08-01-2025 (Important News Clippings)

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08 Jan 2025
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Date: 08-01-25

उच्च उत्पादकता के क्षेत्र मैं रोजगार बढ़ाने होंगे

संपादकीय

विकासशील देशों की सरकारों की नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए कि लोगों को कम उत्पादकता वाले क्षेत्र से उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों की ओर ले जाएं। यह सबसे अधिक भारत पर लागू होता है, जहां आज भी 62% लोग कृषि पर निर्भर हैं। लेकिन हाल में भारत सरकार के एक मंत्री ने एनडीए काल (2014-23 ) की यूपीए काल (2004-13 ) से तुलना में जो आंकड़े पेश किए, वह चौंकाने वाले थे। उनके अनुसार यूपीए काल में कृषि क्षेत्र में रोजगार 16% घटे जबकि एनडीए काल में 19% बढ़े। दरअसल कृषि क्षेत्र से निकाल कर युवाओं को मैन्युफैक्चरिंग और सेवा क्षेत्र में लाना ही तो पिछले 75 साल से भारत की चुनौती बनी हुई है। जीडीपी में समान योगदान वाले मैन्युफैक्चरिंग में कार्यबल का मात्र 12.4% है जबकि सेवा क्षेत्र का योगदान 56% होने के बावजूद मात्र 27% कार्यबल है। जाहिर कृषि में प्रति व्यक्ति उत्पादकता अन्य दोनों क्षेत्रों के मुकाबले काफी कम है। यही कारण है कि पीएम ने अपने प्रारम्भिक काल से ही ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’ और उद्योगों को पीएलआई (उत्पादन-लिंक्ड इंसेंटिव) की घोषणा की। अगर यूपीए के दस साल में तत्कालीन कार्यबल के 16% कृषि से अन्य क्षेत्रों में गए और वर्तमान दस वर्षों में 19% कृषि में बढ़ गए तो यह चौंकाता है।


Date: 08-01-25

विदेश में भारतीयों के प्रति नस्ली घृणा क्यों बढ़ रही है

मिन्हाज मर्चेंट, ( लेखक, प्रकाशक और सम्पादक )

सोशल मीडिया पर लॉस एंजेलेस एयरपोर्ट का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक भारतीय-अमेरिकी परिवार के खिलाफ नस्लवादी टिप्पणी की जा रही थी। हाल के वर्षों में दुनिया में भारतीयों की विजिबिलिटी बढ़ी है। वे शीर्ष पदों पर पहुंचे हैं। लेकिन इसके साथ ही एक्स जैसे मंचों पर भारतीयों के प्रति अपमान, मजाक और नफरत की प्रवृत्ति भी बढ़ती दिख रही है। नस्ली-घृणा सिर्फ ऑनलाइन ही नहीं है। न्यूज रिपोर्ट के अनुसार कनाडा के एक भारतवंशी ने बताया कि ब्रैम्प्टन के बस स्टॉप पर उन्हें इस बात की चिंता रहती है कि क्या ड्राइवर उनके लिए बस रोकेगा? वो कहते हैं कि बस ड्राइवर तभी रुकता है जब वहां कोई श्वेत व्यक्ति हो; अन्यथा वह बस चलाकर आगे बढ़ जाता है।

जहां पश्चिम के देशों में यहूदी-विरोध और इस्लामोफोबिया के प्रति जीरो-टॉलरेंस पॉलिसी है, वहीं भारतीयों पर होने वाले हमलों- जिन्हें अब इंडोफोबिया कहा जाने लगा है- को दरकिनार कर दिया जाता है। लिंक्डइन पर एक छात्रा ने लिखा कि पिछले कुछ हफ्तों में मैंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों, खासकर एक्स पर भारतीयों के खिलाफ नस्लवाद और भेदभाव में चिंताजनक वृद्धि देखी है। ये पोस्ट चुटकुलों के रूप में किए जाते हैं, जिनमें भारतीयों को गंदा या स्कैमर बताया जाता है। हालांकि ऐसी गलत धारणाएं 2000 के दशक में ही चलन में आ गई थीं, लेकिन अब तो ये बहुत अधिक सामान्य हो गई हैं और इसने भारतीय समुदायों के प्रति शत्रुतापूर्ण वातावरण को बढ़ावा दिया है।

