07-07-2018 (Important News Clippings)
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Date:07-07-18
Morality’s Hostages
Gambling is better above ground than under
TOI Editorials
The Law Commission of India’s recommendation to legalise betting on sports and gambling, since bans have only succeeded in driving these habits into flourishing underground businesses, should be accepted by government. Moralistic positions on gambling and betting have clashed with personal choice for millennia but translating them into bans has only engendered criminalisation and corruption. If brought into the formal economy and regulated properly, these could become income earners for the government and boost tourism.
When criminalised, they become avenues for criminal rackets to take over, black money to proliferate, innocents falling victim to fraud and a temptation for law enforcers to make a fast buck. Kerala’s government, a perpetually revenue deficit one, which burned its fingers experimenting with a liquor ban recently, earned nearly Rs 10,000 crore from lottery sales in 2017-18, over a decade after banning all lotteries in 2005. The revenues from legalised gambling could even be used to fund social goods like Modicare and fighting climate change.
As for concerns about the impact of legalised betting on sports, especially on sportspersons, past instances of match fixing reveal that tackling malpractices really depends on effective investigating agencies. If betting on horse racing is permissible as a game of skill, it beats reason why other sports are treated differently. Bans in the guise of eliminating vice are a hallmark of paternalistic states. Mature democracies, in contrast, trust adult citizens with responsible exercise of rights. State governments must display more confidence in people and their potential. States could look at best practices in jurisdictions where gambling tourism is legal and is a money spinner. The recognition that tourism contributes significantly to the country’s GDP should spur measures that help the sector grow further.
Date:07-07-18
DNA Evidence Fine, Protect Data Privacy
ET Editorials
The government decision to move ahead with the DNA Technology (Use and Application) Regulation Bill, 2018, is a welcome measure that will strengthen the criminal justice system. In the making for the last 15 years, the Bill will, by establishing regulatory institutions and standards for DNA testing, be an important step to bring India’s criminal justice system up to date.
DNA profiling has proved to be an invaluable and basic tool in exonerating innocents and identifying missing persons, besides solving crimes such as murder, rape, human trafficking, theft and burglary. Figures from the National Crime Records Bureau suggest that more than three lakh such crimes take place every year in the country. However, the conviction rate is about 30%. Expanding the use of DNA testing will improve conviction rates, and speed up justice delivery. At the same time, concerns about misuse and invasion of privacy need to be addressed. Therefore, the language of the Bill specifying whose DNA picked up from a crime scene would be stored should be more specific as to exclude all other than the eventual convicts, the data on suspects who are cleared being removed from storage. Under the Bill, the DNA profiling board would advise the central and state governments on issues related to DNA laboratories, and make recommendations on ethical and human rights, including privacy, issues related to DNA testing. The data protection law in the making should override the advice of this body.
Of course, DNA profiling would help only if the police maintain the integrity of crime scenes by disallowing contamination. That calls for greater training and behavioural change. The success of any advance in investigative technique depends on how it is wielded. Investigators must keep up with their tools.
Date:07-07-18
कठिन समस्या से निपटने के क्रम में साहसी प्रयोग
तेलंगाना में कृषि कार्य में लगे लोगों का औसत देश के औसत से अधिक है। राज्य सरकार ने किसानों के लिए दो रोचक योजनाएं पेश की हैं।
नीलकंठ मिश्रा
दशकों तक कृषि उपज की बढ़ी हुई कीमतों के रूप में देश के अमीरों (प्राय: गैर कृषि क्षेत्र के) से गरीबों (अक्सरखेती से जुड़े) की ओर आय का स्थानांतरण होता रहा। इसकी कमियां भी हैं: उच्च मुद्रास्फीति, राजकोषीय चुनौतियां, उच्च ब्याज दर और समय-समय पर मौद्रिक कमजोरी। परंतु सरकारी नियंत्रण वाली कोई अन्य ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था थी ही नहीं जिसके तहत अमीरों द्वारा चुकाए जा रहे कर को गरीबों तक स्थानांतरित किया जा सके। बीते कुछ वर्षों में तमाम खाद्य श्रेणियों में कीमतें कम हुई हैं। इस दौरान आय में होने वाला स्थानांतरण रुक गया है। खासतौर पर फसलों की खेती के क्षेत्र में जबकि इस क्षेत्र में कृषि श्रमिकों का 92 फीसदी हिस्सा निर्भर है। यह एक राजनीतिक समस्या भी है क्योंकि देश की श्रम शक्ति का आधा हिस्सा खेती करता है। यह आर्थिक नीति के क्षेत्र में भी बड़ी चुनौती है क्योंकि कम आय गरीबों में खपत को कम करती है जबकि अमीरों के लिए व्यय से बची आय केवल बचत बढ़ाती है।
केंद्र और राज्य सरकारों ने अब तक इस समस्या से निपटने के लिए किसानों की कर्ज माफी और ढेर सारी सब्सिडी का रास्ता अपनाया है। इसमें उर्वरक, बिजली, बीज और मशीन खरीद पर दी जाने वाली सब्सिडी शामिल है। इसमें कर्ज माफी की निगरानी करनी मुश्किल है जबकि सब्सिडी का आकार ऐसा नहीं कि इससे कुछ खास लाभ हासिल हो। तेलंगाना में कृषि कार्य में लगे लोगों का औसत देश के औसत से अधिक है और वहां कपास और तिलहन जैसी उपज का रकबा भी ज्यादा है। इन जिंसों की वैश्विक कीमतों में गिरावट देखने को मिली है। बीते चार सालों में राज्य सरकार ने ऋण माफी और सब्सिडी का तयशुदा मार्ग अपनाया। इसके अलावा बड़ी सिंचाई परियोजनाएं लाई गईं और गोदाम भंडारण क्षमता में इजाफा किया गया। अब अगले चुनाव में एक वर्ष बचा है और सरकार ने दो रोचक योजनाएं पेश की हैं।
