08-06-2017 (Important News Clippings)

Afeias
08 Jun 2017
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Date:08-06-17

Farmers revolt

India’s farm distress needs structural solutions, quick fixes such as loan waivers won’t do

All of a sudden it seems to be Kashmir in Madhya Pradesh: at least five protesters shot dead in Mandsaur district, prohibitory orders and internet shutdowns enforced. The difference is that MP’s turmoil is not the outcome of a political protest led by separatists but rather an economic protest led by farmers; ironically, in a state often upheld by BJP as a model of agricultural progress. Elsewhere, in neighbouring Maharashtra, far-off Tamil Nadu or other states, farmers are seething with discontent – despite a normal monsoon last year and robust produce.

This is testimony to the deep-seated crisis in India’s agricultural economy and must serve as a wake-up call to the Centre as well as state governments. The usual populist fixes – such as farm loan waivers – is not going to defuse this crisis. Rather, policy makers must now remove the structural bottlenecks in India’s farm economy. Agriculture supports more than half of India’s population but makes up just 15% of its economic activity. It follows that holistic solutions to farmer distress will have to combine creation of non-farm jobs and enhancement of farm incomes.

A bird’s eye view of agriculture points to an anomaly. Around 77% of farmland is devoted to staples such as cereals. This results in output almost equivalent to what high value crops such as fruits and vegetables yield on less than 20% of the land. Rectifying this mismatch will solve many problems. This is where government policy has a crucial role to play. The Indian farmer has to function in an overregulated environment made worse by capricious bans on exports. This is compounded by restrictions on internal food trade, unfounded fear of new technology such as genetically modified crops and the new bogey that has coincided with the unchecked rise of gau rakshaks: restrictions on cattle trade.

States have a crucial role to play here as they make policy on marketing of high value perishables such as fruits. For example, when Karnataka took the initiative a couple of years ago by creating an online marketplace and breaking the grip of vested interests, there was marked increase in prices received by farmers. Better designed farm insurance policies which provide timely relief can mitigate adverse climatic impacts. A combination of lighter and smarter regulation and improvements in areas such as insurance will make a critical difference.


Date:08-06-17

बिजली क्षेत्र की दिक्कतें क्या कम हुई हैं उदय से!

कुछ सकारात्मक संकेत अवश्य मिले हैं लेकिन स्पष्ट तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि इससे कोई बड़ा सकारात्मक अंतर आया है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं आनंद पी गुप्ता

