08-01-2020 (Important News Clippings)

Afeias
08 Jan 2020
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Date:08-01-20

Young And Restless

Urban India is not a jobs dynamo, this can sap the potential benefits of demographic transition

TOI Editorials

The age structure of a society has far-reaching impact on its economic trajectory. India is in the midst of a phase where the economy can benefit on account of a demographic dividend, a surge in economic growth that has its roots in decline of both fertility and mortality rates. This is when the proportion of working age people increases. The Indian experience, so far, has been disappointing. Population in the 0-19 age bracket has already peaked. However, available data suggests that we are facing an employment crisis, particularly among recent entrants to the working age population.

CMIE’s quarterly update on the job market shows that the October-December period was the worst since 2016. Unemployment stood at 7.85%, the highest level in over three years. While these numbers are worrisome, what should alarm policy makers is the trend in urban employment. Cities are the locomotive of India’s growth. They should ideally provide options for young job seekers from rural India. Such movement will also have a positive impact on the agrarian economy by reducing pressure on land. But recent Indian experience suggests that urban India is simply not the jobs dynamo it should be.

The CMIE data, for instance, shows that employment ratio in urban India is lower than rural parts of the country. This is not a one-off, but something observed for a while. This is the alarming aspect of available jobs data. Economic growth may have slowed but the bottom line is that the economy is still expanding. However, that is not translating into adequate jobs. In this scenario, India runs the risk of watching a potential demographic dividend turn into a nightmare. Preventing this requires more and better data. This needs to be supplemented with more targeted interventions to enhance employability of young job seekers.


Date:08-01-20

बजट से ही आस

संपादकीय

राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) ने चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर पांच फीसदी रहने का जो पहला अग्रिम अनुमान लगाया है वह भारतीय रिजर्व बैंक के हालिया रुख के अनुरूप ही है और अचरज में नहीं डालता है। लेकिन यह गत जुलाई में पेश आर्थिक समीक्षा में अनुमानित सात फीसदी की वृद्धि से खासा कम है।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस वित्त वर्ष में विनिर्माण गतिविधियां दो फीसदी दर से बढऩे का अनुमान है जबकि वर्ष 2018-19 में यह 6.9 फीसदी रही थीं। इसी तरह रोजगार के लिहाज से अहम निर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर 3.2 फीसदी रहने का अनुमान है जो गत वित्त वर्ष में 8.7 फीसदी रही थी। सकल स्थायी पूंजी निर्माण के आंकड़े खास तौर पर चिंताजनक हैं। गत वित्त वर्ष में दस फीसदी पर रहा सकल स्थायी पूंजी निर्माण इस साल महज एक फीसदी की दर से ही बढ़ता दिख रहा है। हालांकि पिछले साल की तुलना में चालू वित्त वर्ष में सरकारी गतिविधियों में अधिक तेजी है लेकिन मौजूदा राजकोषीय स्थिति में यह भी दबाव में आ सकता है।

नॉमिनल संदर्भ में अर्थव्यवस्था के महज 7.5 फीसदी दर से ही बढऩे की संभावना है जबकि जुलाई में बजट पेश करते समय 12 फीसदी का अनुमान लगाया गया था। अपेक्षित स्तर से सुस्त वृद्धि हालात को अपने-आप जटिल बनाएगी। मसलन, अगर समग्र रूप में सकल राजकोषीय घाटा लक्षित स्तर तक ही सीमित रहता है तो अर्थव्यवस्था के आकार में अनुमान से कम वृद्धि जीडीपी प्रतिशत में घाटा बढ़ा देगी। इसके अलावा सरकार को अपने राजस्व में 2 लाख करोड़ रुपये की संभावित गिरावट से भी निपटना होगा। सरकार के विनिवेश लक्ष्य हासिल नहीं कर पाने की आशंका समस्या को और बढ़ाने का ही काम करेगी। नतीजतन, सरकार को अपने व्यय में करीब 2.2 लाख करोड़ रुपये की कटौती करनी पड़ सकती है। राजस्व परिदृश्य के मद्देनजर व्यय को कुछ हद तक तर्कसंगत बनाना अपरिहार्य हो जाएगा लेकिन सरकार को आर्थिक गतिविधियों पर इसके प्रभाव को लेकर भी सजग रहने की जरूरत होगी। आंकड़े बताते हैं कि सरकारी व्यय का साथ नहीं मिलने पर वृद्धि और भी कमजोर होती। सुस्त नॉमिनल वृद्धि भारतीय कारोबारों को भी प्रभावित करेगी और कर्ज चुकाने में उन्हें अधिक मुश्किलें होने लगेंगी। यह बैंकिंग प्रणाली को दबाव में ला सकता है जिससे ऋण प्रवाह में भी कमी आएगी।

आर्थिक वृद्धि में तेजी आने की संभावनाएं पश्चिम एशिया में पैदा हुए नए तनाव से धूमिल हुई हैं। कच्चे तेल की आपूर्ति में बाधा पडऩे और तेल के भाव बढऩे की आशंका वैश्विक एवं घरेलू वृद्धि दोनों पर असर डालेगी। तेल कीमतों में वृद्धि और रुपये के भाव में कमी शीर्ष मुद्रास्फीति बढ़ा सकती है जिससे निकट अवधि में ब्याज दरों में कटौती की संभावना कम हो जाएगी। रुपये का व्यवस्थित मूल्यह्रास जहां भारतीय निर्यातकों को मदद पहुंचाएगा वहीं वैश्विक जोखिम से बचने की कोशिश मुद्रा बाजार में अस्थिरता बढ़ा सकती है।

बहरहाल, मौजूदा स्थिति के लिहाज से वित्तीय बाजारों में जोखिम को बड़े केंद्रीय बैंकों के समझौतावादी रुख से एक हद तक संतुलित कर लिया जाएगा। वृद्धि को लेकर वैश्विक जोखिम होने के बावजूद इस समय भारत की चुनौतियां काफी हद तक घरेलू हैं। लिहाजा अर्थव्यवस्था की हालत पर नए सिरे से गौर करना होगा और सभी हितधारकों को यह देखने के लिए अब केंद्रीय बजट की तरफ नजरें टिकानी होंगी कि सरकार वृद्धि तेज करने के लिए क्या योजना बना रही है? वास्तविक आर्थिक एवं राजकोषीय स्थिति को स्वीकार करना इस लक्ष्य की तरफ उठाया जाने वाला पहला कदम होगा।


Date:08-01-20

सीबीएसई के एकतरफा नियंत्रण पर लगेगी रोक

नई नीति में व्यावसायिक और मुख्य धारा की शिक्षा का एकीकरण होगा गेम चेंजर

डॉ. सुमेर सिंह , विख्यात शिक्षाविद्

हमारे देश में व्यावसायिक शिक्षा के प्रति विद्यार्थियों का रुझान हमेशा ही कम रहा है, लेकिन 2020 में आने वाली नई शिक्षा नीति में जिस तरह से व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा की शिक्षा से जोड़ने की कवायद की जा रही है, वह एक महत्वपूर्ण कदम है। अभी तक दसवीं के बाद दोनों को अलग-अलग कर दिया जाता था। इसके अलावा भी नई शिक्षा नीति में कई ऐसे प्रावधान किए जा रहे हैं, जिन्हें काफी सकारात्मक कहा जा सकता है।