पहली योजना है किसानों के सामूहिक जीवन बीमा की योजना। इसके तहत 40 लाख किसानों को 5 लाख रुपये का जीवन बीमा उपलब्ध कराया जाएगा। अगर किसी भी वजह से उनकी मौत होती है तो उन्हें यह राशि दी जाएगी। इस योजना की 9 अरब रुपये की प्रीमियम राशि का बोझ सरकार वहन करेगी। दूसरी और ज्यादा महत्त्वाकांक्षी योजना है रैयतु बंधु योजना। यह कृषि निवेश समर्थन योजना है। इस वर्ष मई के मध्य में यानी खरीफ की बुआई शुरू होने के एक महीना पहले राज्य सरकार ने करीब 60 लाख किसानों को 4,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से चेक वितरित किए। इस वर्ष के अंत में रबी के मौसम में भी इसे दोहराया जाएगा। माना जा रहा है कि इसमें कुल 120 अरब रुपये का खर्च आएगा जो राज्य के सालाना उत्पादन का 1.5 फीसदी और सरकारी व्यय का 7 फीसदी होगा। इसके चलते अन्य सब्सिडी या हस्तांतरण में कोई कटौती नहीं की जाएगी।
यह सार्वभौमिक आधारभूत आय नहीं है। इस मामले में खेत मालिक को पैसा मिलेगा, भले ही वह फसल बोए या नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि इस रकम का इस्तेमाल खेती में ही हो। सरकार के मुताबिक ऐसा इसलिए किया गया है ताकि निचले स्तर पर किसी तरह की लीकेज न हो। चूंकि दोनों योजनाओं के लिए भूस्वामित्व ही शर्त है इसलिए राज्य के राजस्व विभाग ने 100 दिन का मिशन शुरू किया ताकि कंप्यूटरीकृत भू रिकॉर्ड का साफ सुथरा डेटाबेस तैयार किया जा सके। कई स्तरों पर जांच की व्यवस्था की गई जिसमें हर गांव में जन सुनवाई की व्यवस्था शामिल थी। भू प्रशासन के मुख्य आयुक्त के मुताबिक 90 प्रतिशत से अधिक भू अधिकारों पर कोई विवाद नहीं है और उनके मामले में स्थानांतरण किया जा रहा है। प्रत्येक को आधार से जोड़ा गया है।
लीकेज पर तो रोक लगी है लेकिन तीन बातें हैं जिन पर विचार किया जाना जरूरी है। पहली बात, इससे केवल भूस्वामियों को लाभ होता है। परंतु वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक तेलंगाना के 91 लाख कृषि श्रमिकों में से दो तिहाई भूमिहीन थे। कम कीमत और बढ़ती लागत का बोझ ज्यादातर किसानों पर पड़ा लेकिन भूमिहीन श्रमिक अधिक गरीब होते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनताना बढऩे की गति भी धीमी पड़ी। दूसरा, इससे भाड़े पर खेती करने वालों को फायदा नहीं होता। परिचालन की दृष्टिï से भी देखें तो इसे समझा जा सकता है क्योंकि राज्य सरकार के पास इसके आंकड़े ही नहीं हैं।
बहरहाल, कमजोर कृषि आय का दबाव किसानों पर होता है, न कि भू स्वामी पर क्योंकि वह तो कहीं और भी हो सकता है। तीसरा, 91 फीसदी किसानों के पास 5 एकड़ से कम जमीन है लेकिन उनके पास कुल मिलाकर राज्य की समस्त भूमि का दो तिहाई हिस्सा है। यानी केवल 9 फीसदी भूस्वामी 40 अरब रुपये पाते हैं। राजकोषीय घाटे के सीमा में रहने की उम्मीद है। तो योजना की फंडिंग कहां से हो रही है? चालू वित्त वर्ष में तेलंगाना में करीब दो तिहाई व्यय कृषि, समाज कल्याण और सिंचाई के लिए आवंटित है। राज्य का कर संग्रह भी सुधरा है। राज्य सकल घरेलू उत्पाद और कर का अनुपात 2016 के 7 प्रतिशत से बढ़कर 8.4 प्रतिशत हो गया है। इस साल इसके 8.8 फीसदी रहने की उम्मीद है।
रैयतु बंधु योजना बहुत व्यापक है। इसके असर का अग्रिम अनुमान लगाना मुश्किल है। इसके असर के आकलन के लिए अकादमिक अध्ययन किए गए हैं लेकिन अभी इसके वास्तविक नतीजों की शुरुआत होनी है। 4,000 रुपये प्रति एकड़ की दर से खरीफ की फसल की 18 से 34 फीसदी लागत शामिल हो जाती है। उम्मीद है इससे महाजनों से उधार लेने की प्रक्रिया रुकेगी। लगता यही है कि इसका अधिकांश हिस्सा खपत में इस्तेमाल होगा। अब जमीन की कीमत भी बढ़ सकती है और भूस्वामियों के लिए सकारात्मक संपत्ति प्रभाव उत्पन्न हो सकता है।
क्या अन्य राज्य इस योजना को अपनाएंगे? अगर तेलंगाना सरकार दोबारा सत्ता में आती है तो अन्य राज्यों में ऐसी होड़ लग सकती है। परंतु इस योजना के लिए पर्याप्त राजकोषीय गुंजाइश के साथ साफ सुथरे भू रिकॉर्ड भी चाहिए। अधिक गहन प्रश्न ये हैं कि क्या ऐसी योजनाएं श्रमिकों के स्वाभाविक रूप से खेती से दूर होने को रोकती हैं और अधिक उत्पादक फंड को इस क्षेत्र में व्यय करने से क्या अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर होता है? दूसरी ओर क्या यह सही नहीं कि लोग अपने पैसे खर्च करने की वजह खुद तय करें न कि सरकार? क्या बिना अवरोधों के उचित वितरण नहीं हो सकता? इन सवालों के स्पष्टï जवाब नहीं हैं। इन पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।
Date:07-07-18
खुदरा की बहार
टी. एन. नाइनन
कृषि क्षेत्र संकट में उलझा हुआ है। विनिर्माण में गतिशीलता का अभाव है। नितिन गडकरी के राजमार्ग निर्माण कार्यक्रम को छोड़ दें तो निर्माण कार्य भी शिथिल है। वित्तीय क्षेत्र बैंकिंग संकट में घिरा हुआ है। सवाल यह है कि क्या कोई ऐसा क्षेत्र है जहां से उजाले की किरण आ रही है? इसका उत्तर आपको चकित कर सकता है लेकिन वह क्षेत्र है व्यापार। ज्यादा विशिष्टï उत्तर दें तो वह है संगठित खुदरा कारोबार। हाल की घटनाओं पर विचार कीजिए। रिलायंस (जिसका इतिहास बिज़नेस टु बिज़नेस कारोबार का रहा है) ने कहा है कि कंपनी अब उपभोक्ता आधारित कारोबार के दम पर विकास करेगी। वॉलमार्ट फ्लिपकार्ट में 16 अरब डॉलर का निवेश कर रही है। आइकिया हैदराबाद में अपना पहला स्टोर खोलने जा रही है। स्टॉक मार्केट पर भी खुदरा कारोबार की खुमारी है। डीमार्ट खुदरा शृंखला चलाने वाली कंपनी ने गत वर्ष जिस दर पर प्रारंभिक निर्गम उतारा था, उससे कई गुना पर कारोबार कर रही है। कंपनी का बाजार पूंजीकरण करीब एक लाख करोड़ रुपये के आसपास है और वह देश की 30 शीर्ष कंपनियों में से एक है।
देश में बड़े खुदरा कारोबारियों का प्रभावी असर हो सकता है। वे बेहतर आपूर्ति शृंखला, भारी भरकम उत्पादन, वैश्विक कारोबार के साथ एकीकरण और उच्च कर संग्रह (अब कोई फर्जी बिल नहीं) के माध्यम से अर्थव्यवस्था में बड़ा बदलाव ला सकते हैं। ऑनलाइन और मुख्य धारा की बिक्री भी एक साथ आ सकती है। कम से कम रिलायंस चेयरमैन मुकेश अंबानी की बातों से और आइकिया से तो यही संकेत निकलता है। फ्लिपकार्ट में वॉलमार्ट का निवेश भी यही बताता है। देश में अधिकांश खुदरा कारोबार अभी भी 1.2 करोड़ छोटे किराना कारोबारियों के हाथ में है, ऐसे में बदलाव तो काफी समय से लंबित है। दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की बात करें तो संगठित खुदरा कारोबार में भारत की हिस्सेदारी सबसे कम है। एशियाई देशों में शायद दक्षिण कोरिया ही इकलौता ऐसा देश है जहां हिस्सेदारी 25 फीसदी से कुछ कम है। भारत की हिस्सेदारी 7 फीसदी है।
