08-05-2020 (Important News Clippings)
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Date:08-05-20
बना रहेगा सामूहिकता का भाव
डॉ. विजय अग्रवाल, (लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं)
कहते हैं कि जब चंडीगढ़ शहर बनकर तैयार हुआ तो उर्दू के शायर बशीर बद्र ने फरमाया- ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो तुम मिलोगे तपाक से। यह जरूरी जहनिनों (बुद्धिमानों) का शहर है, जरा फासले से मिला करो।’ फिलहाल कोरोना वायरस के संक्रमण के चलते पूरी दुनिया में ‘सोशल डिस्टेंसिंग का हल्ला है। हिंदी में इसे सामाजिक दूरी कहा-समझा गया, लेकिन वास्तव में बात शारीरिक दूरी यानी फिजिकल डिस्टेंसिंग की हो रही थी। यह अच्छा है कि धीरे-धीरे लोगों ने यह समझा कि सामाजिक नहीं, शारीरिक दूरी की बात हो रही है। बाद में प्रधानमंत्री ने भी दो गज देह की दूरी के तौर पर इसकी व्याख्या की और फिजिकल डिस्टेंसिंग शब्द का भी प्रयोग किया। कई बुद्धिजीवियों का मानना है कि शारीरिक दूरी का पालन हमेशा के लिए करना होगा। उनके मुताबिक लंबे लॉकडाउन ने लोगों के व्यवहार को इतना बदल दिया है कि फिजिकल डिस्टेंसिंग उनकी आदतों में शामिल हो गई है। इस आधार पर उनकी भविष्यवाणी है कि आने वाले वक्त में व्यापार, कला, मनोरंजन, खेल और जीवन की वे सभी विधाएं प्रभावित होंगी जिनमें लोग एक साथ एकत्र होते हैं। इसी आधार पर कुछ तो ‘समाज के अंत’ की आशंका जता रहे हैं। यह पहला अवसर नहीं है, जब इस तरह के किसी स्थापित स्वरूप के अंत की घोषणा की गई है। ऐसा पहले भी हुआ है और कई-कई क्षेत्रों के लिए हुआ है। बेहतर होगा कि हम अपने भविष्य को अतीत की खिड़की से झांककर समझने की एक छोटी-सी व्यावहारिक कोशिश करें।
विज्ञान द्वारा बढ़ाई गई जीवन की गति और मध्य वर्ग की तेजी से हो रही वृद्धि को देखते हुए अमेरिकी लेखक लेसली फिल्डर ने 20वीं सदी के उत्तरार्ध में ‘उपन्यास के अंत’ की घोषणा की थी। जर्मनी के थियोडोर अडोर्नो ने, जो एक समाजशास्त्री विचारक थे, ने कहा था कि हिटलर के यातना शिविरों के बाद कविता लिखना असंभव है। फ्रांस के रोलां बार्थ तो अपने समय की रचनात्मकता से इतने अधिक खिन्न थे कि उन्होंने सीधे-सीधे ‘लेखक की मृत्यु’ की ही घोषणा कर डाली थी। जब 1991 में सोवियत संघ 16 देशों में विभाजित हुआ तो अमेरिकी राजनीतिक विचारक फुकुयामा ने इसे समाजवादी विचारों की समाप्ति के संदर्भ में ‘इतिहास का अंत’ घोषित कर दिया था। इस तरह की घोषणाओं की एक लंबी सूची है। एक व्यावहारिक सवाल है कि आखिर इनमें से किसका अंत हुआ? तो क्या सामाजिक मेल-मिलाप का अंत हो जाएगा? आज से सैकड़ों साल पहले यूनान के महान दार्शनिक अरस्तू ने मनुष्य के स्वभाव का गहन अध्ययन करने के बाद घोषणा की थी कि मूल प्रवृत्ति के रूप में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मानव जाति की जंगली अवस्था से लकर वर्तमान वैश्वीकरण तक की यात्रा के केंद्र में उसकी यही मूल प्रवृत्ति निरंतर काम करती रही है। कुछ समाज, विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के यूरोपीय समाज युद्ध के विनाश से इतने हताश हुए कि उन्होंने अपने अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगाने की प्रक्रिया में स्वयं को शेष से काटकर अलग-थलग कर लिया। इस तरह के विचार को अस्तित्ववाद कहा गया, लेकिन इसकी जड़ें न तो ज्यादा जम पाईं और न ही फैल पाईं। फिर भी कुछ वर्ग-विशेष ने इस दर्शन को अपनाया। इसकी झलक अमेरिका, कनाड़ा एवं पश्चिमी यूरोप के देशों के विशेषकर नगरीय क्षेत्रों में देखी जा सकती है। इसके फलस्वरूप परिवार नामक मूलभूल इकाई तक बिखर गई और वहां के लोग जिस मानसिक विकारों का सामना कर रहे हैं उसे इन देशों के साहित्य और सिनेमा में बखूबी देखा जा सकता है।
जहां तक भारत का सवाल है, इसके डीएनए में ही सामूहिकता है, जिसे हम सर्वे भवंतु सुखिन: और वसुधैव कुटुंबकम जैसे वाक्यों में अनुभव कर सकते हैं। हमारे जीवन की शायद ही कोई प्रथा, परंपरा, उत्सव, विधान एकांतिकता में संपन्न होते हैं, सिवाय ध्यान के। हमने इसे जिया है और राजनीति एवं धर्म के सैकड़ों झंझावातों के बावजूद एक छोटे-से व्यवधान के बाद उसे पुनर्जीवित करके बनाए रखा है। सामूहिकता में जीना हमारे जीवन की कोई एक संरचना मात्र नहीं है, यह अपने-आप में हमारा जीवन ही है। जिन्हें लगता है कि अब सामूहिकता खत्म हो जाएगी उन्हें 1918 के स्पेनिश फ्लू के दौर के बारे में थोड़ा जानने की कोशिश करनी चाहिए। उस समय न तो चिकित्सा विज्ञान इतना आगे था और न ही अन्य वैज्ञानिक उपकरण, जितने कि आज हमारे पास हैं।
आज पूरी दुनिया कोरोना के टीके की खोज में जुटी हुई है, जिस क्षण यह टीका मिल जाएगा उसी क्षण डिस्टेंसिंग का अंत हो जाएगा, क्योंकि यह मनुष्य के मूल स्वभाव के एकदम खिलाफ है। या तो हम इस कोरोना वायरस के असर को खत्म कर देंगे या फिर अपने अंदर इसके साथ जीने की क्षमता पैदा कर लेंगे। हमने पहले भी ऐसा किया है और अभी भी ऐसा कर लेंगे। क्या कोरोना वायरस में इतनी शक्ति है कि वह हमारे जीवन की विराट एवं अदम्य जिजीविषा का दमन कर दे? अतिथि को देव मानने वाली चेतना क्या सच में मेहमान को घर में प्रवेश देने से इनकार कर सकेगी? ऐसा कुछ नहीं होगा। ऐसा होने की भविष्यवाणी तत्काल नकारात्मक स्थितियों से आक्रांत मानसिकता की प्रतिक्रिया से अधिक कुछ मालूम नहीं पड़ती। नि:संदेह आज फिजिकल डिस्टेंसिंग की आवश्यकता और उसकी पूर्ति की जानी चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि मानव जाति फीनिक्स पक्षी की तरह है, जो राख से पुनर्जीवित होकर उठने की क्षमता रखती है। यह क्षमता बनी रहेगी। मनुष्य पर अपना विश्वास बनाए रखें।
Date:08-05-20
आगे आएं अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान
अलग से मदरसा बोर्ड बनाने से कितना लाभ या हानि हुई, इस पर मुस्लिम समुदाय के प्रबुद्ध लोगों को विचार करना चाहिए।
जगमोहन सिंह राजपूत , (सामाजिक सद्भाव के लिए सक्रिय लेखक प्रख्यात शिक्षाविद् हैं)
सर्वोच्च न्यायालय ने 29 अप्रैल को मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में प्रवेश परीक्षा के संबंध में एक ऐसा निर्णय दिया जिससे यदि छेड़छाड़ न की गई और उसे सम्मानपूर्वक लागू किया जा सका तो उसका सकारात्मक प्रभाव न केवल शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ेगा, बल्कि उसका एक बड़ा योगदान भारत में सामाजिक सद्भाव और पंथिक सद्भावना को नई ऊंचाई देने में भी संभव होगा। संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों के लिए विशेष प्रावधान हैं। इसके तहत वे अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित कर उनका प्रबंधन कर सकते हैं। भारत में मेडिकल शिक्षा को लेकर जो अस्वीकार्य स्थितियां अनेक वर्ष चलती रहीं उनमें सुधार लाने, भ्रष्टाचार समाप्त करने और पारदर्शीता लाने के लिए अनेक प्रयास किए गए। इसी के तहत एक नई स्वायत्त संस्था की स्थापना की गई और उसे नीट यानी नेशनल एलिजिबिलिटी एंड एंट्रेंस टेस्ट आयोजित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। कुछ निजी अल्पसंख्यक संस्थान अनुच्छेद 30 का सहारा लेकर इस प्रवेश परीक्षा से बाहर रहना चाहते थे, जिसे सर्वोच्च न्यायलय ने इस बार स्वीकार नहीं किया, क्योंकि नीट का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों में प्रवेशार्थियों को प्रतिभा के आधार पर ही प्रवेश मिले। इस बारे में मैैं अपने कुछ अनुभव साझा करना चाहूंगा। 1993 में संसद के अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद यानी एनसीटीई की स्थापना शिक्षकों के प्रशिक्षण में गुणवत्ता लाने और उसके व्यापारीकरण को रोकने के उद्देश्य से की गई। यह संस्था 1997-98 में अनेक कम गुणवत्ता वाले पत्राचार पाठ्यक्रम नियंत्रित करनें में सफल रही। उसी समय बंबई विश्वविद्यालय ने अपने से संबंद्ध कॉलेजों के लिए बीएड प्रवेश परीक्षा आयोजित की। कुछ संबंद्ध महाविद्यालयों ने अनुच्छेद 30 के तहत यह आदेश ले आए कि अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लिए सामान्य व्यवस्था लागू नहीं होगी। परिणाम यह हुआ कि जो विद्यार्थी प्रवेश परीक्षा में असफल हो गए उनमें से अधिकांश अल्पसंख्यक समुदाय के नहीं थे, लेकिन वे इन महाविद्यालयों में प्रवेश पा गए।एनसीटीई के पहले अध्यक्ष के रूप में मैंने जाना कि बिहार में अल्पसंख्यक संस्थान खोलना अत्यंत सरल व्यवसाय माना जाता है। तब बीएड की डिग्रियां बिकती थीं। एनसीटीई ने इसका संज्ञान लिया और विसंगतियों को दूर किया। वास्तव में अनुच्छेद 30 के प्रावधान जिस ढंग से लागू किए गए उससे कम से कम मुस्लिम समुदाय को अपेक्षित लाभ नहीं हुआ। अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में से अधिकांश कम पढ़ाई और अधिक अंक देने के लिए जाने जाते हैं। इन संस्थानों ने समय के साथ अपनी साख और स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए आवश्यक प्रयास नहीं किए हैं।
अल्पसंख्यक समुदाय की शिक्षा से जुड़ी अनेक समस्याएं हैं। उनके समाधान के प्रयास सरकारें अपने-अपने ढंग से करती रही हैं, मगर समाज का आवश्यक उत्साह और सहयोग नहीं मिल पाता। मदरसों के आधुनिकीकरण को लेकर 2002-04 में केंद्रीय सरकार ने जो पहल की थी उसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सके। बाद के प्रयासों का भी यही हाल है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय केवल मेडिकल और डेंटल कॉलेज की प्रवेश परीक्षाओं के लिए है, लेकिन सभी अल्पसंख्यक संस्थाओं को उसमें निहित मूल भावना को स्वीकार करना चाहिए। मदरसों का भौतिक और शैक्षिक माहौल सुधारा जाए, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की जाए, बच्चों को वह सब शिक्षा दी जाए जो अन्य निजी और सरकारी संस्थान दे रहे हैं। दीनी तालीम उन्हेंं इसके साथ दी जा सकती है। अलग से मदरसा बोर्ड बनाने से कितना लाभ या हानि हुई, इस पर मुस्लिम समुदाय के प्रबुद्ध लोगों को पूर्वाग्रहों और राजनीतिक विचारधारा के बंधनों से मुक्त होकर विचार करना चाहिए। प्रवेश और नियुक्ति की प्रत्येक परीक्षा एक सी होनी चाहिए। आज भी बीएड की जो प्रवेश परीक्षा राज्यस्तर पर आयोजित होती है उससे अल्पसंख्यक संस्थान अपने को अलग रखते हैं। अध्यापकों की नियुक्तियों और सेवा शर्तों में भी मनमानी चलती है।इस स्थिति को अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान स्थापित करने वाले ही सुधार सकते हैं, यदि वे सामान्य संस्थानों पर लागू नियमों और अर्हताओं का पालन प्रारंभ कर दें। सर्वोच्च न्यायलय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा है कि अलग-अलग प्रवेश परीक्षाओं का उचित प्रभाव नहीं पड़ता। उनसे मेरिट, पारदर्शीता और स्वस्थ प्रतिस्पद्र्धा की स्थिति निॢमत नहीं होती। नीट के जरिये भ्रष्टाचार समाप्त करने का जो प्रयास किया जा रहा उसे किसी भी प्रकार से शिथिल नहीं होने देना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि प्रवेश परीक्षाओं के बाद मेरिट वाले विद्यार्थी बाहर रह जाएं और आॢथक रूप से संपन्न परिवारों के छात्र कम मेरिट के बाद भी प्रवेश पा जाएं।