हरेक को यह समझने की जरूरत है कि भारतीय माता-पिता कारपेंटर, प्लंबर, राजगीर या फिटर जैसे लाभदायक व्यवसाय की जगह अपने पुत्र को एक क्लर्क बनाने के सपने को पूरा करने को प्राथमिकता देंगे। यह हमारी सामाजिक मानसिकता और विवाह बाजार का परिणाम है। यही वजह है कि सिर्फ पांच फीसदी भारतीय ही व्यावसायिक शिक्षा को अपनाते हैं, जबकि जर्मनी में 75 फीसदी ऐसा करते हैं। 2020 की नई शिक्षा नीति में मौजूदा सरकार द्वारा इन दोनों को एक करना भारत में रोजगार के स्तर और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए एक प्रमुख गेम चेंजर हो सकता है। सरकार का एक और नीतिगत फैसला विचार में बहुत ही अच्छा है, लेकिन यह शायद ही सफल हो सके। यह है त्रिभाषा फॉर्मूले के माध्यम से राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देना। इसके तहत अंग्रेजी, हिंदी के साथ ही उत्तर भारत के स्कूलों में एक दक्षिण भारतीय भाषा व दक्षिण भारत के स्कूलों में एक उत्तर भारत की भाषा को पढ़ाना। यह तीन कारणों से असफल होगा। महाराष्ट्र व पंजाब जैसे गैर-हिंदी भाषी राज्य तीसरी भाषा के तौर पर अपनी क्षेत्रीय भाषा को शामिल करने पर जोर देंगे। दूसरे, सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक स्कूलाें के सिद्धांत से इस विचार का टकराव होगा, क्योंकि इन स्कूलों की जरूरत उस भाषा को पढ़ाना होगा, जिसकी पहचान उनके अल्पसंख्यक दर्जे से होती है। उदाहरण के लिए राजस्थान में स्थित पंजाबी अल्पसंख्यक स्कूल पंजाबी भाषा ही पढ़ाना चाहेगा। और तीसरे, दुनिया की संस्कृति से रूबरू होने की चाहत के कारण स्पेनिश, जर्मन या मैंडरिन भाषाओं को प्राथमिकता मिल रही है।

एक अन्य प्रमुख प्रस्ताव है, परीक्षा लेने वाले संगठनों को नियामक संस्थानों से अलग करना। यह एक स्वागत योग्य बदलाव है, क्योंकि यह सीबीएसई जैसी संस्थाओं के एकतरफा नियंत्रण और नियमित नीतिगत बदलावों काे कम करेगा। पांच साल से कम उम्र में प्रारंभिक शिक्षा की जरूरत को समझने का भी स्वागत किया जाना चाहिए। इससे सरकारी स्कूलों व निजी स्कूलों का अंतर कुछ हद तक कम हो सकेगा। अमेरिका में प्राइमरी स्कूल के शिक्षकों का सम्मान होता है और उन्हें पुरस्कृत किया जाता है। उम्मीद करते हैं कि नई नीति के इस पहलू का भारत में भी ऐसा ही असर होगा, विशेषकर यह देखते हुए कि यही वह उम्र है, जब दिमाग का विकास अपने चरम पर होता है।

स्कूलों का प्रशासन स्कूल परिसरों के माध्यम से चलाना एक बड़ा विचार है, इससे मानव संसाधनों व तकनीकी संस्थानों की साझेदारी की शुरुआत हो सकेगी। यह बच्चों के लिए नए अवसर भी पैदा करेगा। इसके अलावा करीब 10 फीसदी बच्चों के लिए नए अवसर पैदा करना विशेष जरूरत वाले बच्चों की शिक्षा को शामिल करना होगा। निश्चित तौर पर इसका मतलब इस बहुत ही विशेषज्ञता वाले और महत्वपूर्ण क्षेत्र में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए सुविधाएं जुटाना होगा। अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया और इस्राइल ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को रिसर्च के माध्यम से विकसित किया है। भारत में रिसर्च के लिए फंड का आवंटन वास्तव में लगातार घट रहा है और दशकों से कोई भी स्वदेशी नवाचार नहीं हुआ है। अमेरिका को रिसर्च कार्यक्रमों में भारतीय प्रतिभाओं से बहुत फायदा हुआ है। अगर, नई नीति रिसर्च के लिए अधिक फंड जुटाने और स्कूलों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का स्तर बढ़ाने में सफल होती है तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत लाभ पहुंचाएगी।

इस नई नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मेरे विचार में यह पैराग्राफ है कि ‘स्कूल जब तक एनसीएफ और एससीएफ के साथ संरेखित रहेंगे, उनको कोई भी पाठ्यक्रम चुनने या खुद विकसित करने की पूरी स्वतंत्रता होगी।’ यह जवाबदेही के साथ असली स्वायत्तता होगी और न केवल अच्छी शिक्षा को प्रोत्साहित करेगी, बल्कि अब तक उपेक्षित रही साॅफ्ट स्किल का विकास भी करेगी।

कुल मिलाकर मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि नई शिक्षा नीति में अच्छी टीचर ट्रेनिंग और साल में अनिवार्य प्रशिक्षण कितना ही प्रमुख हो पर पढ़ाने और सीखने के स्तर की गुणवत्ता पूरी तरह से मूल्यांकन की प्रक्रिया पर निर्भर करेगी। जब तक अंतिम लक्ष्य बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक लाना रहेगा, शिक्षक व स्कूल केवल इसी उद्देश्य के लिए पढ़ाएंगे और किताबी शिक्षा से आगे सीखना एक दूर का सपना बना रहेगा।


Date:08-01-20

ईरान अमेरिका पर कर सकता है कार्रवाई

भारत ने दोनों देशों से संयम बरतने की अपील की है लेकिन भारत सरकार यह जानती है कि अमेरिका और सुन्नी अरब देशों में उसके विशेष हित हैं जिनकी रक्षा भी जरूरी है।

विवेक काटजू , ( लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं )

तीन जनवरी की सुबह बगदाद हवाई अड्डा परिसर में ईरान के मेजर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या कर दी गई। ड्रोन हमले के जरिये हुई यह हत्या अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के आदेश पर हुई। इससे ईरान में आक्रोश की लहर दौड़ गई। दुनिया भर में शिया समुदाय इससे कुपित हो गया। आखिर इस पूरे घटनाक्रम के क्या निहितार्थ हो सकते हैं और यह वैश्विक परिदृश्य को किस प्रकार प्रभावित कर सकता है। इसकी पड़ताल के लिए हमें सबसे पहले ईरान के राष्ट्रीय एवं सामरिक जीवन में सुलेमानी की हैसियत को समझना होगा। सुलेमानी का दस्ता 20 सालों से इस्लामिक क्रांति के ढांचे को ध्वस्त होने से बचा रहा था । सुलेमानी ईरान के रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स की अल कुद्स इकाई के प्रमुख थे। इस पद पर उन्हें बीस साल से अधिक हो गए थे। रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स का मुख्य मकसद 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई इस्लामिक क्रांति के मूल्यों एवं उद्देश्यों का संरक्षण करना है। इसके अंदरूनी दस्ते इस्लामिक क्रांति के आंतरिक दुश्मनों का सफाया करते आए हैं। वहीं बाहरी दस्ता विदेशी दुश्मनों से निपटता है। सुलेमानी की अगुआई वाला अल कुद्स बाहरी दस्ता है। वह बीते दो दशकों से इस्लामिक क्रांति के ढांचे को ध्वस्त करने की अमेरिकी कोशिशों का मजबूती से प्रतिरोध कर रहे थे। वहीं शिया ईरान पर प्रभुत्व कायम करने के सुन्नी अरब देशों के प्रयासों का भी उन्होंने पुरजोर तरीके से मुकाबला किया। सुलेमानी ने पश्चिम एशिया और दुनिया के अन्य देशों में भी शिया समुदाय को संगठित करने की कोशिश की। उनमें ईरान के प्रति सहानुभूति के भाव को बनाए रखने और बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई। यहां यह भी याद दिलाना होगा कि ईरान में निर्वाचित सरकार तो है जिसका नेतृत्व राष्ट्रपति करते हैं, लेकिन निर्णायक शक्ति सुप्रीम लीडर के हाथ में होती है। 1989 में अपनी मृत्य तक अयातुल्ला खुमैनी इस पद पर काबिज रहे। उनके बाद शिया धर्मगुरुओं ने अयातुल्ला खामनेई को इस गद्दी पर बैठाया। रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स सुप्रीम लीडर के प्रति उत्तरदायी हैं और उनके इशारे पर ही काम करते हैं। इस लिहाज से सुलेमानी खामनेई के बहुत करीबी तो थे ही, वहीं उन्होंने अपने जज्बे, काबिलियत और दिलेरी से ईरानी शियों के साथ-साथ दुनिया भर के शिया समुदाय में गहरी पैठ बनाई। इसीलिए उनकी हत्या पर इतनी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। सुलेमानी शिया जगत के नायक थे तो अमेरिका और सुन्नी अरब देशों की आंखों में वह हमेशा खटकते रहे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि सुलेमानी की अल कुद्स और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों में कभी सहयोग नहीं रहा। उन्होंने इराक में आइएस जैसे साझा दुश्मन के खिलाफ साथ में मुहिम भी चलाई, लेकिन कभी भी दोनों पक्षों ने इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं किया। यह विरोधाभासी स्थिति आपको सामरिक संबंधों की जटिलताओं का आभास करा सकती है।

चूंकि यह मामला ही अमेरिकी राष्ट्रपति के इशारे पर घटित हुआ तो अमेरिका से इसका सरोकार होना स्वाभाविक है। अमेरिका की कमान संभालने के बाद से ही राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा की ईरान नीति को सिरे से पलट दिया। पहले तो वह परमाणु करार से पीछे हटे और फिर उस पर तमाम प्रतिबंध लगाने के साथ ही सुन्नी अरब देशों का साथ दिया। उन्होंने अपनी यह मंशा कभी नहीं छिपाई कि वह पश्चिम एशिया में ईरान का कद घटाना चाहते हैं। उन्होंने साफ कहा कि वह ईरान की मुश्किलें बढ़ाएंगे और उसे आर्थिक रूप से कमजोर करेंगे। यहां तक कि ईरान के क्रांतिकारी ढांचे और धार्मिक गुरुओं के नेतृत्व वाली प्रणाली को खत्म करने की अपनी इच्छा को भी उन्होंने नहीं छिपाया। उन्होंने ईरान की जनता को भी इसके लिए उकसाया। इसके साथ ही ट्रंप ने अमेरिकी जनता को भी यह दिखाने का प्रयास किया कि जहां ओबामा की ईरान नीति कमजोर थी वहीं उनके नेतृत्व में पश्चिम एशिया में अमेरिकी हित पूरी तरह सुरक्षित हैं। सुलेमानी को लेकर लिया गया उनका फैसला इसकी बड़ी मिसाल है।

यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि घरेलू स्तर पर ट्रंप विपक्षी डेमोक्रेट पार्टी का भारी विरोध झेल रहे हैं जिसने हाल में अपने बहुमत वाली अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया आगे बढ़ाई। इस साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव भी होने हैं। इससे ट्रंप अमेरिकी जनता को याद दिलाना चाहते हैं कि वह डेमोक्रेट राष्ट्रपति जिमी कार्टर की तरह कमजोर नहीं हैं। याद दिला दें कि चालीस साल पहले कार्टर के कार्यकाल में ही तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास को ईरानियों ने ध्वस्त कर दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिन तक बंधक बनाकर भी रखा। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान कार्टर लाचार ही बने रहे।

इसके उलट ट्रंप ने अपने दबंग तेवर अमेरिकी जनता को दिखा दिए कि बगदाद स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमले के कथित आरोपी सुलेमानी को ठिकाने लगाने में जरा भी वक्त जाया नहीं किया गया। ट्रंप की सोच की पुष्टि उनके ट्वीट से जाहिर है कि सुलेमानी की हत्या के खिलाफ अगर ईरान ने कोई दुस्साहस किया तो वह ईरान के 52 ठिकानों को निशाना बनाने से गुरेज नहीं करेंगे। यहां 52 का प्रतीक इसलिए महत्वपूर्ण है कि ईरानियों ने 52 अमेरिकी राजनयिकों को 400 दिनों तक ही बंधक बनाकर रखा था। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ईरान की जनता और विश्व के शिया समुदाय के कई वर्ग अब दबाव डाल रहे हैं कि ईरान सुलेमानी की हत्या का बदला ले।

प्रश्न यह है कि ईरान के समक्ष विकल्प क्या हैं ? प्रतिबंधों के चलते उसकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल है। ईरानी नेता यह भी जानते हैं कि ट्रंप कई पहलुओं की परवाह नहीं करेंगे। यदि घरेलू राजनीतिक हितों और पश्चिम पश्चिमी एशियाई सुन्नी देशों में अमेरिकी साख को कायम रखने के लिए ईरान पर बड़ा हमला करना पड़ा तो भी वह गुरेज नहीं करेंगे। इसलिए संभवत: ईरान के नेता कुछ न कुछ कार्रवाई तो करेंगे, लेकिन वह सीमित दायरे में ही रहेगी। हां, यह जरूर कि इससे दुनिया में बेचैनी बढ़ेगी और तेल बाजार पर कुछ असर पड़ सकता है, लेकिन इससे ज्यादा असर का अनुमान अतिरेक ही होगा।


Date:08-01-20

न्याय की मंथर गति

गनीमत है कि निर्भया मामले में सात साल बाद न्याय होता दिख रहा है। अधिकांश मामलों में दशकों बाद भी न्याय नहीं हो पाता।

संपादकीय

आखिरकार सात साल बाद देश को विचलित करने वाले निर्भया कांड के चार गुनहगारों के खिलाफ दिल्ली की एक अदालत ने डेथ वारंट जारी कर दिया। इसके तहत इन चारों को फांसी की सजा 22 जनवरी को दी जाएगी, लेकिन इसे लेकर सुनिश्चित नहीं हुआ जा सकता और इसका कारण यह है कि दोषियों के वकील यह दावा कर रहे हैं कि उनके पास अभी कुछ और कानूनी विकल्प हैं। नि:संदेह जघन्य अपराध के दोषियों को भी उपलब्ध कानूनी विकल्प इस्तेमाल करने का अधिकार है, लेकिन सबको पता है कि इन विकल्पों की आड़ में किस तरह तारीख पर तारीख का खेल खेला जाता है।

