07-11-2022 (Important News Clippings)

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07 Nov 2022
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Date:07-11-22

Revive NJAC

The collegium system ultimately hurts the judiciary’s credibility. Parliament’s idea was better

TOI Editorials

Union law minister Kiren Rijiju has said that the government “won’t stay silent forever” on Supreme Court’s collegium system of appointing judges, and the apex court’s 2015 rejection of Parliament-cleared NJAC. NJAC was supposed to replace the collegium to make appointments to the higher judiciary more accountable. But SC killed it before it could be tried out. Yes, the backers of the collegium system are apprehensive of government interference in judicial appointments, which can potentially undermine the independence of the judiciary. They cite executive overreach in judicial appointments in the 1970s and 1980s. Those misgivings led to the collegium system. But a cloistered judiciary also raises suspicion of nepotism, which could raise questions about the judicial system’s credibility down the road. As Rijiju has said, it won’t be totally unrealistic to imagine that politics plays a role in appointments decided behind the closed doors of the collegium.

This is precisely why India needs something like NJAC, which aims to be a middle path to address apprehension of judges as well as meet standards of transparency and accountability. The old proposal had a six-member NJAC that included the CJI, two senior most SC judges, the Union law minister and two eminent citizens nominated by a panel comprising the PM, CJI and the leader of opposition. This is a good mix to nominate judges, and rules can be tweaked to improve the system further. For example, the earlier NJAC rule that any two commission members can veto a candidate had raised objections. This can be changed to encourage consensus-building on candidates. As the final hope for those seeking justice, the judiciary must be beyond all suspicion. The collegium system stands in the way.


Date:07-11-22

देश को चाहिए अल्पसंख्यकवाद से मुक्ति

हृदयनारायण दीक्षित, (लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)

गरीबी और संपन्नता पंथिक या मजहबी नहीं होतीं, लेकिन भारत में मजहब आधारित अल्पसंख्यक अवश्य हैं। संप्रति सर्वोच्च न्यायपीठ में एक संस्था ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को असंवैधानिक घोषित करने की याचिका दी है। याचिका स्वीकार कर ली गई है। वहीं भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की एक याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम, 2004 की धारा 2एफ पर भी विचार चल रहा है। राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान की मांग हुई है। इसके पहले भी एक याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक की परिभाषा की मांग की गई है।

मजहबी आधार पर अल्पसंख्यक होने का आखिर औचित्य क्या है? किसी समूह को अल्पसंख्यक घोषित करने की अर्हता क्या है? यहां सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार हैं। मूलभूत प्रश्न है कि सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार देने वाले राष्ट्र में कोई अल्पसंख्यक क्यों है? सवाल और भी हैं। क्या किसी पंथिक या मजहबी संप्रदाय की अल्पसंख्या ही अल्पसंख्यक सुविधाएं लेने का आधार है। पंथ या मजहब ही अल्पसंख्यक होने का आधार क्यों हैं? संविधान की उद्देशिका में राष्ट्र की मूल इकाई ‘हम भारत के लोग’ हैं। राष्ट्र एक है। संस्कृति एक है। संविधान एक है। अल्पसंख्यकों के लिए अलग से विचार तार्किक नहीं। देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं। मुस्लिम, पारसी, ईसाई, सिख, बौद्ध और यहूदी अल्पसंख्यक। पंजाब में हिंदू 38.40 प्रतिशत, अरुणाचल में 29 प्रतिशत, मणिपुर में 31.39 प्रतिशत, जम्मू-कश्मीर में 28.44 प्रतिशत, नगालैंड में 8.75 प्रतिशत, मिजोरम में 2.75 प्रतिशत ही हैं। वहां इन्हें अल्पसंख्यक नहीं माना जाता। हिंदू अल्पसंख्यक होकर भी अल्पसंख्यकों के लिए चिह्नित सुविधाओं का लाभ नहीं पाते।

अल्पसंख्यक विशेषाधिकारों के कारण मूल अधिकारों का उल्लंघन होता है। अनुच्छेद 15 में ‘धर्म, मूल, वंश, जाति, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव का निषेध है, पर अल्पसंख्यक हितैषी कानून इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन हैं। सबके समान अधिकार हैं, मगर अल्पसंख्यकों के लिए विशेष सुविधाएं हैं। उनकी शिक्षण संस्थाएं स्वायत्त हैं। मौलिक अधिकार संविधान का मूल ढांचा हैं। मूल ढांचे का भाग होने के कारण ये बाध्यकारी हैं। बावजूद इसके सांप्रदायिक आधार पर चिह्नित अल्पसंख्यक कई सुविधाएं लेते हैं। अनेक समुदाय राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक हैं। किसी राज्य में वे बहुसंख्यक हैं। वहीं कुछ राज्यों में अल्पसंख्यक। बहुसंख्यक समुदाय को लगता है कि उन्हें तमाम अधिकारों से वंचित किया गया है। दोनों में इस पर तनाव भी रहता है। बहुसंख्यक अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक हो जाते हैं। अल्पसंख्यक खुद को विशिष्ट मानते हैं। वे और अधिकार चाहते हैं। अल्पसंख्यकवादी नेता और दल अल्पसंख्यकों को उकसाते हैं कि उनकी उपेक्षा हो रही है और वे उनके लिए संघर्ष करेंगे।