यह प्रतिशत दोगुना या तीन गुना हो जाए और शॉपिंग मॉल पनपते चले जाएं तो भी निकट भविष्य में खुदरा कारोबार में किराना कारोबारियों की हिस्सेदारी कम होती नहीं नजर आती। ऐसा केवल उनकी ठोस विरासत की वजह से नहीं है बल्कि इसलिए भी क्योंकि बाजार के तेज विस्तार से हर किसी के लिए ज्यादा गुंजाइश बनेगी। यही वजह है कि देश में एक के बाद एक ऐसी खुदरा शृंखलाएं आईं जिन्होंने खाने, कपड़े, दवा, चश्मे, फर्नीचर, सोने के गहने, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, घरेलू उपकरण और जूते आदि हर सामान बेचना शुरू कर दिया। इसके बावजूद बाजार के स्वरूप में बदलाव की गति अपेक्षाकृत धीमी रही। ऐसा भी हो सकता है कि भारतीय बाजार की जटिलताओं को देखते हुए शुरुआती कारोबारियों ने सतर्कता बरती हो। परंतु अब जबकि इस कारोबार में भारी निवेश हो रहा है तो बदलाव की गति तेज होनी तय है।
कुछ अन्य घटनाएं हैं जो ढांचागत बदलाव को अंजाम देंगी। राजमार्गों और फीडर सड़कों के तेज विकास के साथ ट्रकों की गति बढ़ेगी और आपूर्ति के केंद्र बड़े शहरों से दूर अधिक किफायती जगहों पर स्थापित किए जा सकेंगे। आपूर्तिकर्ता भी कहीं अधिक दूरदराज जगहों पर उत्पादन और खपत केंद्र स्थापित कर सकेंगे। वस्तु एवं सेवा कर भी एकदम सही वक्त पर आया है। इससे बड़े कारोबारियों को फायदा है और नकदी कारोबार मुश्किल हो गया है। यह बात भी संगठित खुदरा कारोबार के पक्ष में जाएगी।
सबसे अधिक संभावित लाभ मेक इन इंडिया से जुड़ा हुआ है। मारुति के वेंडर विकास कार्यक्रम ने देश में वाहन कलपुर्जा उद्योग को जन्म दिया। यह अब एक बड़े निर्यात क्षेत्र में बदल चुका है। संगठित खुदरा कारेाबार की मदद से सफलता की इस कहानी को तमाम क्षेत्रों में दोहराया जा सकता है। सरकार ने खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के नियम काफी जटिल बना रखे हैं। उसका कहना है कि विदेशी खुदरा कंपनियों के माध्यम से बेची जाने वाली कम से कम 30 फीसदी वस्तुएं स्थानीय रूप से बनी होनी चाहिए। हालांकि इससे पार पाया जा सकता है। वॉलमार्ट का मौजूदा कारोबार पहले ही 90 प्रतिशत तक स्थानीय स्रोतों पर आधारित है। जबकि आइकिया को भी उम्मीद है कि उसके अपने स्टोरों पर स्थानीय उत्पादों की हिस्सेदारी को 15 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी किया जा सकेगा। उधर, तैयार वस्त्र और साज सज्जा क्षेत्र की खुदरा कंपनी फैब इंडिया भी दूसरे देशों में अपने स्टोर खोलने की उम्मीद जता रही है।
Date:07-07-18
आक्रोश जरूरी है पर भीड़ की हिंसा शर्मनाक
बच्चों की सुरक्षा को लेकर डर में जी रहा हमारा समाज क्रूर और हिंसक बनता जा रहा है।
कैलाश सत्यार्थी
देश में बच्चा चोरी के नाम पर मॉब लिंचिंग यानी उन्मादी भीड़ द्वारा निर्दोषों की हत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। पिछले करीब डेढ़ महीने में त्रिपुरा, असम, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक में ऐसी 20 हत्याएं हो चुकी हैं। सिर्फ हत्यारी भीड़ को ही नहीं, बल्कि इलाके के आम लोगों को शक था कि बच्चा चोर किडनियां बेचने, वेश्यावृत्ति कराने और शहरों में भीख मंगवाने के लिए बच्चे चुरा रहे हैं। दूसरी ओर मरने वालों का शायद सबसे बड़ा कसूर यह था कि वे गरीब थे। शरीर और कपड़ों से वे मैले-कुचैले नज़र आते थे या फिर पेट पालने के लिए भीख मांगते थे।
हमारे देश में हर घंटे में आठ बच्चे गुम हो जाते हैं, जिन्हें ट्रैफिकिंग यानी मानव दुर्व्यापार का शिकार बनाया जाता है। हर घंटे चार बच्चे यौन शोषण का शिकार होते हैं, जबकि दो बच्चों के साथ दुष्कर्म होता है। ऐसे में पूरे देश में डर का वातावरण बना हुआ है। गुमशुदगी, ट्रैफिकिंग और दुष्कर्म के खिलाफ हमने पिछले साल 11 हजार किलोमीटर लंबी देशव्यापी भारत यात्रा आयोजित की थी। उसमें हमने लोगों की चुप्पी और उदासीनता को धिक्कारते हुए भारत को सुरक्षित बनाने के लिए ‘सुरक्षित बचपन’ बनाने का आह्वान किया था। यात्रा में शामिल होने वाले 12 लाख लोगों ने, जिनमें ज्यादातर युवा थे, इस महामारी के खिलाफ लड़ने की प्रतिज्ञा की थी। तब मैंने उनकी आंखों में जबर्दस्त गुस्सा देखा था। इसलिए हमने और गुमशुदगी या दुष्कर्म से पीड़ित बच्चों के माता-पिता ने अपने भाषणों और मीडिया को दिए गए साक्षात्कारों में लोगों से अपील की थी कि वे कभी भी कानून को अपने हाथ में न लें। मुझे अंदेशा था कि अगर बाल हिंसा के खिलाफ समाज और सरकार त्वरित और सख्त कदम नहीं उठाएगी, तो लोग हिंसक हो उठेंगे। आज डर और गुस्से से बौराई भीड़ की दरिंदगी देखकर हमें गहरी शर्मिंदगी है।
हमने महाराष्ट्र के रानीपारा में मार डाले गए पांच आदिवासियों की पत्नियों, बच्चों और बूढ़ी मांओं की दिल दहला देने वाली कहानियां सुनी हैं। टेलीविजन के माध्यम से गुजरात, असम और दूसरे राज्यों में मारे गए लोगों के अनाथ बच्चों की चीत्कारें और उनके अंधेरे भविष्य की चिंताओं को भी महसूस किया है। मैं हत्यारों के बच्चों से भी उतनी ही सहानुभूति रखता हूं, क्योंकि उनमें बहुत से ऐसे हैं, जिनके पिताओं के जेल चले जाने के बाद उनकी पढ़ाई-लिखाई, सुरक्षा यहां तक कि रोजी-रोटी का सहारा भी छिन जाएगा।
मैं और बचपन बचाओ आंदोलन पिछले कई वर्षों से देश में बच्चों की गुमशुदगी के खिलाफ सड़क से लेकर संसद और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ते हुए देश को जगाने की कोशिश कर रहे हैं। 2011 तक हमारे देश में बच्चों की गुमशुदगी के आधिकारिक आंकड़े तक नहीं थे। इसके लिए कोई कानून भी नहीं था, इसलिए एफआईआर दर्ज नहीं होती थी। मां-बाप थानों में धक्के खाकर अपमानित और निराश होते रहते थे। हमने सूचना के अधिकार के तहत देश के हर जिले से ऐसी शिकायतें इकट्ठी कीं। फिर उन्हें लेकर सुप्रीम कोर्ट में अपील की। कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को आदेश दिया कि हर शिकायत पर एफआईआर दर्ज करके तत्काल जांच शुरू की जाए। इस कार्रवाई और सामाजिक जागरूकता के परिणामस्वरूप हर साल गुमशुदा होने वाले बच्चों की संख्या 1.20 लाख से घटकर 44 हजार रह गई है। इस सबके बावजूद हम समाज में बच्चों की सुरक्षा का भरोसा पैदा नहीं कर सकें।
मॉब लिंचिंग के मामले में देश में कई लोग गिरफ्तार किए गए हैं। इन अपराधियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन, क्या सिर्फ वे ही लोग अपराधी हैं? हमने पिछले 70 वर्षों में सड़कें, इमारतें, स्कूल, अस्पताल, कारखानें, मोटर गाड़ियां और न जाने क्या-क्या बनाने में बहुत तरक्की की है। लेकिन क्या इन्हीं घरों, सड़कों, स्कूलों, बाजारों आदि में हमारे बच्चे सुरक्षित हैं? क्या देश के ज्यादातर लोग अपने बच्चों की हिफाजत के बारे में डरे हुए नहीं हैं? डर के साये में जीने वाला समाज जितनी तरक्की करता है, खुद को बचाने के लिए वह उतना ही क्रूर और हिंसक भी बनता जाता है। भारत को भय ग्रस्त बनाने की नैतिक जिम्मेदारी किसी को तो लेनी ही होगी। हिंसक भीड़ बन जाने वाले ज्यादातर लोग तरक्की के हाशिये से बाहर छोड़ दिए गए लोग होते हैं। यह समाज और सरकार की संस्थाओं की घोर विफलता नहीं तो और क्या है?
