07-08-2018 (Important News Clippings)
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Date:07-08-18
How to Prevent More Muzaffarpur Horrors
ET Editorials
The sordid tale of exploitation at the girls’ shelter in Muzaffarpur, Bihar, is not a case of a rare systems failure, unfortunately. Abuse and exploitation, especially of women and children, in such shelters have been reported with depressing frequency. While those responsible must be prosecuted and punished to the law’s full extent, we need a robust system of oversight and accountability to prevent recurrence.
A viable multi-layered oversight system involving the government, particularly the women and child departments in the states, and the district administration is required. The local community must be actively involved in these homes and shelters, to provide another level of continuous oversight. No shelter should operate without a licence. A charter of basic facilities and requirements must be developed and implemented, as part of the licence. Ideally, women should be tasked with running these homes and shelters. Thorough background checks of staff must be mandatory. Counsellors, doctors and nurses should have routine access, over and above regular inspections. The local administration must be made accountable for the proper running of these homes. Central to ensuring that these homes/shelters do not become centres of abuse is the involvement of the local community. Active linkages with local schools, women’s self-help groups, community businesses and colleges must be encouraged. These engagements will help create a web of informal oversight, which are likely to prove more effective than official supervision.
Ensuring that vulnerable women and children are protected is central for a strong and progressive community. Protecting the vulnerable and penalising those who prey on them must be part of citizen sensibility.
Date:07-08-18
अच्छी शुरुआत
संपादकीय
कंपनी मामलों के मंत्रालय ने राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) के अधीन आठ विशेष अदालतें गठित करने का निर्णय लिया है ताकि विशेष तौर पर दिवालिया मामलों से निपटा जा सके। यह कदम स्वागतयोग्य है। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी), 2016 में प्रवर्तन में आई। यह अब तक फंसे हुए कर्ज की भारी भरकम समस्या से निपटने का सबसे अच्छा तरीका साबित हो रहा है। यह वह संकट है जिसने देश के बैंकिंग और कारोबारी जगत को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। एनसीएलटी इस ऋणशोधन प्रक्रिया की रीढ़ है। परंतु अगर समान न्यायिक प्रतिष्ठानों से तुलना की जाए तो इस पर काम का बोझ बहुत ज्यादा है।
भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) की ओर से उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक एनसीएलटी ने 907 मामले विचारार्थ स्वीकार किए जिनमें से 32 मामले मंजूर हुए हैं। इससे 498 अरब रुपये की राशि की प्राप्ति हुई है। कई अन्य मामले नकदीकरण की प्रक्रिया में हैं। मार्च 2018 तक यह संख्या 87 थी। चूंकि यह प्रक्रिया नई है और दिवालिया कानून में नए मामलों के साथ बदलाव हो रहा है, उदाहरण के लिए प्रवर्तकों को अपनी कंपनी के लिए बोली लगाने की पात्रता आदि, तो ऐसे में इसे उत्साहजनक माना जा सकता है।
परंतु दो तथ्य इस रिकॉर्ड की दृढ़ता को रेखांकित करते हैं। पहला, आईबीसी की प्रक्रिया की एक अहम बात यह थी कि यह समयबद्घ है। इसके लिए 270 दिन की अवधि की इजाजत है। अब तक निस्तारण के लिए स्वीकृत 390 कंपनियों ने इस अवधि का उल्लंघन किया है। एक अन्य बात यह है कि बैंकिंग व्यवस्था के 83 खरब रुपये के फंसे हुए कर्ज को देखते हुए अब तक हुई प्राप्तियां सागर में एक बूंद के समान हैं। अपील और समीक्षा के संदर्भ में देखें तो विधिक मामलों ने प्रक्रिया को धीमा किया है लेकिन यह कारक 10 फीसदी से भी कम मामलों के लिए उत्तरदायी है। दिवालिया मामलों के अलावा पंचाट कंपनी अधिनियम के अधीन विलय और अधिग्रहण तथा अन्य मामलों को भी संभालता है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि 11 पीठों के समक्ष 9,000 से अधिक मामले लंबित हैं। इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। पीठों के समक्ष मामलों के वितरण में भी विसंगति है। दिल्ली में दो पीठ हैं जबकि मुंबई और कोलकाता में एक-एक पीठ। दिवालिया मामलों के लिए विशेष तौर पर आठ अदालतें गठित करने का निर्णय एक बड़ी खामी तो दूर करेगा। खासतौर पर तब जबकि मुंबई जैसी व्यस्त जगह पर इसका विस्तार भी किया जाएगा।
