07-12-2018 (Important News Clippings)

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07 Dec 2018
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Date:07-12-18

Protecting Witnesses

For long they fended for themselves against influential accused. That changes now

TOI Editorials

The formalisation of a witness protection scheme is a landmark moment with the potential to improve India’s low conviction rates. The failure of many criminal cases after witnesses turn hostile in court and reject the prosecution case epitomises a dysfunctional criminal justice delivery system. A prosecution witness contradicting the chargesheet points to two scenarios: either the accused has been falsely implicated or the witness has been threatened/ influenced. Both damage the credibility of the state that prosecutes and the police that investigates.

This is where a witness protection scheme reassures witnesses that their security and interests will be safeguarded. The Asaram rape case in which multiple witnesses were killed was the trigger for reform but the new scheme must scale beyond high-profile cases. Power relations and a climate of impunity lurk behind many offences and witnesses are particularly vulnerable. Take rape victims who face immense pressure to compromise and recant their testimonies during trial. If the scheme works, the presently abysmal 25% conviction rate in rape cases will improve significantly.

The scheme revolves heavily around a “competent authority” which will adjudicate on witness protection demands and seek “threat analysis” reports from the police. It envisions constant police protection to witnesses, lodging them in safe houses or giving them new identities if necessary. But the ground reality is a manpower crunch which makes it difficult for cops to keep track of witnesses and even ensure their presence in court. This allows the accused to freely intimidate witnesses and spurs police to broker settlements. From watching haplessly as cases fail, state governments have another opportunity to professionalise police forces. To ensure the success of witness protection, states must implement Supreme Court guidelines on police reforms too.


Date:07-12-18

गवाह बच पाएंगे तभी हो सकेगा अदालत में इंसाफ

संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की गवाह संरक्षण योजना को हरी झंडी दिखाकर आपराधिक न्याय प्रणाली को बेहतर बनाने के लिए जरूरी कदम उठाया है। देखना है कि कितनी राज्य सरकारें और केंद्र शासित प्रदेश इसे तत्परता से लागू करते हैं और कितने दिनों में संसद से यह कानून बनकर आता है। हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली साक्ष्य पर आधारित है और साक्ष्य इकट्‌ठा करने और उसे पेश करने का तरीका एकदम भदेस और अवैज्ञानिक है। आज भी हमारे देश में कितने अपराधी इसलिए छूट जाते हैं कि गवाह मुकर गया या कितने गवाह इसलिए मार दिए जाते हैं कि उन्होंने मुकरने से इनकार कर दिया। कई बार गवाह न्यायालय की चौखट तक नहीं पहुंच पाते। दबाव में बड़े-बड़े पुलिस अधिकारी तक आ जाते हैं। दबाव के लिए पूंजी, नौकरशाही और राजनीतिक सत्ता सभी का इस्तेमाल होता है।

केंद्र सरकार ने नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी और ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के साथ मिलकर गवाह सुरक्षा योजना तैयार की है और इसे कानून बनाए जाने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को लागू किए जाने के निर्देश दिए हैं। इसमें गवाहों को चौबीसों घंटे सुरक्षा देना, जरूरत पड़ने पर उन्हें किसी सुरक्षित जगह ले जाना, उनकी पहचान गुप्त रखना और उनका व अभियुक्त का आमना-सामना न होने देने तक की व्यवस्था करनी है। बल्कि गवाहों की सुरक्षा के लिए अलग कोष बनाए जाने की भी बात है। अदालत ने इसे न्याय को मानवाधिकार से जोड़ते हुए यह भी कहा है कि जहां किसी बेगुनाह को सजा नहीं होनी चाहिए वहीं किसी पीड़ित को न्याय से वंचित नहीं रहना चाहिए। इसके बावजूद तेजी से राजनीतिक होती जा रही आपराधिक न्याय प्रणाली से यह आशा करना कठिन है कि वह इस बारे में कोई निष्पक्ष व्यवस्था कर पाएगी। इसी प्रणाली का ही हिस्सा पुलिस है और उसके सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट कई वर्ष पहले फैसला दे चुका है। इसके बावजूद सुधार लागू नहीं हो पा रहे हैं। पुलिस के बड़े अधिकारी दर्द के साथ कह रहे हैं कि पुलिस तंत्र कानून के राज और न्याय के लिए नहीं राजनेताओं के लिए समर्पित बना दिया गया है। यह एक विडंबना है, जिससे न्यायिक प्रणाली को निकालना बहुत जरूरी है लेकिन, महज सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उसका निकल पाना आसान नहीं है।


