07-09-2024 (Important News Clippings)
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Date: 07-09-24
Saving Those Who Save Us From Epidemics
Writing on International Vulture Awareness Day, Union environment minister argues GOI’s conservation efforts can increase the population of these critically endangered birds
Bhupender Yadav
In Ramayan, the mighty vulture king Jatayu rises as a symbol of sacrifice and courage. When Ravan abducts Sita, it was Jatayu who soared gallantly to rescue her. Despite his defeat, his effort remains etched in our cultural memory, a testament to the nobility of vultures. Before Jatayu succumbs to the wounds inflicted by Ravan, he tells Ram and Lakshman where Ravan had taken Sita.
Yet, today, the descendants of this noble bird face a dire reality. The very species that once inspired tales of bravery and selflessness is now on the brink of extinction. On International Vulture Awareness Day – celebrated annually on the first Saturday of Sep – there are more reasons than one to ensure that vultures continue to soar across our skies.
Vultures play a critical role in the ecosystem as nature’s most efficient scavengers, skilfully cleansing the landscape of decaying carcasses. In doing so, vultures clean the ecosystem of dead animal matter and reduce the spread of disease.
Their unique ability to digest even the most toxic of pathogens like rabies and anthrax, shields our entire ecosystem from outbreak of epidemics. In the absence of these scavengers, our natural world would be susceptible to the spread of dangerous pathogens.
A total of nine species of vultures are found across India. Each of the nine species, from the widespread white-rumped vulture to the forest-dwelling red-headed vulture, has a unique place in the ecosystem. Other species such as the Himalayan griffon and the bearded vulture are typically found at higher elevations in the Himalayas, while the Egyptian vulture is found nearly all across the country. The slender-billed vulture lives in the northern plains and Assam valley, while its close relative the Indian vulture is distributed across central and peninsular regions of India. Two other species, the cinereous and the Eurasian griffon, are winter visitors to our land.
In the 1990s, three of the vulture species –white-rumped, slender-billed and Indian – that were once a common sight across many parts of the country, started to rapidly decline. By 2003, the situation had escalated to a major crisis with their population dropping by more than 90% across their range. The redheaded vulture followed suit to become critically endangered like the other three.
After much research, this alarming decline was attributed to the veterinary use of diclofenac, an antiinflammatory drug that was commonly administered to livestock across the country. Vultures feeding on livestock carcasses treated with diclofenac suffered from kidney failure, leading to their death.
In response to this crisis, an alternative, meloxicam, a drug found safe for vultures, began to be promoted. With vultures becoming the centre of conservation focus, it later became clear that diclofenac was just one of the many threats. Other veterinary drugs such as ketoprofen and aceclofenac were also found to be lethal to vultures. Recognising this, the two drugs were banned.
Today, with the support of govts, conservation NGOs and research institutions,vulture conservation is happening at Vulture Conservation Breeding Centres in Pinjore, Haryana, Rajabhatkhawa in Bengal, and Rani in Assam. Additionally, conservation centres were subsequently developed by Central Zoo Authority in collaboration with various state zoos, including Van Vihar in Bhopal, Nandankanan Zoo in Bhubaneswar, Nehru Zoological Park in Hyderabad, Muta Zoo in Ranchi, and Sakkarbaug Zoo in Junagadh.
The breeding programmes have shown promise, and as of 2023, the centres in India collectively house over 811 vultures, comprising 376 white-rumped, 315 Indian and 120 slender-billed vultures. The reintroduction of captivebred vultures into the wild, however, required the creation of vulture-safe zones (VSZs) – areas where use of vulturetoxic drugs is strictly controlled. Currently, there are nine provisional VSZs across India in MP, UP, Assam, Jharkhand, Gujarat, Bengal, Haryana, Tamil Nadu and Kerala. This is where the captive-bred vultures were proposed to be released first.
Over the last few years, captive-bred vultures have begun to be released into the VSZs at Pinjore, Buxa Tiger Reserve and Tadoba-Andhari Tiger Reserve. Few of these birds have successfully paired with their wild counterparts.