जब 2012 में केंद्र सरकार ने मेडिकल एवं डेंटल शिक्षा के सभी संस्थानों में प्रवेश के लिए एक राष्ट्रीय प्रवेश परीक्षा की व्यवस्था की थी तो उसे अल्पसंख्यक संस्थानों ने अपने विशेष अधिकारों पर आघात बताया था। उस समय जस्टिस अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह दलील 2-1 के बहुमत से स्वीकार कर ली। यह फैसला 2016 में वापस ले लिया गया और नीट को परीक्षा आयोजन की अनुमति मिल गई। अब नियमित आदेश आ गया है। यह अन्य सभी शिक्षा संस्थानों के लिए एक अद्भुत अवसर है। वे मुख्यधारा में आकर अपने स्नातकों का आत्मविश्वास बढ़ा सकते हैं। इस प्रकार का परिवर्तन अनेक अन्य महत्वपूर्ण कारणों से भी आवश्यक हो गया है।
पिछले चार महीनों में शाहीन बाग आंदोलन, दिल्ली के सांप्रदायिक दंगे और निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात से जुड़ी चर्चाएं सकारात्मक नहीं रही हैं। देश के दो सबसे बड़े समुदायों के बीच अविश्वास और आशंका बढऩा राष्ट्रहित में नहीं है। सबकी भलाई में हमारी भलाई निहित है, यह एक वाक्य देश का मार्गदर्शन कर सकता है। इसमें सर्वधर्म समभाव और हर प्रकार की विविधता की स्वीकार्यता निहित है। कोरोना के बाद देश का पुनॢनर्माण होना ही है। इसमें हर नागरिक को कंधे से कंधा मिलाकर भविष्य की पीढिय़ों के प्रति अपना कर्तव्य निर्वाह करना चाहिए। इसके लिए देश के सभी शिक्षा संस्थानों को सामाजिक सद्भाव और पंथिक समानता बढ़ाने के लिए एकजुट होकर कार्य करना होगा। इसमें अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान बहुत बड़ी हिस्सेदारी निभा सकते हैं।
Date:08-05-20
Karnataka Steps Back From the Brink
ET Editorials
It is welcome that sense has been dinned into the Karnataka government’s head, making it promise to resume train services for the migrant workers stranded in the state to return to their homes. The state had announced — against the very spirit of the liberal and free-market that made its capital, Bengaluru, the first poster-boy of techie India — that it would cancel migrant trains taking these workers back home, reportedly because the construction industry needed them in Bengaluru. This was, to put it mildly, a strange announcement. It would have made sense if workers are seen by the state authorities as robots. But, last heard, Karnataka is an undisputed part of India with its workers — white, blue and no-collared — provided the freedom of movement within its territories, and of choice of work.
It is by no means certain that all workers would want to rush back home at the first available opportunity. Reportedly, migrant worker trains from Ludhiana are running empty as workers suddenly found their labour in high demand and decided to stay back. Free-will is in operation here, as it should be in Karnataka. Those who want to employ them should woo them to stay back, with wages and benefits — not unlike labour scarce countries in Europe that court skilled labour from foreign countries — not influence the state government to use coercive powers of the state to make them stay put and be allocated to the construction industry.
Labour is a factor of production, to be flexibly deployed. This is a truism for economists. But that is not to forget, even in pure managerial terms, the dignity of labour. Migrant workers have received shabby treatment in the lockdown. It is time to make amends, not add insult to injury by treating them as resources to be allocated. That makes for terrible HR.
Date:08-05-20
Workers’ Choice
Karnataka’s rollback on trains for migrants carries important lesson for plans to resume economic activity
Editorial
The Karnataka government has done well to roll back its order of May 5, canceling trains that would have ferried migrants back to their home states. Thousands of migrants from Bihar, Uttar Pradesh, Madhya Pradesh, Rajasthan, Tripura, Manipur, Jharkhand, Odisha and West Bengal were reportedly left in the lurch by the decision. In a series of tweets, Karnataka Chief Minister B S Yediyurappa had cited economic reasons for withdrawing the trains: “Barring the red zones, business, construction work and industrial activities have to be resumed. In this context. unnecessary travel of the migrant workers has to be controlled”. The decision had rightly provoked widespread outrage and the state government was called out for denying the migrants, already driven to the wall, the right to choose.
Pandemics are cruel not just because of the toll they take on the health of people but also because of the social and economic disruptions they cause, the anxieties they breed. The urgency of the cash-strapped states — and industry — to get workers back to factory floors and construction sites cannot be overstated. Yet it is also evident that the relaxation of the lockdown hasn’t assuaged the fears of workers at most places, including in Karnataka. Migrant workers, who live precariously even in the best of the times, have concerns about getting work on a sustained basis even after economic activities resume and, with no safety nets in place, many prefer to return home. An empathetic attitude towards such anxieties and respect for workers’ dignity and safety should inform all plans to resume industrial activities after the lockdown. States — and industry — might well take a leaf out of the Punjab book, where many seats on the trains carrying back migrants are reportedly empty, apparently because efforts to reach out to migrants and persuade them by government and factory owners have been successful. That several industrial units have put in place safeguards for the employees who have reported back to work after the relaxation of the lockdown may also have contributed to this development.
To its credit, Karnataka has put in place a post-lockdown revival roadmap. An economic package, announced on Wednesday, recognises the importance of the MSME sector, agriculturists and horticulturists, and informal sector workers. It provides financial assistance to the self-employed such as weavers, autorickshaw and taxi drivers, and barbers. The Karnataka government has also set up a board to deal with issues related to wages and retrenchment of workers, many of whom are migrants. Yet if, despite all incentives, the migrants still want to go back home, the state, and industry, must respect their choice.
Date:08-05-20
The future of justice
Social distancing is here to stay, will profoundly change the way in which justice is delivered
Madan B Lokur ,[ The writer retired as a justice of the Supreme Court of India in December 2018]
The lockdown has generated several webinars on justice delivery, technology and the future. The discussions focus on the way forward in tackling the problem of social distancing with lawyers and litigants crowding the courts even after the lockdown is lifted.
There are three kinds of courts in our justice delivery system. First, conventional courts located in court complexes where judges, lawyers and litigants are physically present. Second, online courts where the judge is physically present in the courtroom but the lawyer or litigant is not. This is the present arrangement, except that now the courtroom is the residential office of the judge, due to the lockdown. Third, virtual courts where there is no judge, lawyer or litigant and a computer takes a decision based on the inputs of the litigant.
About 15 years ago, Delhi initiated a pilot project with Tihar Jail for dealing with routine remand cases of prisoners. The procedure postulated prisoners being produced in court, not physically but through video conferencing (VC), hence an online court. The pilot project started tentatively with some hiccups but proved to be a success and now several courts have adopted the online process with varying degrees of commitment.
A few intrepid district judges have taken a step forward and recorded the statement of parties in cases of divorce by mutual consent. As of now, several such cases, including those involving NRIs, are dealt with through VC in online courts. Punjab and Haryana judges have gone even further ahead. The online courts record the expert evidence of doctors from PGIMER through VC. This has freed the doctors from time consuming trips to the courts and has resulted in savings of several crores for the exchequer. Similar success stories are available from other district courts, but a determined and concerted effort is necessary to popularise online courts at the district level.