बहरहाल, केवल अदालतों की संख्या बढ़ाने से काम नहीं चलेगा। जरूरत इस बात की भी है कि क्षमता में भी सुधार किया जाए। प्रमुख तौर पर यह काम न्यायाधीशों तथा निस्तारण पेशेवरों की संख्या और उनकी गुणवत्ता में सुधार करके किया जा सकता है। कुछ बातों का ध्यान रखने की भी आवश्यकता है। उदाहरण के लिए यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायिक कर्मियों की कमी के चलते जिस तरह प्रतिभूति अपील पंचाट का काम ठप है, वह समस्या आईबीसी के लिए विशेष तौर पर बने एनसीएलटी पीठ के साथ नहीं आनी चाहिए। निस्तारण प्रतिनिधियों के साथ समस्या न्यूनतम पात्रता (सीए) से अधिक अनुभव की है। कई प्रतिनिधियों के पास कारोबार चलाने या उसके मूल्यांकन का कोई अनुभव ही नहीं है। कई मामलों में ऐसे कारकों से विवाद भी पैदा हुआ है। इसमें वे मामले भी शामिल हैं जिनका जिक्र आरबीआई कर चुका है। इनमें से कुछ मसले समय के साथ हल हो सकते हैं लेकिन सरकार के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि दिवालिया निस्तारण की प्रक्रिया गति पकड़ती रहे। उस लिहाज से देखें तो और ज्यादा अदालतों का गठन करना एक अच्छी शुरुआत है।
Date:07-08-18
अब अनुच्छेद 35-ए के बहाने कश्मीर में अशांति का दौर
यह अनुच्छेद किसी भी बाहरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन-जायदाद खरीदने और बेचने के अधिकार से वंचित करता है
संपादकीय
कश्मीर में अशांति पैदा करने का कारोबार सिर्फ सीमा पार पाकिस्तान से ही नहीं चलता, उसके लिए देश के भीतर भी पर्याप्त संगठन और शक्तियां मौजूद हैं। उन्हें अनुच्छेद 35-ए के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के माध्यम से नया बहाना मिल गया है। उधर घाटी में बंद और हड़ताल के बीच अमरनाथ यात्रा भी स्थगित करनी पड़ी है। यह जानते हुए कि कश्मीर को भारत से जोड़ने वाला संवैधानिक अनुच्छेद 370 एक राजनीतिक फैसले के तहत किया गया प्रावधान है और अनुच्छेद 35-ए उसी के तहत राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की ओर से 1954 में अधिसूचित एक प्रावधान है ‘वी द सिटीजन्स’ नाम की एक संस्था ने उसके विरुद्ध याचिका दायर कर दी है। यह अनुच्छेद किसी भी बाहरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन-जायदाद खरीदने और बेचने के अधिकार से वंचित करता है।
उधर अलगाववादी संगठन ऐसे मौके की तलाश में बैठे ही रहते हैं और उन्होंने इस याचिका को भारत सरकार की विस्तारवादी साजिश बताकर आंदोलन का बिगुल बजा दिया। बंद का असर श्रीनगर के उत्तर में बारामुला, कुपवाड़ा, सोपोर, पाटन और बांदीपुरा के साथ-साथ दक्षिण और केंद्रीय कश्मीर में प्रभावी रहा, जहां कारोबार और निजी परिवहन ठप रहे। रोचक बात यह है कि अभी तक सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर किसी प्रकार की सुनवाई शुरू नहीं की है और उसने यह तय करने के लिए तीन हफ्ते का समय मांगा है कि इस मामले को संविधान पीठ के पास भेजा जाए या नहीं। यह स्थिति सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा वाली है। अगर भाजपा के अलावा राज्य में सक्रिय नेशनल कॉन्फ्रेेंस, पीडीपी, माकपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों ने यथास्थिति बनाए रखने का सुझाव दिया है तो कश्मीरियत के हिमायती शाह फैजल जैसे अहम नागरिकों ने इस अनुच्छेद की तुलना उस निकाहनामे से की है जो जीवनसाथियों के रिश्ते का आधार होता है। हालांकि, कश्मीर में बाहरी लोगों द्वारा बेनामी संपत्ति की खरीद-फरोख्त की खबरें आती रहती हैं लेकिन वैधानिक रूप से कोई गैर-कश्मीरी अगर वहां जमीन नहीं ले सकता। ऐसा करने के पीछे कश्मीर की विशिष्ट पहचान बनाए रखने का ही आग्रह था। सुप्रीम कोर्ट को याचिका पर सुनवाई और फैसले में उतरने के साथ यह जरूर सोचना चाहिए कि इसका राजनीतिक परिणाम क्या होगा ?