Date:07-12-18

म्यूनिस: स्मार्ट शहरों के लिए स्मार्ट बॉन्ड

विनायक चटर्जी , (लेखक फीडबैक इन्फ्रा के चेयरमैन हैं।)

बीते कुछ वर्षों में देश की बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को गैर सरकारी वित्तीय सहायता को गहरा झटका लगा है। ऋण देने वाले संस्थानों ने या तो ऋण देना बंद कर दिया है या फिर वे इसके इच्छुक नहीं हैं। पूंजी बाजार संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। विदेशी हित ब्राउनफील्ड (पुरानी) परियोजनाओं के परिचालन में हैं न कि नई यानी ग्रीनफील्ड परियोजनाएं शुरू करने में। फंसे हुए कर्ज का आकार इतना बड़ा है कि हर कोई उससे वाकिफ है। बुनियादी ढांचा क्षेत्र की कंपनियों को लेकर हाल में एक के बाद एक दिवालिया होने के मामले सामने आए हैं। यह सबकुछ नियमित और भलीभांति जांची-परखी बुनियादी परियोजनाओं के साथ हुआ है जो मोटे तौर पर बिजली और परिवहन क्षेत्र में चल रही हैं।

शहरी बुनियादी ढांचे का वित्त पोषण हमेशा से मुश्किल रहा है, यहां तक कि तब भी ऐसा था जब तमाम मौजूदा नकारात्मकता ने सर नहीं उठाया था। ऐसे में पुणे ने अपनी जलापूर्ति योजनाओं की धन की जरूरत के लिए गत वर्ष जून में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में म्युनिसिपल बॉन्ड जारी करके 200 करोड़ रुपये जुटाए। ऐसा नहीं है कि यह देश में अब तक जारी सबसे बड़े म्युनिसिपल बॉन्ड का हिस्सा भर था। पुणे ऐसा करके 2264 करोड़ रुपये जुटाना चाहता है। असल बात यह है कि इसके अलावा भी शहरी बुनियादी परियोजनाओं की भरपाई के लिए अन्य बड़े फंड स्रोत तैयार किए जा रहे हैं।

फंड जुटाने की यह प्रक्रिया और हैदराबाद में इसी वर्ष फरवरी में अपनाई गई एक प्रक्रिया (वहां भी 200 करोड़ रुपये जुटाए गए), दोनों सरकार की स्मार्ट सिटी पहल से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता यानी फंडिंग की परेशानी को दूर कर सकते हैं। यह स्पष्ट था कि ये शहर 2 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं के लिए नकदी संकट से जूझ रही सरकारों का भरोसा नहीं कर सकते। न ही निजी-सार्वजनिक भागीदारी की संभावनाएं नजर आ रही हैं। केंद्र सरकार का समर्थन केवल एक सीमा तक ही मिल सकता है। वर्ष 2011 के अनुमान के अनुसार देखें तो देश के तेजी से विकसित होते शहरों को अगले कुछ दशकों के दौरान नगरीय निकाय सुविधाएं मुहैया कराने के लिए करीब 80,000 करोड़ डॉलर से 1.2 लाख डॉलर की राशि की आवश्यकता होगी। यह अनुमान सरकार और मैकिंजी दोनों का है।