Some high court judges in Delhi and Punjab and Haryana have completely dispensed with paper — everything is on a soft copy, through e-Filing and scanned documents. Lawyers and judges have made necessary adjustments to the new regime and the cases are conveniently heard and decided in “paperless courts”. A few other high courts initiated similar steps, but have yet to institutionalise “paperless courts”.
Online courts have not caught on in the absence of any compelling need to do so. The lockdown has provided that opportunity, which should be seized. The present ongoing “experiment” has, however, indicated that the major problem with online courts is unfamiliarity with the medium of communication. Judges are simply not used to consciously facing a camera generally and in particular while hearing a case. Similarly, lawyers find it difficult to comfortably argue while seated. Body language, facial expressions, the tone and tenor, both of the judge and the lawyer, make for important signals and clues which cannot be captured in VC. However, these and additional skills can be developed and fine-tuned, but not overnight. Online courts introduce a paradigm that the system is today not fully prepared for, but can certainly get ready for in due course.
Some technical problems in conducting online hearings have also surfaced. The bandwidth is not adequate or stable enough. The picture sometimes breaks or gets frozen and the voice often cracks.
Ironically, in the hearing relating to restoration of 4G in Jammu and Kashmir, the link suddenly snapped. Consultations are also a problem. Lawyers occasionally need to consult their client or the instructing advocate; judges also need to consult each other during a hearing. Attention needs to be paid to these real-time issues otherwise lawyers will harbour misgivings about a fair hearing.
The chairman of the Bar Council of India has voiced a concern that 90 per cent of the lawyers are not computer literate or tech savvy. Law and jurisprudence are not static but mirror societal needs and often shape them. Therefore, the Bar Councils and Bar Associations must stretch every nerve to educate the district and taluka lawyers on the advantages of accepting technology. It’s a long haul for sure and the task cannot be completed in a day or so — it might take a year, but a beginning has to be made now.
A virtual court is a unique contribution of the eCourts Project. A pilot virtual court was launched in August 2018 in Delhi for traffic offences and it has been a great success. Virtual courts have been successfully tried out in Delhi, Haryana, Maharashtra and Tamil Nadu. A virtual court is a simple programme through which a person can find out if a challan has been issued to him or her through a search facility. If a challan has been issued, the details are available online and the person may plead guilty or not guilty. On a guilty plea, the minimum fine is imposed and on a not-guilty plea, the case is electronically transferred to the traffic court for trial. At the end of the day, a judge reviews the cases and disposes of them electronically depending on the option exercised. One judge is all it takes to manage the virtual court for Delhi or an entire state. With the launch of virtual courts, the daily footfalls to the courts have drastically reduced and thousands have pleaded guilty and paid the fine electronically.
The virtual court system has the potential of being upscaled and other petty offences attracting a fine such as delayed payments of local taxes or compoundable offences can also be dealt with by virtual courts. This will ease the burden on conventional courts and therefore must be strongly encouraged.
Post lockdown, justice delivery will certainly undergo a transformation and judges, lawyers and litigants will need to adapt to the new normal. Social distancing is here to stay and will bring about profound changes in the way justice is administered and delivered. Open courts will remain as also open justice, but some definitions will change with a more aggressive use of technology, not only in conventional but also online and virtual courts. Several countries and courts have made adjustments not only for the period of the pandemic or lockdown, but also for the future. We should certainly not be left behind but must also make a roadmap to meet the challenge. As the Boy Scouts say: Be prepared.
Date:08-05-20
Redefining Security
Covid constraints on defence expenditure could help transform military culture
Arjun Subramaniam , [ The writer is a retired Air Vice Marshal and a military historian ]
The freezing of fresh capital acquisitions by the defence forces, delays in procurement and induction of existing orders, and austerity measures in the administrative domain, were expected. It is easy to approach this problem tactically by issuing directives and guidelines and then seeking periodic feedback from the military on the progress made, targets met, shortfalls and remedial measures instituted. This would be a myopic approach and at best result in short-term, tenure-based outcomes. Instead, this should be seen as an opportunity to evolve a transformational culture in the Indian military, based on clear political guidelines driven by existing and futuristic capabilities, expected strategic outcomes and anticipated strategic challenges.
A comparison between the approaches taken by India’s principal adversaries is instructive. Pakistan stagnates in an existential-threat-based and India-centric approach to national security. China’s expansive global strategy and unbridled capability-based development surge have overcome the dangers of direct competition with the US. It has closed the gap through an “indirect approach to international security”, which looks at building on strengths in areas such as cyberspace, non-contact warfare, economic and diplomatic coercion. Strategic guidelines for India’s security managers must shift from a threat-based methodology to a multi-disciplinary capability and outcome-based orientation to fit with the nation’s power aspirations.
There are five visible silos most critical to kick-start the transformation. The first is to accelerate the creation of indigenous defence capability. Doing this without brushing away the short and medium-term requirement of selective imports will be the key to a calibrated march to self-sufficiency. The next critical component is leadership. India’s military leadership is very hierarchical and sequential in its approach. However, this same leadership has superb operational skills and possesses a quick understanding of technology, tactics, techniques and procedures. Consequently, strategic leaders need to be identified and their transition towards becoming more than mere executors of operational plans and campaigns needs to be enabled. Multi-disciplinary thinking, lateral assimilation and a world-view are among the specific skill-sets that need to be nurtured.
Training and education form the next two silos in the process of transformation. Let us take the developed Western model for example. Several military officers at the colonel level — fresh out of war colleges and the university environment where they spend a year of education (not training) — are posted at the Pentagon and NATO HQ. Here, they work alongside civilians, politicians, lawmakers, not forgetting their own joint leadership. In such an environment, it is not difficult to mark, train and recognise talent in ways that go beyond the mere rank structure. It is high time India goes down that road because even though economic globalisation may be on hold for a while post COVID-19, there is going to be a flattening of the world from a security perspective. There will be common threats that would need to be fought jointly by nations. The three pre-requisites in these silos will be an amalgam of service-centric and joint operations expertise, operational acumen in a global environment, and broad-based education that develops intellectual capital.
Training in the Indian military is top-notch and needs a little tweaking to help officers and men understand the rules of engagement in a Volatile, Uncertain, Complex and Ambiguous (VUCA) world. It is diversified education at all levels of leadership that is a weak area.
Some have suggested radical ways of selecting future chiefs, suggesting a “deep selection” and a four-year tenure based on several criteria that have been highlighted in this article. They have also highlighted the accompanying risks of such a move. Keeping that as an aspirational long-term outcome may be a good idea as the processes needed to incorporate such a radical change are either nascent or absent from the current system.
Finally, the silo of jointness and integration without losing identities and compromising competencies is an outcome that needs to be chased down with focus and determination. There will be pain and turfs will be trampled on, but with transformed and intellectually empowered leadership, no bridge will too far to cross for the Indian military.
Date:08-05-20
Toxic disaster
The gas leak tragedy is a reminder that safety is paramount when exiting the lockdown
EDITORIAL
The disastrous leak of a toxic chemical that has killed several people and left hundreds sick near Visakhapatnam in Andhra Pradesh comes as a shock to a nation struggling to cope with a prolonged lockdown. Residents of habitations around Gopalapatnam, close to the site where the LG Polymers plant is located, passed out as the hazardous styrene vapour swept through the area at night. Several deaths took place as people tried to flee, and the chemical rendered them unconscious. There are horrific stories of people falling from buildings, or into wells and ditches as they lost consciousness. They have become the first victims of the exit from the lockdown, when industrial units were allowed to resume their operations. Styrene, the chemical involved in the disaster-struck plant that produces polystyrene products, is included in the schedule of the Manufacture, Storage and Import of Hazardous Chemical Rules, 1989. The rules lay down strict norms on how it should be handled and stored. Although it will take an inquiry to establish what caused the incident, the company and the State government knew that the chemical was hazardous, characterised by poor stability under a variety of conditions that could even lead to explosive situations. It is also reasonable to assume that the safety mechanism built into the storage structures of something so hazardous was either faulty or allowed to be overridden. Was the reopening work at the factory left to unskilled people, as some city officials have said? These aspects must be probed in the inquiry to fix accountability.
The Andhra Pradesh government must focus immediately on the medical needs of those who have been grievously affected by the gas leak, which has inevitably led to comparisons with the 1984 Bhopal gas disaster. As a harmful chemical, styrene could have chronic effects beyond the immediate symptoms. International safety literature cites it as a substance that may cause cancer; there is thus no safe limit for exposure to it. Solatium payments and compensation for the victims and families are important, but so is access to the highest quality of health care for the victims. What happened in Gopalapatnam is also a warning for industries across India. Although some may see the incident as a consequence of the lockdown, the States have the authority under the Central government’s orders to exempt process industries. It needs no special emphasis that safety of industrial chemicals requires continuous watch, with no scope for waivers. As India aims for a wider manufacturing base, it needs to strengthen its approach to public and occupational safety. Transparent oversight is not a hurdle to industrial growth. It advances sustainable development by eliminating terrible mistakes.
Date:08-05-20
Should healthcare be a fundamental right?
Across India, public health services have been understaffed and under-resourced
Ramya Kannan
T. Sundararaman is former executive director, National Health Systems Resource Centre; Abhay Shukla is the national convener of Jan Swasthya Abhiyan
India has never spent more than 2% of its GDP on healthcare. And healthcare facilities across the country straddle different levels of efficiency and sufficiency. The impact of COVID-19 has shaken even States like Kerala and Tamil Nadu that traditionally did well in the area of healthcare. In a discussion moderated by Ramya Kannan, public health experts Abhay Shukla and T. Sundararaman discuss whether healthcare for all can be a fundamental right. Edited excerpts:
The COVID-19 epidemic has been unprecedented in its impact on society. While we can argue that no country in the world can actually be fully prepared to handle an emergency, do you think the time is ripe to push the agenda of healthcare as a fundamental right for all citizens ?
Abhay Shukla: I would say that one of the most positive impacts of this otherwise very damaging epidemic has been that it has opened the eyes of people to the importance of universal and robust public health services and the need for everybody to be covered by quality healthcare, or for health services to be accessible to everyone. And this epidemic, because it has been concentrated in large cities and has also affected the middle class, has become a matter of high priority.
So, this is a ripe time to actually take forward the agenda of right to healthcare and because the right to healthcare, if it is to be real, it always has to be universal. In that sense, right to healthcare is very much on the agenda and I think we all need to push for that.
