में शामिल होने के लिए अंग्रेजी में जो निमंत्रण पत्र भेजा गया उसने देश के नाम को लेकर एक अनावश्यक विवाद उत्पन्न कर दिया। विपक्ष का मानना है कि सरकार ने देश का हिंदी नाम चुनकर विपक्ष को नीचा दिखाने का प्रयास किया। उनका कहना है कि ऐसा इसलिए किया गया कि 26 दलों के विपक्षी गठबंधन के पूरे नाम का संक्षिप्त रूप ‘इंडिया’ है। इसका उद्देश्य चाहे जो भी हो लेकिन देश का नाम लिखने की स्थापित परंपरा से इस प्रकार दूरी बनाने को लेकर सरकार की ओर से स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए भी किया जाना चाहिए कि इस विषय में कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की गई और न ही कोई अधिसूचना जारी की गई। इसके लिए जो समय चुना गया उस पर भी कई सवाल हैं। अब तक देश के ‘अंतरराष्ट्रीय’ और ‘घरेलू’ नामों को लेकर कोई मुद्दा कभी नहीं था। ये नाम संवैधानिक प्रावधानों से उपजे हुए हैं। भारत के संविधान के मूल अंग्रेजी संस्करण के पहले अनुच्छेद के पहले खंड में कहा गया है, ‘इंडिया जो कि भारत है, वह राज्यों का एक संघ होगा।’
सन 1987 में 58वें संविधान संशोधन के बाद राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि संविधान का हिंदी संस्करण प्रकाशित किया जा सके। इसके पहले अनुच्छेद में कहा गया है, ‘भारत जो कि इंडिया है।’ यहां भारत शब्द पर जोर दिया गया है। हिंदी संस्करण से कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता है क्योंकि भारतीयों ने यह स्वीकार कर लिया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर तथा आधिकारिक भाषा यानी अंग्रेजी में प्रकाशित होने वाले सरकार के प्रकाशनों में देश को इंडिया कहा जाएगा जबकि हिंदी प्रकाशनों में भारत नाम इस्तेमाल किया जाएगा। आम से आम भारतीयों को भी इसे अपनाने में कभी कोई कठिनाई नहीं हुई। राष्ट्रगान गाते समय ‘भारत’ का यशगान किया जाता है जबकि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं में ‘इंडिया’ का समर्थन किया जाता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद सात दशकों के समय में ‘इंडिया’ ने ही देश की वैश्विक पहचान को आकार दिया है। वैश्विक स्तर पर अपनी शक्ति को प्रस्तुत करने को उत्सुक सरकार को यह बात स्वीकार करनी ही चाहिए। निश्चित रूप से जी-20 की अध्यक्षता को व्यापक तौर पर एक ऐसे मंच के रूप में देखा जाता है जहां यह आकांक्षा पूरी करने में मदद मिल सकती है। यह भी संभव है कि मौजूदा सरकार देश को इंडिया नाम की तुलना में कहीं अधिक स्वदेशी पहचान देने के लिए उत्सुक हो। इंडिया शब्द की बात करें तो इसका पहला इस्तेमाल ग्रीक लोगों ने किया, उसके बाद पश्चिम एशिया के व्यापारियों ने भारतीय उपमहाद्वीप यानी इंडस (सिंधु) नदी के पूर्व में रहने वालों को इंडियन कहा। यह कोई अभिनव आकांक्षा नहीं है। कई देशों ने औपनिवेशिक अतीत को खारिज करने के लिए अपना नाम बदला। श्रीलंका (पुराना नाम सीलोन), जिंबाब्वे (रोडेशिया), मलावी (न्यासालैंड), बुरकीना फासो (अपर वोल्टा) आदि इसके उदाहरण हैं। इसके साथ ही कई देशों के अपने स्थानीय नाम भी हैं जो अंतरराष्ट्रीय नामों से अलग हैं- डॉयचेलैंड (जर्मनी), आयर (आयरलैंड), मिस्र (इजिप्ट) और झोंगगुओ (चीन) इसके उदाहरण हैं।