The Modi-led govt is diligently working for vulture conservation. All species of vultures have been listed in the Schedules of Wildlife (Protection) Act, 1972. The vial size of diclofenac has been restricted to 3ml to prevent its use in livestock. Safety testing of various veterinary non-steroidal, anti-inflammatory drugs to identify their toxicity to vultures is being carried out. And govt has established vulture safe zones in different parts of the country.
Plus, ministry-sponsored films The Last Flight and Vanishing Vultures are frequently telecast in order to create awareness on vulture conservation. These actions have now begun to gradually yield positive results with the foremost being stabilising the decline of vulture populations.
Today, at select sites across India, annual counts of the remnant vulture populations are undertaken. Recently, MoEFCC has also launched a pan-India assessment of vulture populations, and this is currently underway.
As we look to the future, it’s clear that the story of India’s vultures is one of resilience and hope. Through continued conservation efforts, we can ensure that vultures continue to soar across our skies, safeguarding our ecosystems as they have done for millennia.
मौत की सजा पर एक बार फिर से छिड़ गई है बहस
अनिरुद्ध बोस, ( सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज व एनजेए के निदेशक )
किसी जघन्य अपराध के बाद या समाज में अपराधों में वृद्धि होने पर अपराधी के लिए कठोर दंड की मांग भी बढ़ जाती है। ये सच है कि सरकारों को लोगों की भावनाओं के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। ऐसे में आंदोलनकारी जनमानस को संतुष्ट करने के लिए कठोरतम दंड की परिकल्पना की जाती है।
देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के साथ अपराधों में वृद्धि से गंभीर यौन अपराधियों के लिए मृत्युदंड की मांग नए सिरे से तूल पकड़ चुकी है। इसी संदर्भ में, मृत्युदंड को बरकरार रखने के सवाल पर फिर से बहस शुरू होगी। क्योंकि अंतरराष्ट्रीय रुझान तो मृत्युदंड को समाप्त करने की ओर प्रतीत होता है। 2023 तक, 112 देशों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया था।
पिछले साल 1100 से अधिक दोषियों को फांसी दी गई। इनमें चीन के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। चीन के अलावा, पिछले साल सबसे ज्यादा फांसी की सजाएं ईरान, सऊदी अरब, सोमालिया और अमेरिका में दी गई थीं। आधुनिक राष्ट्र-राज्य तीन आधारों पर दंडित करता है। पहला है अपराधी को सुधारना।
दूसरा है दंडनीय कृत्य करने की सोच रहे अन्य लोगों को डराना। तीसरा आधार प्रतिशोधात्मक है- आंख के बदले आंख का सिद्धांत। हालांकि अपराधशास्त्री, सामाजिक सिद्धांतकार और धार्मिक प्रमुख भी दंड देने के लिए प्रतिशोध के कारण को खारिज करते हैं, लेकिन जघन्य अपराध के बाद भीड़ की प्रतिक्रिया प्रतिशोधात्मक न्याय के लिए ही होती है।