T. Sundararaman: Yeah, so, in some sense, this notion of right as different from a commodity that can be purchased on the market must be made. In classical economic terms, this is a public good, it is a good with a very high degree of externality. So perhaps you can get away politically by not providing healthcare for a lot of our population. Or if you believe the theory that it is enough to provide them a minimalist healthcare, the rest is left to the markets. But here, you actually have paid a huge price for doing so. Everybody has, but the poor have paid the most. Because, at some point, there is a huge amount of the cost of this whole pandemic, total lack of preparedness for it and that it can strike everybody. And it doesn’t affect only health, but all sectors of the economy.
The idea was that if we give immunisation and some antenatal care, that’s enough, but that’s not the case. We need very good disease surveillance, we need an integrated primary care system that can deliver in the field. We need tertiary care with the most sophisticated of ventilators. And we need surge capacity, meaning we need an excess redundant capacity that can take care of any health emergency that happens.
During the pandemic, there has been a great deal of imagination in dispensing healthcare and stretching the limits to cover as many people as possible, more than before. Does this give you hope that India can deliver quality healthcare for all? And what range would be sufficient as a percentage of GDP?
Abhay Shukla: So, if we see the situation today across the country, despite the fact that public health services [have been] historically understaffed, under-resourced, [and don’t have] sufficient number of doctors and other resources, they have really stretched themselves to meet the challenge of the COVID-19 epidemic. And I would say reasonably creditably. And in States such as Kerala of course, public health services have done a remarkable job of containing the spread of the epidemic, especially through their primary healthcare activities.
So, what we are seeing is that until now in the public imagination, at least the middle-class imagination, the model of healthcare has been [of] large private hospitals. And generally, public health services, especially primary healthcare, have been kind of invisible and mostly neglected.
But now, we are seeing with the COVID-19 epidemic a completely different kind of situation coming forth. And, the public imagination is also beginning to change.
So, this is leading to, or it can lead to, a change in people’s perception and it can lead to a rejuvenation of public health services, because political will flows from the public. And, if the public takes a greater interest, then obviously, governments also have to respond.
If this trend continues even after the epidemic has died down, then there’s no reason why we cannot achieve access to quality healthcare for everyone in the coming 5-10 years in most States across the country. And, as for a budget, around 3-4% of the GDP for public healthcare, and publicly organised healthcare, would be a good starting point for putting in place at least a basic kind of universal healthcare (UHC) system.
T. Sundararaman: So, I think the pandemic is still, in India, in an early stage, and it will play out. I am concerned about the way our country handled the economic crisis. In the West, for example, lockdown means a huge burden on the state because you have complete social security commitments, unemployment benefits to give, but over here, there is a lot of relief being distributed, but it is just not the same. On the other hand, much of the burden is shifted to the poor.
Similarly, in healthcare, there are States whose main approach has been to re-purpose existing hospitals providing comprehensive, tertiary, secondary healthcare for COVID-19. And the patients that are therefore pushed out because of this, have to either seek care in the unaffordable private sector. And, I don’t think our democracy has yet reached that stage of maturity or robustness where we are able to say “Oh, you need to build new hospitals, you need to create extra beds,” like China, or Spain did. You just can’t use the public system as residual care. But in India, we need to be much more articulate about human rights and the fundamental issue, or else this burden will get unfairly pushed on to people. The ₹15,000 crore allotment for the health sector that was sanctioned, along with the first lockdown, is a welcome step. My only point is that much more was needed in the routine annual budget of this year, and over the past four years.
And I am worried that, as July approaches, it might slowly spread into the hinterland. This is the way the Spanish Flu started in India. It started as an all-Bombay problem from the ships. It was in Bombay for a long time, then spread slowly through the country, and then you had all places affected.
I hope that at some point the government does get into strengthening the public services because the private institutes are not even offering care, many of them are preferring to stay shut till the worst of the pandemic is over.
Both of you seem to have experience with drafting universal healthcare policies. Professor Sundaram and Dr. Shukla, I believe you worked on the draft proposal of healthcare for all for the government. And Dr. Shukla, you’ve done some work on this in Maharashtra. Can elaborate on what constitutes a universal healthcare policy?
T. Sundararaman: I think there are three big issues that in our last effort held us back. And I think we need to have a closure on all these three issues before we can actually go ahead. On the first, I think it is an easy one, that the right to health and the right to healthcare are different things. The right to healthcare is enforceable in a certain way, but in this context, the right to healthcare is something that should be done immediately.
In doing so, there is one fundamental issue. Healthcare is a State subject. Should we make it a Central subject, because then the Central money will flow? But even the response to this pandemic shows that actually that doesn’t work.
Well, for many of these decisions the States have to take, and they need a high degree of cooperation. So, whereas the Centre and the States must have an agreement on the funding, a lot of it will need to remain a State subject. Definitely, one of the problems is inherently constitutional — but it should not lead to over-centralisation. And the third issue is of course, the most fundamental one. You have to put your money where your mouth is, you have to actually get the resources that are required for it and that requires a transfer of resources. Again, a transfer of resources without populist shaming or saying that you are giving subsidies. We have to recognise that if you want a metric of equal health quality, you need to invest more on the healthcare of the poor, the middle class, the upper class, the ruling privileged persons will have to pay a price.
Abhay Shukla: About the issue of universal healthcare, we need a system for universal healthcare, which is a complement to the right to healthcare kind of scenario. A group of public health experts and health activists in Maharashtra has over the last three years, developed a framework that… could be achieved in the next five years, and in a very realistic kind of scenario. So, this is not a pipe dream, it is something which is possible provided that there is political will for it.
But to develop this kind of a system, there are a few constraints which we need to overcome. Right now, we have a fragmented health system. We have one health system for the poor, another for the middle class and another for the rich and the super rich. What we need to do is to move from this fractured system towards a single healthcare system for everyone.
So, even after the epidemic has receded, the idea that the government can regulate private hospitals, harness them in public interest will remain, and I think that opportunity, which is being opened up in the period of the COVID-19, should not be lost. It has to continue till we reach a system of universal healthcare, which involves regulated private providers.
Prof. Sundararaman, can you weigh in on the private healthcare angle? Clearly, the private healthcare sector, which was all powerful, has sort of stepped back to play a supportive role in COVID-19. Does this mean the role of the private healthcare sector in India may actually change in future?
T. Sundararaman: Even the Prime Minister’s health insurance scheme [allowing people to access insurance cover for treatment in private hospitals] has been such a failure today. It is only the high-charging patients without insurance cover that are using the private sector.
Today, it is the public system, with all its problems, that has risen to the occasion. So, in this sense, even the ‘worst public health States’ have stood by the people. But it doesn’t mean that the private sector has no role. We need for the private sector, a much clearer regulatory regime and ways of contracting that are useful and it is most important that they supplement, not substitute, the strengths of the state.
Date:08-05-20
कोरोना से लड़ाई में अब राजनीतिक सहभागिता की अधिक जरूरत
महामारी और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून लागू होने से नौकरशाहों के हाथों में आ गए हैं जबरदस्त अधिकार
राजदीप सरदेसाई , वरिष्ठ पत्रकार
बीबीसी टेलीविजन के सीरियल यस मिनिस्टर में वरिष्ठतम नौकरशाह सर हम्फ्रे एपलबी अपने मंत्री जेम्स हैकर से कहते हैं कि ‘सर आप यहां इस विभाग को चलाने के लिए नहीं हैं।’ इस पर नाराज मंत्री गुस्से में कहते हैं कि ‘इससे आपका क्या मतलब है? मैं सोचता हूं कि मैं इंचार्ज हूं और लोग भी यही सोचते हैं।’ लेकिन नौकरशाह ने कहा- ‘मंत्री जी, आप और लोग गलत हैं।’ हताश मंत्री ने पूछा, ‘तो फिर विभाग कौन चलाता है।’ सर हम्फ्रे मुस्कुराते हैं ‘मैं चलाता हूं!’ यही बात हमारे देश में भी लागू होती है, सत्ता के पहिए को नियंत्रित करने वाले सभी ताकतवर नौकरशाह अक्सर भवनों और सचिवालयों के अनाम स्टील फ्रेम के पीछे होते हैं। यह सही है कि औद्योगिक लाइसेंसिंग के खत्म होने से नौकरशाहों की कुछ विवेकाधीन शक्तियां खत्म हो गई थीं, लेकिन इसके बावजूद उनके पास अधिकारों का भंडार है, खासकर संकट के समय। और जैसा पिछले छह हफ्तों में दिखा है कि अगर निर्णय करने में अस्पष्टता हो तो कानून अाधारित ताकत कितना खतरनाक हथियार हो सकता है।
मार्च मध्य में कोविड-19 को लेकर जारी रेड अलर्ट के बाद देश को नौकरशाहों के एक छोटे ग्रुप द्वारा संचालित किया जा रहा है और वह भी औपनिवेशिक काल में प्लेग को रोकने के लिए बने महामारी कानून 1887 के जरिये। जब इसे राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के साथ मिलाकर देखा जाता है तो 1.3 अरब भारतीयों के भाग्य तय करने का अधिकार नाॅर्थ और साउथ ब्लॉक के कुछ नौकरशाहों के हाथ आ जाता है। यह तर्क दिया जा सकता है कि अभूतपूर्व मौकों पर अभूतपूर्व उपायों की जरूरत होती है। इस बात पर काेई बहस नहीं की जा सकती कि कोरोना वायरस से लड़ाई में कुछ समय हासिल करने के लिए राष्ट्रीय लॉकडाउन एक उपयोगी और जरूरी उपाय था। लेकिन, एक नौकरशाही फरमान और पुलिस के डंडे से लाॅकडाउन को लागू करके जिंदगी बचाना एक चीज है और आजीविका को सुरक्षित रखने के हालात पैदा करना दूसरी चीज। जहां छह सप्ताह पहले कड़े कानूनों की जरूरत थी, वहीं आज इस बात का खतरा है कि नौकरशाही उलझनों की वजह से लॉकडाउन से बाहर निकलना कहीं अधिक जटिल हो सकता है। उदाहरण के लिए ई-कॉमर्स डिलीवरी पर पैदा हुए भ्रम को ही ले लें। पहले ई-कॉमर्स को डिलीवरी से मना किया गया, फिर जरूरी और गैर जरूरी में अंतर किया फिर लाल, हरा और नारंगी जोन का मुद्दा। लगातार अपने ही आदेशों पर स्पष्टीकरण जारी करके सरकारी मशीनरों ने लोगों की सामान तक सुरक्षित पहुंच में बाधा ही उत्पन्न की है।
डर लाॅकडाउन को लागू कराने के लिए जरूरी था, लेकिन यह एक निगरानी करने वाला देश बनने का बहाना नहीं हो सकता। अब जरा गृह मंत्रालय के इन निर्देशों को ही लें, जिनमें कहा गया था कि अगर कोविड-19 को फैलने से रोकने के किसी भी उपाय का उल्लंघन हुआ तो मुख्य कार्यकारी से श्रमिक तक किसी को भी जेल भेजा जा सकता है। इसने छोटे-बड़े सभी उद्यमियों में घबराहट पैदा कर दी। डंडा संचालित लाइसेंस राज की वापसी की आशंकाओं के बाद मजबूर हाेकर गृह मंत्रालय ने एक और स्पष्टीकरण जारी किया कि कार्यस्थल पर सामाजिक दूरी का पालन करना होगा, लेकिन औद्योगिक यूनिटों को परेशान करने की कोई कोशिश न हो। जरा प्रवासी श्रमिकों का ही मुद्दा लें, जहां पर सरकार के हर कदम में सहानुभूति का अभाव दिखा। ताजा मामला श्रमिकों के गांव जाने के लिए मुफ्त रेल यात्रा की सुविधा का है। रेल मंत्रालय के शुरुआती नोट के क्लॉज 11 के मुताबिक ‘स्थानीय राज्य सरकारें चयनित यात्रियों को टिकट देंगी और किराया लेकर पूरी राशि रेलवे को सौंपेंगी।’ क्या यह पहचानने के लिए कि लॉकडाउन से सर्वाधिक प्रभावित इन लोगों को घर जाने के लिए मुफ्त और सुरक्षित सवारी मिले, सोनिया गांधी के दखल की जरूरत थी, चाहे वह केंद्र हो या राज्य?