Date:07-08-18
गडकरी के सही बोल
नितिन गडकरी आर्थिक आधार पर आरक्षण को वक्त की जरूरत बता रहे हैं, लेकिन कब तक केवल सुझाव और सलाह देने तक सीमित रहा जाएगा?
संपादकीय
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने यह बात तो पते की कही कि आरक्षण नौकरी की गारंटी नहीं है, लेकिन उनकी यह साफगोई मोदी सरकार के समक्ष मुसीबत खड़ी कर सकती है, क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि नौकरियां घटती जा रही हैं। उनकी ओर से यह साफ किया गया कि एक तो सूचना-तकनीक के कारण नौकरियां कम हो रही हैं और दूसरी ओर सरकारी भर्तियां बंद हैं। इसका तो यही मतलब हुआ कि सरकार अपनी जिम्मेदारियां कम करके निजीकरण की ओर बढ़ रही है। नि:संदेह यह चलन नया नहीं। पूरी दुनिया में यही हो रहा है, क्योंकि निजी क्षेत्र के मुकाबले सरकारी क्षेत्र अकुशल साबित होने के साथ ही लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है। शायद इसी कारण केंद्र और राज्य सरकारों के विभिन्न् विभागों में लाखों पद रिक्त हैं, लेकिन इन लाखों रिक्त पदों के रहते यह दावा कैसे किया जा सकता है कि पर्याप्त संख्या में रोजगार उपलब्ध कराए जा रहे हैं? यह समय की मांग और जरूरत है कि केंद्रीय सत्ता अपनी रोजगार नीति को लेकर कोई संशय न रखे और इसे बार-बार दोहराने में संकोच न करे कि आज के युग में कोई भी सरकार अपने बलबूते सबको नौकरियां नहीं उपलब्ध करा सकती। इससे सभी को अवगत भी होना चाहिए कि रोजगार का मतलब केवल नौकरियां और वह भी सरकारी नौकरियां नहीं होता और न हो सकता है। जब सरकारी नौकरियों में कमी एक सच्चाई है तब सरकार को यह देखना होगा कि निजी क्षेत्र रोजगार देने के मामले में समावेशी दृष्टि से लैस नजर आए।
यह भी आज का यथार्थ है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण जरूरी होता जा रहा है। यह अच्छा है कि नितिन गडकरी आर्थिक आधार पर आरक्षण को वक्त की जरूरत बता रहे हैं, लेकिन कब तक केवल सुझाव और सलाह देने तक सीमित रहा जाएगा? इस दिशा में सरकार की ओर से कोई ठोस पहल क्यों नहीं होती? यह ठीक है कि संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं, लेकिन क्या यह व्यवस्था पत्थर की लकीर है? क्या जातिगत के साथ आर्थिक आधार पर भी आरक्षण की गुंजाइश नहीं बनाई जा सकती? भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दल नीर-क्षीर ढंग से विचार करें तो एक प्रभावी और कहीं अधिक सार्थक आरक्षण की व्यवस्था का निर्माण संभव है। समस्या यह है कि सियासी दलों ने आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति का औजार बना लिया है। वे न तो आरक्षण की समीक्षा कर यह देखने को तैयार हैं कि उससे अब तक क्या हासिल हुआ और न ही जमीनी हकीकत देखने के लिए। वे बिना किसी ठोस आधार गैर-बराबरी, गरीबी आदि का जिक्र इस तरह करते रहते हैं मानो सामाजिक विषमता और निर्धनता के मामले में देश वहीं खड़ा है, जहां 1960-70 के दशक में था। खराब बात यह है कि ऐसा भी माहौल बनाया जाता है कि आरक्षण सभी समस्याओं का समाधान है। इसी कारण आरक्षण की अनुचित मांगें सामने आती हैं। आज जब आंकड़े यह बता रहे हैं कि असमानता और निर्धनता निवारण में उल्लेखनीय कामयाबी मिल रही है, तब फिर रोजगार और आरक्षण नीति को प्राथमिकता के आधार पर दुरुस्त किया जाना चाहिए।
Date:06-08-18
क्यों रूठ गए हैं बादल हमसे
प्रार्थना बोराह इंडिया डायरेक्टर क्लीन एयर एशिया