यह केवल हास्यास्पद ही नहीं, बल्कि शर्मनाक भी है कि 2012 के जिस मामले ने पूरे देश को थर्रा दिया था, उसके दोषियों की सजा पर अमल अब तक नहीं हो सका है और वह भी तब, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला 2017 में ही सुना दिया था। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह न्याय प्रक्रिया की कच्छप गति को ही बयान करता रहा। न्याय प्रक्रिया की सुस्त रफ्तार से न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पदों पर बैठे लोग अनजान नहीं, लेकिन दुर्भाग्य से उन परिस्थितियों का निराकरण होता नहीं दिखता, जिनके चलते समय पर न्याय पाना कठिन है।

लगता है किसी को इस पर लज्जा नहीं आई कि निर्भया के मां-बाप को न्याय के लिए किस तरह दर-दर भटकना पड़ रहा? दुर्भाग्य से यह इकलौता ऐसा मामला नहीं, जिसमें न्याय पाना पहाड़ जैसी समस्या बना हो। यह तो गनीमत है कि इस मामले में सात साल बाद न्याय होता दिख रहा है। अधिकांश मामलों में तो दशकों बाद भी अंतिम स्तर पर न्याय नहीं हो पाता। इनमें तमाम मामले संगीन किस्म के होते हैं। जब संगीन मामलों में भी जटिल कानूनी प्रक्रिया के कारण देरी होती है, तब केवल न्याय व्यवस्था का उपहास ही नहीं उड़ता, बल्कि अपराधी तत्वों को बल भी मिलता है।

सब इससे भली तरह अवगत हैं कि न्याय में देरी वास्तव में न्याय से इनकार है। फिर भी यह विडंबना ही है कि वैसे प्रयास नहीं हो रहे हैं, जिससे न्याय में देरी न होने पाए। बेहतर होगा कि हमारे नीति-नियंता कानून के शासन को लेकर घिसे-पिटे उपदेश देने के बजाय यह देखें कि न्याय की शिथिल गति भारतीय लोकतंत्र को दुर्गति की ओर ले जा रही है। इसी के साथ समाज को भी यह समझना होगा कि दुष्कर्मी तत्वों को केवल कठोर सजा से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। दुष्कर्म सरीखे अपराध कहीं न कहीं यह भी बताते हैं कि समाज बेहतर नागरिकों का निर्माण करने के अपने दायित्व का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर पा रहा है।


Date:08-01-20

बगैर कानून वाली लाचार व्यवस्था

जब तक न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार और चुनावी सुधार नहीं होते, तब तक कानून एवं व्यवस्था में सुधार नहीं होने वाला।

यशपाल सिंह , (लेखक उप्र के डीजीपी रहे हैं)

लोकतंत्र में जनता बहुत जागरूक हो चुकी है। चूंकि स्वतंत्र प्रेस और संचार माध्यमों के साथ सोशल मीडिया का व्यापक विकास हुआ है, इसलिए कोई बड़ी घटना होते ही सड़क जाम, घेराव, धरना-प्रदर्शन आदि आम बात हो गई है। इसके चलते दबाव इतना बढ़ जाता है कि आजकल की सरकारें परेशान हो जाती हैं। विपक्ष किसी भी छोटी-बड़ी घटना को बहुत बड़ा मुद्दा बनाकर जगह-जगह धरना-प्रदर्शन करने लगता है। कभी-कभी तो यह धरना-प्रदर्शन आंदोलन का रूप ले लेता है। इस आंदोलन को विपक्षी दलों के साथ सरकार विरोधी अन्य गुट भी हवा देने लगते हैं। वे सरकार को ‘निकम्मी बताने के साथ पुलिस पर भी आक्षेप लगाने लगते हैं। ऐसे में सामान्य जन भावना सरकार के खिलाफ होने लगती है।

लोकतंत्र में जनता का वोट ही सब कुछ है। ऐसे में सरकारें क्या करें? पुलिस प्रमुख यानी डीजी बुलाए जाते हैं और उनसे कहा जाता जाता है ‘ऐसे काम नहीं चलेगा डीजी साहब। हमें फिर जनता से वोट मांगने जाना पड़ेगा। कैसे करेगें? क्या करेंगे? आप जानिए और आपका काम। यही बात डीजी साहब अपने मातहत आईजी और डीआईजी से कहते हैं। आईजी और डीआईजी यही बात एसएसपी या फिर एसपी को अपनी पुलिसिया भाषा और अंदाज में समझाते हैं। एसएसपी और एसपी यही बात थानाध्यक्षों से कहते हैं। अब जो करना है, वह थानाध्यक्ष को करना है। वह क्या करे? या तो वह लाइन हाजिर होकर मुंह लटकाए पुलिस लाइन चला जाए या फिर कुछ ऐसा करे कि अपराधी दहशत में आ जाएं और उसके क्षेत्र में अपराध करने की हिम्मत ही न कर सकें।

कानून एवं व्यवस्था की स्थिति आज इस हालत में पहुंच गई है कि धीरे-धीरे कानून गायब होता जा रहा है। बस व्यवस्था बची है। कोई भी सरकार हो, वह व्यवस्था किसी भी कीमत पर ठीक रखना चाहेगी और उसे ऐसा करना भी चाहिए। चूंकि पुलिस उसके सीधे नियंत्रण में होती है, अत: सारा का सारा दबाव थानेदार पर आ जाता है। न्यायिक व्यवस्था से उसे कोई विशेष मदद नही मिल पाती। अभियुक्तों को अग्रिम जमानत या फिर जमानत देर-सबेर मिल ही जाती है और ट्रायल तो फिर उनकी मर्जी से ही चलता है। प्रक्रिया के जाल में कानून इस कदर उलझकर रह जाता है कि उससे निकलकर न्याय हासिल करने में दशकों लग जाते हैं।

जब मामला लंबा खिंचता है तो अक्सर न्याय वादी के पक्ष में जाने की जगह अभियुक्त के पक्ष में जाने का अंदेशा बढ़ जाता है। एक जनपद में एक अपराधी ने एक दबंग की दिनदहाड़े, सरेबाजार गोली मारकर हत्या कर दी। हत्या ने जातीय रूप पकड़ लिया। वह अपराधी विधायक, सांसद, मंत्री बना। उससे संबंधित हत्या का मुकदमा सत्र न्यायालय में किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के दांव-पेंच के चलते 18-20 साल लंबित रहा। सारी परिस्थितियां जब हर तरह से अनुकूल हो गईं तो केस चला और वह बाइज्जत बरी हो गया। मालूम हुआ कि सभी गवाहों को बोलेरो गाड़ी मिल गई थी। न्यायालय को साक्ष्य चाहिए। गवाहों पर न तो नैतिक दबाव रहा और न ही सामाजिक भय। प्रशासनिक इकबाल भी नहीं रहा। शायद उनके लिए इतने दिनों बाद गवाही देने का कोई अर्थ नहीं रह गया था।