हो सकता है कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष की टिप्पणी में राजनीतिक तिकड़म हो, क्योंकि कांग्रेस शासित राज्यों पर भी प्रवासी श्रमिकों के लिए पर्याप्त काम न करने का आरोप है, लेकिन इसने इस बात का तो संकेत दिया है कि कोरोना से लड़ने के लिए पार्टी लाइन से उठकर वृहद राजनीतिक समावेश की जरूरत है। क्यों न इस समय सभी प्रमुख नेताओं को साथ लेकर कोरोना के खिलाफ नेशनल टास्क फोर्स बने? क्योंकि एक वास्तविक विविधता वाला और लोकतांत्रिक समाज अपनी सारी शक्तियों को नौकरशाहों काे नहीं सौंप सकता। दिल्ली और जिलों के नौकरशाह ही इस लड़ाई में मुख्य खिलाड़ी हैं और कई बहुत अच्छा काम भी कर रहे हैं। लेकिन कई बार अफसरों में जनसंपर्क की कमी दिखती है और वे लालफीताशाही में बंधे होते हैं। इसलिए आने वाले समय में हमें अधिक राजनीतिक सहभागिता की जरूरत होगी।
पुनश्च: इस सप्ताह के शुरू में मुझे मेरे एक दोस्त ने बताया कि वह दिल्ली की अपनी बुकशॉप को खोल रहा है। लेकिन, कुछ घंटो के बाद ही उसने मुझे सूचित किया कि नगर निगम के एक अधिकारी ने उसे दुकान बंद करने को कहा है। वजह? स्कूल और कॉलेज की किताबों की दुकानें ही खुल सकती हैं।
Date:08-05-20
तात्कालिक तालाबंदी को स्थायी नशाबंदी में क्यों न बदला जाए ?
पिछले 73 सालों के दौरान विभिन्न दलों के शासन में भारत में 70-80 गुना बढ़ी शराबखोरी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक , भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष
तालाबंदी को ढीला करते ही सरकार ने दो उल्लेखनीय काम किए। एक तो प्रवासी मजदूरों की घर वापसी और दूसरा शराब की दुकानों को खोलना। नंगे-भूखे मजदूर यात्रियों से रेल का किराया वसूल करने की इतनी कड़ी आलोचना हुई कि उनकी यात्राएं तुरंत निःशुल्क हो गईं, लेकिन जहां तक शराब का सवाल है तो इसके शौकीनों ने 40 दिन तो शराब पिए बिना काट दिए, लेकिन हमारी सरकारें शराब बेचे बिना एक दिन भी नहीं काट सकीं। तालाबंदी में ढील के पहले दिन ही देश के लगभग 600 जिलों में शराब की दुकानें क्यों खुलीं? क्योंकि राज्य सरकारों ने केंद्र पर दबाव डाला कि यदि उन्हें शराब से जो टैक्स मिलता है, यदि वह नहीं मिला तो उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो जाएगी। सभी राज्यों को लगभग 2 लाख करोड़ रु. टैक्स शराब की बिक्री से मिलता है। पहले दिन ही 1000 करोड़ रु. की शराब बिक गई।
कुछ राज्यों ने ऑर्डर मिलने पर शराब की बोतलें घरों में पहुंचाने का इंतजाम भी किया। लेकिन, सारे देश में लाखों लोग शराब की दुकानों पर टूट पड़े। दो गज की शारीरिक दूरी की धज्जियां उड़ गईं। एक-एक दुकान पर दो-दो किमी लंबी लाइनें लग गईं। हर आदमी ने कई-कई बोतलें खरीदीं। जब पुलिस ने उन्हें एक-दूसरे से दूर खड़े होने के लिए धमकाया तो भगदड़ और मारपीट के दृश्य भी देखे गए। ये विचित्र दृश्य हमारे टीवी चैनलों पर विदेशों में भी लाखों लोगों ने देखे। उन्हें भरोसा ही नहीं हुआ कि भारत में इतनी बड़ी संख्या में शराबी रहते हैं। कुछ विदेशी मित्रों ने मुझे यहां तक कह दिया कि यह भारत है या दारुकुट्टों का देश है? उनके मन में भारत की छवि वह है, जो महर्षि दयानंद, विवेकानंद और गांधी के कारण बनी हुई है। मैंने उन्हें बताया कि भारत में लगभग 25-30 करोड़ शराबी हैं। यानी पांच में से एक शराबी है, लेकिन रूस, यूरोप, अमेरिका और ब्रिटेन में 80 से 90 प्रतिशत लोग शराबखोर हैं।
आज भी भारत में शराबियों को आम आदमी टेढ़ी नजर से ही देखता है। भारत में शराब पहले लुक-छिपकर पी जाती थी। लेकिन, अब भारत के बड़े होटलों, बस्तियों और बाजारों की दुकानों में भी शराब धड़ल्ले से बिकती है। इसलिए इन लंबी कतारों ने लोगों का ध्यान खींचा है। अब भारत में सिर्फ बिहार, गुजरात, नगालैंड, मिजोरम और लक्षद्वीप में शराब पर प्रतिबंध है, बाकी सब प्रांत शराब पर मोटा टैक्स ठोंककर पैसा कमा रहे हैं। दिल्ली समेत कुछ राज्यों ने इन दिनों शराब पर टैक्स की भारी वृद्धि कर दी है। भारत की लगभग सभी पार्टियों के नेतागण शराब की बिक्री का समर्थन करते हैं। सिर्फ नीतीश कुमार की जदयू उसका विरोध करती है। अपने आप को गांधी, जयप्रकाश, लोहिया और विनोबा का अनुयायी कहने वाले नेताओं की जुबान पर भी ताले पड़े हुए हैं। आश्चर्य तो यह है कि देश में और कई प्रदेशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों की सरकारें हैं, लेकिन वे भी पैसों पर अपना ईमान बेचने पर तुली हुई हैं। इस मुद्दे पर उनकी चुप्पी भारतीय संविधान की धारा 47 का सरासर उल्लंघन है। संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि सरकार नशीली चीजों पर प्रतिबंध लगाने की भरपूर कोशिश करे। कांग्रेस, जनता पार्टी और भाजपा के पिछले 73 साल के राज में भारत में शराबखोरी 70-80 गुना बढ़ी है।
जहां तक शराब से 2 लाख करोड़ रु. कमाने की बात है, पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ाकर यह घाटा पूरा किया जा रहा है और यदि पानी जितने सस्ते हुए विदेशी तेल को खरीदकर भारत अपने भंडारों में भर ले तो वह शराब की आमदनी को आराम से ठुकरा सकता है। यदि कोरोना से लड़ने के लिए वह अपनी दवाइयां, आयुर्वेदिक काढ़े और हवन सामग्री दुनिया में बेच सके तो वह अरबों-खरबों रु. कमा सकता है। इस कोरोना-संकट से पैदा हुए मौके का फायदा उठाकर वह शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगा सकता था। मौत का डर शराबियों को इस प्रतिबंध के लिए भी राजी कर लेता। 40 दिन की यह मजबूरी का संयम स्थायी भी बन सकता था। तात्कालिक तालाबंदी को स्थायी नशाबंदी में बदला जा सकता था।
शराब पीने से आदमी की रोग प्रतिरोधक शक्ति घटती है या बढ़ती है? कोरोना से मरने वालों में शराबियों की संख्या सबसे बड़ी है। यूं भी हर साल भारत में शराब पीने से 2.5 लाख मौतें होती हैं। शराब के चलते लाखों अपराध होते हैं। देश में 40 प्रतिशत हत्याएं शराब पीकर होती हैं। ज्यादातर लोग शराब के नशे में ही दुष्कर्म करते हैं। कार दुर्घटनाओं और शराब का चोली-दामन का साथ है। रूस और अमेरिका जैसे देशों में शराब कई गुना ज्यादा जुल्म करती है। यह एक मौका था जब भारत इन देशों के लिए एक आदर्श बनता। कानून बनाने से भी बड़ी चीज़ है, संस्कार बनाना। शराब पीने से मनुष्य विवेक शून्य हो जाता है। वह अपनी पहचान खो देता है। उसकी उत्पादन क्षमता घटती है और फिजूलखर्ची बढ़ती है। यह उसके परिवार और भारत जैसे विकासमान राष्ट्र के लिए गहरी चिंता का विषय है।
Date:08-05-20
लापरवाही के कारखाने
संपादकीय
विशाखापट्टनम के एक कारखाने में जहरीली गैस के रिसाव ने एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी की याद ताजा कर दी है। इस हादसे में अब तक दर्जन भर से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और करीब एक हजार गंभीर हालत में हैं। गौरतलब है कि बुधवार देर रात को कारखाने में गैस का रिसाव शुरू हो गया। उस वक्त जो लोग कारखाने में तैनात थे, उन पर तो असर हुआ ही, आसपास के करीब तीन किलोमीटर क्षेत्र तक उसका प्रभाव देखा गया। उस वक्त लोग घरों में सो रहे थे। गैस सांस के जरिए फेफड़ों तक पहुंची और लोग बेहोश हो गए। बहुत सारे लोगों को सांस लेने में तकलीफ, अंखों में जलन की शिकायत है। हालांकि प्रशासन ने सैकड़ों लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचा दिया है और बहुत सारे लोगों को अस्पतालों में भर्ती कराया गया है, पर इस गैस का प्रभाव कितना घातक साबित होगा, अभी कहना मुश्किल है। भोपाल गैस त्रासदी के बाद इसे अब तक का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा कहा जा सकता है।