अल्पसंख्यकवाद राष्ट्रीय एकता में बाधक है। इसके स्रोत कट्टरपंथी सांप्रदायिकता में हैं। ब्रिटिश सत्ता और कट्टरपंथी तत्वों की साजिश से देश टूट गया। सांप्रदायिक तत्वों को अलग देश मिला। तब भी अल्पसंख्यक विशेष सुविधाएं मांग रहे थे। संविधान सभा ने अल्पसंख्यक अधिकारों पर समिति बनाई। सरदार पटेल इस समिति के सभापति थे। उसमें पीसी देशमुख ने कहा, ‘अल्पसंख्यक से अधिक क्रूरतापूर्ण और कोई शब्द नहीं है। इसी कारण देश बंट गया।’एचसी मुखर्जी ने कहा, ‘यदि हम एक राष्ट्र चाहते हैं तो मजहब के आधार पर अल्पसंख्यकों को मान्यता नहीं दे सकते।’ तजम्मुल हुसैन ने कहा, ‘हम अल्पसंख्यक नहीं हैं। यह शब्द अंग्रेजों ने निकाला था। वे चले गए। अब इस शब्द को डिक्शनरी से हटा देना चाहिए।’ पं. नेहरू ने कहा, ‘सभी वर्ग विचारधारा के अनुसार समूह बना सकते हैं। धर्म या मजहब आधारित वर्गीकरण नहीं किया जा सकता।’ पटेल ने अल्पसंख्यकवादियों से प्रश्न किया कि ‘आप स्वयं को अल्पसंख्यक क्यों मानते हैं?’ ये सही बातें थीं। भारत बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समझौते का परिणाम नहीं है।

पंथ-मजहब आधारित अल्पसंख्यक विशेषाधिकार जहां अल्पसंख्यकों में अलगाववाद का विचार देते हैं तो सुविधा से वंचित बहुसंख्यक वर्ग को निराश करते हैं। इसीलिए अल्पसंख्यकवाद राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है। देश को अल्पसंख्यकवाद से मुक्त करना सर्वोच्च प्राथमिकता है। गरीबी और अमीरी के आधार पर ही वर्ग समूहों का विचार किया जाना चाहिए। जाति, पंथ और संप्रदाय की अस्मिताएं समग्र वैभव के लक्ष्य में बाधक हैं। शिक्षा और संपदा में कुछ वर्ग पिछड़े और वंचित हो सकते हैं। उन वर्गों को अवसर देकर आगे बढ़ाना राष्ट्रीय कर्तव्य है। संविधान की उद्देशिका में ‘सबको प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने’ की शपथ है। भारत के सभी लोगों में समरसता और भाईचारे की भावना का निर्माण करना मूल कर्तव्य है। शर्त है कि ऐसी भावना, भाषा, पंथ, मजहब और क्षेत्रीय भेदभाव से परे होनी चाहिए।

अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की बहस का समय बीत चुका है। माना गया था कि युद्ध या अंतरराष्ट्रीय समझौते के कारण किसी राज्य क्षेत्र के निवासी अपने घर में रहने के बावजूद दूसरे देश के निवासी घोषित हो जाते हैं। राज्य क्षेत्र में परिवर्तन से सभ्यता एवं संस्कृति प्रभावित होती है। उन्हें विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है। भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। भारत विभाजन के समय मुस्लिम लीग ने अलग देश मांगा। यहां शेष रहे मुसलमानों ने अपनी इच्छा से भारत को चुना। अंतरराष्ट्रीय अर्थ में भी भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है। आवश्यकता है कि देश अल्पसंख्यकवाद से मुक्त हो।


Date:07-11-22

प्रदूषण पर पहरा

संपादकीय

वायु प्रदूषण को लेकर एक बार फिर सरकारों के माथे पर बल नजर आने लगा है। खासकर दिल्ली में दिवाली के बाद यह समस्या साल-दर-साल गंभीर होती जा रही है। इससे पार पाने के लिए दिल्ली सरकार ने कई उपाय आजमाए, मगर वे कारगर साबित नहीं हो पा रहे। प्रदूषण जानलेवा स्तर तक खतरनाक हो गया है, जिसके चलते स्कूल बंद करने और दिल्ली सरकार के आधे कर्मचारियों को घर से काम करने को कहा गया है। इसे लेकर दिल्ली और पंजाब के मुख्यमंत्री ने संयुक्त रूप से प्रेस को संबोधित किया और ईमानदारी से स्वीकार किया कि पराली जलाने के मामले में वे अपेक्षित कमी नहीं ला पाए। हालांकि उन्होंने भरोसा दिलाया कि अगले साल तक पराली जलाने पर पूरी तरह लगाम लगा ली जाएगी। इससे जुड़े उपायों का विवरण भी उन्होंने दिया है। चूंकि दोनों जगह आम आदमी पार्टी की सरकार है, इसलिए दोनों मुख्यमंत्रियों ने मिल कर इस पर सफाई पेश की। इससे पहले जब पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार नहीं थी, तब दिल्ली सरकार वायु प्रदूषण के लिए पंजाब सरकार को जिम्मेदार ठहराया करती थी। अब वह ऐसा नहीं कर सकती, इसलिए लोगों के सवालों से बचने का यह तरीका निकाला गया।

