08-07-2020 (Important News Clippings)

Afeias
08 Jul 2020
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Date:08-07-20

Destructive Measure

Haryana aims to reserve 75% jobs for locals. It’s wrong for the economy, undermines national unity

TOI Editorials

Haryana emerged as one of India’s economic success stories this century, driven largely by the emergence of the Gurgaon-Manesar belt as an economic dynamo. On Monday, however, the state’s BJP-led coalition government led by chief minister Manohar Lal Khattar turned the clock back, by deciding to promulgate an ordinance to reserve 75% of fresh private sector jobs for locals. It’s a self-destructive move. Haryana’s recent economic dynamism owes much to its ability to attract talent from across the country. Erecting barriers to labour mobility will deter investment and creation of jobs.

The outline of the proposed ordinance indicates it will apply to jobs with a monthly pay below Rs 50,000 and firms that employ more than 10 people. Based on India’s experience with similar byzantine laws, it will likely facilitate corruption and create another barrier to ease of doing business. Moreover, using a populist tool such as 75% reservation is really an admission of government failure. Inability to skill youth adequately is sought to be overcome through self-defeating policies.

It’s indefensible for state governments to be invested in GST, which was all about dismantling fiscal barriers, then put up obstacles to labour mobility. Given that Haryana has a BJP CM, it’s also inconsistent with the party’s stand on hollowing out Article 370 which gave residents of erstwhile J&K special privileges. Erecting barriers to labour mobility by states like Haryana and Andhra Pradesh undermines national unity. It’s not too late to step back. Job reservation for locals will not enhance their economic opportunities. Raising the standard of education and skilling youth entering the job market is the only durable way to increase the size of the economic pie. Haryana shouldn’t go ahead with reservations.


Date:08-07-20

End Of A Dream

Kuwait’s indigenisation drive points to impending return of migrants from Gulf — there will be challenges on both sides

Editorial

Kuwait’s move to reduce the share of expatriates in its workforce has deepened the spectre of an exodus of Indians from the Gulf. A draft Bill in the National Assembly has proposed that the percentage of Indian citizens in Kuwait should not exceed 15 per cent of its population — nearly 8 lakh Indians may have to leave Kuwait.

The possibility of a migrant exodus from West Asia is not new. Many countries in the Gulf region have been trying to replace expats in their workforce with locals. Saudi Arabia launched nitaqat — a Saudisation scheme which introduced quotas in the workforce — in 2011. Recently, Oman had proposed a phased reduction of expats in its workforce. Expat workers flocked to Gulf countries to build and run those economies following the oil boom in the 1960s and ’70s. They were welcomed mainly because the local population lacked the necessary skills, or the will, to meet the needs of the new economy. The Subcontinent was a major beneficiary of this economic boom as it exported both skilled and unskilled workers. Kerala, for instance, built on its historic relations with the region to plug in to the Gulf economy. Remittances from the Gulf boosted the Kerala economy, even funding its welfare net, while also helping to check unemployment in the state. There are many pockets in India that have benefited similarly from the Gulf economy. Even before the pandemic, two main factors seemed to be driving a change in this symbiotic relationship that has lasted nearly five decades and benefited both regions. One, the national economies in the Gulf are slowing down, forcing companies to lay off people. Two, these countries now host a large indigenous population in the working-age segment that needs jobs. With no economic revival in sight, these nations may have to reduce dependency on expat workers and enforce quotas in the private sector to provide jobs to local youths.

While the nationalisation of the workforce is an ambitious project, it is doubtful if the emirates, with small populations and even smaller pools of skilled workers, can keep the largely consumption-driven economies afloat without expat workers. Saudi Arabia’s experience is instructive. However, states such as Kerala are gearing to address the influx of migrant workers from the Gulf. Last week, it announced Dream Kerala, a project to support the returning workers, to augment the existing welfare measures for NRIs. Over 1.5 lakh people have returned from the Gulf countries after the outbreak of COVID-19, of which close to 70,000 have lost jobs. The challenge is enormous and can only get bigger in the coming months.