ऐसे औद्योगिक हादसों की वजहें छिपी नहीं हैं। यों प्रशासन ने कारखाना प्रबंधन के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर ली है, प्रबंधन अपने पक्ष में मामूली चूक, मानवीय भूल जैसी दलीलें देकर बचने का प्रयास भी करेगा। पर सवाल है कि औद्योगिक सुरक्षा मानकों के मामले में लापरवाही की प्रवृत्ति पर अंकुश क्यों नहीं लग पाता। जिन कारखानों में जहरीली गैसों का उपयोग या उत्पादन होता है, वहां सुरक्षा को लेकर अधिक मुस्तैदी की जरूरत होती है। भोपाल गैस त्रासदी के अनुभवों को देखते हुए इसके लिए सख्त निर्देश भी तय हुए। मगर कारखाना प्रबंधन अक्सर मामूली पैसा बचाने के लोभ में सुरक्षा इंतजामों को नजरअंदाज करते रहते हैं। विशाखापट्टनम के जिस कारखाने में गैस का रिसाव हुआ, वह अचानक घटी घटना नहीं हो सकती। ज्यादा संभावना यही है कि जहां से गैस का रिसाव हुआ वहां बहुत पहले से कोई पुर्जा कमजोर रहा होगा, चेतावनी देने वाला यंत्र काम नहीं कर रहा होगा और कारखाना प्रबंधन उसे नजरअंदाज करता रहा होगा। कारखानों में गैसों का रिसाव पाइपों, नलकियों वगैरह के कमजोर पड़ कर फट जाने की वजह से होता है। जहां ऐसी खतरनाक गैसों का उपयोग या उत्पादन होता है, वहां रिसाव आदि की स्थिति में चेतावनी देने वाले स्वचालित यंत्र लगाने अनिवार्य हैं। फिर विशाखापट्टनम के कारखाने में गैस का बड़े पैमाने पर रिसाव हो गया और कैसे प्रबंधन को इसकी भनक तक नहीं लगी।
औद्योगिक इकाइयों में सुरक्षा इंतजामों के मामले में लापरवाही छिपी बात नहीं है। हादसों के बाद ऐसी इकाइयों की जवाबदेही को लेकर कड़े नियम-कायदे भी नहीं हैं। अनेक देशों में औद्योगिक हादसे की स्थिति में भारी जुर्माने और मुआवजे वगैरह का कानून है, जिसकी वजह से कारखाना प्रबंधन सुरक्षा इंतजामों को लेकर कभी लापरवाही बरतते नहीं देखे जाते। पर हमारे यहां, चाहे वह देशी कंपनी हो या विदेशी, औद्योगिक हादसों को लेकर उनके प्रति बहुत उदारवादी रवैया अपनाया जाता है। इसलिए वे सुरक्षा उपायों को लेकर प्राय: उदासीन देखी जाती हैं और उसी का नतीजा है कि बड़े हादसे हो जाते हैं। अक्सर कहीं बड़ी संख्या में मजदूर मारे जाते हैं, कहीं आसपास के लोग भी उनकी चपेट में आ जाते हैं। अनेक मामलों में लोगों की सेहत पर ऐसे हादसों के दुष्प्रभाव लंबे समय तक देखे जाते हैं। आखिर लोगों की जान की कीमत पर ऐसी लापरवाहियों और मनमानियों को कब तक अनदेखा किया जाता रहेगा।
Date:08-05-20
नई शिक्षण पद्धति की जरूरत
अनुराग सिंह
एक विकासशील देश के रूप में भारत की छवि अब मजबूत हो रही है। अपनी शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ और बेहतर मानव संसाधन तैयार कर इसे और मजबूत किया जा सकता है। हमारे यहां शिक्षा व्यवस्था के विविध रूप दिखाई देते हैं। तकनीकी शिक्षा के लिए उत्कृष्ट भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान हैं, तो यहीं ये आरोप भी लगते हैं कि चौरानबे प्रतिशत इंजीनियर अपने कार्य में दक्ष नहीं होते और शीर्ष दस कंपनियां केवल बचे हुए छह प्रतिशत इंजीनियरों को अपने यहां नौकरी पर रखने में प्राथमिकता देती हैं। तकनीकी, प्रबंधन, शोध कार्यों के लिए हमारे ही देश में उत्कृष्ट संस्थान भी हैं, वहीं बेहद औसत या औसत से कम दर्जे के संस्थान भी बड़ी संख्या में मौजूद हैं, जहां आज केवल डिग्रीधारक निकलते हैं, लेकिन वे अपने क्षेत्र में बेहतर मानव संसाधन के तौर पर उपयोगी साबित नहीं होते। संसाधनों के अभाव में हमारे बहुत से संस्थान अपेक्षाकृत पिछड़े हुए हैं, जहां आज भी बहुत परंपरागत तरीके से शिक्षण कार्य हो रहा है। नए विषयों से विद्यार्थी को अधिक से अधिक परिचय प्राप्त कराना इन संस्थानों की जिम्मेदारी होनी चाहिए, मगर ऐसा हो नहीं पा रहा है। भारत के अधिकतर ग्रामीण और दूर-दराज के क्षेत्रों में ऐसी तमाम समस्याएं मौजूद हैं।
सूचना क्रांति के इस दौर में तकनीकी रूप से सक्षम राष्ट्र लगातार उन्नति कर रहे हैं। हमें भी तकनीकी की सहायता लेकर अपने उत्कृष्ट संस्थानों को उसी क्षेत्र के अन्य संस्थानों से जोड़ कर उनकी गुणवत्ता में वृद्धि करने की योजना पर विचार करना चाहिए। भारत की अधिकांश आबादी ग्रामीण है और प्राथमिक शिक्षा के लिए ग्रामीण जनसंख्या अधिकतर गांवों की प्राथमिक पाठशालाओं पर निर्भर है। एएसईआर की रिपोर्ट के मुताबिक प्राथमिक स्तर के ग्रामीण विद्यालयों की दशा चिंताजनक है। इस रिपोर्ट के अनुसार सामान्य विद्यार्थी अपने से निचली कक्षा के बेहद सामान्य पाठ को धाराप्रवाह पढ़ पाने, जोड़-घटाने के बेहद मामूली सवालों को हल कर पाने में अक्षम हैं, ऐसी जगहों पर ऑनलाइन पाठ्यक्रम ले जाने से पहले कुछ सवालों के जवाब ढूंढ़े बिना यह कार्य व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है।
छोटे बच्चों के लिए ऐसे पाठ्यक्रम किसी की मदद लिए बिना पढ़ना संभव नहीं है, क्योंकि वे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को स्वयं संचालित कर पाने में अक्षम होंगे। ऐसे में जिन परिवारों में कोई व्यक्ति इन सबसे जुड़ा नहीं है, उसके लिए यह व्यवस्था बहुत लाभकारी नहीं होने वाली है। माध्यमिक स्तर की स्थिति भी ऐसी ही है। गावों के कुछ बच्चे सटे हुए शहरों या कस्बों तक अपनी पहुंच बना पाते हैं। ऐसे में अगर आज हम ऑनलाइन शिक्षा की बात करते हैं, तो सोचना होगा कि हम इनमें से कितने प्रतिशत ग्रामीण बच्चों तक अपनी पहुंच बना पाने में सक्षम हो पाएंगे?
अभी केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने छठी से आठवीं तक के बच्चों के लिए इ-पाठशाला की शुरुआत की, जहां बच्चों को हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत से संबंधित वैकल्पिक शिक्षा इ-लिंक के जरिए उपलब्ध कराई जाएगी। इस इ-पोर्टल का स्वागत होना चाहिए, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसकी सहायता से हम कितने लोगों तक पहुंच पाने में सफल होंगे? अगर अधिकांश ग्रामीण विद्यार्थियों तक अपनी पहुंच न बना पाए तो फिर इसको बहुत ज्यादा सफल नहीं कहा जा सकेगा। इसकी सफलता उन तक अधिकाधिक पहुंच से ही संभव मानी जाएगी।
तीसरे स्तर पर, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ऑनलाइन शिक्षा पद्धति को लागू करना अपेक्षाकृत अधिक आसान है, क्योंकि इस अवस्था में वे विद्यार्थी उपकरण संचालन के मामले में आत्मनिर्भर हैं। चिकित्सा, तकनीकी, प्रबंधन आदि विषयों की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी इस मंच का उपयोग आसानी से कर सकते हैं और कर रहे हैं। बड़े कॉलेज और कोचिंग संस्थान इसका उपयोग पहले से कर रहे हैं। दिल्ली के इंदिरा गांधी दिल्ली टेक्निकल यूनिवर्सिटी फॉर वुमन इस वर्ष मार्च से ऑनलाइन शिक्षण कार्य संचालित कर रहा है और अभी हाल में ही उसने मध्यावधि परीक्षा भी आयोजित कर ली, जो सफलतापूर्वक संपन्न हुई। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दूर-दराज के गांवों में भी पारंपरिक विषयों का पठन-पाठन होता है, क्या वे सभी विद्यार्थी इस शिक्षा पद्धति से अपने को जोड़ कर आसानी से इस कार्य को संचालित कर सकते हैं? इसका उत्तर है नहीं।
गरीबी से जूझते देश में जहां हर व्यक्ति के पास पेट भरने को भोजन नहीं है, उसके पास इस तरह का इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का न हो पाना, जिसमें इ-लर्निंग या ऑनलाइन शिक्षण आसानी से संचालित हो पाए, एक व्यावहारिक समस्या है। दूर-दराज के गांवों में नेटवर्क की बड़ी समस्या है। भारत के सामान्य गांवों में अभी ऐसी समस्याएं मौजूद हैं, तो आदिवासी इलाकों में इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। आदिवासी क्षेत्रों में क्या यह ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था पहुंच पाएगी?