सरकार ने वाट्सएप को अफवाहें रोकने के लिए जिम्मेदारी और जवाबदेही से काम करने की सलाह दी है। हर तरह की अफवाहों पर पाबंदी लगना भी जरूरी है। लेकिन, क्या महज अफवाहें ही अकेली इतनी गंभीर हालत के लिए जिम्मेदार हैं? अफवाहें कभी आग में घी का काम करती हैं, तो कभी चिंगारी का लेकिन, हिंसा की आग का ईंधन चारों तरफ फैले डर, असुरक्षा की भावना, पुलिस और न्याय व्यवस्था पर घोर अविश्वास, असहिष्णुता, सरकारी तंत्र से निराशा या उसे प्रभावित करने का दंभ और मानवीय गरिमा के लिए असम्मान जैसी चीजों से बनता है। इस ईंधन को नष्ट किए बगैर हिंसा की आग को नहीं रोका जा सकता। वह तो किसी न किसी रूप में फूटती रहेगी। बच्चों की गुमशुदगी, दुर्व्यापार और यौन उत्पीड़न के खिलाफ सामाजिक जागृति पैदा कर, अच्छा कानून और उनका क्रियान्वयन के साथ पुलिस व दूसरी सरकारी एजेंसियों को संवेदनशील, सक्रिय और जवाबदेह बनाकर, बच्चों की सुरक्षा को राजनीतिक प्राथमिकता देकर और अदालतों की कार्रवाई को गति देकर इस उन्मादी हिंसा पर काबू पाया जा सकता है।
मैं जन-आक्रोश का सम्मान करता हूं और व्यक्तिगत गुस्से का भी। इनमें समाज के नवनिर्माण की ऊर्जा और संभावनाएं होती हैं। लेकिन, इस ऊर्जा का सदुपयोग बुराइयों और अन्याय के खिलाफ लड़ने में होना चाहिए, सकारात्मक सामाजिक बदलाव में होना चाहिए, न कि हत्या और हिंसा में। ऐसे हालात में राजनीतिक दलों, नेताओं, कार्यकर्ताओं, धर्मगुरुओं और मीडिया की सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारी है कि वह आम लोगों में व्यवस्था और संस्थाओं के प्रति बढ़ रही अनास्था को रोकने के लिए जरूरी पहल करें। जब तक लगातार बढ़ रही बच्चों की असुरक्षा हमारी राजनीतिक और सामाजिक चिंता का विषय नहीं बनती, तब तक हम एक सभ्य, सुसंस्कृत और विकसित भारत नहीं बना सकते।
Date:07-07-18
उच्च शिक्षा में नए प्रयोग से शिक्षाविद दूरगामी बनाम प्रतिगामी के रूप में विभाजित
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनाने के लिए सर्च कमेटी जो पैनल तैयार करे उसका चयन अकेले सरकार न करे। इससे विवाद की गुंजाइश कम होगी।
निरंजन कुमार , ( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )
उच्च शिक्षा में सुधार को लेकर पिछले एक दशक से चल रही बहसों का एक निष्कर्ष यह रहा है कि इसमें एक क्रमबद्ध परिवर्तन की आवश्यकता है। शायद इसी के मद्देनजर भारत सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी को समाप्त कर उसकी जगह ‘भारतीय उच्च शिक्षा आयोग’ के गठन का फैसला किया है। इससे संबंधित मसौदे को लेकर शिक्षाविद दो फाड़ हो गए हैं। एक तरफ इसे प्रगतिशील, दूरगामी और प्रभावकारी बताया जा रहा है तो दूसरी ओर इसे प्रतिगामी, अदूरदर्शी और राजनीतिक हस्तक्षेप को बढ़ावा देने वाला भी बताया जा रहा है।
अच्छी बात यह है कि सरकार ने मसौदे पर सुझाव और टिप्पणियां मांगी हैं ताकि अंतिम विधेयक में उचित सुझावों को शामिल किया जा सके। इस मसौदे की धारा-24 के तहत एक परामर्शदात्री परिषद की स्थापना का प्रावधान है। यह कदम उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सहकारी संघवाद का एक अच्छा उदाहरण होगा। यूजीसी व्यवस्था में यह प्रावधान नहीं था। इस परामर्शदात्री परिषद के अध्यक्ष केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री होंगे। अन्य सदस्यों में नए आयोग के सभी सदस्यों के अतिरिक्त सभी राज्यों के उच्च शिक्षा परिषद के अध्यक्ष भी इसमें शामिल होंगे। यह बिंदुु इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ मामलों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केंद्र से कहीं अधिक बड़ी जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है।
देश में लगभग 70 प्रतिशत विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत कॉलेज राज्य सरकारों के अधीन हैं। जबकि अब तक उच्च शिक्षा संबंधित नीति निर्माण में राज्यों की भूमिका लगभग नगण्य थी। प्रस्तावित परामर्शदात्री परिषद में केंद्र और राज्य सरकारें उच्च शिक्षा से संबंधित समन्वय के बिंदुओं की पहचान करेंगी। बेहतर होगा कि इसे और व्यापक एवं समावेशी बनाते हुए केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक संघों ‘फेडक्यूटा’ और ‘एआइफुक्टो’ से एक-एक प्रतिनिधि भी इसमें शामिल किए जाएं। नया आयोग ‘न्यूनतम दखल और अधिकतम काम’,‘अनुदान कार्यों को अलग करना’, ‘इंस्पेक्टर राज का अंत’, ‘अकादमिक गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करना’, ‘नियमन और लागू कराने का अधिकार’ के सिद्धांतों पर आधारित होगा। इन सिद्धांतों में ‘नियमन और लागू कराने का अधिकार’ उल्लेखनीय है। यूजीसी इस मामले में सर्वथा दंतहीन था। अगर कोई संस्थान उसके आदेशों का अनुपालन नहीं करता था तो वह अधिक से अधिक उसका अनुदान रोक सकता था।
निजी क्षेत्र के संस्थानों की मनमानी पर तो उसका और भी कोई जोर नहीं था, लेकिन अब नियमों एवं मानकों का जानबूझकर अथवा लगातार उल्लंघन कर रहे स्तरहीन संस्थानों को बंद करने का अधिकार उच्च शिक्षा आयोग के पास होगा। अनुपालन नहीं करने की स्थिति में जुर्माना और जेल का भी प्रावधान है। इसी तरह से ‘इंस्पेक्टर राज’ के अंत की भी घोषणा कर दी गई है।
नया आयोग संस्थानों को शुरू और बंद करने के लिए मानक और नियम तय करेगा और इस आधार पर उन्हें चलाने अथवा बंद करने का आदेश दे सकेगा। नई व्यवस्था में सारी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और सूचनाएं संस्थानों की वेबसाइट पर उपलब्ध होंगी ताकि सभी को संस्थान संबंधित पूरी जानकारी हो सके और जरूरत पड़ने पर शिकायत भी की जा सके। यह समूची प्रक्रिया ‘न्यूनतम दखल और अधिकतम काम’ के सिद्धांत पर ही आधारित है। मसौदे की धारा-15(4)(एल) के तहत नया आयोग शिक्षण संस्थानों द्वारा वसूले जाने वाले शुल्क को निर्धारित करने के लिए मानक और प्रक्रिया भी बनाएगा। इस प्रावधान के महत्व को ऐसे समझा जाए कि इससे निजी संस्थानों द्वारा अनाप-शनाप फीस निर्धारित करने और वसूलने पर एक बड़ी हद तक नियंत्रण लग सकेगा। साथ ही आयोग केंद्र और राज्य सरकारों को शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के लिए जरूरी कदमों की जानकारी भी देगा।
सैद्धांतिक रूप से तो यह सही है कि एक ही निकाय में दो शक्तियां नहीं होनी चाहिए, लेकिन समस्या यह है कि अनुदान का यह कार्य मंत्रालय के अधीन किया जाना है। यह अनेक जटिलताओं को जन्म देगा, क्योंकि अनुदान प्रणाली को राजनीतिक हस्तक्षेप के साथ-साथ नौकरशाही की लालफीताशाही की दोहरी मार सहनी पड़ेगी। पहले भी अनुदान कार्य राजनीतिक हस्तक्षेप और लालफीताशाही से अछूते नहीं रहे हैं, लेकिन स्वायत्त यूजीसी के हाथ में होने से अनुदान संबंधी कामकाज अपेक्षाकृत ठीक-ठाक चलते रहे हैं। दरअसल उच्च शिक्षा में प्रोजेक्ट, रिसर्च से लेकर आधारभूत संरचना में धन का आवंटन नौकरशाही के चश्मे से नहीं किया जा सकता। खास तौर से तब और भी नहीं जब भारतीय नौकरशाही का पुराना रिकॉर्ड बहुत उत्साहवर्धक न रहा हो । अनुदान कार्यों के लिए चाहे एक अलग स्वायत्त निकाय हो अथवा यह नए आयोग के पास ही रहे, यह बहुत जरूरी है कि मंत्रालय से यह स्वतंत्र ही हो। यह भी जरूरी है कि अनुदान की प्रक्रिया पूर्णतया पारदर्शी होनी चाहिए।