Date:08-07-20

राजकोषीय मोर्चे पर सजगता बरतने के शुरुआती संकेत

ए के भट्टाचार्य

चालू वित्त वर्ष के पहले दो महीनों में केंद्र सरकार की राजस्व एवं व्यय स्थिति के बारे में जारी अस्थायी आंकड़े वर्ष 2020-21 के बाकी महीनों में सरकारी वित्त के समक्ष आने वाली तनावपूर्ण चुनौतियों को काफी स्पष्टता से पेश करते हैं। ये चुनौतियां राजकोषीय घाटे में खासी बढ़ोतरी की वजह से और बढ़ेंगी। बजट में राजकोषीय घाटे के सकल घरेलू उत्पाद का 3.5 फीसदी रहने का लक्ष्य रखा गया था।

लेकिन राजकोषीय चुनौती की प्रकृति को इन अस्थायी आंकड़ों में बीजरूप में मौजूद सूचनाओं के अध्ययन से कहीं बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। इन आंकड़ों से उधारी में वृद्धि के वास्तविक स्तर, बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए अब तक किए गए सरकारी प्रयासों और प्रतिकूल प्रभाव का सामना कर रहे राजस्व क्षेत्र एवं लगभग ठप हो चुके सरकारी व्यय के विशिष्ट क्षेत्रों के बारे में अधिक जानकारी मिलती है। इन घटनाओं से संबंधित पांच प्रवृत्तियां गौर करने लायक हैं।

पहली, अप्रैल-मई 2020 में सरकार का राजकोषीय घाटा या इसकी कुल उधारी करीब 4.66 लाख करोड़ रुपये रही जो इस साल के बजट लक्ष्य 7.69 करोड़ रुपये का करीब 59 फीसदी है। अगर वित्त वर्ष 2019-20 के पहले दो महीनों की उधारी से तुलना करें तो इस साल सरकारी उधारी में 27 फीसदी की तेजी दर्ज की गई है।

इस फिसलन को एक और तरह से देखा जा सकता है। सरकार ने पहले से ही अपने उधारी के बजट लक्ष्य को 7.96 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 12 लाख करोड़ रुपये करने की घोषणा कर रखी है। इस हिसाब से पहले दो महीनों में उधारी बढ़े हुए उधारी स्तर का महज 39 फीसदी ही है। यह पुराने बजट लक्ष्य के 59 फीसदी आंकड़े से तो बेहतर ही है। तमाम व्यावहारिक कारणों से अब बजट में जताए गए अनुमान पर टिके रहना अप्रासंगिक हो चुका है।

वर्ष 2019-20 के पहले दो महीनों में सरकार की कुल उधारी या राजकोषीय घाटा बजट में घोषित अनुमान का 52 फीसदी था। लेकिन पिछले साल के 9.35 लाख करोड़ रुपये के वास्तविक घाटा आंकड़ों से तुलना करें तो इन दो महीनों में घाटा 48 फीसदी ही रहा था। अधिक उधारी जुटाने के फैसले को देखते हुए इस साल के उधारी आंकड़ों में अधिक विचलन नहीं दिखता है। आने वाले महीनों में इसकी वजह से थोड़ी राहत मिल सकती है।

दूसरी, वर्ष 2020-21 के पहले दो महीनों में घाटे की भरपाई के स्रोतों पर फौरी नजर डालें तो बाह्य वित्त संसाधनों पर सरकार की निर्भरता में तीव्र वृद्धि दिखाई देती है। वर्ष 2019-20 की समूची अवधि में बाह्य वित्त 11,600 करोड़ रुपये ही था। लेकिन इस साल के पहले दो महीनों में ही सरकार 29,000 करोड़ रुपये की उधारी बाहर से जुटा चुकी है। बाह्य उधारी में यह वृद्धि राष्ट्रीय लघु बचत कोष से लिए गए 53,000 करोड़ रुपये की उधारी से इतर है जिसका पहले बजट में जिक्र भी नहीं था।

तीसरी, अप्रैल-मई 2020 के दौरान सरकार की प्राप्तियों पर कर एवं गैर-कर दोनों ही तरह के राजस्वों में कमी के कारण असर पड़ा है। इस दौरान सकल कर राजस्व 1.26 लाख करोड़ रुपये रहने का अनुमान है जो पिछले साल की समान अवधि में जुटाए गए कर से 41 फीसदी कम है। इन महीनों में कोविड-19 का प्रसार होने और उस पर काबू पाने के लिए देश भर में लगाए गए लॉकडाउन का कर राजस्व पर प्रतिकूल असर देखा गया है।