भारत के शहरों और गांवों में शिक्षा के स्तर में फर्क आसानी से दिख जाता है। किसी भी तकनीकी, चिकित्सा या प्रबंधन पाठ्यक्रम की पढ़ाई तथा शोध कार्य के लिए हम अपनी संरचना में शहरों पर ही आधारित हैं। उच्च शिक्षा में इनकी पढ़ाई हेतु गांवों को सक्षम नहीं बनाया गया है। अब अगर भारत की अधिकांश आबादी गांवों में बसती है, तो ऑनलाइन शिक्षा के लिए पहले उस स्तर का बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा, तब जाकर हम इसके लिए कदम आगे बढ़ा पाएंगे, वरना इस तरह के मंच शहरी विद्यार्थियों के लिए ही ज्यादा लाभप्रद होंगे। ग्रामीण विद्यार्थी और ज्यादा पिछड़े हुए नजर आएंगे। जबकि वास्तव में हमें इसके माध्यम से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की शिक्षा पद्धति में आए अंतर को पाटने की कोशिश करनी चाहिए।
संसाधन के अभाव में विद्यालयी स्तर के जो बच्चे बहुत-सी जानकारियों और विज्ञान के नए विषयों से परिचित नहीं हो पाते थे, अब ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से उन्हें उन चीजों को दिखाया-समझाया जा सकता है। शिक्षा की वर्तमान स्थिति में शहरी वर्चस्व कायम है और संसाधनों के अभाव में ग्रामीण होनहार छात्र अपेक्षाकृत पीछे रह जाते हैं। ऑनलाइन शिक्षण पद्धति इसमें एक महत्त्वपूर्ण और कारगर भूमिका अदा कर सकती है। आर्थिक और अन्य कारणों से शहरों में जाकर पढ़ाई न कर पाने वाले विद्यार्थियों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं होगा।
ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालयों में प्रोजेक्टर की सहायता से एक इ-क्लासरूम की संरचना में बहुत अधिक धन खर्च न कर उन बच्चों को अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया कराई जा सकती है। अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गजों के साथ उनके वार्तालाप सत्रों को इन माध्यमों से रखा जा सकता है। शहरों में ऐसी गतिविधियां होती रहती हैं, लेकिन अब ग्रामीण इलाकों में भी आसानी से हो सकती हैं। वर्तमान में बहुत सारे ऑनलाइन ऐप पर पठन-पाठन हो रहा है। उनकी सहायता से अपनी पूरी आबादी के आधार को मजबूत करने का मौका अब तकनीक की सहायता से संभव हो पाया है, तो हमें इसे गंवाना नहीं चाहिए। हां, एक समस्या यह है कि सूचना क्रांति के इस युग में जहां अंग्रेजी भाषा की प्रधानता है, बहुतायत ग्रामीण जनसंख्या खुद को इन सबसे जोड़ पाने में अक्षम महसूस करती है, क्योंकि वे क्षेत्रीय भाषाओं में स्वयं को ज्यादा सहज महसूस करते हैं, इसलिए शिक्षण के इन मंचों पर क्षेत्रीय भाषाओं को बढ़ावा देने पर जोर होना चाहिए।
ऑनलाइन शिक्षण पद्धति से हम अब पीछे नहीं हट सकते, यह भविष्य को सुनहरा बनाने का एक बेहतर साधन है। हमें इसकी कमियों को दूर करते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आगे बढ़ना होगा, ये सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ने वाले कदम हैं। भारतीय ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ कम गुणवत्ता वाले संस्थानों को व्यापक स्तर पर इससे सुधारा जा सकता है।
Date:08-05-20
अवसरों की होगी भरमार
डॉ. जयंतीलाल भंडारी
हाल ही में 4 मई को गुटनिरपेक्ष देशों के वर्चुअल सम्मेलन को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि कोरोना संकट के समय दुनिया में भारत को मददगार देश माना जा रहा है। भारत ने 120 से ज्यादा देशों को दवाइयां निर्यात की हैं। ऐसे में भारत को दुनिया की नई फॉर्मेसी के रूप में देखा जा रहा है। निस्संदेह जहां कोरोना संकट से परेशानियों का सामना कर रहे कई देशों को भारत ने दवाइयों और खाद्य पदाथरे सहित कई वस्तुओं का निर्यात करके उन देशों के उपभोक्ताओं को बड़ी राहत दी है, वहीं भारत के लिए नई निर्यात संभावनाओं को भी यकीनन आगे बढ़ाया है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों दो मई को प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड-19 के खिलाफ नये वैश्विक मौकों को भारत की ओर आकर्षित करने की रणनीतियों पर चर्चा के लिए एक व्यापक बैठक आयोजित की। इसमें प्रधानमंत्री ने कहा कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अफरा-तफरी मची है और चीन में कार्यरत कई देशों की निर्यातक कंपनियां चीन से बाहर निकल कर विकल्प देश की तलाश में हैं। ऐसी कंपनियों को भारत की ओर आकर्षित करने और भारत से निर्यात बढ़ाने के लिए प्लग एंड प्ले मॉडल को साकार करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा रणनीतिक कदम उठाए जाने चाहिए। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने निवेशकों को आकर्षित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी के ‘प्लग एंड प्ले’ मॉडल को साकार करने के मद्देनजर मोडिफाइड इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर अपग्रेडेशन स्कीम (एमआईआईयूएस) में बदलाव करने तथा औद्योगिक उत्पादन के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) में गैर-उपयोगी खाली पड़ी जमीन का इस्तेमाल करने के संकेत दिए हैं। प्लग एंड प्ले व्यवस्था में कंपनियों को सभी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार मिलता है और उद्योग सीधे उत्पादन शुरू कर सकता है। इसी तरह सरकार सेज में खाली पड़ी करीब तेइस हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन का इस्तेमाल नये उद्योगों के लिए शीघ्रतापूर्वक कर सकती है। सेज में सभी बुनियादी ढांचा सुविधाएं मसलन, बिजली, पानी और सड़क जैसी सुविधाएं मौजूद हैं। चूंकि इस समय दुनिया में दवाओं सहित कृषि, प्रोसेस्ड फूड, गारमेंट्स, जेम्स एंड ज्वैलरी, लेदर एंड लेदर प्रोडक्टस, कारपेट और इंजीनियरिंग प्रोडक्ट्स जैसी कई वस्तुओं के निर्यात की अच्छी संभावनाएं हैं, अतएव ऐसे निर्यात क्षेत्रों के लिए सरकार के रणनीतिक प्रयत्न लाभप्रद होंगे। इसमें कोई दो मत नहीं है कि भारतीय फार्मा उद्योग पूरी दुनिया में अहमियत रखता है। भारत अकेला ऐसा देश है जिसके पास यूएसएफडीए के मानकों के अनुरूप अमेरिका से बाहर सबसे अधिक संख्या में दवा बनाने के प्लांट हैं। ऐसे में पिछले वर्ष 2019-20 में भारत से 21.98 लाख करोड़ रु पये मूल्य की वस्तुओं का निर्यात किया गया था। अब नये परिदृश्य में भारत से अधिक निर्यात बढ़ाकर निर्यात मूल्य को ऊंचाई पर ले जाने की संभावनाएं हैं।
इन दिनों कोरोना संकट की चुनौतियों के बीच राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न रिपोटरे में यह बात उभर कर सामने आ रही है कि भारत रणनीतिपूर्वक कई वस्तुओं का उत्पादन और निर्यात बढ़ा कर दुनिया के उपभोक्ताओं को राहत दे सकता है तथा नई निर्यात संभावनाओं को साकार कर सकता है। यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में चीन के साथ कारोबार करने को लेकर नकारात्मक वातावरण बना है जबकि दुनिया भर में भारत की कारोबारी छवि मजबूत हुई है। ऐसी अनुकूल कारोबारी स्थिति का भारत द्वारा शीघ्रतापूर्वक लाभ लिया जा सकता है। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि चीन की अर्थव्यवस्था अभी पूरी तरह से कोरोना संकट से मुक्त नहीं हो पाई है। चीन के उद्योग अपनी पूरी क्षमता से उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। चीन से निर्यात घट गए हैं। ऐसे में भारत निर्यात के नये मौकों को मुट्ठी में करने के लिए रणनीतिक कदम उठा रहा है। मार्च, 2020 की शुरु आत में भारत ने निर्णय लिया कि चीन से दवाई उत्पादन के लिए आने वाले आयातित कच्चे माल का देश में ही उत्पादन शुरू किया जाए। इसके लिए सरकार ने 2000 करोड़ रु पये खर्च करने की योजना बनाई है। ऐसे में एक ओर सरकार द्वारा निर्यातकों की उन सभी मुश्किलों को दूर करना होगा जिनका वे वर्तमान समय में सामना कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर सरकार द्वारा नये निर्यात प्रोत्साहन देकर निर्यातकों का सहारा बनना होगा। यदि हम इस समय निर्यातकों की ओर देखें तो पाते हैं कि निर्यात उद्योग से संबंधित कई फैक्ट्रियां बंद हैं। भारत में निर्यातकों के संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट्र्स ऑर्गेनाइजेशन (फियो) का कहना है कि देश के निर्यात क्षेत्र की नौकरियां बचाना भी मुश्किल भरा काम हो गया है। अमेरिका, यूरोप सहित कई देशों के बड़े ग्राहकों की ओर से दिए गए विदेशी ऑर्डर रद्द किए जा रहे हैं।
स्थिति यह है कि मई और जून, 2020 की अवधि निर्यातकों के लिए महत्त्वपूर्ण है। यदि इन महीनों में भारत निर्यात के लिए उपयुक्त उत्पादन नहीं करता है तो वह 2020 के पूरे वर्ष के लिए विदेशी खरीदारों की योजना से बाहर हो जाएगा। इसलिए सरकार द्वारा देश के निर्यात क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया जाना जरूरी है। साथ ही, इस क्षेत्र द्वारा जिस राहत पैकेज की अपेक्षा की जा रही है, उसके लिए सरकार द्वारा शीघ्रतापूर्वक कदम उठाए जाने जरूरी हैं।