इसी प्रकार भारत नाम के कई स्वरूप भी देश की अलग-अलग भाषाओं में इस्तेमाल किए जाते हैं। इसके साथ ही सैकड़ों ऐसे समुदाय और अल्पसंख्यक भी हैं जिनके लिए भारत शब्द शायद वही सांस्कृतिक ध्वनि न उत्पन्न करता हो। इसके विपरीत यह बाहरी अर्थ समेटे भी हो सकता है। इंडिया और भारत का दोहरा नाम एक सुखद द्वयर्थक समेटे है। आधिकारिक तौर पर देश का नाम बदलने के लिए भारत/इंडिया जैसे बहुसांस्कृतिक देश में एक व्यापक मशविरे की मांग करेगा। आखिर में, एक प्रश्न जरूरत का भी है। इंडिया से बदलकर भारत नाम करने से ऐसे कई अहम मुद्दे हल नहीं होंगे जिन पर सरकार को अधिक ध्यान देना चाहिए।
Date:08-09-23
सहयोग का सफर
संपादकीय
दक्षिण एशियाई देशों के संगठन आसियान-भारत के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने एक बेहतर ग्रह बनाने के लिए विभिन्न देशों के नेताओं के साथ मिल कर काम करने का संकल्प दोहराया। भारत इस सम्मेलन का सह-अध्यक्ष है। इसके ठीक बाद भारत की अध्यक्षता में दिल्ली में जी-20 का शिखर सम्मेलन होने जा रहा है। उसका घोष वाक्य भी वसुधैव कुटुंबकम यानी पूरा विश्व एक परिवार है। आसियान के साथ भारत का संबंध पूरब के साथ मिल कर काम करने और आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बनाने के संकल्प से जुड़ा हुआ है। दरअसल, विकसित कहे जाने वाले देश जिस तरह दुनिया पर अपना आर्थिक एकाधिकार जमाने की रणनीति बनाते रहे हैं, उसमें विकासशील और अविकसित देशों की क्षेत्रीय पहचान पर भी संकट गहराता गया है। ऐसे में दक्षिण पूर्व एशिया के देशों ने अपनी आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने और एकजुटता कायम करने के मकसद से यह संगठन बनाया था। शीतयुद्ध समाप्त होने के बाद इसके सदस्यों की संख्या निरंतर बढ़ती गई और अब ये देश व्यापारिक दृष्टि से खासी अहमियत हासिल कर चुके हैं। आसियान के साथ भारत का जुड़ाव न केवल व्यापारिक मकसद से, बल्कि पूर्वोत्तर में संतुलन साधने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
आसियान और जी-20 में भारत की स्थिति कई मामलों में निर्णायक है। ऐसा इसलिए भी कि दक्षिण एशिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जो विकासशील और विकसित देशों के बीच मजबूत सेतु का काम करता है। हालांकि आसियान के पूर्वी संगठन से चीन और रूस के भी जुड़ाव हैं, मगर जो भूमिका भारत निभा पाता है, वह इन दो देशों से अपेक्षित नहीं है। इसके दस मूल सदस्य देशों इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रुनेई, विएतनाम, लाओस, म्यांमा और कंबोडिया भी आर्थिक महाशक्तियों का वैसा ही दबाव महसूस करते रहे हैं, जैसा कि भारत पर वे बनाने का प्रयास करते हैं भारत के साथ आसियान देशों की निकटता इसलिए भी है कि इनका आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक ताना-बाना काफी मेल खाता है और भारत न केवल उनकी व्यापारिक गतिविधियों, बल्कि क्षेत्रीय अस्मिता को भी पोसने में मदद करता रहा है। इन देशों के साथ भारत के कुल विश्व व्यापार का दस फीसद से ऊपर व्यापार होता है और वह इन देशों को ग्यारह फीसद से अधिक निर्यात करता है। आसियान दुनिया का तेजी से उभरता बड़ा उपभोक्ता बाजार है। चीन और भारत के बाद यहां दुनिया की सबसे बड़ी श्रमशक्ति है। अगले कुछ सालों में यह दुनिया की चौथी आर्थिक शक्ति बनने की राह पर है। ऐसे में भारत की उससे निकटता आर्थिक बेहतरी की नई संभावनाएं पैदा करती है।