प्रस्तावित उच्च शिक्षा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को लेकर भी कुछ समस्याएं हैं। मसौदे की धारा 3(6)(ए) के अनुसार एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद एवं शैक्षिक प्रशासक जिसमें उच्च शिक्षा संस्थानों के निर्माण और शासन की सिद्ध क्षमता हो, वह भी अध्यक्ष बन सकता है। यह अपने आप में अत्यंत खतरनाक प्रावधान है। इस व्यवस्था से तो कोई शक्तिशाली राजनेता या व्यवसायी और उद्योगपति, जिनके अपने कॉलेज/ विश्वविद्यालय हों अथवा शिक्षा विभाग से जुड़ा हुआ कोई प्रभावशाली नौकरशाह भी अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज हो सकता है। उच्च शिक्षा की इससे जो दुर्दशा होगी उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
यह प्रावधान स्पष्ट होना चाहिए कि अध्यक्ष सिर्फ और सिर्फ विश्वविद्यालय का प्रोफेसर ही होगा, क्योंकि उच्च शिक्षा की जटिलता एवं उसे समग्रता में केवल एक प्रोफेसर ही समझ सकता है। यह भी चिंताजनक है कि आयोग के 12 सदस्यों में केवल दो प्रोफेसर होंगे जबकि यूजीसी अधिनियम में 10 सदस्यों में न्यूनतम चार प्रोफेसरों का प्रावधान था। यह जरूरी है कि नए बनने वाले आयोग में कम से कम पांच प्रोफेसर हों और न्यूनतम चार सरकारी विश्वविद्यालयों से हों। बेहतर होगा कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बनाने के लिए सर्च कमेटी जो पैनल तैयार करे उसका चयन अकेले सरकार न करे। इससे विवाद की गुंजाइश कम होगी। और भी अच्छा होेगा कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक उच्च प्राधिकार समिति ही इसका चयन करे। समिति के अन्य सदस्यों में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और एचआरडी मंत्री शामिल हो सकते हैं।
Date:06-07-18
अफवाह बनाम सूचना
संपादकीय
सोशल मीडिया मंचों के जरिए फैलाई जाने वाली भ्रामक सामग्री और अफवाहों को लेकर सरकार की चिंता स्वाभाविक है। इन मंचों का दुरुपयोग किस खतरनाक हद तक पहुंच चुका है यह इसी से समझा जा सकता है कि वॉट्सऐप और फेसबुक पर वायरल हुई फर्जी सूचनाओं व संदेशों के कारण हाल में कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। महाराष्ट्र के धुले जिले में बच्चा चुराने के शक में भीड़ ने पांच लोगों को मार डाला; झारखंड में भी भीड़ ने बच्चा-चोरी के शक में सात लोगों की हत्या कर दी। इसके अलावा, और कई राज्यों में भी अफवाहें फैलाने और उनके घातक नतीजे सामने आए हैं। इन घटनाओं के मद्देनजर सरकार ने उचित ही तीन दिन पहले वॉट्सऐप को नोटिस जारी किया। सरकार ने कहा है कि लोगों को भड़काने वाले फर्जी संदेशों के आदान-प्रदान में वॉट्सऐप का दुरुपयोग अस्वीकार्य है; इसलिए अमर्यादित और नफरत फैलाने वाले संदेशों को फैलने से रोकने के लिए वाट्सऐप तत्काल कदम उठाए; वाट्सऐप अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता।
वॉट्सऐप दुनिया के सबसे बड़े मैसेजिंग प्लेटफार्मों में से एक है। भारत में इसके बीस करोड़ से अधिक उपयोगकर्ता हैं और भविष्य में यह संख्या और बढ़ेगी ही। वाट्सऐप ने सूचनाओं व छवियों-तस्वीरों के आदान-प्रदान से लेकर मनोरंजन तक एक बहुत आसान, सर्वसुलभ और तुरंता माध्यम के रूप में अपनी बेजोड़ जगह बना ली है। व्यक्तियों के स्तर पर तो इसका बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हो ही रहा है, समूह बनाने तथा सामूहिक विचार-विमर्श और सामूहिक गतिविधियां चलाने में भी यह मददगार साबित हुआ है। पर किसी ने सोचा न होगा कि वॉट्सऐप का जानलेवा इस्तेमाल भी हो सकता है। बेशक, इसके लिए सिर्फ वॉट्सऐप को दोष नहीं दिया जा सकता। हमारे समाज में जो गैर-जिम्मेदारी, नागरिक बोध का अभाव, प्रतिशोध की भावना, नफरत फैलाने वाले निहित स्वार्थों की जैसी सक्रियता मौजूद है उसकी अभिव्यक्ति सोशल मीडिया मंचों पर भी होती रहती है। जब सूचना के माध्यम सीमित थे तो हर स्तर पर यह प्रबंध किया जा सकता था कि वे छन कर ही यानी प्रामाणिक होने पर ही लोगों के सामने आएं। लेकिन जहां हर व्यक्ति सूचना प्रदाता और सूचना प्रसारक हो, वहां प्रामाणिकता की छानबीन बहुत मुश्किल हो गई है। इसलिए सोशल मीडिया के मंच सूचना से ज्यादा झूठ, अर्धसत्य, भ्रम, अफवाह, चरित्र हननऔर विद्वेष फैलाने के माध्यम बन रहे हैं। क्या इस पर रोक लग सकती है?
वॉट्सऐप का कहना है कि इसके लिए सामूहिक प्रयास की जरूरत है; इसके लिए सरकार, नागरिक समूहों और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को मिलकर काम करना पड़ेगा। खुद वॉट्सऐप कुछ तकनीकी उपाय करने जा रहा है; इससे पता चलेगा कि किसी ने कब संदेश लिखा और कब भेजा; संदेश भेजने वाले ने खुद लिखा है या अफवाह फैलाने के लिए भेजा गया है। दरअसल, उपयोगकर्ता संदेश या सूचना को लेकर सतर्कता बरतें, इसके लिए कई तकनीकी चिह्न और उपाय विकसित किए जा सकते हैं। लेकिन जहां संगठित और सुनियोजित रूप से झूठ और विद्वेष फैलाया जाता हो, वहां कार्रवाई को लेकर सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती।
Date:06-07-18
खींच दी लक्ष्मण रेखा
फैजान मुस्तफा
पांच सदस्यीय संविधान पीठ का 535 पृष्ठीय सर्वसम्मत फैसला स्पष्टतया मोदी सरकार के खिलाफहै, जो दिल्ली के उपराज्यपाल के तमाम फैसलों को तार्किक ठहराती रही है। यह केजरीवाल की आप सरकार की जीत है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अब स्वयं को पीड़ित नहीं बता पाएंगे और न ही अपनी सरकार के प्रदर्शन के लिए उपराज्यपाल पर आरोप नहीं लगा सकेंगे। इस फैसले के आधिकारिक निष्कर्ष यह है कि उपराज्यपाल केवल ‘‘प्रशासक’हैं, और सीमित अर्थो में प्रशासनिक मुखिया हैं।
मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाले दिल्ली के मंत्रिमंडल की सलाह को मानने को बाध्य हैं। उन्हें अपने तई कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है। उन्हें मंत्रियों की सलाह या राष्ट्रपति को प्रेषित मामलों पर आए आदेशों के अनुसार चलना है। वह प्रत्येक मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। हर मामले में उनकी सहमति की जरूरत नहीं है। वह अपवादस्वरूप स्थितियों में ही मामलों को राष्ट्रपति के पास प्रेषित कर सकते हैं, न कि ‘‘हर दिन’ या ‘‘मशीनी अंदाज’ में। इसका अर्थ हुआ कि सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले से दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया है, जिसमें कहा गया था कि उपराज्यपाल अपने तई स्वतंत्र हैं, और मंत्रियों की सलाह को मानने को बाध्य नहीं हैं। सच तो यह है कि कोईराज्यपाल/उपराज्यपाल अपने तई कार्य करने को स्वतंत्र नहीं होता। अपने वरिष्ठों के प्रति निष्ठा के मामले में भारतीय राज्यपाल अपने ब्रिटिश पूर्ववर्तियों का अनुसरण करते हैं। इस फैसले के आलोक में बेहतर तो यह हो कि दिल्ली के उपराज्यपाल बोरिया-बिस्तर समेट कर अपना इस्तीफा सौंप दें। लेकिन यह भी है कि भाजपा के राज्यपालों का रवैया भी कांग्रेस के राज्यपालों जैसा ही है।