वैश्विक स्तर पर म्युनिसिपल बॉन्ड फंडिंग का स्थापित और प्रमुख स्रोत हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका को लें जहां म्युनिसिपल बॉन्ड को प्यार से ‘म्यूनिस’ कहा जाता है। अमेरिका में म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार का आकार 3.8 लाख डॉलर का है। भारत में म्युनिसिपल बॉन्ड बाजार का इतिहास पुणे बॉन्ड जारी होने से भी करीब 20 वर्ष पुराना है। बेंगलुरू ऐसा बॉन्ड जारी करने वाला पहला शहर था। उसने सरकारी गारंटी वाला ऐसा बॉन्ड सन 1997 में जारी किया था। ज्ञानाग्रह सेंटर फॉर सिटिजनशिप ऐंड डेमोक्रेसी के मुताबिक तब से 2015 तक देश के शहरी निकाय केवल 29.1 करोड़ रुपये की राशि जुटा पाने में कामयाब रहे हैं। चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद और नासिक ऐसे शहर हैं जिन्होंने प्राय: जलापूर्ति संबंधी परियोजनाओं के लिए ऐसा किया।

वर्ष 2015 में जब भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने नियमन जारी करके शहरी निकायों को बॉन्ड जारी करने और उन्हें सूचीबद्ध करने की व्यवस्था की। म्युनिसिपल बॉन्ड में निवेशकों की रुचि की कमी की सबसे बड़ी वजहों में से एक यह है कि शहरी निकायों के कामकाज में पारदर्शिता देखने को नहीं मिलती। जैसा कि उक्त रिपोर्ट भी कहती है, ‘भारत में म्युनिसिपल बॉन्ड संभावित निवेशक इसलिए नहीं जुटा सके हैं क्योंकि वित्तीय और परिचालन निष्कर्षों को लेकर स्पष्टता नहीं है।” सेबी के नियमों ने ऐसे बॉन्ड जुटाने के लिए मानक पात्रता तय कर दी है। इसके चलते एक स्तर की पारदर्शिता भी सुनिश्चित हुई है।

वर्ष 2017 में 500 प्रस्तावित स्मार्ट सिटी और अमृत योजना (अटल मिशन फॉर रिजुवनेशन ऐंड अबर्न ट्रांसफॉर्मेशन) की क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने रेटिंग की। यह बाजार तक पहुंच सुनिश्चित करने की कोशिश का पहला कदम था। इन शहरों में से 55 को निवेश श्रेणी की रेटिंग मिली थी। केंद्र सरकार ने भी किसी भी नगरपालिका द्वारा जारी कुल बॉन्ड राशि पर 2 फीसदी ब्याज सब्सिडी देने की पेशकश की। संभावित निवेशकों के लिए आई राहत की बात करें तो जारीकर्ताओं के लिए मानकों का मानकीकरण, खातों में पारदर्शिता सुनिश्चित करना और संभावित जारीकर्ता की क्रेडिट रेटिंग आदि काफी अहम हैं। एक ओर जहां कम साख वाले शहरों को हमेशा सरकारी मदद की आवश्यकता होगी वहीं बड़े और आर्थिक रूप से व्यवहार्य शहर निवेशकों के लिए अधिक आकर्षक क्यों नहीं होंगे, यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है। वे सरकारी वित्त पर अपेक्षाकृत कम निर्भर होंगे।