अप्रैल-मई अवधि में गैर-कर राजस्व में तो 62 फीसदी की और भी बड़ी गिरावट दर्ज की गई है। पिछले साल इसी अवधि में 28,423 करोड़ रुपये गैर-कर राजस्व जुटाया गया था लेकिन इस बार यह सिर्फ 10,817 करोड़ रुपये रहा है। इसी तरह गैर-ऋण पूंजी प्राप्तियां (विनिवेश से होने वाली आय भी शामिल) 73 फीसदी की जबरदस्त गिरावट के साथ 831 करोड़ रुपये रही हैं। विनिवेश पर 2.1 लाख करोड़ रुपये का राजस्व निर्भर होने से गैर-ऋण पूंजी प्राप्ति में इतनी बड़ी गिरावट आना निश्चित रूप से चिंता का सबब है।

चौथी, वित्त वर्ष के पहले दो महीनों में सरकार का कुल व्यय 5.12 करोड़ रुपये रहा है जो पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 0.22 फीसदी की मामूली गिरावट दिखाता है। हालांकि इस दौरान सरकार का पूंजीगत व्यय 16 फीसदी बढ़कर 55,206 करोड़ रुपये हो गया। इसका राजस्व व्यय 1.85 फीसदी की गिरावट के साथ 4.57 लाख करोड़ रुपये रहा। लेकिन राजस्व व्यय के मदों पर गौर करें तो महामारी से निपटने के लिए सरकार के नजरिये में बदलाव भी दिखेगा।

मसलन, सरकार का कृषि, सहकारिता एवं किसान कल्याण विभागों पर व्यय अप्रैल-मई 2020 में 89 फीसदी की जोरदार उछाल के साथ 30,580 करोड़ रुपये रहा है। ग्रामीण विकास (मनरेगा के तहत रोजगार देने के लिए) पर व्यय 131 फीसदी की जबरदस्त बढ़त के साथ 59,612 करोड़ रुपये रहा। इस दौरान पशुधन, डेयरी एवं मत्स्यपालन पर व्यय 446 फीसदी वृद्धि (295 करोड़ रुपये), स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण में 39 फीसदी वृद्धि (16,878 करोड़ रुपये) और श्रम विभाग पर व्यय 345 फीसदी बढ़कर 1,501 करोड़ रुपये रहा।

सड़क एवं राजमार्ग पर व्यय में भी खासी तेजी देखी गई है। पिछले साल की समान अवधि में महज 328 करोड़ रुपये रहा व्यय इस बार 12,636 करोड़ रुपये हो गया है। इन विभागीय खर्चों में वृद्धि का यह मतलब है कि महामारी के दौरान स्वास्थ्य एवं कल्याण योजनाओं से किसी तरह नहीं जुड़े विभागों के व्यय में भारी कटौती हुई है।

अंत में, खाद्य, उर्वरक एवं पेट्रोलियम उत्पादों पर दी जाने वाली भारी सब्सिडी पर सरकार का व्यय 41 फीसदी गिरकर 67,469 करोड़ रुपये पर आ गया। इसकी बड़ी वजह यह है कि कच्चे तेल के दामों में गिरावट का रुख रहा लेकिन यह बढ़त अस्थायी हो सकती है।

भविष्य में सरकार के राजकोषीय प्रबंधन की राह चुनौतियों से भरपूर रह सकती है। पहले दो महीनों के रुझान यही बताते हैं कि सरकार को सजग रहने की जरूरत है।


Date:08-07-20

बढ़ती आबादी का संकट

संजय दुबे

ऐसा अनुमान है कि आज से तकरीबन दस हजार साल पहले धरती पर कुछ लाख लोग ही थे। और अठारहवीं सदी के आखिर में धरती पर इंसान की आबादी सौ करोड़ तक जा पहुंची थी। लेकिन 1920 में यह आंकडा दो सौ करोड़ यानी दो अरब तक जा पहुंचा। धरती पर आबादी बढ़ने का यह एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण कालखंड माना जाता है। आज दुनिया की आबादी सात अरब से ज्यादा हो चुकी है और 2050 तक इसके दस अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक 1990 से 2010 के बीच दुनिया की आबादी तीस फीसद बढ़ी है। इसमें सबसे बड़ा योगदान भारत और चीन का है। इस अवधि में भारत में पैंतीस करोड़ और चीन में बीस करोड़ लोग बढ़े। हालांकि तेजी से बढ़ती आबादी और इससे होने वाली समस्याओं को लेकर भारत की सरकार अब गंभीर दिख रही है। राज्य सभा में बीते सत्र में सात फरवरी को शिवसेना के एक सासंद ने संविधान संशोधन का प्रस्ताव रखा था, जिसमें कहा गया कि राज्य को छोटे परिवारों को विशेष रियायत देनी चाहिए। जो परिवार ‘हम दो, हमारे दो’ को मानें उसे कर, रोजगार, शिक्षा जैसी सरकारी सुविधाओं में सहूलियतें मिलनी चाहिए। अगर कोई परिवार इसे नहीं मानें, तब उसकी सरकारी रियायतें वापस ले लेनी चाहिए।