फूलन देवी ने अपने गैंग के साथ 14 फरवरी 1982 को एक गांव में दिनदहाड़े करीब 20 लोगों की हत्या कर दी थी। चश्मदीद गवाहों की कोई कमी न थी। फूलन ने मध्य प्रदेश में आत्म-समर्पण किया। फिर राजनीति में सक्रिय होकर दो बार सांसद बनीं। अंतत: उनकी भी हत्या हुई। गैंग के अन्य साथियों पर मुकदमा चलता रहा। इनमें से 12 मर चुके हैं। चार बचे हुए हैं। इस मामले में सत्र न्यायालय का जो फैसला करीब 38 साल बाद इसी छह जनवरी को आने वाला था, वह कुछ दिनों के लिए टल गया है। जब सत्र न्यायालय से फैसला आएगा तो उसके खिलाफ ऊपरी अदालतों में अपील होगी। कोई नहीं जानता कि अंतिम फैसला कब आएगा? आखिर न्याय किसे मिलेगा, क्योंकि फूलन गैंग के हाथों मारे गए कई लोगों के भाई-बंधु तो न्याय का इंतजार करते-करते मर गए।

हैदराबाद की मुठभेड़ के बाद मुख्य न्यायधीश महोदय ने बिल्कुल सही कहा था कि न्याय बदला नहीं है और यह तात्कालिक भी नहीं हो सकता, लेकिन यह समझना होगा कि आखिर पुलिस तब भी एनकाउंटर क्यों करती है, जब उस पर जांच, कार्रवाई की तलवार लटकती रहती है? अक्सर पुलिस सुधारों की बात होती है और यह कहा जाता है कि पुलिस सुधार होने से हालात बदल जाएंगे। हालांकि यह काम भी नहीं हुआ, जबकि उच्चतम न्यायालय ने पुलिस सुधार संबंधी निर्देश वर्ष 2006 में ही दे दिए थे। मेरा मानना है कि केवल पुलिस सुधारों से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। जब तक आमूलचूल न्यायिक सुधार, प्रशासनिक सुधार और चुनावी सुधार नहीं होते, तब तक कानून एवं व्यवस्था में सुधार नहीं होने वाला। न्यायशस्त्र की सदियों पुरानी परिभाषा को बदलना होगा। अभी पूरी कानूनी प्रक्रिया अभियुक्त के हितों की रक्षा की ओर झुकी रहती है। ध्यान दें कि चर्चित निर्भया कांड के दोषियों की सजा पर अब तक अमल नहीं हो सका है, जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आए कई वर्ष हो चुके हैं।

वास्तव में न्यायापालिका को प्रोएक्टिव होने की आवश्यकता है। अगर फूलन देवी जैसे लोग नरसंहार करने के बाद भी सांसद बनेंगे तो इससे समाज में क्या संदेश जाएगा? ‘जब तक सजा न मिले, व्यक्ति निर्दोष है यह सिद्धांत भी विचारणीय है और खासकर जनप्रतिनिधियों के मामले में। जब सजा मिलते-मिलते कई दशक लग जाते हैं तो फिर इस सिद्धांत का क्या अर्थ रह जाता है?

न्याय मिलने की भी एक समयसीमा होनी चाहिए। न्याय समयबद्ध हो। पूरी आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया ने पुलिस को अविश्वसनीय मान लिया है, जबकि विवेचक ही केस की सच्चाई जानता है। कोई पुलिस वाला गलत गवाही दे या साक्ष्य पेश करे तो सख्त सजा दी जाए, लेकिन पूरी पुलिस को अविश्वसनीय मान लेना कहां तक उचित है? कानून एवं व्यवस्था के मामले में समग्रता से अत्यंत गहन विचार की आवश्यकता है। मुश्किल यह है कि जो विचार कर सकते हैं, उनकी कोई सुनता नहीं और जिनकी सुनता है, उनके पास समय नहीं। न्याय मिला या नहीं, इस पर वोट नहीं मिलता। व्यवस्था नियंत्रित हो, इस पर जरूर सरकार की छवि बनती अथवा बिगड़ती है। पुलिस को जनता और जनप्रतिनिधियों का दबाव झेलना ही पड़ेगा। उसे न्यायपालिका की तरह वैधानिक सुरक्षा प्राप्त नहीं है। सारी समस्या का समाधान मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति में ही निहित है। जिन देशों ने कानून का राज कानून के दम पर स्थापित किया, वे ही आज विकसित देश हैं। हमें भी वही राह पकड़नी होगी।


Date:07-01-20

जेएनयू को बचाइए

संपादकीय

पिछले कुछ वर्षों से तनावग्रस्त देशके सर्वोच्च शैक्षणिक संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) दिल्ली‚ में बीते रविवार को भीषण हिंसा की ज्वाला फूट पड़़ी। कुछनकाबपोश गुंड़ों ने विश्वविद्यालय परिसर में घुस कर छात्रों समेत कुछशिक्षकों को अपनी हिंसा का शिकार बनाया। इस हिंसा में विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष आइसी घोष समेत करीब २६ छात्र घायल हो गए‚ जिन्हें एम्स और सफदरजंग अस्पताल में दाखिल किया गया। जेएनयू से पढ़ाई करने वाले अनेक छात्र–छात्राएं देश और विदेश के प्रमुख संस्थानों में कार्यरत हैं। यहां के अधिकतर छात्र और शिक्षक वामपंथी रुझानों वाले हैं‚ लेकिन केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थित छात्रसंगठन एबीवीपी की सक्रियता बढ़ी है। कह सकते हैं कि इसके बाद से ही वैचारिक रूप से परस्पर विरोधी वाम समर्थित छात्रसंगठनों और एबीवीपी आमने–सामने हैं। पिछले दिनों कई ऐसे अवसर भी आए जब इन दोनों संगठनों के बीच जमकर टकराव हुए हैं। बीते रविवार को जो हिंसा हुई उसे लेकर दोनों संगठन एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। वाम नियंत्रित छात्रसंघ का कहना है कि एबीवीपी के सदस्यों ने नकाब पहन कर मारपीट और हिंसा की है‚ जबकि एबीवीपी ने दावा किया है कि वामपंथी छात्रसंगठनों एसएफआई‚ आइसा और ड़ीएसएफ से जुड़े छात्रों ने हम पर हमला किया है। अब इसके पीछे सच्चाई क्या है‚ इसका पता जांच–पड़ताल के बाद ही चल पाएगा‚ लेकिन कुछ सवाल ऐसे हैं‚ जिनका जवाब पुलिस और विवि प्रशासन को देना पड़ेगा। हिंसा करने वाले नकाबपोशों की तस्वीर वायरल हो चुकी है। पुलिस और प्रशासन का फर्ज बनता है कि वे इन नकाबपोशों की तत्काल पहचान करें और उनके खिलाफ न्यायिक कार्रवाई हो। सवाल यह भी है कि विवि के मुख्य द्वार पर चौबीस घंटे सुरक्षा गार्ड़ तैनात रहते हैं‚ बावजूद इसके हथियारबंद नकाबपोश दिनदहाड़े विवि परिसर में आखिर‚ कैसे दाखिल हो गएॽ लोकतंत्र में परस्पर विरोधी छात्र संगंठनों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी ही चाहिए। लेकिन यह छात्र राजनीति का दुर्भाग्य है कि स्वस्थ प्रतिस्पर्धा खूनी टकराव में तब्दील होती जा रही है। दुर्भाग्य यह भी है कि इस मसले का राजनीतिकरण किया जा रहा है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे राजनीति से उठकर इस लब्ध प्रतिष्ठित संस्थान को बर्बाद होने से बचाने की पहल करें।