बीस नवंबर 2015 को तत्कालीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना (उदय) पेश की थी ताकि राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की वित्तीय स्थिति और परिचालन किफायत में सुधार लाया जा सके। इसके लिए कुछ आकलित उपाय अपनाए जाने थे। सबसे पहले, इनके समेकित तकनीकी और वाणिज्यिक (एटीऐंडसी) घाटे को वर्ष 2018-19 तक कम करके 15 फीसदी पर लाना है और दूसरा औसत आपूर्ति लागत (एसीएस) और औसत राजस्व प्राप्ति (एआरआर) के बीच के अंतर को वर्ष 2018-19 तक शून्य पर लाना है।
सरकार ने कई तरह के हस्तक्षेप तैयार किए ताकि इन नतीजों को हासिल किया जा सके। इनमें शामिल हैं: (अ) राज्य सरकार 30 सितंबर 2015 तक के डिस्कॉम के कुल ऋण का 75 फीसदी दो वर्ष की अवधि में वहन करेगी। वर्ष 2015-16 के लिए 50 फीसदी और 2016-17 के लिए 25 फीसदी। (ब) व्यापक आईईसी (सूचना, शिक्षा और संचार) अभियान की मदद से बिजली चोरी पकड़ी जाएगी और (स) टैरिफ की तिमाही समीक्षा की जाएगी खासतौर पर ईंधन कीमतों के मद्देनजर।
क्या उदय से अंतर आया है? 
उदय की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक कुल 268,778.21 करोड़ रुपये मूल्य के बॉन्ड में से 232,500 करोड़ रुपये मूल्य के बॉन्ड जारी किए गए हैं। यह देखते हुए कि इन आंकड़ों में 27 राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों में से 11 के आंकड़े शामिल नहीं हैं क्योंकि उन्होंने उदय का विकल्प नहीं चुना है और यह भी कि 268,778.21 करोड़ रुपये की राशि डिस्कॉम के कुल कर्ज का महज 75 फीसदी समेटती है वह भी बचे हुए 16 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश में। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि सितंबर 2015 तक इन कंपनियों का औसत कर्ज करीब 8 लाख करोड़ रुपये रहा होगा। यह राशि जीडीपी के 5.86 फीसदी के बराबर है।
यह पूरी गड़बड़ी का केवल एक हिस्सा है। दूसरे हिस्से में बिजली उत्पादन क्षमता के कम इस्तेमाल, डिस्कॉम द्वारा पर्याप्त बिजली नहीं खरीदना आदि शामिल हैं। ऐसा नहीं है कि बिजली की मांग नहीं है बल्कि उनकी कमजोर वित्तीय स्थिति उनको ऐसा नहीं करने देती। इसकी नतीजा कटौती के रूप में सामने आता है। मांग ज्यादा होने के कारण कई स्थानों पर डिस्कॉम के इस रवैये का जवाब कैप्टिव पावर प्लांट के रूप में सामने आ रहा है। ग्रिड की बिजली उपलब्ध नहीं होने पर कैप्टिव पावर प्लांट का प्रयोग किया जा रहा है। यह सिलसिला कई वर्षों से चल रहा है। सरकार को उम्मीद है कि एटीऐंडसी के घाटे को वर्ष 2018-19 तक 15 फीसदी तक लाने और एसीएस-एआरआर के अंतर को उस अवधि तक घटाकर शून्य करने के बाद डिस्कॉम जरूरत के मुताबिक बिजली खरीदनी शुरू कर देंगी और लोड शेडिंग बंद हो जाएगी। इस तरह उपभोक्ताओं की पूरी जरूरत ग्रिड की बिजली से ही पूरी हो जाएगी। अब यह योजना 18 माह पुरानी हो चुकी है। क्या कोई अंतर आया है? क्या चीजें सरकार के मनमुताबिक हो रही हैं? क्या एटीऐंडसी नुकसान में कोई कमी आई है? क्या एसीएस-एआरआर का अंतर कम हुआ है? क्या डिस्कॉम अतिरिक्त बिजली खरीद रही हैं? क्या कटौती में कमी आई है? क्या कैप्टिव पावर की मांग कम हुई है?
क्या एटीऐंडसी नुकसान में कोई कमी आई है?
उदय का लक्ष्य एटीऐंडसी नुकसान को वर्ष 2018-19 तक कम करके 15 फीसदी पर लाने का था। यह कैसे होगा? इसके लिए एक व्यापक आईईसी अभियान चलाना होगा जो बिजली चोरी की व्यापक हो चली समस्या का निराकरण कर सके। इस अभियान के 31 दिसंबर 2016 तक पूरा होने की उम्मीद थी। आखिर यह डिजाइन किसने तैयार किया था और इस अभियान को किसने संभाला? आईईसी अभियसान और एटीऐंडसी के नुकसान के बीच क्या संबंध हैं?
उदय की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक सितंबर 2016 तक 16 राज्यों का एटीऐंडसी नुकसान औसतन 23.98 फीसदी था। परंतु यह नुकसान दिसंबर 2016 तक 22 राज्यों के लिए औसतन 19.95 फीसदी रहा। इसका अर्थ यह हुआ कि महज तीन महीने में इन नुकसान में 4.03 फीसदी तक की कमी आई। इससे एक संकेत यह मिलता है कि सरकार ने एटीऐंडसी नुकसान को 15 फीसदी करने का लक्ष्य 2018-19 से काफी पहले अभी ही हासिल कर लिया। एटीऐंडसी नुकसान में इतनी अधिक कमी कैसे आई? क्या ऐसा आईईसी अभियान की वजह से हुआ? ऐसा कोई संकेत नहीं मिल सका है।
क्या एसीएस-एआरआर का अंतर कम हुआ है? 
सितंबर 2016 तक 16 राज्यों में यह अंतर प्रति यूनिट 67 पैसे था। परंतु दिसंबर 2016 तक 22 राज्यों में यह अंतर 48 पैसे प्रति यूनिट था। यानी तीन महीने में प्रति यूनिट महज 19 पैसे का अंतर आया। इस कमी का कितना श्रेय राज्य सरकारों द्वारा डिस्कॉम के कर्ज का 75 फीसदी वहन करने को दिया जा सकता है और कितना अन्य हस्तक्षेपों को?
क्या डिस्कॉम ज्यादा बिजली खरीद रही हैं? 
उदय की वेबसाइट पर इस प्रश्न का कोई जवाब नहीं है। लेकिन टाटा पावर के एमडी अनिल सरदाना ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था, ‘उदय ने डिस्कॉम को मदद की है और भुगतान में सुधार हुआ है लेकिन सबसे बड़ी चुनौती अब भी बरकरार है। वह है बिजली की खरीद। डिस्कॉम अभी भी बिजली खरीदने की उत्सुक नहीं दिख रहीं।’ऐसा क्यों है? क्या उदय योजना देश की डिस्कॉम को वित्तीय रूप से व्यवहार्य बनाने के अपने घोषित लक्ष्य को हासिल कर पाएगी ताकि वे देश के सार्वजनिक संसाधनों पर बोझ न बनें और उनको बार-बार उबारना न पड़े। निश्चित तौर पर कुछ सकारात्मक संकेत हैं लेकिन समुचित प्रमाण अब भी नहीं है। इसलिए स्पष्टï तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि उदय ने एक सकारात्मक अंतर पैदा किया ही है। अभी कुछ देर तक प्रतीक्षा करनी होगी उसके बाद ही उदय के असर के बारे में कोई ठोस बात कही जा सकती है।
(लेखक भारतीय प्रबंध संस्थान, अहमदाबाद में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके हैं। )