भारत जनसंख्या नियंत्रण को 1951 में राष्ट्रीय अभियान बनाने वाला दुनिया का पहला देश था। लेकिन जिस तेजी से हमारी आबादी बढ़ रही है, उसे देख कर लग रहा है कि इस अभियान में हमें जरा सफलता नहीं मिली। जनसंख्या नियंत्रण का यह अभियान अगर सफल हो जाता तो देश कई गंभीर समस्याओं से पार पा सकता था। पूरी दुनिया में 1960 के आसपास ही बढ़ती आबादी को गंभीरता से लेना शुरू किया। आज जिन देशों ने जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम में सफलता हासिल कर ली है और अपने देश की आबादी को नियंत्रित किया है, उसके मूल में बढ़ती जनसंख्या के खतरों की बात थी। इस चेतना का नतीजा आज वैश्विक स्तर पर दिखता भी है, क्योंकि उस समय जन्मदर प्रति महिला चार-पांच बच्चों की थी, वहीं आज यह दो से तीन बच्चे प्रति महिला पर आ चुकी है।

दरअसल माल्थस के सिंद्वात के अनुसार जनसंख्या हर पच्चीस वर्ष में लगभग दुगुनी हो जाती है। जिसकी वजह से एक से दो, दो से चार और चार से फिर आठ के अनुपात में वृद्वि होना है। जबकि इसके सापेक्ष विकास दर क्रमश: एक से दो, दो से तीन और फिर तीन से चार प्रतिशत होती है। हालांकि इस तर्क से ज्यादातर विद्वान सहमत नहीं हैं। फिर भी यह सच है कि जनसंख्या, हमेशा आर्थिक वृद्वि की दर से ज्यादा होती है। ऑस्ट्रेलिया  के एडिलेड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक अगर दो अरब लोगों की एक साथ मौत हो या सभी चीन की एक संतान नीति पर चलें, तब भी दुनिया की आबादी 2100 के आते-आते ग्यारह अरब हो ही जाएगी।

जनसंख्या को नियंत्रित करने में सबसे बड़ी भूमिका प्रजनन दर की होती है। इसका 2.1 के आसपास होने का मतलब होता है कि आबादी स्थिर रहेगी। इससे ज्यादा होना इसके बढ़ने का संकेत है। इसका सीधा संबंध महिला शिक्षा से भी है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया की पैंतीस फीसद महिलाओं ने अपनी आखिरी संतान को नहीं चाहा था। भारत के दक्षिणी राज्य जो उत्तर-पूर्वी हिस्से से ज्यादा शिक्षा में आगे हैं, वहां की प्रजनन दर इसी के आसपास है। जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा में यह चार से भी ज्यादा है। मतलब साफ है कि अगर हमने जनसंख्या नियंत्रण पर अब नहीं सोचा तो काफी देर हो जाएगी और कई तरह के गंभीर संकटों का सामना करना पड़ेगा। आज भारत की आबादी एक सौ तीस करोड़ के लगभग है और चीन की एक सौ चालीस करोड़। अगले दशक के अंत तक भारत डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाला देश हो जाएगा और अगले दो दशकों यानी 2050 तक यह आंकड़ा एक सौ छियासठ करोड़ हो जाएगा। दूसरी ओर, चीन में 2030 तक आबादी स्थिर रहेगी और फिर उसके बाद धीमी गति से कम होना शुरू हो होगी।