Date:07-01-20

परिसर पर हमला

संपादकीय

राजधानी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रविवार शाम जो हुआ, वह अपने आप में बताने के लिए काफी है कि हर तरफ किस तरह के तत्त्व हावी हो रहे हैं और पुलिस कैसे अराजक तत्त्वों को खुली छूट दे रही है! जिस जेएनयू परिसर में प्रवेश करने तक के लिए किसी बाहरी व्यक्ति को एक औपचारिक पूछताछ और जांच की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, उसमें पचास से ज्यादा नकाबपोश गुंडे सरियों और डंडे के साथ दाखिल हुए और दो घंटे तक आतंक मचाते रहे। वे लड़कियों के छात्रावासों तक में घुस गए और उन पर जानलेवा हमला किया। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि उनके सामने कोई छात्रा है या छात्र या कोई महिला प्रोफेसर, पूरी बर्बरता से उन्होंने डंडों और सरियों से उन्हें मारा-पीटा। नतीजतन, जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष का सिर फट गया, एक महिला प्रोफेसर के अलावा लगभग कई विद्यार्थी बुरी तरह घायल हो गए। अफसोसनाक यह है कि इस आपराधिक घटना को रोकने-टोकने के लिए न जेएनयू के सुरक्षा गार्ड सामने आए, न पुलिस को हस्तक्षेप करना जरूरी लगा।

सवाल है कि सरेआम इस तरह की अराजक हिंसा के बरक्स दिल्ली पुलिस के रवैये को किस तरह देखा जाएगा? क्या यह पुलिस की क्षमता की सीमा है या फिर वह किसी पूर्वाग्रह या अघोषित निर्देश पर काम कर रही थी? जो पुलिस हाल में जामिया मिल्लिया परिसर में कथित हिंसा से निपटने का हवाला देकर बिना किसी हिचक के घुस गई थी और व्यापक पैमाने पर छात्र-छात्राओं को बेहरमी से पीटा था, जेएनयू में घुसे नकाबपोश हमलावरों से निपटना उसे क्यों जरूरी नहीं लगा? हालत यह थी कि जेएनयू के मुख्य गेट के बाहर भी मौजूद अराजक लोग हिंसक नारे लगा रहे थे, परिसर के भीतर घायल विद्यार्थियों और शिक्षकों की मदद के लिए जा रही एंबुलेंस पर तोड़फोड़ कर रहे थे, सामाजिक कार्यकर्ताओं से मारपीट कर रहे थे और पुलिस मूकदर्शक खड़ी थी। क्या ऐसे संवेदनशील मौके पर पुलिस की यही भूमिका होती है? इस पूरी अवधि में दिल्ली पुलिस के आयुक्त क्या कर रहे थे? क्या यह समूचा प्रकरण खुद पुलिस आयुक्त की क्षमता पर सवालिया निशान नहीं है?

जेएनयू परिसर में छात्र-छात्राओं पर जानलेवा हमले की जैसी खबरें, ब्योरे और वीडियो सामने आए हैं, वे विचलित करने वाले हैं। ऐसा लगता है कि सब सुनियोजित तरीके से हुआ। जेएनयू छात्र संघ ने सीधा आरोप अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े लोगों और उनके साथ आए गुंडों पर लगाया। प्रति-आरोप भी हैं। लेकिन घटना के दौरान किसी तरह कैद की गई तस्वीरों और वीडियो में जो लोग दिख रहे हैं, उससे बहुत कुछ साफ हो जाता है। दूसरी ओर, पुलिस ने जो मामला दर्ज किया है, उसमें आरोपी ‘अज्ञात लोग’ हैं! हाल में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में प्रदर्शनों के बाद हिंसा का हवाला देकर पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया और उन पर मुकदमा दर्ज किया, उसके बरक्स दिल्ली पुलिस के इस रवैये को कैसे देखा जाएगा? पिछले कुछ समय से जेएनयू में चल रही उथल-पुथल और विश्वविद्यालय प्रशासन के रवैये की वजह से पहले ही स्थितियां सहज नहीं थीं! यह ध्यान रखने की जरूरत है कि जेएनयू परिसर में नकाबपोश गुंडों की शक्ल में जिन्होंने छात्र-छात्राओं पर जानलेवा हिंसा की, अगर ऐसी स्थितियों को तुरंत नहीं रोका गया तो दुनिया भर में देश की साख बेहतर बनाने वाले एक प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थान के सामने चुनौतियां गहरा सकती हैं। इसके लिए नेताओं को भी किसी को ‘सबक सिखाने’ जैसी भाषा के इस्तेमाल के बजाय देश में सहज शैक्षणिक गतिविधियां और मानवीय जीवन की स्थितियां बनाने में ऊर्जा लगानी चाहिए।


Date:07-01-20

Power to the Goon

The mob violence on JNU students is a chronicle foretold. Those whose job is to protect the campus are accomplices

Editorial

The vicious attack on students and teachers in JNU by a group of goons, allegedly affiliated to the RSS student-wing ABVP, on Sunday night is not merely a case of campus violence peaking. It is the outcome of the daily demonising of the university, its staff and faculty, over a period of time by people holding high public office. The mob that went on a rampage in the campus, including in girls’ hostels, was empowered by the very government that is vested with the power and responsibility to uphold law and order, to act as it did. It did not happen in a day, of course; it has been in the works ever since JNU was seen by the establishment as a rebel outpost. Students and faculty have been branded “anti-nationals”, who need to be punished. Phrases like “tukde tukde gang” and Urban Naxal were used by BJP functionaries, including senior ministers, to describe students and cases foisted on student leaders. A narrative of aggressive nationalism was carefully nurtured to normalise the vilifying of the university and its inhabitants, dogwhistling that targeting JNU has the sanction of the government.

Two members of the Union Cabinet, both JNU alumni, have condemned the incident. But this rings hollow. Visuals of hooligans roaming in dormitories and the campus, wielding hockey sticks and bludgeons, shouting “desh ke gaddaro ko, goli maaro saalo ko”, and finally trooping out of the campus, under the benign gaze of Delhi Police, are available in the public domain. Delhi Police, which the other day was seen wreaking havoc on the Jamia Millia Islamia campus, has been coy to act against the thugs who had a free run in JNU. The vandals have been aided and abetted by the institutions that ought to have cracked down on them in the first place. What is the message that is sent out? Who is to act against the hooligans? How long before such mob transforms itself into lynch bands that have murdered people in the name of food and faith in Uttar Pradesh, Rajasthan and Jharkhand in recent years.

The wardens of JNU hostels that faced the brunt of the thugs have quit their posts, taking responsibility for failure to protect students. The university vice-chancellor, M Jagadesh Kumar, a divisive presence in the campus at the best of times, seems to run the university as a department of the Union Human Resources Development Ministry, its strings pulled by Union Home Ministry. Clearly, his fidelity is not to the students and staff — his tenure is remarkable for its failure in winning the trust of the campus. Kumar should be relieved of the responsibility he has long abdicated. But for that to happen, saner heads need to prevail. Who understand that a campus where goons are empowered is a campus that will shrivel — and shrink a nation’s future.