Date:08-06-17

कर्ज माफी का रास्ता

मध्य प्रदेश के मंदसौर में कर्ज माफी के साथ उपज के उचित मूल्य की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे किसानों पर गोलीबारी में छह लोगों की मौत के बाद कथित किसान हितैषी नेता अपने रुख-रवैये पर विचार करें तो बेहतर है। उन्हें किसानों को भड़काकर राजनीतिक रोटियां सेंकने से बाज आना चाहिए। इन किसानों की मौत के लिए केवल पुलिस-प्रशासन को जिम्मेदार बताना समस्या का सरलीकरण करना है। राज्य सरकार की मानें तो गोली पुलिस ने नहीं चलाई, लेकिन यह पता लगाना उसका ही दायित्व है कि यह काम किसने किया? पता नहीं यह जांच कब तक पूरी होगी, लेकिन यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि यह किसान आंदोलन को अराजकता के रास्ते पर ले जाने का ही नतीजा है कि छह किसानों की जान चली गई और कई गंभीर रूप से घायल हो गए। इसके पहले एक पुलिस कर्मी की आंख फूट गई थी। इसमें दो राय नहीं कि देश के किसान समस्याओं से घिरे हैं और उनका समाधान प्राथमिकता के आधार पर खोजने की जरूरत है, लेकिन अगर यह माना जा रहा कि कर्ज माफी ही उनकी समस्त समस्याओं का हल है तो यह सही नहीं। कर्ज माफी न तो बैंकों के लिए हितकारी है, न अर्थव्यवस्था के लिए और न ही खुद किसानों के लिए। कर्ज माफी किसानों को संकट से उबार सकने में किस तरह सक्षम नहीं, इसका पता इससे चल रहा है कि इन दिनों महाराष्ट्र के किसानों का एक वर्ग मध्य प्रदेश के किसानों की तरह से कर्ज माफ करने की मांग को लेकर सड़कों पर है। ये वही किसान हैं जिनके कर्जे संप्रग सरकार के समय माफ किए गए थे। बेहतर हो कि किसानों के कर्जे माफ करने की मुहिम छेड़ने वाले इस पर विचार करें कि क्या बार-बार कर्ज माफी संभव है? कोई भी सरकार हो वह बार-बार किसानों के कर्जे माफ नहीं कर सकती। रह-रह कर ऐसा करते रहने का मतलब है बैंकिंग व्यवस्था को ध्वस्त करना और कर्ज लेकर उसे न चुकाने वालों को प्रोत्साहित करना। कर्ज माफी उनके साथ एक तरह का छल है जो ईमानदारी से अपना कर्ज चुकाते हैं।
कर्ज माफी मुफ्तखोरी की संस्कृति को बढ़ावा देने के अलावा और कुछ नहीं। मध्य प्रदेश में करीब 90 हजार किसान ऐसे हैं जिन्होंने इस आस में कर्ज नहीं चुकाए हैं कि जल्द ही कर्ज माफी की घोषणा हो सकती है। ऐसी किसी घोषणा की उम्मीद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के स्पष्ट इन्कार के बावजूद की जा रही है। आखिर जब उन्होंने कृषि उपज को अधिक मूल्य पर खरीदने और एक लाख रुपये के कर्ज पर सिर्फ 90 हजार रुपये ही लौटाने की योजना लागू करने के साथ किसानों की कुछ अन्य मांगें मानने की घोषणा कर दी थी तब फिर इसका कोई औचित्य नहीं था कि किसान धरना-प्रदर्शन करते रहते? क्या मध्य प्रदेश के कथित किसान नेता इस धरना-प्रदर्शन के दौरान दिखाई गई अराजकता की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हैं? यह महज एक दुर्योग नहीं हो सकता कि जब उत्तर प्रदेश सरकार किसानों की कर्ज माफी की घोषणा पर अमल करने का रास्ता तलाशने में परेशान है तब मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के साथ कुछ अन्य राज्यों में किसानों के कर्ज माफ करने की मांग हो रही है।