आसियान में भारत की महत्त्वपूर्ण होती गई भूमिका एक तरह से चीन, रूस और अमेरिका जैसे देशों के लिए संकेत भी है कि वह बाहरी बाजार के लिए उन पर निर्भर नहीं रहेगा। मगर आसियान का उद्देश्य आर्थिक महाशक्तियों को इस तरह चुनौती देना नहीं, बल्कि उन्नत राष्ट्रों के साथ रिश्तों को मजबूत बनाना और शांतिपूर्ण ढंग से मतभेदों को दूर करना है। इसीलिए आसियान के आनुषंगिक मंचों से रूस, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों को भी जोड़ा गया। पूर्वोत्तर में जिस तरह चीन की दखल बनी रहती है, उसमें आसियान के जरिए उस पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिलती रही है। प्रधानमंत्री ने एक बार फिर आसियान के मंच से यही संदेश दिया कि आपसी मतभेदों को शांतिपूर्ण तरीके से निपटाया जाना चाहिए।
Date:08-09-23
भारत ठीक पर…
संपादकीय
नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश के नाम को लेकर दशकों पुराने द्वैधा खत्म कर दिया है। वह अब ‘भारत’ के रूप में अद्वैत हो गया है। इसके साथ, संविधान के अनुच्छेद- एक का प्रारंभिक वाक्य ‘इंडिया, दैट इज भारत….’ सदा के लिए बदल दिया है। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि संविधान में प्रथम अध्याय में अंकित उस प्रथम वक्तव्य का क्रम बदल कर ‘भारत, दैट इज इंडिया…” लिखा जाएगा अथवा केवल ‘यह जो भारत है.. कुछ ऐसा लिखा जाएगा। हालांकि सरकार ने जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी में राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए भोज के न्योते से इसकी बाकायदा शुरुआत की है। इससे सत्ता पक्ष के साथ देश-समाज के उन तबकों को गर्व हुआ है, जो इंडिया शब्द में गुलामी की गंध देखते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे। दरअसल, अपने देश का नाम यहां आने वाले अपनी समझ और हिज्जे से बदलते रहे हैं। आर्यावर्त/ भारतवर्ष देश सिंधु नदी के किनारे होने के कारण बाहर से आने वालों की बोली में इसके निवासी हिंदू हुए और यह स्थान हिंदवी, हिंदुस्तान हुआ। यूरोपीयन आए तो उनके उच्चारण में यह हिंदवी, हिंडिया होते हुए इंडिया के रूप में स्थापित हो गया। सरकार ने नाम सुधार कर संविधान सभा में मिली पराजय को जय में बदल कर ठीक किया है। ‘भारत’ के पक्ष में एचवी कामथ, मौ. हसरत मोहानी, कमलापति त्रिपाठी और हरगोविंद पंत काफी मुखर थे। किंतु अम्बेडकर और नेहरू का पलड़ा भारी रहा, जो मोहानी के शब्दों में ‘इंडिया दैट ‘इज भारत’ पर पहले से मन बना चुके थे। नतीजा, भारत इंडिया का पिछलग्गू बना रह गया। दरअसल, नेहरू, जो भारतवासी होते हुए भी ‘भारत की तरफ पश्चिम के रास्ते से आए थे, उन्हें अपने अतीत का बड़ा हिस्सा अंधकारमय लगता था और यूरोप सब लिहाज से प्रगतिशील व आधुनिक लगता था । अम्बेडकर भी पश्चिम से पढ़े-लिखे थे, उन्हें अंग्रेजी भारतीय दासता से मुक्ति का एक अचूक औजार लगती थी। भारत के पक्षकार इतने से खुश हो गए कि कैसे भी “भारत’ का जिक्र तो हो गया। पर देश का बड़ा तबका विरोध में है। इसलिए इसकी टाइमिंग ठीक नहीं है। उसमें विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ नाम और से खौफ अधिक दिख रहा है इतिहास-क्रम दुरुस्त करने का गौरव कम सरकार ने विहित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है। संविधान सभा के निर्णय में एक लोकतांत्रिकता थी।