यह ठीक है कि जब किसी राज्य में पराली या औद्योगिक इकाइयों का धुआं उठता है, तो वह केवल उसी राज्य तक सीमित नहीं रहता। हवा चलती है तो पड़ोसी राज्य भी उससे प्रभावित होते हैं। मगर इस आधार पर कोई सरकार प्रदूषण का दोष दूसरे राज्यों पर डाल कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। पंजाब के मुख्यमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार को आए अभी छह महीने हुए हैं और धान तथा गेहूं की फसल के बीच मुश्किल से दस-बारह दिन का समय मिलता है, इसलिए किसानों के पास पराली जलाने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। उनका दावा है कि उन्होंने पराली निस्तारण के लिए मशीनें खरीदी हैं और संयंत्र लगाया है, जो पराली से गैस आदि का उत्पादन करेगा। सेटेलाइट के जरिए पराली जलाने पर नजर रखी जा रही है। हालांकि पराली जलाने की प्रवृत्ति कोई नई नहीं है। यह पिछले कई सालों से बनी हुई है और हर साल इसमें कुछ बढ़ोतरी दर्ज हो रही है। पिछले साल दिल्ली सरकार ने पराली को खेत में ही गलाने के लिए एक विशेष प्रकार के घोल का प्रचार किया था। उसका दावा था कि इससे पराली जलाने की समस्या समाप्त हो जाएगी। वह घोल सरकार किसानों को मुफ्त मुहैया करा रही थी। फिर क्या हुआ कि वह घोल इस साल खेतों में नहीं छिड़का गया?

दरअसल, हर साल जब वायु प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर पहुंच जाता है, तो दिल्ली सरकार तदर्थ उपायों से इस पर काबू पाने का प्रयास करती है। पेड़ों पर पानी छिड़कने, निर्माण कार्य रोक देने, वाहनों में सम-विषय योजना लागू करने जैसे उपाय आजमाए जा चुके हैं। इसी तरह स्माग टावर लगा कर दावा किया गया कि इससे प्रदूषण को सोख लिया जाएगा। दिल्ली में बाहर से आने वाले भारी वाहनों का प्रवेश पहले ही वर्जित है, ज्यादातर चार पहिया और सभी तिपहिया वाहनों में सीएनजी इस्तेमाल होता है। फिर भी प्रदूषण का स्तर काबू में नहीं आ रहा, तो इस पर परदा डालने के लिए दिल्ली और पंजाब सरकारें जो भी तर्क दें, पर हकीकत यही है कि लोगों का दम घुट रहा है। अगर वे सचमुच इससे पार पाने को लेकर गंभीर हैं, तो वह व्यावहारिक धरातल पर दिखना चाहिए।


Date:07-11-22

भ्रष्टाचार से लड़ाई

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि देश में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शुरू हो चुकी है। आतंकवाद और नक्सलवाद को काबू में लाया गया है, और पूर्वोत्तर में शांति की बाली हुई है। प्रधानमंत्री मोदी शनिवार को हिमाचल प्रदेश के सोलन में एक चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे। हिमाचल प्रदेश में चुनावी दौरे के दौरान पीएम मोदी ने कहा कि आज भारत की सर्वोपरि जरूरत यह है कि केंद्र और राज्यों में स्थिर सरकारें हों। दरअसल, यह पहली दफा नहीं है जब प्रधानमंत्री ने इस जरूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया है। पक्ष और विपक्ष, दोनों ही तरफ के नेता इस बात पर बल देते रहे हैं कि एक स्थिर सरकार ही आर्थिक विकास और लोक कल्याण सुनिश्चित कर सकती है। फिर, स्थिर सरकार एक तरह से चुनाव सुधार ही है। सरकार स्थिर होगी तो दल बदल यानी नेताओं के पाला बदल जैसे हालात की नौबत नहीं आने पाएगी। कहना न होगा पाला बदल के पीछे खरीद-फरोख्त की बड़ी भूमिका होती है। दल बदल से लोकतंत्र के प्रति आस्था को ठेस लगती है, और मतदाताओं का विश्वास डगमगा जाता है, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए किसी भी सूरत में अच्छी बात नहीं है। दल बदल के हालात राजनीतिक अस्थिरता के चलते उभरते हैं, और समय पूर्व चुनाव कराने तक की नौबत आ जाती है, जिससे देश को चुनाव कराने का भारी-भरकम बोझ उठाना पड़ जाता है। यह खर्च देश के लोगों की जेबों से ही निकलता है। किसी भी लोक कल्याणकारी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में बार-बार चुनाव कराने की नौबत आना इसलिए भी ठीक नहीं है कि देश के अपने दीर्घकालिक कार्यक्रमों और नीतियों को क्रियान्वित करने में पीछे रह जाने का अंदेशा उठ खड़ा होता है। देश की राजनीति में स्थिरता और सरकार के स्थिर होने पर ऐसे तत्व सक्रिय नहीं होने पाते जो देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर होते नहीं देखना चाहते। ऐसे तत्व व्यवस्था पर हावी नहीं होने पाते जो निजी लाभ और स्वार्थ के लिए कोई भी तरीका, चाहे गलत ही क्यों न हो, अपनाने से पीछे नहीं हटते। मजबूत और स्थिर सरकार इस बात की गारंटी होती है कि समाज और व्यवस्था को अस्थिर करने का कोई भी कुत्सित इरादा पूरा नहीं होने दिया जाएगा। स्थिर सरकार का मुद्दा चुनावी सभा में उठाया जाना इस बात का संकेत है कि लोकलुभावन मुद्दों के छलावे में आने से बचा जाए। मतदाता स्थिर सरकार बनाने के प्रति जागरूकता दिखाकर निश्चित ही अपनी सार्थक भूमिका निभा सकता है।