अपराध को नियंत्रित करने और रोकने के लिए सामाजिक उपकरण के रूप में मृत्युदंड का उपयोग हर समाज द्वारा किया जाता रहा है। बेबीलोन की हम्मुराबी संहिता (18वीं शताब्दी ईसा पूर्व) में 25 अपराधों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था। एथेंस और रोम के कानूनों में भी मृत्युदंड था और इसके निष्पादन के तरीकों में जिंदा जला देना, सूली पर चढ़ाना, डुबोकर मार देना आदि शामिल थे।
मनुसंहिता में, उस शिकायतकर्ता के लिए भी मृत्युदंड प्रस्तावित है, जो गंभीर अपराध का आरोप लगाने के बाद अदालत के समक्ष गवाही नहीं देता है। 1801 में इंग्लैंड में एक 13 वर्षीय लड़के एंड्रयू ब्रेनिंग को एक घर में घुसकर चम्मच चुराने के जुर्म में फांसी पर लटका दिया गया था! सेंट्रल कलकत्ता में एक ‘फैंसी’ लेन है, जो ‘फांसी’ शब्द का अपभ्रंश है। फ्रांसीसी क्रांति के बाद 17000 लोगों को गिलोटिन मशीन से मार दिया गया था।
लेकिन 19वीं सदी के अंत से 20वीं सदी की शुरुआत तक मृत्युदंड के बारे में सोच में बदलाव आना शुरू हुआ। लियो टॉल्स्टॉय, विक्टर ह्यूगो, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, नेल्सन मंडेला जैसे बुद्धिजीवियों ने मौत की सजा का विरोध किया। पोप फ्रांसिस भी इसके विरोधी हैं। यह सोच पूरी तरह से नैतिक-धार्मिक तर्क पर आधारित नहीं। किसी भी मानक अध्ययन में इस निवारक सिद्धांत का कोई औचित्य नहीं पाया गया है।
महाराजा रणजीत सिंह ने अपने शासनकाल के दौरान मृत्युदंड को समाप्त कर दिया था। त्रावणकोर और कोचीन राज्य ने औपचारिक रूप से वर्ष 1944 में इसे समाप्त कर दिया था, केवल कोचीन में इसे कुछ अपराधों के लिए बरकरार रखा गया था।मृत्युदंड के विरुद्ध सबसे ताकतवर तर्क यह है कि इसे उलटा नहीं जा सकता।
न्यायिक प्रक्रिया सौ प्रतिशत दोषरहित नहीं है और ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें राज्यसत्ता द्वारा एक निर्दोष को भूलपूर्वक मार दिया गया। 1950 में, टिमोथी इवांस नामक एक व्यक्ति को अपनी पत्नी और नवजात बेटी की हत्या के लिए दोषी ठहराकर मृत्युदंड दे दिया गया। बाद में पता चला कि वास्तव में जॉन क्रिस्टी नामक एक सीरियल किलर इसके लिए दोषी था। 2004 में मरणोपरांत उसे दोषमुक्त करार दिया गया।
दूसरा तर्क यह है कि मृत्युदंड का प्रावधान अपने स्वभाव से ही भेदभावपूर्ण है। अधिक संपन्न लोगों की तुलना में गरीब अभियुक्तों को मृत्युदंड दिए जाने की अधिक संभावना है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में ही समान प्रकृति के अपराध के दोषी गोरों की तुलना में अश्वेतों को फांसी की सजा मिलने की अधिक संभावना होती है।
भारत में हालांकि इस सजा को औपचारिक रूप से समाप्त नहीं किया गया है, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले कुछ वर्षों में फांसी की सजा की दर में गिरावट आई है। 2023 में सत्र न्यायालय द्वारा मृत्युदंड दिए जाने वाले मामलों की संख्या 120 थी, वहीं 561 कैदियों को मृत्युदंड दिया जाना है (राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोजेक्ट 39ए द्वारा किए एक अध्ययन के अनुसार)। अंततः इस विवाद पर अंतिम निर्णय विधायिका को ही लेना है, जिसके आयाम वैश्विक हैं।
मृत्युदंड के विरुद्ध सबसे ताकतवर तर्क यह है कि इसे उलटा नहीं जा सकता। न्यायिक प्रक्रिया सौ प्रतिशत दोषरहित नहीं होती है और अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनमें राज्यसत्ता द्वारा एक निर्दोष को भूलपूर्वक मार दिया गया था।
Date: 07-09-24
प्रदूषित शहर