न तो उन्होंने अपने स्तर पर स्वतंत्रता दिखाई है, और न ही आत्मसम्मान। कुछ तो ऐसे हैं जो पार्टी कार्यकर्ताओं की भांति कार्य करते हैं, और उनके बयान और ट्वीट्स को देखें तो उनमें बेहद पक्षपात और ध्रुवीकरण करने की नीयत दिखाई पड़ती है। जस्टिस दीपक मिश्र ने इस मामले में संवैधानिक विमर्श को ऊंचे पायदान पर पहुंचा दिया है। एक सौ 20 पृष्ठों में संविधानवाद समेत हमारे उदार संवैधानिक लोकतंत्र के बारह बुनियादी सिद्धांतों या संविधान के केंद्रीय विचार के रूप में सीमित अधिकारों की अवधारणा पर रोशनी डाली। भारत के प्रधान न्यायाधीश को साधुवाद देना होगा कि उन्होंने जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस एएम खानविलकर के साथ मिलकर 237 पृष्ठों में जोरदार ढंग से अपना मत रखते हुए बहुमत का फैसला दिया। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने प्रधान न्यायाधीश से सहमति जताते हुए कहा कि अनेक देशों में निरंकुशता के चलते लोकतंत्र को खतरा पैदा हो गया है। ‘‘संवैधानिक नैतिकता’ बनाए रखना जरूरी है। उन्होंने चार बुनियादी सिद्धांतों का उल्लेखकिया जिनमें उन्होंने धर्मनिरपेक्ष विचार को भी शामिल किया। जस्टिस अशोक भूषण ने 123 पृष्ठीय मत में फैसले से सहमति जताते हुए प्रतिनिधि सरकार तथा संविधान की सोद्दश्य विवेचना पर बल दिया। उन्होंने कहा कि अदालतों को प्रतिनिधि लोकतंत्र, कानून के शासन तथा संविधान की भावना को पुष्ट करने के लिए तयात्मक व्याख्या करनी चाहिए।
उन्होंने उचित ही कहा कि संविधान के मूल को ‘‘संविधान की भावना’ तथा अंगीकृत उद्देश्य के आलोक में समझा जाना चाहिए। थॉमस जेफरसन का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सरकार को शासितों की सहमति से शक्ति मिलनी चाहिए। अपने फैसले के अंत में इन आदशरे का जिक्र करते हुए उन्होंने दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्तियों पर कानून की तरजीह होने की बात कही। किसी संवैधानिक प्राधिकार की निरंकुशता पर तल्ख टिप्पणी की। सच तो यह है कि संवैधानिक पद पर आरूढ़ किसी को भी नहीं बख्शा। पीठों के गठन तथा न्यायाधीशों के चयन में संविधान के उच्च सिद्धांतों और तकाजों की बात कही। प्रधान न्यायाधीश ने भी लोकतंत्र पर संभ्रांत वर्ग के एकाधिकार और सरकार के संभ्रांतीय हो जाने की बात कही। लेकिन हैरतन उन्होंने बहुमतवादिता की बाबत कुछनहीं कहा जबकि लोकप्रियता के नाम पर ऐसी प्रतिनिधि सरकारें कई दफा सत्तारूढ़ हो जाती हैं जो अल्पसंख्यकों के खिलाफकार्य करती हैं। इस प्रकार उस संवैधानिक करार की भावना को ही चोटिल कर डालती हैं, जिसके आधार पर स्वयं राष्ट्र का निर्माण हुआ है।
अलबत्ता, यह जरूर कहा कि प्रतिनिधि सरकार तक सभी की पहुंच होनी चाहिए और ऐसी सरकार को जैसा कि उन्होंने कहा ‘‘संविधान के अंतकरण’ की बलि नहीं चढ़ानी चाहिए। बीआर अंबेडकर की तरह ही जस्टिस मिश्र ने स्वीकार किया कि ‘‘संवैधानिक नैतिकता’ संवैधानिक सिद्धांतों की अनुपालना में ही निहित है। यह कुदरन नहीं है, बल्कि सतत प्रयासों से संवैधानिक लोकतंत्र का यह बुनियादी मू्ल्य सहेजा जाता है। इसी प्रकार उन्होंने ‘‘संवैधानिक वस्तुनिष्ठता’ की बात कही। कहा कि यह विचार संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है ताकि विधायिका और कार्यपालिका अपने नियत दायरे में रह कर कार्य निष्पादन कर सकें। ऐसा इसलिए कि ‘‘विधिक संविधानिक विास’ शक्तियों के वितरण और पृथकीकरण पर आधारित है। इनमें से किसी के पास एकाधिकार नहीं है। कोई बड़ा या खुदमुख्तियार नहीं है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार अनुच्छेद 239 एए (4) में ‘‘कोईमामला’ का अर्थ ‘‘प्रत्येक मामला’ नहीं होता। इस प्रकार उपराज्यपाल किसी मामले को राष्ट्रपति को प्रेषित नहीं कर सकते। उन्हें ‘‘संवैधानिक वस्तुनिष्ठता’ का ध्यान रखना होगा। इस अधिकार को दुर्लभतम से दुलर्भ मामलों में ही इस्तेमाल कर सकते हैं, जिनके पीछे ठोस और वैध कारण होने चाहिए।
उपराज्यपाल मंत्रिमंडल के प्रत्येक फैसले को बदलने का अधिकार नहीं रखते। भिन्न राय रखनी ही है, इसलिए मंत्रिमंडल के फैसले से भिन्न रवैया अख्तियार नहीं कर सकते। प्रधान न्यायाधीश ने स्पष्ट कहा है कि उपराज्यपाल की मंत्रिमंडल से भिन्न राय कभी भी इस अवधारणा पर आधारित नहीं होनी चाहिए कि ‘‘भिन्न राय रखने का उनके पास अधिकार’ है। मत भिन्नता ‘‘संवैधानिक विास’ पर आधारित होनी चाहिए। इसी के साथ मंत्रियों को भी ध्यान रखना चाहिए कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, और उपराज्यपाल बराय नाम मुखिया नहीं हैं, बल्कि उनके पास प्रशासक की शक्तियां हैं। दिल्ली विशेष प्रकार का केंद्र शासित प्रदेश है। न तो उपराज्यपाल को और न ही मंत्रियों को ऐसा सोचना चाहिए कि वे महत्त्वपूर्ण हो गएहैं, बल्कि उन्हें संवैधानिक कायदों, मूल्यों और अवधारणों के मुताबिक अपने दायित्व का निवर्हन करना है।
Date:06-07-18
यह विवाद अब खत्म होना चाहिए
नीरजा चौधरी , वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिल्ली में अधिकारों की जंग अब भी जारी है। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच तनातनी खत्म हो जाएगी। मगर ‘ट्रांसफर-पोस्टिंग’ विवाद ने स्थिति को फिर से लगभग वहीं पहुंचा दिया है, जहां से यह पूरा तनाव शुरू हुआ था। नया विवाद उस वक्त शुरू हुआ, जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने नौकरशाहों के तबादले और तैनाती के लिए एक नए सिस्टम की शुरुआत की और फैसले पर मंजूरी देने का अधिकार मुख्यमंत्री को दे दिया। नौकरशाहों ने इसे मानने से इनकार कर दिया है। उनकी नजर में यह आदेश ‘कानूनी रूप से गलत’ है। इसका अर्थ है कि अधिकारों पर छाए जिस संदेह के बादल को सर्वोच्च न्यायालय ने दूर किया, वह उसके फैसले के चंद घंटों के भीतर ही फिर से दिल्ली की सियासत पर छा गया है।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश अधिकारों की एकतरफा पूर्णता (एब्सोल्यूटिज्म) और अराजकता के खिलाफ आया था। अगस्त, 2016 में जब दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में उप-राज्यपाल को ज्यादातर अधिकार दे दिए थे, तो मुख्यमंत्री और उनकी टीम के हाथ-पैर एक तरह से बंध गए थे। तब से यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा था कि जनता की चुनी हुई सरकार नहीं, बल्कि केंद्र द्वारा मनोनीत शख्स ही क्या दिल्ली के लिए फैसला लेगा? एक अजीब उलझी हुई स्थिति बन गई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सुलझा दिया। अदालत ने साफ-साफ कहा कि उप-राज्यपाल पूर्ण प्रशासक नहीं हैं। उन्हें मंत्रिपरिषद के सभी निर्णय जरूर बताए जाने चाहिए, लेकिन उनकी सहमति आवश्यक नहीं है। अदालत ने यह भी साफ कर दिया कि भूमि, कानून-व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर अन्य सभी विषयों पर दिल्ली सरकार कानून बना सकती है और उसे लागू भी कर सकती है।