Date:07-11-22

कितनी चुनौती और किससे

अनिरुद्ध गौड

विश्व में कहीं गर्मी अधिक पड़ रही है, तो कहीं पि बहुत अधिक सर्दी। कहीं इतनी वर्षा हो रही है कि कई देश बाढ़ से परेशान हैं। सारे संसाधन बौने साबित हो रहे हैं, वह्यं पानी ही पानी है। पहाड़ों पर लैंड स्लाइडिंग के मामले आम हो रहे हैं। कहीं इलाके सुखे से ग्रस्त हैं। समुद्र का तल भी कहीं घट-बढ़ रहा है, तो कीं मौसम में भारी उथलपुथल से मौसम का तापमान ऊपर-नीचे हो रहा है। कोहरा
और तूफान के मामले भी बेहद गंभीर हैं। जंगलों में आग लगना आम हो रहा है। वैश्विक स्तर पर इस तरह असामान्य हो रहे भूमंडलीय तापमान और मौसम में दीर्घकालीन बदलाव, वैश्विक चिंता के विषय बने हुए हैं।

इसी वैश्विक समस्या को लेकर मंथन के लिए संयुक्त राष्ट्र की वार्षिक जलवायु परिवर्तन कॉन्फ्रेंसकॉप27-6 से 18 नवम्बर के बीच मिस्र के शर्म अल-शेख शहर में हो रही है। मिस्र में होने वाले संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में वैश्विक तापमान की बढ़त को 15 डिग्री सेल्सियस से कम पर रोकने के लिए फंड जुटाने पर भी चर्चा होगी। भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव भी 7 नवम्बर को इस सम्मेलन को संबोधित करेंगे। वह 18 सदस्यीय भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करेंगे।

इतिहास के पन्नों में जाएं तो वैश्विक तापमान की बढ़ोतरी और मौसम के बदलावों को लेकर संयुक्त राष्ट्र में 1992 में चिंता की गई थी। पेरिस समझौते के जरिए जलवायु परिवर्तन और इसके नकारात्मक प्रभावों से निपटने को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा, सहयोग और समाधान की आवश्यकता पर जोर दिया गया। विश्व भर में चिंता का विषय है कि बढ़ते वैश्विक तापमान और मौसम में अचानक परिवर्तन प्राकृतिक और मानवीय, दोनों गतिविधियों से प्रभावित हैं। माना गया है कि जीवन स्तर में बेहतरी की दौड़ __ में जीवाश्म ईंधन के अनियंत्रित प्रयोग और औद्योगीकरण का जलवायु परिवर्तन पर विशेष प्रभाव पड़ा है। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस समस्या में सबसे बड़ा योगदान विकसित देशों का है, जो वैश्विक तापमान को कम करने के लिए सीधे तौर पर न तो अपने जीवन स्तर को पर्यावरण के
अनुकूल बदलने को तैयार हैं, और न ही विकासशील और गरीब देशों को खुलकर आर्थिक मदद देने के लिए ही सहमत दिखाई देते हैं।

एक आंकड़े पर गौर करें तो विकसित देशों की आबादी पूरे विश्व की करीब 17 प्रतिशत है, लेकिन कार्बन उत्सर्जन की बात करें तो विकसित देश कुल उत्सर्जन का 60 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन करते हैं। वहीं भारत की आबादी पूरे विश्व की लगभग 17 प्रतिशत है, लेकिन भारत कुल वैश्विक उत्सर्जन का मात्र 4 से 5 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। कॉप26 में भारत ने इस आंकड़े को रख कर जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक मंच पर भारत की प्रतिबद्धता रखी थी। कहा था कि इसके पीछे एक ही कारण है कि भारतीय जीवन शैली विकसित देशों की अपेक्षा पर्यावरण के प्रति अधिक अनुकूल है, और विकसित देशों के बराबर आबादी होने के बावजूद उनसे कम कार्बन उत्सर्जित करती है। हलांकि इस समस्या के सबसे अधिक जिम्मेदार विकसित देश हैं, फिर भी वे जलवायु परिवर्तन की समस्या का ठीकरा विकासशील देशों पर ही फोड़ते हैं।

वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन में सुधार के लिए विकासशील देशों के वित्त पोषण के लिए कॉप27 में गरीब और विकसित देशों की मदद के लिए इस बार 100 अरब डॉलर यानी करीब 82 खरब रुपये की राशि देने का संकल्प टूटने समेत कई अन्य जलवायु में सुधार लाने की योजनाओं के कार्यान्वयन के मुद्दे भी इसमें शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर कॉप27 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन कॉप26 के परिणामों को भी रखा जाएगाजो पिछले साल ब्रिटेन के ग्लासगो शहर में हुई थी।

जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए कॉप27 महासम्मेलन में महत्वपूर्ण मुद्दों पर तो चर्चा होगी ही, साथ ही यह भी देखा जाएगा कि ग्रीनहाउस गैसों उत्सर्जन को तत्काल कम करने के लिए अभी तक सभी देशों ने अपनी योजनाओं में कितना लक्ष्य प्राप्त किया और क्या रह गया है जैसे मुद्दों पर भी गंभीरता से मंथन होगा। संयुक्त राष्ट्र की एमीशन गैप रिपोर्ट-2022 को देखें तो ग्लोबल वार्मिंग को 15 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सभी देशों को एकजुट होकर 2030 तक वर्तमान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की कटौती करने की जरूरत बताई गई है जबकि 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने को 30 प्रतिशत कटौती करने की आवश्यकता होगी। इस रिपोर्ट की चिंताओं पर आगे जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने को नये और प्रभावी कदम उठाने का निर्णय भी कॉप27 में लिया जाना है।


Date:07-11-22

सोशल मीडिया की फीस

संपादकीय

ट्विटर पर आधिकारिक मालिकाना अधिकार हासिल करने के बाद एलन मस्क अपने कदमों से लगातार सुर्खियां बटोर रहे हैं। प्रबंधन के शीर्ष क्रम को फारिग करने और भारी संख्या में कर्मचारियों की छंटनी के बाद अब उन्होंने इस सोशल मीडिया मंच के ‘यूजर्स’ को सत्यापित पहचान देने वाले ‘ब्लू टिक’ के एवज में उनसे प्रतिमाह आठ डॉलर वसूलने का एलान किया है। जाहिर है, इस पर दुनिया भर में बहस खड़ी हो गई है, लेकिन मस्क ने भी साफ कर दिया है कि चाहे उनकी जितनी आलोचना की जाए, वह अपना यह कदम वापस नहीं लेने वाले। सोशल मीडिया का कारोबार मूलत: विज्ञापनों पर टिका है और इनसे होने वाली कमाई कितनी बड़ी है, इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल ट्विटर ने विज्ञापनों से करीब 4.5 अरब डॉलर की कमाई की, जो उसकी कुल आय का 89 प्रतिशत था। यह एक लोकप्रिय मंच है और दुनिया भर में इसके करीब 45 करोड़ यूजर्स हैं, जिनमें सर्वाधिक अमेरिकी हैं।

अमेरिका में तो ट्विटर इतना प्रभावशाली माध्यम बन चुका है कि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने तमाम बड़े नीतिगत फैसलों का एलान इस पर ही किया करते थे। अब तो दुनिया भर के तमाम शासनाध्यक्ष इसका इस्तेमाल प्रामाणिक मीडिया के रूप में करने लगे हैं। जाहिर है, एलन मस्क ने 44 अरब डॉलर लगाकर यदि ट्विटर को खरीदा है, तो वह इससे मुनाफा बटोरने की भी कोशिश करेंगे, लेकिन इसके लिए उन्हें कुछ अन्य रास्ते तलाशने चाहिए थे, क्योंकि खुद उन्होंने इसे मुक्त अभिव्यक्ति का प्रामाणिक मंच बनाने की बात कही थी। अब सत्यापन पर शुल्क आयद करके वह चिड़िया को आजाद नहीं कर रहे, बल्कि उसे पूंजी वालों की कैद में दे रहे हैं। दुनिया के तमाम खित्तों से समय-समय पर यह आरोप लगते रहे हैं कि सोशल मीडिया के विभिन्न मंच अलग-अलग देशों में सरकार व सत्ताधारियों के दबाव में न केवल विपक्ष की आवाज दबा रहे हैं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रकिया में भी गैर-वाजिब हस्तक्षेप कर रहे हैं। ऐसे में, ब्लू टिक के बदले शुल्क वसूलने से ट्विटर पर गैर-बराबरी बढ़ेगी, जो सोशल मीडिया की मूल विशेषता के विपरीत है। फिर क्या गारंटी कि बड़े लोगों या संगठनों के नाम पर सत्यापित अकाउंट बनाकर मासूम लोगों को ठगना आसान नहीं हो जाएगा? खुद एलन मस्क के अकाउंट के क्लोन की घटना इसकी एक बानगी है।