अलबत्ता इसके लिए कुछ हद तक ‘एनआरआई’ (यानी ‘न्यूली रिच इंडियंस’) भी जिम्मेदार हैं। अपनी विदेश-यात्राओं के दौरान वे यदा-कदा शिष्टाचार का परिचय नहीं देते, जोर-जोर से बातें करते हैं या एयरलाइन के कैबिन क्रू के प्रति बुरा व्यवहार करते दिखाई देते हैं। अमीर या सफल भारतीयों की नई नस्ल का अनियंत्रित व्यवहार सिर्फ व्यापारियों तक ही सीमित नहीं है। यह क्रिकेट के मैदान पर भी दिख रहा है। भारत के स्टार बल्लेबाज विराट कोहली ने 19 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई बल्लेबाज सैम कोंस्टास को जानबूझकर कंधे से ठोकर मारी। उन पर मैच फीस का 20% जुर्माना लगाया गया और एक डी-मेरिट अंक भी दिया गया। कोहली ने हाल ही में यह भी कहा है कि वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ लंदन में बसना चाहते हैं। भारत के शीर्ष क्रिकेटरों में चली आई यह अधिकार-सम्पन्नता की भावना- जिसमें आईपीएल से मिली दौलत का भी योगदान है- उन्हें अपनी प्राथमिकताओं को देश के प्रति अपने कर्तव्य से ऊपर रखने की अनुमति देती है। कोहली और रोहित शर्मा दोनों ने अतीत में निजी कारणों से टेस्ट मैचों में नहीं खेलने का निर्णय लिया है। उनके कारण उचित हो सकते हैं, लेकिन यह विशेषाधिकार और एनटाइटलमेंट को भी दर्शाता है।

जैसा कि अमित मजुमदार लिखते हैं : सम्भव है यह समाज में बढ़ रही एक बड़ी बीमारी के लक्षण हों। आज हम देखते हैं कि डिलीवरी एजेंटों और उबर ड्राइवरों के साथ सहानुभूति और करुणा का व्यवहार नहीं किया जाता है और अंतरराष्ट्रीय उड़ानों में भारतीय विवाद करते पाए जाते हैं। इतना ही नहीं, हम इसके बारे में बेपरवाह होकर इस पर गर्व भी करते हैं।

दुनिया में भारत के बढ़ते रसूख और उसकी आर्थिक ताकत भी विदेशियों के मन में ईर्ष्या और विद्वेष को जन्म देती है, जो इंडोफोबिक हमलों के रूप में व्यक्त होती है। 1960 और 1970 के दशक में बड़े पैमाने पर भारतीय-प्रवासी पश्चिम पहुंचे थे। उनमें से अधिकांश ने पेशेवर और आर्थिक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है। उनके बच्चे- जिनमें से कई पश्चिम के देशों में ही जन्मे हैं- खुद को दो राष्ट्रीयताओं के बीच फंसा पाते हैं। उन्हें अक्सर स्कूल या काम पर नस्लवाद का सामना करना पड़ता है। खुद इंग्लैंड के पूर्व प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि उन्हें स्कूल में नस्लवाद का सामना करना पड़ा था।

सोशल मीडिया के बढ़ते चलन ने नस्लवादियों को अपनी नफरत का प्रदर्शन करने का मौका दिया है। वे अपने स्मार्टफोन पर ‘तीसरी दुनिया के भारतीयों’ के प्रति आक्रोश व्यक्त करते हैं। किसी ने नहीं सोचा था कि भारत एक गरीब ब्रिटिश उपनिवेश से दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। कई लोगों का मत है कि भारत जैसे गरीब देश की हिम्मत कैसे हुई कि वह दुनिया का नेतृत्व करने की आकांक्षा रखे। चाहे क्रिकेटर हों या अमीर भारतीय, वे पश्चिम में ईर्ष्या का कारण बनते हैं। जब अमीर भारतीय किसी फ्लाइट या विदेशी मॉल में बुरा व्यवहार करते हैं, तो यही ईर्ष्या नस्ली फब्तियों में बदल जाती है। सोशल मीडिया इसे और बढ़ावा देता है। जहां पश्चिम के देशों में यहूदी-विरोध और इस्लामोफोबिया के प्रति जीरो-टॉलरेंस पॉलिसी है, वहीं भारतीयों पर होने वाले हमलों- जिन्हें अब ‘इंडोफोबिया’ कहा जाने लगा है- को दरकिनार कर दिया जाता है।