देश के कुछ हिस्सों में भारी वर्षा की सौगात देने वाला मानसून इस बार बिहार, झारखंड और पूर्वोत्तर राज्यों से मानो रूठ गया है। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़े बताते हैं कि इन राज्यों में सामान्य के मुकाबले कम बारिश हुई है। अगस्त और सितंबर महीने के बारे में भी औसत या कम बारिश की भविष्यवाणी मौसम विभाग और स्काईमेट द्वारा की जा रही है। जाहिर है, कम बारिश का मतलब है, गरमी का बढ़ना। मैदानी इलाकों में जनवरी और फरवरी कड़ाके की ठंड वाले महीने माने जाते हैं। फिर मार्च आता है, जो अपेक्षाकृत सुकूनदेह होता है, खासकर रात के समय तापमान आराम पहुंचाता है। गरमी की शुरुआत इसी महीने से होने लगती है, जो सितंबर-अक्तूबर तक बनी रहती है। पहले बरसात या मानसून गरमी की इस तपिश को शांत कर देते थे, मगर अब इसका मिजाज भी स्थिर नहीं दिखता। कहीं अधिक बारिश होती है, कहीं सामान्य, तो कहीं औसत से भी कम। यह एक नियमित चक्र सा बन गया है, जो हम वर्षों से देख रहे हैं।
मौसम में हर बीतते साल एक खास बदलाव हो रहा है, जो है ग्रीष्मकाल का जल्दी आना। राजधानी दिल्ली में ही इस साल गरमी फरवरी से शुरू हो गई थी और मार्च आते-आते हम 35-40 डिग्री सेल्सियस तापमान झेलने लगे थे। मुझे नहीं लगता कि जिस मौसम को हम वसंत कहते हैं, उसे हमने इस साल महसूस किया है। जिस तरह गरमी का मौसम अपना दायरा बढ़ा रहा है, चिंता यही है कि दिल्ली जैसे महानगरों में आने वाले वर्षों में कहीं गरमी का मौसम ही न बच जाए। इसकी वजह यही है कि सर्दी का दौर लगातार सिकुड़ता जा रहा है और उसकी ठंडक भी कम हो रही है। दिल्ली में इस साल कंपकपाती सर्दी तो हमारे बच्चे शायद ही महसूस कर पाए होंगे।
इस साल अप्रैल महीने में अधिकतम और न्यूनतम तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। कभी-कभी धूल भरी आंधी और तूफान ने भी अनियमित मौसम का एहसास कराया। मई और जून में तो हम बारिश और ठंडक के लिए तरसते ही रह गए। आलम यह रहा कि अच्छी बारिश का इंतजार हमने जुलाई तक किया और अब जाकर मानसून आया भी, तो वह उम्मीद के मुताबिक नहीं बरस सका। जबकि पहले के वर्षों में हम इन दिनों अच्छी बारिश देखते थे, जिससे न सिर्फ तापमान गिर जाता था, बल्कि हमारे ‘दुख भरे दिन’ भी बीत जाते थे। साफ है कि जैसे-जैसे साल गुजर रहे हैं, हमें खुद को अधिक से अधिक तीखी गरमी झेलने के लिए तैयार करते रहना होगा।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? निश्चय ही, इसके लिए जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार माना जाना चाहिए। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, आने वाले वर्षों में मौसम और अधिक खराब होता जाएगा और गरमी के थपेड़ों से देश के कई हिस्से झुलसेंगे। उत्तर भारत के कई शहर तो पहले से ऐसा अनुभव कर रहे हैं। वहां सामान्य से तीन-चार डिग्री अधिक तापमान महसूस किया जा रहा है। ग्रीष्म ऋतु के समय-पूर्व आने का एक अर्थ यह भी है कि गरम थपेड़े जीवन को कहीं अधिक मुश्किल बना रहे हैं। चिंताजनक है कि जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली जैसे उत्तर व मध्य भारत में औसत तापमान के बढ़ने की आशंका व्यक्त की गई है। इन हिस्सों में तापमान सामान्य से अधिक रह सकता है।
मौसम वैज्ञानिक मानते हैं कि यदि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन यूं ही बढ़ता रहा, तो साल 2040 में शहरी क्षेत्रों में औसत तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से ऊपर दर्ज किया जाएगा। बेशक दुनिया के कुछ हिस्सों में आज इतना अधिक तापमान दिख रहा है, मगर उनके पास इससे निपटने के लिए तंत्र मौजूद है। बढ़ता तापमान तब समस्या कहीं अधिक बढ़ा देता है, जब वह उन इलाकों को प्रभावित करने लगता है, जिसने 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान झेला ही नहीं है। इससे वहां रहने वाले जीव-जंतुओं में अनुकूलन की समस्या पैदा हो जाती है। मसलन, ‘एक्स्ट्रीम क्लाइमेट’ यानी मौसम की चरम अवस्था आसपास के कमजोर तबकों के लिए स्वास्थ्यगत समस्याएं पैदा करेंगी। यह खाद्यान्न उत्पादन, कृषि और अर्थव्यवस्था पर सीधे चोट करेगी। इसका बड़ा असर उन जातियों-जनजातियों पर होगा, जो पहाड़ों पर प्रकृति के बीच रहते हैं और अपने जीवन-यापन के लिए मौसम पर निर्भर हैं।