निस्संदेह, सोशल मीडिया के जरिये अनेक यूजर्स, खासकर यू-ट्यूब व इंस्टाग्राम से सेलिब्रिटी यूजर्स अच्छी-खासी कमाई कर रहे हैं, पर उसकी कीमत आम यूजर्स को क्यों चुकानी चाहिए? ट्विटर ब्लू टिक के बदले जितना शुल्क मासिक रूप से बटोरना चाहता है, भारत की एक विशाल आबादी के पास तो अपने बच्चों की स्कूल फीस के लिए भी उतने पैसे नहीं होते। यह ठीक है कि विभिन्न देशों में अलग-अलग फीस रखने की बात कही जा रही है, तब भी उसके औचित्य पर सवाल उठेंगे। सोशल मीडिया के मंचों द्वारा फीस वसूलने की सूरत में यह अपेक्षा भी की जाएगी कि उनकी जवाबदेही के सख्त मापदंड हों। सोशल मीडिया से जुड़ी ज्यादातर कंपनियां पश्चिमी देशों से संचालित होती हैं और उनका रवैया अमेरिका-यूरोप में कुछ और होता है व विकासशील देशों की शिकायतों के प्रति कुछ और। ऐसे में, भारत जैसे विशाल यूजर्स आबादी वाले देश के ग्राहकों के हितों के संरक्षण के लिए सरकार को आगे आना चाहिए।


Date:07-11-22

नई सरसों के खिलने की बुनियादी शर्त

हरजिंदर, ( वरिष्ठ पत्रकार )

हथेली पर सरसों उगाना एक मुहावरा है, लेकिन केंद्र सरकार ने किसानों की हथेली पर जेनेटिकली मॉडिफाइड, यानी जीएम सरसों के जो बीज पिछले दिनों रखे, वे भारतीय कृषि के नजारे को काफी हद तक बदल सकते हैं। यह सब रातोंरात नहीं होगा, अभी तो केंद्र सरकार ने सिर्फ इसकी इजाजत ही दी है। अब हमारे पास है सरसों की एक ऐसी किस्म, जिसे 28 फीसदी तक अधिक उपज के दावे के साथ पेश किया गया है। हालांकि, खेतों में बड़े पैमाने पर इस सरसों की बुवाई का मौका दो साल बाद ही आएगा। मगर एक उम्मीद बनी है, जो हो सकता है कि दूर तक भी चली जाए। ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि देश की किसानी इस समय जिन संकटों से जूझ रही है, क्या उसमें इस तरह की फसलें कुछ मदद कर सकेंगी?

बीटी कपास एकमात्र ऐसी जीएम फसल है, जिसकी लंबे समय से देश में बुवाई हो रही है। इसकी बदौलत देश कपास के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक बन गया है। फिर, तरह-तरह के कीटों के प्रकोप से कपास की फसल जिस तरह से पहले पूरी तरह बर्बाद हो जाया करती थी, वैसी घटनाएं इतनी कम हो गई हैं कि अब उनकी चर्चा भी नहीं होती। निस्संदेह, कपास किसानों से जुड़ी बर्बादी की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन क्या उनकी हालत भी बेहतर हुई है? कपास किसानों की माली हालत की तुलना अगर हम गेहूं या अन्य फसलें उपजाने वाले किसानों से करें, तो उनमें कोई बड़ा अंतर नहीं दिखता।

जीएम सरसों को हरी झंडी दिखाने के फैसले को कुछ विशेषज्ञों ने दूसरी हरित क्रांति की शुरुआत कहा है। एक अर्थ में यह बात सही भी साबित हो सकती है। पहली हरित क्रांति तब हुई थी, जब देश भीषण खाद्य संकट से गुजर रहा था। आज भी कुछ लोग उस हरित क्रांति की ढेर सारी खामियां गिनाते हैं, लेकिन उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना दिया। इस दूसरी हरित क्रांति की बात उस समय हो रही है, जब देश खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भरता से लगातार दूर जा रहा है। देश की खाद्य तेलों की 60 फीसदी जरूरत आज भी आयात से पूरी होती है। आयात पर इस निर्भरता को खत्म करना है, तो तिलहन की उपज तेजी से बढ़ानी होगी, जीएम सरसों में जो वादा या दावा किया जा रहा है, उससे भी कहीं ज्यादा तेजी से।

मुमकिन है कि कुछ लगातार प्रयासों से यह लक्ष्य भी हासिल हो जाए। मगर क्या इससे किसानों की समस्याएं भी खत्म हो जाएंगी? क्या सरसों की अधिक पैदावार किसानों की अधिक आमदनी की गारंटी बन सकेगी? यह बात याद रखनी भी जरूरी है कि जिसे हम पहली हरित क्रांति कहते हैं, उसने देश के खाद्य संकट का समाधान तो किया ही था, किसानों की बहुत सारी समस्याओं को भी हल किया था।