उम्मीद करें कि प्रधानमंत्री मोदी ने कोविड-19 के खिलाफ अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने और देश से निर्यात बढ़ाने के लिए जो प्लग एंड प्ले मॉडल प्रस्तुत किया है, उससे चीन से बाहर निकलते हुए निर्यात मौकों को भारत अपनी मुट्ठी में लेते हुए दिखाई दे सकेगा। उम्मीद करें कि सरकार द्वारा देश की निर्यातक इकाइयों को प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में अधिक प्रोत्साहन दिए जाएंगे। इससे निश्चित रूप से देश की निर्यातक इकाइयां सुविधापूवर्क उत्पादन करके निर्यात बाजार में तेजी से आगे बढें़गी। उम्मीद करें कि वर्ष 2020 में कोविड-19 की चुनौतियों के बीच भी वैश्विक निर्यात में भारत तेजी से आगे बढ़ेगा और दुनिया में अग्रणी निर्यातक देश के रूप में नई पहचान बनाते हुए दिखाई दे सकेगा।
Date:08-05-20
फिर गैस रिसाव
संपादकीय
आंध्र प्रदेश के आरआर वेंकटपुरम गांव में स्थित केमिकल प्लांट से गैस का रिसना जितना चिंताजनक है, उससे कहीं अधिक दुखद है, गैस रिसाव से लोगों की मौत। रात करीब तीन बजे इस गांव में हुए रिसाव का असर आसपास के कम से कम 20 गांवों तक पहुंच गया। लोगों को जानकारी नहीं थी, वे गैस से बचने के लिए घरों में छिपने की बजाय बेचैन होकर सड़कों पर दौड़ पडे़ और जहरीली गैस की चपेट में आ गए। दोपहर होने तक 10 से ज्यादा लोगों की मौत की सूचना आ गई और सैकड़ों लोगों की हालत गंभीर बताई जा रही थी। आंध्र प्रदेश सरकार ने राजकीय रिवाज के हिसाब से एक लाख से एक करोड़ तक का मुआवजा घोषित कर दिया है। बचाव के तमाम इंतजाम किए जा रहे हैं, आपदा प्रबंधन की टीमें तैनात कर दी गई हैं और शाम होने से पहले ही गैस के खतरे को पूरी तरह काबू में कर लिया गया है। इस हादसे पर प्रधानमंत्री सहित अनेक विदेशी नेताओं ने भी दुख जताया है। दक्षिण कोरिया की उस कंपनी और दक्षिण कोरिया के राजदूत ने भी हादसे को दुखद बताते हुए अपनी संवेदनाओं का इजहार किया है। कोरोना का कहर झेल रहे देश में हुआ यह हादसा हमें कई प्रकार से सोचने को विवश करता है और जांच-समीक्षा की भी मांग करता है। अव्वल तो यह हादसा दूसरे ऐसे रासायनिक और प्लास्टिक बनाने वाले कारखानों के लिए सबक है। लॉकडाउन में बंद कारखानों में अब जब काम तेज होगा, तो उनमें पूरी सावधानी बरतने की जरूरत है। बताया जा रहा है कि इस कारखाने में करीब 40 दिनों के बाद काम शुरू हुआ था। जाहिर है, इतने दिनों से बंद पड़ी गैस की टंकियां और रसायन भंडार खास तवज्जो के साथ नई शुरुआत मांगेंगे। ऐसे तमाम कारखानों के लिए न केवल दिशा-निर्देश जारी होने चाहिए, बल्कि इन कारखानों के प्रबंधकों को स्वयं भी सतर्कता के साथ फिर काम चालू करना चाहिए।
इस गैस रिसाव से भोपाल गैस त्रासदी की याद आना स्वाभाविक है। लगभग 36 साल पहले हुआ वह हादसा लोगों की दिमाग से निकला नहीं है, लेकिन जिस तरह की समझ और सावधानी उस हादसे के बाद से हमारे औद्योगिक व रिहायशी व्यवहार में आनी चाहिए थी, वह नदारद है। क्या भोपाल त्रासदी के बाद तैयार किए गए तमाम बचाव या आपदा प्रबंधन के दिशा-निर्देश हम भूल गए? क्या ऐसे जहरीले कारखानों के पास बसे लोगों को जागरूक या प्रशिक्षित नहीं किया जा रहा है? क्या ऐसे कारखानों के आसपास जागरूकता प्रयास केवल दिखावा हैं? डॉक्टर और विशेषज्ञ यह फिर याद दिला रहे हैं कि किसी गैस की दुर्गंध होने पर गीले कपडे़ से नाक, मुंह ढककर, खिड़की-दरवाजे बंद करके अपने घर में छिप जाना भी एक बुनियादी बचाव उपाय हो सकता है।
अब नए सिरे से यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे कारखाने आबादी के बीच न रहें। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड का कारखाना भी पुराने शहर के बीचो-बीच स्थित था और त्रासदी की वजह बना था। यह हादसा भी हमें संकेत कर रहा है कि ऐसे कारखाने आबादी के बीच रहे, तो कभी भी जानलेवा साबित हो सकते हैं। ऐसे कारखाने कहीं भी खोलने की बजाय एक निश्चित क्षेत्र में सुरक्षित ढंग से बनाए जाएं। सरकारों, कंपनियों और स्थानीय प्रशासन को यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे हादसे देश में फिर कहीं न हों।
Date:08-05-20
ई-लर्निंग की जरूरत को उजागर कर रहा दौर
गिरीश चंद्र त्रिपाठी, अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा परिषद
जीवन के अनेक क्षेत्रों के साथ-साथ मनुष्य ने तकनीक का भी खूब विकास किया। तकनीकी विकास के चलते इंसानी जिंदगी के सभी आयामों में विलक्षण परिवर्तन हुए हैं। और ये बदलाव न केवल मात्रात्मक विस्तार के रूप में हुए, बल्कि गुणात्मक भी हुए हैं। इनका लाभ लोगों ने भरपूर उठाया है। भारत में शिक्षा का तंत्र अत्यंत व्यापक है। अमेरिका ने अभी एक सर्वेक्षण किया है, जिसके आधार पर ई-लर्निंग पाठ्यक्रम में भारत दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरा स्थान रखता है। इस सर्वेक्षण में ई-लर्निंग में नामांकन को आधार बनाया गया था।
शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक के उपयोग से न केवल इसे आम जन तक पहुंचाने में सहूलियत हुई, बल्कि शिक्षा के जो व्यापक उद्देश्य हैं- मसलन, ज्ञान का सृजन, ज्ञान का प्रसार और ज्ञान का संरक्षण, इन तीनों लक्ष्यों को हासिल किया जा सका। इसके अलावा, उद्योग, कृषि, व्यापार व सेवा के क्षेत्र में जिस तरह के लोगों की आवश्यकता है, हम उन्हें उपलब्ध कराने में भी सफल हो सके। तकनीक ने शिक्षा को गुणवत्तापरक बनाने में अहम योगदान दिया है, इसी के कारण नौजवानों और शेष समाज का रुझान ई-लर्निंग की तरफ बढ़ रहा है। ई-लर्निंग से आशय नेटवर्किंग के जरिए दूरस्थ बैठे लोगों को शिक्षण के निर्देश सुलभ कराना है। डिजिटल लाइबे्ररी के जरिए अब हम उन पुस्तकों तक घर बैठे-बैठे आसानी से पहुंच सकते हैं, जो पहले संभव नहीं लगता था।
ई-लर्निंग पद्धति लोकप्रिय इसलिए भी हो रही है, क्योंकि यह सस्ती है। इसमें लचीलापन है। व्यक्ति अपनी जगह, अपने समय के अनुसार रुचि के पाठ्यक्रम में नामांकन करा सकता है। ई-लर्निंग के जो स्रोत और प्लेटफॉर्म आज हमें उपलब्ध हैं, उनमें ज्ञानवाणी, दूरदर्शन, स्वयं, स्वयंप्रभा, नेशनल डिपॉजिटरी ऑफ ओपेन एजुकेशन के शामिल होने के साथ ही यू-ट्यूब, जूम के अलावा वाट्सएप पर अनेक प्रकार के निजी और स्वतंत्र एप लोगों ने विकसित किए हैं। पर हमें सिर्फ दूसरों के एप्स को कॉपी करने की आवश्यकता नहीं है। अपने देश की परिस्थिति, जीवन मूल्यों, और अपनी संस्कृति को समझते हुए एक स्वदेशी सिस्टम विकसित करने की चुनौती हमारे सामने है।
ई-लर्निंग के आकर्षण की एक बड़ी वजह यह है कि आमने-सामने (फेस टु फेस टिचिंग) के पठन-पाठन में एनिमेशन का अभाव है, जबकि ई-लर्निंग में इसे पर्याप्त जगह मिली हुई है। इसीलिए ई-लर्निंग के जो प्रेजेंटेशन हैं, उनमें विद्यार्थियों की रुचि पारंपरिक पढ़ाई की तुलना में बढ़ रही है। कई निजी-सरकारी विश्वविद्यालय दूरस्थ शिक्षा में ई-लर्निंग का सफल प्रयोग कर रहे हैं। इनमें इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय का नाम लिया जा सकता है। यह विश्वविद्यालय तो पूरी तरह दूरस्थ शिक्षा और ई-लर्निंग पर आधारित है। आमने-सामने की शिक्षा की विशेषता यह है कि इसमें न केवल हम टीचर से संवाद करते हैं, बल्कि सहपाठियों के साथ संवाद से भी हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है। कक्षाओं में प्रतिस्पद्र्धा का वातावरण होता है। प्रश्न है कि इस वातावरण में विद्यार्थियों में जो कौशल और कुशलता की वृद्धि होती है, उसे ई-लर्निंग के जरिए हम कैसे विकसित कर सकते हैं? हमें इन दोनों के ‘हाइब्रिड मोड’ को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
कोविड-19 की वैश्विक त्रासदी के दौर में आमने-सामने की पारंपरिक शिक्षा के सामने कठिनाई खड़ी हो गई है। विद्यार्थियों की शैक्षणिक हानि हो रही है। इस हानि को न्यूनतम करना ई-लर्निंग की सबसे बड़ी चुनौती है। हम ई-सामग्रियों को अपलोड करके इस नुकसान की भरपाई कर सकते हैं। यही नहीं, भविष्य में हाइब्रिड मोड के जरिए व्यापक मानव समाज में शिक्षा के प्रसार का लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है। पर इस संभावना की बड़ी चुनौती है- घर बैठे विद्यार्थियों की मन:स्थिति व तनाव को समझकर काउंसिलिंग सेंटर के जरिए ई-सामग्री तैयार करना और उसे अपलोड करना।
इसमें संदेह नहीं कि आज इंटरनेट की सुविधा हमारे पास उपलब्ध है। इसके कारण विद्यार्थियों में ई-लर्निंग के प्रति रुचि बढ़ी हैै। अब स्पेशल एजूकेशनल जोन स्थापित करने की बात हो रही है। इनके स्थापित होने के बाद ई-लर्निंग के जरिए हमें न सिर्फ अपने देश के विशेषज्ञों की विशेषज्ञता का लाभ मिलेगा, बल्कि दुनिया भर के विशेषज्ञों से हम संवाद बना सकेंगे।