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) का एक अध्ययन बताता है कि इस सदी के अंत तक दक्षिण एशिया में मौसम इतना गरम हो जाएगा कि मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। इसका भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश पर सबसे अधिक असर होगा। कुछ अध्ययनों में यह भी कहा गया है कि आने वाले वर्षों में शहरों में तापमान मौजूदा स्तर से आठ डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। लिहाजा हमें इसका एहसास होना ही चाहिए कि असामान्य रूप से बढ़ती गरमी हमें किस तरह प्रभावित करने लगी है। साथ ही, तमाम संबंधित तंत्रों पर यह दबाव भी डालना चाहिए कि वे इससे निपटने के लिए उचित तैयारी करें। विशेषकर बच्चों, बुजुर्गों और कमजोर वर्गों को बचाने के लिए हमें खास तैयारी करनी होगी, क्योंकि इन पर बढ़ते तापमान का सबसे ज्यादा असर होगा। सरकार को उचित वित्तीय व बुनियादी संसाधन जुटाने होंगे और समय-पूर्व मोर्चाबंदी करनी होगी। हालांकि आदर्श स्थिति तो यही है कि अपनी कोशिशों और अपने व्यवहार से हम तापमान को नियंत्रण में रखें और उसे बढ़ने न दें।
वक्त का यही तकाजा है कि हम सूचनात्मक और इनोवेटिव रणनीति अपनाएं, ताकि बढ़ते तापमान के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने के साथ-साथ उन मानवीय गतिविधियों को भी नियंत्रित रख सकें, जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन व ग्लोबल वार्मिंग की वजह बन रही हैं। मगर इन सबसे पहले तीखी तपिश झेलते लोग बढ़ती गरमी को एक गंभीर समस्या के रूप में देखना शुरू करें, और एयर कंडीशनर (एसी) में इसका हल तलाशना बंद करें। तभी जाकर कुछ बात बन सकेगी।
Date:06-08-18
The problem at the WTO
The time has come for the developing world to have a greater say
Leïla Choukroune is Professor of International Law and Director of the Thematic Initiative in Democratic Citizenship, University of Portsmouth, U.K. James J. Nedumpara is Professor of International Economic Law and Head of the Centre for International Trade and Investment Law, Indian Institute of Foreign Trade, New Delhi
While Bretton Woods institutions were to embed the new financial trade order, U.S. Treasury department official, Harry Dexter White, and economist John Maynard Keynes had more than just the regulation of the international monetary system in mind at the time. An International Trade Organisation (ITO) was also to be created to establish multilateral rules for the settlement of trade disputes. Adherence to the rules of an international trade organisation was expected to serve as an important domestic incentive (and imperative) for governments by allowing them to resist protectionist demands and provide for greater legal certainty. Successive multilateral conferences were held between 1946 and 1948, and led to the adoption of the Havana Charter, a draft agreement for the creation of the ITO. But the ITO never came into existence as it was eventually rejected by the U.S. when, in 1950, President Harry Truman announced that he would not submit the Havana Charter to the Congress. The General Agreement on Tariffs and Trade (GATT) came to replace the ITO, interestingly as an ad hoc and provisional mechanism.
The U.S.’s ire