परंतु दिक्कत यहीं है। बेंगलुरू का उदाहरण लें तो इसमें दो राय नहीं कि आर्थिक स्तर पर यह शहर खूब फलफूल रहा है। परंतु म्युनिसिपल बॉन्ड से पैसा जुटाने वाला पहला शहर बनने के 20 वर्ष बाद शहर की वित्तीय व्यवस्था ठप पड़ चुकी है। अपने आधे राजस्व के लिए शहर अभी भी सरकारी अनुदान पर निर्भर है। दूसरा उदाहरण पुणे का है। हिंदुस्तान टाइम्स समाचार पत्र में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक म्युनिसिपल बॉन्ड से 200 करोड़ रुपये जुटाने के एक वर्ष बाद भी फंड का इस्तेमाल नहीं किया गया और वह पैसा अभी भी सावधि जमा में लगा हुआ है। जिस जलापूर्ति योजना के लिए पैसे जुटाए गए थे उसके लिए जारी निविदाओं को रद्द करना पड़ा था क्योंकि निगम पार्षदों ने आरोप लगाया कि बोली की प्रक्रिया स्वीकार्य नहीं है। सावधि जमा से निगम को उस राशि की तुलना में कम प्राप्ति होती है जो उसे बॉन्ड इश्यू पर ब्याज के रूप में चुकानी होती है।

पूंजी बाजार सुधार, केंद्र सरकार की सब्सिडी और खातों में पारदर्शिता आदि वे तत्त्व हैं जो म्यूनिस बॉन्ड को गति प्रदान करने के लिए जरूरी हैं परंतु असली समस्या कहीं और ही है। दरअसल यह गहन ढांचागत समस्या है जो सभी भारतीय शहरों को चपेट में लिए हुए है। फिर चाहे मामला जरूरत के वक्त परिसंपत्ति कर जुटाने का हो या शहरी राजनीति के प्रबंधन की। जैसे-जैसे देश के शहर इन समस्याओं से निपटते जाएंगे, बॉन्ड निवेशकों का उत्साह भी बढ़ेगा। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि ये स्मार्ट बॉन्ड हमारे स्मार्ट सिटीज के लिए वित्तीय मदद का स्रोत बनेंगे।


Date:06-12-18

कामयाबी की उड़ान

संपादकीय

भारत ने बुधवार को अब तक के अपने सबसे भारी उपग्रह जीसैट-11 को कक्षा में स्थापित कर अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में एक और बड़ी कामयाबी हासिल कर ली। इस उपग्रह को फ्रैंच गुयाना स्थित कोरू अंतरिक्ष केंद्र से एरियनस्पेस रॉकेट से छोड़ा गया। वैसे भारत अपने तमाम उपग्रह अपने ही प्रक्षेपण यानों और अंतरिक्ष केंद्रों से छोड़ता आया है। इतना ही नहीं, दूसरे देशों के उपग्रहों को कक्षा में स्थापित करने और एक बार में कई उपग्रह कक्षा में स्थापित करने जैसी उपलब्धियां भारत के खाते में पहले ही दर्ज हो चुकी हैं।

अंतरिक्ष के इस कारोबार में बड़ी सफलता इस साल बारह जनवरी को तब मिली थी जब श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी यानी पोलर सेटेलाइट लांच वीकल से भारत ने अपने तीन उपग्रह तो छोड़े ही थे, साथ में छह देशों- कनाडा, फिनलैंड, फ्रांस, दक्षिण कोरिया, ब्रिटेन और अमेरिका के भी अट्ठाइस उपग्रह अंतरिक्ष में पहुंचाए। अंतरिक्ष के क्षेत्र में वह मील का पत्थर इसलिए भी था कि इसरो ने इसी दिन अपना सौवां उपग्रह छोड़ा था। जीसैट-11 संचार उपग्रह है और इसका उपयोग इंटरनेट की रफ्तार बढ़ाने में होगा।