Date:07-01-20

After The Sticks And Stones

With the violence at JNU, citizens face a stark, binary moral choice

Aakash Joshi

George Orwell once lamented that he “was forced to become a pamphleteer” by the times that he lived in. His happy place, to use the contemporary parlance, was gardening and writing novels. Orwell was much more than a pamphleteer. He was a chronicler of the evils of nationalism as well as one who understood its appeal. There are few Orwells among us. But our time, like his, is a moral test.

What is the metaphor, the analogy, that describes the masked men and women that rampaged across Jawaharlal Nehru University on the night of January 5? Were these stone-pelters (though given the size of their projectiles, perhaps rock throwers) and rod-using assaulters of students the great Indian Ku Klux Klan — they have it down pat, the masks and narrow majoritarianism? Or, perhaps, they are just “goons” or the “lumpen element” — those broad terms that can mean anyone, on a given day. And, since we dare not say the F-word or the N-word, can we call them Brownshirts, despite the decidedly saffron tint to their sloganeering? By the time of writing this, both the complicities that enabled the violence and the equivocations in its aftermath are well underway.

The Delhi Police, which reports to Home Minister Amit Shah, has not made a single arrest, nor taken into custody anyone connected to the violence. In fact, by all accounts, the mob moved with impunity through the campus even as the police stood at the gate. This, remember, is the same force that was loading up by the busloads peaceful protestors last month from anti-CAA-NRC demonstrations. Campus security is conspicuous by its absence, the university’s vice-chancellor deafening in his silence.

Now, the equivocations. BJP MP Meenakshi Leki managed to blame Left parties (even as the violence was underway) for “politicising students”, evoke the spectre of “Jamia students” on the JNU campus and took a swipe at Priyanka Gandhi. She went on to say that “if my kids were doing this (protesting, striking) they would get a tight one (presumably a slap) from me”. Shah has asked for a “report” on the matter from the Delhi Police — seen on video allegedly escorting weapon-wielding men and women from the campus.

It is not difficult to imagine what will follow. More voices from the BJP, the Union government and their loud sympathisers will try to present this as a clash between student groups; Urban Naxals will be brought up and a minor disagreement between students — an everyday part of campus life — will be used as a justification for creating terror in a place that dissents. And, given the love for “debate”, of pretending that there are two equal sides to every immorality, the discourse will move on as it always does. But it need not be so.

Something has changed in India over the last few months. In Delhi, those who watched the country change, lose its character have finally decided to show up for others. As with Jamia, so with JNU. Even before the police took action, well-meaning citizens and alumni of JNU showed up at the university. There, a young woman was first chased by men with rods — outside the gate on the road leading up to the campus. When she did make it, ABVP activists greeted her and others with slogans of “Jai Shri Ram”, “Desh ke gaddaron ko, goli maaro saalon ko” and “…Afzal (Guru) ki maut maroge”. When they spoke to these men, argued with them, they were told to get the men of their house. She, and others like her, were a symptom of their cowardice, “pallu ki aad mein anti-national” is how they were described.

The women engaged in the debate, pointed out that their agency was not circumscribed by men, and that’s a privilege that should be a right.

But this must be said to the men who chased the young women, those who assaulted JNUSU President Aishe Ghosh leaving her face battered and bleeding. And because in the times we live in, the dreaded first person must be employed — the political is as personal as it gets. The “men of the house” — for the children we may someday have, or just to assuage our conscience — will, at the very least, have to turn pamphleteers.

Beat that with a stick.


Date:07-01-20

The mask of anarchy

The JNU attack couldn’t have been carried out without the connivance of those in power

EDITORIAL

Chilling and brutal, the visuals of the rampage of the Jawaharlal Nehru University (JNU) in New Delhi on Sunday night by a mob of masked criminals will torment the country’s conscience for a long time to come. The mob ransacked hostels and grievously wounded students, professors and staff, going about it all in methodical madness for several hours. Not a single attacker was detained by the Delhi police, deployed in large numbers outside the campus. The street lights were turned off and the police personnel appeared to have given cover for the mob that leisurely walked away with abusive slogans. This evil will outlive its perpetrators and facilitators; and the night will continue to haunt India’s dreams to mature itself as a democracy and as a society that treasures its institutions. The masks notwithstanding, it is not difficult to see the faces behind this outrageous assault on one of India’s premier institutions where access is not limited by pedigree or purse. The Hindutva dispensation’s extreme intolerance towards intellectualism in general, and institutions in particular, has been on naked display since 2014. JNU has been a special target, and that itself is telling. JNU recruits from India’s vast diversity, and offers its students the best opportunity to develop critical thinking and excel in their chosen paths of life.

This liberating potential and the questioning spirit of JNU has long been reviled by a political project that seeks to erase the distinction between myth and history; faith and fanaticism; and criticism and subversion. The charge that the Akhil Bharatiya Vidyarthi Parishad, the student outfit of the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS), led this violence is credible, unless the serious injuries suffered by the students and teachers were self-inflicted. The list is long of those who stood behind the masks, and some of the faces are recognisable. The JNU’s administration and its Vice Chancellor M. Jagadesh Kumar have not merely failed in their duty as teachers and guardians; they have come across as desecrators of a place whose sanctity they were ordained to protect. The Delhi police, under its current Commissioner Amulya Patnaik, which had shown such alacrity in enforcing order recently that they stormed the library of Jamia Millia Islamia, stood by not as bystanders but as collaborators. Though they did not wear masks, they had their identities concealed by not wearing name badges. The Delhi administration apparently concluded that they had no responsibility whatsoever. There is little credence to the vague words of protest coming from some BJP functionaries and Ministers. The only way the Centre and Prime Minister Narendra Modi can prove that this mayhem was not sanctioned is to come down heavily on the police inaction and bring the mobsters to exemplary justice.


Date:07-01-20

Exit Iraq

Having overstayed its welcome in Iraq, the U.S. should leave without provoking Iran further

EDITORIAL

The vote by Iraqi parliamentarians in favour of a resolution seeking to expel American troops on Sunday was the first blowback the U.S. faced after it assassinated Iranian General Qassem Soleimani inside Iraq on Friday. The outcome of the vote was expected as the lawmakers were under pressure from both the public and militias to act against the U.S. after the killing. The U.S. troops, which are in Iraq on an invitation from the Iraqi government to fight the Islamic State, have carried out air strikes against Iraqi militias in recent weeks, without the approval of the Baghdad government. This triggered public protests and led to the siege of the American Embassy last week. In an already explosive situation, the killing of Soleimani acted as a catalyst. The anger among Iraqi lawmakers towards U.S. actions was on full display inside the Parliament hall on Sunday when they chanted, ‘America out, Baghdad remains free’, before the voting. Parliament itself doesn’t have the authority to expel foreign troops. But a resolution passed in Parliament is a call to the executive branch to act. Iraqi Prime Minister Adil Abdul-Mahdi, who condemned the killing of Soleimani, has stated unambiguously that it is time for the Americans to go home. Government officials have already started working on a memorandum on the legal and procedural formalities to expel U.S. troops, according to him.