फिर चर्चा में वही इंडिया जो भारत है
रामकृपाल सिंह, ( वरिष्ठ पत्रकार )
अब लोग पूछने लगे हैं, क्या देश का नाम बदल रहा है? असल में, लोकतंत्र में लोगों को ही यह ताकत हासिल है कि वे सहमति से अपने देश का नाम बदल सकते हैं। हालांकि, स्पष्ट रूप से नाम बदलने का कोई आधिकारिक विचार सामने नहीं आया है, पर हां, संविधान के तहत नाम बदला जा सकता है। नाम बदलने पर रोक नहीं है, इसके लिए संविधान संशोधन पर रोक नहीं है। देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने, जो राज्यसभा के सदस्य भी हैं, एक भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने यहां तक कहा था कि मूलभूत ढांचा नाम की कोई चीज संविधान में नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने यह बात प्रतिपादित की थी और इसे भी चुनौती दी जा सकती है।
व्यापक जनहित में अगर किसी चीज को रखना है या किसी चीज को हटाना है, तो यह बिल्कुल संभव है। आपातकाल के दौरान ही संविधान की प्रस्तावना में ‘सेकुलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़े गए थे। यह अलग सवाल है कि आज सरकार का क्या उद्देश्य है? यह जरूरी है भी या नहीं? मगर कोई भी जीवंत लोकतंत्र अपना भविष्य गढ़ने के लिए संविधान में बदलाव कर सकता है। मूल मकसद तो जन-कल्याण ही होना चाहिए, ताकि आम लोगों का समावेशी विकास हो। कानून किसी और मकसद से नहीं बनाए जाते हैं।
यह तो सभी लोग जानते हैं कि भारत शब्द हमेशा से रहा है। ‘मास’ या आम जन के लिए भारत और ‘क्लास’ अर्थात खास लोगों के लिए इंडिया शब्द मोटे तौर पर इस्तेमाल होता आया है। इंडिया शब्द संविधान में भी है, तो उससे किसी को परहेज नहीं है। दुनिया इंडिया को बड़े पैमाने पर जानती है, जबकि भारत शब्द देश में ज्यादा इस्तेमाल होता है। वैसे एक दर्जन से ज्यादा देश हैं, जिन्होंने अपने नाम बदले हैं, जैसे हाल के वर्षों में हॉलैंड ने अपना नाम नीदरलैंड कर लिया।
सवाल यह है कि अभी का जो विवाद है, उसमें सरकार की ओर से कोई बात नहीं कही गई है। पार्टी के लोग अपनी-अपनी बात रख रहे हैं। केंद्र सरकार का रुख अभी तक नहीं पता है, आने वाले विशेष सत्र में शायद कोई बात सामने आए। माना जा रहा है कि बेंगलुरु में जो ‘इंडिया’ नामक का विपक्षी समूह बना, उसके बाद ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ कहने पर निश्चित रूप से विवाद उठना था। विपक्ष ने अपने लिए जो नाम चुना है और जिस तरह से जी-20 का निमंत्रण गया है, विवाद स्वाभाविक था। इस पर पक्ष-विपक्ष में राजनीति भी स्वाभाविक है। अब इस विवाद का जल्दी पटाक्षेप होता है या आगामी चुनाव तक यह विषय चलता रहेगा, कहना मुश्किल है। विशेष सत्र में इस पर क्या होगा या कुछ नहीं होगा, यह भी कहना मुश्किल है। शायद यह मुद्दा अगले किसी बड़े विषय तक चलता रहेगा।
ध्यान रहे, प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले से एक बात कही थी, अनेक शब्द इस देश में गुलामी के प्रतीक हैं, जिनसे हम पूरी तरह से उबरे नहीं हैं। हालांकि, इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि देश में नाम बदलने के लिए बड़ा अभियान चल गया हो। हां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशा भारत शब्द का इस्तेमाल विभिन्न स्तरों पर बढ़ाने की लग रही है और वह यह भी चाहते हैं कि इस विषय की जानकारी रखने वाले लोग ही इस विषय पर उचित बात रखें।