संपादकीय
वायु प्रदूषण से बढ़ती स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। इससे पैदा होने वाली बीमारियों के खतरनाक स्तर तक पहुंच जाने के तथ्य उजागर हैं। कई मौकों पर राष्ट्रीय हरित अधिकरण और सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली सहित समीपवर्ती राज्यों को इस पर काबू पाने का निर्देश दे चुके हैं। सरकारें इससे पार पाने के लिए अनेक उपाय आजमा चुकी हैं, मगर हकीकत यह है कि शहरों की वायु गुणवत्ता सुधरने के बजाय दिन ब-दिन बिगड़ती ही गई है। एक ताजा रपट के मुताबिक देश के सी प्रदूषित शहरों में हरियाणा के चौबीस में से पंद्रह शहर सर्वाधिक प्रदूषित पाए गए हैं। इनमें फरीदाबाद सबसे प्रदूषित शहर है। वहां पीएम 2.5 का स्तर एक सौ तीन माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर तक दर्ज किया गया, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार यह पांच माइक्रोग्राम से अधिक नहीं होना चाहिए। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ऐसे वातावरण में लोगों को सांस लेने में कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता होगा और उनकी सेहत पर कैसा असर पड़ता होगा। यह स्थिति तब है जब फरीदाबाद राष्ट्रीय स्वच्छ बाबु कार्यक्रम का हिस्सा है। हरियाणा के बाकी शहर इसका हिस्सा नहीं है। परीचाबाच के बाद गुरुग्राम की गुणवता भी बेहद खराब है। यहां पीएम 10 का स्तर राज्य में सबसे अधिक है।
हरियाणा में वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर की वजहें साफ हैं। दिल्ली से सटा होने के कारण बाहर से आने वाले ज्यादातर वाहन किसी न किसी रूप में इसके भीतर से होकर गुजरते हैं। दूसरे, हरियाणा के हर शहर में औद्योगिक गतिविधियां बढ़ाने पर जोर दिया गया। इसके चलते वहां औद्योगिक क्षेत्र का निरंतर विकास होता जा रहा है। इससे शहरी आबादी और वाहनों की आवाजाही लगातार बढ़ती गई है। औद्योगिक इकाइयों और वाहनों का धुआं वातावरण को तेजी से प्रदूषित कर रहे हैं। सर्व के मौसम में जब हवा संघनित होकर पृथ्वी की सतह के पास सिनट आती है, तो प्रदूषण और बना हो जाता है उस वक्त लोगों का सांस लेना दूभर हो जाता है। दिल्ली में तो इस समस्या के चलते स्कूल-कालेज तक बंद करने पड़ जाते हैं। जगह-जगह पानी की पुहार छोड़ने वाले यंत्र लगाने पड़ते हैं चिल्ली दुनिया का सर्वाधिक प्रदूषित शहर बन चुका है। बिल्ली सरकार हर वर्ष इस समस्या से पार पाने की रणनीति बनाती है, मगर अब तक उसे इस दिशा में कामयाबी नहीं मिल पाई है। जब वायु प्रदूषण बढ़ने से परेशानियां बढ़ जाती हैं, तो सरकारें एक-दूसरे पर दोषारोपण भी शुरू कर देती हैं। मगर हकीकत यह है कि वायु प्रदूषण अब किसी एक राज्य की समस्या नहीं रह गई है। कमोवेश सारे राज्य इससे प्रभावित है। वायु प्रदूषण किसी एक क्षेत्र तक सीमित रहने वाली समस्या है भी नहीं हरियाणा, पंजाब, राजस्थान में प्रदूषण बढ़ता है, तो दिल्ली पर भी उसका प्रभाव पड़ता ही है। इसी तरह दिल्ली का प्रदूषण हरियाणा के सीमावर्ती शहरों पर भी प्रभाव डालता है। इसलिए अपेक्षा की जाती है कि इस समस्या से पार पाने के लिए समन्वित प्रयास किए जाने चाहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण करके या इस समस्या की राजनीतिक रंग देकर दूर नहीं किया जा सकता। इसमें औद्योगिक इकाइयों की जवाबदेही भी तय करना जरूरी है। मगर विचित्र है कि सरकारें शहरी और औद्योगिक विकास पर तो जोर देती हैं, मगर प्रदूषण से पार पाने के उपायों पर वैसी गंभीरता नहीं दिखातीं।