Iraq is a crucial ally for the U.S. in the war against terrorism in West Asia, and the Trump administration has nobody to blame but itself for the setback. It pushed the Iraqis to a point where they had to choose between Tehran and Washington. And understandably, they picked their powerful neighbour. But U.S. President Donald Trump still doesn’t seem to be in a mood to listen. He has threatened Iraq with sanctions and a bill for billions of dollars if the U.S. troops are forced to pull back. This approach not only violates Iraq’s sovereignty, it also escalates the situation to a three-cornered crisis involving the U.S., Iraq and Iran. Mr. Trump is primarily responsible for today’s situation. His decision to pull the U.S. out of a functioning Iran nuclear deal was the trigger. When the U.S. reimposed sanctions on Iran, it was up to the other signatories of the deal — European countries, Russia and China — to save the agreement. Iran waited for a year before taking countermeasures. But they did nothing, barring issuing occasional statements in favour of the agreement. Europe, which has good ties with both the U.S. and Iran, should wake up at least now. It should use its diplomatic channels to rein in Mr. Trump and pacify Iran to prevent an all-out war. As a first step of de-escalation, what Mr. Trump could do is to order his soldiers to pack their bags and leave Iraq.


Date:07-01-20

Students in the vanguard of democratic struggle

Socially sensitive students on campuses across the country are acting as a powerful bulwark against Hindutva forces

Prabhat Patnaik is Professor Emeritus, Centre for Economic Studies and Planning, Jawaharlal Nehru University, New Delhi

The conflict across campuses in the country today is over the concept of a ‘student’ and, correspondingly, over the concept of a ‘university’. The Bharatiya Janata Party (BJP) government would like ‘students’ to be no more than self-centred, self-absorbed buyers of education, who do not concern themselves with social issues and who concentrate their energies on becoming successful sellers of labour-power on the job market. The alternative concept of a ‘student’ is of an individual who is socially sensitive, and uses education in the service of building a democratic, secular and egalitarian India, as visualised in our Constitution; one who subjects everything, including government policy, to critical scrutiny. The corresponding differing conceptions of a ‘university’ are: a site where skills (which are not the same as education) are sold; or, alternatively, a site where there is intense and informed critical engagement with the burning issues of our time. The students, especially in the front-ranking institutions of the country, see themselves in the latter role.

It is not surprising that the conflict, before the latest upsurge of protests over the Citizenship (Amendment) Act (CAA) where students all over India have played a major role, had expressed itself in some outstanding institutions: Jawaharlal Nehru University (JNU); the University of Hyderabad; the Film and Television Institute of India (FTII) of Pune; the Fine Arts Department of the Maharaja Sayajirao University Baroda, and so on. The BJP government’s effort to convert students into an inert, passive mass of skill-buyers had targeted precisely these institutions where the students had been most socially sensitive; indeed it is this that had contributed to these institutions’ excellence.

Making campuses apolitical

The methods chosen by the government have been many. One is to alter the student composition, by raising fees (as in JNU) so that only rich and career-oriented students come to the university; opening new departments that reduce the weight of critical disciplines like the humanities, social sciences and basic sciences; and doing away with reservations in admissions for students from socially deprived backgrounds, so that campuses cease to have an inclusive character. A second method is to prevent students from participating in demonstrations, and from organising interactions with persons unacceptable to the Sangh Parivar. Yet another method, being increasingly resorted to, is to call the police to the campus to unleash brutality on students or to book ‘inconvenient’ students under one or the other of the draconian laws that exist on our statute books.

All these methods are brought into play by appointing, as heads of institutions, martinets who are Sangh Parivar loyalists. These persons have little sympathy for students, little pride in the institutions they head, and little accessibility to the university community at large. In JNU, for instance, the students’ union has not even been recognised by the authorities despite a government-appointed committee of experts reportedly recommending talks with the union leadership (their report is not made public). Recognition of a students’ union articulating students’ perspective goes against the very conception of a “student” that the BJP government would like to institute.

The question arises: why is the government so keen to populate our universities with apolitical docile students? The answer is: because an authoritarian society and polity requires precisely such students, and the changes being effected in our universities and other institutions are meant to facilitate the transition to authoritarianism.

Confronting unreason

This is especially so at present. The BJP government represents the coming together of two distinct forces, a section of the corporate-financial oligarchy on the one hand and the Hindutva elements on the other whose goal is to push the country towards a ‘Hindu Rashtra’ by overthrowing our secular and democratic Constitution. The entire narrative that is used to justify a Hindu Rashtra is based on unreason, in the sense that it does not accept the role of evidence in establishing its truth-value. We thus have an alliance between corporate interests and unreason, sustaining the current BJP government, as indeed it sustains all fascistic governments.

While resisting this government through class struggle remains the task of the workers, peasants, petty producers, and agricultural labourers, the intelligentsia also has an extremely important role to play in confronting the currency of unreason, which substitutes mythology for history, beliefs for facts, and superstition for science. The students are the most youthful, energetic and hence active elements of the intelligentsia; they are therefore an extremely powerful force fighting against the Hindutva unreason. The BJP government’s aim is to disarm this potentially powerful adversary. Students engaged only in pursuing their careers are no threat to the Hindutva project; but students who are socially sensitive, who are committed to the values of secularism and democracy, are a powerful bulwark against it, for they bring with them not only the energy of youth but also the enlightenment of education.

The desire to privatise and commercialise education is part of this effort to disarm the students. Because of the high fees in private institutions, not only are students from impecunious backgrounds excluded, but even the richer students who fill these institutions remain unaware of social realities to which the proximity of poorer students would have exposed them; they remain socially insensitive. The same fate awaits public institutions if they raise their fees, as JNU proposes to do. The few students from under-privileged backgrounds who join on the basis of student loans are so obsessed with the burden of loan repayment that they scarcely have time for social or political activism. The deadening effect of student loans on political activism is best illustrated by the U.S. where, since the days of the anti-Vietnam war protests, campuses have been relatively quiet; student loans are certainly one reason for this.

In India, fortunately, despite the efforts of the Sangh Parivar martinets, students have not lost their social sensitivity. If anything, they have become even more engaged, going from issues of campus democracy, to broader issues like the CAA and the National Register of Citizens. What is remarkable is that they display among themselves the inclusiveness they would like to see in society. Students from other religious backgrounds fighting alongside Muslim students against the CAA, students from richer backgrounds fighting alongside their impecunious colleagues against fee hike, are excellent examples of camaraderie and solidarity.

But, as the students have refused to be cowed down, the authorities, at the behest of the BJP government, have become more brutal in dealing with them. The brutality at Jamia Millia Islamia was unleashed by the Delhi police which is under the Central Home Ministry. The brutality at the Aligarh Muslim University (AMU) was unleashed by the Uttar Pradesh police under the BJP government of Yogi Adityanath. The brutality at JNU was unleashed by masked goons from outside helped by internal informers to attack their targets, under the benign eyes of the Delhi police, and with the university’s own security staff mysteriously absent from the scene.

Few things have cheered one up as much as the resilience of the students in the face of this brutality in upholding the values of the Constitution, values upon which modern India is founded and which Hindutva is undermining. This makes one confident that whatever the short-term travails, the future of the country is safe.