यह लोगों पर भी निर्भर करेगा कि इस विषय पर कब तक और कितनी चर्चा होती है। फिलहाल एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि क्या विशेष सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पारित किया जाएगा? यह विषय तो नाम बदलने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह विधेयक यूपीए सरकार में ही राज्यसभा से पारित हो चुका था, पर लोकसभा में नहीं आ पाया, क्योंकि लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने विरोध किया था, ये दोनों मनमोहन सिंह सरकार के समर्थक थे। भाजपा, कांग्रेस तब भी पक्ष में थी। सरकार चाहे, तो विशेष सत्र इसके लिए अच्छा मौका हो सकता है। देश में महिलाओं के सशक्तीकरण का यह बहुत बड़ा काम हो जाता।
बहरहाल, महिला आरक्षण पर अभी तो कोई चर्चा नहीं है। भारत बनाम इंडिया विवाद हावी हो गया है, पता नहीं, मूल मुद्दे उठेंगे या नेपथ्य में चले जाएंगे। यह बात किससे छिपी है कि न कांग्रेस को कभी भारत से परहेज रहा और न भाजपा ने कभी इंडिया शब्द छोड़ा है। वर्तमान सरकार के समय ही न जाने कितनी योजनाओं और अभियानों के नाम के साथ इंडिया शब्द जुड़ा हुआ है, जैसे ‘खेलो इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, मेक इन इंडिया’ इत्यादि। इंडिया के प्रति भाजपा का यह रुख कभी नहीं रहा कि इस शब्द से निजात पाने के लिए कोई प्रयास किए जाएं। वैसे, यह मांग पुरानी है।
ध्यान रहे, मुलायम सिंह यादव जब मुख्यमंत्री थे, तब उत्तर प्रदेश की विधानसभा में बाकायदा एक प्रस्ताव पारित हुआ था, देश के नाम से इंडिया को हटाकर भारत किया जाएगा। हालांकि, यह अधिकार राज्य सरकार को नहीं है, लेकिन मुलायम सिंह यादव तब हिंदी को लेकर बहुत सक्रिय थे।
दरअसल, केंद्र सरकार को ज्यादा स्पष्टता के साथ विवाद का पटाक्षेप करना चाहिए। लोगों को बेवजह चर्चा का मौका क्यों दिया जाए? एक और बात गौर करने की है कि जब संविधान का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद किया गया, तब इंडिया की जगह भारत शब्द का इस्तेमाल हर जगह किया गया। तमिल हो या माराठी, हर जगह पहले भारत और बाद में इंडिया आता है। भारत शब्द कहीं से भी उपेक्षित नहीं है।
अफसोस, बहुत से लोग हैं, जो नाम की राजनीति का लाभ लेना चाहते हैं, यह प्रशंसनीय नहीं है। इंतजार करना चाहिए। अभी केवल एक निमंत्रण पत्र पर भारत लिख देने भर से किसी नतीजे पर नहीं पहुंच जाना चाहिए। न कोई इंडिया को हटाने की बात कर रहा है और न कोई भारत को छोड़ने की चर्चा कर रहा है। नाम के फेर में काम की बातें नजरंदाज नहीं होनी चाहिए और इस वक्त देश में काम की बहुत बातें हैं। यह बात भी देखने की है कि अगर चुनाव न होता, तो यह मुद्दा भी नहीं होता और विपक्ष भी इतना मुखर न होता।
फिलहाल, विवाद का असर है कि इंडिया में रहने वाला भारत से और भारत में रहने वाला इंडिया से और ज्यादा परिचित हो रहा है। समय बदल रहा है। कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाटक है बकरी, जिसमें संवाद है,’हम देश में नहीं रहित हुजूर गांव में रहित है’जिस महिला पात्र ने यह कहा था, शायद वह भी अब देश में रहने लगी है, देश का नाम अच्छे से जानने लगी है। शायद हर बहस से देश कुछ सीखता है।