Date: 07-09-24
हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक दबदबा
अरविंद कुमार, ( लेखक स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनवू में प्रोफेसर है। )
हालांकि भारत अब भी इस बात को लेकर दृढ़संकल्प है और मजबूती से महसूस करता है कि परमाणु हथियारों से मुक्त दुनिया में ही उसके राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हित सबसे अच्छी तरह सुनिश्चित हो सकते हैं। मगर उभरती भू-राजनीतिक गतिशीलता कुछ इस तरह की है कि उसमें उसे अपनी रक्षा तैयारियों को पुख्ता करने की जरूरत है। ‘पोखरण-दो’ के बाद भारत की जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं, इसलिए जब उसने 2003 में अपने परमाणु सिद्धांत को औपचारिक रूप दिया, तो उसने स्पष्ट रूप से कुछ सिद्धांत भी बनाए, जिनके आधार पर भविष्य की कार्रवाई हो सकती है। भारत ने अपने परमाणु सिद्धांत के एक प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रस्ताव रखा कि वह परमाणु हथियारों का ‘पहले उपयोग नहीं करेगा’।
इसका मतलब है कि भारत परमाणु हथियार संपन्न देशों के खिलाफ परमाणु हथियारों का इस्तेमाल करने वाला वह पहला देश नहीं होगा और इसने इस बात पर भी जोर दिया कि गैर-परमाणु हथियार संपन्न देशों के खिलाफ वह परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कभी नहीं करेगा। भारत के परमाणु सिद्धांत में ‘त्रिकोणीय’ क्षमता हासिल करने की भी बात कही गई है, जिसका अर्थ है कि वह अपनी परमाणु अभिरक्षा क्षमता बढ़ाने के लिए तीनों चरणों- जल, थल और वायु आधारित संपत्तियां हासिल करेगा।
यहां यह बात जोर देकर कही जानी चाहिए कि भारत के ‘पहले उपयोग न करने’ के सिद्धांत को पूरा करने के लिए उसे एक मजबूत और ठोस समुद्र आधारित परमाणु अभिरक्षा ढांचे की जरूरत थी। किसी भी संभावित घटना की स्थिति में थल और जल आधारित, दोनों ही संपत्तियां अत्यधिक असुरक्षित रहती हैं। यों भी, विश्वसनीय समुद्र आधारित क्षमता ही दूसरी मारक क्षमता प्रदान कर सकती है। इसी संदर्भ में भारत ने परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी हासिल करने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाया। हालांकि ‘एडवांस्ड टेक्नोलाजी वेसल’ (एटीवी) के तहत यह परियोजना 1980 के दशक की शुरुआत में बहुत पहले शुरू हो गई थी। विश्वसनीय समुद्र आधारित अभिरक्षा क्षमता हासिल करने में भारत के प्रयासों में बढ़ोतरी मुख्य रूप से ‘पोखरण- दो’ के बाद हुई।
भारत की दूसरी परमाणु ऊर्जा से चलने वाली बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बी आइएनएस अरिघात का जलावतरण भारत की अपनी अभिरक्षा क्षमता को मजबूत बनाए रखने और रखरखाव के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण का परिणाम है। इसके पहले आइएनएस अरिहंत को 2016 में नौसेना में शामिल किया गया था, जो साढ़े सात सौ किलोमीटर तक मार करने वाली सागरिका (के-15) ‘सबमरीन लांच बैलिस्टिक मिसाइल’ यानी एसएलबीएम से लैस है। भारत के पड़ोस में भू-राजनीति के उभरते आयामों को देखते हुए यह निश्चित रूप से पर्याप्त नहीं था, इसलिए भारत को लंबी दूरी की एसएलबीएम के अलावा परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बी का बेहतर संस्करण हासिल करने की दिशा में आगे कदम बढ़ाना पड़ा।