Date: 08-01-25

डाटा संरक्षण

संपादकीय

यह स्वागतयोग्य है कि केंद्र सरकार डाटा संरक्षण नियमावली को अंतिम रूप देने के पहले जनता के सुझावों से अवगत होना चाहती है। इसी दृष्टि से उसने इस नियमावली का मसौदा जारी किया है। आज डाटा सुरक्षा एक अनिवार्य आवश्यकता है, क्योंकि लोगों के निजी डाटा की चोरी और उसके दुरुपयोग के मामले बढ़ रहे हैं। कई बार तो सोशल मीडिया कही जाने वाली इंटरनेट कंपनियां ही इस डाटा का दुरुपयोग करती हैं। लोगों का डाटा चोरी होता ही रहता है। जब ऐसा होता है तो संबंधित कंपनी आगे और सतर्कता बरतने का आश्वासन देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। चिंताजनक केवल यह नहीं है कि लोगों की सहमति के बिना उनके व्यक्तिगत डाटा का इस्तेमाल विभिन्न कंपनियां मनमाने तरीके से करती हैं, बल्कि यह भी है कि उसके जरिये उनके विचारों को प्रभावित करने की भी कोशिश की जाती है। ऐसे में ऐसी कोई व्यवस्था बननी ही चाहिए, जिससे लोगों को यह पता चल सके कि इंटरनेट कंपनियां उनकी व्यक्तिगत जानकारी का इस्तेमाल किस तरह कर रही हैं। यह भी जरूरी है कि देश के लोगों का डाटा देश में ही रहे।

डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण संबंधी प्रस्तावित नियमावली में एक प्रविधान यह भी है कि सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म पर अकाउंट खोलने वाले 18 साल से कम आयु के बच्चों को माता-पिता की सहमति लेनी होगी। यह प्रविधान उपयुक्त तो दिखता है, लेकिन इसमें संदेह है कि इस पर प्रभावी ढंग से अमल हो सकेगा, क्योंकि माता-पिता की सहमति की नौबत तो तब आएगी, जब बच्चा अपनी आयु 18 से वर्ष से कम बताएगा। यदि वह ऐसा नहीं करता और अपनी उम्र 18 वर्ष या इससे अधिक बताता है, जिसकी संभावना भी है तो बहुत आसानी से सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म पर अपना अकाउंट खोलने में समर्थ हो जाएगा। यह किसी से छिपा नहीं कि ऐसे प्लेटफार्मों पर बहुत सी सामग्री ऐसी होती है, जो बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं होती। ऐसे प्लेटफार्म बच्चों के स्वाभाविक विकास में बाधक बनने के साथ ही उन्हें मोबाइल का लती भी बना रहे हैं। इसके चलते ही आस्ट्रेलिया ने अभी हाल में बच्चों को सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए यह कानून बना दिया है कि कोई भी सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म 16 वर्ष से कम आयु के किसी बच्चे का अकाउंट नहीं खोल सकता। यह बहस का विषय है कि क्या भारत को भी ऐसा करना चाहिए? इस बहस के बीच यह भी समझा जाना चाहिए कि बच्चों को सोशल नेटवर्क साइट्स के दुष्प्रभावों से बचाने की जिम्मेदारी केवल सरकार पर नहीं डाली जा जा सकती। यह जिम्मेदारी अभिभावकों को खुद भी उठानी होगी। उन्हें यह देखना होगा कि यदि उनका बच्चा मोबाइल फोन का उपयोग कर रहा है तो वह किस तरह की सामग्री देख रहा है।


Date: 08-01-25

मनमोहन सिंह की विरासत का मूल्यांकन

विवेक काटजू, ( लेखक पूर्व राजनयिक हैं )

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के निधन के बाद मध्य वर्ग से लेकर कारोबार जगत और औद्योगिक एवं राजनीतिक गलियारों में शोक जताया गया। खांटी नेता न होते हुए भी उन्होंने राजनीतिक मोर्चे पर इतना कुछ हासिल किया, जिसकी कुछ लोग सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं। डा. सिंह एक बुद्धिजीवी भी थे और उन्होंने भारतीय नीतिगत परिदृश्य पर अपनी व्यापक छाप छोड़ी। हालांकि इसे भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक पटल के शीर्ष पर बैठे लोग जिस प्रकार नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं, उसमें डा. सिंह अपेक्षित रूप से असर नहीं छोड़ पाए। चाहे प्रधानमंत्री का दायित्व हो या फिर उससे पहले वित्त मंत्री का, उनकी भूमिका मुख्य रूप से वास्तविक राजनीतिक शक्ति से लैस दिग्गजों के सहायक-सलाहकार की ही रही, जिन्होंने स्वीकार्य नीतियों को नौकरशाही के जरिये लागू करने का काम किया। जब वह प्रधानमंत्री थे तो पूरी राजनीतिक शक्ति सोनिया गांधी के पास थी, जो उस समय तमाम निर्णायक फैसलों से जुड़ी रहीं। उनके पास ही वह शक्ति थी, जिससे वह मनमोहन सिंह को कोई भी फैसला लेने के लिए प्रोत्साहित करने के साथ ही उन्हें किसी निर्णय को लेने से रोक भी सकती थीं। इसी तरह जब डा. सिंह वित्त मंत्री थे, तब वस्तुतः प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने ही अर्थव्यवस्था के उदारीकरण को हरी झंडी दिखाई। यह एक विडंबना ही है कि राव को भारतीय इतिहास में वह सम्मान और स्थान नहीं मिला, जिसके वह सर्वथा सुपात्र थे। उन्होंने शीत युद्ध के बाद अस्थिरता वाले वैश्विक दौर में भारत को सही राह दिखाई और 6 दिसंबर, 1992 की घटना को लेकर उन पर चाहे जितने सवाल उठें, इससे उनकी विरासत संदिग्ध नहीं हो जाती।