आबादी बढ़ने का सीधा संबध गरीबी से है। गरीब और श्रमिक वर्ग के लिए यह उनकी जीविका का माध्यम भी है, यानी गरीब यह मानकर चलता है कि ‘जितने हाथ, उतनी आमदनी’। एक सीमा तक तो यह सच भी प्रतीत होता है, पर यह अस्थायी होता है। जितनी आय यह परिवार कमा रहा होता है, उससे कहीं ज्यादा खर्च कर रहा होता है। मसलन शादी, ब्याह, बीमारी, मृत्यु संबंधी संस्कारों और इनसे जुड़ी सामाजिक परंपराओं को निभाने के कारण यह तबका प्राय: कर्ज में डूबा रहता है। ऐसे में कोई गरीब परिवार शिक्षा जैसे बुनियादी मसले पर क्या और कैसे सोचे, यह बड़ा सवाल है। इसका नतीजा यह होता है कि घर के बच्चे शिक्षा तक से महरूम रह जाते हैं और आने वाली पीढ़ी के लिए विकास के दरवाजे बंद हो जाते हैं।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के नतीजों पर गौर करें तो पाएंगे कि गरीबी को बनाए रखने में शिक्षा, स्वास्थ्य की बड़ी भूमिका है। इन सबके बावजूद जनसंख्या का देश के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान भी होता है, बशर्ते उसका समुचित और सही उपयोग हो। हर मनुष्य को कम से कम औसत आयु तक साफ हवा, पानी, अनाज, इलाज, शिक्षा की जरूरत होती है। ऐसे में किसी भी देश का सबसे बड़ा और पहला उत्तरदायित्व यही है कि वह इन विषयों पर नीतियां बनाए। भारत जैसे देश के लिए यह और महत्त्वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि आस्ट्रेलिया जैसे देश की आबादी हर साल भारत में जुड़ जाती है। आबादी के बड़े हिस्से को अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए आज भी कतारबद्व होना पड़ता है। तमाम प्रयास के बावजूद हम हर नागरिक को पहचान संबधी दस्तावेज तक पहुंचाने की स्थिति में नहीं है। हर विकसित देश ने पहले अपनी आबादी के हिसाब से प्राथमिकता तय की और फिर उनकी जरूरतों के अनुरूप वहां आर्थिक सुरक्षा ढांचे का निर्माण किया। इसके साथ ही गुणवत्तापरक शिक्षा, आवश्यक स्वास्थ्य सेवा ढांचा, सामाजिक सुरक्षा दायित्व, परिवहन और आवास, ऊर्जा उपभोग जैसे बुनियादी तत्वों को देखते हुए नीतियों का निर्माण किया। इसीलिए वहां सुनियोजित विकास हुआ। चीन को ही देखें, पिछले ढाई दशक से वहां की आर्थिक विकास दर की रफ्तार दो अंकों की रही है। इसके पीछे कोई चमत्कार जैसी बात नहीं, ठोस नीतियों का निर्माण है।

देश को अगर बढ़ती आबादी से बचाना है तो हमें कुछ क्षेत्रों में बहुत तेजी से काम करने होंगे। स्थिर जनसंख्या के सिद्वांत को अपनाने के लिए हमें फिलहाल ज्यादा प्रजनन दर वाले राज्यों पर ध्यान केंद्रित करना होगा और प्रजनन दर में कमी लानी होगी। लोगों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करानी होंगी। यहां भी हम पाते हैं कि जिन राज्यों में प्रजनन दर स्थिर है, वहां अस्पताल में उपलब्ध बिस्तरों की संख्या भी पर्याप्त है। जबकि ज्यादा प्रजनन दर वालें राज्यों में ये कम है। खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ाना होगा। स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति सुनिचित करनी होगी। शहरी ढांचे को और बेहतर बनाना होगा। सबको घर उपलब्ध कराना होगा। आबादी पर काबू पाने के लिए देश में कानूनों के साथ ही व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने की भी जरूरत है। जनता को शिक्षा, जागरूकता, मनोरंजन के जरिए जनसंख्या वृद्वि के नुकसान बताने की जरूरत है। सिर्फ कानून बना देने से ही इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिलती। इसे हम देश के दक्षिणी राज्यों से भी सीख सकते हैं।