शीर्ष अदालत का यह फैसला एक राहत के रूप में आया था। उम्मीद थी कि सब अपना-अपना काम करेंगे। मगर ऐसा नहीं हो सका। दिल्ली की जिस ‘वैधानिक स्थिति’ की बात नौकरशाह कर रहे हैं, उसकी व्याख्या जरूरी है, मगर एक आम समझ यही है कि ‘ट्रांसफर-पोस्टिंग’ का बुनियादी अधिकार सरकार के पास होता है। अगर जनता का चुना हुआ कोई प्रतिनिधि अपना पीए या सचिव तक नियुक्त नहीं कर सके, तो फिर वह जनता के लिए फैसला किस तरह ले सकेगा? फिर, कोई कानूनी पेच अगर है भी, तो उसे मिल-बैठकर सुलझाने में ही समझदारी है। सबकी मंशा विवाद दूर करने या रास्ता निकालने की होनी चाहिए, न कि उसे और उलझाने की।
अगर सर्वोच्च अदालत के आदेश के बाद भी दिल्ली के नौकरशाह सरकार की बात नहीं मानते, यह एक बड़ी मुसीबत को न्योता देने जैसा होगा। यह हमारे संघीय ढांचे पर चोट होगी। उनका यह रवैया उस लक्ष्मण रेखा से बाहर जाने जैसा होगा, जिसकी हद में रहने की अपेक्षा सभी सांविधानिक संस्थाओं से की जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि अगर सांविधानिक संस्थान फेल होते हैं, तो ‘नेशन’ (राष्ट्र) फेल हो जाएगा। उप-राज्यपाल हो या मुख्यमंत्री या फिर नौकरशाह, सभी खुद में एक सांविधानिक संस्थान हैं। इनमें अधिकारों को लेकर कोई उलझन या टकराव नहीं होना चाहिए। इसे किसी एक व्यक्ति की प्रतिष्ठा का मसला भी नहीं बनने देना चाहिए। लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि सभी दायरे में रहें। दायरे से बाहर जाने का अर्थ होगा, लोकतंत्र को नकारना।
सवाल यह भी है कि दिल्ली आखिर इस कदर जंग का अखाड़ा क्यों बन गई है? इसकी एक बड़ी वजह यह है कि केंद्र और राज्य, दोनों जगह अलग-अलग पार्टियों की सरकार है। दुर्भाग्य से इन दोनों दलों में छत्तीस का आंकड़ा है। दिल्ली में सरकार चला रही आम आदमी पार्टी लगातार केंद्र की भारतीय जनता पार्टी को निशाना बनाती रही है। यहां तक कि उसने प्रधानमंत्री पर भी तंज भरे हमले किए हैं। यह एक नई तरह की राजनीति है, बिल्कुल गैर-पारंपरिक। आम आदमी पार्टी की इस रणनीति की कठोर जवाबी प्रतिक्रिया भाजपा भी लगातार देती रहती है।
हां, दोनों जगह यदि एक पार्टी की सरकार होती, तो कड़वाहट इस कदर नहीं होती। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का उदाहरण सामने है, जिनके शासनकाल में कई काम हुए, पर विवाद शायद ही हुआ। एक मसला दिल्ली की सांविधानिक स्थिति से भी जुड़ा है। यह पूर्ण राज्य नहीं है। यह दर्जा इसे दिया भी नहीं जा सकता, जो सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार के अपने फैसले में भी स्पष्ट कर दिया है। इसका अर्थ है कि दूसरे राज्यों की तरह यहां राज्य सरकार अपनी मनमर्जी नहीं कर सकती। ऐसे में, मिल-जुलकर ही काम करना उचित है, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का निहितार्थ भी है।
अच्छा तो यही होगा कि दिल्ली सरकार के कामकाज में कोई गैर-सांविधानिक दखल न हो। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि और सरकार के नुमाइंदे, दोनों मिलकर काम करें। फिर भी यदि विवाद बना रहता है, तो केंद्र सरकार को खासा नुकसान होगा। दिल्ली के मतदाताओं में आम आदमी पार्टी को लेकर सहानुभूति बढ़ने लगी है। उन्हें लगने लगा है कि अरविंद केजरीवाल की सरकार को काम नहीं करने दिया जा रहा है। यह आम आदमी पार्टी के समर्थन में जा सकता है। चूंकि अदालती आदेश के बाद लोग ज्यादा ‘डिमांडिंग’ होंगे, स्थानीय सरकार से उनकी अपेक्षाएं बढेंगी, और वे सरकार से जवाबदेही की उम्मीद भी पालेंगे। इसीलिए केंद्र व राज्य का बेवजह का तनाव लोगों को भाजपा से दूर कर सकता है। कोई दूसरा राज्य भी इस विवाद को पसंद नहीं करेगा। वहां का नेतृत्व आम आदमी पार्टी के साथ खड़ा हो सकता है। इससे उन सबमें एक नई एकता बननी शुरू हो जाएगी।
बहरहाल, इन सबसे अधिक चिंता हमें उस सांविधानिक संकट की करनी चाहिए, जो नौकरशाहों द्वारा दिल्ली सरकार के आदेश को न मानने की वजह से पैदा होगा। राजनीति अपनी जगह है, मगर जब सियासत संविधान को ही निगलने लगे, तो हमें गंभीर हो जाना चाहिए। यह स्थिति देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को भी नुकसान पहुंचाएगी। साफ है, केंद्र को संभलकर कदम बढ़ाना होगा। राजनीतिक और सांविधानिक, दोनों रूप में यह भाजपा के लिए फायदेमंद नहीं है।
Date:06-07-18
नशे के खिलाफ
संपादकीय
पंजाब के पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार अर्मंरदर सिंह ने वादा किया था कि वह पंजाब को पूरी तरह नशे से मुक्त कर देंगे। अब जब वहां अर्मंरदर सिंह की सरकार लगभग डेढ़ साल का कार्यकाल पूरा कर चुकी है, तो इस वादे का दबाव दिखने लग गया है। इस बीच दावे भले ही बहुत किए गए हों, लेकिन पंजाब में नशे का असर कुछ कम हुआ हो, यह प्रमाणित तौर पर नहीं कहा जा सकता। पूरे राज्य का नशे की गिरफ्त से मुक्त होना तो खैर बहुत दूर की बात है।
सरकार पर पड़ने वाला यह दबाव इसलिए भी बढ़ गया है कि पिछले दिनों कई सर्वेक्षणों में नशे की वजह से होने वाली मौतों की कई खबरें आई हैं। इसी दबाव के चलते तीन दिन पहले पंजाब के मंत्रिमंडल ने केंद्र सरकार से यह सिफारिश कर दी थी कि नशे का कारोबार करने वालों के लिए कानून में फांसी का प्रावधान किया जाए। हो सकता है कि इसके पीछे का मकसद इस कारोबार में लगे लोगों में दहशत पैदा करना हो, लेकिन इसे गेंद को केंद्र सरकार के पाले में डालने की तरह से ही देखा गया। अब मुख्यमंत्री का एक नया बयान आया है, जिसमें कहा गया है कि पुलिसकर्मियों समेत राज्य सरकार के सभी कर्मचारियों का डोप टेस्ट होगा, ताकि पता चल सके कि वे कहीं नशे की गिरफ्त में तो नहीं हैं? उनका कहना है कि यह टेस्ट सरकारी कर्मचारियों की भर्ती और पदोन्नति के समय भी होगा।
पंजाब को पिछले कुछ साल में तरह-तरह के मादक पदार्थों ने अपनी गिरफ्त में लिया है, उसके चलते निश्चित तौर पर कुछ सरकारी कर्मचारी भी इस नशे के शिकार बने होंगे। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि अगर कोई कर्मचारी नशे में लिप्त पाया जाता है, तो उसके खिलाफ क्या कार्रवाई की जाएगी? भर्ती और पदोन्नति के समय अगर उसमें नशे की प्रवृत्ति पाई जाती है, तो उसे इससे वंचित किया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसी स्थिति नहीं है, तब नशे में लिप्त कर्मचारी को क्या सजा मिलेगी यह अभी स्पष्ट नहीं है। सवाल यह भी है कि क्या उन्हें दंडित करके समाधान निकाला जा सकता है?