राजनीति में सक्रिय लोगों की यात्रा उतार-चढ़ाव वाले विभिन्न पड़ावों से होकर गुजरती है। बेशक राजनीतिक परिवारों से आने वालों की राह भी आसान नहीं रहती, लेकिन जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं होती, उनके लिए यह यात्रा और कठिन हो जाती है। जो किसी तरह के प्रत्यक्ष चुनाव के जरिये आगे बढ़ते हैं, वही असल राजनीतिक राह के पथिक बनते हैं। चुनावों के जरिये मिलने वाले राजनीतिक सबक ही किसी को खांटी नेता के रूप में ढालते हैं। उससे उन्हें समझ आता है कि जनता की नब्ज को कैसे भांपना है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ऐसे नेता जनता का भरोसा जीतने में सफल होते हैं, क्योंकि वे लंबे समय तक उनके साथ संवाद से जान जाते हैं कि लोगों के मन में क्या है और वे क्या चाहते हैं? वे लोगों के सुख-दुख के साथी बन जाते हैं। यह कुछ ऐसा अनुभव है, जिसे अकादमिक जगत के लोग, टेक्नोक्रेट और निजी क्षेत्र के पेशेवर शायद कभी अर्जित नहीं कर पाएं। इसलिए यह पूरी तरह उचित ही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वही लोग उच्च राजनीतिक पदों पर बैठने के योग्य हैं, जो लोगों का भरोसा जीत पाएं। प्रधानमंत्री के मामले में यह पहलू और भी उल्लेखनीय हो जाता है। यह ऐसा पद नहीं, जिसे कभी आउटसोर्सिंग से भरा जाना चाहिए। यह मनमोहन सिंह की उपलब्धियों, अनुभव और व्यक्तित्व का अवमूल्यन करने का प्रयास नहीं, बल्कि इसका सरोकार भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के व्यापक हित से जुड़ा है। लोग जनादेश के जरिये ही अपना भाग्य-विधाता चुनते हैं और ऐसा व्यक्ति किसी अन्य को अपने अधिकार नहीं सौंप सकता। भले ही वह व्यक्ति लंबे समय से राज्यसभा में ही क्यों न रहा हो। देश 2004 से 2014 के बीच इन्हीं स्थितियों का साक्षी रहा।

जनादेश की यह कसौटी जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी और नरेन्द्र मोदी तक लागू होती है। मोदी जनादेश के दम पर ही राजग का नेतृत्व कर रहे हैं। क्या यह उचित रहता कि वह पर्दे के पीछे से सक्रिय रहकर किसी पेशेवर को प्रधानमंत्री का पद सौंप देते? इस बिंदु पर विचार तक नहीं किया जा सकता, क्योंकि लोगों की ही यही अपेक्षा है कि जब तक उनकी चाहत है, तब तक मोदी ही नेतृत्व करें। निःसंदेह यह नहीं कहा जा सकता कि नेताओं या प्रधानमंत्री की राजनीतिक मजबूरियां या आग्रह नहीं होते। निःसंदेह ऐसा होता है और वे उन्हीं के दायरे में अपने विकल्प चुनते हैं। माना जाता है कि अटल बिहारी वाजपेयी जसवंत सिंह को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन संघ परिवार के दबाव में ऐसा नहीं कर पाए। बहुत बाद में जाकर 2002 में वह जसवंत सिंह को वित्त मंत्रालय का जिम्मा सौंप सके। यह दर्शाता है कि तब सत्ता समीकरण अटलजी के अधिक अनुकूल हो गए थे। राजनीति का यही चरित्र और प्रकृति है। इसी तरह, स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दौर में जवाहरलाल नेहरू को अपनी ही पार्टी के परंपरावादी तबके के दबाव से जूझना पड़ा, लेकिन बाद में चुनावी जीत के जरिये ही वह अपनी पकड़ मजबूत बनाने में सफल रहे। यही बात इंदिरा गांधी के बारे में कही जा सकती है, जिन्होंने कांग्रेस को दोफाड़ कर अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित किया।