आयाम और इस्तेमाल किए जाने वाले रिएक्टर के संदर्भ में तुलना करें तो, आइएनएस अरिहंत और आइएनएस अरिघात दोनों में कई समानताएं हैं। केवल इसके तकनीकी पहलुओं पर कई महत्त्वपूर्ण सुधार किए गए हैं। स्वदेशी तरीके से विकसित तकनीकी में यह परिष्कार कर भारत ने दुनिया के समक्ष साबित कर दिया है कि वह दुनिया के किसी भी देश के समर्थन और सहयोग के बिना आयुध उपलब्धियां हासिल कर सकता है। हिंद महासागर में चीन की बढ़ती पैठ और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उसके आक्रामक रुख को देखते हुए भारत के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का समुद्री आयाम हमेशा से एक महत्त्वपूर्ण मसला रहा है। चीन लगातार समुद्री क्षेत्र में स्थिति को बदलने का प्रयास कर रहा है।
हिंद महासागर का चालीस फीसद जल भाग भारत के हिस्से में आता है। भारत के हितों को सुरक्षित और अधिक से अधिक संरक्षित करने की आवश्यकता है। निस्संदेह, भारत द्वारा आइएनएस अरिघात को संचालित करने से उसे अपनी समुद्री सुरक्षा को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी और हिंद प्रशांत क्षेत्र (आइपीआर) में अभिरक्षा क्षमताओं को हासिल करने में भी आसानी होगी। क्षेत्र में स्थिरता लाने को लेकर आइपीआर कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। दक्षिण पूर्व और दक्षिण प्रशांत के साथ-साथ हिंद महासागर के सारे तटवर्ती देश चीन से अपने हितों की सुरक्षा को लेकर भारत की तरफ नजर गड़ाए हुए हैं।
भारत को अपनी समुद्र आधारित परिसंपत्तियों पर ध्यान केंद्रित रखते हुए त्रिकोणीय क्षमता को मजबूत करने के अलावा अपनी समुद्री क्षमताओं को भी बढ़ाने की आवश्यकता है। आइएनएस अरिघात भारत के परमाणु त्रिकोण में एक दुर्जेय रणनीतिक परिसंपत्ति है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के हितों की रक्षा के लिए आइएनएस अरिघात जो सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकेगा, वह यह कि इसमें गश्त लगाने की क्षमता है। हिंद प्रशांत क्षेत्र में बढ़ी भू-राजनीतिक गतिशीलता के चलते भारत के लिए एक मजबूत और विश्वसनीय समुद्र आधारित परमाणु अभिरक्षा की जरूरत रेखांकित हुई है। भारत में आए इस बदलाव का विश्लेषण चीन की नौसैनिक क्षमताओं के संदर्भ में भी किया जाना चाहिए।
चीन के पास वर्तमान में छह ‘आपरेशनल जिन क्लास’ (टाइप 094) बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियां हैं। वह अपनी परमाणु ऊर्जा चालित बैलिस्टिक मिसाइल पनडुब्बियों को उन्नत जेएल-3 एसएलबीएम से भी लैस कर रहा है। ऐसा लगता है कि जेएल-3 की अनुमानित मारक क्षमता दस हजार किलोमीटर से अधिक है और इसमें बहुस्तरीय युद्धक परमाणु हथियार ले जाने की भी क्षमता है।
दूसरी ओर भारत के आइएनएस अरिघात में चार ‘लांच ट्यूब’ हैं। इसमें 750 किलोमीटर की मारक क्षमता वाली 12 के-15 सागरिका एसएलबीएम या 3,500 किलोमीटर की मारक क्षमता वाली चार के-4 एसएलबीएम ले जाने की क्षमता है। यह तकनीकी परिष्कार पूरी तरह स्वदेशी तरीके से किया गया है। रणनीतिक रूप से, भारत चीन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करना चाहता, क्योंकि चीन की आकांक्षाएं अलग हैं। भारत को केवल चीन को रोकने और उससे रक्षा करने की जरूरत है। चीन मुख्य रूप से दक्षिण चीन सागर और उसके बाहर अपने प्रभुत्व का दावा पुख्ता करने के लिए अधिक उन्नत परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बियों का निर्माण कर रहा है।