Date:08-07-20

अमेरिका में विदेशी छात्र

संपादकीय

कोरोना महामारी ने अमेरिकी समाज और उसके शासन से जुडे़ कई मिथकों को ध्वस्त किया है। अमेरिका की केंद्रीय आव्रजन संस्था ‘इमिग्रेशन ऐंड कस्टम्स एनफोर्समेंट’ (आईसीई) का ताजा फैसला इसका नया उदाहरण है। आईसीई ने सोमवार को फरमान सुनाया कि अमेरिका में पढ़ रहे उन तमाम विदेशी छात्रों को देश छोड़ना पड़ेगा, जिनकी यूनिवर्सिटी ने आगामी सेमेस्टरों में ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था मुकम्मल कर ली है। यदि इसके बावजूद कोई छात्र अमेरिका में टिका रहा, तो उसे जबरन बाहर किया जाएगा। जाहिर है, इस फैसले का असर लाखों विदेशी विद्यार्थियों पर पडे़गा। खासकर भारत और चीन के छात्र इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे, क्योंकि सबसे ज्यादा इन्हीं दोनों देशों के विद्यार्थियों की तादाद है। यही नहीं, उन हजारों विद्यार्थियों के आगे भी फिलहाल अनिश्चितता की स्थिति पैदा हो गई है, जो सितंबर से नए अकादमिक-सत्र में भाग लेने के लिए अमेरिका पहुंचने वाले थे।

इसमें कोई दोराय नहीं कि इस महामारी से निपटने में प्रशासनिक कमियों को लेकर अमेरिकी समाज में अंदरखाने काफी उबाल है। जल्द ही वहां राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में, ट्रंप प्रशासन अमेरिकी अवाम को अब यह दिखाना चाहता है कि उसे सिर्फ उनका ख्याल है। महामारी के बाद वह वीजा नियमों में कई बदलाव कर चुका है। मगर हकीकत यह है कि दुनिया में सबसे अधिक जान-माल का नुकसान उठाने के बावजूद अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठानों में कोरोना से निपटने को लेकर अब भी समन्वय की भारी कमी है। रिपब्लिकन और डेमोक्रेट महामारी के सवाल पर आज भी अलग-अलग नजरिया रखते हैं। चिकित्सा विशेषज्ञ लगातार आगाह कर रहे हैं कि अमेरिका की स्थिति बेहद गंभीर है, और यह महामारी के बीचोबीच खड़ा है, पर राष्ट्रपति ट्रंप के बेहद करीबी लोग ही संक्रमण से बचाव के मान्य उपायों का मजाक उड़ाते फिर रहे हैं। वे मास्क पहनने की अनिवार्यता की भी खिल्ली उड़ाने से बाज नहीं आ रहे, जबकि ठोस नजीर सामने हैं कि जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों ने कैसे मास्क और फिजिकल डिस्टेंसिंग के जरिए इस घातक वायरस के प्रसार को काबू करने में सफलता पाई है। मगर सच्ची कोशिश और प्रतीकात्मक लड़ाई अमेरिकी समाज के दोहरेपन को अक्सर दुनिया के सामने ले आती रही है। कोरोना महामारी ने एक बार फिर इसे उजागर कर दिया है।

ठीक है, हर सरकार अपने नागरिकों के हितों का ख्याल सबसे ऊपर रखती है, पर उसका यह भी फर्ज है कि अपनी भौगोलिक सीमा में दूसरे देशों के बाशिंदों के मानव अधिकारों की भी वह रक्षा करे। वैसे भी, ये विद्यार्थी शरणार्थी नहीं हैं, जिन्हें अमूमन हर देश एक बोझ समझता है। ये वे विद्यार्थी हैं, जिनसे अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने मोटी फीस वसूली है। एक ऐसे वक्त में, जब अंतरराष्ट्रीय सरहदें बंद हैं, तमाम उड़ानें रद्द हैं, ट्रंप प्रशासन को इन विदेशी छात्रों को उनके मुल्क तक सुरक्षित पहुंचाने की व्यवस्था करनी चाहिए। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उच्च शिक्षा उद्योग का अच्छा-खासा योगदान है। उसे सालाना करीब 37 अरब डॉलर की कमाई इससे हो रही है। मुश्किल समय के ऐसे आचरण भावी विद्यार्थियों को उससे विमुख भी कर सकते हैं। बहरहाल, इस नई स्थिति में देशों और सरकारों के लिए भी एक सबक है, अपने यहां ज्यादा से ज्यादा विश्व-स्तरीय संस्थान खड़े कीजिए।