महान प्रशासक, रणनीतिक विशेषज्ञ, सैनिक, अकादमिक, उद्यमी, राजनयिक, कलाकार और अन्य विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय लोग देश के प्रति अपने-अपने स्तर पर योगदान देते हैं। वे सम्मान और प्रतिष्ठा के पात्र हैं। इसके बावजूद उन्हें शीर्ष राजनीतिक पद की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए और यदि जनादेश प्राप्त लोग अपने हितों को देखते हुए उन्हें ऐसी कोई जिम्मेदारी सौंपते हैं तो फिर उस दौरान लिए गए अच्छे-बुरे फैसलों का दारोमदार भी उन्हीं राजनीतिक लोगों का होना चाहिए, जो उन्हें सत्ता सौंपते हैं। उन लोगों के बीच स्पष्ट रूप से अंतर किया जाए, जिन्हें चुनावी प्रक्रिया के जरिये लोगों का भरोसा प्राप्त होता है और जिन्हें जनादेश हासिल करने वाले तोहफे में सत्ता सौंप देते हैं। भारतीय संवैधानिक ढांचे और राजनीतिक प्रणाली की भावना ऐसी तोहफे वाली व्यवस्था में निहित नहीं है। अमेरिका जैसे देशों में तो यह असंभव सा है। डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए हैं और यह जनादेश वह किसी और को हस्तांतरित नहीं कर सकते।


Date: 08-01-25

नवाचार है नई अर्थव्यवस्था का इंजन

अजय कुमार, ( लेखक पूर्व रक्षा सचिव और आईआईटी, कानपुर में विजिटिंग प्रोफेसर हैं )

उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला ने हाल में कहा, ‘आज किसी भी व्यवसाय को शुरू करने के लिए एक करोड़ रुपये भी पर्याप्त नहीं हैं।’ वह व्यवसाय को बड़े पैमाने पर बढ़ाने और इसके लिए आवश्यक पूंजी के पहलू को रेखांकित कर रहे थे। वहीं, इनोवेशन यानी नवाचार को बढ़ावा देने के अपने अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि आज इनोवेशन और रचनात्मकता वित्तीय संसाधनों से अधिक अहम है। एक साधारण इनोवेशन अक्सर भारी-भरकम पूंजी की तुलना में कहीं असाधारण शक्ति प्रदान करता है। भारत में स्टार्टअप इंडिया के तहत 1.4 लाख से अधिक स्टार्टअप पंजीकृत हैं। लाखों स्टार्टअप अस्तित्व में आने की तैयारी कर रहे हैं। अधिकांश स्टार्टअप मामूली अनुसंधान अनुदान पर या छोटी व्यक्तिगत बचत पर निर्भर हैं।

आईआईटी कानपुर में स्टार्टअप इनक्यूबेशन एंड इनोवेशन सेंटर यानी एसआईआईसी के साथ अपने जुड़ाव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि अधिकांश स्टार्टअप दृढ़ संकल्प और एक सम्मोहक विचार से लैस और छोटे अनुदानों पर निर्भर होते हैं। कई मायनों में वे लाख रुपये से ही शुरुआत करते हैं और वे भी किसी सरकारी या गैर-सरकारी एजेंसी द्वारा प्रदान किए जाते हैं। यह अनुदान उन्हें लैब-स्केल प्रोटोटाइप विकसित करने और उसकी अवधारणा के प्रमाण को मान्य करने में सक्षम बनाते हैं। एक बार बात आगे बढ़ने पर एंजल निवेशकों तक उनकी पहुंच हो जाती है। एंजल निवेशक इकोसिस्टम प्रारंभिक चरण के स्टार्टअप्स को एंजल फंडिंग और डीपीआईआईटी, डीएसटी और रक्षा मंत्रालय जैसे निकायों से सरकारी अनुदान के माध्यम से हर वर्ष लगभग 10,000 से 15,000 करोड़ रुपये मिल जाते हैं, जो इन नए उद्यमों की आरंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति में उपयोगी होते हैं।
इस कड़ी में वेंचर कैपिटल यानी वीसी उद्योग भी अहम भूमिका निभा रहा है। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के दूरदर्शी प्रोफेसर फ्रेडरिक टर्मन ने स्टार्टअप की क्षमता को तब समझा, जब उन्होंने विलियम हेवलेट और डेविड पैकार्ड को हेवलेट-पैकार्ड कंपनी स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया। बाद में यही एचपी नाम का दिग्गज कंप्यूटर ब्रांड बना। अमेरिका की सिलिकन वैली उद्यमों की ऐसी ही सफलता गाथाओं से भरी है। भारत में ही पिछले 10 वर्षों के दौरान वीसी उद्योग तेजी से बढ़ा है। वर्ष 1993 तक इस क्षेत्र में जहां केवल आठ कंपनियां प्रतिवर्ष 100 करोड़ रुपये से कम का प्रबंधन करती थीं, वहीं अब इस उद्योग में 1,750 से अधिक कंपनियां सक्रिय हैं, जिनका निवेश प्रतिवर्ष दो लाख करोड़ के करीब है।