भारत मुख्य रूप से अपनी अभिरक्षा क्षमताओं को बढ़ाने और अपने समुद्री हितों की रक्षा के लिए अपनी तीसरी परमाणु ऊर्जा चालित पनडुब्बी आइएनएस अरिदमन के विकास पर काम कर रहा है। हालांकि, भारत का बेड़ा छोटा लगता है, लेकिन इसकी पनडुब्बियों का तकनीकी परिष्कार, चाहे वह आइएनएस अरिहंत हो या आइएनएस अरिघात, बहुत बेजोड़ है। इन तब्दीलियों के माध्यम से, भारत निश्चित रूप से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में एक दुर्जेय खिलाड़ी के रूप में उभरेगा और चीन की आक्रामक मुद्रा के बावजूद इस क्षेत्र को अत्यधिक स्थिर बनाने और सभी देशों के हितों की रक्षा करने में मदद करेगा। निकट भविष्य में हिंद-प्रशांत क्षेत्र को स्थिर और समावेशी बनाने में भारत की भूमिका और महत्त्वपूर्ण हो जाएगी।
पुतिन का सकारात्मक रुख
संपादकीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रूस और यूक्रेन की यात्रा के बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने बृहस्पतिवार को ब्लादिवोस्तक में ईस्टर्न हकोनॉमिक फोरम (ईएफ) को संबोधित करते हुए कहा कि वह यूक्रेन के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हैं। उनके इस सकारात्मक रुख से आशा जगी है कि यूक्रेन संघर्ष आने वाले दिनों में व्यापक रूप नहीं लेगा। अमेरिका और नाटो सैनिक संगठन के देशों ने यदि गैर-जिम्मेदाराना रवैया नहीं अपनाया तो संवाद और कूटनीति के जरिए यूक्रेन संघर्ष का समाधान संभव है। शांति वार्ता की जमीन तैयार करने के लिए राष्ट्रपति पुतिन ने ब्रिक्स के तीन सदस्य देशों भारत, चीन और ब्राजील को शामिल किया है। उनका विश्वास है कि यह तीनों देश संघर्ष को समाप्त करने के लिए ईमानदारी से कोशिश कर रहे हैं। यूक्रेन संघर्ष को समाप्त करने के बारे में राष्ट्रपति पुतिन का यह वक्तव्य ऐसे समय आया है जब अगले महीने यानी अक्टूबर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का आयोजन रूस के कजान में होने रहा है। इस शिखर वार्ता में मोदी और पुतिन के बीच वार्ता संभावित है। ऐसा संभव है कि यह तीनों नेता यूक्रेन संघर्ष को समाप्त करने की दिशा में कोई योजना तैयार करें। राष्ट्रपति पुतिन ने ईईएफ को संबोधित करते हुए युद्ध की शुरुआत में ही हस्तांबुल में दोनों पक्षों के बीच हुई शांति वार्ता से संबंधित समझौते का जिक्र किया जो अमल में नहीं आया। यह समझौता आगे की शांति वार्ता का आधार वन सकता है। यूक्रेन संघर्ष के समाधान में चीन और ब्राजील के मुकावले भारत की भूमिका ज्यादा प्रमुख हो सकती है। प्रधानमंत्री मोदी ने पुतिन से स्पष्ट शब्दों में कहा था कि यह युग युद्ध का नहीं है। इसी तरह यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की से भी कहा कि भारत ने कभी तटस्थता की नीति का अनुसरण नहीं किया। इस पूरे मामले में भारत का रूप स्पष्ट है। वह दोनों पक्ष की सहमति के बाद ही मध्यस्थ वन सकता है। किसी भी शांति में प्रक्रिया में भारत इसी शर्त पर शामिल हो सकता है जब राष्ट्रपति जेलेंस्की भी इसके लिए तैयार हो। अब आगे देखिए होता है क्या?