यह अत्याधुनिक और अगली पीढ़ी का संचार उपग्रह है और पंद्रह साल से ज्यादा समय तक काम करेगा। पांच हजार आठ सौ चौवन किलोग्राम वजन वाला जीसैट-11 इसरो द्वारा बनाया गया अब तक का सबसे भारी उपग्रह है। सबसे बड़ी कामयाबी यह रही कि उपग्रह धरती से छत्तीस हजार किलोमीटर ऊपर भूस्थिर कक्षा में बिना किसी बाधा के स्थापित कर दिया गया। यह एक जटिल प्रक्रिया होती है जिसमें सफलता को लेकर कई बार आशंकाएं बनी रहती हैं। वैज्ञानिकों के लिए यह चुनौती भरा इसलिए भी था कि इतना भारी उपग्रह पहले कभी नहीं छोड़ा गया था। इस साल मार्च में भारत ने जीसैट-6 ए छोड़ा था, जो अपने मिशन में कामयाब नहीं हो पाया था। इसे खासतौर से सैन्य उपयोग के लिए बनाया था, ताकि इससे मिलने वाली सूचनाओं से दुश्मनों के ठिकानों का पता लगाया जा सके। इसके अलावा जीसैट-6 ए से मोबाइल संचार में भी क्रांति आती। लेकिन इस मिशन की विफलता से हमारे वैज्ञानिकों ने सबक लिया और काम जारी रखा था, जिसका परिणाम अब जीसेट-11 की सफलता के रूप में सामने आया है। हालांकि जीसैट-11 को पहले ही छोड़ा जाना था, लेकिन जीसेट-6 ए का मिशन कामयाब नहीं हो पाने के कारण इसका प्रक्षेपण कुछ समय के टाल दिया गया था।

आज हम इंटरनेट के युग में जी रहे हैं। देश को आज तेज इंटरनेट सेवाओं की जरूरत है, जो हमारे पास नहीं हैं। इसलिए इंटरनेट और मोबाइल क्रांति के लिए ही जीसैट शृंखला के उपग्रह तैयार किए जा रहे हैं। देश में ब्रॉडबैंड सेवाओं को तेज और दुरुस्त बनाने के लिए जिन चार उपग्रहों की योजना बनाई गई थी, जीसैट-11 इनमें से एक है। इस शृंखला के दो उपग्रह पहले छोड़े जा चुके हैं और एक जीसेट-20 अगले साल छोड़ा जाएगा। इसरो का दावा है कि जीसैट-11 जिस रफ्तार से डाटा भेजेगा, वह अकल्पनीय है। इसमें जो चालीस ट्रांसपोंडर लगे हैं वे चौदह गीगाबाइट प्रति सेकेंड की रफ्तार से डाटा भेजेंगे, इससे हमें ज्यादा तेज ब्रॉडबैंड सेवा मिल सकेगी। आज देश में डिजिटल क्रांति में इंटरनेट की सुस्त रफ्तार सबसे बड़ी बाधा है। तमाम दूरसंचार कंपनियां जितनी इंटरनेट स्पीड देने का जो वादा और दावा करती हैं, हकीकत में उसका आधा भी मुहैया नहीं करा पा रहीं। हालांकि इसके और भी कारण हैं। लेकिन जीसैट-11 की मदद से उच्च क्षमता वाले सूचना तकनीक उपकरणों को बनाने का रास्ता भी खुलेगा जो इंटरनेट की रफ्तार व इससे जुड़ी सेवाओं को और तेज बनाएंगे।