पारंपरिक सोच यह है कि प्रतिस्पर्धा के लिए व्यवसाय का बड़ा होना अनिवार्य है। हालांकि आज की वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था ने इस अवधारणा पर सवालिया निशान लगाए हैं, क्योंकि छोटी कंपनियां भी बहुत जल्द अपना दायरा बढ़ाकर वैश्विक स्तर पर स्थापित हो जाती हैं। इनमोबी और जोहो इसके उदाहरण हैं। उनका आकलन केवल पूंजी से नहीं, बल्कि उनकी अभिनव क्षमताओं से ही संभव है। उनकी ये क्षमताएं उन्हें प्रतिस्पर्धी बनाती हैं। मुंबई के मशहूर डिब्बावालों को ही देखें तो वे पूंजी के बजाय सरलता के माध्यम से अपने दायरे के विस्तार की एक उम्दा मिसाल हैं। वे रोजाना बड़े पैमाने पर लंच बाक्स वितरित करते हैं और वह भी सीमित बुनियादी ढांचे के साथ। नई अर्थव्यवस्था में बौद्धिक संपदा यानी आईपी के माध्यम से भी धन का तेजी से सृजन हो रहा है। आईपी के लिए इनोवेशन सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। आईपी से न केवल संपदा सृजन, बल्कि प्रतिस्पर्धा और विकास में भी मदद मिलती है। वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रापर्टी आर्गेनाइजेशन के अनुसार 2020 में वैश्विक आईपी संपत्तियों का मूल्य 100 ट्रिलियन (लाख करोड़) डॉलर से अधिक था और उसमें वृद्धि जारी है। भारत में 2013-14 और 2023-24 के बीच स्टार्टअप द्वारा आईपी फाइलिंग में लगभग पांच गुना वृद्धि हुई है।

इनोवेशन सिर्फ नई और उभरती हुई तकनीकों तक सीमित नहीं है। इसकी सफलता गाथाएं विविधतापूर्ण एवं नवोन्मेषी भावना को उजागर करती हैं, जो पूरे भारत में विकास को गति दे रही हैं। अगर सवाल यह है कि इनोवेशन ज्यादा महत्वपूर्ण है या वित्तीय पूंजी तो तथ्य खुद ही सब कुछ बयान कर देते हैं। अनुमान है कि स्टार्टअप इकोसिस्टम 2025 तक हर साल एक करोड़ से अधिक नौकरियां पैदा करेगा। 2020 में नास्काम और जिन्नोव के एक सर्वेक्षण के अनुसार 58 प्रतिशत से अधिक भारतीय छात्रों ने पारंपरिक करियर विकल्पों के बजाय अपना स्टार्टअप शुरू करने को तरजीह दी। 2023 में डीपीआईआईटी के साथ 70,000 से अधिक स्टार्टअप पंजीकृत हुए। इनके संस्थापकों में से अधिकांश 30 साल से कम उम्र के हैं। टियर-2 और टियर-3 शहरों में देश के 30 प्रतिशत स्टार्टअप सक्रिय हैं और प्रतिवर्ष लगभग पांच लाख से ज्यादा नौकरियां सृजित कर रहे हैं। इनमें से अधिकांश उद्यम महज कुछ लाख रुपये की मामूली पूंजी से शुरू हुए। निष्कर्ष यही है कि उद्यम के लिए पूंजी अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन इनोवेशन नई अर्थव्यवस्था का असली इंजन है। अब पूंजी इनोवेशन का अनुसरण करती है। व्यवसाय में सफलता आपकी पूंजी के आकार से नहीं, बल्कि आपके विचारों की शक्ति से आती है। इनोवेशन वृद्धि का सबसे बड़ा उत्प्रेरक है, जो सपनों को उद्यमों में और बाधाओं को अवसरों में बदल देता है।