 


Date:08-06-17

कारोबारी सुगमता की ओर बढ़ते कदम

हमारे लिए निश्चित ही यह हर्ष का विषय होना चाहिए कि कारोबार को आसान बनाने के मापदंडों पर मूल्यांकन करने वाले ख्यात वैश्विक संगठन ग्लोबल रिटेल डेवलपमेंट इंडेक्स (जीआरडीआई) द्वारा जारी शीर्ष-30 विकासशील देशों की रैंकिंग से संबंधित हालिया रिपोर्ट में भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए पहले स्थान पर काबिज है। यह रिपोर्ट इस दृष्टि से खास है कि इसमें न केवल उन बाजारों को शामिल किया गया है, जो आज आकर्षक हैं, बल्कि भावी संभावनाओं वाले बाजारों को भी स्थान दिया गया है। भारत के शीर्ष पर पहुंचने की जो वजह बताई गई है, उनमें उसकी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, आर्थिक सुधार, निवेश के नियमों में ढील, कालाधन नियंत्रण के प्रयास और खपत में तेजी प्रमुख है। तेजी से बढ़ते शहरीकरण और मध्यम वर्ग के लोगों की संख्या बढ़ने और आमदनी का स्तर ऊंचा होने से देश में खपत बढ़ रही है। इसी कारण भारत का खुदरा बाजार सालाना 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।

निश्चित रूप से हमारा देश पिछले तीन वर्षों में कारोबार में सुधार के विभिन्न् मापदंडों पर क्रमश: आगे बढ़ा है। केंद्र की मौजूदा सरकार ने आर्थिक सुधार, श्रम सुधार, बैंकिंग सुधार, कर सुधार की दिशा में तेजी से कदम आगे बढ़ाए हैं। सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि सरकार राजकोषीय अनुशासन बनाए रखने में सफल रही है। राजकोषीय घाटा 2016-17 में घटकर 3.5 फीसदी पर आ गया, जो वर्ष 2013-14 में 4.5 फीसदी था। कारोबार को गति देने के क्रम में पिछले तीन वर्षों में शेयर बाजार नई ऊंचाइयों पर पहुंचा है। तीन वर्ष में बेंचमार्क सूचकांक में 23 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। विनिर्माण और कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन बेहतर रहा है। देश में बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए सरकार ने कई क्षेत्रों में 100 फीसदी एफडीआई की मंजूरी दी है, इनमें नागरिक उड्डयन, फार्मा, डिफेंस और ब्रॉडकास्टिंग जैसे सेक्टर शामिल हैं।