पहली हरित क्रांति के पीछे भी विज्ञान था, गेहूं की एक उन्नत किस्म थी, जिसे मैक्सिको के वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग ने काफी प्रयासों से विकसित किया था। बौने पौधे वाली गेहूं की इस किस्म में अधिक उपज की गारंटी तो थी ही, साथ-साथ यह फसल को कई तरह के रोगों और कीटों से भी बचाती थी। इसकी अधिक उपज के साथ एक शर्त यह भी जुड़ी थी कि किसान खेती के अपने परंपरागत तरीकों को बदलें। खेत की उर्वरता बढ़े और समय पर सिंचाई का पक्का इंतजाम हो। नॉर्मन बोरलॉग ने विज्ञान की अपनी जादूगरी से हमें जो बीज सौंपे थे, अगर हम उसके लायक जमीन न तैयार कर पाते, तो वह जादू कम से कम भारत में तो अपना तिलस्म खो बैठता। शुरुआत के कुछ साल तो इसी जमीन को तैयार करने में बीते।

किसानों को प्रशिक्षण देने के अलावा बड़े पैमाने पर उर्वरकों का इंतजाम किया गया। यह रासायनिक खाद इतनी महंगी थी कि उन्हें खरीद पाने की हैसियत देश के आम किसानों की नहीं थी। किसानों को उर्वरकों का इस्तेमाल सिखाने से कहीं ज्यादा कठिन था, अर्थशा्त्रिरयों और नीति-नियामकों को उनकी कीमत कम करने के लिए राजी करना। एक दूसरा खतरा भी था, जिसे समय रहते भांप लिया गया था। डर यह था कि अगर इन सबसे उपज वास्तव में बढ़ गई, तो एक समय के बाद किसान सिर्फ हरित क्रांति की कामयाबी की वजह से दिवालिया होने के कगार पर पहंुच जाएंगे। जिस साल उपज रिकॉर्डतोड़ होगी, मंडियों में गेहूं के भाव गोते लगाएंगे और सारी मेहनत के बाद किसानों के हाथ कुछ नहीं आएगा।

इन दोनों चीजों का जो समाधान निकाला गया, वह हरित क्रांति का मूल आधार था। यानी, लागत पर सब्सिडी और उपज की खरीद की गारंटी। इन दोनों चीजों के लिए बडे़ इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत थी, खासकर उपज की खरीद के लिए। जगह-जगह इस सोच के साथ खरीद केंद्र बने कि उपज बेचने के लिए किसानों को सैकड़ों मील दूर की यात्रा न करनी पड़े। भारतीय खाद्य निगम के इतने भारी-भरकम गोदाम बने, जो कुछ जगह तो नगरों का सबसे महत्वपूर्ण लैंडमार्क ही बन गए। जल्द ही इतनी उपज होने लगी कि गोदामों में जगह नहीं बची। उनके बाहर अनाज के सड़ने और चूहों का भोजन बन जाने की खबरें सालाना रस्म बन गईं। महामारी के बाद आज अगर 80 करोड़ से ज्यादा आबादी को मुफ्त अनाज इस देश के खाद्य बाजार और संतुलन पर दबाव बनाए बिना दिया जा रहा है, तो इसका बहुत बड़ा श्रेय इसी हरित क्रांति को जाता है।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के जिन हिस्सों में इसे सबसे अच्छी तरह लागू किया गया, वहां के किसान इससे भले ही बहुत अमीर नहीं हुए, लेकिन उनकी बदहाली तो जरूर दूर हुई। कई दशक बाद यह बदहाली अब तकरीबन सभी जगह लौटने लगी है। कृषि अब घाटे का सौदा हो गई है। यह बात कई आयोगों व शोधों में सामने आ चुकी है और सरकारें भी इसे स्वीकार कर चुकी हैं।

जिसे हम दूसरी हरित क्रांति कहते हैं, उसकी सबसे बड़ी जरूरत इसी सूरत को बदलने के लिए है। किसानों की आर्थिक समृद्धि का पुख्ता इंतजाम किए बिना इस क्रांति का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। लगातार बढ़ते और आक्रामक होते बाजार के बीच किसानों की आर्थिकी मजबूत बनी रहे, इसकी व्यवस्था इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है। बिना इसके जीएम सरसों जैसी तकनीक हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकेगी। एक बार फिर नए विज्ञान के लिए नई जमीन तैयार करने की जरूरत है।


Date:07-11-22

डिजिटल रुपये के आगाज से आसान होगा वित्तीय जीवन

सतीश सिंह, ( बैंकिंग मामलों के जानकार )

भारतीय रिजर्व बैंक ने 1 नवंबर, 2022 को केंद्रीय बैंक डिजिटल मुद्रा (सीबीडीसी) को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में देश में शुरू कर दिया, पर फिलहाल इसका इस्तेमाल सरकारी प्रतिभूतियों के थोक कारोबार में किया जा रहा है। जल्द ही, केंद्रीय बैंक इसके जरिये खुदरा क्षेत्र में भी कारोबार को मुमकिन बना देगा।