यह मुद्दा न तो सरकार की संजीदगी और न ही उसकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने का है। नशे जैसी सामाजिक बुराई के खिलाफ जब सरकारें खड़ी होती हैं, तो उसकी कई सीमाएं होती हैं। हमारे सामने दो चीजें हैं, एक तरफ तो नशे का कारोबार है, जो पंजाब में गांव-गांव तक फैल चुका है। कहा जाता है कि इसे कई स्तरों पर राजनीतिक और पुलिस संरक्षण भी मिला है। यानी वे सब लोग, जो इस कारोबार से अपने वारे-न्यारे कर रहे हैं। दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो इसका शिकार हैं।
नशे के कारोबारी सिर्फ उनकी जिंदगी से ही खिलवाड़ नहीं कर रहे, बल्कि कई पीढ़ियों को बरबाद कर रहे हैं। जरूरी होता है कि इन दोनों चीजों से अलग-अलग तरह से निपटा जाए। नशे के कारोबारियों और उसे संरक्षण देने वालों से निपटना सरकार का काम है और इस मामले में सख्ती दिखानी ही होगी। लेकिन नशे के शिकार लोगों के खिलाफ सख्ती उनकी समस्या को और बढ़ाएगी ही। उन्हें सख्ती नहीं, सहानुभूति की जरूरत है। यह काम बड़े पैमाने पर नशा मुक्ति केंद्र खोलकर ही किया जा सकता है। बेहतर होगा कि यह काम सरकार की बजाय स्वयंसेवी संगठन और प्रशिक्षित लोग करें। किसी प्रदेश को रातोंरात नशे से मुक्त नहीं किया जा सकता, इसकी प्रक्रिया लंबी चलेगी ।
Date:06-07-18
Why we need Governors
The case made by Mahatma Gandhi for their all-pervasive moral influence still holds
Gopalkrishna Gandhi is distinguished professor of history and politics, Ashoka University
There is a disquiet in Raj Nivases and Bhavans today. What does the Constitution Bench’s order betoken? Are we, Lieutenant Governors and Governors must be thinking, redundant? Are we a mere ornament, like the chandelier overhead or the carpet underfoot? Is there nothing to our office, to us, than having an ADC escort us, a liveried chaperon wait on us, and callers address us as ‘Your Excellency’? Is signing the files that come to us in ‘aid and advice’ from our Chief Ministers and Ministers, receiving the President and Vice President and Prime Minister when they arrive at the airport, driving with them into the city, and then, after hosting a banquet for them, seeing them off our sole function?
Message from Bengal
The most telling answer to those questions has been provided by M.K. Gandhi. On October 30, 1946, Gandhi was in Calcutta. Consistently with his sense of etiquette, he called on the Governor. The last Governor of undivided — and communally disturbed — Bengal, Frederick Burrows, asked him, “What would you like me to do?” A popular government headed by Huseyn Shaheed Suhrawardy had been installed in the State and maintaining peace in the State was now the responsibility of the elected ministry. The answer to “What would you like me to do?” was courteous, but crisp. “Nothing, Your Excellency,” Gandhi said. He meant that after the British declaration to quit, the Governor’s position in India’s provinces was that of a constitutional head of state and he must “let” the representative government do its duty.
Gandhi’s advice was consistent with Walter Bagehot’s dictum about the Crown having ‘the right to be consulted, the right to encourage, the right to warn’ but not to be the engine of government. And it anticipated the Supreme Court’s July 4, 2018 order. But did he mean that they should go, their offices and their carpets rolled up?
He did not. And so, returning to the question posed at the head of this column, are Governors then a mere and rather costly superfluity? Is the Governor then, in a word, just a figurehead ? Certainly not. Now is that not odd, very odd? Can someone, something or anyone, anything, that has no ‘role’ be yet valuable? Curiously enough, yes.
Constituent Assembly Debates
During the Constituent Assembly’s deliberations on the office of the Governor, the thoughtful S.N. Agrawal, then Principal of a College at Wardha, later better known as Shriman Narayan, a dedicated Gandhian who was later to be a Governor himself, reflected on it. In the last weeks of 1947 he wrote in an article: “In my opinion there is no necessity for a Governor. The Chief Minister should be able to take his place and peoples’ money to the tune of Rs 5000 a month for the sinecure of the Governor will be saved.” Gandhi, whose advice to Burrows we have noted, responded to Agrawal in Harijan (December 21, 1947) as follows: “There is much to be said in favour of the argument advanced by Principal Agrawal about the appointment of provincial Governors. I must confess that I have not been able to follow the proceedings of the Constituent Assembly… Much as I would like to spare every pice of the public treasury it would be bad economy to do away with provincial Governors and regard Chief Ministers as a perfect equivalent. Whist I would resent much power of interference to be given to Governors, I do not think that they should be mere figureheads. They should have enough power enabling them to influence ministerial policy for the better. In their detached position they would be able to see things in their proper perspective and thus prevent mistakes by their cabinets. Theirs must be an all-pervasive moral influence in their provinces.”
This has to be one of the best summations of the value of that office and, indeed, of the difference between ‘interference’ and ‘influence’.
A look at the attendees at one of the early conferences of Governors on May 8, 1949 would show present in the domed hall an array of Governors, each strong-minded but self-composed, not interested in putting his Chief Minister in the shade or himself in the limelight: the industrialist Homi Mody (United Provinces), the veteran non-Congress leader M.S. Aney (Bihar), the free-thinking lawyer Asaf Ali (Orissa), the old-time Congressman K.N. Katju (West Bengal), Bhavsinhji, the sagacious Maharaja of Bhavnagar (Madras), the ICS veteran C.M. Trivedi (Punjab). They did not look upon themselves as figureheads who could do nothing, nor as martinets who could do any and everything. They knew that they lacked power, but wielded influence, influence to do good, as the Governor General, Prime Minister and Deputy Prime Minister of the day wanted them to, “without friction and without prejudice to the march of democracy.”
The key words to be taken away from those are ‘interference’ versus ‘influence’, ‘detached position’ versus ‘figurehead’, ‘perspective’ versus ‘prejudice’ and overarching all this, the key phrase: ‘all-pervasive moral influence’.
Vital Positions
Governors and, for that matter, the President of India are vital, not because they can hold up or hold back anything — indeed, they should not and cannot — but because they can and should exert the moral voltage, the sense of the rightness and wrongness of things that would underscore the republican credence and democratic credentials of elected governments.
This is where the choice of the incumbent becomes crucial. I have given a few of the names of the first crop of Governors attending the Governors’ Conference in May 1949. ‘But,’ the despondent cynic may ask, ‘do we have such persons in our midst today?’ At first pulse, it may seem we do not, and that we are going through a drought in stature. But reflection would correct that thought. Women and men in education, commerce, administration, science, medicine, law and public life within and outside of politics, across parties, can surely be found who, as well-wishers, will strengthen and not threaten elected governments working ‘for the better’.
Chief Ministers and Prime Ministers head the government. Governors and Presidents head the state. Governments govern, states sustain. And in a democratic republic, the people power both. They do so, wanting the Chief Minister to act conscientiously and the Governor to act constitutionally, to ensure self-government is good government, swa-raj is also su-raj.
The country has to congratulate the Aam Aadmi Party and its leader, Delhi Chief Minister Arvind Kejriwal, for having elicited from the Supreme Court a benchmark ruling. But it can do more. It can reflect on how, as a Chief Minister actuates a popular mandate, the Governor exercises that “all-pervasive moral influence”, both together providing the people in their jurisdiction the assurance that they are in secure and mutually composed, not conflicted, hands