विशेष प्रदर्शन
संपादकीय
पदकों की बरसात अभी रुकी नहीं है। पेरिस में चल रहे पैरालंपिक से जो खबरें आ रही हैं, वे हैरत में डालने वाली तो हैं ही, साथ ही गर्व से भर देने वाली भी हैं। इसमें इतने पदक मिले हैं, जितने भारत की झोली इसके पहले कभी नहीं गिरे थे। मामला देश के दिव्यांग खिलाड़ियों द्वारा नए रिकॉर्ड बनाने का ही नहीं है, पेरिस पैरालंपिक की पदक तालिका दरअसल भारत के बदलते समाज और उसके नजरिये की कहानी भी है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस उपलब्धि से अभिभूत हैं। पदक जीतने वाले खिलाड़ियों से टेलीफोन पर बातचीत में उन्होंने कहा कि आपकी उपलब्धि पूरे देश के नौजवानों को प्रेरित करेगी। इसमें हम यह भी जोड़ सकते हैं कि यह उपलब्धि पूरे देश को एक नया आत्मविश्वास देगी, जिसकी इस समय सबसे ज्यादा जरूरत है।
अंग्रेजी भाषा में दिव्यांगों के लिए पहले डिसेबल या अक्षम शब्द का इस्तेमाल होता था। अब यह शब्दावली बदल दी गई है, इसकी जगह लिखा जाता है – स्पेशली एबल्ड पर्सन, यानी विशेष क्षमता वाले व्यक्ति । सचमुच पेरिस पैरालंपिक में गए भारतीय खिलाड़ियों ने यह साबित कर दिया है कि वे विशेष क्षमता वाले खिलाड़ी हैं। वे उस धरती से पेरिस गए थे, जहां खिलाड़ियों के लिए पर्याप्त सुविधाएं और इन्फ्रास्ट्रक्चर, यानी बुनियादी ढांचा न होने का रोना अक्सर रोया जाता है। जहां किसी भी ओलंपिक खेल या अंतरराष्ट्रीय स्पर्द्धा के बाद लिखे जाने वाले वैचारिक लेखों की अंतिम पंक्तियां इसी त्रासदी की ओर इशारा करती हैं। यह दर्द भी सुनाई देता है की क्रिकेट के आलावा किसी और खेल पर पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा। ठीक उसी दौर में ये खिलाडी पेरिस जाते हैं और तक़रीबन हर रोज ही एक साथ ही कई पदक जीतने की खबर आती है। वे हर खेल में जीतते हैं –
निशानेबाजी में, तीरंदाजी में, भारोत्तोलन में, भाला फेंकने में, लंबी कूद में, ऊंची कूद में, जूडो में यह फेहरिस्त लंबी है । महिला खिलाड़ी भी जीतती हैं और पुरुष खिलाड़ी भी जीतते हैं। पेरिस के पैरालंपिक में भारतीय खिलाड़ियों ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पांच स्वर्ण पदक समेत कुल 25 पदक जीत लिए हैं। और वे तालिका में 17वें स्थान पर हैं। कोई चाहे, तो इसे भी संतोषजनक नहीं मान सकता है, क्योंकि अंततः भारत जैसे देश को पदक तालिका में और ऊपर जाना ही होगा। मगर इस पदक तालिका में खास चीज वह प्रगति है, जो भारतीय खिलाड़ियों ने 2020 के टोकियो पैरालंपिक से पेरिस के पैरालंपिक में की है। तब भारत को कुल 19 पदक मिले थे और वह 24वें स्थान पर था। यानी, चार साल में ही भारत ने छह स्थान की छलांग लगाई है, जो 2024 की उपलब्धि की सबसे बड़ी बात है। अब जरा इसकी तालिका की तुलना कुछ ही हफ्तों पहले हुए पेरिस ओलंपिक से करते हैं। वहां भारत ने कुल छह पदक जीते थे और उसका स्थान 71वां रहा था। भारत का प्रदर्शन उसके पिछले ओलंपिक के मुकाबले अच्छा नहीं था। तब भारत ने एक स्वर्ण समेत कुल सात पदक जीते थे और उसका स्थान 48वां था। यानी, एक ही ओलंपिक में 23 स्थान की गिरावट | भारत के विशेष योग्यता वाले खिलाड़ियों का प्रदर्शन लगातार चमक रहा है, वे ज्यादा जीत दर्ज कर रहे हैं, ज्यादा पदक हासिल कर रहे हैं, लेकिन क्यों सामान्य खिलाड़ियों का प्रदर्शन इस गति से कदम नहीं मिला पा रहा? यह ऐसा सवाल है, जिस पर खेल संघों को गंभीरता से सोचना होगा।