Four decades later, the U.S. drove the agenda to establish the World Trade Organisation (WTO) purely to pursue its own commercial interests. The U.S. has been long proven isolationist and has never truly embraced the idea of a multilateral system in which its leadership could be contested. So the recent ire against its very creations, from the North American Free Trade Agreement (NAFTA) to the Trans-Pacific Partnership (TPP), and the less recent disenchantment with NATO or UNESCO, is not surprising.
A closer look at the Doha round of trade negotiations shows that the U.S. may well have consciously (or not) destroyed the negotiation process in formulating excessive demands that no country was prepared to meet. After all, the priority of the Obama administration was not to revive a dying WTO negotiation, but to concentrate on its newly created alternative, the TPP, to contain its competitors: Europe and China. So much so that the current crisis with the WTO dispute settlement system does not come as a surprise. In trade wars, the objective is not to settle a dispute; it is to win the battle.
The dispute settlement crisis
For years now, the multilateral system for the settlement of trade dispute has been under intense scrutiny and constant criticism. The U.S. has systematically blocked the appointment of new Appellate Body members (“judges”) and de facto impeded the work of the WTO appeal mechanism. With only four working members out of seven normally serving office in July 2018, the institution is under great stress. If no appointment is made, it will simply be destroyed by December 2019, with only one remaining member to tackle a massive number of disputes that are also increasingly hypertechnical. Importantly, the Appellate Body requires a core of three members to decide a dispute.
Criticism against the dispute settlement system is not the monopoly of the U.S. Other WTO members are expressing concerns over the politicisation of the Appellate Body appointment and reappointment process; and the quasi-attribution of permanent Appellate Body seats to the U.S. and the European Union (EU). There is concern that China may be on its way to having a permanent seat.
But the main critique of the U.S. relates to “overreaching” or judicial activism. The WTO Dispute Settlement Understanding stresses that the dispute panels cannot “add to or diminish the rights and obligations” provided for by the WTO agreements. The U.S. has relentlessly attacked the practice of some Appellate Body members continuing to hear cases which have been assigned to them during their tenure. However, the U.S. has to be blamed for this situation. With no fresh filling up of vacancies and reappointment of members whose terms are expiring, Washington is deliberately pushing the WTO legal mechanism to the brink. It is more than evident that the U.S. is not willing to be judged by an independent multilateral quasi-judicial institution. One needs to bear in mind that the WTO dispute settlement mechanism is not a world trade court. The process remains political and diplomatic. The very existence of an appeal mechanism is now paradoxically questioned at a time the global community criticises the absence of the same mechanism in Investor-State Dispute Settlement (ISDS). Solutions are proposed to ease the work of a congested body from the establishment of committees to arbitration, but the roots of the problems are not seriously addressed.