Date: 08-01-25

समस्याओं का समाधान हो

संपादकीय

छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में नक्सलियों ने सोमवार को बारूदी सुरंग में विस्फोट करके पुलिस वाहन को उड़ा दिया जिसमें 8 जवान शहीद हो गए। इस हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद को खत्म करने का संकल्प व्यक्त किया। कोई भी लोकतांत्रिक सरकार किसी भी तरह की हिंसा को चाहे वह किसी भी विचार से प्रेरित क्यों न हो, बर्दाश्त नहीं कर सकती। इस अर्थ में अमित शाह का बयान पूरी तरह उचित है। लेकिन दूसरी ओर यह समझना भी लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी है कि आदिवासी क्षेत्रों में नक्सलवाद को जगह क्यों मिली। इस क्षेत्र में आदिवासियों के जल, जमीन और जंगल पर जिस तरह डाला जाता रहा, उन्हें उन्हीं की मूल आजीविका स्रोतों और संसाधनों से वंचित किया जाता रहा इसकी कहानियां किसी से छिपी नहीं है। आदिवासियों के इसी भयावह शोषण के प्रतिरोध में नक्सलवाद ने वहां अपने पैर जमाए और आदिवासियों ने भी इसे अपनी मुक्ति का एकमात्र मार्ग मानकर अपनाया। यहां यह ध्यान रखने वाली बात है कि नक्सलवादी लोग चोर, लुटेरे, डकैत नहीं है जो अपनी तई हिंसा करते हैं। उनकी हिंसा सैद्धांतिक तौर पर भी कितनी गलत क्यों न हो, लेकिन इस पहलू को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता उनकी हिंसा आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध तथा एक अत्यधिक कमजोर वर्ग के पक्ष में खड़ी हिंसा है। क्योंकि यह एक विचार प्रेरित हिंसा है। अगर केंद्र और राज्य की सरकारों ने आदिवासियों के शोषण पर प्रारंभ में ही लगाम लगाई होती, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कवच तैयार किए होते, उनके सांस्कृतिक व्यवहारों के अश्लील दोहन पर जंजीरें कसी होती तो नक्सली हिंसा को वहां जगह नहीं मिलती। अगर आज भी आदिवासी क्षेत्र से नक्सली हिंसा को समाप्त करना है तो प्राथमिक तौर पर उन कारकों के उन्मूलन पर गौर करना चाहिए जिनकी वजह से यह हिंसा उत्पन्न हुई। अच्छा होता कि अमित शाह मार्च 2026 तक नक्सलवाद को खत्म करने के साथ यह घोषणा भी करते कि मार्च 2026 से पहले आदिवासियों के किसी भी तरह के दोहन- शोषण के हर तंत्र को ध्वस्त किया जाएगा। केवल कुछ लाभकारी घोषणाओं से काम नहीं चलेगा, बल्कि आदिवासियों की मांगों को वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए उनकी समस्याओं के ठोस समाधान उपलब्ध कराने होंगे। जब ऐसा होगा तभी हिंसा खत्म होगी।


Date: 08-01-25

भूकंप का घातक प्रहार झेलने के लिए हम कितने तैयार

अतींद्र कुमार शुक्ला

मंगलवार सुबह चीन में आए भूकंप की वजह से 60 से ज्यादा लोगों की मौत बहुत दुखद है और इससे भूकंप के मामलों में हमारी लाचारी का भी पता चलता है। यह भूकंप एक बार फिर संवेदनशील माने जाने वाले देशों के लिए चेतावनी है। भूकंप के जोखिम और उससे जुड़े तमाम इंतजामों को फिर परख लेना समय की मांग है।

यह बात हम ठीक से जानते हैं कि भारतीय भूभाग का 59 प्रतिशत हिस्सा भूकंप की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील है। भूगर्भीय प्लेट की वजह से ही भूकंप आते हैं और हिमालय खास तौर पर संवेदनशील है। साल 1975 से अब तक अगर देखें, तो छह मैग्नीट्यूड या उससे ऊपर के आठ भूकंप आ चुके हैं। इनमें से कच्छ का भूकंप 6.9 मैग्नीट्यूड का था। पांच दशक के समय में ही आठ बड़े भूकंपों ने लोगों की चिंता बढ़ा रखी है।