वैश्विक कारोबार मापदंडों के परिप्रेक्ष्य में अर्थव्यवस्था को कालेधन से बचाना महत्वपूर्ण होता है। सरकार ने बीते तीन वर्षों में इस दिशा में भी कई सार्थक कदम उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में कालेधन पर विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया। बिचौलियों के बजाय सीधे लाभार्थी के खाते में सबसिडी जमा कराने के मद्देनजर 28.5 करोड़ जन-धन खाते खोले गए। इससे कालेधन में कमी आई है। कालेधन को स्वदेश लाने के लिए कालाधन एवं कराधान कानून-2015 लागू किया गया। वर्ष 2016 में अप्रैल-सितंबर के मध्य कालाधन बाहर निकलवाने के लिए घोषित स्कीम आईडीएस को पिछली ऐसी सभी योजनाओं की तुलना में रिकॉर्ड सफलता मिली। इसके बाद दिसंबर 2016 से मार्च 2017 तक आघोषित आय को घोषित करने के लिए प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना लागू की गई। इससे 4600 करोड़ रुपए सामने आए। सरकार ने कालाधन नियंत्रण हेतु कुछ और अहम कदम उठाए। रियल एस्टेट कारोबार में 20 हजार रुपए से अधिक के नकद लेनदेन पर जुर्माना तथा दो लाख रुपए से अधिक के नकद लेनदेन पर स्रोत पर कर संग्रह सुनिश्चित किया गया। राजनीतिक दलों को दो हजार रुपए से ज्यादा चंदा नकद देने पर पाबंदी लगाई गई। और सबसे बड़ा कदम तो पिछले साल नवंबर में नोटबंदी के रूप में उठाया गया।

कारोबार में सुगमता के लिए कर सुधार की बड़ी अहमियत है। लिहाजा, वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) को पारित कराना मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि कही जाएगी। जीएसटी से पूरे देश में किसी भी सामान की कीमत एक समान होगी। आगामी जुलाई से जीएसटी के लागू होने से राज्यों के बीच व्यापार बाधाओं को दूर करने में मदद मिलेगी। देश में टैक्स सिस्टम सरल हो जाएगा। जीएसटी के कारण भारत दुनिया के सबसे बड़े साझे बाजार के रूप में विकसित होगा। ऐसे में जीएसटी देश के लिए आर्थिक वरदान साबित होगा। देश के बैंकिंग तंत्र में करीब सात लाख करोड़ रुपए के फंसे हुए कर्ज (एनपीए) के मद्देनजर बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन का अध्यादेश भी मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि है। इससे एनपीए के निराकरण का प्रभावी रास्ता निकलेगा। इसी तरह दिवालिया कानून जैसा सुधार भी लाभप्रद है। देश की कारोबार रैंकिंग में उच्चता के लिए विदेशी निवेश (एफडीआई) में वृद्धि भी अहम कारक है। हाल ही में प्रकाशित अंकटाड की रिपोर्ट यह बताती है कि विदेशी निवेश के मोर्चे पर भारत का प्रदर्शन काफी सुधरा हैै। वर्ष 2013-14 में भारत का एफडीआई 21.6 अरब डॉलर था, जो 2016-17 में बढ़कर 43.8 अरब डॉलर तक पहुंच गया।