Date:06-12-18

नुमाइशी रस्मअदायगी

पुष्पेश पंत

इस वर्ष अभी हाल अज्रेटीना में संपन्न जी-20 शिखर सम्मेलन कई मामलों में उल्लेखनीय रहा। पहले यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि इस जमावड़े में औपचारिक सत्रों के बीच वाले अंतराल में अमेरिकी राष्ट्रपति की मुलाकात चीनी राष्ट्रपति शी से हो सकती है, जिनके देश के खिलाफ ट्रंप ने वाणिज्य युद्ध की घोषणा कर दी है। परंतु घर से निकलने के पहले ही ट्रंप ने यह सूचित कर दिया कि चीन के रुख में कोई नरमी नहीं आई है अत: किसी अनौपचारिक वार्ता की कोई गुंजाइश नहीं। मगर यहीं रूस के राष्ट्रपति पुतिन से मिलने में उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। यह बात उनके यूरोपीय सहयोगियों को काफी खली क्योंकि इस सम्मेलन के कुछ ही दिन पहले पुतिन ने ऊक्रेन के तीन जंगी जहाजों को अजोल सागर में प्रवेश से रोक कर अपने कब्जे में कर लिया था। या जलमार्ग ऊक्रेन के एक प्रमुख बंदरगाह तक पहुंचाता है और जब से रूस ने क्रीमिया प्राय: द्वीप पर नाजायज सैनिक हस्तक्षेप से कब्जा किया है; विवाद का विषय रहा है। ऊक्रेन के राष्ट्रपति ने जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल से यह विनती की कि वह नाटो का नौसैनिक हस्तक्षेप कर उनके देश को रूसी उपनिवेश बनने से बचाएं।

मार्केल ने उनसे हमदर्दी तो दिखाई परंतु यह साफ कर दिया कि ऊक्रेन नाटो का सदस्य नहीं अत: ऐसा नहीं किया जा सकता। यह भी जोड़ना जरूरी समझा कि ऐसे विवाद चाहे कितना भी दुर्भाग्यपूर्ण और विस्फोटक क्यों न हों, इनका समाधान सैनिक नहीं राजनयिक ही हो सकता है। जहां तक ट्रंप की पुतिन से मुलाकात का सवाल है, उन पर पहले ही यह आरोप लगाया जाता रहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूसी गुप्तचर सेवा के हस्तक्षेप के बाद से ट्रंप का भयादोहन करने की क्षमता पुतिन ने हासिल कर ली है। उनके प्रति बेरुखी ट्रंप नहीं दिखला सकते। एक और मुलाकात चौंकाने वाली थी। सऊदी अरब मूल के अमेरिकी पत्रकार खाशोगी की हत्या की साजिश में सीधे लिप्त होने का आरोप जिन सऊदी युवराज पर लगा है, उनके साथ पुतिन ने बहुत गर्मजोशी से दोस्ताना मुलाकात की। मुहम्मद बिन हसन को ट्रंप और पुतिन के अलावा किसी और ने अहमियत नहीं दी। उनके साथ बहिष्कृत सदस्य जैसा बर्ताव किया। ग्रुप फोटो खिंचवाने के बाद वह मंच से अदृश्य हो गए थे। फिर तभी दिखलाई दिए, जब पुतिन ने उन्हें ‘‘अपने खेमे” में इज्जत बख्शी। दूसरे शब्दों में, अमेरिका, रूस और सऊदी अरब की मंडली अलग-थलग बनी रही। कुछ इस अंदाज में बर्ताव करती कि उन्हें दूसरों के अनुमोदन की जरूरत नहीं।  भारतीय प्रधानमंत्री ने यथासंभव यह दर्शाने का प्रयास किया कि भारत अन्य प्रतिनिधियों के साथ भी सार्थक संवाद कर रहा है, मगर सचाई यह है कि वह चीन की बेरुखी से खिन्न लगातार अमेरिका की तरफ खिंचता जा रहा है। अमेरिकी प्रभाव में ही उसने ईरान के ऊपर सऊदी अरब को तरजीह दी है।