कुछ चिंताएं हैं, क्या भूकंप सुबह के समय ज्यादा आते हैं? क्या ठंड के दिनों में ज्यादा आते हैं? वैसे भूकंप का कोई तय समय या मौसम नहीं है, फिर भी यह ध्यान आता है कि भुज का भूकंप 26 जनवरी, 2001 को आया था, तो बिहार-नेपाल में 1934 का खतरनाक भूकंप 15 जनवरी को आया था। वैसे, सावधान रहना चाहिए कि भूकंप कभी भी आ सकता है। बड़ा सवाल यह है कि नुकसान कितना होगा? नुकसान से जुड़ा एक अध्ययन साल 2013 में ही बिहार में किया गया था। यह जानने की कोशिश की गई थी कि साल 1934 में बिहार-नेपाल में 8.4 मैग्नीट्यूड का भूकंप आया था, वैसा ही भूकंप अगर फिर आए, तो क्या होगा? अध्ययन में देखा गया था कि अगर रात के समय भूकंप आता है, तो कितना नुकसान होगा और दिन में आया भूकंप कितना घातक होगा? दस करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले बिहार में अगर रात के समय भूकंप आता है, तो दो लाख 22 हजार से ज्यादा मौत का अनुमान है। यही अगर दिन में आए, तो 72 हजार से ज्यादा मौतें हो सकती हैं।

अब सवाल है कि हम बचाव के लिए क्या करें? वास्तव में, आज अपने घरों और भवनों को भूकंप सहने लायक बनाने की जरूरत सबसे बड़ी है। पर्याप्त वैज्ञानिक अध्ययन हुए हैं, भूकंपरोधी निर्माण के मापदंड बने हैं, पर क्या उनकी पालना हो रही है? यह केवल सरकारों को ही नहीं, बल्कि आम लोगों को भी सोचना चाहिए। एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या हम समय पूर्व चेतावनी का कोई तंत्र बना सकते हैं? भूकंप से जो ऊर्जा पैदा होती है, वह विभिन्न लहरों या वेव के माध्यम से विभिन्न जगह पहुंचती है। मुख्य लहर को हम प्राथमिक या प्राइमरी लहर और द्वितीय या सेकेंडरी लहर के नाम से जानते हैं। इन लहरों के समय में अंतर होता है। इस अंतर को ध्यान में रखकर हम चेतावनी जारी कर सकते हैं।

जब कोई भूकंप होता है, तो प्राइमरी लहर बहुत जल्दी आती है, उसकी गति ज्यादा होती है, जबकि सेकेंडरी लहर कुछ देर से आती है, इसकी गति कुछ धीमी होती है। प्राइमरी लहर जब आती है, तब एक धक्का सा महसूस होता है। सेकेंडरी लहर से भूमि में कंपन होता है, वह ऊपर-नीचे होने लगती है। अगर घर या भवन मजबूती से न खड़े हों, तो सेकेंडरी लहर में गिर जाते हैं। अगर भूकंप की पहली लहर के आते ही अगर लोगों को सूचित कर दिया जाए, तो जान-माल के नुकसान से बचा जा सकता है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि आप भूकंप के केंद्र से कितनी दूर हैं, उसी हिसाब से आप तक चेतावनी को पहुंचाया जा सकता है। आप भूकंप के केंद्र से दूर हैं, तो फिर प्राइमरी वेव के बाद आपके पास कुछ सेकंड या मिनट भर का समय रहता है, जब आप बचाव कर सकते हैं।

प्राइमरी वेव के बाद मेट्रो परिचालन को तत्काल रोका जा सकता है। अन्य जोखिम भरी सेवाओं को रोका जा सकता है। ऐसे चेतावनी तंत्र का इस्तेमाल मैक्सिको, कैलिफोर्निया इत्यादि में किया जाता है। चेतावनी मिलते ही लोग तत्काल घर-भवन से बाहर आ जाते हैं। भारत में भी ऐसा चेतावनी तंत्र बनाने का समय आ गया है। जैसे हिमालय में भूकंप आए, तो बिहार में कम से कम तीस-चालीस सेकंड का समय बचाव के लिए मिल सकता है।

मिसाल के लिए, चीन में अभी जो भूकंप आया है, उसे बिहार में ज्यादा महसूस किया गया। अगर चीन अपने यहां चेतावनी तंत्र को पुख्ता करे और तत्काल भारत को सचेत कर दे, तो हमें बचाव में मदद मिल सकती है।