यह हमारे और देश के लिए गर्व व उपलब्धि का क्षण है, क्योंकि एक तय समय-सीमा के अंदर देश में आंशिक रूप से इस संकल्पना को लागू कर दिया गया, जबकि अब भी दुनिया के अनेक केंद्रीय बैंक सीबीडीसी को अपने देश में अमलीजामा पहनाने में सफल नहीं हुए हैं। केंद्र सरकार ने वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में डिजिटल रुपया की संकल्पना को जमीन पर उतारने की घोषणा की थी और वह कामयाब भी रही। रिजर्व बैंक ने सीबीडीसी के पायलट परीक्षण के लिए 10 बैंकों का चुनाव किया है। सीबीडीसी को बैंक जारी करेंगे। किसी कॉरपोरेट या सरकारी एजेंसी को किसी खास व्यक्ति को सीबीडीसी देना है, तो उसे सरकारी या निजी बैंक से संपर्क करना होगा। चूंकि सीबीडीसी की भुगतान प्रक्रिया का स्वरूप इलेक्ट्रॉनिक है, इसलिए कागजी मुद्रा के रखरखाव की तरह इसकी लागत बहुत ज्यादा नहीं होगी।

सीबीडीसी क्रिप्टोकरेंसी से अलग है। क्रिप्टो का लेन-देन निजी तौर पर किया जाता है और इसे नियंत्रण करने वाली कोई एजेंसी दुनिया में नहीं है, जबकि सीबीडीसी का नियंत्रण रिजर्व बैंक करेगा। नियामक की निगरानी में होने की वजह से आतंकवादी गतिविधियों, मनी लॉ्ड्रिरंग, धोखाधड़ी की आशंका सीबीडीसी के जरिये लेन-देन में कम रहेगी। वहीं, क्रिप्टोकरेंसी का इस्तेमाल गलत कार्यों के लिए ज्यादा किया जाता है। सीबीडीसी के लिए किसी बैंक में खाता खोलने की जरूरत नहीं होगी। मोबाइल के जरिये सेकंडों में पैसों का लेन-देन किया जा सकेगा, जिसे इलेक्ट्रॉनिक रूप में देखा भी जा सकेगा। हालांकि, सीबीडीसी में पेपर करेंसी के सारे फीचर होंगे और लोग इसे पेपर करेंसी से बदल भी सकेंगे। एक प्रकार से इसे डिजिटल नकदी कह सकते हैं। सीबीडीसी ब्लॉक चेन तकनीक पर काम करेगा और पेपर करेंसी की तरह यह कानूनी रूप से वैध होगा। इस प्रणाली में बिचौलिया की कोई भूमिका नहीं होगी, क्योंकि सीबीडीसी भुगतान करने वाले और भुगतान लेने वाले को सीधे तौर पर जोड़ेगी। सीबीडीसी के जरिये सरकारी योजनाओं से जुड़े विभाग या संस्थान बिना किसी व्यक्ति के संपर्क में आए सीधे लाभार्थियों को लाभ पहुंचा सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह सुनिश्चित किया जाएगा कि लेन-देन पूरा होने के बाद ही सर्विस प्रोवाइडर को भुगतान किया जाए, जिससे भ्रष्टाचार के मामलों में कमी आएगी। हालांकि, यह साफ नहीं है कि वैसे लाभार्थियों के संदर्भ में सरकार या निजी संस्थान या कॉरपोरेट क्या करेंगे, जिनके पास मोबाइल, लैपटॉप, डेस्कटॉप, टैब आदि नहीं हैं। वित्तीय रूप से साक्षर लोग ही सीबीडीसी का उपयोग करने में समर्थ होंगे। सीबीडीसी प्रणाली को अमलीजामा पहनाने में बैंकों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होगी, पर बैंक पहले से ही कई सामाजिक योजनाओं को पूरा करने में भूमिका निभा रहे हैं। इस नई प्रणाली के आने से बैंकों पर और अधिक कार्यभार बढ़ेगा, लेकिन बैंक के कर्मचारियों की संख्या में फिलहाल इजाफा करने का कोई प्रस्ताव नहीं है, जिससे बैंकों को इस नई प्रणाली को अमलीजामा पहनाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

सीबीडीसी एक ऐसी भुगतान प्रणाली है, जिसका इस्तेमाल पेपर करेंसी के विकल्प के तौर पर भविष्य में किया जा सकता है, लेकिन भारत में वित्तीय साक्षरता की स्थिति अब भी दयनीय है। दूसरी तरफ, भले ही भारत डिजिटलीकरण और डिजिटल लेन-देन के मामले में विश्व में एक प्रमुख देश बनकर उभरा है, लेकिन डिजिटलीकरण के साथ-साथ देश में डिजिटल या ऑनलाइन धोखाधड़ी की घटनाएं भी बहुत तेजी से बढ़ रही हैं। इसलिए, सबसे महत्वपूर्ण है कि सीबीडीसी या अन्य डिजिटल सुविधाओं को लागू करने के साथ-साथ वित्तीय साक्षरता के अभियान को मुहिम की तरह पूरे देश में 365 दिन चलाया जाए। दुर्घटना से बचने का सबसे आसान तरीका सावधानी बरतना ही है।


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