यद्यपि बीते तीन वर्षों में अंतरराष्ट्रीय हालात ने निजी कारोबार, निर्यात और रोजगार के मोर्चे पर बड़ी चुनौतियां खड़ी की हैं। वैश्विक सुस्ती और विकसित देशों की संरक्षणवादी नीति से निर्यात की डगर पर मुश्किलें बढ़ी हैं। ऐसी कुछ आर्थिक चुनौतियों के बावजूद निश्चित रूप से पिछले तीन वर्षों में देश ने कारोबार और आर्थिक सुधारों की डगर पर कदम आगे बढ़ाए हैं। यही कारण है कि न केवल जीआरडीआई की अध्ययन रिपोर्ट में कारोबार आसानी की बात प्रमाणित की गई है, वरन अन्य कई वैश्विक आर्थिक कारोबार मूल्यांकन एजेंसियों ने भी भारत के आगे बढ़ने की बात कही है। पिछले दिनों इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसी मूडीज ने वित्त वर्ष 2017 में भारत की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान बढ़ाकर 7.5 फीसदी कर दिया है। पहले उसने इसके 6.9 फीसदी रहने का अनुमान लगाया था। वहीं 2018 के लिए उसने इसे 7.5 फीसदी से बढ़ाकर 7.7 फीसदी कर दिया है।बहरहाल, कारोबारी सुगमता के लिहाज से भारत भले ही विकासशील देशों में सबसे आगे हो, पर अभी भी हम कई प्रमुख देशों से पीछे हैं। उद्योग-कारोबार सुगमता से संबंधित 189 देशों की विश्व बैंक रिपोर्ट-2016 में भारत 130वें पायदान पर है। वहीं इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर मैनेजमेंट डेवलपमेंट (आईएमडी) की विश्व प्रतिस्पर्धात्मकता सूची-2017 में भारत 45वें क्रम पर है। ऐसे में अभी वैश्विक स्तर पर कारोबार सुगमता के लिए कई कमियों और चुनौतियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। रोजगार, निर्यात व निजी निवेश बढ़ाने के कारगर प्रयास करने होंगे। भ्रष्टाचार नियंत्रित करना होगा। चूंकि अर्थव्यवस्था में फिलहाल सुस्ती है और मुद्रास्फीति में अभी भी अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है, अत: रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दरों में एक बड़ी आकर्षक कटौती की जाना जरूरी है ताकि कारोबार, निवेश और विकास दर में सुधार हो सके। मोदी सरकार की नीतियों से हमारा देश कारोबारी सुगमता के लिहाज से विकासशील देशों में पहले क्रम पर तो पहुंच गया है, लेकिन बात तभी बनेगी, जब हम इस मामले में दुनिया अग्रणी देशों में शुमार हों। इससे हमारी अर्थव्यवस्था को भी संबल मिलेगा।


Date:07-06-17

Building On Aadhaar

The project revealed that technology can solve many development challenges

My work on India’s unique identification project — named Aadhaar — began in July, 2009. I was invited by then-Indian Prime Minister Manmohan Singh to join the government and lead this project. At that point, I had worked for 28 years in Infosys. I had written about how getting every Indian a unique ID would be beneficial for the economy and society in my book Imagining India. Now I was being given a chance to actually implement the idea!

The Aadhaar project had two purposes. One was inclusion. Since the birth registration system was not robust enough, there were millions of people in the country with no birth certificates. So, a large number of people had no ID, or relied on a group ID like a ration card, or a voter ID that was only for adults. Having everyone on a single digital ID which could be verified anywhere in the country would be hugely useful for people as they migrated… or wanted to access their benefits or learn new skills. The second purpose was efficiency. As India built a welfare state with pensions, employment guarantees, scholarships, etc., it was deploying a large part of its budget to such social benefits. However, the lack of a proper ID system meant that in every welfare scheme, there were lots of ghost and duplicate beneficiaries…

The project faced several challenges. The first was how we establish uniqueness… This had to be done without most people having a “root” document like a birth certificate. It was decided that the only way to do so was by biometric deduplication. This meant taking a person’s biometric (in this case, the fingerprints of both hands and the iris prints of both eyes) and comparing them to the entire set to ensure a person was not in the database twice…

The second challenge was scale at speed. To cover a billion people, the system had to do more than one million enrolments a day. Moreover, it required at peak time more than 30,000 enrolment stations… Scale in the technology was achieved by using an internet class open source software-based architecture. Scale in enrolments was done by activating a whole network of registrars and enrolment agencies…