Who could be WTO’s saviour?
Since 2013, a Chinese-style garden welcomes the visitor to the WTO. As always with China, the metaphor illustrates a profound reality and is not short of pragmatism. Beijing might well be the new WTO leader and China’s growing assertiveness may be the reason for the U.S.’s hard posturing. Since its accession to the Organisation, in 2001, and despite an extremely demanding protocol of accession designed by the U.S. and the EU to literally constrain its emerging power and limit the impact of its commercial domination on their own economies, China has largely benefited from the rules-based WTO system. In less than a decade since its first dispute, China has accumulated a vast experience close to that of the U.S. or Europe. This strategic and selective normative acculturation has been an empowering one — so much so that Beijing, together with a few others, the EU, and to some extent India, is now the main supporter of multilateralism. But does an undemocratic and statist China hold the legitimacy to take the lead while its genuine adhesion to the market economy is very much challenged by its main trading partners? The recent EU-China proposal to promote the reform of the WTO is said to combat “unilateralism and protectionism” but might well fail to address unfair trade issues raised against China itself. Beijing is unlikely to unite with Brussels against Washington.
But the world has changed and multilateral institutions now have to embed these changes. Today’s WTO crisis might well be the last ditch battle to retain control over a Western-centric organisation. The time has come for the emerging economies and the developing world to have a greater say in how to shape multilateralism and its institutions.
Date:06-08-18
Citizenship and Compassion
Can India manage with a certain amount of disorder to sustain a plural vision of democracy?
Shiv Visvanathan is an academic associated with the Compost Heap, a group in pursuit of alternative ideas and imagination
The current situation in Assam seems like a nightmare, a warning about the internal contradictions of democracy. It is a warning that the 19th century ideas of democracy as electoral-ism and the notion of the nation-state as a fetishism of borders may be inappropriate as imaginations for the 21st century. It is a caution that governance and politics are full of ironies and paradoxes and that the best of intentions might lead to the worst consequences. Inherent in it is the banalisation of evil that can take place when suffering on a large scale gets reduced to a cost-benefit scenario. Democratic India rarely had experiences of detention camps, except during the India-Pakistan wars, and in 1962 when Indians of Chinese origin were unfairly detained in camps. The last episode, a stain on the Indian conscience, is forgotten or swept aside. Today, the statistic of four million names off the draft National Register of Citizens (NRC) is reduced to an everyday problem of management. This routinisation of violence is deeply worrying.
Surveillance state
There is another piece of cynicism that one needs to be cautious of. The Bharatiya Janata Party (BJP) is adept at projecting a mastery of electoral frames and governance to maximise electoral output. It took the normalcy of a governance project and turned it into a panopticon, classifying citizens through a system of surveillance, creating a sense of sovereignty where the bureaucrat plays god, deciding who is in and who is out. With 40 lakh names off the final draft of the NRC, it has made a play for the majoritarian vote. The party will dwell on the claim that it took the bull by the horns, updating the citizens’ register, a challenge the Congress was not up to.
The politics of citizens’ registers underlines the problem of migratory politics, refracted through the layered memories of many historical events. It began in the colonial era when the British attempted to import labour for the plantations. Major displacements like Partition and the Bangladesh war added to a huge “illegal” population. “Legality” is determined through certificates. Legitimacy is a stamped paper. But the question one asks is, what happens to the ones who have grown roots, who have brought land in the area? Do they not count with the stroke of a pen? In fact, it forces one to open up the question of who is a citizen? Is citizenship based on land, residence, identity, cultural roots, language, ethnicity? Or is it a formal certificate, a clerical endorsement that makes one a citizen? Informal economies operate according to parallel rules, with residents getting regularised over time and obtaining the entitlements of citizenship after decades of stay. Here, the temporariness of the migrant is something that haunts her. Vulnerable though she is, she also becomes prey to electoral politics of corrupt politicians seeking instant constituencies.