‘‘खलनायक’ के रूप में जिस सऊदी राजकुमार का चितण्रमीडिया में हो रहा है, उससे ‘‘भारत के राष्ट्रहित में’ मिलने में उन्हें कोई संकोच नहीं हुआ। उन्हें यह आश्वासन मिला कि ईरान पर लगे प्रतिबंधों से भारत की तेल आपूर्ति को सऊदी अरब संकटग्रस्त नहीं होने देगा। यहां यह बाद रेखांकित करने की दरकार है कि सऊदी अरब भारत पर कोई खास एहसान नहीं कर रहा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें गिर रही हैं और अपनी खुशहाली बरकरार रखने के लिए तेल उत्पादन में अरबों को कटौती पड़ सकती है। दूसरी तरफ उत्तरी अतलांतिक में अमेरिकी शेल तेल का उत्पादन बढने से सऊदी अरब को नये बाजार तलाशने पड़ेंगे। एक अन्य फोटोग्राफ में मोदी जापान के प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ खड़े दिखलाई दिए। इसका उद्देश्य यह संदेश देना था कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में यह तीनों देश सहकार-सहयोग को पुष्ट करेंगे। चाहे प्रत्यक्ष रूप से यह नहीं कहा गया, यह अभियान दक्षिण पूर्व एवं पूर्वी एशिया में चीन के आक्रामक विस्तारवाद का प्रतिरोध करने की परियोजना ही है। हालांकि यह समझ पाना कठिन है कि कैसे भारत इसमें कोई सार्थक भूमिका निबाह सकता है। बहरहाल हमारी समझ में यह सम्मेलन जी-20के क्षय या हृास का ही लक्षण है।

जिस संयुक्त ‘‘परिवार’ का गठन प्रमुखत: आर्थिक नीतियों के दूरदर्शी समायोजन और सार्वभौमिक मुद्दों पर सहमति बना तनाव घटाने के लिए किया गया था, वह अचानक सिकुड़ कर तीन निरंकुश तानाशाही मिजाज वाले नेताओं के एक जगह मिलने की घटना बन कर रह गया है। ट्रंप, पुतिन और शी के ही इर्द-गिर्द शेष उपग्रह मंडराते रहते हैं। यही तीन अपनी इच्छानुसार कार्यसूची तय करते हैं-बदलते हैं। ट्रंप के लिए न तो पर्यावरण का संकट वास्तविक है और न ही मानवाधिकारों का मुद्दा। सऊदी अरब हो या रूस अमेरिका अपने स्वार्थ के दबाब में मौन धारण कर सकता है। शी की चुप्पी का विश्लेषण कठिन है। अमेरिका एक सीमा का उल्लंघन करने से कतराता है। ट्रंप यह तय कर चुके हैं कि स्वदेश हित में वह यूरोप को बेसहारा छोड़ सकते हैं। चाहे रूस के हमलावर जुझारू तेवर हों या शरणार्थियों की समस्या। यूरोपीय समुदाय ब्रेक्सिट के बाद से बुरी तरह विभाजित है। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे इस संकट से अपने देश को उबारने में समाधान में बुरी तरह असफल रही हैं। फ्रांस पिछले दशक की सबसे भयानक सामाजिक उथल-पुथल और अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है।

फ्रांस हो या जर्मनी यह दोनों बड़ी ताकतें जी-20 में अपनी पारंपरिक संतुलनकारी अग्रगामी भूमिका नहीं निभा सकती। भारत के लिए यह समझना उपयोगी होगा कि जिस तरह ट्रंप ने विश्व व्यापार संगठन का अवमूल्यन किया है, वैसे ही वह दूसरे उन सभी अंतरराष्ट्रीय संस्थानों-संगठनों को बधिया बनाने में लगे हैं। इससे भले ही अमेरिका को तात्कालिक लाभ होता हो भारत के हितों का संरक्षण अनायास सुनिश्चित नहीं हो सकता। बहुपक्षीय राजनय तभी लाभदायक सिद्ध हो सकता है, जब सभी पक्ष उभयपक्षीय नजरिए से सोचना बंद करें और पारदर्शी संवाद से सहमति के निर्माण के लिए तत्पर हों। इस घड़ी यह साफ है कि भूराजनैतिक और एकाधिकारी वर्चस्व स्थापित करने की होड़ ने जी-20 को एक नुमाइशी सालाना रस्मअदायगी वाले समारोह में बदल दिया है। निकट भविष्य में इसमें बदलाव की संभावना नजर नहीं आती, हमारा हित अपने पड़ोस और मित्र देशों पर अधिक ध्यान देने में है।