The third challenge was design for privacy and security. A lot of thought went into the design, to keep it minimalistic, to have secure encryption and the use of digital signatures.The final and most important challenge was executing such a large project in a complex political and bureaucratic environment…

The Aadhaar project had complete political support. The project was conceived, and implementation began, in the UPA government. The current government… has not only endorsed Aadhaar, it has accelerated its use and adoption. Today, over 1.1 billion Indian residents have an Aadhaar number. There are over 400 million people who have linked their Aadhaar number to a bank… An Aadhaar law has been passed with advanced data protection and privacy features…

The Aadhaar ID system has been designed like a platform of innovation, like the internet or GPS. Early signs are emerging of various innovative uses of the platform… This has been enabled by creating a set of layers above the JAM infrastructure, which allows presence-less and paperless applications.

A separate initiative of India’s national payment company, NPCI, has led to a advanced mobile-to-mobile payment platform called UPI (Unified Payment Interface) which will accelerate India’s move to a less cash economy…

This convinced me that several challenges in developing countries can be solved at speed and scale in a sustainable way, by using technology wisely, built in a way that society can take advantage. We call this building “societal platforms”. My wife Rohini and I are funding one such societal platform as a philanthropic initiative called EkStep to make learning opportunities widely available. Being selected for this very prestigious Nikkei Prize has reinvigorated our efforts to solve social challenges leveraging technology.

Nandan Nilekani The writer is former chairman, Unique Identification Authority of India. This article is an edited excerpt from his acceptance speech of the Nikkei Prize 2017 on June 4


Date:07-06-17

In a new orbit

ISRO lifts India into the elite group capable of putting heavier satellites into a precise orbit

The Indian Space Research Organisation has crossed a significant milestone with the successful developmental flight of the country’s heaviest Geosynchronous Satellite Launch Vehicle, the GSLV Mark-III. This is the first time a satellite weighing over 3.1 tonnes has been launched from India to reach the geostationary orbit about 36,000 km from Earth. The Mk-III can launch satellites weighing up to four tonnes, which almost doubles India’s current launch capacity. With communication satellites becoming heavier (up to six tonnes), the capability for larger payloads is vital. This can be done by switching over to electric propulsion for orbit rising and to keep the satellite in the right position and orientation in the orbit through its lifetime (that is, station keeping). The switch-over would reduce the weight of the vehicle as it can do away with nearly two tonnes of propellants and carry heavier satellites. Towards this end, ISRO has started testing electric propulsion in a small way; the South Asia Satellite (GSAT-9) that was launched last month used electric propulsion for station keeping. On Monday, an indigenously developed lithium-ion battery was used for the first time to power the satellite. Another key achievement is the use of an indigenously developed cryogenic stage, which uses liquid oxygen and liquid hydrogen; the 2010 GSLV launch using an indigenous cryogenic stage ended in failure. It can now be said without hesitation that India belongs to the elite club of countries that have mastered cryogenic technology. In the December 2014 experimental flight of the GSLV Mk-III, a passive cryogenic stage was used. Though the cryogenic stage was not meant to be ignited, the launch provided invaluable data on aerodynamic behaviour of the vehicle.

The Mark-III will be operational with the success of one more developmental flight, which is set to take place within a year. This will make India self-reliant in launching heavier satellites, bringing down costs substantially. Till now, heavier communication satellites have been launched on Europe’s Ariane rockets; in fact, ISRO will soon be using Ariane rockets to launch two of its heavier satellites. But as has been the case with lighter satellites, it is likely that other countries will soon turn to ISRO for the launch of heavier satellites at a lower cost. With fewer propulsion stages and, therefore, control systems, the Mk-III is far more reliable than the GSLV and the PSLV. Combined with its ability to carry eight to 10 tonnes into a low Earth orbit, the Mk-III can be considered for human-rating certification (to transport humans) once some design changes are made. Compared with the two-member crew capacity of the GSLV, the Mk-III can carry three astronauts and have more space to carry out experiments. The next developmental flight, therefore, will be crucial