A leader’s summary
The very scale of the exercise, the suggestion that 40 lakh people must do more to prove their claim to citizenship, gives it a technocratic air. The sense of history and memory is lost. As West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee suggested, the label ‘infiltrator’ already implicates you in a paranoid world, where the other is perpetually suspect. Ms. Banerjee attempted to introduce a notion of sanity by observing that while there may be a minuscule number of people who are infiltrators from across the border, among the 40 lakh people who don’t find their names on the NRC are those who crossed over decades back, compelled by historical reasons, and they cannot be considered infiltrators. She made three quick points. First, infiltrators and refugees are different categories, to be coped with differently. Second, time and history are crucial for comprehending such a colossal event. To reduce it to one moment is mindless. Third, by introducing such measures, it is the BJP that is playing the infiltrator, penetrating into citizens’ lives, probing what they eat, what they wear and what they do. The BJP, in treating Assam as an enclosure, is also panopticon-ising our world, increasing the level of surveillance and control over our lives.
The point Ms. Banerjee is making is fundamental. In this tussle between nation-state and an open democracy, the enclosure and the panopticon as mediums of control are at odds with the idea of the commons and the hospitality of the community. Technocratic solutions cannot hide the absence of human and historical understanding. She might be dismissed as a rabble rouser, but it is she who is pointing out that the BJP is playing on the anxieties of people, rousing old hates between Bengal and Assam. To hide behind the abstractions of sovereignty and security and, officialising parochialism is the logic of the BJP game.
The handling and management of large populations create a problem of ethics. Assam raises the question of both triage and exterminism. Once one plays out the census game, makes a few concessions, one almost feels that the remainder are dispensable. The dispensability and disposability of large populations confronts India on a large scale. One cannot handle such situations merely through law. One needs generosity, hospitality and compassion. One needs to understand that once our civics accepts the detention centre and the internment camp as routine, we are creating gulags of the mind, where one can begin with an ordinary act of classification and erase a people. Indian democracy has to face the genocidal prospect inherent both in its technocratic sense of governance and in the anxieties that electoralism creates.
The populist frame
In fact, it is BJP president Amit Shah who gives away the game as his party adopts a tough stand. He claims that the BJP is fighting for the security of the people. The shift from citizenship to a preoccupation with security unfolds a different paradigm of thought. Nation-state and citizenship as encompassing entities offer different ideas of order and control. Security is a panopticon-ising notion, while citizenship is a caring, even protective, one. Security operates on the grids of surveillance, scrutiny and separation. Citizenship is a more hospitable notion of initiating the other into a system. The norms of the paradigm are different. Mr. Shah’s response was a giveaway because it puts the idea of security within a populist framework, where demographic and cultural anxiety becomes the raw material for emerging vote banks. A register which began as a routine, even clinical exercise now acquires a Machiavellian shadow. Suspicion and anxiety magnify as rumour becomes epidemic. One hopes the register does not create an Orwellian situation where some are more equal than others.
This point becomes clearer when we read that the Vishwa Hindu Parishad wants a similar NRC exercise in West Bengal and other States. Rather than seeing wider conspiracy theories, it is the inner contradictions of the exercise that we shall consider.
The Assam model ?
Maybe one has to go back and look at our Constitution and reread notions of the border, the very idea of citizenship. We need to go beyond hard definitions and look at the penumbra of these concepts. A citizen may be defined in terms of certain properties. But the question is, how humane or plural is such a definition? Can we manage with a certain amount of disorder to sustain a plural vision of democracy? These are the questions Assam raises but our policy-makers do not discuss. How do we create a more hospitable, affable theory of citizenship where marginal groups survive, where nomads and other fluid groups are allowed to follow their life lines? Can we think of a nation-state with permeable borders and a fluid sense of citizenship which makes life more hopeful for the refugee? These are questions not for the distant future, but challenges this decade will have to overcome. We have to rethink the Assam in us.